भारतीय कृषि का रूपांतरण
यह एडिटोरियल 24/06/2024 को 'इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित “How Shivraj Singh Chouhan can transform Indian agriculture" लेख पर आधारित है। इसमें कृषि एवं ग्रामीण विकास से संबंधित चुनौतियों की चर्चा की गई है और भारत की नवगठित सरकार के लिये संभावित समाधानों का सुझाव दिया गया है।
प्रिलिम्स के लिये:कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय (MoA&FW), सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), लघु एवं सीमांत किसान (SMF), कृषि जनगणना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-KISAN), प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY), मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY), ई-राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (e-NAM) मेन्स के लिये:भारत में कृषि का महत्त्व, भारत में कृषि क्षेत्र से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ, कृषि से संबंधित प्रमुख पहल, भारत में कृषि क्षेत्र के सुधार हेतु आगे की राह। |
हाल ही में शिवराज सिंह चौहान को नवगठित सरकार में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय (MoA&FW) और ग्रामीण विकास मंत्रालय का प्रभार सौंपा गया है।
उनकी नियुक्ति उनके सिद्ध ट्रैक रिकॉर्ड और कृषि एवं ग्रामीण विकास की गहरी समझ के कारण रणनीतिक महत्त्व रखती है। उन्होंने लंबे समय तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया है। उनके नेतृत्व में राज्य ने वर्ष 2005-06 से 2023-24 तक प्रतिवर्ष 7% की जीडीपी वृद्धि और 6.8% प्रतिवर्ष की कृषि-जीडीपी वृद्धि दर्ज की, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक रही।
MoA&FW को भारतीय कृषि क्षेत्र के समक्ष विद्यमान उन दबावपूर्ण मुद्दों और चुनौतियों का समाधान करने के लिये तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है जो ग्रामीण विकास एवं समग्र आर्थिक विकास को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं। इसकी सबसे प्रमुख प्राथमिकता 5% से अधिक की वार्षिक कृषि-जीडीपी वृद्धि हासिल करना और किसानों की आय में तेज़ी से वृद्धि करना होना चाहिये।
भारत में कृषि का महत्त्व:
- जीडीपी में योगदान:
- पिछले कुछ दशकों में भारत की जीडीपी में कृषि का योगदान कम होता जा रहा है लेकिन यह क्षेत्र अभी भी एक महत्त्वपूर्ण योगदानकर्ता बना हुआ है।
- अर्थव्यवस्था के कुल सकल मूल्यवर्द्धित (GVA) में कृषि की हिस्सेदारी वर्ष 1990-91 के 35% से घटकर वर्ष 2022-23 में 15% रह गई है। यह गिरावट कृषि GVA में गिरावट के कारण नहीं बल्कि औद्योगिक और सेवा क्षेत्र GVA में तेज़ी से विस्तार के कारण आई है।
- रोज़गार:
- कृषि क्षेत्र, देश में सबसे बड़ा नियोक्ता होने की स्थिति रखता है।
- सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) द्वारा आयोजित आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के अनुसार, वर्ष 2022-23 के दौरान कुल कार्यबल का लगभग 45.76% कृषि और संबद्ध क्षेत्र में संलग्न था।
- खाद्य सुरक्षा:
- भारत मुख्य खाद्य उत्पादन, विशेष रूप से चावल और गेहूँ के मामले में काफी हद तक आत्मनिर्भर है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि देश अपनी बढ़ती आबादी को खाद्य प्रदान कर सकता है।
- भारत दूध, दाल और मसालों का विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक है, जबकि यहाँ विश्व की सबसे बड़ी मवेशी आबादी (भैंस) पाई जाती है। इसके साथ ही भारत में गेहूँ, चावल और कपास की खेती के लिये कुल भूमि का सबसे बड़ा क्षेत्र मौजूद है।
- भारत चावल, गेहूँ, कपास, गन्ना, मछली, भेड़ एवं बकरी का माँस, फल, सब्जियाँ और चाय का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) और खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम जैसी सरकारी पहलें सभी नागरिकों को किफायती भोजन उपलब्ध कराने के लिये कृषि उत्पादन पर निर्भर करती हैं।
- PDS के तहत वर्तमान में गेहूँ, चावल, चीनी और केरोसिन जैसी वस्तुओं को लाभार्थियों के बीच वितरण हेतु राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को आवंटित किया जा रहा है।
- कुछ राज्य/संघ शासित प्रदेश PDS आउटलेट के माध्यम से बड़े पैमाने पर उपभोग की अन्य वस्तुएँ (जैसे दाल, खाद्य तेल, आयोडीन युक्त नमक, मसाले आदि) भी वितरित करते हैं।
- भारत मुख्य खाद्य उत्पादन, विशेष रूप से चावल और गेहूँ के मामले में काफी हद तक आत्मनिर्भर है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि देश अपनी बढ़ती आबादी को खाद्य प्रदान कर सकता है।
- भूमि उपयोग:
- भारत में कृषि भूमि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 50% से कुछ अधिक है। यह विश्व के किसी भी देश में कुल भूमि के प्रतिशत के रूप में सर्वाधिक है।
- देश में लगभग 195 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर खेती होती है, जिसमें से लगभग 63 प्रतिशत वर्षा पर निर्भर है (लगभग 125 मिलियन हेक्टेयर) जबकि 37 प्रतिशत सिंचित (70 मिलियन हेक्टेयर) है।
- विदेशी मुद्रा:
- कृषि निर्यात भारत की विदेशी मुद्रा आय अर्जन में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। चावल, मसाले, कपास, फल और सब्जियों जैसी वस्तुओं का वैश्विक स्तर पर निर्यात किया जाता है, जिससे राजस्व प्राप्त होता है और व्यापार घाटे को संतुलित किया जाता है।
- अप्रैल-जनवरी 2024 में कृषि उत्पादों के निर्यात का कुल मूल्य 38.65 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जबकि वर्ष 2022-23 में भारत से कृषि निर्यात 52.50 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का रहा।
- सामाजिक-सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संवहनीयता:
- कृषि भारत की सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक ताने-बाने से गहराई से संबंधित है। यह ग्रामीण परंपराओं, त्योहारों और सामुदायिक जीवन को आकार देती है तथा यह सांस्कृतिक पहचान और ग्रामीण सामंजस्य को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- मृदा की उर्वरता, जल और जैवविविधता जैसे प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के लिये संवहनीय कृषि पद्धतियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। पारंपरिक खेती के तरीके और आधुनिक प्रौद्योगिकियाँ पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने और दीर्घकालिक संवहनीयता को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखती हैं।
भारत में कृषि क्षेत्र से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ:
- छोटी भूमि जोत:
- भारत मे कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा भाग छोटी जोतों में विभाजित है, जो किसानों की सम्मानजनक आजीविका कमाने की क्षमता को सीमित करता है।
- कृषि जनगणना से उपलब्ध नवीनतम सूचना के अनुसार, परिचालन जोतों का औसत आकार वर्ष 1970-71 के 2.28 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 1980-81 में 1.84 हेक्टेयर, वर्ष 1995-96 में 1.41 हेक्टेयर और वर्ष 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर रह गया है।
- भारत की कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, 86.1 प्रतिशत भारतीय किसान छोटे और सीमांत किसान (SMF) हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम भूमि है।
- आर्थिक कठिनाइयाँ:
- भारत में एक किसान की औसत मासिक आय अपेक्षाकृत कम बनी हुई है, जो कृषि क्षेत्र में उन लोगों के समक्ष विद्यमान आर्थिक चुनौतियों को उजागर करती है।
- राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) की वर्ष 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, मज़दूरी, फसल उत्पादन और पशुधन सहित सभी स्रोतों से प्राप्त एक किसान परिवार की औसत मासिक आय लगभग 10,218 रुपए थी।
- छोटे और सीमांत किसानों को प्रायः ऋण और वित्तीय सेवाओं तक पहुँचने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। किफायती ऋण की सीमित उपलब्धता आधुनिक कृषि उपकरण, गुणवत्तापूर्ण बीज और उर्वरकों में निवेश करने की उनकी क्षमता को सीमित करती है, जिससे उनकी उत्पादकता में बाधा आती है।
- वर्ष 2019 में आयोजित NSS सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में आधे से अधिक कृषक परिवार ऋणग्रस्त हैं।
- भारत में एक किसान की औसत मासिक आय अपेक्षाकृत कम बनी हुई है, जो कृषि क्षेत्र में उन लोगों के समक्ष विद्यमान आर्थिक चुनौतियों को उजागर करती है।
- मृदा क्षरण और जल की कमी:
- कृषि के लिये जल का अत्यधिक दोहन जलभृतों में जल स्तर को कम कर रहा है, जिससे प्रमुख खाद्य उत्पादक क्षेत्रों में सिंचाई करना असंभव होता जा रहा है।
- भारत के लगभग 90 प्रतिशत भू-जल का उपयोग कृषि के लिये किया जाता है
- अनुचित भूमि उपयोग प्रथाएँ, रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग और अपर्याप्त मृदा संरक्षण उपाय मृदा क्षरण एवं कटाव में योगदान करते हैं।
- इनके कारण मृदा की उर्वरता कम हो जाती है, कीटों एवं बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है और अंततः कृषि उत्पादकता में गिरावट आती है।
- कृषि के लिये जल का अत्यधिक दोहन जलभृतों में जल स्तर को कम कर रहा है, जिससे प्रमुख खाद्य उत्पादक क्षेत्रों में सिंचाई करना असंभव होता जा रहा है।
- अपर्याप्त कृषि अवसंरचना:
- अपर्याप्त भंडारण एवं कोल्ड चेन सुविधाएँ, अपर्याप्त ग्रामीण सड़कें और बाज़ारों तक सीमित पहुँच, उत्पादन के बाद होने वाली हानि (post-harvest losses) में योगदान करती हैं।
- इन अवसंरचना अंतरालों के कारण उत्पादन की लागत बढ़ जाती है और किसानों की अपनी उपज के लिये उचित मूल्य प्राप्त करने की क्षमता सीमित हो जाती है।
- कृषि अनुसंधान में निम्न निवेश:
- कृषि अनुसंधान और विस्तार सेवाओं में निवेश मुद्रास्फीति के साथ तालमेल नहीं रख पाया है, जिससे वास्तविक वित्तपोषण में कमी आई है।
- इस निम्न निवेश के कारण नवोन्मेषी और कुशल कृषि पद्धतियों को अपनाने में बाधा उत्पन्न होती है।
- पुरानी पड़ चुकी कृषि पद्धतियाँ:
- भारतीय किसानों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी पारंपरिक और पुरानी पड़ चुकी कृषि पद्धतियों पर निर्भर है।
- सूचना तक सीमित पहुँच, आधुनिक तकनीकों के बारे में जागरूकता की कमी और बदलाव के प्रति प्रतिरोध, उन्नत कृषि पद्धतियों को अपनाने में बाधा उत्पन्न करते हैं।
- कृषि अनुसंधान में निम्न निवेश के कारण नवोन्मेषी और कुशल कृषि पद्धतियों को अपनाने में बाधा उत्पन्न होती है।
- बाजार की अस्थिरता और मूल्य में उतार-चढ़ाव:
- भारत में किसानों को प्रभावी बाज़ार संपर्कों, बिचौलियों और मूल्य सूचना की कमी के कारण मूल्य में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है। इससे वे मूल्य शोषण और अपने निवेश पर अनिश्चित रिटर्न के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
- भारतीय नीति निर्माता प्रायः प्रतिकूल WTO निर्णयों के प्रभावों को समझने और उसे कम करने के लिये संघर्ष करते हैं।
- उपभोक्ताओं के लिये खाद्य कीमतों को कम रखने की वैश्विक प्राथमिकताओं के परिणामस्वरूप कृत्रिम रूप से फार्म-गेट मूल्यों में कमी आती है, जिससे खेती आर्थिक रूप से अव्यवहारिक और पर्यावरणीय रूप से असंवहनीय हो जाती है।
- विषम नीतिगत चुनौतियाँ:
- नीतिगत चुनौतियाँ इसलिये सामने आती हैं क्योंकि सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बहुत कम कीमत पर अनाज उपलब्ध कराती है। इससे किसानों को उनकी फसलों के लिये मिलने वाली कीमतें कम हो जाती हैं, जिससे उनके लिये पर्याप्त आय अर्जित करना कठिन हो जाता है।
- इसके अतिरिक्त, विषम उर्वरक सब्सिडी इसके अत्यधिक उपयोग को बढ़ावा देती है, जिससे मानव स्वास्थ्य और पर्यावरणीय संवहनीयता दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएँ:
- बढ़ते हुए अनियमित मौसम पैटर्न ने कृषि उत्पादकता को प्रभावित किया है।
- अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, जलवायु परिवर्तन और बाढ़, चक्रवात एवं सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएँ भारत के कृषि उद्योग के लिये गंभीर चुनौतियाँ पेश करती हैं। इन घटनाओं के परिणामस्वरूप फसल की हानि, पशुधन की मौत और किसानों के लिये भेद्यता बढ़ सकती है।
- जलवायु परिवर्तन प्रभाव आकलन के अनुसार, अनुकूलन उपायों को अपनाए बिना, भारत में वर्षा आधारित चावल की पैदावार वर्ष 2050 तक 20% और वर्ष 2080 तक 47% कम हो जाने का अनुमान है।
कृषि से संबंधित प्रमुख पहलें:
- प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-KISAN)
- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY)
- मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना
- प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY)
- ई-राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (e-NAM)
- राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन
- परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY)
- डिजिटल कृषि मिशन
- एकीकृत किसान सेवा मंच (UFAP)
- कृषि में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना (NEGP-A)
- पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिये जैविक मूल्य शृंखला विकास मिशन (MOVCDNER)
भारत में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिये कौन-से कदम उठाए जाने चाहिये?
- समग्र कृषि दृष्टिकोण:
- कृषि को उत्पादन, विपणन और उपभोग को शामिल करते हुए एक व्यापक खाद्य प्रणाली के रूप में देखा जाए।
- संस्थागत सुधारों के माध्यम से ऋण, इनपुट और किसान-केंद्रित सलाह तक पहुँच में सुधार लाया जाए।
- जैविक खेती, एकीकृत कीट प्रबंधन और मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन को बढ़ावा दिया जाए।
- सामूहिक सौदेबाजी के लिये कृषक-उत्पादक संगठनों (FPOs) और सहकारी समितियों को सुदृढ़ बनाया जाए।
- मूल्य शृंखला विकास:
- उच्च मूल्य वाली फसलों, डेयरी उत्पादों, मत्स्य पालन और मुर्गीपालन के लिये मज़बूत मूल्य शृंखला का निर्माण किया जाए। इसे प्राप्त करने के लिये निजी क्षेत्र, सहकारी समितियों और किसान-उत्पादक कंपनियों के साथ सहयोग स्थापित किया जाए।
- मूल्य शृंखला विकास को बढ़ाने के लिये उद्योग में उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (PLI) योजना के समान सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) और योजनाओं को लागू किया जाए।
- प्रौद्योगिकियाँ और बाज़ारों तक पहुँच:
- उत्पादकता और आय में सुधार के लिये किसानों के लिये सर्वोत्तम प्रौद्योगिकियों और वैश्विक बाज़ारों तक पहुँच सुनिश्चित की जाए।
- निर्यात प्रतिबंधों, व्यापारियों पर स्टॉक सीमा एवं बाज़ार मूल्य दमन की रणनीति को कम कर किसानों की तुलना में उपभोक्ताओं के पक्ष में नीतिगत पूर्वाग्रहों को संबोधित किया जाए।
- कृषि अनुसंधान एवं विकास (R&D) और विस्तार सेवाओं पर व्यय को कृषि-जीडीपी के कम से कम 1% तक बढ़ाया जाए, जिसका वर्तमान स्तर 0.5% से कम है।
- उर्वरक सब्सिडी में सुधार:
- उर्वरक सब्सिडी को कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय को हस्तांतरित किया जाए। वर्तमान में सब्सिडी का प्रबंधन रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय द्वारा किया जाता है, जिसका किसानों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क सीमित है।
- नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम के उपयोग में असंतुलन को दूर करने के लिये उर्वरक सब्सिडी वितरण को तर्कसंगत बनाया जाए।
- उर्वरक सब्सिडी के लिये प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण में परिवर्तन किसानों को रासायनिक और जैव-उर्वरकों या प्राकृतिक खेती के तरीकों के बीच चयन कर सकने की अनुमति देगा।
- समावेशी विकास और सामाजिक सुरक्षा:
- व्यापक फसल बीमा योजनाओं और आय सहायता कार्यक्रमों को लागू किया जाए।
- कृषि आय को स्थिर करने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर फसलों की खरीद सुनिश्चित किया जाए।
- जलवायु-प्रत्यास्थी कृषि:
- जलवायु-प्रत्यास्थी या जलवायु-कुशल कृषि के लिये निवेश संसाधनों को बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है। इसका अर्थ है कि ग्रीष्म एवं बाढ़ प्रतिरोधी बीजों में अधिक निवेश किया जाए।
- जल संसाधनों में अधिक निवेश न केवल उनकी आपूर्ति बढ़ाने के लिये बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिये भी आवश्यक है कि जल का अधिक विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग किया जा रहा है।
- 'प्रति बूँद अधिक फसल' केवल एक नारा नहीं रहे, बल्कि वास्तविक रूप से साकार हो। परिशुद्ध कृषि के एक भाग के रूप में ड्रिप, स्प्रिंकलर और संरक्षित खेती को आज की तुलना में बहुत बड़े पैमाने पर अपनाने की आवश्यकता है।
- जलवायु-प्रत्यास्थी या जलवायु-कुशल कृषि के लिये निवेश संसाधनों को बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है। इसका अर्थ है कि ग्रीष्म एवं बाढ़ प्रतिरोधी बीजों में अधिक निवेश किया जाए।
निष्कर्ष:
कृषि विकास के लिये अनुकूल माहौल का निर्माण करने वाले नीतिगत सुधारों को अपनाने से भारत अपने कृषि क्षेत्र की पूरी क्षमता को साकार कर सकने में सक्षम होगा, जिससे यह राष्ट्रीय विकास की आधारशिला बन जाएगा। यह परिवर्तन लाखों किसानों के लिये स्थायी आजीविका को सुरक्षित करेगा, खाद्य सुरक्षा को बढ़ाएगा, समावेशी विकास को बढ़ावा देगा और भारत को कृषि नवाचार एवं संवहनीयता में वैश्विक स्तर पर अग्रणी देश के रूप में स्थापित करेगा।
अभ्यास प्रश्न: धारणीय आजीविका सुनिश्चित करने, खाद्य सुरक्षा को उन्नत करने तथा देश में समावेशी विकास को बढ़ावा देने के क्रम में भारत के कृषि क्षेत्र में तत्काल नीतिगत सुधारों की आवश्यकता है। टिप्पणी कीजिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2014)
उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसे कृषि में सार्वजनिक निवेश माना जा सकता है? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2 और 5 उत्तर: C |