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डेली न्यूज़

  • 29 Jan, 2021
  • 46 min read
भारतीय इतिहास

गोविंद बल्लभ पंत

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी गोविंद बल्लभ पंत की प्रतिमा का अनावरण नई दिल्ली के पंडित पंत मार्ग पर किया गया है।

  • यह मूर्ति पहले रायसीना रोड सर्कल के पास स्थित थी, जिसे यहाँ से स्थानांतरित किया गया है क्योंकि यह 'नए संसद भवन’ की संरचना के भीतर आ रही थी।

Pandit-Govind-Ballabh-Pant

प्रमुख बिंदु

संक्षिप्त परिचय

  • गोविंद बल्लभ पंत को देश के सबसे प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और एक कुशल प्रशासक के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने आधुनिक भारत के मौजूदा स्वरूप को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
  • उन्होंने वर्ष 1937-1939 के बीच संयुक्त प्रांत के प्रीमियर, वर्ष 1946-1954 तक उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और वर्ष 1955-1961 तक केंद्रीय गृह मंत्री के रूप में कार्य किया। 
    • उन्हें वर्ष 1957 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया था।

प्रारंभिक जीवन

  • गोविंद बल्लभ पंत का जन्म 10 सितंबर, 1887 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा में हुआ था।
  • जब वे 18 वर्ष के थे, तो उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले और मदन मोहन मालवीय को अपना आदर्श मानते हुए भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस (INC) के सत्रों में एक स्वयंसेवक के रूप में काम करना शुरू किया।
  • वर्ष 1907 में उन्होंने कानून का अध्ययन करने का निर्णय लिया और कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 1910 में उन्होंने अल्मोड़ा में वकालत शुरू कर दी और बाद में वे काशीपुर (उत्तराखंड) चले गए।
  • काशीपुर में उन्होंने ‘प्रेम सभा’ नामक एक संगठन की स्थापना की, जिसने विभिन्न सामाजिक सुधारों की दिशा में काम करना शुरू किया, इस दौरान इस संगठन ने ब्रिटिश सरकार को करों का भुगतान न करने के कारण एक स्कूल को बंद किये जाने से भी बचाया।

राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान 

  • गोविंद बल्लभ पंत दिसंबर 1921 में काॅन्ग्रेस में शामिल हुए और जल्द ही असहयोग आंदोलन का हिस्सा बन गए।
  • वर्ष 1930 में गांधी जी के कार्यों से प्रेरित होकर ‘नमक मार्च’ का आयोजन करने के कारण उन्हें कैद कर लिया गया।
  • वह उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) विधानसभा के लिये नैनीताल से ‘स्वराजवादी पार्टी’ के उम्मीदवार के रूप में चुने गए थे।
    • सरकार में रहते हुए उन्होंने ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से कई सुधार किये।
    • उन्होंने देश भर में कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया और कुली-भिक्षुक कानून का भी विरोध किया, जिसके तहत कुली और भिक्षुकों को बिना किसी पारिश्रमिक के ब्रिटिश अधिकारियों का भारी सामान ढोने के लिये मजबूर किया जाता था।
    • गोविंद बल्लभ पंत सदैव अल्पसंख्यक समुदाय के लिये एक अलग निर्वाचक मंडल के खिलाफ रहे, वे मानते थे कि यह कदम समुदायों को विभाजित करेगा।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पंत जी ने गांधी जी और सुभाष चंद्र बोस के गुटों के बीच समझौता करने का भी प्रयास किया, जहाँ एक ओर गांधी जी और उनके समर्थक चाहते थे कि युद्ध के दौरान ब्रिटिश शासन का समर्थन किया जाए, वहीं सुभाष चंद्र बोस गुट का मत था कि इस युद्ध की स्थिति का प्रयोग किसी भी तरह से ब्रिटिश राज को समाप्त करने के लिये किया जाए।
  • वर्ष 1942 में उन्हें भारत छोड़ो प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिये गिरफ्तार किया गया और उन्होंने मार्च 1945 तक काॅन्ग्रेस कार्य समिति के अन्य सदस्यों के साथ अहमदनगर किले में कुल तीन वर्ष बिताए।
    • अंततः पंडित नेहरू खराब स्वास्थ्य  के आधार पर पंत जी को जेल से छुड़ाने में सफल रहे।

स्वतंत्रता के बाद

  • स्वतंत्रता के बाद गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। उन्होंने किसानों के उत्थान और अस्पृश्यता के उन्मूलन की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
  • सरदार पटेल की मृत्यु के बाद गोविंद बल्लभ पंत को केंद्र सरकार में गृह मंत्री बनाया गया था।
  • गृह मंत्री के तौर पर उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का समर्थन किया।

स्रोत: पी.आई.बी.


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

IEA के साथ समझौता

चर्चा में क्यों?

भारत ने वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा, स्थिरता एवं ऊर्जा सहयोग को मज़बूत करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (International Energy Agency- IEA) के साथ एक ‘रणनीतिक साझेदारी समझौता’ किया है।

प्रमुख बिंदु:

  • उद्देश्य: ऊर्जा क्षेत्र में रणनीतिक और तकनीकी सहयोग को प्रोत्साहित करना।
  • लाभ: 
    • यह ज्ञान का व्यापक स्तर पर आदान-प्रदान करेगा और भारत को IEA का पूर्ण सदस्य बनाने की दिशा में सहयोगी कदम होगा।
    • इससे आपसी विश्वास और सहयोग मज़बूत होगा तथा वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित होगी।
    • IEA एक रणनीतिक भागीदार के रूप में भारत के लिये लाभ और ज़िम्मेदारियों में चरणबद्ध वृद्धि करेगा।
    • मौजूदा ऊर्जा क्षेत्रों में सुधार और स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण कार्यक्रमों का निर्माण होगा जैसे- ऊर्जा सुरक्षा, स्वच्छ और स्थायी ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, पेट्रोलियम भंडारण क्षमता का विस्तार और भारत में गैस-आधारित अर्थव्यवस्था का विस्तार आदि।
  • समझौते का क्रियान्वयन: IEA सचिवालय द्वारा।

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी

  • स्थापना: IEA एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन है।  इसकी स्थापना (वर्ष 1974 में) वर्ष 1973 के तेल संकट के बाद हुई थी।
  • जनादेश: समय के साथ IEA के जनादेश को प्रमुख वैश्विक ऊर्जा रुझानों पर नज़र रखने और उनका विश्लेषण करने, ध्वनि ऊर्जा नीति को बढ़ावा देने और बहुराष्ट्रीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिये विस्तारित किया गया है।
  • लक्ष्य: इसका लक्ष्य सदस्य देशों के लिये विश्वसनीय, सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा सुनिश्चित करना है।
  • कार्यक्षेत्र के प्रमुख बिंदु: इसका लक्ष्य चार मुख्य क्षेत्रों (4E) द्वारा निर्देशित है-
    • ऊर्जा सुरक्षा
    • आर्थिक विकास
    • पर्यावरणीय जागरूकता 
    • विश्व को सहयोगी के तौर पर शामिल करना
  • मुख्यालय (सचिवालय): पेरिस (फ्राँस)।
  • शासी बोर्ड IEA का मुख्य निर्णय लेने वाला निकाय है।
    • यह प्रत्येक सदस्य देश के ऊर्जा मंत्रियों या उनके वरिष्ठ प्रतिनिधियों से मिलकर बना है।
  • सदस्य: वर्तमान में इसके 30 सदस्य हैं।
    • इसका सदस्य बनने के लिये उम्मीदवार देश को OECD का सदस्य देश होना चाहिये, लेकिन सभी OECD के सदस्य IEA के सदस्य नहीं हैं।

सदस्यता के लिये पात्रता:

  • कच्चे तेल और/या उत्पाद का भंडार पिछले वर्ष के 90 दिनों के शुद्ध आयात के बराबर हो।
    • भारत क्रूड ऑयल रिज़र्व के मानदंडों को पूरा नहीं करता है। वर्तमान में भारत देश की कच्चे तेल की आवश्यकताओं के अनुसार 10 दिनों के क्रूड ऑयल को संग्रहीत करता है, साथ ही घरेलू रिफाइनरी भी 65 दिनों के क्रूड स्टोरेज को संग्रहीत करती हैं। सरकार कच्चे तेल की अन्य 12 दिनों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये ‘सामरिक कच्चे तेल भंडार’ का निर्माण भी कर रही है।
  • एक राष्ट्र द्वारा तेल की खपत को 10% तक कम करना।
  • राष्ट्रीय आधार पर ‘समन्वित आपातकालीन प्रतिक्रिया उपाय’ (Coordinated Emergency Response Measures-CERM) के संचालन के लिये विधानों और संगठनों का निर्माण करना।
  • IEA की सामूहिक कार्रवाई में अपने हिस्से का योगदान करने की क्षमता सुनिश्चित करने के लिये किये गए उपाय।

रिपोर्ट्स:

स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण कार्यक्रम

(Clean Energy Transitions Programme- CETP)

  • इस कार्यक्रम को नवंबर 2017 में लॉन्च किया गया था, IEA का स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण कार्यक्रम वैश्विक स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण में तेज़ी लाने का एक प्रयास है।
  • यह कार्यक्रम सतत् ऊर्जा उत्पादन और उसके उपयोग की दिशा में वैश्विक संक्रमण को उत्प्रेरित करने के लिये सरकारों को स्वतंत्र एवं अत्याधुनिक समर्थन प्रदान करता है।
  • प्राथमिकता वाले देशों में ब्राज़ील, चीन, भारत, इंडोनेशिया, मैक्सिको एवं दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ अन्य IEA के सहयोगी देश और दक्षिण-पूर्व एशिया, लैटिन अमेरिका तथा अफ्रीका जैसे प्रमुख क्षेत्र शामिल हैं।
  • CETP गतिविधियों में सहयोगी विश्लेषणात्मक कार्य, तकनीकी सहयोग, प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण और रणनीतिक संवाद शामिल हैं

स्रोत- द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

विनिवेश का वार्षिक लक्ष्य

चर्चा में क्यों?

सरकार, वित्तीय वर्ष 2020-21 में  विनिवेश (Disinvestment) से 3% से कम राजस्व जुटा पाई है। अतः राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) चालू वित्त वर्ष के लिये और अधिक हो सकता है।

  • सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिये कितनी उधारी की ज़रूरत होगी। कुल राजस्व में उधारी को शामिल नहीं किया जाता है।

प्रमुख बिंदु

वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिये विनिवेश लक्ष्य:

  • वित्त मंत्री ने वर्ष 2020 के केंद्रीय बजट को पेश करते समय 2.1 लाख करोड़ रुपए के विनिवेश लक्ष्य की घोषणा की थी। इस तरह का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण पाने के लिये निर्धारित किया गया था ।
  • विनिवेश से इस वर्ष अब तक प्राप्त होने वाली कुल राशि 17.9 हज़ार करोड़ रुपए है जो लक्षित राजस्व का लगभग 3% है।

कम राजस्व प्राप्ति का कारण:

  • विनिवेश से राजस्व प्राप्ति का वार्षिक लक्ष्य, सामान्य लक्षित राजस्व से तीन से चार गुना अधिक निर्धारित किया गया था।
  • विनिवेश के लिये चिह्नित सार्वजनिक परिसंपत्तियों की बिक्री की गति धीमी रही।
  • सरकार के कामकाज को वर्तमान वर्ष में कोविड-19 महामारी ने गंभीर रूप से प्रभावित किया था।
  • सामान्यतः सरकार (कुछ वर्षों को छोड़कर) विनिवेश से उतना पैसा नहीं जुटा पाती जितना वह चाहती है।

Disinvestment-Targets

विनिवेश का अर्थ:

  • विनिवेश का अर्थ सरकार द्वारा की जाने वाली संपत्तियों की बिक्री या परिशोधन से है। इन संपत्तियों में सामान्यतः केंद्र और राज्यों के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम, परियोजनाएँ और अन्य अचल संपत्तियों को शामिल किया जाता है।
  • विनिवेश, सरकारी खजाने पर राजकोषीय बोझ को कम करने या विशिष्ट ज़रूरतों को पूरा करने के लिये धन जुटाने हेतु किया जाता है।
    • इसके लिये केंद्र सरकार कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) जैसे- एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम, दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन आदि में निवेश करती है।
    • चूँकि सरकार के पास इन उपक्रमों के अधिकांश शेयर (51% से अधिक शेयर) हैं। अतः केंद्र इन सार्वजनिक उपक्रमों में अपने शेयरधारिता को बेचकर धन जुटा सकती है।

विनिवेश की विधियाँ:

  • कम मात्रा में विनिवेश: ये ऐसे विनिवेश होते हैं जिसके बाद भी सरकार के पास 51% से अधिक शेयर शेष बच जाते हैं और इन उपक्रमों का प्रबंधन सरकार के नियंत्रण में रहता है।
    • इसी प्रकार के विनिवेश के तहत सरकार ने वर्ष 2020 में जीवन बीमा निगम (LIC) में अपनी हिस्सेदारी कम कर दी।
  • अधिक मात्रा में विनिवेश: इस प्रकार के विनिवेश से सरकार के पास किसी उपक्रम में 51% से कम शेयर रह जाते हैं और सरकार इन उपक्रमों के प्रबंधन कार्य को नियंत्रित नहीं करती है।
  • पूर्ण विनिवेश या निजीकरण: यह अधिक मात्रा में किये जाने विनिवेश का एक रूप है जिसमें खरीदार को कंपनी पर 100% नियंत्रण का अधिकार दिया जाता है यानी भारत सरकार उस PSU को पूरी तरह से बेच देती है।
    • भारत सरकार ने वर्ष 2001 में एल्युमीनियम कंपनी को वेदांता समूह को बेच दिया था।

सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश का कारण:

  • उनके कामकाज की समग्र दक्षता में सुधार करना।
  • उन्हें आर्थिक और कॉर्पोरेट हितों को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक प्रभाव से अलग रखना।
    • खासकर जब पीएसयू सरकार के साथ लेन-देन करता है, उदाहरण के लिये जब वह अपने उत्पादों और सेवाओं को सरकार को बेचता है तो मूल्य निर्धारण बाज़ार के कारकों के अलावा अन्य कारकों से प्रभावित हो सकता है।
  • इस तरह के सार्वजनिक उपक्रमों को और अधिक कुशल बनाने के लिये।
  • निजी या कॉर्पोरेट स्वामित्व के परिणामस्वरूप अधिक कुशल प्रबंधन हो सकता है।
  • बजट घाटे को कम करना यानी इसके व्यय और कर राजस्व के बीच के अंतर को भरना।
  • आधारभूत संरचना और कल्याणकारी योजनाओं जैसे अन्य क्षेत्रों के लिये अधिक धन की अवश्यकत को पूरा करने के लिये।

विनिवेश के दृष्टिकोण में बदलाव:

  • आर्थिक उदारीकरण से पहले सरकार की संपत्ति के मुद्रीकरण हेतु परिवार की चांदी (Family Silver) बेचने जैसे प्रयासों की आलोचना की गई थी।
  • लेकिन उदारीकरण के बाद सरकारी हिस्सेदारी में कमी विशेष रूप से रक्षा जैसे रणनीतिक क्षेत्रों, जहाँ सरकार की उपस्थिति आवश्यक नहीं है, में विनिवेश का स्वागत किया जाता है।

विनिवेश के लिये नोडल एजेंसी:

  • वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला निवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग (Investment and Public Asset Management) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भारत सरकार के निवेश को प्रबंधित करता है।
  • केंद्र की संपत्ति की बिक्री DIPAM के शासनादेश के अंतर्गत आती है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

‘न्यू स्टार्ट संधि’ के विस्तार पर रूस की सहमति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रूस द्वारा ‘न्यू स्टार्ट संधि’ (New START Treaty) के विस्तार को मंज़ूरी दी गई है। यह अमेरिका और रूस के मध्य परमाणु हथियारों को सीमित करने वाली एकमात्र संधि है, जिसकी अवधि फरवरी 2021 में समाप्त होने वाली थी।

प्रमुख बिंदु:

अनुमोदन के बारे में:

  • रूसी संसद (क्रेमलिन) के दोनों सदनों द्वारा पांँच वर्षों के लिये न्यू स्टार संधि के विस्तार को मंज़ूरी दी गई है, यह निर्णय नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति और रूसी राष्ट्रपति के मध्य टेलीफोन पर हुई बातचीत के बाद लिया गया।
  • विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum’s) की आभासी बैठक में रूस के राष्ट्रपति ने इस संधि को "सही दिशा में उठाया गया कदम" कहकर इसकी सराहना की लेकिन साथ ही बढ़ती वैश्विक प्रतिद्वंद्विता और नए संघर्षों के खतरों के बारे में भी चेतावनी दी।
  • इस संधि के विस्तार के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका में कांग्रेस की मंज़ूरी की आवश्यकता नहीं है परंतु रूसी सांसदों को इस कदम की पुष्टि करनी होगी और अध्यक्ष को संबंधित विधेयक को कानूनी रूप देने हेतु हस्ताक्षर करना होगा।

न्यू स्टार्ट संधि: 

  • उद्देश्य: 
    • यह रणनीतिक आक्रामक हथियारों की मात्रा में कमी करने और उन्हें सीमित करने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका और रूसी के बीच एक संधि है।
      • 'रणनीतिक आक्रामक हथियार' (Strategic Offensive Arms) का आशय ‘सामरिक परमाणु वितरण वाहनों’ (Nuclear Delivery Vehicles-SNDVs) द्वारा तैनात परमाणु हथियारों से होता है।
      • SNDVs इंटर-कॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलें (‘ICBMs) हैं जिनकी रेंज 5,500 किलोमीटर है जो रणनीतिक रूप से बमवर्षक, युद्धपोतों (सामरिक पनडुब्बियों सहित) और क्रूज़ मिसाइलों के साथ ही हवा एवं समुद्र में लॉन्च की गई क्रूज़ मिसाइलें हैं।
  • प्रवर्तन/लागू करना: 
    • इस संधि को 5 फरवरी, 2011 को लागू किया गया।
  • वर्ष 1991 की परिवर्तित स्टार I संधि:   
    • ‘न्यू स्टार्ट संधि’ ने वर्ष 1991 की स्टार I (START I ) संधि का स्थान लिया, जो दिसंबर 2009 में समाप्त हो गई तथा वर्ष 2002 की स्ट्रैटेजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी (Strategic Offensive Reductions Treaty- SORT) को समाप्त कर न्यू स्टार संधि को लागू करने पर बल दिया गया।
    • वर्ष 1991 की स्टार-1 (शीत युद्ध के अंत में) ने दोनों पक्षों (अमेरिका और रूस) को 1,600 सामरिक  वितरण वाहनों और 6,000 युद्धक हथियारों तक सीमित कर दिया।
    • मई 2002 की स्ट्रैटेजिक आर्म्स रिडक्शन संधि (SORT), जिसे मास्को संधि के नाम से भी जाना जाता है, यह संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के लिये अपने तैनात सामरिक परमाणु बलों की संख्या को कम कर क्रमशः 1,700 तथा 2,200 तक सीमित करने की प्रतिबद्धता लागू करती है।
  • रणनीतिक परमाणु शस्त्रागार को सीमित करना: यह दोनों पक्षों द्वारा 700 रणनीतिक लांचरों और 1,550 परिचालन युद्धक हथियारों को सीमित कर संयुक्त राज्य अमेरिका और रूसी रणनीतिक परमाणु शस्त्रागार को कम करने की द्विदलीय प्रक्रिया को जारी रखती है।
  • नवीनीकरण: यह संधि फरवरी 2021 में समाप्त होने वाली थी, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस से नवीकरण की मंज़ूरी मिलने के बाद इसे पांँच वर्ष की अवधि के लिये बढ़ाया जाएगा।

आगे की राह: 

  • वर्ष 2019 में इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्स  ट्रीटी (Intermediate-Range Nuclear Force Treaty-INF Treaty)  के निलंबन और ओपन स्काई संधि’
  •  (Open Skies Treaty) में अमेरिका को पुनः शामिल करने का रूस का यह कदम सराहनीय है।
  • न्यू स्टार संधि का विस्तार अमेरिका-रूस संबंधों में एक नए युग स्थान को चिह्नित करेगा। इस अवसर का उपयोग दोनों देश भविष्य में परमाणु मिसाइल हथियारों के नियंत्रण पर व्यापक द्विपक्षीय वार्ता करने के लिये कर सकते हैं।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

साइबर बीमा पॉलिसी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (Insurance Regulatory and Development Authority of India- IRDAI) द्वारा गठित एक समिति ने साइबर बीमा पॉलिसी लाने की सिफारिश की है।

  • साइबर बीमा पॉलिसी, साइबर जोखिम के हस्तांतरण के लिये एक तंत्र है।
    • साइबर जोखिम को आमतौर पर सूचना प्रणाली के उल्लंघन या उस पर हुए हमले के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  • यह पॉलिसी नीतिधारकों को साइबर अपराधों से बचाने में मदद करेगी।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि: 

  • अक्तूबर 2020 में IRDAI ने पी उमेश की अध्यक्षता में साइबर देयता बीमा के लिये एक समिति का गठन किया था।
  • कोविड-19 महामारी के दौरान साइबर हमले और हाई-प्रोफ़ाइल डेटा उल्लंघन की घटनाओं में वृद्धि हुई।

प्रमुख आँकड़े:

  • समिति की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में भारत में इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की संख्या 700 मिलियन आँकी गई है। 
  • वर्ष 2019 में भारत को विश्व में दूसरे सबसे बड़े (चीन के बाद) ऑनलाइन बाज़ार के रूप में स्थान दिया गया।
  • शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की संख्या बढ़ने का अनुमान है। इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की संख्या तेज़ी से बढ़ने की वजह से  ऑनलाइन बैंकिंग उपयोगकर्त्ताओं की संख्या में भी वृद्धि होगी।
  • व्यक्तिगत साइबर बीमा पॉलिसी की विशेषताएँ (कवर):
    • फंड्स की चोरी, आइडेंटिटी थेफ्ट कवर, सोशल मीडिया कवर, साइबर स्टॉकिंग, मालवेयर कवर, फिशिंग कवर, डेटा ब्रीच और प्राइवेसी ब्रीच कवर आदि इसकी विशेषताएँ हैं।
  • अनुशंसाएँ: वर्तमान में उपलब्ध साइबर बीमा पॉलिसियाँ लोगों की आवश्यकताओं को यथोचित पूरा करती हैं। हालाँकि उत्पाद सुविधाओं और प्रक्रियाओं में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें सुधार की आवश्यकता है।
  • उच्च दावों पर पुलिस प्राथमिकी (First Information Report-FIR): 
    • बीमा कंपनियों को 5,000 रुपए तक के दावों के लिये पुलिस प्राथमिकी (FIR) पर ज़ोर नहीं देना चाहिये। 
      • दावों का आकलन करने के लिये FIR एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।
    • स्पष्टता:
      • ब्रिकिंग से संबंधित प्रक्रियाएँ और उनकी लागत को कम करने के लिये उचित कवरेज की आवश्यकता है।
        • ब्रिकिंग (Bricking) एक साइबर घटना के परिणामस्वरूप हार्डवेयर के उपयोग या कार्यक्षमता में गिरावट को संदर्भित करती है।
    • साइबर बीमा पॉलिसी का मानकीकरण :
      • साइबर जोखिम व्यापक होने के साथ-साथ लगातार विस्तारित हो रहे हैं। मानकीकरण एक अच्छा विचार है, परंतु यह सभी उभरते जोखिमों से निपटने में सक्षम नहीं हो सकता है तथा यह नवाचार को भी सीमित कर सकता है।

साइबर सुरक्षा:

साइबर सुरक्षा के संबंध में:

  • साइबर हमला किसी कंप्यूटर और कंप्यूटर नेटवर्क के अनधिकृत उपयोग तथा उसे उजागर करने, बदलने, अक्षम करने, नष्ट करने, चोरी करने या उस तक अनधिकृत पहुँच प्राप्त करने का प्रयास है।
  • साइबर हमला किसी भी प्रकार की ऐसी आक्रामक युक्ति है जो कंप्यूटर सूचना प्रणाली, इन्फ्रास्ट्रक्चर, कंप्यूटर नेटवर्क या व्यक्तिगत कंप्यूटर उपकरणों को लक्षित करती है।

आवश्यकता:

  • नैसकॉम की डेटा सिक्योरिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (DSCI) की रिपोर्ट 2019 के अनुसार, विश्व में भारत ऐसा दूसरा देश है जहाँ वर्ष 2016 और वर्ष 2018 के बीच सबसे ज़्यादा साइबर हमले हुए।

साइबर हमलों के तरीके:

  • फिशिंग या स्पूफिंग हमले:
    • स्पूफिंग में हमलावर अपनी असल पहचान को छिपाकर खुद को एक विश्वसनीय स्रोत के रूप में प्रस्तुत करते हैं अर्थात् वह वैध उपयोगकर्त्ता की पहचान का उपयोग करने की कोशिश करता है। फिशिंग वह प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति उपयोगकर्त्ता की संवेदनशील जानकारी जैसे- बैंक खाता विवरण आदि को  चुराता है।
  • मैलवेयर या स्पाइवेयर:
    • स्पाइवेयर एक प्रकार का मैलवेयर है जो डिज़िटल डिवाइस जैसे- कंप्यूटर, मोबाइल, टेबलेट आदि से गुप्त एवं निजी जानकारियाँ चुराता है। यह जीमेल अकाउंट, बैंक डिटेल्स, सोशल मीडिया से लेकर टेक्स्ट मैसेज जैसी गतिविधियों पर नज़र रखता है एवं वहाँ से डेटा चोरी कर अपने ऑपरेटर तक पहुँचाता है।
  • सिम स्वैप (SIM Swap):
    • इसमें मूल सिम का एक क्लोन बनाकर मूल सिम को अमान्य कर दिया जाता है और डुप्लिकेट सिम का उपयोग उपयोगकर्त्ता के ऑनलाइन बैंक खाते से धनराशि स्थानांतरित करने के लिये किया जा सकता है।
  • क्रेडेंशियल स्टफिंग (उपकरणों से समझौता करना और डेटा चुराना):
    • क्रेडेंशियल स्टफिंग एक प्रकार का साइबर हमला है, जिसमें चोरी किये गए अकाउंट क्रेडेंशियल्स में आमतौर पर उपयोगकर्त्ता का नाम और/या ईमेल शामिल होता है और संबंधित पासवर्ड का उपयोग वेब एप्लीकेशन के खिलाफ निर्देशित बड़े पैमाने पर स्वचालित लॉगिन अनुरोधों के माध्यम से उपयोगकर्त्ता के अकाउंट तक अनधिकृत पहुँच प्राप्त करने के लिये किया जाता है।
  • ऑनलाइन भुगतान या लेन-देन आदि के दौरान साईबर हमले होते हैं।

साइबर हमले से निपटने हेतु सरकार की पहलें:

  • साइबर सुरक्षित भारत पहल:
    • इसकी शुरुआत वर्ष 2018 में मुख्य सरकारी सुरक्षा अधिकारियों (CISOs) और  सरकारी विभागों में फ्रंटलाइन आईटी कर्मचारियों के सुरक्षा उपायों के लिये साइबर क्राइम तथा निर्माण क्षमता के बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से की गई थी।
  • राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा समन्वय केंद्र (NCCC):
    • इसका कार्य वास्तविक समय में साइबर खतरों का पता लगाने के लिये देश में इंटरनेट ट्रैफिक और कम्युनिकेशन मेटाडेटा (जो प्रत्येक कम्युनिकेशन में शामिल जानकारी के छोटे-छोटे भाग होते हैं) को स्कैन करना है।
  • साइबर स्वच्छता केंद्र:
    • इसकी शुरुआत वर्ष 2017 में इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं के लिये वायरस और मैलवेयर को डिलीट कर उनके कंप्यूटर तथा उपकरणों को साफ करने के उद्देश्य से की गई थी।
  • सूचना सुरक्षा शिक्षा और जागरूकता परियोजना (ISEA):
    • यह परियोजना सूचना सुरक्षा के क्षेत्र में जागरूकता बढ़ाने और अनुसंधान, शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान करने से संबंधित है।
  • राष्ट्रीय कंप्यूटर आपातकालीन प्रतिक्रिया टीम (CERT-In) सभी साइबर सुरक्षा प्रयासों, आपातकालीन प्रतिक्रियाओं और संकट प्रबंधन के समन्वय के लिये नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करती है।
  • सरकार ने अति-संवेदनशील सूचनाओं के संरक्षण के लिये ‘राष्ट्रीय अतिसंवेदनशील सूचना अवसंरचना संरक्षण केंद्र (National Critical Information Infrastructure Protection Centre-NCIIPC) का गठन किया।
    • NCIIPC को भारत के महत्त्वपूर्ण सूचना बुनियादी ढाँचे को सुरक्षित करने के लिये सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत स्थापित किया गया था।
  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000:
    • यह अधिनियम कंप्यूटर, कंप्यूटर सिस्टम, कंप्यूटर नेटवर्क और इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप में डेटा और सूचना के उपयोग को नियंत्रित करता है।

अंतर्राष्ट्रीय तंत्र:

  • अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (ITU): यह संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है जो दूरसंचार और साइबर सुरक्षा मुद्दों के मानकीकरण तथा विकास में अग्रणी भूमिका निभाती है।
  • साइबर अपराध पर बुडापेस्ट सम्मेलन: बुडापेस्ट कन्वेंशन साइबर क्राइम पर एक कन्वेंशन है, जिसे साइबर अपराध पर बुडापेस्ट कन्वेंशन या बुडापेस्ट कन्वेंशन के नाम से जाना जाता है। 
    • यह अपनी तरह की पहली ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय कानूनों को सुव्यवस्थित कर जाँच-पड़ताल की तकनीकों में सुधार करने तथा इस संबंध में विश्व के अन्य देशों के बीच सहयोग बढ़ाने हेतु इंटरनेट और कंप्यूटर अपराधों पर रोक लगाने की मांग की गई है।
    • यह 1 जुलाई, 2004 को लागू हुआ। भारत इस सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्त्ता नहीं है।
  • इंटरनेट गवर्नेंस फोरम (IGF): यह इंटरनेट गवर्नेंस डिबेट पर सभी हितधारकों यानी सरकार, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज को एक साथ लाता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजव्यवस्था

जजों की नियुक्ति हेतु कॉलेजियम प्रणाली

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों की न्यायिक नियुक्तियों के लिये कॉलेजियम की सिफारिश को मंज़ूरी देने में हो रही देरी के संदर्भ में सरकार से जवाब मांगा है।

प्रमुख बिंदु:  

कॉलेजियम प्रणाली:

  • यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, जो संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। 
  • कॉलेजियम प्रणाली का विकास:
    • प्रथम न्यायाधीश मामला (First Judges Case- 1981): 
      • ‘एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ, 1981 मामला’ जिसे प्रथम न्यायाधीश मामले के नाम से भी जाना जाता है, में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायिक नियुक्तियों के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के साथ पूर्ण और प्रभावी परामर्श होना चाहिये। 
      • इसके अलावा यह निर्धारित किया गया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के सुझाव की  "प्रधानता" को "ठोस कारणों" से अस्वीकार किया जा सकता है।
      • इस निर्णय ने अगले 12 वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित कर दी है।
    • दूसरा न्यायाधीश मामला (Second Judges Case-1993): 
      • सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत के साथ यह स्पष्ट किया कि "परामर्श" का अर्थ वास्तव में "सहमति" है। 
      • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं होगी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से ली गई एक संस्थागत राय होगी।
    • तीसरा न्यायाधीश मामला (Third Judges Case- 1998): 
      • वर्ष 1998 में पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन द्वारा जारी एक प्रेज़िडेंशियल रेफरेंस (Presidential Reference) के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच सदस्यीय निकाय के रूप में कॉलेजियम का विस्तार किया, जिसमें CJI और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे। 
  • सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की अध्यक्षता CJI द्वारा की जाती है और इसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
  • एक उच्च न्यायालय के कॉलेजियम का नेतृत्व उसके मुख्य न्यायाधीश और उस न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
    • उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिये अनुशंसित नाम CJI और सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के अनुमोदन के बाद ही सरकार तक पहुँचते हैं।
  • उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही की जाती है और इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका कॉलेजियम द्वारा नाम तय किये जाने के बाद की प्रक्रिया में ही होती है।
    • यदि किसी वकील को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया जाना है तो सरकार की भूमिका आसूचना ब्यूरो या इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) द्वारा उसकी जाँच कराए जाने तक ही सीमित होती है।
      • आसूचना ब्यूरो (Intelligence Bureau- IB): यह एक प्रतिष्ठित और स्थापित खुफिया एजेंसी है। इसे गृह मंत्रालय द्वारा आधिकारिक रूप से नियंत्रित किया जाता है।
    • सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों पर आपत्तियाँ उठा सकती है और कॉलेजियम की पसंद के बारे में स्पष्टीकरण मांग सकती है,  परंतु यदि कॉलेजियम द्वारा उन्हीं नामों की अनुशंसा  दोबारा की जाती है तो सरकार संवैधानिक पीठ के निर्णयों के तहत उन्हें न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के लिये बाध्य होगी।

 विभिन्न न्यायिक नियुक्तियों के लिये निर्धारित प्रक्रिया:

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI):
    • CJI और सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
    • अगले CJI के संदर्भ में निवर्तमान CJI अपने उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिश करते हैं।
    • हालाँकि वर्ष 1970 के दशक के अतिलंघन विवाद के बाद से व्यावहारिक रूप से इसके लिये वरिष्ठता के आधार का पालन किया गया है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश :
    • SC के अन्य न्यायाधीशों के लिये नामों के चयन का प्रस्ताव CJI द्वारा शुरू किया जाता है।
    • CJI कॉलेजियम के बाकी सदस्यों के साथ-साथ उस उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश से भी परामर्श करता है, जिससे न्यायाधीश पद के लिये अनुशंसित व्यक्ति संबंधित होता है।   
    • निर्धारित प्रक्रिया के तहत परामर्शदाताओं को लिखित रूप में अपनी राय दर्ज करनी होती है और इसे फाइल का हिस्सा बनाया जाना चाहिये।
    • कॉलेजियम केंद्रीय कानून मंत्री को अपनी सिफारिश भेजता है, जिसके माध्यम से  इसे राष्ट्रपति को सलाह देने हेतु प्रधानमंत्री को भेजा जाता है।
  • उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश के लिये:
    • हालाँकि उनके चयन का निर्णय कॉलेजियम द्वारा लिया जाता है।  
    • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश CJI और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है। 
    • हालाँकि इसके लिये प्रस्ताव को संबंधित उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों से परामर्श के बाद पेश किया जाता है।
    • यह सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो इस प्रस्ताव को केंद्रीय कानून मंत्री को भेजने के लिये राज्यपाल को सलाह देता है।
  • कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना:
    • पारदर्शिता की कमी।
    • भाई-भतीजावाद जैसी विसंगतियों की संभावना।
    • सार्वजनिक विवादों में उलझना।
    • कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी।
  • नियुक्ति प्रणाली में सुधार के प्रयास:
    • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ (National Judicial Appointments Commission) द्वारा इसे बदलने के प्रयास को वर्ष 2015 में अदालत द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये खतरा उत्पन्न हो सकता है।

संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 124(2):  भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के प्रावधानों के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा  सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों में उच्च न्यायालयों के कुछ न्यायाधीशों  (राष्ट्रपति इस उद्देश्य के लिये जितने न्यायाधीशों के परामर्श को उपयुक्त समझे) के परामर्श के बाद की जाएगी।   
  • अनुच्छेद 217: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 217 के प्रावधानों के अनुसार,  एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा CJI, संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श और  मुख्य न्यायाधीश के अलावा अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जाएगी।  

आगे की राह:  

  • न्याय पालिका की रिक्तियों को भरना एक निरंतर और सहयोगात्मक प्रक्रिया है जिसमें कार्यपालिका तथा न्यायपालिका दोनों का योगदान शामिल होता है और इसके लिये कोई समयसीमा नहीं हो सकती है। हालाँकि वर्तमान में न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने हेतु  पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ न्यायिक चयन प्रक्रिया को संस्थागत बनाने के लिये एक स्थायी, स्वतंत्र निकाय की स्थापना के बारे विचार करना बहुत आवश्यक है।  
    • न्यायिक चयन प्रणाली को स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए इसमें विविधता को प्रतिबिंबित करने  के साथ अपनी पेशेवर क्षमता और अखंडता का प्रदर्शन करना चाहिये।
  • कुछ निश्चित रिक्तियों के लिये एक निर्धारित संख्या में न्यायाधीशों के चयन की बजाय कॉलेजियम द्वारा राष्ट्रपति को प्राथमिकता और अन्य वैध श्रेणियों के तहत न्यायाधीशों के चयन के लिये संभावित नामों की एक सूची प्रदान की जानी चाहिये। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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