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एडिटोरियल

  • 08 Jun, 2024
  • 22 min read
सामाजिक न्याय

भारत की स्वास्थ्य सेवा में क्रांतिकारी बदलाव

यह एडिटोरियल 07/06/2024 को द हिंदू में प्रकाशित “Health regulations need a base to top approach” लेख पर आधारित है। इसमें भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ और आवश्यक सुधार उपायों की चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

नैदानिक स्थापन (रजिस्ट्रीकरण और विनियमन) अधिनियम, 2010, भोरे समिति की रिपोर्ट, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग, गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994, औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017, गैर-संचारी रोग, टेलीमेडिसिन, गाम्बिया में कफ सिरप त्रासदी,2022

मेन्स के लिये:

भारत में स्वास्थ्य सेवा विनियमन की रूपरेखा, भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ।

भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली एक विशाल एवं जटिल नेटवर्क है, जो अपनी विशाल आबादी की सेवा करने के लिये सार्वजनिक एवं निजी सुविधाओं के बीच संतुलन का निर्माण करती है। जहाँ निजी क्षेत्र पर स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने का एक बड़ा भार बोझ है, दिल्ली नर्सिंग होम में आग लगने जैसी हाल की घटनाएँ भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में स्वास्थ्य देखभाल विनियमों की विफलता के गंभीर मुद्दे को उजागर करती है।

यह त्रासदी कोई अकेली घटना नहीं है, बल्कि विनियामक ढाँचों में व्याप्त प्रणालीगत खामियों के सामान्य लक्षण को प्रकट करती है। विभिन्न विनियमनों की उपस्थिति के बावजूद भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली अवास्तविक मानकों और नौकरशाही अक्षमताओं के कारण कार्यान्वयन के मामले में संघर्षरत है। उदाहरण के लिये नैदानिक प्रतिष्ठान (रजिस्ट्रीकरण और विनियमन) अधिनियम, 2010 और भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानक, अपनी उच्च आकांक्षाओं के बावजूद, प्रायः अव्यावहारिक हैं और अपर्याप्त रूप से अपनाए गए हैं। इसके परिणामस्वरूप एक जटिल विनियामक वातावरण का निर्माण हुआ है जो सुरक्षा एवं गुणवत्ता को प्रभावी ढंग से सुनिश्चित करने में विफल रहता है।

इन मुद्दों को संबोधित करने के लिये, भारत को स्वास्थ्य सेवा के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इसमें विभिन्न विनियमनों के बीच सामंजस्य स्थापित करना, अनुमोदन प्रक्रियाओं को सरल बनाना, स्वास्थ्य सुविधाओं का लोकतंत्रीकरण करना और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार करना शामिल है।

भारत में स्वास्थ्य देखभाल विनियमन संबंधी ढाँचा

  • ऐतिहासिक संदर्भ
    • औपनिवेशिक काल: यह खंडित और औपनिवेशिक रूप से प्रभावित विनियमों से चिह्नित होता है। उदाहरण के लिये- मद्रास सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1939।
    • भोरे समिति की रिपोर्ट (1946): समिति ने निवारक, प्रोत्साहक एवं उपचारात्मक स्वास्थ्य सेवाओं (preventive, promotive and curative health services) के एकीकरण और ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना का आह्वान किया।
    • आर्थिक उदारीकरण (1991): इससे निजी स्वास्थ्य सेवा के विकास को बढ़ावा मिला, जिससे अद्यतन विनियमनों की आवश्यकता उत्पन्न हुई।
  • प्रमुख संबंधित निकाय:
    • स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW): यह समग्र स्वास्थ्य देखभाल नीतियों के लिये उत्तरदायी है।
    • राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग (National Medical Commission- NMC): यह चिकित्सा शिक्षा एवं लाइसेंसिंग को विनियमित करता है।
      • पारदर्शिता की वृद्धि के लिये NMC अधिनियम, 2019 के तहत NMC ने भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद (Medical Council of India) को प्रतिस्थापित किया।
    • अन्य: इसमें नर्सिंग काउंसिल, फार्मेसी काउंसिल आदि शामिल हैं।
  • प्रमुख विनियामक कानून और नीतियाँ
    • गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 (Pre-Conception and Pre-Natal Diagnostic Techniques Act- PCPNDT Act): इसका उद्देश्य कन्या भ्रूण हत्या को रोकना है ।
    • नैदानिक प्रतिष्ठान (रजिस्ट्रीकरण और विनियमन) अधिनियम, 2010: यह पंजीकरण और मानक उपचार दिशानिर्देशों को अनिवार्य बनाता है।
    • औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940: यह फार्मास्यूटिकल क्षेत्र को विनियमित करता है।
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986: यह स्वास्थ्य देखभाल को सेवा के रूप में देखता है।
      • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 में ‘सेवा’ (service) शब्द की परिभाषा में ‘स्वास्थ्य सेवा’ (healthcare) शब्द को शामिल नहीं किया गया है।
      • लेकिन भारतीय चिकित्सा संघ बनाम वी.पी.संथा एवं अन्य (1996) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम में प्रयुक्त भाषा इतनी व्यापक है कि उसमें चिकित्सकों द्वारा प्रदत्त सेवाएँ भी शामिल होती हैं।
    • राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017: यह सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के लिये एक विज़न प्रदान करती है।

भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ 

  • अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय: विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद , भारत का स्वास्थ्य सेवा व्यय वित्त वर्ष 2023 में सकल घरेलू उत्पाद का 2.1% होने के साथ वैश्विक स्तर पर न्यूनतम में से एक था।
    • इसके अलावा, जबकि भारत विश्व की 20% जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति करता है, इसके अपने नागरिकों को 47.1% आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (out-of-pocket expenditure- OOPE) का वहन करना पड़ता है जो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में गंभीर अंतराल का संकेत देता है।
  • शहरी-ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल विभाजन: भारत की स्वास्थ्य देखभाल अवसंरचना विसंगत रूप से शहरी क्षेत्रों के पक्ष में झुकी हुई है, जिससे एक ‘दो-स्तरीय’ प्रणाली का निर्माण होता है।
    • यद्यपि 65% भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, फिर भी इन क्षेत्रों में केवल 25-30% अस्पताल ही उनकी पहुँच में हैं।
    • यह केवल संसाधन का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह समता के संवैधानिक वादे के लिये एक मूलभूत चुनौती है।
  • गैर-संचारी रोगों की मूक महामारी: जबकि भारत संक्रामक रोगों से जूझ रहा है, गैर-संचारी रोग (Non-Communicable Diseases- NCDs) भारत के रोग बोझ में 64% हिस्सेदारी रखते हैं (WHO, 2021)।
    • भारत में मधुमेह रोगियों की संख्या (वर्ष 2019 में 77 मिलियन, जिसके वर्ष 2045 तक 134 मिलियन हो जाने का अनुमान है) इस संकट की गंभीरता को प्रकट करती है।
    • जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, वैसे-वैसे NCDs का बोझ भी बढ़ रहा है जो जीवनशैली में बदलाव का परिणाम है। लेकिन फिर भी सार्वजनिक स्वास्थ्य रणनीतियाँ असंगत रूप से संक्रामक रोगों पर केंद्रित बनी रही हैं, जिससे एक वृद्धिशील एवं गैर-संबोधित स्वास्थ्य बोझ का निर्माण हो रहा है।
  • मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा: भारत में मानसिक स्वास्थ्य संकट की अनदेखी की गई है। प्रति 100,000 लोगों पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये स्वास्थ्य बजट के महज 0.05% के आवंटन के साथ भारत वैश्विक आत्महत्याओं के 36.6% मामलों से जूझ रहा है।
  • टेलीमेडिसिन में डिजिटल डिवाइड: टेलीमेडिसिन, जिसकी कोविड-19 के दौरान ‘रामबाण’ के रूप में प्रशंसा की गई थी, ने भारत के डिजिटल डिवाइड को उजागर किया है।
    • भारत में, विश्व में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की दूसरी सबसे बड़ी संख्या होने के बावजूद, ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पैठ शहरी क्षेत्रों से बहुत पीछे है।
    • यह अंतराल टेलीमेडिसिन को समाधान के बजाय असमानता के एक और स्तर में बदल देता है, जहाँ शहरी क्षेत्रों को तो असमान रूप से लाभ प्राप्त होता है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र पीछे छूट जाते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन– एक उपेक्षित स्वास्थ्य निर्धारक: जलवायु परिवर्तन महज एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह स्वास्थ्य संकट भी है।
    • भारत में वर्ष 2019 में वायु प्रदूषण के कारण 1.67 मिलियन मौतें हुईं, जो देश में हुई कुल मौतों का 17.8% है (WHO के अनुसार)।
    • वर्ष 2022 में फसल की पैदावार पर हीट वेव का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से जलवायु को पोषण से संबद्ध करता है।
  • शासन संबंधी उलझन: भारत की स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ शासन संबंधी असमानताओं के कारण और भी बढ़ गई हैं। कई राज्यों में विभिन्न विनियमों के तहत 50 से अधिक स्वीकृतियाँ मौजूद हैं, जिससे स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये नौकरशाही संबंधी समस्या उत्पन्न हुई है।
    • इसके अलावा, कुछ राज्य प्रायः बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों को प्राथमिकता देते हैं और छोटे क्लीनिकों एवं नर्सिंग होम की आवश्यकता की उपेक्षा करते हैं।
  • ‘फार्मास्ययूटिकल पैराडॉक्स’: विश्व का दवाखना या ‘फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड’ के रूप में चिह्नित भारत विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रहा है।
  • निवारक और प्राथमिक देखभाल की उपेक्षा: भारत की स्वास्थ्य प्रणाली उपचारात्मक एवं अस्पताल-आधारित देखभाल की ओर झुकी हुई है और सार्वजनिक स्वास्थ्य के आधार का निर्माण करने वाली ‘निवारक एवं प्राथमिक देखभाल’ (prevention and primary care) की उपेक्षा कर रही है।
    • वर्ष 2022 में देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सकों की संख्या घटकर 30,640 रह गई है।
    • इस उलटे फोकस से न केवल लागत बढ़ती है, बल्कि प्रणाली पर रोकथाम योग्य बीमारियों का बोझ भी पड़ता है, जिससे बीमारी एवं व्यय के एक दुष्चक्र का निर्माण होता है। 

भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिये कौन-से उपाय किये जा सकते हैं?

  • जोखिम-आधारित दृष्टिकोण के साथ विनियामक सुधार: एक स्तरीकृत विनियामक प्रणाली लागू की जाए जो जटिलता एवं जोखिम के आधार पर स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं को वर्गीकृत करे।
    • इससे कम जोखिम वाले प्रतिष्ठानों (जैसे छोटे क्लीनिक, नर्सिंग होम) के लिये अनुमोदन सरल हो जाएगा, जबकि उच्च जोखिम वाले प्रतिष्ठानों (जैसे बड़े अस्पताल) के लिये कड़ी निगरानी सुनिश्चित होगी।
    • प्रक्रिया-आधारित विनियमनों से परिणाम-आधारित विनियमनों की ओर ध्यान केंद्रित किया जाए।
      • रोगी संतुष्टि, संक्रमण दर और सर्वोत्तम अभ्यासों के पालन के आधार पर स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों की सफलता की माप की जाए, जहाँ इन परिणामों की प्राप्ति में लचीलेपन की अनुमति हो।
  • स्वास्थ्य-शिक्षा-आजीविका (Health-Education-Livelihood- HEL) परिसर: सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, कौशल विकास केंद्र और हेल्थ-टेक इन्क्यूबेटर्स के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में एकीकृत परिसरों की स्थापना की जाए।
    • स्वास्थ्य सेवा संबंधी मानव संसाधन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये ग्रामीण स्नातकों को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में बुनियादी लेखांकन संबंधी नौकरियों की पेशकश की जा सकती है।
  • ‘फार्मा-टू-प्लेट’ इंटीग्रिटी चेन (‘Pharma-to-Plate’ Integrity Chain): एक ब्लॉकचेन -आधारित ट्रैकिंग प्रणाली लागू की जाए जो कच्चे माल से लेकर रोगी के उपभोग तक फार्मास्युटिकल उत्पादों पर नज़र रखती हो। 
    • एक वैश्विक ‘ट्रैकमेड्स’ (TrackMeds) ऐप लॉन्च किया जाए, जिससे उपभोक्ता को अपनी दवाओं की प्रामाणिकता सत्यापित कर सकने का अवसर मिले।
    • यह पहल नकली दवाओं की समस्या को संबोधित कर सकती है, भारतीय फार्मा निर्यात की प्रतिष्ठा को बढ़ा सकती है और घरेलू दवा उत्पादों की उच्च गुणवत्ता को सुनिश्चित कर सकती है।
  • मानसिक संपदा पहल (Mental Wealth Initiative): मानसिक स्वास्थ्य की अवधारणा को एक मूल्यवान आर्थिक परिसंपत्ति, यानी ‘मानसिक संपदा’, के रूप में पुनः परिभाषित किया जा सकता है।
    • व्यापक मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू करने वाली कंपनियों को कॉर्पोरेट कर में छूट प्रदान की जाए।
    • मानसिक स्वास्थ्य मॉड्यूल को स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र से आगे ले जाते हुए सभी व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में एकीकृत किया जाए।
    • स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रदाताओं को बुनियादी परामर्श सेवाएँ प्रदान करने के लिये प्रशिक्षित किया जाए। उन्हें ‘मन मित्र’ (Mind Mitras) के रूप में चिह्नित किया जा सकता है।
  • आयुष चिकित्सकों की संख्या में वृद्धि: प्रत्येक एलोपैथिक स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था में AYUSH (आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) चिकित्सकों की संख्या में वृद्धि की जाए।
    • स्कूलों और कार्यस्थलों में ‘वेलनेस वेनेसडे’ (Wellness Wednesdays) की शुरुआत की जा सकती है, जहाँ सप्ताह के मध्य में योग और ध्यान के सत्र शामिल हों।
    • यह दृष्टिकोण समग्र स्वास्थ्य देखभाल को बढ़ावा देगा, गैर-संचारी रोगों की रोकथाम में सहायता करेगा और संपूर्ण जनसंख्या के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाएगा।
  • जलवायु क्लीनिक: जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में मोबाइल क्लीनिकों की तैनाती की जाए जो मौसम केंद्रों के रूप में भी कार्य कर सकते हैं।
    • 30% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सौर ऊर्जा, जल संचयन और ड्रोन-डिलीवरी पूर्व-तैयारी क्षमता के साथ जलवायु-प्रत्यास्थी एवं आत्मनिर्भर इकाइयों के रूप में उन्नत किया जाए।
    • स्वास्थ्य डेटा का उपयोग जलवायु संबंधी प्रभावों, जैसे बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के बाद होने वाले रोग प्रकोप, का पूर्वानुमान लगाने के लिये किया जाए।
    • किसानों को जलवायु-अनुकूल और पोषण-सघन फसलों की खेती का प्रशिक्षण दिया जाए।
    • इस पहल से सक्रिय जलवायु-स्वास्थ्य प्रबंधन, बेहतर पोषण परिणाम और जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहतर प्रत्यास्थता की स्थिति प्राप्त होगी।
  • ‘आभा’ का विस्तार: भारत के स्वास्थ्य देखभाल डेटा को युक्तिसंगत बनाने के लिये आयुष्मान भारत हेल्थ अकाउंट (Ayushman Bharat Health Accounts- ABHA) के राष्ट्रव्यापी विस्तार एवं प्रचार की आवश्यकता है। 
    • अतिस्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य रणनीतियों पर नज़र रखने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग किया जाए।
    • इसके परिणामस्वरूप व्यक्तिगत निवारक देखभाल, डेटा-संचालित सार्वजनिक स्वास्थ्य पहल और बेहतर समग्र स्वास्थ्य देखभाल परिणाम की स्थिति प्राप्त होगी।
  • महिला-नेतृत्व वाली स्वास्थ्य पंचायतें: स्थानीय स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों का लेखा-परीक्षण करने, स्वास्थ्य निधि आवंटित करने और स्वास्थ्य मेलों का आयोजन करने के लिये प्रत्येक पंचायत में पूर्णरूपेण महिला सदस्यता वाली स्वास्थ्य परिषदों की स्थापना की जाए।
    • स्थानीय स्वास्थ्य प्रशासन में सुधार के लिये इन परिषदों को सशक्त बनाया जाए और सर्वोत्तम स्वास्थ्य संकेतक प्रदर्शित करने वाले पंचायतों को अतिरिक्त विकास अनुदान देकर पुरस्कृत किया जाए।
    • यह पहल महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देगी, स्थानीय स्वास्थ्य प्रशासन को सुदृढ़ करेगी और ग्रामीण स्वास्थ्य परिणामों में सुधार लाएगी।

अभ्यास प्रश्न: भारत में स्वास्थ्य सेवा नियामक ढाँचे के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियों की चर्चा कीजिये। समतामूलक एवं कुशल स्वास्थ्य सेवा वितरण सुनिश्चित करने के लिये भारत में समग्र स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को सुदृढ़ करने के उपाय सुझाइये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन' के उद्देश्य हैं? (2017)

  1. गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं में कुपोषण के बारे में ज़ागरूकता पैदा करना।
  2.  छोटे बच्चों, किशोरियों और महिलाओं में एनीमिया के मामलों को कम करना।
  3.  बाजरा, मोटे अनाज और बिना पॉलिश किये चावल की खपत को बढ़ावा देना।
  4.  पोल्ट्री अंडे की खपत को बढ़ावा देना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a)  केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 3
(c) केवल 1, 2 और 4
(d) केवल 3 और 4

उत्तर: A

मेन्स:

प्रश्न. "एक कल्याणकारी राज्य की नैतिक अनिवार्यता के अलावा, प्राथमिक स्वास्थ्य संरचना धारणीय विकास की एक आवश्यक पूर्व शर्त है।" विश्लेषण कीजिये।


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