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राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति

''यदि धन खो दिया तो हमने कुछ नहीं खोया है, लेकिन यदि स्वास्थ्य खो दिया तो अवश्य कुछ खो दिया है।'' यह फ्रांसीसी लोकोत्ति बताती है कि स्वास्थ्य हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है और किसी भी कीमत पर इससे समझौता नहीं किया जा सकता। कहा भी जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। लेकिन कोविड महामारी ने हमारी स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और तैयारी की पोल खोल दी। और प्रकृति प्रदत्त ऑक्सीजन के लिए भी मनुष्य तरस गया और स्थितियां इतनी भयावह लगने लगी थीं कि संपूर्ण मानव प्रजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा था। खैर कड़ी मशक्क्त और अथक प्रयासों से जैसे तैसे इस आपदा ने पीछा तो छोड़ दिया पर मानवों और सरकारों के दिलों दिमाग में ऐसे निशान छोड़ें हैं जो आने वाले कई दशकों तक उन्हें स्वास्थ्य की महत्ता की याद दिलाते रहेंगे। इससे स्वास्थ्य को 'टेकेन फॉर ग्रांटेड' लेने की भूल सरकारें और मनुष्य आगे कभी न कर सकेंगे। इतना संदर्भ देने का मतलब सिर्फ इतना है कि सुश्रुत, चरक और वाग्भट्ट जैसे आयुर्वेदिक मनीषियों और आधुनिक समय में जेनेरिक फार्मेसी की भूमि भारत में स्वास्थ्य की स्थिति क्या है। इसी आलोक में आज 2017 में जारी की गयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करेंगे और जानेंगे कि इस नीति के उद्देश्यों की तरफ हमने कितने कदम बढ़ाएं हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के प्रमुख उद्देश्यों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में पर्याप्त निवेश को सुनिश्चित करना, मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल, जनसंख्या स्थिरीकरण, कुपोषण और सूक्ष्मपोषण कमियों को दूर करना, महिलाओं के स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल व उन्हें मुख्य धारा में लाने के साथ गैर सरकारी क्षेत्रों के सहयोग जैसे कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को शामिल किया गया है। हम इन बिंदुओं के जरिए स्वास्थ्य नीति की व्यापकता और कार्यान्वयन को समझने की कोशिश करेंगे-

स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त निवेश

इस नीति में समयबद्ध तरीके से स्वास्थ्य देखभाल व्यय को वर्तमान के 2.1 प्रतिशत के स्तर से 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाना है जिसमें कुल आवंटन का दो तिहाई से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय किया जाएगा। वित्त की कमी को हानिकारक प्रभाव रखने वाले क्षेत्रों जैसे शराब, तंबाकू और अवशोषक उद्योगों में कर लगाकर पूरा किया जाएगा। वहीं, कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत उपलब्ध वित्तीय संसाधनों को स्वास्थ्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों में खर्च करने की बात कही है। यह विडंबना ही है कि वैश्विक फार्मेसी होने के बाद, भारत में 70 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य देखभाल व्यय ‘आऊट ऑफ पॉकेट व्यय’ के रूप में होता है। इसे देखते हुए नीति में आपातकालीन व्यय में 2025 तक आज के स्तर से 25 प्रतिशत तक की कटौती की बात कही गयी है। कोविड जैसी महामारी ने दिखा दिया है कि आप अन्य चीजों की उपेक्षा कर सकते हैं पर स्वास्थ्य पर निवेश की नहीं।

जनसंख्या स्थिरीकरण

स्वास्थ्य नीति में इस बात को स्वीकार किया गया है कि सेवाओं की उपलब्धता में सुधार और शिक्षा व सशक्तीकरण के जरिए ही जनसंख्या स्थरीकरण की तरफ बढ़ा जा सकता है। साथ ही, इस बात पर जोर दिया गया है कि शिविर आधारित सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाई जाए, और कोई दिवस नियत करके जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित उपायों के लिए लोगों को जागरुकता कार्यक्रम का आयोजन किया जाए जिससे 2025 तक राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर टीएफआर को 2.1 पर लाने के साथ परिवार नियोजन की जरूरत को 90 प्रतिशत से ऊपर किया जा सके। भारतीय अर्थशात्री जीन ड्रेज का मानना है, "बड़ी आबादी होना एक बात है लेकिन इसे लाभप्रद बनाने के लिए हमें आबादी की गुणवत्ता पर ध्यान देने की ज़रूरत है। और यह ऐसी चीज़ है जिसमें भारत सुधार कर सकता है।"

महिला स्वास्थ्य

यह नीति महिला स्वास्थ्य देखभाल के लिए सरकारी अस्पतालों को महिलाओं के लिए अधिक अनुकूल बनाने साथ कर्मचारियों में संवेदनशीलता को बढ़ाने पर जोर देती है। इसके अलावा, नीति में लिंग आधारित हिंसा के गंभीर और विस्तृत परिणामों पर चिंता प्रकट करते हुए यह सिफारिश करती है कि पीड़ित महिलाओं को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में सम्मान के साथ निःशुल्क देखभाल उपलब्ध कराई जाए।

कुपोषण और सूक्ष्मपोषण की कमियों को दूर करना

सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं जिससे उनकी उत्तरजीविता, वृद्धि और विकास में बाधा उत्त्पन्न होती है। जिससे वयस्क होने होने पर उनकी उत्पादन क्षमता में कमी आती है और देश को कुशल मानव संसाधन नहीं मिल पाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए नीति में यह कहा गया है कि सूक्ष्म पोषक तत्वों को संपूरित करने वाले आहार, फोर्टिफिकेशन, रक्ताल्पता की जाँच और जन जागरूकता जैसे पहलुओं में बढ़ोतरी करने पर जोर दिया जाएगा। वहीं, गर्भवस्था के दौरान आयरन और फोलिक एसिड, आयोडीन युक्त नमक, जिंक तथा ओरल रिहाइड्रेशन साल्ट्स और विटामिन-ए उपलब्ध कराने के लिए किए जा रहे प्रयासों में तेजी लाने की ज़रूरत है। समाधान के तौर पर आंगनवाड़ी केंद्र और स्कूलों के जरिए पौष्टिक आहार और सूक्ष्म पोषक तत्वों को उपलब्ध कराने की बात की गयी है। सरकार ने इस दिशा में तेजी से कदम उठाए हैं और कई योजनाओं की शुरुआत की है।

आपातकालीन देखभाल और आपदा की तैयारी

इस नीति में प्राकृतिक और मानवजनित आपदा के बेहतर प्रबंधन के लिए विकेन्द्रित और प्रभावकारी क्षमता के उपयोग की बात की गयी है। आपदा संभावित क्षेत्रों में भूकंप एवं तूफानरोधी स्वास्थ्य अवसरंचना के विकास के साथ एक सार्वभौमिक एक्सेस नंबर जारी करने की वकालत की गयी है। कोविड जैसी महामारी ने हमें सिखाया भी है कि स्थानीय स्व-शासन और सामुदायिक संगठनों के सक्रिय सहयोग से ही ऐसी आपदाओं से सही तरीके से लड़ा जा सकता है। और इसके लिए प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवाओं में उचित समन्वय की ज़रूरत होगी।

आयुष की संभावनाओं को मुख्य धारा में लाना

इस नीति में राष्ट्रीय आयुष मिशन (एनएएम) के तहत अच्छे स्वास्थ्य के लिए योग को स्कूल और कार्यस्थलों में अधिक व्यापक रूप से पेश करने की बात की गयी है। कोविड के समय और उसके बाद योग की लोकप्रियता में काफी बढ़ी है। इसमें आयुर्वेदिक दवाओं को मानकीकृत व आयुष दवाओं के लिए एक मजबूत और प्रभावी गुणवत्ता नियंत्रण तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। जबकि आयुष प्रणालियों को आशा और ग्राम स्वास्थ्य एवं संगठन समिति (वीएचएसएनसी) के साथ जोड़ना इस नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू है। पारंपरिक सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं के 'पूर्व ज्ञान' के प्रमाणीकरण के लिए तंत्र विकसित करना और उन्हें आवश्यक कच्चे माल के संरक्षण और उत्पादन में संलग्न करने के साथ ही उनके कौशल को बढ़ाने के अवसर पैदा करना भी इस नीति का हिस्सा है। इन परंपरागत चिकित्सा प्रणालियों को अपनाकर अवसाद, मधुमेह जैसी जीवन शैली संबंधी बीमारियों से निजात पाया जा सकता है। आज योग और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतियां सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी धूम मचा रही हैं। इससे भारत में मेडिकल टूरिज़्म बढ़ रहा है।

चिकित्सा में प्रौद्योगिकी को बढ़ावा

इस नीति के तहत स्वास्थ्य सेवाओं में डिजिटल विनियमन को बढ़ावा देने के राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य प्राधिकरण की स्थापना की बात कही गयी है। सरकार ने 'आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन' के कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) की स्थापना की है जिससे नेशनल हेल्थ डिजिटल इको सिस्टम तैयार करने में मदद मिलेगी। वहीं,टेली-परामर्श को बढ़ावा देने के लिए मेडिकल कॉलेजों को जिला और उप-जिला अस्पतालों से जोड़ा जाएगा, जिसमें विशेषज्ञों से परामर्श के जरिए द्वितीयक स्तरीय स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने की बात कही गयी है। सरकार ने पायलट बेसिस पर टेली-परामर्श और डिजिटल हेल्थ कार्ड की शुरुआत की है।

सार्वजनिक-निजी साझेदारी

स्वास्थ्य क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागेदारी आज का सच बन चुका है, निजी क्षेत्र की सहभागिता के बिना इतनी बड़ी आबादी को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना नामुमकिन-सा है। इस नीति में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कमियों को दूर करने के लिए निर्धारित मानदंडों के मुताबिक समयबद्ध गुणवत्तापूर्ण सेवाओं की उपलब्धतता के आधार पर उन संगठनों और निजी क्षेत्र के साथ सहयोग करने की बात की गयी है जो लाभ के लिए कार्य नहीं करते हैं।

भारत अब भी 70 प्रतिशत से अधिक चिकित्सा उपकरण और यंत्र आयात करता है। इस नीति में मेक इन इंडिया के जरिए इनके घरेलू उत्पादन पर जोर दिया गया है। इसके अलावा, निजी सेक्टर को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन देने की बात भी कही गयी है।

इन सब के अलावा इस नीति में जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना, प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार करना, वैक्सीनेशन मानसिक स्वास्थ्य, नए उत्पाद की खोज, अनुसंधान और नैदानिक परीक्षण में शामिल होने वाले लोगों के अधिकारों की सुरक्षा जैसे कई पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। कोई नीति कितनी भी अच्छी हो, वह अच्छी तभी मानी जाती है जब उसका क्रियान्वयन भी बेहतर तरीके से किया गया हो। ज़रूरत इस बात की है कि अब इस नीति को कोविड जैसी आपदा के संदर्भ में देखा और समझा जाए।

बेहिसाब बढ़ता हुआ उपभोक्तावाद और बदलती जीवन शैली ने हमें अत्यधिक धनोपार्जन के लिए प्रेरित किया है और धन अर्जन ही हमारी अंतिम इच्छा बन कर रह गयी है, ऐसे में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के एक कथन को उद्धृत करना महत्वपूर्ण है, जिसके अनुसार 'केवल स्वास्थ्य ही वास्तविक सम्पत्ति है।' हमारे बूढ़े बुजुर्ग अक्सर कहा करते थे सबसे पहले स्वास्थ्य है बाकी सारी चीजें बाद में आती हैं। इतनी बड़ी युवा जनसंख्या अगर स्वस्थ और कुशल नहीं होगी तो 5 ट्रिलियन की अर्थव्यस्था के सपने को साकार करना मुश्किल हो जाएगा और हम सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति की तरफ प्रभावी कदम नहीं उठा पाएंगे। पिछले 70 वर्षों में भारत की जनसंख्या एक अरब बढ़ गई है, लेकिन स्वास्थ्य देखभाल का बुनियादी ढांचा आनुपातिक दर से नहीं बढ़ा है और स्वास्थ्य देखभाल में जेब से लगने वाली लागत में लगातार बढ़ोतरी हुई है। आयुष्मान भारत जैसी योजना ने स्वास्थ्य क्षेत्र में एक बड़े बदलाव की पहल की है पर स्वास्थ्य बीमा को लेकर जागरूकता अब भी नहीं के बराबर है, जबकि कम विकसित देशों में स्वास्थ्य बीमा का कवरेज भारत से कहीं बेहतर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति तभी सफल हो सकती है जब स्वास्थ्य में निजी क्षेत्र को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ बेहतर तरीके से नियोजित किया जाए। जिससे स्वास्थ्य के अधिकार का दायरा व्यापक होगा और 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया' की उक्ति को चरितार्थ किया जा सकेगा। वहीं, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को 2002 की स्वास्थ्य नीति के बाद से अब तक हुई प्रगति से आगे काम करना है। देखना है कि यह अपने उद्देश्यों को किस हद तक प्राप्त कर पाती है। भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी काम हुआ है परन्तु अभी और बहुत काम होना बाकी है। देश में स्वास्थ्य संरचना, उपचार, परीक्षण व शोध पर निरंतर कार्य करने की आवश्यकता है ताकि सबके स्वास्थ्य का सपना साकार हो सके।

  अनुज बाजपेई  

अनुज कुमार बाजपेई, उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के रहने वाले हैं, इन्होंने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया है और कई संस्थानों में काम करने के बाद अब स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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