शासन व्यवस्था
मृत्यु दंड में कमी लाने और इसको बढ़ाने की परिस्थितियाँ
प्रिलिम्स के लिये:केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य मामला, 1980, सर्वोच्च न्यायालय, विधि आयोग, भारतीय न्याय संहिता, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023, UAPA, 1967, NDPS अधिनियम, 1985 मेन्स के लिये:मृत्यु दंड में कमी लाने और इसको बढ़ाने की परिस्थितियाँ, भारत में मृत्युदंड का घटनाक्रम, मृत्युदंड पर न्यायपालिका एवं विधि आयोग की भूमिका |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
कोलकाता के एक न्यायालय ने आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के मामले में दोषी व्यक्ति को आजीवन कारावास के लिये दण्डादेशित किया जबकि CBI ने उक्त व्यक्ति को मृत्युदंड दिये जाने के पक्ष में प्रभावशाली तर्क दिये थे।
- हालाँकि बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले, 1980 में, सर्वोच्च न्यायालय ने अभिपुष्ट किया कि इस मामले में मृत्युदंड सांविधानिक है किंतु मृत्युदंड में कमी लाने और इसको बढ़ाने वाली दोनों परिस्थितियों पर विचार करने के बाद इसे "विरले मामलों में से विरलतम" माना जाना चाहिये।
मृत्युदंड की गुरुतकारी और शमनकारी परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
- मृत्युदंड: गुरुतकारी (दंड बढ़ाने वाली) और शमनकारी (घटाने वाली) परिस्थितियां वे कारक हैं जिन पर न्यायालय, विशेष रूप से मृत्युदंड के मामले में, दंड की गंभीरता तय करते समय विचार करते हैं,।
- गुरुतकारी परिस्थितियों की दशा में न्यायालय मृत्युदंड दिये जाने की ओर अग्रसर होता है, जबकि शमनकारी परिस्थितियों की दशा में न्यायालय द्वारा मृत्युदंड दिये जाने की संभावना कम होती जाती है।
- मार्गदर्शक कारक: सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड किस दशा में लागू किया जाना चाहिये, यह निर्धारित करने के लिये विशिष्ट गुरुतकारी और शमनकारी परिस्थितियाँ प्रदान नहीं कीं, बल्कि मार्गदर्शक कारकों की एक अपूर्ण सूची प्रदान की।
- गुरुतकारी परिस्थितियाँ:
- यदि हत्या पूर्व नियोजित, सुनियोजित और अत्यधिक क्रूरतापूर्ण हो।
- यदि हत्या में “असाधारण दुराचारिता” शामिल है
- यदि अभियुक्त, ड्यूटी पर रहते हुए या वैध कर्तव्यों का पालन करते हुए किसी लोक सेवक, पुलिस अधिकारी या सशस्त्र बल के कर्मी की हत्या का दोषी है।
- शमनकारी परिस्थितियाँ:
- क्या अपराध के समय अभियुक्त अत्यधिक मानसिक या संवेगात्मक विक्षोभ का अनुभव कर रहा था।
- अभियुक्तों की आयु; यदि उनकी आयु अत्यंत कम अथवा बहुत अधिक है तो उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा।
- अभियुक्त द्वारा समाज के लिये निरंतर खतरा उत्पन्न किये जाने की संभावना।
- अभियुक्त के सुधार की संभावना।
- यदि अभियुक्त किसी अन्य व्यक्ति के निर्देश पर कार्य कर रहा था।
- यदि अभियुक्त को विश्वास हो कि उनके कार्य नैतिक रूप से उचित थे।
- यदि अभियुक्त मानसिक रूप से पीड़ित है और अपने कृत्य की आपराधिकता को समझने में असमर्थ है।
- गुरुतकारी परिस्थितियाँ:
बच्चन सिंह मामले के बाद किस प्रकार से उग्र और शमनकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं?
- अभियुक्त की आयु: रामनरेश बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामला, 2012 तथा रमेश बनाम राजस्थान राज्य मामला, 2011 जैसे मामलों में, सर्वोच्च न्यायालय ने अभियुक्त की आयु (30 वर्ष से कम) को एक मज़बूत निवारक कारक माना, तथा उनमें सुधार की संभावना पर विश्वास किया।
- शंकर किसनराव खाड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले, 2013 में, सर्वोच्च न्यायालय ने उन मामलों में अंतर करके सजा की व्यक्तिपरक प्रकृति पर प्रकाश डाला जहाँ आयु एक कम करने वाला कारक था।
- वर्ष 2015 में जारी 262वें विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि अपराध को कम करने वाले कारक के रूप में आयु का प्रयोग बहुत असंगत रूप से किया गया है।
- शंकर किसनराव खाड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले, 2013 में, सर्वोच्च न्यायालय ने उन मामलों में अंतर करके सजा की व्यक्तिपरक प्रकृति पर प्रकाश डाला जहाँ आयु एक कम करने वाला कारक था।
- अपराध की प्रकृति: उच्चतम न्यायालय ने मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले, 1983 में निर्णय दिया था कि मृत्युदंड तब दिया जा सकता है जब समाज की"सामूहिक अंतरात्मा (Collective Conscience)" इतनी क्षुब्ध हो कि न्यायपालिका से इसे लागू करने की अपेक्षा की जाती है।
- इसने अपराधी की परिस्थितियों और सुधार की संभावना की तुलना में अपराध की प्रकृति पर अधिक ज़ोर देने की ओर बदलाव को चिह्नित किया।
- सुधार की संभावना: संतोष बरियार बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले, 2009 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय को स्पष्ट साक्ष्य प्रस्तुत करना होगा कि दोषी सुधार या पुनर्वास के लिये अयोग्य क्यों है।
- 262वीं विधि आयोग की रिपोर्ट, 2015 में बरियार मामले में साक्ष्य की आवश्यकता को सजा सुनाने में निष्पक्षता के लिये "आवश्यक" बताया गया है।
- मुकदमे का चरण: बच्चन सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि अदालतों को दोषसिद्धि के बाद एक अलग मुकदमा चलाना चाहिये ताकि इस बात पर “वास्तविक, प्रभावी और सार्थक सुनवाई” हो सके कि मृत्युदंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिये।
- दत्तात्रेय बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले, 2020 में, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि उचित सुनवाई का अभाव मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने का एक वैध कारण था।
मृत्युदंड क्या है?
- मृत्युदंड: मृत्युदंड (Capital punishment), भारतीय न्यायिक प्रणाली में सजा का सबसे कठोर रूप है क्योंकि इसमें अन्य प्रकार की सजाओं की तरह निष्पादन के बाद परिवर्तन नही किया जा सकता है।
- इसमें राज्य द्वारा किसी व्यक्ति को गंभीर अपराधों के लिये दंड स्वरूप मृत्युदंड दिया जाता है।
- कानूनी ढाँचा: भारत में मृत्युदंड भारतीय न्याय संहिता, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और अन्य विशेष कानूनों के प्रावधानों द्वारा शासित होता है।
- BNS बलात्संग से मृत्यु (धारा 66), नाबालिगों के साथ सामूहिक बलात्संग (धारा 70(2)), बार बार बलात्संग (धारा 71) और अन्य अपराधों के लिये मृत्युदंड का प्रावधान करता है।
- मृत्यु दंड योग्य अपराधों में हत्या (धारा 302), आतंकवाद ( UAPA, 1967 ) और NDPS अधिनियम, 1985 के तहत कुछ मादक पदार्थों की तस्करी के अपराध शामिल हैं।
मृत्युदंड से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के कौन से फैसले हैं?
- जगमोहन सिंह मामला, 1972: सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड की संवैधानिकता को बरकरार रखा तथा निर्णय दिया कि यदि उचित प्रक्रिया का पालन किया जाए तथा संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न किया जाए तो मृत्युदंड दिया जा सकता है।
- शत्रुघ्न चौहान मामला, 2014: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि मृत्युदंड के निष्पादन में अधिक विलंब, सजा को आजीवन कारावास में बदलने का एक वैध आधार हो सकता है।
- मनोज बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला, 2022: सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी की परिस्थितियों की गहन जाँच का आदेश दिया और सज़ा सुनाने के लिये संतुलित दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला।
- मृत्युदंड पर स्वप्रेरणा रिट, 2022: स्वप्रेरणा रिट में सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी की मृत्युदंड के खिलाफ बहस करने हेतु "सार्थक अवसर" देने के मुद्दे को निष्पक्ष सुनवाई के क्रम में पाँच न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष भेजा।
मृत्युदंड पर विधि आयोग का क्या दृष्टिकोण है?
- 35वीं रिपोर्ट, 1967: वर्ष 1967 में विधि आयोग की 35वीं रिपोर्ट में मृत्युदंड का समर्थन किया गया।
- 187वीं रिपोर्ट, 2003: वर्ष 2003 में विधि आयोग की 187वीं रिपोर्ट में सज़ा सुनाने में प्रक्रियागत खामियों को स्वीकार किया गया, हालांकि इसमें इसे समाप्त करने की वकालत नहीं की गई।
- 262वीं रिपोर्ट, 2015: वर्ष 2015 में विधि आयोग की 262वीं रिपोर्ट में आतंकवाद और संबंधित अपराधों को छोड़कर सभी अपराधों के लिये मृत्युदंड को समाप्त करने का आह्वान किया गया था।
विश्व भर में मृत्युदंड की स्थिति
- वर्ष 2022 के अनुसार 55 देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है जिनमें से 9 देशों ने इसे सबसे गंभीर अपराधों जैसे हत्याओं या युद्ध अपराधों के संदर्भ में लागू करने का प्रावधान किया है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान ही ऐसे उन्नत औद्योगिक लोकतंत्र हैं जहाँ अभी भी मृत्युदंड का प्रचलन है।
- वर्ष 2022 तक 112 देशों ने मृत्युदंड को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है जबकि वर्ष 1991 में यह संख्या 48 थी।
- वर्ष 2022 में कज़ाखस्तान, पापुआ न्यू गिनी, सिएरा लियोन और मध्य अफ्रीकी गणराज्य ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया जबकि इक्वेटोरियल गिनी और जाम्बिया ने इसे सबसे गंभीर अपराधों तक सीमित कर दिया।
- इस तरह के मामलों में 91% हिस्सेदारी पाँच देशों (चीन, ईरान, पाकिस्तान, सूडान और संयुक्त राज्य अमेरिका) की रही।
निष्कर्ष
मृत्युदंड पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले अपराधों की गंभीरता तथा सुधार की संभावना दोनों को शामिल करने के लिये विकसित हुए हैं जिसमें सज़ा में निष्पक्षता पर प्रमुख ध्यान दिया गया है। न्यायालय ने दोनों कारकों पर विचार करते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण पर बल दिया है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में मृत्युदंड पर सर्वोच्च न्यायालय के दृष्टिकोण के विकास का विश्लेषण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रश्न: मृत्यु दंडादेशों के लघूकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्रत्याख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014) |
भारतीय समाज
भारत की कुल प्रजनन दर में गिरावट
प्रिलिम्स के लिये:कुल प्रजनन दर, आंतरिक प्रवास, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, निर्भरता अनुपात, मध्यम आय संजाल, इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन, सरोगेसी, सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0, प्रतिस्थापन प्रजनन दर मेन्स के लिये:भारत में जनसांख्यिकी परिवर्तन और जनसंख्या वृद्धि, घटती प्रजनन दर के प्रभाव, जनसंख्या नियंत्रण एवं प्रजनन, सरकारी नीतियाँ, वृद्ध होती जनसंख्या और आर्थिक स्थिरता |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज़, इंजरी एंड रिस्क फैक्टर स्टडी (GBD) 2021 से पता चला है कि पिछले दशकों में भारत की कुल प्रजनन दर (TFR) में काफी गिरावट आई है।
- इससे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणामों को लेकर चिंताएँ (विशेषकर दक्षिणी राज्यों में) पैदा हुई हैं।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?
- भारत की प्रजनन प्रवृत्तियाँ: भारत की TFR, 1950 के दशक के 6.18 से घटकर वर्ष 2021 में 1.9 हो गई, जो 2.1 के प्रतिस्थापन स्तर से कम है।
- अनुमान है कि वर्ष 2100 तक भारत में कुल प्रजनन दर और भी गिरकर 1.04 (प्रति महिला मात्र एक बच्चा) हो जाएगी।
- भारत में क्षेत्रीय विविधताएँ: केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों ने उत्तरी राज्यों की तुलना में प्रतिस्थापन-स्तर की प्रजनन क्षमता पहले ही हासिल कर ली।
- वर्ष 2036 तक केरल की वृद्ध आबादी बच्चों (23%) से अधिक हो जाने की उम्मीद है। उच्च श्रम मज़दूरी, जीवन की गुणवत्ता और आंतरिक प्रवास के कारण वर्ष 2030 तक प्रवासी मज़दूरों की संख्या 60 लाख तक पहुँचने की उम्मीद है (राज्य की आबादी का लगभग छठा भाग)।
- जनसांख्यिकीय बदलाव उच्च साक्षरता, महिला सशक्तीकरण तथा सामाजिक एवं स्वास्थ्य क्षेत्रों में प्रगति से प्रेरित था।
- प्रजनन क्षमता में कमी के कारण:
- सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक कारक: भारत में जन्म नियंत्रण/परिवार नियोजन कार्यक्रम सबसे पुराने कार्यक्रमों में से एक है, लेकिन महिला साक्षरता, कार्यबल में भागीदारी और महिला सशक्तिकरण जैसे कारकों का प्रजनन दर में कमी पर अधिक प्रभाव पड़ा है।
- विवाह और प्रजनन के प्रति बदलते दृष्टिकोण, जिसमें विवाह और मातृत्व में देरी या परहेज शामिल है, ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- स्वास्थ्य एवं प्रवासन मुद्दे: पुरुषों और महिलाओं दोनों में बांझपन के बढ़ते मामले इस गिरावट में योगदान करते हैं।
- गर्भपात की उपलब्धता और सामाजिक स्वीकृति ने संभवतः प्रजनन दर में गिरावट में योगदान दिया है।
- अधिकाधिक युवा लोग शिक्षा और नौकरी के लिये विदेश जा रहे हैं और वहीं बस रहे हैं, जिससे भारत में प्रजनन दर कम हो रही है।
- सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक कारक: भारत में जन्म नियंत्रण/परिवार नियोजन कार्यक्रम सबसे पुराने कार्यक्रमों में से एक है, लेकिन महिला साक्षरता, कार्यबल में भागीदारी और महिला सशक्तिकरण जैसे कारकों का प्रजनन दर में कमी पर अधिक प्रभाव पड़ा है।
कुल प्रजनन दर और प्रतिस्थापन स्तर
- कुल प्रजनन दर (TFR): TFR उन बच्चों की औसत संख्या है जो महिलाओं के एक समूह के प्रजनन वर्षों (15 से 49 वर्ष की आयु) के अंत तक हो सकते हैं, यदि वे अपने पूरे जीवन में वर्तमान प्रजनन दरों का पालन करें, यह मानते हुए कि कोई मृत्यु दर नहीं है। इसे प्रति महिला बच्चों के रूप में व्यक्त किया जाता है।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) (2019-21) के अनुसार, TFR 2.2 बच्चों प्रति महिला (NFHS-4 (2015-16)) से घटकर 2.0 बच्चे प्रति महिला हो गई है।
- प्रतिस्थापन स्तर: 2.1 की कुल प्रजनन दर को प्रतिस्थापन स्तर माना जाता है, जहाँ प्रत्येक पीढ़ी बिना किसी महत्त्वपूर्ण जनसंख्या वृद्धि या गिरावट के स्वयं को प्रतिस्थापित कर लेती है।
- हालाँकि, 2.1 से कम कुल प्रजनन दर (TFR) नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि का कारण बन सकती है, जिससे संभावित रूप से दीर्घकालिक जनसांख्यिकीय चुनौतियाँ पैदा हो सकती हैं, जिसमें वृद्ध होती जनसंख्या भी शामिल है।
निम्न प्रजनन दर के परिणाम क्या हैं?
- वृद्ध होती जनसंख्या: निम्न जन्म दर और दीर्घ जीवन प्रत्याशा के कारण जनसंख्या तेज़ी से वृद्ध हो रही है।
- भारत में वर्तमान में 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के 149 मिलियन लोग हैं, जो कुल जनसंख्या का 10.5% है। वर्ष 2050 तक यह संख्या बढ़कर 347 मिलियन या जनसंख्या का 20.8% हो जाने की उम्मीद है।
- आर्थिक प्रभाव: युवा कार्यबल में कमी और वृद्ध जनसंख्या में वृद्धि के कारण निर्भरता अनुपात में वृद्धि हो रही है तथा सामाजिक कल्याण और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर दबाव बढ़ रहा है।
- पेंशन और वृद्धजनों की देखभाल की बढ़ती लागत से सरकार और परिवार दोनों पर बोझ पड़ेगा।
- विकसित देशों के विपरीत, जहाँ प्रति व्यक्ति आय अधिक होने के बावजूद जनसंख्या वृद्धावस्था का अनुभव किया गया, भारत को समान आर्थिक सुख-सुविधा के बिना वृद्धावस्था की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
- यदि भारत की अर्थव्यवस्था तीव्र विकास को कायम नहीं रख पाती है तो उसके मध्य आय के जाल में फंसने का खतरा है।
- श्रम बाज़ार पर प्रभाव: प्रजनन क्षमता में गिरावट से कार्यबल में कमी आ सकती है, जिससे उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
प्रजनन स्तर में गिरावट से निपटने के लिये वैश्विक दृष्टिकोण:
- जर्मनी: उदार श्रम कानून, पैतृक अवकाश और लाभों से जन्म दर बढ़ाने में सफलता मिली है।
- डेनमार्क: 40 वर्ष से कम आयु की महिलाओं के लिये राज्य-वित्तपोषित इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (IVF) उपचार प्रदान करता है।
- रूस और पोलैंड: रूस अधिक बच्चों वाले परिवारों को एकमुश्त वित्तीय प्रोत्साहन तथा पोलैंड एक से अधिक बच्चों वाले परिवारों को नकद भुगतान प्रदान करता है।
आगे की राह
- नीतिगत समायोजन: भारत उपयुक्त श्रम नीतियों को अपनाकर जर्मनी और डेनमार्क का अनुकरण कर सकता है तथा कार्य-जीवन संतुलन में सुधार के लिये माता-पिता को लाभ प्रदान कर सकता है एवं कार्यरत माता-पिता को सहयोग देकर प्रजनन दर बढ़ाने में योगदान दे सकता है।
- एक बालक के भरण-पोषण में 30 लाख से 1.2 करोड़ रुपए का व्यय होता है, जिससे कई मध्यम वर्गीय परिवार हतोत्साहित हो जाते हैं। इस समस्या से निपटने के लिये, शिक्षा को संवहनीय बनाया जाना चाहिये, कौशल बेमेल की समस्या का निवारण करने हेतु डिजिटल और व्यावहारिक शिक्षा के साथ सार्वजनिक संस्थानों को प्रगत किया जाना चाहिये और सब्सिडी एवं कर लाभ प्रदान किये जाने चाहिये।
- नीति निर्माताओं को वृद्ध होती जनसंख्या को सहायता प्रदान करते हुए आर्थिक विकास सुनिश्चित करना होगा अन्यथा जनांकिकीय लाभांश आपदा में परिणत हो सकता है।
- स्वास्थ्य और पोषण पर ध्यान केंद्रित किया जाना: सक्षम आँगनवाड़ी और पोषण 2.0 योजनाओं के माध्यम से माताओं और बच्चों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं एवं स्वास्थ्य देखभाल की पूर्ति करना और साथ ही कल्याण के लिये बाल देखभाल संस्थानों को बढ़ावा देना तथा प्रसवपूर्व अभिघात सहायता, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- मातृ स्वास्थ्य में सहायता प्रदान करने हेतु तेलंगाना में गर्भावस्था किटों के वितरण जैसी पहलों का विस्तार करने से समग्र भारत में प्रजनन दर में सुधार लाने में मदद मिल सकती है।
- प्रजनन सहायता: कॅरियर की प्रगति को प्रभावित किये बिना बालकों के अनुपात को बढ़ाने के लिये संवहनीय IVF प्रदान करने और सरोगेसी को बढ़ावा दिये जाने की आवश्यकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना पर घटती प्रजनन दर के प्रभाव का विश्लेषण कीजिये। इस प्रवृत्ति में पूर्णतया परिवर्तन लाने हेतु कौन-से नीतिगत उपाय कार्यान्वित किये किये जा सकते हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. “महिला सशक्तीकरण जनसंख्या संवृद्धि को नियंत्रित करने की कुंजी है।” चर्चा कीजिये। (2019) प्रश्न. भारत में वृद्ध जनसंख्या पर वैश्वीकरण के प्रभाव का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2013) प्रश्न. जनसंख्या शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना करते हुए भारत में इन्हें प्राप्त करने के उपायों पर विस्तृत प्रकाश डालिये। (2021) |
शासन व्यवस्था
मनरेगा भुगतान में विलंब
प्रिलिम्स के लिये:आधार भुगतान ब्रिज सिस्टम (APBS), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) योजना, राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण प्रणाली (NEFMS), मेन्स के लिये:मनरेगा योजना के तहत विलंबित भुगतान का मुद्दा, मनरेगा योजना से संबंधित चुनौतियाँ, आगे की राह और मनरेगा योजना को मज़बूत करने के समाधान। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
इंडियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स (आईजेएलई) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि केंद्र सरकार पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) योजना के श्रमिकों को विलंबित मज़दूरी के रूप में 39 करोड़ रुपए बकाया हैं।
- अध्ययन में वर्ष 2021-22 में 31.36 मिलियन वेतन लेनदेन का विश्लेषण किया गया और पाया गया कि आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (ABPS) तथा जाति-आधारित वेतन वितरण ने भुगतान की गति में सुधार करने के बजाय देरी का कारण बना है।
मनरेगा भुगतान से संबंधित प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- ABPS की अकुशलता: जनवरी, 2024 में ABPS की अनिवार्यता के बाद केवल 43% मनरेगा श्रमिक ही इसके लिये पात्र थे।
- ABPS के कारण देशभर में हुई अघोषित देरी की क्षतिपूर्ति राशि 400 करोड़ रुपए तक हो सकती है, जो भुगतान को सुव्यवस्थित करने और पारदर्शिता में सुधार लाने के सरकार के दावे के विपरीत है।
- अपर्याप्त निधि: भुगतान में देरी का कारण मुख्य रूप से केंद्र सरकार द्वारा जारी की गई निधि का अपर्याप्त होना है।
- वित्त वर्ष 2021-22 में केवल 29% भुगतान ही अनिवार्य 7-दिवसीय अवधि के अंदर संसाधित किये गए।
- बजट आवंटन में कमी: अध्ययन में मनरेगा के लिये वित्तपोषण की कमी पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें वित्त वर्ष 2021-22 में बजट आवंटन सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का केवल 0.41% (जो ग्रामीण रोज़गार की मांग को पूरा करने के लिये आवश्यक स्तर से काफी कम है) था।
- कोविड-महामारी (वर्ष 2020-21) के दौरान यह केवल 0.56% था, जो वित्त वर्ष 2023-24 एवं वित्त वर्ष 2024-25 में घटकर 0.2% रह गया।
- शोधकर्त्ताओं का सुझाव है कि पूर्ण कार्य मांग को पूरा करने के लिये इसका बजट कम से कम 4 गुना (अर्थात सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.2% से 1.5%) अधिक होना चाहिये।
- जाति-आधारित मजदूरी भुगतान और असमानताएँ: वर्ष 2021 में शुरू किये गए जाति-आधारित मजदूरी पृथक्करण (जिसके तहत भुगतान को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं 'अन्य' श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया) के बाद यह देखा गया कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के श्रमिकों की तुलना में 'अन्य' जाति के श्रमिकों के लिये भुगतान में देरी हुई।
- 'अन्य' जाति के केवल 33% भुगतान 7 दिनों के अंदर संसाधित किये गए, जबकि अनुसूचित जनजातियों के लिये यह आँकड़ा 42% तथा अनुसूचित जातियों के लिये 47% था।
मनरेगा अधिनियम क्या है?
- परिचय:
- यह सामाजिक सुरक्षा के लिये एक केंद्र प्रायोजित योजना है जिसका उद्देश्य भारत में ग्रामीण रोज़गार की गारंटी प्रदान करना है।
- इसे वर्ष 2005 में ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत अधिनियमित किया गया था।
- उद्देश्य: अकुशल शारीरिक कार्य करने के इच्छुक पंजीकृत वयस्क ग्रामीण परिवारों को कम से कम 100 दिनों का गारंटीकृत रोज़गार उपलब्ध कराना।
- कवरेज: यह योजना 100% शहरी आबादी वाले ज़िलों को छोड़कर पूरे देश में लागू है।
- मांग-आधारित ढाँचा: मांग के आधार पर रोज़गार उपलब्ध कराया जाता है; यदि 15 दिनों के भीतर रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया जाता है, तो श्रमिक बेरोज़गारी भत्ते के हकदार होते हैं, जो पहले 30 दिनों के लिये न्यूनतम पारिश्रमिक का एक-चौथाई और उसके बाद न्यूनतम पारिश्रमिक का आधा होता है।
- विकेंद्रीकृत योजना: इस योजना में आधारिक स्तर पर नियोजन किये जाने पर ज़ोर दिया जाता है, जिसमें कम से कम 50% कार्य ग्रामसभा की सिफारिशों के आधार पर ग्राम पंचायतों द्वारा निष्पादित किया जाता है।
- निधि साझाकरण: केंद्र सरकार अकुशल श्रम लागत का 100% और सामग्री लागत का 75% वहन करती है, जबकि राज्य सरकारें सामग्री लागत का 25% योगदान देती हैं, जिससे कार्यान्वयन में सहकारी संघवाद सुनिश्चित होता है।
- पारिश्रमिक भुगतान तंत्र: योजना के अंतर्गत पारिश्रमिक, राज्य-विशिष्ट न्यूनतम पारिश्रमिक दरों पर आधारित होती है और पारदर्शिता के लिये प्रत्यक्ष रूप से श्रमिकों के बैंक या आधार-लिंक्ड खातों में इसका भुगतान किया जाता है।
- विलंबित भुगतान के लिये प्रतिदिन अवैतनिक पारिश्रमिक की 0.05% प्रतिपूर्ति प्रदान की जाती जाता है, जो उपस्थिति नामावली (Muster Roll) का समापन किये जाने के 16वें दिन से शुरू होता है।
- दुर्घटना प्रतिपूर्ति: कार्यस्थल पर घायल हुए श्रमिक प्रतिपूर्ति के पात्र होते हैं तथा मृत्यु अथवा स्थायी दिव्यांगता की स्थिति में परिवारों को अनुग्रह (Ex-Gratia) राशि प्रदान की जाती है।
- MGNREGA लाभार्थियों में एक तिहाई महिलाओं का होना आवश्यक है, जिससे पारिश्रमिक और कार्य के अवसरों तक समान पहुँच सुनिश्चित हो सके।
MGNREGA पर प्रमुख नवीनतम आँकड़े
- बजट 2024-25:
- मनरेगा आवंटन: मनरेगा बजट वित्त वर्ष 2013-14 में 33,000 करोड़ रुपए था जो वित्त वर्ष 2024-25 में बढ़कर 86,000 करोड़ रुपए हो गया है।
- पारिश्रमिक दर में वृद्धि: वित्त वर्ष 2024-25 में न्यूनतम औसत पारिश्रमिक दर में 7% की वृद्धि हुई।
- आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24:
- महिला भागीदारी: मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी वित्त वर्ष 2019-20 में 54.8% थी जो वित्त वर्ष 2023-24 में बढ़कर 58.9% हो गई।
- जियोटैगिंग और पारदर्शिता: मनरेगा राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक प्रबंधन प्रणाली के माध्यम से परिसंपत्तियों की जियोटैगिंग के साथ 99.9% भुगतान सटीकता सुनिश्चित करता है।
मनरेगा योजना को प्रभावी बनाने के लिये क्या कदम उठाए जाने चाहिये?
- पर्याप्त बजट आवंटन: सरकार को समय पर मजदूरी भुगतान सुनिश्चित करने, ग्रामीण रोज़गार की बढ़ती मांग को पूरा करने और श्रमिकों की गरिमा और आजीविका की रक्षा करने के लिये मनरेगा के बजट आवंटन में वृद्धि करनी चाहिये।
- डिजिटल प्रणालियों की समीक्षा और सुधार: सरकार को ABPS जैसी डिजिटल प्रणालियों की समीक्षा और सुधार करना चाहिये, तकनीकी बाधाओं को दूर करना चाहिये, बुनियादी ढाँचे को बढ़ाना चाहिये और विशेष रूप से ग्रामीण श्रमिकों के लिये पहुँच और उपयोगकर्त्ता-मित्रता सुनिश्चित करनी चाहिये।
- जवाबदेही तंत्र को मज़बूत करना: सरकार को देरी के लिये ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये, मनरेगा प्रावधानों के अनुरूप मुआवजा सुनिश्चित करना चाहिये, और समय पर मजदूरी संवितरण सुनिश्चित करने के लिये रिपोर्टिंग, निगरानी और शिकायत निवारण प्रणालियों में सुधार करना चाहिये।
- भावी सुधार: भावी सुधारों में कुशल, पारदर्शी और न्यायसंगत वेतन वितरण सुनिश्चित किया जाना चाहिये, जाति-आधारित असमानताओं से बचना चाहिये और सभी श्रमिकों के लिये उचित व्यवहार सुनिश्चित करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के उद्देश्यों और चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इसकी चुनौतियों का समाधान करने और इसकी प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन "महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम" से लाभ पाने के पात्र हैं? (2011) (A) केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवारों के वयस्क सदस्य। उत्तर: (D) |