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एडिटोरियल

  • 31 May, 2024
  • 23 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

आपदा प्रतिरोधी भारत

यह एडिटोरियल 30/05/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Cyclone Remal aftermath shows why it’s necessary to build disaster-resilient infrastructure” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में आपदा जोखिम की स्थिति और आपदा-प्रत्यास्थी अवसंरचना के निर्माण की आवश्यकता के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

प्राकृतिक आपदाएँ, चक्रवात, हिंद महासागर सुनामी 2004, चक्रवात रेमल, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, चरम मौसमी घटनाएँ, हीट वेव, आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंडाइ फ्रेमवर्क, 'ह्योगो कार्रवाई प्रारूप, चक्रवात बिपरजॉयजोशीमठ भूमि अवतलन संकट,2022

मेन्स के लिये:

भारत में आपदा प्रबंधन से संबंधित रूपरेखा, भारत में आपदा संबंधी जोखिम को बढ़ाने वाले कारक।

भारत एक विशाल देश है जो विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के लिये प्रवण है। वर्ष 1999 में ओडिशा में आए चक्रवातों के प्रकोप से लेकर वर्ष 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी और हाल ही में पूर्वोत्तर भारत में रेमल चक्रवात (Cyclone Remal) के कारण हुए भूस्खलन तक—देश ने प्रकृति की विनाशकारी शक्ति का सामना किया है।

जबकि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) का गठन एक सकारात्मक कदम है, स्वयं आपदाओं की प्रकृति में व्यापक परिवर्तन आया है। प्रायः जलवायु परिवर्तन से प्रेरित चरम मौसमी घटनाएँ अधिक बारंबार और गंभीर होती जा रही हैं। ग्रीष्म लहर/ हीट वेव जैसे नए खतरे उभर रहे हैं और इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि बहु-जोखिम आपदाओं (multi-hazard disasters) का उदय हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप सोपानी प्रभाव और कहीं अधिक विनाश की स्थिति बन रही है।

इस गंभीर परिदृश्य में, महज प्रतिक्रियात्मक उपाय ही अब पर्याप्त नहीं हैं। भारत को एक ऐसे अग्रसक्रिय दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो आपदा की पूर्वतैयारी या तत्परता (disaster preparedness) को प्राथमिकता दे।

भारत में आपदा प्रबंधन से संबंधित प्रमुख ढाँचा

  • आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005: आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 (Disaster Management Act of 2005) ने भारत में राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तर पर आपदा प्रबंधन के लिये विधिक एवं संस्थागत ढाँचा प्रदान किया है।
    • जबकि आपदा प्रबंधन का प्राथमिक उत्तरदायित्व राज्यों पर है, केंद्र सरकार लॉजिस्टिक्स और वित्तीय सहायता प्रदान करने के माध्यम से राज्य सरकारों के प्रयासों का समर्थन करती है।
  • आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत संस्थागत ढाँचा:
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA): यह प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित शीर्ष निकाय है जो आपदा प्रबंधन के लिये नीति, योजना और दिशानिर्देश तैयार करने के लिये ज़िम्मेदार है।
      • NDMA प्राकृतिक और मानवजनित, दोनों प्रकार की आपदाओं से निपटता है तथा प्रवर्तन एवं कार्यान्वयन का समन्वय करता है।
    • राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (National Executive Committee- NEC): यह NDMA की सहायता करती है, जिसके अध्यक्ष केंद्रीय गृह सचिव होते हैं और इसमें कई सचिव एवं अधिकारी शामिल होते हैं।
      • यह आपदा प्रबंधन के लिये राष्ट्रीय योजना तैयार करती है और उसकी निगरानी करती है तथा आपदा की स्थिति में प्रतिक्रियाओं का समन्वय करती है।
    • राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (State Disaster Management Authority- SDMA): इसके अध्यक्ष संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री होते हैं। यह राज्यस्तरीय आपदा प्रबंधन नीतियों एवं योजनाओं के निर्माण, कार्यान्वयन के समन्वय और राज्य विकास योजनाओं में शमन उपायों को एकीकृत करने के लिये ज़िम्मेदार है।
    • ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (District Disaster Management Authority- DDMA): इसका नेतृत्व जिला कलेक्टर द्वारा किया जाता है, जबकि सह-अध्यक्ष के रूप में एक निर्वाचित प्रतिनिधि शामिल होता है।
      • यह ज़िला-स्तरीय आपदा प्रबंधन योजनाएँ तैयार करता है और उनका क्रियान्वयन करता है तथा राष्ट्रीय एवं राज्य नीतियों का अनुपालन सुनिश्चित कराता है।
    • स्थानीय प्राधिकरण: इसमें पंचायती राज संस्थाएँ (PRIs), नगर निकाय, ज़िला एवं छावनी बोर्ड और नगर नियोजन प्राधिकरण शामिल हैं। यह क्षमता निर्माण, राहत, पुनर्वास और आपदा प्रबंधन योजनाएँ तैयार करने के लिये ज़िम्मेदार है।
  • प्रमुख संस्थान:
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (National Institute of Disaster Management- NIDM): यह क्षमता विकास, प्रशिक्षण, अनुसंधान और दस्तावेज़ीकरण पर ध्यान केंद्रित करता है।
      • यह संस्थान NDMA के दिशानिर्देशों के तहत कार्य करता है और आपदा प्रबंधन के मामले में ‘उत्कृष्टता केंद्र’ (Centre of Excellence) बनने का लक्ष्य रखता है।
    • राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (National Disaster Response Force- NDRF): यह रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल और परमाणु आपात स्थितियों सहित प्राकृतिक एवं मानवजनित आपदाओं के लिये विशेष प्रतिक्रिया बल है।
      • यह NDMA के निर्देशन में कार्य करता है और इसके आठ बटालियन विभिन्न स्थानों पर तैनात हैं।
  • विभिन्न समितियाँ:
    • प्राकृतिक आपदा प्रबंधन पर मंत्रिमंडल समिति (Cabinet Committee on Management of Natural Calamities- CCMNC): यह प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन की देखरेख करती है, निवारक उपाय सुझाती है और जन जागरूकता को बढ़ावा देती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएँ:
    • आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क (Sendai Framework for Disaster Risk Reduction- SFDRR): इसे मार्च 2015 में आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन के दौरान अंगीकृत किया गया था और भारत भी इसका हस्ताक्षरकर्ता है।
      • भारत व्यवस्थित एवं सतत प्रयासों के माध्यम से इस ढाँचे के तहत निर्धारित सात लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये समर्पित है।
    • ‘ह्योगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन’ (Hyogo Framework for Action- HFA): इसे आपदा के कारण जीवन और आर्थिक एवं पर्यावरणीय संपत्तियों की हानि को कम करने के लिये विश्व स्तर पर अपनाया गया है तथा भारत भी इसका हस्ताक्षरकर्ता है।
      • HFA ने तीन रणनीतिक लक्ष्य और पाँच प्राथमिक कार्य क्षेत्र निर्धारित किये हैं, जो आपदा जोखिम न्यूनीकरण को सतत विकास नीतियों, क्षमता निर्माण, तैयारी एवं भेद्यता न्यूनीकरण में एकीकृत करने पर केंद्रित हैं।

भारत के समक्ष विद्यमान प्रमुख आपदा संबंधी खतरे

  • बाढ़: भारत में बार-बार, विशेष रूप से मानसून के मौसम में, बाढ़ आती रहती है। 40 मिलियन हेक्टेयर से अधिक भूमि (देश की कुल भूमि का 12%) बाढ़ और नदी के कटाव से प्रभावित है। ग्लेशियल झील के फटने से उत्पन्न बाढ़ (Glacial Lake Outburst Floods- GLOFs) के कारण यह स्थिति और भी गंभीर हो जाती है।
    • उदाहरण: बिहार (2023) और असम में बाढ़ (2022)
  • चक्रवात और तूफ़ान: भारत की तटरेखा बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से आने वाले चक्रवातों के प्रति संवेदनशील है। देश की 7,516 किलोमीटर लंबी तटरेखा में से लगभग 5,700 किलोमीटर चक्रवात और सुनामी के प्रति संवेदनशील है।
    • उदाहरण: चक्रवात बिपरजॉय (2023) और चक्रवात फानी (2019)।
  • भूकंप: भारत भूकंपीय दृष्टि से सक्रिय क्षेत्र में अवस्थित है, जहाँ देश भर में कई भ्रंश रेखाएँ फैली हुई हैं। देश का 58.6% भूभाग मध्यम से लेकर अत्यंत उच्च तीव्रता वाले भूकंपों के लिये प्रवण है।
    • उदाहरण: मिज़ोरम में भूकंप (2022), सिक्किम में भूकंप (2011)
  • सूखा: लंबे समय तक वर्षा नहीं होने और अनियमित वर्षा के कारण गंभीर सूखा पड़ सकता है, जिससे कृषि और जल संसाधन प्रभावित होते हैं। देश का 68% कृषियोग्य क्षेत्र सूखे के प्रति संवेदनशील है।
    • उदाहरण: महाराष्ट्र के 66% भाग में सूखा (2024)।
  • भूस्खलन: भारत के पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्र, विशेष रूप से भारी वर्षा या भूकंप के दौरान, भूस्खलन के लिये प्रवण हैं। भारत को वैश्विक स्तर पर भूस्खलन-प्रवण शीर्ष पाँच देशों में से एक माना जाता है।
    • उदाहरण: हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन (2023), मणिपुर में भूस्खलन (2022)।
  • ग्रीष्म लहर: बढ़ते तापमान और लंबे समय तक उच्च ताप के कारण जीवन के लिये खतरा पैदा करने वाली ग्रीष्म लहरें उत्पन्न हो सकती हैं।
    • उदाहरण: भारत के विभिन्न भागों में ग्रीष्म लहरें (2022, 2023, 2024 )।
      • 11 मार्च से 18 मई 2022 तक देश में 280 ग्रीष्म लहर दिवस दर्ज किये गए।
  • वनाग्नि: शुष्क परिस्थितियाँ और मानवीय गतिविधियाँ वनाग्नि या जंगल की आग में योगदान दे सकती हैं, जिससे पर्यावरण की क्षति और वायु प्रदूषण की स्थिति बन सकती है। फ़ॉरेस्ट इन्वेंटरी रिकॉर्ड के अनुसार भारत में 54.40% वन समय-समय पर वनाग्नि के शिकार होते हैं।
    • उदाहरण: हिमाचल प्रदेश में वनाग्नि (2024), गोवा में वनाग्नि (2023)।
  • औद्योगिक एवं रासायनिक दुर्घटनाएँ: खतरनाक सामग्रियों के अनुपयुक्त या लापरवाह प्रबंधन से औद्योगिक एवं रासायनिक दुर्घटनाएँ हो सकती हैं।
    • उदाहरण: सूरत में रासायनिक रिसाव (2023), मुंबई में औद्योगिक क्षेत्र में आग (2024)।

भारत में आपदा जोखिम को बढ़ाने वाले प्रमुख कारक 

  • शहरीकरण और अनियोजित विकास: तीव्र शहरीकरण और शहरों में अनियोजित विकास ने बाढ़ एवं भूकंप जैसी आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा दी है।
    • उदाहरण: वर्ष 2023 की चेन्नई की बाढ़ के लिये अनियंत्रित विकास और जल निकायों एवं आर्द्रभूमियों के अतिक्रमण को दोषी ठहराया गया था।
  • जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव: जलवायु परिवर्तन चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता को बढ़ा रहा है।
  • पुरानी हो चुकी अवसंरचना और रखरखाव का अभाव: भारत की पुरानी हो चुकी अवसंरचना (जैसे बाँध, पुल एवं भवन) और अपर्याप्त रखरखाव के कारण आपदाओं का खतरा बढ़ जाता है।
    • वर्ष 2023 में जल संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने 100 वर्ष से अधिक पुराने बाँधों से जुड़ी सुरक्षा पर चिंता जताई थी।
  • पर्यावरण क्षरण: वनों की कटाई, खनन और असंवहनीय भूमि उपयोग अभ्यासों जैसी गतिविधियों ने भूस्खलन एवं मृदा अपरदन के खतरे को बढ़ा दिया है।
    • उदाहरण: उत्तराखंड में वर्ष 2022 के जोशीमठ भूमि अवतलन संकट को अनियमित निर्माण एवं खनन गतिविधियों का परिणाम माना गया।
  • औद्योगिक एवं प्रौद्योगिकीय खतरे: भारत में बढ़ते औद्योगीकरण और खतरनाक सामग्रियों पर निर्भरता के कारण औद्योगिक दुर्घटनाओं एवं रासायनिक आपदाओं का खतरा बढ़ गया है।
    • उदाहरण: विशाखापत्तनम (2020) में एक रासायनिक संयंत्र में गैस रिसाव से हज़ारों लोग ज़हरीले धुएँ के संपर्क में आए।

आपदा जोखिम को कम करने और आपदा तैयारी को बढ़ाने के लिये भारत को क्या उपाय करने चाहिये?

  • समर्पित आपदा प्रतिक्रिया गलियारों का निर्माण करना: आपदाओं के दौरान आपातकालीन सेवाओं एवं सहायता के लिये निर्बाध पहुँच सुनिश्चित करने के लिये सड़क नेटवर्क, रेल संपर्क एवं हवाई मार्गों सहित समर्पित आपदा प्रतिक्रिया गलियारे निर्दिष्ट और विकसित किये जाएँ।
    • इन गलियारों को इस प्रकार डिज़ाइन किया जाए कि वे खतरों के प्रति प्रत्यास्थी हों और इन्हें कुशल आपदा प्रतिक्रिया के लिये आवश्यक अवसंरचना एवं संसाधनों से सुसज्जित किया जाए।
  • आपदा-प्रत्यास्थी अवसंरचना को बढ़ावा देना: सभी महत्त्वपूर्ण अवसंरचना परियोजनाओं, जैसे पुल, बाँध, बिजली संयंत्र एवं संचार नेटवर्क के लिये आपदा-प्रत्यास्थी (Disaster-Resilient) डिज़ाइन और निर्माण सिद्धांतों को अपनाना अनिवार्य किया जाए।
    • कठोर भवन संहिताओं को लागू किया जाए, जो भूकंपरोधी सामग्रियों, अग्निरोधी सामग्रियों और पवनरोधी डिज़ाइनों के उपयोग के माध्यम से आपदा-प्रत्यास्थी निर्माण को अनिवार्य बनाए।
      • इसके अतिरिक्त, मौजूदा संरचनाओं के पुनर्निमाण के लिये कर में छूट और वित्तीय सहायता की पेशकश की जा सकती है ताकि उनकी प्रत्यास्थता में सुधार हो सके।
  • आपदा-प्रत्यास्थी कृषि पद्धतियों का विकास करना: आपदा-प्रत्यास्थी कृषि पद्धतियों, जैसे सूखा-प्रतिरोधी फसल, परिशुद्ध खेती और मृदा संरक्षण तकनीकों के अंगीकरण को बढ़ावा दिया जाए।
    • बुर्किना फासो की ज़ाई पिट (Zai pit) फार्मिंग तकनीक जैसे सफल उदाहरणों से प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है, जो सूखे के दौरान मृदा की नमी को बनाए रखने और फसल की पैदावार को बढ़ाने में योगदान देती है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र आधारित आपदा जोखिम न्यूनीकरण (Ecosystem-based Disaster Risk Reduction- Eco-DRR) को बढ़ावा देना: वन, आर्द्रभूमि और तटीय पर्यावासों जैसे प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों का संरक्षण, पुनर्स्थापन एवं संवहनीय प्रबंधन कर पारिस्थितिकी तंत्र आधारित दृष्टिकोणों को आपदा जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियों में एकीकृत किया जाए।
    • ये पारिस्थितिकी तंत्र बाढ़, तूफ़ान और भूस्खलन जैसे खतरों के विरुद्ध प्राकृतिक अवरोधकों के रूप में कार्य कर सकते हैं, साथ ही कार्बन पृथक्करण (carbon sequestration) और जैव विविधता संरक्षण जैसे सह-लाभ भी प्रदान कर सकते हैं।
  • बहु-जोखिम पूर्व-चेतावनी प्रणालियों (Multi-Hazard Early Warning Systems) को सुदृढ़ करना: सुदृढ़ एवं एकीकृत पूर्व-चेतावनी प्रणालियों का विकास किया जाए जो चक्रवात, ग्रीष्म लहर एवं भूस्खलन जैसे विविध खतरों का पता लगा सकें तथा समय पर चेतावनी दे सकें।
    • खतरे की निगरानी, पूर्वानुमान एवं जोखिम संचार में सुधार के लिये रिमोट सेंसिंग, AI और बिग डेटा एनालिटिक्स जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाया जाए।
  • महत्त्वपूर्ण अवसंरचना के लिये माइक्रोनेट ग्रिड: अस्पतालों और संचार प्रणालियों जैसे महत्त्वपूर्ण अवसंरचना के लिये सौर एवं माइक्रो-हाइड्रो जैसे नवीकरणीय स्रोतों द्वारा संचालित स्थानीयकृत, आत्मनिर्भर बिजली ग्रिड स्थापित किये जाएँ।
    • इससे आपदाओं के कारण होने वाली व्यापक विद्युत बाधा के दौरान भी निरंतर कार्यक्षमता सुनिश्चित होगी।
  • मानसिक स्वास्थ्य प्रतिक्रिया दल (Mental Health Response Teams): मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को आपदा प्रतिक्रिया प्रयासों में एकीकृत किया जाए ताकि आघात, दुश्चिंता एवं विस्थापन से जूझते उत्तरजीवी लोगों को मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान की जा सके। इससे दीर्घकालिक पुनर्प्राप्ति परिणामों में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है।
  • संस्थागत क्षमता में वृद्धि करना: आपदा से संबद्ध संस्थानों को संविदा के बजाय स्थायी कार्यबल नियुक्त करना चाहिये।
    • एक स्थायी कार्यबल निरंतर कौशल विकास, ज्ञान हस्तांतरण और संस्थागत स्मृति का अवसर प्रदान करता है।
      • इससे अनुभव की कमी रखने वाले अस्थायी कर्मियों पर निर्भर रहने की तुलना में अधिक सक्षम आपदा प्रबंधन प्रणाली को बढ़ावा मिलता है।
    • इसके अलावा, स्थानीय निकायों को पर्याप्त आपदा तैयारी वित्तपोषण प्रदान किया जाना चाहिये ताकि वे केवल आपदा आने पर प्रतिक्रिया देने के बजाय संभावित आपदाओं के लिये अग्रसक्रिय उपाय भी कर सकें।

अभ्यास प्रश्न: आपदाओं के प्रति भारत की बढ़ती संवेदनशीलता में योगदान करने वाले कारकों पर विचार कीजिये। भारत को अपनी आपदा तैयारी को बेहतर बनाने के लिये कौन-से उपाय करने चाहिये?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न: आपदा प्रबंधन में पूर्ववर्ती प्रतिक्रियात्मक उपागम से हटते हुए भारत सरकार द्वारा आरंभ किये गए अभिनूतन उपायों की विवेचना कीजिये। (2020)

प्रश्न: आपदा प्रभावों और लोगों के लिये उसके खतरे को परिभाषित करने के लिये भेद्यता एक अत्यावश्यक तत्त्व है। आपदाओं के प्रति भेद्यता का किस प्रकार और किन-किन तरीकों के साथ चरित्र-चित्रण किया जा सकता है? आपदाओं के संदर्भ में भेद्यता के विभिन्न प्रकारों पर चर्चा कीजिये। (2019) 

प्रश्न: भारत में आपदा जोखिम न्यूनीकरण (डी० आर० आर०) के लिये 'सेंडाई आपदा जोखिम न्यूनीकरण प्रारूप (2015-2030)' हस्ताक्षरित करने से पूर्व एवं उसके पश्चात् किये गए विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिये। यह प्रारूप 'ह्योगो कार्रवाई प्रारूप, 2005' से किस प्रकार भिन्न है? (2018)


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