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डेली न्यूज़

  • 19 Dec, 2022
  • 40 min read
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भारतीय राजव्यवस्था

न्यायालय अवकाश

प्रिलिम्स के लिये:

न्यायालय अवकाश, अवकाश पीठ, सर्वोच्च न्यायालय, CJI, पेंडेंसी।

मेन्स के लिये:

अवकाश पीठ और संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India- CJI) ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय में वार्षिक शीतकालीन अवकाश के दौरान अवकाश पीठ नहीं होगी।

  • हालाँकि इस न्यायिक अवकाश की उत्पत्ति औपनिवेशिक प्रथाओं में हुई है, लेकिन पिछले कुछ समय से इसकी आलोचना की जा रही है।

न्यायालय अवकाश:

  • परिचय:
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक कामकाज़ के लिये एक वर्ष में 193 कार्य दिवस होते हैं, जबकि उच्च न्यायालय लगभग 210 दिनों के लिये कार्य करते हैं और ट्रायल कोर्ट 245 दिनों के लिये कार्य करते हैं।
    • उच्च न्यायालयों के पास सेवा नियमों के अनुसार अपने कैलेंडर बनाने की शक्ति है।
    • सर्वोच्च न्यायालय में प्रत्येक वर्ष दो लंबी अवधि के अवकाश होते हैं, ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश, लेकिन इन अवधियों के दौरान तकनीकी रूप से पूरी तरह से न्यायालय का कामकाज़ बंद नहीं होता है।
  • अवकाश पीठ (Vacation Bench):
    • सर्वोच्च न्यायालय की अवकाश पीठ CJI द्वारा गठित एक विशेष पीठ है।
    • याचिकाकर्त्ता अभी भी सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर सकते हैं और यदि न्यायालय यह निर्णय लेता है कि याचिका ‘अत्यावश्यक मामला’ है, तो अवकाश पीठ मामले के गुण-दोष के आधार पर सुनवाई करती है।
    • जमानत, बेदखली आदि जैसे मामलों को अक्सर अवकाश पीठों के समक्ष सूचीबद्ध करने में प्राथमिकता दी जाती है।
      • अवकाश के दौरान न्यायालयों के लिये महत्त्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करना असामान्य नहीं है।
      • वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की स्थापना के लिये संवैधानिक संशोधन की चुनौती पर सुनवाई की।
      • वर्ष 2017 में एक संविधान पीठ ने ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान तीन तलाक की प्रथा को चुनौती देने वाले मामले में छह दिन तक सुनवाई की।
  • वैधानिक प्रावधान:
    • सर्वोच्च न्यायालय के नियम, 2013 के आदेश II के नियम 6 के तहत CJI ने ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान आवश्यक विविध मामलों की सुनवाई और नियमित सुनवाई हेतु खंडपीठों को नामित किया है।
    • नियम में कहा गया है कि CJI ग्रीष्मकालीन या सर्दियों के अवकाश के दौरान तत्काल प्रकृति के सभी मामलों की सुनवाई के लिये एक या एक से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकता है, जो इन नियमों के तहत एकल न्यायाधीश द्वारा सुने जा सकते हैं।
    • और जब भी आवश्यक हो, वह अवकाश के दौरान अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई के लिये एक खंडपीठ भी नियुक्त कर सकता है, जिसमें सुनवाई न्यायाधीशों की एक पीठ द्वारा की जानी चाहिये।

न्यायालय अवकाश संबंधी मुद्दे:

  • न्याय चाहने वालों के लिये असुविधाजनक:
    • न्यायालयों को मिलने वाला लंबा अवकाश न्याय चाहने वालों के लिये बहुत सुविधाजनक नहीं है।
  • लंबित मामलों के संदर्भ में बुरे संकेत:
    • विशेष रूप से मामलों की बढ़ती लंबितता और न्यायिक कार्यवाही की धीमी गति के आलोक में विस्तारित लगातार अवकाश अच्छे संकेत नहीं हैं।
    • सामान्य मुकदमेबाज़ी के मामले में अवकाश का मतलब मामलों को सूचीबद्ध करने में और अधिक अपरिहार्य देरी से है।
  • यूरोपीय प्रथाओं के साथ असंगत:
    • ग्रीष्मकालीन अवकाश की शुरुआत शायद इसलिये हुई क्योंकि भारत के संघीय न्यायालय के यूरोपीय न्यायाधीशों के अनुसार, भारतीय ग्रीष्मकालीन समय में काफी गर्मी रहती थी और इसी प्रकार क्रिसमस के लिये शीतकालीन अवकाश का भी प्रावधान किया गया।

आगे की राह

  • इस मुद्दे को हल तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु एक "नई प्रणाली" विकसित नहीं की जाती है।
  • वर्ष 2000 में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों की सिफारिश करने के लिये न्यायमूर्ति मालिमथ समिति ने सुझाव दिया कि लंबित मामलों को ध्यान में रखते हुए अवकाश की अवधि को 21 दिनों तक कम किया जाना चाहिये। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के लिये 206 दिन और उच्च न्यायालय के लिये 231 दिन काम करने का सुझाव दिया गया।
  • भारत के विधि आयोग ने वर्ष 2009 में अपनी 230वीं रिपोर्ट में इस प्रणाली में सुधार का आह्वान किया, अचंभित कर देने वाले बकाया मामलों को देखते हुए सुझाव दिया कि उच्च न्यायपालिका में अवकाश को कम-से-कम 10 से 15 दिनों तक कम किया जाना चाहिये और न्यायालय के काम के घंटों को कम-से-कम आधा घंटा बढ़ाया जाना चाहिये।
  • वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने नए नियमों को अधिसूचित किया और इसके अनुसार ग्रीष्मकालीन अवकाश की अवधि पहले के 10 सप्ताह की अवधि की तुलना में अब सात सप्ताह से अधिक नहीं होगी।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ): 

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत के राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने के लिये वापस बुलाया जा सकता है।
  2. भारत में एक उच्च न्यायालय को अपने स्वयं के निर्णय की समीक्षा करने की शक्ति प्राप्त है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)

व्याख्या:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 128 के अनुसार, भारत का मुख्य न्यायाधीश किसी भी समय राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से निम्नलिखित योग्यता वाले किसी भी व्यक्ति से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकता है:
    • जिसने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर कार्य किया हो। अतः कथन 1 सही है।
    • जिसने किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण किया हो और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये विधिवत अर्हता प्राप्त कर चुका हो।
  • कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड होने के कारण उच्च न्यायालय भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने स्वयं के निर्णयों की समीक्षा कर सकता है। इसी तरह अनुच्छेद 137 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी निर्णय या उसके द्वारा दिये गए आदेश की समीक्षा करने की शक्ति होगी। अत: कथन 2 सही है।
  • अतः विकल्प C सही उत्तर है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजव्यवस्था

केरल विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक

प्रिलिम्स के लिये:

राज्य विश्वविद्यालयों में कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका।

मेन्स के लिये:

केरल विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल विधानसभा ने राज्य विश्वविद्यालयों के शासन से संबंधित कानूनों में संशोधन करने और राज्यपाल को कुलाधिपति के पद से हटाने के लिये विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक पारित किया।

पृष्ठभूमि:

  • महीनों से केरल के राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव चल रहा था।
  • यह स्थिति तब और भी बदतर हो गई जब राज्यपाल ने राज्य विधानसभा द्वारा पहले पारित विवादास्पद लोकायुक्त (संशोधन) और विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयकों को स्वीकृति देने से इनकार कर दिया।
  • राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच बिगड़ता संबंध सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के साथ एक महत्त्वपूर्ण बिंदु पर पहुँच गया, जिसमें एपीजे अब्दुल कलाम प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (KTU) के कुलपति (VC) की नियुक्ति को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया गया कि इसने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के नियमों का उल्लंघन किया है।
  • इसके बाद राज्यपाल ने 11 अन्य कुलपतियों के इस्तीफे इस आधार पर मांगे थे कि सरकार ने उन्हें उसी प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किया था जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध माना था।

विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक:

  • प्रस्तावित कानून केरल में विधायी अधिनियमों द्वारा स्थापित 14 विश्वविद्यालयों के कानूनों में संशोधन करेगा तथा राज्यपाल को उन विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति पद से हटाएगा।
  • विधेयक राज्यपाल के स्थान पर विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के रूप में प्रख्यात शिक्षाविदों को नियुक्त करने के लिये सरकार को प्राधिकृत करेगा, इस प्रकार विश्वविद्यालय प्रशासन में राज्यपाल की निगरानी भूमिका समाप्त हो जाएगी।
  • इन विधेयकों में नियुक्त कुलाधिपति के कार्यकाल को पाँच वर्ष तक सीमित करने का भी प्रावधान है। हालाँकि इसमें यह भी कहा गया है कि सेवारत कुलाधिपति को दूसरे कार्यकाल के लिये नियुक्त किया जा सकता है।

प्रस्ताव का पक्ष और विपक्ष:

  • पक्ष:
    • पहले यूजीसी दिशा-निर्देश केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिये अनिवार्य हुआ करते थे और राज्य विश्वविद्यालयों के लिये "आंशिक रूप से अनिवार्य एवं आंशिक रूप से निर्देशात्मक" होते थे, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल के फैसलों के माध्यम से इन्हें सभी विश्वविद्यालयों के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी बना दिया गया।
    • यह एक ऐसे परिदृश्य की ओर इशारा करती है जिसमें समवर्ती सूची (संविधान की) के सभी विषयों पर विधानसभा की विधायी शक्तियों को अधीनस्थ कानून या केंद्र द्वारा जारी एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से कम किया जा सकता है।
    • कहा जा रहा है कि भविष्य में कानूनी पेचीदगियों से बचने के लिये यह विधेयक लाया गया था।
  • विपक्ष:
    • यदि कुलाधिपति सरकार द्वारा नियुक्त किये गए, तो वे सत्तारूढ़ मोर्चे के ऋणी होंगे और इससे वे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के क्षरण की ओर अग्रसर होंगे।
    • यह सत्तारूढ़ मोर्चे के करीबी लोगों की नियुक्ति की सुविधा प्रदान कर सकता है।
      • इससे एक ऐसे परिदृश्य का निर्माण होगा जिसमें राज्यपाल केवल उन लोगों को नियुक्त कर सकता है जो सरकार के करीबी हैं।

UGC नियमों के तहत कुलपति की नियुक्ति की प्रक्रिया:

  • विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) विनियम, 2018 के अनुसार, एक विश्वविद्यालय का कुलपति सामान्य रूप से विधिवत गठित खोज सह चयन समिति द्वारा अनुशंसित तीन से पाँच नामों के पैनल से विज़िटर/ चांसलर द्वारा नियुक्त किया जाता है।
  • किसी भी विज़िटर के पास यह अधिकार होता है कि पैनल द्वारा सुझाए गए नामों से असंतुष्ट होने की स्थिति में वह नामों के एक नए सेट की मांग कर सकता है।
  • भारतीय विश्वविद्यालयों के संदर्भ में भारत का राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों का पदेन विज़िटर होता है और राज्यों के राज्यपाल संबंधित राज्य के सभी राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं।
  • यह प्रणाली सभी विश्वविद्यालयों में अनिवार्य रूप से एक समान नहीं है। जहाँ तक अलग-अलग राज्यों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं का संबंध है, उनमे भिन्नताएँ होती हैं।

विश्वविद्यालय के संबंध में राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियाँ:

  • राज्य विश्वविद्यालय:
    • राज्यपाल के रूप में वह मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से कार्य करता है, कुलाधिपति के रूप में वह मंत्रिपरिषद से स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और सभी विश्वविद्यालयों के मामलों पर स्वयं निर्णय लेता है।
  • केंद्रीय विश्वविद्यालय:
    • केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 2009 और अन्य विधियों के तहत भारत का राष्ट्रपति केंद्रीय विश्वविद्यालय का विज़िटर होगा।
    • केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति नाममात्र के प्रमुख होते हैं जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा आगंतुक के रूप में चुना जाता है, उनके कर्तव्य दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता करने तक सीमित हैं।
    • कुलपति की नियुक्ति, केंद्र सरकार द्वारा गठित खोज और चयन समितियों द्वारा चुने गए नामों के पैनलों से विज़िटर/आगंतुक द्वारा की जाती है।
    • अधिनियम में यह भी कहा गया है कि राष्ट्रपति को विज़िटर के रूप में विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक पहलुओं के निरीक्षण को अधिकृत करने एवं पूछताछ करने का अधिकार होगा।

आगे की राह

  • वर्ष 2009 में केरल राज्य उच्च शिक्षा परिषद द्वारा गठित एम. आनंदकृष्णन समिति ने सिफारिश की थी कि विश्वविद्यालयों को शैक्षणिक और प्रशासनिक मामलों में पूर्ण स्वायत्तता होनी चाहिये।
  • एक ऐसी वैधानिक संरचना का निर्माण किया जाए ताकि विश्वविद्यालयों के दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में राज्यपाल और उच्च शिक्षा मंत्री को हस्तक्षेप से दूर रखा जा सके।
  • इसमें यूजीसी विनियम, 2010 को तुरंत शामिल करने की भी सिफारिश की गई है।
  • केंद्र-राज्य संबंधों पर पुंछी आयोग की सिफारिश के अनुसार, राज्यपाल को उन पदों और शक्तियों का बोझ नहीं उठाना चाहिये जो संविधान में निर्दिष्ट नहीं हैं तथा विवाद या सार्वजनिक आलोचना का कारण बन सकते हैं।
  • सरकारों को विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की रक्षा के लिये वैकल्पिक उपाय तलाशने चाहिये ताकि सत्ताधारी दल विश्वविद्यालयों के कामकाज पर अनुचित प्रभाव न डालें।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न: 

प्रश्न. क्या सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (जुलाई 2018) उपराज्यपाल और दिल्ली की चुनी हुई सरकार के बीच राजनीतिक संघर्ष को सुलझा सकता है? परीक्षण कीजिये। (2018)

प्रश्न. राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग के लिये आवश्यक शर्तों की चर्चा कीजिये। राज्यपाल द्वारा अध्यादेशों को विधायिका के समक्ष रखे बिना पुन: प्रख्यापित करने की वैधता पर चर्चा कीजिये। (2022)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

भारत में एसिड अटैक पर कानून

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, भारतीय दंड संहिता (IPC), विष अधिनियम, 1919।

मेन्स के लिये:

भारत में एसिड अटैक, एसिड अटैक संबंधी कानून, एसिड बिक्री के नियमन पर कानून, एसिड अटैक पीड़ितों के लिये मुआवज़ा और देखभाल

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली में तीन लड़कों द्वारा एक युवती पर एसिड अटैक किया गया। इस घटना ने एसिड अटैक के जघन्य अपराध और संक्षारक पदार्थों की आसान उपलब्धता को केंद्रीय विषय बना दिया है।

भारत में एसिड अटैक:

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 में 150, वर्ष 2020 में 105 और वर्ष 2021 में 102 ऐसे मामले दर्ज किये गए थे।
  • पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में ऐसे मामले अधिक संख्या में दर्ज किये गए हैं, जो आमतौर पर साल-दर-साल देश के सभी मामलों का लगभग 50% होता है।
  • वर्ष 2019 में एसिड अटैक की चार्जशीट दर 83% और सज़ा दर 54% थी।
  • वर्ष 2020 में इस प्रकार के मामले क्रमशः 86% और 72% थे तथा वर्ष 2021 में क्रमशः 89% और 20% दर्ज किये गए थे।
  • वर्ष 2015 में गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को अभियोजन में तेज़ी लाकर एसिड हमलों के मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिये एक परामर्श जारी किया था।

भारत में एसिड अटैक पर कानून:

  • भारतीय दंड संहिता: वर्ष 2013 तक एसिड अटैक को अलग अपराध के रूप में नहीं माना जाता था। हालाँकि भारतीय दंड संहिता (IPC) में किये गए संशोधनों के बाद एसिड अटैक को भारतीय दंड संहिता (IPC) की एक अलग धारा (326A) के अंतर्गत रखा गया तथा 10 वर्ष के न्यूनतम कारावास के साथ दंडनीय बनाया गया था, जो ज़ुर्माने सहित आजीवन कारावास के रूप में बढ़ाया जा सकता है।
  • उपचार से इनकार: कानून में पुलिस अधिकारियों द्वारा पीड़ितों की प्राथमिकी दर्ज करने या उपचार से इनकार करने पर सज़ा का भी प्रावधान है।
    • उपचार से इनकार (सार्वजनिक और निजी दोनों अस्पतालों द्वारा) करने पर एक वर्ष तक की कैद हो सकती है और पुलिस अधिकारी द्वारा कर्तव्य की अवहेलना करने पर दो वर्ष तक की कैद हो सकती है।

एसिड बिक्री के नियमन पर कानून:

  • विष अधिनियम, 1919: वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने एसिड अटैक का संज्ञान लिया और एसिड पदार्थों की बिक्री के नियमन पर एक आदेश पारित किया।
    • आदेश के आधार पर गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को एक सलाह जारी की कि कैसे एसिड की बिक्री को विनियमित किया जाए और विष अधिनियम, 1919 के तहत मॉडल विष कब्ज़ा और बिक्री नियम, 2013 (Model Poisons Possession and Sale Rules, 2013) तैयार किया जाए।
    • परिणामस्वरूप राज्यों को मॉडल नियमों के आधार पर अपने स्वयं के नियम बनाने के लिये कहा गया क्योंकि मामला राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता था।
  • डेटा का रखरखाव: एसिड की ओवर-द-काउंटर बिक्री (बिना किसी वैध नुस्खे के) की अनुमति नहीं थी, जब तक कि विक्रेता एसिड की बिक्री को रिकॉर्ड करने वाली लॉगबुक/रजिस्टर नहीं रखता।
    • इस लॉगबुक में एसिड बेचने वाले व्यक्ति का विवरण, बेची गई मात्रा, व्यक्ति का पता और एसिड खरीदने का कारण भी शामिल होना था।
  • आयु प्रतिबंध और दस्तावेज़ीकरण: बिक्री केवल सरकार द्वारा जारी पते वाली एक फोटो पहचान पत्र की प्रस्तुति पर की जानी है। खरीदार को यह भी साबित करना होगा कि उसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक है।
  • एसिड स्टॉक की ज़ब्ती: विक्रेता को 15 दिनों के भीतर और एसिड के अघोषित स्टॉक के मामले में संबंधित उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (Sub-Divisional Magistrate- SDM) के साथ एसिड के सभी स्टॉक की घोषणा करनी होगी। SDM स्टॉक को ज़ब्त कर सकता है और किसी भी दिशा-निर्देश के उल्लंघन के लिये उपयुक्त रूप से 50,000 रुपए तक का जुर्माना लगा सकता है।
  • रिकॉर्ड-कीपिंग: नियमों के अनुसार, शैक्षणिक संस्थानों, अनुसंधान प्रयोगशालाओं, अस्पतालों, सरकारी विभागों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विभागों, जिन्हें एसिड रखने एवं स्टोर करने की आवश्यकता होती है, को एसिड के उपयोग का एक रजिस्टर बनाए रखना होगा तथा संबंधित SDM के साथ इसे दर्ज करना होगा।
  • जवाबदेही: नियमों के अनुसार, एक व्यक्ति को अपने परिसर में एसिड और सुरक्षित रखने के लिये जवाबदेह बनाया जाएगा। एसिड को इस व्यक्ति की देखरेख में संग्रहीत किया जाएगा तथा प्रयोगशालाओं/भंडारण के स्थान को छोड़ने वाले छात्रों/कर्मियों की अनिवार्य जाँच होगी जहाँ एसिड का उपयोग किया जाता है।

एसिड-अटैक पीड़ितों हेतु मुआवज़ा और देखभाल:

  • मुआवज़ा: एसिड अटैक पीड़ितों को संबंधित राज्य सरकार/केंद्रशासित प्रदेश द्वारा देखभाल और पुनर्वास लागत के रूप में कम-से-कम 3 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जाता है।
  • नि:शुल्क उपचार: राज्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे यह सुनिश्चित करें कि एसिड अटैक के पीड़ितों को सार्वजनिक या निजी किसी भी अस्पताल में निःशुल्क उपचार उपलब्ध कराया जाए। पीड़ित को दिये जाने वाले एक लाख रुपए के मुआवज़े में इलाज पर होने वाले खर्च को शामिल नहीं किया जाना चाहिये।
  • बिस्तरों का आरक्षण: एसिड अटैक के पीड़ितों को प्लास्टिक सर्जरी की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है और इसलिये एसिड अटैक के पीड़ितों के इलाज के लिये निजी अस्पतालों में 1-2 बिस्तर आरक्षित किये जा सकते हैं।
  • सामाजिक एकीकरण कार्यक्रम: राज्यों को भी पीड़ितों के लिये सामाजिक एकीकरण कार्यक्रमों का विस्तार करना चाहिये, जिसके लिये गैर-सरकारी संगठनों (NGO) को विशेष रूप से उनकी पुनर्वास संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु वित्तपोषित किया जा सकता है।

आगे की राह

  • किसी को पीछे नहीं छोड़ने का वादा: महिलाओं के खिलाफ हिंसा समानता, विकास, शांति के साथ-साथ महिलाओं और लड़कियों के मानवाधिकारों की पूर्ति में बाधा बनी हुई है।
    • कुल मिलाकर सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) का ‘किसी को भी पीछे नहीं छोड़ने का वादा’ महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को समाप्त किये बिना पूरा नहीं किया जा सकता है।
  • समग्र दृष्टिकोण: महिलाओं के खिलाफ अपराध को अकेले कानून की अदालत में हल नहीं किया जा सकता है। इसके लिये समग्र दृष्टिकोण और संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को बदलने की आवश्यकता है।
  • भागीदारी: कानून निर्माताओं, पुलिस अधिकारियों, फोरेंसिक विभाग, अभियोजकों, न्यायपालिका, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, गैर-सरकारी संगठनों तथा पुनर्वास केंद्रों सहित सभी हितधारकों को एक साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ): 

प्रश्न. समय और स्थान के विरुद्ध भारत में महिलाओं के लिये निरंतर चुनौतियाँ क्या हैं? (मेन्स-2019)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण

प्रिलिम्स के लिये:

संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण, DNA, जीन, जीनोम।

मेन्स के लिये:

संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण और इसका महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान ( Indian Institute of Science Education and Research- IISER) भोपाल के शोधकर्त्ताओं ने बरगद (Ficus benghalensis) और पीपल (Ficus religiosa) की पत्ती के ऊतकों के नमूनों से संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण (Whole Genome Sequencing ) किया है।

  • इस कार्य ने बरगद के मामले में 17 जीनों और पीपल के 19 जीनों की पहचान करने में मदद की, जिनमें अनुकूली विकास के कई लक्षण हैं जो इन दो गूलर (Ficus) प्रजातियों के लंबे समय तक जीवित रहने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण:

  • परिचय:
    • सभी जीवों का एक अद्वितीय आनुवंशिक कोड या जीनोम होता है, जो न्यूक्लियोटाइड बेस एडेनिन (A), थाइमिन (T), साइटोसिन (C) और गुआनिन (G) से बना होता है।
    • एक जीव में बेस के अनुक्रम का पता लगाकर अद्वितीय डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (Deoxyribonucleic Acid- DNA) फिंगरप्रिंट या पैटर्न की पहचान की जा सकती है।
      • बेस के क्रम का निर्धारण अनुक्रमण कहलाता है।
    • संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण एक प्रयोगशाला प्रक्रिया है जो एक प्रक्रिया में जीव के जीनोम में बेस के क्रम को निर्धारित करती है।
  • कार्यप्रणाली:
    • DNA को काटने के लिये:
      • वैज्ञानिक DNA को काटने के लिये आणविक कैंची का उपयोग करते हैं, यह लाखों आधारों (A, C, T और G) से बना होता है, जो अनुक्रमण मशीन को समझने के लिये काफी छोटे होते हैं।
    • DNA बारकोडिंग :
      • वैज्ञानिक DNA टैग के छोटे-छोटे टुकड़े जोड़ते हैं या बार कोड का उपयोग यह पहचानने के लिये करते हैं कि कटा हुआ DNA का कौन-सा टुकड़ा किस बैक्टीरिया से संबंधित है।
        • यह उसी तरह है जैसे एक बार कोड किसी किराने की दुकान पर किसी उत्पाद की पहचान करता है।
    • DNA सीक्वेंसर:
      • कई बैक्टीरिया से बार-कोडेड DNA को मिलाया जाता है और DNA सीक्वेंसर में डाल दिया जाता है।
      • अनुक्रमक A's, C's, T's और G's या उन आधारों की पहचान करता है, जो प्रत्येक जीवाणु अनुक्रम बनाते हैं।
      • अनुक्रमण बार कोड का उपयोग करता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि कौन से आधार किस बैक्टीरिया के हैं।
    • डेटा विश्लेषण:
      • वैज्ञानिक कई बैक्टीरिया से अनुक्रमों की तुलना करने और मतभेदों की पहचान करने के लिये कंप्यूटर विश्लेषण टूल का उपयोग करते हैं।
      • ये मतभेद वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद करती है कि जीवाणु कितनी निकटता से संबंधित हैं और कितनी संभावना है कि वे एक ही प्रकोप का हिस्सा हैं।
  • लाभ:
    • जीनोम का उच्च-रिज़ॉल्यूशन, आधार-दर-आधार दृश्य प्रदान करता है।
    • बड़े और छोटे दोनों रूपों को शामिल करता है जो लक्षित दृष्टिकोणों से छूट सकते हैं।
    • जीन अभिव्यक्ति और विनियमन तंत्र के आगे के अनुवर्ती अध्ययन के लिये संभावित प्रेरक रूपों की पहचान करता है।
    • नोबेल जीनोम की असेंबली का समर्थन करने के लिये कम समय में बड़ी मात्रा में डेटा वितरित करता है।
  • महत्त्व:
    • वंशानुगत विकारों की पहचान करने, कैंसर कोशिकाओं के उत्परिवर्तनों को चिह्नित करने और बीमारी के प्रकोपों ​​को ट्रैक करने में जीनोमिक जानकारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
    • यह कृषि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पशुधन, पौधों या रोग संबंधी रोगाणुओं के अनुक्रमण के लिये लाभदायक है।

जीनोम:

  • जीनोम एक जीव में मौजूद समग्र आनुवंशिक सामग्री को संदर्भित करता है और सभी लोगों में मानव जीनोम अधिकतर समान होता है, लेकिन DNA का एक बहुत छोटा हिस्सा एक व्यक्ति तथा दूसरे के बीच भिन्न होता है।
  • प्रत्येक जीव का आनुवंशिक कोड उसके डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लिक एसिड (DNA) में निहित होता है, जो जीवन के निर्माण खंड होते हैं।
  • वर्ष 1953 में जेम्स वाटसन और फ्राँसिस क्रिक द्वारा "डबल हेलिक्स" के रूप में संरचित DNA की खोज की गई, जिससे यह समझने में मदद मिली कि जीन किस प्रकार जीवन, उसके लक्षणों एवं बीमारियों का कारण बनते हैं।
  • प्रत्येक जीनोम में उस जीव को बनाने और बनाए रखने के लिये आवश्यक सभी जानकारी होती है।
  • मनुष्यों में पूरे जीनोम की एक प्रति में 3 अरब से अधिक DNA बेस जोड़े होते हैं।

जीनोम और जीन में अंतर:

जीन जीनोम
जीन DNA अणुओं का एक हिस्सा है जीनोम कोशिका में मौजूद कुल DNA हैं
आनुवंशिक जानकारी का वंशानुगत तत्त्व DNA अणु के सभी समूह
प्रोटीन संश्लेषण को एन्कोड करता है प्रोटीन संश्लेषण के लिये प्रोटीन और नियामक तत्त्वों दोनों को एन्कोड करता है
इसमें लगभग कुछ सौ क्षार जोड़े होते है एक उच्च जीव के जीनोम में अरब क्षार जोड़े होते हैं
एक उच्च जीव में लगभग हज़ारों जीन होते हैं प्रत्येक जीव में केवल एक जीनोम होता है
एलील्स नामक जीन की भिन्नता को स्वाभाविक रूप से चुना जा सकता है क्षैतिज जीन स्थानांतरण और दोहराव जीनोम में बड़े बदलाव का कारण बनते हैं

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ): 

प्रश्न. भारत में कृषि के संदर्भ में प्रायः समाचारों में आने वाले ‘जीनोम अनुक्रमण (जीनोम सीक्वेंसिंग)’ की तकनीक का आसन्न भविष्य में किस प्रकार उपयोग किया जा सकता है? (2017)

  1. विभिन्न फसली पौधों में रोग प्रतिरोध और सूखा सहिष्णुता के लिये आनुवंशिक सूचकाें का अभिज्ञान करने के लिये जीनोम अनुक्रमण का उपयोग किया जा सकता है।
  2. यह तकनीक फसली पौधों की नई किस्मों को विकसित करने में लगने वाले आवश्यक समय को कम करने में मदद करती है।
  3. इसका प्रयोग फसलों में पोषी-रोगाणु संबंधों को समझने के लिये किया जा सकता है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)

व्याख्या:

  • चीनी वैज्ञानिकों ने वर्ष 2002 में चावल के जीनोम को डिकोड किया। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के वैज्ञानिकों ने चावल की बेहतर किस्मों जैसे- पूसा बासमती-1 और पूसा बासमती -1121 को विकसित करने के लिये जीनोम अनुक्रमण का उपयोग किया, जिसने वर्तमान में भारत के चावल निर्यात में काफी हद तक वृद्धि की है। कई ट्रांसजेनिक किस्में भी विकसित की गई हैं, जिनमें कीट प्रतिरोधी कपास, शाकनाशी सहिष्णु सोयाबीन और वायरस प्रतिरोधी पपीता शामिल हैं। अत: 1 सही है।
  • पारंपरिक प्रजनन में पादप प्रजनक अपने खेतों की जाँच करते हैं और उन पौधों की खोज करते हैं जो वांछनीय लक्षण प्रदर्शित करते हैं। ये लक्षण उत्परिवर्तन नामक एक प्रक्रिया के माध्यम से उत्पन्न होते हैं, लेकिन उत्परिवर्तन की प्राकृतिक दर उन सभी पौधों में लक्षणों को उत्पन्न करने के लिये बहुत धीमी और अविश्वसनीय है जो कि प्रजनक चाहते हैं। हालाँकि जीनोम अनुक्रमण में कम समय लगता है, इस प्रकार यह अधिक बेहतर विकल्प है। अत: 2 सही है।
  • जीनोम अनुक्रमण एक फसल के संपूर्ण डीएनए अनुक्रम का अध्ययन करने में सक्षम बनाता है, इस प्रकार यह रोगजनकों के अस्तित्व या प्रजनन क्षेत्र को समझने में सहायता प्रदान करता है। अत: 3 सही है।
  • अतः विकल्प (D) सही उत्तर है।

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. DNA बारकोडिंग किसका उपसाधन हो सकता है?
  2. किसी पादप या प्राणी की आयु का आकलन करने के लिये
  3. समान दिखने वाली प्रजातियों के बीच भिन्नता जानने के लिये
  4. प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में अवांछित प्राणी या पादप सामग्री को पहचानने के लिये

उपर्युक्त कथनों में कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 3
(c) केवल 1 और 2
(d) केवल 2 और 3

उत्तर: (d)

व्याख्या:

  • परमाणु या ऑर्गेनेल जीनोम से लघु DNA अनुक्रमों का उपयोग कर जैविक प्रतिदर्शों की पहचान करने की नई तकनीक को DNA बारकोडिंग कहा जाता है।
  • DNA बारकोडिंग के विभिन्न क्षेत्रों में कई अनुप्रयोग हैं जैसे प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करना, लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा करना, कृषि कीटों को नियंत्रित करना, रोग वैक्टर की पहचान करना, पानी की गुणवत्ता की निगरानी करना, प्राकृतिक स्वास्थ्य उत्पादों का प्रमाणीकरण और औषधीय पौधों की पहचान करना।
  • लुप्तप्राय वन्यजीवों की प्रजातियों की पहचान (एक जैसी दिखने वाली प्रजातियों के बीच अंतर), कीट संगरोध और रोग वाहक (अवांछनीय जानवरों / पौधों की पहचान करना) कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें DNA बारकोडिंग शोधकर्त्ताओं, प्रवर्तन एजेंटों एवं उपभोक्ताओं हेतु बहुत कम समय-सीमा में निर्णय लेती है।
  • अतः कथन 2 और 3 सही हैं, अतः विकल्प (d) सही है।

मेन्स:

प्रश्न. अनुप्रयुक्त जैव-प्रौद्योगिकी में शोध तथा विकास संबंधी उपलब्धियाँ क्या हैं? ये उपलब्धियाँ समाज के निर्धन वर्गों के उत्थान में किस प्रकार सहायक होंगी? (2021)

स्रोत:द हिंदू


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