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एडिटोरियल

  • 28 Dec, 2024
  • 31 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

भारत के वनों का पुनरुद्धार

यह एडिटोरियल 24/12/2024 को द हिंदू में प्रकाशित Canary in the canopy: on the India State of Forest Report 2023 पर आधारित है। लेख में भारत के वन क्षेत्र की जटिलता को दर्शाया गया है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 25% हैं। इसके स्पष्ट लाभों के बावजूद, यह विकास की माँगों, वनाग्नि की बढ़ती घटनाओं और संरक्षण के लिये अपर्याप्त संसाधन सहित अधिक गंभीर मुद्दों को उजागर नहीं करता है।

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का वन क्षेत्र, वन स्थिति रिपोर्ट 2023, वन संरक्षण अधिनियम 1980, वन अधिकार अधिनियम 2006, भारतीय वन सर्वेक्षण (2019), हरित भारत मिशन, राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति,  SATAT योजनाराष्ट्रीय जैव ऊर्जा मिशन, चिपको आंदोलन, मैंग्रोव इनिशिएटिव फॉर शोरलाइन हैबिटेट्स एंड टैंगिबल इनकम (MISHTI) योजना, खासी पवित्र वन, लाल चंदन, राष्ट्रीय पशुधन मिशन। 

मेन्स के लिये:

भारत के लिये वनों का महत्त्व, भारत के वनों की स्थिरता के लिये प्रमुख खतरे

वन रिपोर्ट 2023 के अनुसार भारत का वन क्षेत्र कुल भूमि क्षेत्र का 25% है, जिसे सकारात्मक विकास के रूप में देखा जाता है, लेकिन आलोचकों का तर्क है कि यह वन स्वास्थ्य और प्रबंधन में अंतर्निहित चिंताओं को उजागर नही करता है। जबकि स्वतंत्रता के बाद के कानून जैसे कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और वन अधिकार अधिनियम 2006 का उद्देश्य औपनिवेशिक नीतियों में सुधार करना था, लेकिन विकास के दबाव और जलवायु परिवर्तन के कारण उनके कार्यान्वयन में कमी आई है। वन पारिस्थितिकी तंत्र को वनाग्नि में वृद्धि, संरक्षण निधि की कमी और बिगड़ती सुरक्षा से और भी अधिक खतरा है। भारत के वनों के संरक्षण के लिये, एक व्यापक रणनीति आवश्यक है जिसमें सतत् रिपोर्टिंग, बेहतर संसाधन उपयोग और सामुदायिक भागीदारी शामिल हो।

भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने और राष्ट्र के विकास में वनों की क्या भूमिका है?

  • आजीविका और रोज़गार सृजन: भारत में, भारतीय वन सर्वेक्षण (2019) के अनुसार कुल 650,000 गाँवों में से लगभग 26% को वन सीमांत गाँवों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जहाँ वन महत्त्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक और आजीविका आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
    • उदाहरण के लिये कागज, फार्मास्यूटिकल्स और हस्तशिल्प जैसे वन-आधारित उद्योग रोज़गार में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। 
  • जलवायु विनियमन और कार्बन पृथक्करण: भारत के वन प्रतिवर्ष लाखों टन CO₂ को संग्रहित करके जलवायु परिवर्तन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • यह वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने और कार्बन क्रेडिट बनाने की भारत की प्रतिबद्धता का समर्थन करता है ।
    • हरित भारत मिशन के अंतर्गत हाल ही में किये गए वनरोपण प्रयासों का लक्ष्य 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को पुनः उपजाऊ बनाना है। 
  • लकड़ी और उद्योग के माध्यम से आर्थिक योगदान: वानिकी क्षेत्र भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 1.7% का योगदान देता है, जो फर्नीचर, निर्माण और कागज निर्माण जैसे उद्योगों को सहायता प्रदान करता है। 
    • राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति (2014) ने यूकेलिप्टस जैसी तेज़ी से बढ़ने वाली प्रजातियों के रोपण को सुविधाजनक बनाया है, जिससे उद्योगों को लाभ और ग्रामीण आय में वृद्धि हुई है। 
  • जैव विविधता और पारिस्थितिकी पर्यटन: वन भारत की स्थलीय जैवविविधता का अधिकांश भाग धारण करते हैं, जो पारिस्थितिकी पर्यटन एवं संरक्षण से जुड़ी आजीविका को बढ़ावा देते हैं। 
    • उदाहरण के लिये रणथंभौर और कॉर्बेट जैसे बाघ अभयारण्य प्रतिवर्ष लाखों पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
    • प्रोजेक्ट टाइगर पहल से वर्ष 2023 तक बाघों की आबादी दोगुना होकर 3925 तक पहुँच गई है, जिससे भारत की वैश्विक संरक्षण छवि को बढ़ावा मिला है। 
    • यह जैवविविधता परागण जैसी पारिस्थितिकी सेवाओं को भी बढ़ावा देती है, जो कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • नवीकरणीय ऊर्जा और बायोमास उपयोग: वन बायोमास ऊर्जा प्रदान करते हैं, जो भारत के नवीकरणीय ऊर्जा परिवर्तन में सहायक है। 
    • राष्ट्रीय जैव-ऊर्जा मिशन वन अवशेषों के सतत् उपयोग को बढ़ावा देता है, जिससे वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद मिलती है। 
    • वन अवशेषों का उपयोग सतत् योजना जैसी पहल के तहत जैव ईंधन उत्पादन के लिये भी किया जा रहा है।
  • जलग्रहण क्षेत्र और मृदा संरक्षण: वन वर्षा, वाष्पीकरण, प्रवाह को नियंत्रित करके जल चक्र को नियंत्रित करने में मदद करते हैं तथा मृदा अपरदन को रोकते हैं, जिससे कृषि उत्पादकता सुनिश्चित होती है। 
    • वनाच्छादित जलग्रहण क्षेत्र सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी महत्त्वपूर्ण नदी प्रणालियों में योगदान करते हैं, तथा 700 मिलियन लोगों को जीवनयापन में सहायता करते हैं। 
  • सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व: भारत में वनों का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व बहुत अधिक है, जो पवित्र वनों की पूजा (जैसे, मेघालय में खासी पवित्र वन) जैसी परंपराओं और प्रथाओं में गहराई से निहित है। 
    • इससे जैवविविधता वाले प्रमुख स्थलों को संरक्षित करने तथा पर्यावरण-अनुकूल पर्यटन को बढ़ावा देने में मदद मिलती है। 
    • उदाहरण के लिये चिपको आंदोलन वनों और सांस्कृतिक विरासत के बीच अंतर्संबंधित संबंधों का प्रमाण है। 
  • आपदा न्यूनीकरण और लचीलापन: वन चक्रवात, बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के विरुद्ध प्राकृतिक अवरोधक के रूप में कार्य करते हैं, जिससे प्रतिवर्ष अरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान बचाया जा सकता है। 

भारत के वनों की स्थिरता के लिये प्रमुख खतरे क्या हैं? 

  • निर्वनीकरण और भूमि-उपयोग परिवर्तन: भारत के वन, व्यापक रूप से बस्तियों के विस्तार और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं हेतु वनों की कटाई से प्रभावित हैं।
    • सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2021 और वर्ष 2023 के बीच 1,488 वर्ग किमी 'अवर्गीकृत वन' (सरकारी स्वामित्व के तहत गैर-अधिसूचित वन) का नुकसान हुआ है, तथा आलोचकों का तर्क है कि इसके लिये ISFR, 2023 में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। 
    • उदाहरण के लिये छत्तीसगढ़ में हसदेव अरंड कोयला खनन परियोजना ने जैव विविधता से भरपूर वनों के विनाश को लेकर विरोध प्रदर्शन को जन्म दिया है। 
      • ऐसे परिवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र को अपरिवर्तनीय रूप से नष्ट तथा वनों की स्थिरता को कम कर देते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन और वनाग्नि: वैश्विक तापमान में वृद्धि और अनियमित वर्षा के कारण भारतीय वनाग्नि और सूखाग्रस्त के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए हैं। 
    • भारत में 705 संरक्षित क्षेत्रों में वनाग्नि FSI द्वारा हाल ही में किये गए विश्लेषण से पता चला है कि इस मौसम में राष्ट्रीय उद्यानों में 6,046 घटनाएँ हुईं। 
    • आंध्र प्रदेश के पापिकोंडा राष्ट्रीय उद्यान में सबसे अधिक मामले दर्ज किये गए, इसके बाद छत्तीसगढ़ के इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान और असम के मानस राष्ट्रीय उद्यान का स्थान रहा है।
  • अवैध कटाई और लकड़ी की तस्करी: अवैध कटाई से सागौन और चंदन जैसी बहुमूल्य वृक्ष प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं, जैवविविधता को खतरा होता है तथा पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान उत्पन्न होता है।
    • उदाहरण के लिये आंध्र प्रदेश में लाल चंदन की तस्करी के कारण संरक्षित क्षेत्रों में वनों की कटाई हुई है। 
    • कठोर वन कानूनों के बावजूद, सीमित प्रवर्तन और छिद्रपूर्ण सीमाएँ इस समस्या को और बढ़ा रही हैं।
    • इसके अलावा, भारत लकड़ी का शुद्ध आयातक बन गया है और देश ने वर्ष 2023 में 2.7 बिलियन डॉलर से अधिक मूल्य की लकड़ी का आयात किया है।
  • अतिक्रमण और आवास विखंडन: कृषि और संबद्ध गतिविधियों के लिये अतिक्रमण से वनों का विखंडन होता है तथा वन्यजीव गलियारे बाधित होते हैं। 
    • वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत पिछले 15 वर्षों में भारत में 3 लाख हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को गैर-वानिकी उपयोग के लिये हस्तांतरित किया गया है।
    • चार धाम रोड प्रोजेक्ट जैसे बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं ने महत्त्वपूर्ण हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को खंडित कर दिया है, जिससे हिम तेंदुए और लाल पांडा जैसी प्रजातियाँ खतरे में पड़ गई हैं।
  • गैर-लकड़ी वन उत्पादों (NTFP) का अत्यधिक दोहन: बाँस, तेंदू के पत्ते और औषधीय पौधों जैसे गैर-लकड़ी वन उत्पादों की अत्यधिक कटाई से वन पुनर्जनन में बाधा उत्पन्न होती है। 
    • इससे जैव विविधता और आजीविका दोनों को खतरा है। उदाहरण के लिये कर्नाटक में चंदन के जंगलों के समाप्त होने से स्थानीय फ्रेग्रेन्स इंडस्ट्रीज पर असर पड़ा है। 
  • आक्रामक प्रजातियों का उदय: प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसी आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रसार से भारत के वनों और जैवविविधता में कमी आ रही है। 
    • उदाहरण के लिये लैंटाना कैमरा, जिसे अंग्रेज़ों द्वारा लाया गया था, अब भारत में सबसे अधिक आक्रामक पादप प्रजातियों में से एक बन गया है, जो बाघ क्षेत्र के 40% हिस्से को कवर करता है।
    • ये प्रजातियाँ देशी पौधों को मात देती हैं, जैसा कि राजस्थान के केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में देखा गया है।
  • मानव-वन्यजीव संघर्ष: वन विखंडन से मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि हुई है, जिससे मानव जीवन एवं संरक्षण प्रयास दोनों प्रभावित हो रहे हैं। 
    • वर्ष 2019 और 2024 के बीच भारत में हाथियों के हमलों में 2,727 मृत्यु हुईं, जबकि बाघों के हमलों में 349 लोगों की जान गई।
    • उदाहरण के लिये बंगलुरु में मानव-पशु संघर्ष के कारण मानव और पशु दोनों ही हताहत हुए, जिसके कारण तेंदुआ एवं हाथी टास्क फोर्स का गठन किया गया।
  • कमज़ोर प्रवर्तन और प्रशासन: वन कानूनों का अप्रभावी प्रवर्तन और नीतियों के विलंबित कार्यान्वयन से सतत् वन प्रबंधन कमज़ोर होता है। 
    • प्रतिपूरक वनीकरण निधि अधिनियम (2016) के बावजूद, वर्ष 2021-22 में प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन और योजना प्राधिकरण के तहत स्वीकृत धनराशि का केवल 48% ही उपयोग किया गया। 
    • वन अधिकार अधिनियम (2006) का भी क्रियान्वयन ठीक से नहीं हुआ है, नौकरशाही बाधाओं के कारण बड़ी संख्या में दावे खारिज कर दिये गए हैं।
    • इसके अलावा, वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में हाल ही में किए गए संशोधनों ने भारत में वन संरक्षण की रूपरेखा पर विवादास्पद कानूनी बहस को जन्म दे दिया है।
  • प्रदूषण और पारिस्थितिकी तंत्र का ह्रास: औद्योगिक और शहरी गतिविधियों से होने वाला प्रदूषण वनों की मिट्टी की उर्वरता और जल की गुणवत्ता को कम करता है, जिससे वन पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। 
    • CWC की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 328 नदी निगरानी स्टेशनों में से 141 (43%) में जनवरी और दिसंबर 2022 के बीच एक या एक से अधिक जहरीली भारी धातुओं की खतरनाक सांद्रता दर्ज की गई। 
    • पश्चिमी घाट जैसे क्षेत्रों में औद्योगिक उत्सर्जन से होने वाली अम्लीय वर्षा वनों की पुनर्योजी क्षमता को कम कर रही है, जिससे जैव विविधता वाले क्षेत्रों को खतरा हो रहा है।
  • पशुओं द्वारा अनियंत्रित चराई: वन क्षेत्रों में अनियंत्रित चराई से प्राकृतिक वनस्पति, विशेष रूप से शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में, कम हो जाती है। 
    • थार रेगिस्तान क्षेत्र में अत्यधिक चराई के वनों का ह्रास हो रहा है। इसके अतिरिक्त, वनों पर निर्भर चरवाहे संसाधनों में कमी से जूझ रहे हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रहा है। 
    • राष्ट्रीय पशुधन मिशन जैसे कार्यक्रमों में प्रभावी चराई प्रबंधन योजनाओं का अभाव है।
  • असंवहनीय पर्यटन प्रथाएँ: पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पर्यटन से प्रदूषण बढ़ता है, जिससे वन्य जीवन बाधित होता है। 
    • कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व और काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान जैसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों को अनियमित पर्यटन के कारण वाहन प्रदूषण एवं आवास क्षरण जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। 

भारत में वन संरक्षण को बढ़ाने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं? 

  • वन-आधारित आजीविका को सुदृढ़ बनाना: सतत् वन-आधारित आजीविका को बढ़ावा देने से आर्थिक आवश्यकताओं को संरक्षण लक्ष्यों के साथ संरेखित किया जा सकता है। 
    • वन धन विकास योजना जैसी पहलों ने जनजातीय समुदायों को गैर-लकड़ी वन उत्पादों (NTFP) के प्रसंस्करण और विपणन के लिये प्रशिक्षण देकर सफलता दिखाई है।
    • ऐसे कार्यक्रमों का विस्तार कर उनमें कृषि वानिकी और पारिस्थितिकी पर्यटन को शामिल करने से वनों की कटाई पर निर्भरता कम हो सकती है। 
  • सामुदायिक भागीदारी का विस्तार: संयुक्त वन प्रबंधन (JFM) और वन अधिकार अधिनियम (2006) के माध्यम से संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल करने से सतत् प्रथाओं को बढ़ावा मिल सकता है। 
    • वन संरक्षण समितियों (FPC) जैसे सामूहिक प्रयासों को प्रोत्साहित करने से स्वामित्त्व और बेहतर प्रवर्तन सुनिश्चित होता है। 
    • उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश में संयुक्त वन प्रबंधन संगठन ने 1.2 मिलियन हेक्टेयर से अधिक बंजर भूमि को पुनः स्थापित किया है, जिससे सहभागिता मॉडल की प्रभावकारिता सिद्ध हुई है। 
      • इस मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तारित करने से दीर्घकालिक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
  • वनरोपण और पुनर्वनरोपण को बढ़ावा देना: ग्रीन इंडिया मिशन जैसे कार्यक्रमों और बॉन चैलेंज के तहत प्रतिबद्धताओं को जैवविविधता बहाली सुनिश्चित करने के लिये देशी प्रजातियों का उपयोग करके वनरोपण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
    • भारत ने वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को पुनः उपजाऊ बनाने का संकल्प लिया है, जिसे स्थानीय रोज़गार योजनाओं जैसे मनरेगा के साथ एकीकृत करके तेज़ किया जा सकता है। 
    • हाल ही में तमिलनाडु में 375 हेक्टेयर मैंग्रोव को पुनः स्थापित करने में मिली सफलता, ऐसे प्रयासों की व्यापकता को दर्शाती है।
  • अतिक्रमण विरोधी सख्त उपायों को लागू करना: उपग्रह निगरानी और डिजिटल डेटाबेस के माध्यम से अतिक्रमण के खिलाफ प्रवर्तन को मज़बूत करने से महत्त्वपूर्ण वन क्षेत्रों की रक्षा की जा सकती है। 
    • भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) पहले से ही वनों की कटाई की निगरानी के लिये भू-स्थानिक उपकरणों का उपयोग करता है, जिसका विस्तार वास्तविक समय में अवैध गतिविधियों पर नज़र रखने के लिये किया जा सकता है। 
    • उदाहरण के लिये असम में भू-स्थानिक निगरानी से काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में 1,500 हेक्टेयर से अधिक अतिक्रमित भूमि को पुनः प्राप्त करने में मदद मिली। 
    • ऐसी प्रौद्योगिकी को देशव्यापी स्तर पर लागू करने से आवास क्षति को रोका जा सकता है।
  • संरक्षण के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: LiDAR (लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिंग), ड्रोन और AI-आधारित निगरानी प्रणाली जैसी प्रौद्योगिकियों को अपनाकर कुशल वन प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सकता है।
    • राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केन्द्र (NRSC) पहले से ही वन मानचित्रण के लिये उपग्रह इमेज़री का उपयोग कर रहा है, जिसका उपयोग वनों की आग और अवैध कटाई की वास्तविक समय पर निगरानी के लिये किया जा सकता है। 
    • उदाहरण के लिये पश्चिमी घाट में LiDAR-आधारित मानचित्रण ने लक्षित संरक्षण के लिये महत्त्वपूर्ण जैवविविधता क्षेत्रों की पहचान की है।
  • निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करना: कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) और कार्बन ऑफसेट बाज़ारों के माध्यम से वनीकरण परियोजनाओं में निवेश करने के लिये निजी खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने से संरक्षण निधि में वृद्धि हो सकती है। 
    • प्रतिपूरक वनरोपण निधि प्रबंधन (CAMPA) को कॉर्पोरेट साझेदारी को एकीकृत करने के लिये सुव्यवस्थित किया जा सकता है। 
    • उदाहरण के लिये मैंग्रोव पुनरुद्धार हेतु गुजरात के साथ रिलायंस इंडस्ट्रीज की साझेदारी इस बात पर प्रकाश डालती है कि किस प्रकार सार्वजनिक-निजी मॉडल परिणाम दे सकते हैं। 
      • कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश अधिक निवेश आकर्षित करेंगे।
  • कृषि वानिकी और सतत् कृषि का एकीकरण: राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति (NAP) के तहत कृषि वानिकी प्रथाओं को बढ़ावा देने से कृषि के लिये वनों की कटाई को कम किया जा सकता है, साथ ही किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है। 
    • कृषि वानिकी मॉडल में वृक्षों को बाज़रा या तिलहन जैसी फसलों के साथ संयोजित करने से मृदा स्वास्थ्य और कार्बन अवशोषण में सुधार हो सकता है। 
    • कृषि वानिकी को बढ़ावा देने में कर्नाटक की सफलता से जैव विविधता और ग्रामीण अर्थव्यवस्था दोनों को लाभ होता है।
  • आक्रामक प्रजातियों पर नियंत्रण: लैंटाना कैमरा और प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसी आक्रामक विदेशी प्रजातियों के व्यवस्थित निष्कासन और नियंत्रण को सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
    • राष्ट्रीय जैव विविधता कार्य योजना (NBAP) जैसे कार्यक्रमों को आक्रामक प्रजातियों के प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करने के लिये बढ़ाया जा सकता है। 
    • राजस्थान के वन अधिकारी आक्रामक जूलीफ्लोरा को हटाने में सहायता के लिये नरेगा की ओर रुख कर रहे हैं। ऐसे अभियानों के विस्तार से देश भर में वन स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।
  • जलवायु-अनुकूल वन प्रबंधन: जलवायु-अनुकूल वन प्रबंधन प्रथाओं, जिसमें सूखा-प्रतिरोधी प्रजातियों का रोपण और जल संरक्षण को बढ़ावा देना शामिल है, को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। 
    • वन क्षेत्रों में जल की उपलब्धता में सुधार के लिये कैच द रेन पहल जैसे कार्यक्रमों को वन संरक्षण प्रयासों के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
  • पारिस्थितिकी पर्यटन मॉडल का विकास: सतत् पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा देने से संरक्षण के लिये राजस्व उत्पन्न हो सकता है, साथ ही जैव विविधता के बारे में जागरूकता भी उत्पन्न हो सकती है। 
    • केरल और उत्तराखंड जैसे राज्यों ने पारिस्थितिकी पर्यटन परियोजनाओं में अग्रणी भूमिका निभाई है, जो आर्थिक लाभ के साथ वन संरक्षण को संतुलित करती हैं। 
    • उदाहरण के लिये केरल की थेनमाला इको-टूरिज्म परियोजना स्थानीय आजीविका का समर्थन करती है। जैवविविधता वाले हॉटस्पॉट में ऐसे मॉडल का विस्तार करने से वन स्थिरता में वृद्धि की जा सकता है।
  • कानूनी ढाँचे और प्रशासन को मज़बूत करना: अवैध कटाई, आक्रामक प्रजातियों और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जैसी उभरती चुनौतियों से निपटने के लिये भारतीय वन अधिनियम (1927) और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (1972) में संशोधन करके संरक्षण प्रयासों को मज़बूत किया जा सकता है।
    • CAMPA निधि के कार्यान्वयन के लिये, जिसमें से वर्ष 2022 तक केवल 33% का ही उपयोग किया गया है, सख्त जवाबदेही तंत्र की आवश्यकता है। 
    • वन विभागों और स्थानीय सरकारों के बीच बेहतर समन्वय से प्रवर्तन संबंधी अंतराल को कम किया जा सकता है।
  • जैवविविधता गलियारे में वृद्धि: खंडित आवासों के बीच वन गलियारे विकसित करने से मानव-वन्यजीव संघर्ष कम हो सकता है और जैवविविधता को संरक्षित किया जा सकता है। 
    • राष्ट्रीय वन्यजीव गलियारा परियोजना जैसी परियोजनाओं का विस्तार कर सभी महत्त्वपूर्ण बाघ और हाथी रिज़र्वों को इसमें शामिल किया जाना चाहिये। 
    • उदाहरण के लिये काज़ीरंगा-कार्बी आंगलोंग गलियारे के पुनरुद्धार से वन्यजीव तनाव और मानव संघर्ष में कमी आई, जिससे ऐसे उपायों की प्रभावशीलता प्रदर्शित हुई।

निष्कर्ष

भारत के वन इसके पारिस्थितिक संतुलन, आर्थिक विकास और सांस्कृतिक विरासत के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। हालाँकि वन क्षेत्र को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है, लेकिन वनों की कटाई, जलवायु परिवर्तन एवं कमज़ोर प्रवर्तन जैसी चुनौतियों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। सतत् आजीविका, सामुदायिक भागीदारी, तकनीकी एकीकरण और सख्त शासन पर ध्यान केंद्रित करने वाला एक बहुआयामी दृष्टिकोण वन पारिस्थितिकी तंत्र के दीर्घकालिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित कर सकता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: 

पारिस्थितिकी संतुलन, आर्थिक विकास और सांस्कृतिक विरासत के लिये वन महत्त्वपूर्ण हैं। भारत में वन संरक्षण के समक्ष आने वाली चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये तथा जलवायु परिवर्तन एवं विकास के दबावों के मद्देनजर उनके सतत् प्रबंधन को सुनिश्चित करने के उपाय सुझाएँ।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न    

प्रिलिम्स:

प्रश्न. राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन सा मंत्रालय नोडल एजेंसी है?

(a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
(b) पंचायती राज मंत्रालय
(c) ग्रामीण विकास मंत्रालय
(d) जनजातीय मामलों का मंत्रालय

उत्तर: (d)


प्रश्न 1. भारत में एक विशेष राज्य में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं: (वर्ष 2012)

  1. यह उसी अक्षांश पर स्थित है जो उत्तरी राजस्थान से होकर गुज़रती है।
  2. इसका 80% से अधिक क्षेत्र वन आच्छादित है। 
  3. इस राज्य में 12% से अधिक वन क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क का गठन करता है।

निम्नलिखित में से किस राज्य में उपरोक्त सभी विशेषताएँ हैं? 

(A) अरुणाचल प्रदेश
(B) असम
(C) हिमाचल प्रदेश
(D) उत्तराखंड

उत्तर: (A)


मेन्स:

प्रश्न. “भारत में आधुनिक कानून की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरणीय समस्याओं का संविधानिकीकरण है।” सुसंगत वाद विधियों की सहायता से इस कथन की विवेचना कीजिये। (2022)


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