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डेली न्यूज़

  • 29 Apr, 2021
  • 32 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत-जापान

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जापान के प्रधानमंत्री के साथ टेलीफोन वार्ता के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री ने उच्च प्रौद्योगिकी, कौशल विकास और कोविड-19 महामारी से लड़ने सहित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की।

Japan

प्रमुख बिंदु:

कोविड-19 की स्थिति:

  • इस दौरान महामारी से उत्पन्न चुनौतियों को दूर करने के लिये भारत-जापान सहयोग के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया तथा विविधतापूर्ण और भरोसेमंद आपूर्ति शृंखला बनाने, महत्त्वपूर्ण सामग्री तथा प्रौद्योगिकियों की विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करने और विनिर्माण तथा कौशल विकास में नई साझेदारी विकसित करने पर ज़ोर दिया गया।
    • इस संदर्भ में दोनों नेताओं ने अपनी क्षमताओं के तालमेल और पारस्परिक रूप से लाभकारी परिणाम प्राप्त करने के लिये निर्दिष्ट कुशल श्रमिक (SSW) समझौते के शीघ्र संचालन की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया।
    • उन्होंने मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल (MAHSR) परियोजना को दोनों देशों के सहयोग के एक उदाहरण के रूप में रेखांकित किया।

भारत-प्रशांत सहयोग:

  • इस दौरान जापान-भारत द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग की पुष्टि की गई, जिसमें एक स्वतंत्र और खुले भारत-प्रशांत क्षेत्र के निर्माण की दिशा में जापान-ऑस्ट्रेलिया-भारत-अमेरिका चतुर्भुज सहयोग (क्वाड ) शामिल है।

विभिन्न क्षेत्रों में संभावित सहयोग:

  • दोनों देशों के बीच 5G, सबमरीन केबल, औद्योगिक प्रतिस्पर्द्धा को मज़बूत करने, पूर्वोत्तर राज्य में आपूर्ति शृंखलाओं और विकास परियोजनाओं के विविधीकरण आदि में भी सहयोग की संभावना है।

भारत और जापान के बीच अन्य हालिया विकास:

  • हाल ही में भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने भारत-प्रशांत क्षेत्र में आपूर्ति शृंखला में चीन के प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिये औपचारिक रूप से ‘सप्लाई चैन रेज़ीलिएंस इनीशिएटिव’ (SCRI) की शुरुआत की है।
    • SCRI का लक्ष्य इस क्षेत्र में मज़बूत, स्थायी, संतुलित और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिये लचीली आपूर्ति शृंखला का निर्माण करना है।
  • हाल ही में जापान ने भारत में कई प्रमुख अवसंरचना परियोजनाओं के लिये लगभग 233 बिलियन येन के ऋण और अनुदान को अंतिम रूप दिया है, जिसमें अंडमान और निकोबार के लिये एक परियोजना भी शामिल है।
  • वर्ष 2020 में भारत और जापान ने एक रसद समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, जो दोनों देशों के सशस्त्र बलों को सेवाओं और आपूर्ति में निकट समन्वय स्थापित करने की अनुमति देगा। इस समझौते को ‘अधिग्रहण और क्रॉस-सर्विसिंग समझौते’ (ACSA) के रूप में जाना जाता है।
  • वर्ष 2014 में भारत और जापान ने अपने संबंधों को 'विशेष रणनीतिक और वैश्विक भागीदारी' के क्षेत्र में उन्नत किया था।
  • अगस्त 2011 में लागू ‘भारत-जापान व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता’ (CEPA) वस्तुओं और सेवाओं के व्यापार, निवेश, बौद्धिक संपदा अधिकार, कस्टम प्रक्रियाओं और व्यापार से संबंधित अन्य मुद्दों को शामिल करता है।
  • रक्षा अभ्यास:
    • भारत और जापान के रक्षा बलों के बीच विभिन्न द्विपक्षीय अभ्यासों का आयोजन किया जाता है, जिसमें JIMEX (नौसेना), SHINYUU मैत्री (वायु सेना), और धर्म गार्जियन (थल सेना) आदि शामिल हैं। दोनों देश संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मालाबार अभ्यास (नौसेना अभ्यास) में भी भाग लेते हैं।

आगे की राह:

  • अधिक सहयोग और सहभागिता दोनों देशों के लिये फायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि भारत को जापान से परिष्कृत तकनीक की आवश्यकता है।
  • ‘मेक इन इंडिया’ के संबंध में बहुत बड़ी संभावना है। भारतीय कच्चे माल और श्रम के साथ जापानी डिजिटल प्रौद्योगिकी का विलय करके संयुक्त उद्यम बनाए जा सकते हैं।
  • भौतिक के साथ-साथ डिजिटल स्पेस में एशिया और इंडो-पैसिफिक में चीन के बढ़ते प्रभुत्व से निपटने के लिये दोनों देशों का करीबी सहयोग सबसे अच्छा उपाय है।

स्रोत- द हिंदू


आंतरिक सुरक्षा

संयुक्त लॉजिस्टिक्स नोड

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (Chief of Defence Staff) जनरल बिपिन रावत ने मुंबई में तीसरे ‘संयुक्त लॉजिस्टिक्स नोड’ (Joint Logistics Node- JLN) की शुरुआत की है। 

  • अन्य परिचालित ‘संयुक्त लॉजिस्टिक्स नोड’ गुवाहाटी और पोर्ट ब्लेयर में स्थित हैं।

प्रमुख बिंदु: 

संयुक्त लॉजिस्टिक्स नोड का महत्त्व:

  • ये संयुक्त लॉजिस्टिक नोड छोटे हथियारों, गोला-बारूद, राशन, ईंधन, जनरल स्टोर, सिविल ट्रांसपोर्ट, पुर्जों और इंजीनियरिंग कार्यों में सहयोग के लिये तीनों सेनाओं को एकीकृत लॉजिस्टिक कवर प्रदान करेंगे।
  • यह पहल वित्तीय बचत के अलावा, मानवशक्ति की बचत और संसाधनों का इष्टतम उपयोग करने में भी महत्त्वपूर्ण होगी। 
  • इन्हें ‘संयुक्त लॉजिस्टिक कमान’ के अग्रगामी के रूप में स्थापित किया गया है, जो कि एकीकृत थियेटर कमांड (Integrated Theatre Command) के इष्टतम प्रयोग हेतु महत्त्वपूर्ण है।
    • एकीकृत थियेटर कमांड स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य भविष्य में होने वाली किसी भी युद्ध की स्थिति में सैन्य संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग सुनिश्चित करना है।

एकीकृत थियेटर कमांड:

  • एकीकृत थियेटर कमांड का आशय सुरक्षा और रणनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण किसी भौगोलिक क्षेत्र के लिये एक ही कमान के अधीन तीनों सशस्त्र सेनाओं (थल सेना, वायुसेना और नौसेना) के एकीकृत कमांड से है। 
  • इन बलों (थल सेना, वायुसेना और नौसेना) के कमांडर अपनी क्षमताओं के साथ किसी भी विपरीत परिस्थिति में सभी संसाधनों को वहन करने में सक्षम होंगे।
  • एकीकृत थिएटर कमांड ‘व्यक्तिगत सेवाओं’ (Individual Services) के प्रति जवाबदेह नहीं होगा।
  • तीनो बलों का एकीकरण संसाधनों के दोहराव को कम  करेगा। एक सेवा के तहत उपलब्ध संसाधन को अन्य सेवाओं में भी उपयोग किया जा सकेगा।
  • इससे रक्षा बलों को एक-दूसरे को बेहतर तरीके से जानने का अवसर मिलेगा, जिससे रक्षा प्रतिष्ठान में बेहतर सामंजस्य स्थापित हो सकेगा। 
  • शेकातकर समिति (Shekatkar committee) ने तीन 3 एकीकृत थिएटर कमांड  बनाने की सिफारिश की है - चीन सीमा हेतु उत्तरी कमांड , पाकिस्तान सीमा हेतु पश्चिमी कमांड और समुद्री क्षेत्र हेतु दक्षिणी कमांड।

वर्तमान त्रि-सेवा कमांड:

  • वर्तमान में अंडमान और निकोबार कमान  (Andaman and Nicobar Command- ANC), जो कि एक  थियेटर कमांड है, का नेतृत्व  रोटेशन क्रम में तीन सेवाओं के प्रमुखों द्वारा किया जाता है।
    • इसे वर्ष 2001 में दक्षिण पूर्व एशिया और द्वीपों में तीव्र होती सैन्य गतिविधियों और भारत के सामरिक हितों को ध्यान में रखते हुए मलक्का जलडमरूमध्य की सुरक्षा हेतु स्थापित किया गया था।
  • वर्ष 2006 में ‘सामरिक बल कमांड’ (Strategic Forces Command) को स्थापित किया गया , जो एक कार्यात्मक त्रि-सेवा कमांड (Functional Tri-Services command) है। यह देश की परमाणु संपत्ति के वितरण और परिचालन नियंत्रण का कार्य करती है।  

चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ:

  • चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) एक फोर-स्टार जनरल रैंक का पद है, जिसका वेतन और अतिरिक्त सुविधाएँ सर्विस चीफ (Service Chief) के बराबर होती है।
  • CDS हेतु सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष है, जो तीनों सेवा प्रमुखों की सेवानिवृत्ति की आयु से तीन वर्ष अधिक है।
  •  फरवरी 2000 में कारगिल रिव्यू कमेटी ( Kargil Review Committee- KRC) द्वारा CDS के पद के निर्माण का सुझाव दिया गया था।
  • CDS के कार्य: मौलिक रूप से CDS द्वारा 2 प्रमुख भूमिकाओं का निर्वहन किया जाता है:
    • पहली भूमिका: CDS तीनों सेवाओं के मुद्दों पर रक्षा मंत्री के प्रमुख सैन्य सलाहकार के रूप में कार्य करेगा।
    • दूसरी भूमिका: CDS तीन सेवाओं हेतु सैन्य मामलों के विभाग (Department of Military Affairs- DoMA) का नेतृत्व करेगा।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

ऑक्सीजन संकट: कोविड-19

चर्चा में क्यों?

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान आवश्यक ऑक्सीजन टैंकरों की कमी और इसके प्लांटो के दूरस्थ अवस्थिति होने के कारण लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन (Liquid Medical Oxygen- LMO) संकट और भी गंभीर हो गया है।

Lining-up-for-Oxygen

प्रमुख बिंदु

लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन:

  • यह मानव उपयोग के लिये उपयुक्त उच्च शुद्धता ऑक्सीजन है, जिसका उपयोग चिकित्सा उपचार हेतु किया जाता है।
  • यह ऑक्सीजन लगभग सभी आधुनिक संवेदनाहारी तकनीकों का आधार है जो ऑक्सीजन की उपलब्धता, हृदय स्थिरता आदि को बढ़ाकर शरीर की ऑक्सीजन माँग को पूरा करता है।

भारत में LMO का उत्पादन:

  • भारत में इस ऑक्सीजन की लगभग 7,100 मीट्रिक टन (MT) दैनिक उत्पादन क्षमता है, जिसमें औद्योगिक उत्पादन भी शामिल है।
  • हालाँकि, कोविड-19 संकट के कारण भारत की उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर 8,922 मीट्रिक टन कर दिया गया है, जिसमें से लगभग 7,017 मीट्रिक टन की दैनिक बिक्री होती है।
    • इसके घरेलू उत्पादन को अप्रैल 2021 के अंत तक 9,250 मीट्रिक टन तक बढ़ाने की उम्मीद है।
  • इस तरह भारत मौज़ूदा माँग को पूरा करने हेतु पर्याप्त ऑक्सीजन का उत्पादन कर रहा है।

संकट के कारण:

  • उत्पादन संयंत्रों की दूरी:
    • भारत में LMO के अधिकांश संयंत्र पूर्वी क्षेत्रों में स्थित हैं, जिससे इसके परिवहन  में 6-7 दिनों का समय लग जाता है। इसके अलावा कई बार राज्यों द्वारा भी इन टैंकरों को रोक लिया जाता है।
  • सीमित टैंकर:
    • वर्तमान में भारत में 1,224 LMO टैंकर हैं, जिनकी कुल LMO संचयी क्षमता तकरीबन 16,732 मीट्रिक टन है। वर्तमान परिदृश्य में यह संख्या LMO के परिवहन के लिये अपर्याप्त है, क्योंकि इस तरह भारत में LMO की 3,500-4,000 मीट्रिक टन माँग को पूरा करने के लिये केवल 200 टैंकर ही उपलब्ध हैं।
  • ‘क्रायोजेनिक टैंकर’ नहीं खरीद रही कंपनियाँ:
    • क्रायोजेनिक टैंकरों की कीमत लगभग 50 लाख रुपए है। कंपनियाँ इन टैंकरों को नहीं खरीद रही हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि वर्तमान माँग खत्म होने के बाद यह निवेश घाटे में बदल जाएगा।
      • क्रायोजेनिक टैंकर: इन टैंकरों में मेडिकल ऑक्सीजन को -180 डिग्री सेल्सियस पर स्टोर करके रखा जाता है, इनमें डबल-स्किन वैक्यूम-इंसुलेटेड कंटेनर (Double-Skin Vacuum-Insulated Container) होते हैं, जिनमें स्टेनलेस स्टील से बना एक आंतरिक पात्र होता है।
  • लीकेज और दुरुपयोग:
    • पिछले दिनों स्वास्थ्य मंत्रालय ने अस्पतालों से ऑक्सीजन के अपव्यय और अनावश्यक उपयोग को कम करने लिये कहा था। औद्योगिक विशेषज्ञों ने ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाले पाइपलाइनों में संभावित रिसाव पर भी चिंता व्यक्त है।
  • ऑक्सीजन सिलेंडर की कालाबाज़ारी भी एक अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।

सरकार की पहलें:

  • ऑक्सीजन एक्सप्रेस:
    • वर्तमान संकट से लड़ने के लिये पूरे देश में LMO और ऑक्सीजन सिलेंडरों को पहुँचाने हेतु अनेक ट्रेनें चलाई गई हैं।
  • आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005:
    • गृह मंत्रालय ने LMO ऑक्सीजन को ले जाने वाले वाहनों के अंतर-राज्य मुक्त परिवहन के लिये आपदा प्रबंधन अधिनियम (Disaster Management Act), 2005 को लागू किया है।
  • संयंत्रों को पुनः आरंभ करना:
    • सरकार LMO की आपूर्ति बढ़ाने के लिये कई बंद संयंत्रों को फिर से शुरू कर रही है। तमिलनाडु में स्टरलाइट प्लांट को ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने हेतु 4 महीने के लिये पुनः खोला जा रहा है।
  • वायु सेना का उपयोग:
    • LMO के परिवहन में तेज़ी लाने के लिये भारतीय वायु सेना (IAF) खाली ऑक्सीजन टैंकरों को एयरलिफ्ट कर रही है और उन्हें LMO औद्योगिक इकाइयों तक पहुँचा रही है।
  • ऑक्सीजन संवर्द्धन इकाई:
    • इसे काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च-नेशनल केमिकल लेबोरेटरी (Council of Scientific and Industrial Research-National Chemical Laboratory) के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया है, जिससे होम केयर, गाँवों और दूरगामी स्थानों में वेंटिलेटर तथा ऑक्सीजन सिलेंडर की आवश्यकता को पूरा करने में मदद मिलेगी।
    • कोविड-19 महामारी को देखते हुए ऑक्सीजन संवर्द्धन इकाइयों का विशेष महत्त्व है। इससे रोगी की रिकवरी प्रारंभिक अवस्था में सहायक ऑक्सीजन से तेज़ हो सकती है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ब्रिटेन का हिंद-प्रशांत क्षेत्र की ओर झुकाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ब्रिटिश सरकार ने कहा कि यूके कैरियर स्ट्राइक ग्रुप को “दुनिया भर के मध्य स्थापित करने के लिये भारत, जापान, कोरिया गणराज्य और सिंगापुर की यात्राएँ करनी होंगी।”

  • यूरोपीय संघ ने घोषणा की थी कि वह लोकतांत्रिक शासन के आधार पर क्षेत्र की स्थिरता, सुरक्षा, समृद्धि और सतत् विकास में योगदान देने के उद्देश्य से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी रणनीतिक दृष्टि, उपस्थिति और कार्यों को मज़बूत करेगा।

 प्रमुख बिंदु:

यूके कैरियर स्ट्राइक ग्रुप (CSG) के बारे में:

  •  कैरियर स्ट्राइक ग्रुप (CSG):
    • कैरियर स्ट्राइक ग्रुप अक्सर मंच के बजाय एक विशिष्ट मिशन के लिये बनाए जाते हैं।
    • कैरियर आम तौर पर एक बड़े संरचना का हिस्सा होता है, जिसमें आमतौर पर विध्वंसक, फ्रिगेट और पनडुब्बी के साथ ही लॉजिस्टिक-सपोर्ट जहाज़ भी शामिल होते हैं।
    • कैरियर का  प्रारंभिक स्वरूप आक्रामक वायु शक्ति प्रदान करना है, जबकि अन्य पोत व्यापक रक्षा और समर्थन की भूमिका प्रदान करते हैं और आक्रामक रूप (जैसे कि मिसाइल प्रणाली प्रक्षेपण) में भी भाग ले सकते हैं।
  • यूके कैरियर स्ट्राइक ग्रुप (CSG):
    • इसका नेतृत्त्व विमानवाहक पोत एचएमएस क्वीन एलिजाबेथ द्वारा किया जाएगा।
    • यह उत्तरी अटलांटिक से हिंद-प्रशांत तक एक वैश्विक तैनाती होगी ।
    • यह 40 से अधिक देशों  में 70 से अधिक कार्यो के लिये 28-सप्ताह की तैनाती में 26,000 समुद्री मील की दूरी तय करेगा।
    • ब्रिटेन की विदेश नीति में हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण के तहत ब्रिटेन का कैरियर स्ट्राइक ग्रुप भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर के साथ संयुक्त संचालन करेगा।
  • इंडो-पैसिफिक में यूके CSG की तैनाती:
    • आगामी तैनाती क्षेत्र में पहले से ही गहरी रक्षा साझेदारी को बढ़ावा देगी, जहाँ यूके एक अधिक स्थायी क्षेत्रीय रक्षा और सुरक्षा उपस्थिति के लिये प्रतिबद्ध है।

भारत-ब्रिटेन संबंध:

united-kingdom

  • राजनीतिक सहयोग:
    • वर्ष 2004 में दोनों देशों के बीच सामरिक भागीदारी समझौते पर हस्ताक्षर किया।
    • ब्रिटेन ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिये अपने समर्थन की पुष्टि की है।
  • आर्थिक सहयोग: 
    • हाल ही में यूरोपीय संघ के साथ भागीदारी के तहत  भारत के कुशल श्रम, तकनीकी सहायता और प्रचलित बाज़ार ने ब्रिटेन के लिये बहुत सारे मार्ग प्रशस्त किये है।
    • विश्व पटल पर भारत भी अब 5G की ओर कदम बढ़ा रहा है। दूरसंचार क्षेत्र में चीन के स्थायित्व को कम करने के लिये ब्रिटेन को भारत की मदद की आवश्यकता होगी।
    • जी 20 देशों में ब्रिटेन भारत में सबसे बड़े निवेशकों में से एक है।
  • रक्षा अभ्यास:

इंडो-पैसिफिक: द न्यू पॉइंट ऑफ कन्वर्जेंस:

  • यूके भारत के साथ हिंद-प्रशांत में अपने सामरिक महत्त्व का विस्तार करते हुए इस क्षेत्र में शुद्ध सुरक्षा प्रदाता के रूप में प्रमुखता प्राप्त करने की दिशा में काम कर रहा है, दोनों देशों की आकांक्षाएँ और भविष्य दोनों परस्पर जुड़े हुए प्रतीत होते हैं।
  • दृष्टिकोण का एक क्षेत्र सैन्य गतिविधियों या अभ्यास को बढ़ाने के लिये होना चाहिये।
    • हालाँकि सेवा-विशिष्ट संयुक्त प्रशिक्षण अभ्यास मौजूद हैं, यूके सैन्य अभ्यास की विशेषताएँ अमेरिका और भारत के अभ्यास से अलग है।
  • आधारभूत समझौतों की कमी एक सीमित कारक के रूप में भी काम कर सकती है। जबकि संयुक्त प्रशिक्षण पर एक समझौता ज्ञापन विकसित किया जा रहा है जिसमें एक सैन्य रसद समझौते पर जल्द ही हस्ताक्षर होने की उम्मीद है।
    • यह भारत और यूके को एक-दूसरे के पर सक्रिय पहुँच प्रदान करेगा और लॉजिस्टिक समर्थन प्राप्त करने के लिये भुगतान प्रक्रियाओं को औपचारिक रूप देगा, जैसे सर्विसिंग और पुनः ईंधन भरना।
  • ब्रिटेन, केन्या, ब्रुनेई, बहरीन, ओमान, सिंगापुर, और ब्रिटिश हिंद महासागरीय क्षेत्र में अपने बेस स्थापित करेगा। इस तरह का बुनियादी ढाँचा पहले से ही होने से न केवल इस क्षेत्र में अपनी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि अपने सहयोगियों के लिये भी मूल्यवान होगा।
  • भारत  इन अड्डो तक पहुँच के लिये हिंद महासागर में अपना स्थायित्व बढ़ाएगा।
    • जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ काम करना, एक-दूसरे की संपत्ति की ताकत का लाभ उठाकर समुद्री डोमेन जागरूकता और खुफिया साझा करने के क्षेत्रों में घनिष्ठ सहयोग की बहुत गुंजाइश है।
    • इस संबंध में, भारत, ऑस्ट्रेलिया और यूके के साथ रक्षा खुफिया साझेदारी को बढ़ाने की जापान की पहल एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

आगे की राह 

  • भारत-यूके के बीच बढ़ते रक्षा संबंध अब केवल रक्षा उत्पादन, क्रेता-विक्रेता होने तक सीमित नहीं रहेगा। 
  • इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में  निकट समुद्री सहयोग और एक संयुक्त दृष्टिकोण के माध्यम से क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता बनाए रखने की दिशा में अहम कदम है साथ ही दोनों देशों के पास कार्रवाई के लिये वास्तविक  व्यापक रणनीतिक साझेदारी बनाने की क्षमता है।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

ग्रीन इनिशिएटिव: सऊदी अरब

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सऊदी अरब द्वारा जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने हेतु सऊदी ग्रीन इनिशिएटिव (Saudi Green Initiative) और मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव (Middle East Green Initiative) की शुरुआत की गई है।

Saudi-Arabia

प्रमुख बिंदु: 

पृष्ठभूमि और G20 शिखर सम्मेलन:

  • सऊदी अरब की अध्यक्षता के दौरान G20 के मुख्य स्तंभों में से एक पृथ्वी की सुरक्षा सुनिश्चित करना था।
    • वर्ष 2020 में G20 ने ग्लोबल कोरल रीफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक्सेलेरेटर प्लेटफार्म (Global Coral Reef Research and Development Accelerator Platform) और सर्कुलर कार्बन इकोनॉमी ( Circular Carbon Economy- CCE) प्लेटफाॅॅर्म की स्थापना जैसी पहलें शुरू की हैं।
  • सऊदी अरब ने दोहराया कि वह जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने हेतु क्षेत्रीय प्रयासों का नेतृत्व करने के लिये प्रतिबद्ध है और इस दिशा में लगातार प्रगति कर रहा है।
    • वर्ष 2019 में सऊदी अरब द्वारा पर्यावरण विशेष बलों की स्थापना की गई है।

 सऊदी ग्रीन इनिशिएटिव:

  • उद्देश्य:
    • इस पहल का उद्देश्य वनस्पति आवरण को बढ़ाना, कार्बन उत्सर्जन को कम करना, प्रदूषण और भूमि क्षरण को कम करना और समुद्री जीवन को संरक्षित करना है।
  • विशेषताएँ:
    • पूरे सऊदी में  10 लाख वृक्ष लगाने का लक्ष्य।
    • अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम के माध्यम से वैश्विक उत्सर्जन में 4% से अधिक कार्बन उत्सर्जन को कम करने हेतु वर्ष 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा से सऊदी अरब की 50% ऊर्जा उत्पन्न की जाएगी।
    • सऊदी अरब अपने कुल संरक्षित क्षेत्र को, कुल भूमि क्षेत्र के 30% से अधिक तक करने की दिशा में कार्य कर रहा है, जो 17 प्रतिशत के वैश्विक लक्ष्य से अधिक है।

मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव :

  • उद्देश्य:
    • इस पहल का उद्देश्य समुद्री और तटीय पर्यावरण को संरक्षित करना, प्राकृतिक भंडार और संरक्षित भूमि के अनुपात में वृद्धि, तेल उत्पादन के नियमन में सुधार, स्वच्छ ऊर्जा हेतु नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों द्वारा ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देना है।
  • विशेषताएँ:
    • सऊदी अरब खाड़ी सहयोग परिषद के देशों तथा क्षेत्रीय भागीदारों के साथ पश्चिम एशियाई क्षेत्र में  40 लाख अतिरिक्त पेड़ लगाने का कार्य करेगा।
      • यह एक ट्रिलियन पेड़ लगाने के वैश्विक लक्ष्य के 5% हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है और इससे कार्बन स्तर में 2.5 प्रतिशत की कमी आएगी।
    • सऊदी अरब  ‘मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव’ नामक एक वार्षिक शिखर सम्मेलन आयोजित करेगा, जिसमें इस पहल के कार्यान्वयन पर चर्चा करने हेतु सरकार के प्रतिनिधियों, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों आदि को आमंत्रित किया जाएगा।
    • इस पहल में हिस्सा लेने वाले देशों के साथ साझेदारी में उपचारित पानी  से सिंचाई करने, क्लाउड सीडिंग और अन्य उद्देश्य-आधारित समाधानों जैसे-देशज पेड़ लगाने पर ज़ोर दिया जाना, जिन्हें तीन वर्ष तक देखभाल की आवश्यकता होती है उसके बाद वे प्राकृतिक सिंचाई के द्वारा अपने आप जीवित रहने में सक्षम होंगे आदि नवीनतम तरीकों पर शोध किया जाएगा।
  • वर्तमान सहयोग: 
    • सऊदी अरब अपने पड़ोसी देशों के साथ अपनी विशेषज्ञता और जानकारी साझा कर रहा है, ताकि इस क्षेत्र में हाइड्रोकार्बन उत्पादन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को 60% और वैश्विक स्तर पर 10% तक कम किया जा सके।
      • सऊदी अरब वर्तमान में दुनिया में सबसे बड़ा कार्बन कैप्चर और उपयोग संयंत्र संचालित करता है, वह इस क्षेत्र के सबसे उन्नत CO2 संवर्द्धित तेल उत्पादित संयंत्रों में से एक का संचालन करता है, जो कि प्रतिवर्ष 8,00,000 टन COकैप्चर और स्टोर करता है।

भारतीय प्रयासों की सराहना:

  • सऊदी अरब ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये भारत की उल्लेखनीय प्रतिबद्धताओं की भी सराहना की, क्योंकि भारत अपने पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये मार्ग पर है।
  • भारत विश्व में अक्षय ऊर्जा स्थापित क्षमता में चौथे स्थान पर है। सरकार ने इस दशक के लिये नवीकरणीय ऊर्जा और विशेष रूप से सौर ऊर्जा उत्पादन के लिये एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। वर्ष 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा स्थापना का लक्ष्य 450 गीगावॉट है।

संबंधित भारतीय पहल:

आगे की राह

  • सऊदी अरब को उम्मीद है कि इन दो पहलों का शुभारंभ पर्यावरण की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण युग की शुरुआत करेगा और यह अन्य देशों को भी पृथ्वी और हमारे पर्यावरण की रक्षा करने संबंधी प्रयासों में एकजुट होने के लिये प्रेरित करेगा।
  • पर्यावरण की कीमत पर आर्थिक समृद्धि हासिल नहीं की जा सकती है। एक औद्योगिक राष्ट्र के तौर पर हमारे लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि हम ‘पहले प्रदूषण और बाद में सफाई’ के रवैये से हटकर लगातार घट रहे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये प्रतिबद्धता ज़ाहिर करें। 
  • पर्यावरण के साथ आर्थिक प्रयासों को संरेखित करने की आकांक्षा केवल सरकार तक सीमित नहीं होनी चाहिये। उद्योग, सरकार और नियामक निकायों के बीच सहयोग से ही आर्थिक व्यवहार्यता और पर्यावरणीय लाभों से संबंधी संतुलित निर्णय लेने में मदद मिल सकती है।

स्रोत: द हिंदू


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