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  • 05 Oct, 2024
  • 34 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

भारत में वन्यजीव संरक्षण का पुनःक्रमण

यह संपादकीय 04/10/2024 को द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित “Elephant in the room” पर आधारित है। यह लेख भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयासों में असमानता को प्रदर्शित करता है, जहाँ बाघों जैसी प्रजातियों में प्रगति देखी गई है, जबकि हाथियों को उपेक्षा और उनकी संख्या में कमी देखी गई है। यह पर्यावास ह्रास और मानव-पशु संघर्षों को संबोधित करने के लिये अधिक पारदर्शी, विज्ञान-आधारित उपागम की मांग करता है, विशेषकर हाथियों जैसी प्रजातियों के लिये।

प्रिलिम्स के लिये:

भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयास, हाथी, मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र, स्वदेश दर्शन योजना, निशि जनजाति का पारंपरिक हॉर्नबिल संरक्षण, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानबायोटेक-किसान कार्यक्रम, स्वदेश दर्शन योजना, ग्रीन इंडिया मिशन, CITES, जैवविविधता पर अभिसमय, रणथंभौर बाघ अभयारण्य, पश्चिमी घाट 

मेन्स के लिये:

भारत के लिये वन्यजीव संरक्षण का महत्त्व, भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयासों की प्रभावशीलता में बाधा उत्पन्न करने वाले कारक

भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयासों ने मिश्रित परिणाम प्रदर्शित किये हैं, जिसमें कुछ प्रजातियों को दूसरों की तुलना में अधिक ध्यान दिया गया है। वर्ष 2005 के संकट के बाद, बाघ की निगरानी के तरीकों में सुधार हुआ है और बाघों की संख्या का अधिक सटीक अनुमान लगाया गया है। यद्यपि, हाथी, एक अन्य प्रतिष्ठित प्रजाति, पर तुलनात्मक रूप से अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। हाथियों की गणना के तरीकों में हाल ही में हुए परिवर्तन से उनकी संख्या में पर्याप्त कमी का पता चला है, परंतु सरकार ने कथित तौर पर इस महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया है, जिससे पारदर्शिता और संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता पर प्रश्न उठ रहे हैं।

संरक्षण उपागमों में यह असमानता भारत की वन्यजीव प्रबंधन कार्यनीतियों में व्यापक मुद्दों को प्रकट करती है। हाथियों के पर्यावास पर मानवीय गतिविधियों का काफी प्रभाव पड़ा है, जिससे मानव-पशु संघर्ष में वृद्धि हुई है। प्रभावी संरक्षण योजना और इन संघर्षों को कम करने के लिये सटीक संख्या अनुमान तथा वितरण आँकड़ा आवश्यक हैं। वर्तमान स्थिति भारत में वन्यजीव संरक्षण के लिये अधिक व्यापक, विज्ञान-आधारित उपागम की आवश्यकता को रेखांकित करती है, विशेष रूप से हाथियों जैसी प्रजातियों के लिये, जो तेजी से परिवर्तित होते परिदृश्यों में मनुष्यों के साथ अपना पर्यावास साझा करते हैं।

भारत के लिये वन्यजीव संरक्षण का क्या महत्त्व है? 

  • जैवविविधता संरक्षण और पारिस्थितिकी तंत्र स्थिरता: विश्व के 17 महाविविधता वाले देशों में से एक भारत में वैश्विक भूमि क्षेत्र के मात्र 2.4% भाग में विश्व की ज्ञात जैवविविधता का लगभग 8% विद्यमान है। 
    • यह समृद्ध जैव विविधता पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता को संधारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जो मानव अस्तित्व के लिये महत्त्वपूर्ण है। 
    • उदाहरण के लिये, भारत के समुद्र तटों के किनारे मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र, जो विविध प्रजातियों का निवास स्थान है, चक्रवातों और सुनामी के विरुद्ध प्राकृतिक अवरोध प्रदान करता है। 
      • भारतीय प्राणी सर्वेक्षण द्वारा 2021 के अध्ययन में बताया गया है कि सुंदरबन में मैंग्रोव ने वर्ष 2020 में चक्रवात अम्फान के प्रभाव को कम किया, जिससे लाखों लोगों की रक्षा हुई। 
      • इसके अतिरिक्त, भारत के वन, जो भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 21.71% क्षेत्र को आच्छादित करते हैं (भारतीय वन सर्वेक्षण, 2021), कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं, जो लगभग 7,124.6 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य को अवशोषित करते हैं।
  • संवहनीय पर्यटन के माध्यम से आर्थिक लाभ: वन्यजीव संरक्षण, इकोटूरिज्म के माध्यम से भारत की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। 
    • भारत में वन्यजीव पर्यटन की मांग वर्ष 2034 तक 7.40% CAGR की दर से बढ़ने का अनुमान है। 
    • चयनित बाघ रिजर्वों से प्राप्त प्रवाह लाभ का मौद्रिक मूल्य प्रतिवर्ष 8.3 से 17.6 बिलियन तक है।
    • उदाहरण के लिये, मध्य प्रदेश, जिसे 'टाइगर स्टेट' के नाम से जाना जाता है, में आने वाले पर्यटन में 30-40% की वृद्धि होने का अनुमान है, जिसका मुख्य कारण वहाँ का वन्यजीव आकर्षण है। 
    • इसके अतिरिक्त, स्वदेश दर्शन योजना जैसी सरकार की पहलों ने वन्यजीव पर्यटन को प्रोत्साहित किया है, स्थानीय रोज़गार का सृजन किया है और संरक्षण प्रयासों को समर्थन दिया है।
  • पारंपरिक ज्ञान संरक्षण और सांस्कृतिक विरासत: भारत में वन्यजीव संरक्षण आंतरिक रूप से पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण से संबंधित है। 
    • कई स्थानीय समुदायों, जैसे राजस्थान के बिश्नोई या अरुणाचल प्रदेश की निशी जनजाति, की संस्कृति में लंबे समय से संरक्षण संबंधी प्रथाएँ अंतर्निहित हैं। 
  • जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन: जलवायु परिवर्तन से निपटने के भारत के प्रयासों में वन्यजीव संरक्षण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 
    • स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र चरम मौसम की घटनाओं के विरुद्ध प्राकृतिक अवरोधक के रूप में कार्य करते हैं तथा कार्बन अवशोषण में सहायता करते हैं। 
    • उदाहरण के लिये, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के तहत भारत की वर्ष 2030 तक 2.5-3 बिलियन टन CO2 समतुल्य अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने की प्रतिबद्धता, वन और वन्यजीव संरक्षण पर बहुत अधिक निर्भर करती है। 
    • ग्रीन इंडिया मिशन जैसी हालिया पहल, जिसका लक्ष्य 5 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वन क्षेत्र की वृद्धि करना है, इस संबंध के प्रति सरकार की मान्यता को प्रदर्शित करती है। 
    • इसके अतिरिक्त, जैव विविधता का संरक्षण जलवायु परिवर्तन के प्रति पारिस्थितिकी तंत्र की समुत्थानशीलता को संवर्द्धित करता है। 
    • वर्ष 2015 के एक अध्ययन में कहा गया है कि जिन क्षेत्रों में प्रजातियों की विविधता अधिक है, वे जलवायु परिवर्तनों के प्रति अधिक समुत्थानशील हैं, जिससे जलवायु अनुकूलन कार्यनीतियों में संरक्षण के महत्त्व पर बल दिया गया है।
  • जल सुरक्षा और जलग्रहण क्षेत्रों का संरक्षण: वन्यजीव पर्यावास, विशेषकर वन, जलग्रहण क्षेत्रों की सुरक्षा और जल प्रवाह को विनियमित करके भारत की जल सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • गुरुग्राम में अरावली जैवविविधता उद्यान को वर्ष 2022 में भारत के पहले "अन्य प्रभावी क्षेत्र-आधारित संरक्षण उपाय" स्थल के रूप में हाल ही में मान्यता दी गई है, जो शहरी जैवविविधता संरक्षण और जल सुरक्षा के बीच संबंध के विषय में बढ़ती जागरूकता को प्रकट करता है, क्योंकि यह जल-संकटग्रस्त राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भूजल के पुनर्भरण में सहायता करता है।
  • औषध और जैव प्रौद्योगिकी क्षमता: भारत की समृद्ध जैव विविधता में औषध और जैव प्रौद्योगिकी खोजों की अपार संभावनाएँ हैं। 
    • देश का वन्यजीव अनेक औषधीय यौगिकों का स्रोत रहा है, जिसमें पारंपरिक ज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 
    • उदाहरण के लिये, भारतीय मोनोकल्ड कोबरा के विष से निर्मित एक नवीन सूजनरोधी दवा का विकास इस क्षमता को प्रदर्शित करता है। 
    • इसके अतिरिक्त, सरकार के बायोटेक-किसान कार्यक्रम का उद्देश्य भारतीय जैव प्रौद्योगिकी को संरक्षण और ग्रामीण विकास से जोड़ना है तथा जैवविविधता संरक्षण के आर्थिक महत्त्व पर बल देना है।
  • अंतर्राष्ट्रीय राजनय: भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयास इसकी सॉफ्ट पावर और अंतर्राष्ट्रीय राजनय में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। 
    • ग्लोबल टाइगर रिकवरी प्रोग्राम जैसी पहलों के माध्यम से बाघ संरक्षण में देश के नेतृत्व ने इसकी वैश्विक पर्यावरणीय स्थिति को संवर्द्धित किया है।
    • वर्ष 2018 की बाघ गणना में बाघों की संख्या में वृद्धि देखी गई। भारत ने बाघ संरक्षण पर सेंट पीटर्सबर्ग घोषणापत्र के निर्धारित समय से 4 वर्ष पहले ही बाघों की संख्या दोगुनी करने का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है।
    • इसके अतिरिक्त, CITES और  जैवविविधता पर अभिसमय (CBD) जैसी वैश्विक संरक्षण संधियों में भारत की सक्रिय भागीदारी अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण वार्ता में इसकी स्थिति को सुदृढ़ करती है। 
    • "द एलीफेंट व्हिस्परर्स", जिसे वर्ष 2023 में सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट के लिये ऑस्कर दिया गया है, भारतीय समुदायों और वन्यजीवों के बीच गहन संबंध को प्रकट करता है।

भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयासों की प्रभावशीलता में कौन से कारक बाधा उत्पन्न कर रहे हैं?

  • अपर्याप्त निधियन और संसाधन आवंटन: जैवविविधता का केंद्र होने के बावजूद, वन्यजीव संरक्षण के लिये भारत का बजट आवंटन अपर्याप्त है। 
    • केंद्रीय बजट 2024-25 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को 3330.37 करोड़ रुपये आवंटित किये गए हैं।
      • इस अपर्याप्त निधियन के कारण पर्यावास संरक्षण, शिकार-रोधी उपाय और वैज्ञानिक अनुसंधान जैसे महत्त्वपूर्ण पहलू प्रभावित होते हैं। 
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2021 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि रणथंभौर बाघ अभयारण्य में बाघों की निगरानी में भारी कमी आई है, जिसमें एक कर्मचारी 30 वर्ग किलोमीटर में दो बाघों की निगरानी कर रहा है। 
    • संसाधनों की कमी निगरानी और संरक्षण के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों के कार्यान्वयन में भी बाधा डालती है, जिससे विशाल वन क्षेत्र अवैध गतिविधियों के प्रति सुभेद्य हो जाते हैं।
  • मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि: जैसे-जैसे मानव जनसंख्या में वृद्धि हो रही है और प्राकृतिक पर्यावासों पर अतिक्रमण हो रहा है, वन्यजीवों के साथ संघर्ष तीव्र हो गया है। 
    • विगत् पाँच वर्षों में मानव-हाथी संघर्ष के कारण 2853 लोगों की मृत्यु हुई, जो वर्ष 2023 में 628 तक पहुँच जाएगी।
      • केवल तमिलनाडु में वर्ष 2017-2020 के बीच वन्यजीवों द्वारा फसल क्षति के 7,562 मामले सामने आए।
    • सरकार की प्रतिक्रिया प्रायः सक्रिय होने के बजाय प्रतिक्रियात्मक रही है तथा दीर्घकालिक समाधान के बजाय मुआवज़े पर ध्यान केंद्रित किया गया है। 
  • पर्यावास विखंडन और ह्रास: तीव्र शहरीकरण और आधारिक संरचना के विकास के कारण पर्यावासों का गंभीर नुकसान और विखंडन हुआ है। 
    • भारत ने वर्ष 2000 से अब तक 2.33 मिलियन हेक्टेयर वृक्ष आवरण खो दिया है। राष्ट्रीय राजमार्गों के विस्तार और मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन परियोजना जैसी प्रमुख परियोजनाओं ने महत्त्वपूर्ण वन्यजीव पर्यावासों को और अधिक विखंडित कर दिया है। 
    • गोवा के मोल्लेम राष्ट्रीय उद्यान का मामला इस मुद्दे का उदाहरण है, जहाँ तीन रेखीय परियोजनाएँ मोल्लेम राष्ट्रीय उद्यान और भगवान महावीर वन्यजीव अभयारण्य के आसपास के वनों के लिये खतरा बन गई हैं।
    • हानिकारक प्रभावों के वैज्ञानिक प्रमाणों के बावजूद, ऐसी परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय मंजूरी में प्रायः संरक्षण की तुलना में विकास को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे अधिक संतुलित निर्णयन की प्रक्रिया की आवश्यकता पर प्रकाश डाला जाता है।
  • वन्यजीव कानूनों का अपर्याप्त कार्यान्वयन: यद्यपि भारत में वन्यजीव संरक्षण के लिये सुदृढ़ कानून हैं, फिर भी उनका कार्यान्वयन प्रायः अपर्याप्त रहता है। 
    • वर्ष 2014 से वर्ष 2021 के बीच वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो ने 717 संयुक्त अभियान चलाए, जिसके परिणामस्वरूप 1488 वन्यजीव अपराधियों को हिरासत में लिया गया, परंतु दोषसिद्धि की गति बहुत धीमी रही।
    • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972, संशोधनों के बावजूद, वन विभाग कम कर्मचारियों तथा प्रवर्तन कर्मियों के अपर्याप्त प्रशिक्षण के कारण प्रभावी प्रवर्तन के लिये संघर्ष करता है। 
    • फोरेंसिक सुविधाओं की कमी, न्यायिक प्रक्रियाओं में विलंब और विभिन्न प्रवर्तन एजेंसियों के बीच अपर्याप्त समन्वय वन्यजीव कानूनों के कार्यान्वयन को और कमज़ोर करते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: जलवायु परिवर्तन भारत के वन्य जीवन के लिये एक बड़ा खतरा बन गया है, फिर भी संरक्षण कार्यनीतियाँ प्रायः इस चुनौती से निपटने में विफल रहती हैं। 
    • वर्द्धित तापमान और परवर्तित होते वर्षा प्रारूप के कारण पर्यावास और प्रवास प्रारूप में परिवर्तन आ रहा है। 
    • चरम मौसम के कारण वर्ष 2050 तक पश्चिमी घाट की लगभग 33% जैव विविधता नष्ट हो जाएगी।
      • यह अपरिवर्तनीय है। इस परिवर्तन के तहत, वन सदाबहार से पर्णपाती और शुष्क पर्णपाती में परिवर्तित हो जाएंगे। 
    • बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर स्थित विशाल मैंग्रोव डेल्टा, सुंदरवन में पिछले दो दशकों में समुद्र का स्तर औसतन 3 सेंटीमीटर प्रति वर्ष बढ़ गया है, जिसके कारण विश्व में तटीय अपरदन की दर सबसे तीव्र हो गई है।
    • इन भयावह भविष्यवाणियों के बावजूद, वन्यजीव संरक्षण में जलवायु अनुकूलन कार्यनीतियाँ अविकसित और अपर्याप्त वित्तपोषित बनी हुई हैं तथा केवल कुछ संरक्षित क्षेत्रों में ही जलवायु कार्य योजनाएँ हैं।
  • सामुदायिक भागीदारी और सतत् आजीविका विकल्पों का अभाव: संरक्षण प्रयासों में प्रायः संरक्षित क्षेत्रों में और उसके आसपास रहने वाले स्थानीय समुदायों की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। 
    • संरक्षण के प्रति पारंपरिक अधोमुखी उपागम के कारण पृथकीकरण और संघर्ष में वृद्धि हुई है। 
    • यद्यपि इकोटूरिज्म जैसी पहल मौजूद हैं, परंतु वे प्रायः स्थानीय समुदायों को पर्याप्त लाभ प्रदान करने में विफल रहती हैं। 
      • कुनो में चीतों के लाए जाने से एक तरह से स्थानीय समुदायों को हाशिये पर धकेल दिया है, जिससे उन्हें वादा किये गए मुआवज़े या स्थायी आजीविका से वंचित होना पड़ा है, जबकि पर्यटन लाभ से विस्थापित लोगों को कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है।
      • संरक्षण लक्ष्यों और सामुदायिक आवश्यकताओं के बीच यह विसंगति दीर्घकालिक संरक्षण सफलता को कमज़ोर करती है और वन्यजीव संरक्षण प्रयासों के लिये स्थानीय समर्थन में कमी लाती है।
  • अपर्याप्त वैज्ञानिक अनुसंधान और निगरानी: विशिष्ट और स्वदेशी विविध पारिस्थितिकी प्रणालियों के होने के बावजूद, वन्यजीव अनुसंधान में भारत का निवेश कम है। 
    • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का योगदान केंद्र सरकार के प्रमुख अनुसंधान एवं विकास व्यय का केवल 0.8% है।
    • हाथियों की संख्या के अनुमान को लेकर हाल ही में उठे विवाद में, जहाँ सरकार ने कथित तौर पर कमी दिखाने वाली रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया, वैज्ञानिक डेटा प्राप्त करने और उसका उपयोग करने में चुनौतियों को प्रकट करता है। 
    • इसके अतिरिक्त, कई प्रजातियों, विशेषकर कम ज्ञात प्रजातियों, पर दीर्घकालिक संख्या अध्ययन का अभाव है। 140 वर्ष बाद पुनः अन्वेषित की गई एक दुर्लभ वृक्ष प्रजाति उनियाला मल्टी ब्रेक्टीटा  पश्चिमी घाट के एक गैर-संरक्षित क्षेत्र में पाई गई, जो इस मुद्दे की गंभीरता को प्रकट करती है। 
  • राजनीतिक और आर्थिक दबाव का संरक्षण आवश्यकताओं पर  अध्यारोहण: नीतिगत निर्णयों में प्रायः आर्थिक विकास को संरक्षण पर प्राथमिकता दी जाती है। 
    • इज़ ऑफ डूइंग बिजनस संबंधी पहलों के कारण कभी-कभी पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों में कमी आ जाती है। 
    • उदाहरण के लिये, पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना 2020 का उद्देश्य सार्वजनिक परामर्श अवधि को कम करना और कुछ परियोजनाओं को जांच से छूट देना था, जो संभावित रूप से वन्यजीव पर्यावासों को प्रभावित कर सकती थीं। 
    • इसी प्रकार, आधारिक संरचना के विकास के लिये प्रयास, हालाँकि आवश्यक है, कभी-कभी वन्यजीवन की मूल्य पर किया जाता है। 
      • ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का मामला, जहाँ इसके पर्यावास में बिजली लाइनों ने इसकी संख्या में महत्त्वपूर्ण गिरावट में योगदान दिया है, यह प्रदर्शित करता है कि कैसे अच्छी मंशा से किया गया विकास भी, यदि उचित रूप से योजनाबद्ध न हो, तो संरक्षण प्रयासों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।

भारत में वन्यजीव संरक्षण प्रयासों को पुनःक्रमित करने के लिये क्या उपाय अंगीकृत किये जा सकते हैं? 

  • निधियन और संसाधन आवंटन में वृद्धि: वन्यजीव संरक्षण के लिये बजट आवंटन में उल्लेखनीय वृद्धि की जानी चाहिये। भूटान के सफल भूटान फॉर लाइफ फंड की तरह ग्रीन बॉन्ड और संरक्षण ट्रस्ट फंड जैसे अभिनव निधियन प्रणाली को कार्यान्वित किया जाना चाहिये।
    • संरक्षण परियोजनाओं के लिये कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) निधि के आवंटन को प्राथमिकता देना चाहिये। 
    • संरक्षण के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी स्थापित किया जाना चाहिये, सतपुड़ा लैंडस्केप टाइगर पार्टनरशिप जैसे मॉडलों का अनुसरण करना चाहिये, जिसने मध्य भारत में सफलता का प्रदर्शन किया है। 
    • उन्नत संरक्षण प्रौद्योगिकियों, जैसे कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) संचालित अवैध शिकार विरोधी प्रणालियाँ और पर्यावास निगरानी के लिये सुदूर संवेदन, के विकास और कार्यान्वयन में सहायता के लिये एक समर्पित वन्यजीव प्रौद्योगिकी कोष का निर्माण करना चाहिये।
  • व्यापक मानव-वन्यजीव संघर्ष शमन कार्यनीतियों का कार्यान्वयन: स्थानीय पारिस्थितिक और सामाजिक-आर्थिक संदर्भों पर विचार करते हुए राज्य-विशिष्ट मानव-वन्यजीव संघर्ष (HWC) शमन योजनाओं को विकसित और कार्यान्वित करना चाहिये। 
    • तमिलनाडु के वलपराई में SMS-आधारित चेतावनी प्रणाली जैसी पूर्व चेतावनी प्रणालियों के उपयोग का विस्तार करना चाहिये, जिससे मानव-हाथी संघर्ष में कमी आई है। 
    • सौर ऊर्जा चालित बाड़ और जैव-बाड़ जैसी भौतिक बाधाओं में निवेश में वृद्धि की जानी चाहिये।
    • KVIC ने मधुमक्खी बाड़ बनाकर मानव-हाथी संघर्ष को कम करने के लिये प्रोजेक्ट री-हैब का शुभारंभ किया, जिससे हाथियों को मधुमक्खियों का उपयोग करके रोका जा सके।
      • यह नवीन, लागत प्रभावी विधि मनुष्यों और हाथियों दोनों को होने वाले नुकसान से बचाती है तथा संघर्ष का स्थायी समाधान सुनिश्चित करती है।
  • पर्यावास संपर्क और गलियारे की पुनःप्राप्ति को प्राथमिकता: देश भर में महत्त्वपूर्ण वन्यजीव गलियारों की पहचान, सुरक्षा और पुनर्स्थापना के लिये राष्ट्रीय वन्यजीव गलियारा कार्यक्रम शुरू करना चाहिये। 
    • रैखिक अवसंरचना परियोजनाओं पर राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की वर्ष 2019 की रिपोर्ट की सिफारिशों को कार्यान्वित करते हुए पशु गलियारों को पार करने वाली सभी नई परियोजनाओं में वन्यजीव मार्ग को अनिवार्य करना चाहिये। 
    • नगालैंड में सामुदायिक संरक्षित क्षेत्र जैसी पहलों के माध्यम से गलियारा प्रबंधन में स्थानीय समुदायों को शामिल करना चाहिये।
    • भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी और वन्यजीव पदांकन आँकड़ा का उपयोग निरंतर निगरानी और गलियारा प्रबंधन कार्यनीतियों को अनुकूलित करने के लिये किया जाएगा, जैसा कि मध्य भारतीय परिदृश्य में भारतीय वन्यजीव संस्थान की गलियारा मानचित्रण परियोजना द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
  • वन्यजीव विधि प्रवर्तन और अवैध शिकार विरोधी उपायों का सुदृढ़ीकरण: सभी बाघ अभयारण्यों में M-STrIPES (बाघों की गहन सुरक्षा और पारिस्थितिकी स्थिति के लिये निगरानी प्रणाली) के अनिवार्य उपयोग को कार्यान्वित और अन्य संरक्षित क्षेत्रों में इसके उपयोग का विस्तार किया जाना चाहिये।
    • नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रमों और प्रमाणन के माध्यम से वन कर्मचारियों की क्षमता निर्माण में निवेश किया जाना चाहिये।
    • थर्मल इमेजिंग कैमरे और ध्वनिक जाल जैसी उन्नत शिकार-रोधी प्रौद्योगिकियों को कार्यान्वित किया जाना चाहिये, जैसा कि काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है, जिससे गैंडों के अवैध शिकार में कमी आएगी।
    • नियमित संयुक्त अभियान और सूचना साझाकरण के माध्यम से वन्यजीव अपराध पर अंतर-राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को सुदृढ़ करना चाहिये।
  • संरक्षण योजना में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन का समेकन: सभी प्रमुख संरक्षित क्षेत्रों के लिये जलवायु-समेकित संरक्षण योजनाएं विकसित की जा सकती है।
    • भूदृश्य समुत्थानशीलता में वृद्धि के लिये बफर क्षेत्रों और वन्यजीव गलियारों में जलवायु-स्मार्ट कृषि और कृषि वानिकी को संवर्द्धित किया जाना चाहिये।
    • भारतीय जैव विविधता पोर्टल जैसी नागरिक विज्ञान पहलों का लाभ उठाते हुए, वन्यजीवों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर एक राष्ट्रीय डेटाबेस तैयार करना चाहिये।
  • सामुदायिक भागीदारी का संवर्द्धन: उत्तराखंड की वन पंचायतों जैसे सफल समुदाय-आधारित संरक्षण मॉडल को संवर्द्धित किया जा सकता है।
    • मध्य प्रदेश के पेंच बाघ अभयारण्य के मॉडल का अनुसरण करते हुए, स्थानीय समुदायों को सीधे लाभ पहुँचाने वाली इकोटूरिज्म पहलों का विस्तार किया जाना चाहिये। 
    • संरक्षण-संगत क्षेत्रों में वैकल्पिक आजीविका के लिये कौशल निर्माण कार्यक्रम विकसित किया जा सकता है, जैसे कि ओडिशा में CAMPA- वित्त पोषित कौशल पहल।
  • वैज्ञानिक अनुसंधान और निगरानी को प्रोत्साहन: दीर्घकालिक पारिस्थितिक अध्ययन और नवीन अनुसंधान को समर्थन देने के लिये एक समर्पित वन्यजीव अनुसंधान कोष की स्थापना की जानी चाहिये।
    • मलेशिया के दानम वैली फील्ड सेंटर के मॉडल का अनुसरण करते हुए प्रमुख जैवविविधता हॉटस्पॉट में क्षेत्रीय अनुसंधान स्टेशनों का एक नेटवर्क का निर्माण करना चाहिये।
    • अखिल भारतीय बाघ आकलन अभ्यास की सफलता के आधार पर, विभिन्न वर्गों और पारिस्थितिकी प्रणालियों में मानकीकृत वन्यजीव निगरानी प्रोटोकॉल का एक समूह विकसित और कार्यान्वित किया जाना चाहिये। 
  • पर्यावरणीय मंजूरी प्रक्रियाओं का संरेखन: सभी प्रमुख विकास योजनाओं और कार्यक्रमों के लिये एक व्यापक कार्यनीतिक पर्यावरणीय मूल्यांकन (SEA) प्रणाली को कार्यान्वित किया जा सकता है।
    • आधारिक संरचना की योजना के लिये प्रजाति-विशिष्ट संवेदनशीलता मानचित्रों का विकास और उपयोग अनिवार्य किया जाना चाहिये।
    • पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में परियोजनाओं के लिये संचयी प्रभाव मूल्यांकन की प्रणाली को कार्यान्वित किया जा सकता है।

निष्कर्ष: 

भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयासों पर तत्काल ध्यान देने और अधिक न्यायसंगत, पारदर्शी और विज्ञान-आधारित उपागमों की ओर स्थानांतरण की आवश्यकता है। निधियन अंतराल को संबोधित करके, सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाकर और पर्यावास संरक्षण को प्राथमिकता देकर, देश अपनी समृद्ध जैवविविधता की रक्षा कर सकता है तथा वन्यजीवों और मानव आबादी के बीच स्थायी सह-अस्तित्व सुनिश्चित कर सकता है। प्रभावी संरक्षण के लिये एक ठोस प्रयास आवश्यक है जो हाथियों जैसी प्रमुख प्रजातियों और उनके पर्यावास की संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र दोनों की रक्षा करता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

Q. भारत में वन्यजीव संरक्षण पहलों के समक्ष प्रस्तुत होने वाली प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। ये चुनौतियाँ विद्यमान संरक्षण नीतियों की प्रभावशीलता को कैसे अवमूल्यित करती हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत् वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न. यदि किसी पौधे की विशिष्ट जाति को वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम, 1972 की अनुसूची VI में रखा गया है, तो इसका क्या तात्पर्य है?

(a) उस पौधे की खेती करने के लिये लाइसेंस की आवश्यकता है।
(b) ऐसे पौधे की खेती किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकती।
(c) यह एक आनुवंशिकतः रूपांतरित फसली पौधा है।
(d) ऐसा पौधा आक्रामक होता है और पारितंत्र के लिये हानिकारक होता है।

उत्तर: (a)


Q. निम्नलिखित में से कौन-से भौगोलिक क्षेत्र में जैवविविधता के लिये संकट हो सकते हैं?

  1. वैश्विक तापन
  2. आवास का विखण्डन
  3. विदेशी जाति का संक्रमण
  4. शाकाहार को प्रोत्साहन

निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही. उत्तर चुनिये :

(a) केवल 1, 2 और 3
(b) कैवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (a)


मेन्स

Q. भारत में जैव विविधता किस प्रकार अलग अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणिजात के संरक्षण में जैवविविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है? (2018)


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