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एडिटोरियल

  • 11 Jun, 2024
  • 19 min read
शासन व्यवस्था

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली

यह एडिटोरियल 10/06/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The Bareilly case and a flawed criminal justice system” लेख पर आधारित है। इसमें बरेली के एक हाल के मामले के माध्यम से भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली की खामियों को उजागर किया गया है और बेहतर पुलिस अन्वेषण प्रोटोकॉल, अभियोजन स्वायत्तता एवं न्यायिक पर्यवेक्षण की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली, फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालय, भारतीय दंड संहिता (IPC),भारतीय न्याय संहिता’, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 21, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग, पुलिस शिकायत प्राधिकरणों (PCAs), मलिमथ समिति (2003), न्यायमूर्ति अमिताव रॉय समिति,  माधव मेनन समिति (2007)

मेन्स के लिये:

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ, भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के उपाय।

उत्तर प्रदेश के बरेली में हाल ही में एक मामला सामने आया जहाँ कथित रूप से बलात्कार का झूठा आरोप लगाने के लिये एक महिला को कारावास एवं जुर्माने का दंड दिया गया। यह मामला भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में गंभीर प्रणालीगत कमियों को उजागर करता है। 

विचाराधीन कैदियों का मनमानीपूर्ण एवं सुदीर्घ निरोध या हिरासत, अपर्याप्त पुलिस अन्वेषण और फास्ट-ट्रैक अदालतों का अकुशल कार्यकरण ऐसी प्रणालीगत अक्षमताओं को उजागर करता है जो न्यायिक प्रक्रियाओं में आम लोगों के भरोसे को कमज़ोर करता है। यह परिदृश्य भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में व्यापक सुधारों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता है।

सरकार द्वारा हाल ही में फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों (FTSC) के लिये केंद्र-प्रायोजित योजना को वर्ष 2026 तक की अवधि के लिये बढ़ा दिया गया और इसके लिये महत्त्वपूर्ण बजट आवंटन किया गया। इस सकारात्मक कदम को पुलिस अन्वेषण प्रोटोकॉल, अभियोजन स्वायत्तता और न्यायिक पर्यवेक्षण में संवृद्धि के साथ पूरक सहयोग प्रदान किया जाना चाहिये, ताकि गलत या अवैध बंदीकरण को रोका जा सके और समयबद्ध न्याय सुनिश्चित किया जा सके।

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली की संरचना 

  • परिचय: आपराधिक न्याय प्रणाली यह सुनिश्चित करने के लिये ज़िम्मेदार है कि अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाया जाए और पीड़ितों को न्याय प्रदान किया जाए।
  • मुख्य स्तंभ:
    • पुलिस: पुलिस अपराधों की जाँच करने, संदिग्धों को गिरफ़्तार करने और कानून प्रवर्तित करने के लिये ज़िम्मेदार है। वह राज्य विशेष के नियंत्रण में कार्य करती है।
    • न्यायपालिका: कानून की व्याख्या करने के माध्यम से उसकी पुष्टि करती है और आपराधिक मामलों में निर्णय देती है।
    • सुधार प्रणाली: जेलों का प्रबंधन करती है; दंड पर और आदर्शतः अपराधियों के पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करती है।
  • प्रमुख सिद्धांत:
    • निर्दोषता की धारणा: किसी अभियुक्त को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसे उचित संदेह से परे दोषी सिद्ध न कर दिया जाए।
    • निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार: अभियुक्त को निष्पक्ष एवं सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार प्राप्त है, जिसमें स्वयं का बचाव करने और साक्ष्य प्रस्तुत करने के अधिकार भी शामिल हैं।
    • सम्यक प्रक्रिया: निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये कानूनी प्रक्रियाओं का सही या सम्यक ढंग से पालन किया जाना चाहिये।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ 

  • लंबित मामले और न्याय में देरी: लंबित मामलों की विशाल संख्या (जो जुलाई 2023 तक 5.02 करोड़ से अधिक थी) न्यायिक गतिरोध पैदा करती है, जो प्रणाली को अपंग बना देती है।
    • प्रत्येक विलंबित मामला समय पर न्याय प्रदान कर सकने की प्रणाली की विफलता को दर्शाता है।
      • इस संदर्भ में इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री विलियम एडवर्ड ग्लैडस्टोन (William Edward Gladstone) की यह उक्ति प्रसिद्ध है- “विलंबित न्याय, न्याय से वंचना के समान है” (Justice delayed is Justice Denied)।
    • बरेली के हालिया मामले में ‘फास्ट-ट्रैक’ अदालत ने निर्णय देने में 1,559 दिन लिये, जो एक वर्ष की समय-सीमा से लगभग चार गुना अधिक समय है।
    • इस तरह की देरी शीघ्र सुनवाई के अधिकार (right to speedy trial)—जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने एन.एस. साहनी बनाम भारत संघ मामले में अनुच्छेद 21 के तहत मूल अधिकार के रूप में मान्यता दी है—का उल्लंघन है।
  • अपर्याप्त संसाधन और अवसंरचना: भारत में प्रति मिलियन जनसंख्या पर केवल 21 न्यायाधीश उपलब्ध हैं (दिसंबर 2023 तक की स्थिति के अनुसार)।
    • यह कमी महज एक संख्या को इंगित नहीं करती, बल्कि इसका तात्पर्य है न्यायाधीशों पर अत्यधिक काम का बोझ, जल्दबाजी में की जाने वाली सुनवाई और समझौतापूर्ण निर्णय।
    • अधीनस्थ न्यायपालिका में 35% और उच्च न्यायालयों में लगभग 400 पद रिक्त बने हए हैं (मई 2023 तक की स्थिति के अनुसार)।
    • अपर्याप्त कर्मचारी बल और सुविधाओं के कारण गुणवत्ताहीन जाँच, कमज़ोर अभियोजन तथा न्यायिक देरी की स्थिति बनती है।
  • पुलिस बल का राजनीतिकरण: प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ (2006) मामले में न्यायालय द्वारा अन्वेषण कार्य को विधि एवं व्यवस्था संबंधी कर्तव्यों से अलग करने का आदेश दिया गया था, लेकिन ऐसा साकार नहीं हुआ।
    • वर्ष 2021 में लखीमपुर खीरी हिंसा मामले में (जहाँ एक केंद्रीय मंत्री के पुत्र को आरोपी बनाया गया था) प्रारंभिक जाँच में देरी और राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगे।
    • यह राजनीतिकरण निष्पक्ष जाँच को कमज़ोर करता है, विशेषकर उन मामलों में जिनमें प्रभावशाली व्यक्ति संलग्न हों।
      • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी पाया था पुलिस-जनता संबंध असंतोषजनक स्थिति में हैं, क्योंकि लोग पुलिस को भ्रष्ट, अकुशल, राजनीतिक रूप से पक्षपातपूर्ण और अनुत्तरदायी मानते हैं।
  • जमानत अपवाद के रूप में, नियम के रूप में नहीं: बालचंद उर्फ बलिया केस बनाम राजस्थान राज्य (1978) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जमानत को नियम और जेल को अपवाद बनाने के निर्देश के बावजूद, वास्तविक स्थिति ठीक इसके उलट है।
    • भारत की जेलों में बंद 75% से अधिक कैदी विचाराधीन हैं। जेल 130% अधिभोग (occupancy) स्तर पर संचालित हैं।
    • इसके अलावा, UAPA या गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम जैसे कुछ कानूनों के तहत साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार आरोपी पर डाल दिया जाता है, जिससे जमानत का मुद्दा और जटिल हो जाता है।
  • यौन हिंसा के मामलों में लैंगिक पूर्वाग्रह: अपर्णा भट बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों द्वारा लैंगिक रूढ़िवादिता (gender stereotypes) और पीड़िता को दोष देने वाली भाषा के प्रयोग की निंदा की थी।
    • इसके बाद भी, एक बलात्कार पीड़िता के रात्रिकालीन कार्य के बारे में कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की टिप्पणी से उजागर हुआ कि लैंगिक पूर्वाग्रह लगातार व्याप्त है, जो यौन हिंसा के मामलों में न्याय को कमज़ोर करता है।
  • पुराना पड़ चुका जेल मैनुअल और मानसिक स्वास्थ्य संकट: मॉडल जेल मैनुअल 2016 में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को अनिवार्य बनाया गया है।
    • 1382 जेलों में अमानवीय स्थिति (पुनः) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों में व्याप्त मानसिक बीमारी की उच्च दर पर ध्यान दिया, जो कि अत्यधिक भीड़भाड़ तथा देखभाल के अभाव के कारण और भी बढ़ गई थी।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2022 तक महाराष्ट्र राज्य में 42,577 कैदी थे, लेकिन उनकी देखभाल के लिये केवल एक मनोचिकित्सक और दो मनोवैज्ञानिक ही मौजूद थे।
  • पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गैर-कार्यान्वयन: प्रकाश सिंह (2006) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस के विरुद्ध आम लोगों की शिकायतों के समाधान हेतु पुलिस शिकायत प्राधिकरणों (PCAs) की स्थापना का निर्देश दिया।
    • हालाँकि, अधिकांश राज्यों ने या तो PCAs की स्थापना नहीं की है या उन्हें शक्तिहीन बना रखा है, जिससे पुलिस दंडमुक्ति (police impunity) की स्थिति बनी हुई है।
  • मानवाधिकार उल्लंघन: भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली पर प्रायः हिरासत में यातना, न्यायेतर हत्या (extrajudicial killings), झूठी गिरफ्तारियों और अवैध निरोध के आरोप लगते रहे हैं।
    • वर्ष 2021- 2022 के दौरान पुलिस हिरासत में मौत के 175 मामले सामने आए

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिये कौन-से उपाय किये जाने चाहिये?

  • पीड़ित-केंद्रित न्याय प्रणाली: अपराधी-केंद्रित प्रणाली से पीड़ित-केंद्रित प्रणाली की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
    • पूरी कानूनी प्रक्रिया के दौरान समर्पित पीड़ित सहायता सेवाएँ प्रदान की जाएँ, जिसमें न्यायालय में सुनवाई के गारंटीकृत अधिकार के साथ परामर्श, कानूनी सहायता मार्गदर्शन तथा पीड़ित प्रभाव बयान (victim impact statements) प्रदान करना शामिल हैं।
    • इससे पीड़ितों को सशक्तता प्राप्त होगी और उनमें अपने कृत्यों एवं उसके परिणामों के बारे में नियंत्रण की भावना पुनः जागृत होगी।
  • केस प्रबंधन और जोखिम मूल्यांकन के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग: केस प्रबंधन, समय निर्धारण और पूर्व-परीक्षण जोखिम मूल्यांकन जैसे कार्यों के लिये AI के उपयोग की राह तलाश की जाए।
    • इससे प्रक्रियाएँ सुव्यवस्थित हो सकेंगी, डायवर्सन कार्यक्रमों के लिये निम्न-जोखिम मामलों की पहचान हो सकेगी तथा मानव संसाधन को अधिक जटिल मामलों के लिये मुक्त किया जा सकेगा।
    • इसके अलावा, प्रणाली में विद्यमान असमानताओं को रोकने के लिये पूर्वाग्रह एवं एल्गोरिथम संबंधी पारदर्शिता के विरुद्ध मज़बूत सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है।
  • प्रदर्शन-आधारित वित्तपोषण के साथ कानूनी सहायता: कानूनी सहायता के लिये वित्तपोषण बढ़ाना और कानूनी सहायता प्रदाताओं के लिये प्रदर्शन-आधारित प्रणाली स्थापित करना।
    • इससे प्रभावी प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहन मिलेगा है और यह सुनिश्चित होगा कि वंचित पृष्ठभूमि के प्रतिवादियों को गुणवत्तापूर्ण कानूनी सहायता प्राप्त हो।
  • जमानत सुधार और विचाराधीन हिरासत में कमी लाना: भारतीय विधि आयोग की 268वीं रिपोर्ट (2017) में हिरासत की अवधि को कम करने के लिये तत्काल उपाय किये जाने का आह्वान किया गया और यह निष्कर्ष दिया गया कि इसे रोकने के लिये जमानत से संबंधित कानून पर पुनर्विचार किया जाना चाहिये।
  • व्यापक पीड़ित एवं साक्षी संरक्षा: मलिमथ समिति (2003) की अनुशंसा के अनुरूप, पर्याप्त वित्तपोषण एवं निगरानी के साथ साक्षी संरक्षण योजना (Witness Protection Scheme), 2018 को पूर्णतया लागू करने की आवश्यकता है। 
  • न्यायपालिका में लैंगिक संवेदनशीलता को अपनाना: सभी न्यायिक अधिकारियों के लिये अनिवार्य लैंगिक संवेदनशीलता प्रशिक्षण, न्यायिक शिक्षा में लैंगिक दृष्टिकोण का एकीकरण और लैंगिक रूप से पक्षपातपूर्ण टिप्पणियों के लिये न्यायाधीशों को जवाबदेह ठहराने की व्यवस्था कायम की जानी चाहिये।
    • लैंगिक संबंधी रूढ़िवादिता पर हाल ही में प्रकाशित सुप्रीम कोर्ट हैंडबुक इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
  • कारागार प्रशासन में सुधार: न्यायमूर्ति अमिताव रॉय समिति की अनुशंसा के अनुरूप, जेलों के भीतर विचाराधीन कैदियों, दोषसिद्धों और पहली बार अपराध करने वाले व्यक्तियों (first-time offenders) को अनिवार्य रूप से पृथक रखने की आवश्यकता है, जिसमें अदालत में पेशी और अस्पताल में जाँच के दौरान भी पृथक रखना शामिल है।
    • समिति ने ज़ोर दिया है कि कारागार प्रशासन को आयुष्मान भारत योजना जैसी राष्ट्रीय और राज्य स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का व्यापक रूप से क्रियान्वयन करना चाहिये।
  • फास्ट-ट्रैक न्यायालयों का पुनरुद्धार: समर्पित न्यायाधीशों द्वारा फास्ट-ट्रैक न्यायालयों का पुनरुद्धार करने और फास्ट-ट्रैक न्यायालयों के लिये बेहतर अवसंरचना की आवश्यकता है, जहाँ बाध्यकारी समयसीमा निर्धारण और मामलों की निगरानी एवं शीघ्र निपटान के लिये केस प्रबंधन प्रणाली शुरू की जाए।
  • राजनीति के अपराधीकरण से निपटना: वोहरा समिति (1993) के निष्कर्षों के अनुरूप, राजनीति के अपराधीकरण से निपटने के लिये एक समर्पित संस्था के गठन की आवश्यकता है।
    • इस संस्था को विभिन्न स्रोतों से खुफिया जानकारी एकत्र करने, राजनेताओं, नौकरशाहों, अपराधियों एवं असामाजिक तत्वों के बीच गठजोड़ की जाँच करने और संलग्न व्यक्तियों के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाना चाहिये।
    • ऐसी संस्था राजनीतिक प्रणाली को आपराधिक प्रभावों से मुक्त करने तथा जनता का विश्वास पुनर्बहाल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
  • पुनर्स्थापनात्मक न्याय को बढ़ावा देना: माधव मेनन समिति (2007) के सुझाव के अनुरूप पुनर्स्थापनात्मक न्याय (Restorative Justice) को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
    • यह दृष्टिकोण केवल दंड देने के बजाय अपराध से होने वाली क्षति के उपचार (healing the harm) पर केंद्रित है।

अभ्यास प्रश्न: भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के समक्ष विद्यमान सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों की चर्चा कीजिये और इन मुद्दों के समाधान के लिये आवश्यक व्यापक सुधारों के सुझाव दीजिये।


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