डेली न्यूज़ (19 Oct, 2020)



पर्ल रिवर एश्चुरी में डॉल्फिन

प्रिलिम्स के लिये:

वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड, पर्ल रिवर एश्चुरी, इंडो-पैसिफिक हम्पबैक डॉल्फिन

मेन्स के लिये: 

COVID-19 और डॉल्फिन की संख्या में वृद्धि  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्ल रिवर एश्चुरी (Pearl River Estuary- PRE) में चाइनीज़ पिंक डॉल्फिन (Chinese Pink Dolphins) की संख्या में वृद्धि देखी गई है। 

  • इंडो-पैसिफिक हम्पबैक डॉल्फिन (Indo-Pacific Humpback Dolphins) को चाइनीज़ व्हाइट डॉल्फिन (Chinese White Dolphins) या पिंक डॉल्फिन (Pink Dolphins) के रूप में भी जाना जाता है, जो उनकी त्वचा के रंग को दर्शाता है।

प्रमुख बिंदु: 

 पर्ल रिवर एश्चुरी (Pearl River Estuary- PRE): 

Pearl-River-Estuary

  • इसमें हाॅन्गकाॅन्ग, मकाओ के साथ-साथ शेन्ज़ेन, ग्वांगझू और डोंगगू नामक मुख्य चीनी शहर शामिल हैं। 
  • इस क्षेत्र में लगभग 22 मिलियन लोग रहते हैं।
  • पर्ल रिवर डेल्टा (Pearl River Delta), PRE के आसपास का निचला इलाका है जहाँ पर्ल नदी (Pearl River) दक्षिण चीन सागर में मिलती है। 
    • यह पृथ्वी पर दुनिया के सबसे घने शहरी क्षेत्र, गहन औद्योगिक क्षेत्र और सबसे व्यस्त शिपिंग लेन में से एक है।

वर्तमान परिदृश्य:

  • गौरतलब है कि डॉल्फिन जल में अपना रास्ता खोजने के लिये इकोलोकेशन (Echolocation) का उपयोग करते हैं किंतु पानी के जहाज़ अक्सर उनके द्वारा  रास्ता खोजे जाने दौरान अवरोध उत्पन्न करते हैं और यहाँ तक ​​कि जहाज़ों से टकराने के कारण  कभी-कभी उनकी मृत्यु भी हो जाती है।

इकोलोकेशन (Echolocation):

  • इकोलोकेशन, ध्वनि तरंगों एवं गूँज का उपयोग यह निर्धारित करने के लिये किया जाता है कि आसपास के क्षेत्र में वस्तुएँ कहाँ अवस्थित हैं।
  • चमगादड़ नेवीगेशन एवं अंधेरे में भोजन खोजने के लिये इकोलोकेशन का उपयोग करते हैं।
  • हालाँकि हाॅन्गकाॅन्ग और मकाओ के बीच जल में डॉल्फिन की संख्या में वर्ष 2020 में एक बदलाव देखा गया है क्योंकि COVID-19 महामारी के मद्देनज़र तटीय घाटों को बंद कर दिया गया था जिससे जलीय यातायात में भी कमी आई थी।
  • वैज्ञानिकों के अनुसार, PRE के जल में पिंक डॉल्फिन की संख्या में लगभग एक-तिहाई वृद्धि हुई है।

इंडो-पैसिफिक हम्पबैक डॉल्फिन (Indo-Pacific Humpback Dolphins):

Dolphin

  • वैज्ञानिक नाम: सौसा चिनेंसिस (Sousa Chinensis)
  • पर्यावास क्षेत्र (Habitat Region): 

    • यह मध्य चीन के दक्षिण-पश्चिम से पूरे दक्षिण-पूर्वी एशिया तक और मध्य चीन के पश्चिम से बंगाल की खाड़ी तक के आसपास के ज्वारनदमुख में उच्चतम घनत्व में पाई जाती है।  
    • विभिन्न क्षेत्रों में इसका वितरण खंडित है अर्थात् ये डॉल्फिन समुद्र तट से संबंधित विस्तृत जल क्षेत्रों से स्पष्ट रूप से अनुपस्थित हैं। 
      • डॉल्फिन के इस विखंडित वितरण के बारे स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह  प्राकृतिक है या मानव गतिविधियों के कारण है।
  • वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड फॉर नेचर (WWF) का कहना है कि PRE में इन डॉल्फिनों की संख्या लगभग 2500 है किंतु युवा डॉल्फिनों की गिरती संख्या भविष्य में इनकी संख्या को कम कर सकती है।
    • इनकी संख्या में पिछले 15 वर्षों में 70-80% की गिरावट देखी गई है।
  • खतरा: इन डॉल्फिनों को निम्नलिखित घटकों से खतरा है:  
    • कृषि, औद्योगिक एवं शहरी प्रदूषण से।
    • अत्यधिक मत्स्यन से।
    • हवाई अड्डों के विस्तार एवं आवासीय/कार्यालय विकास के लिये पुल-निर्माण और भूमि निर्माण सहित समुद्री तटीय निर्माण के कारण।
    • तेज़ फेरी सेवा के संचालन के साथ-साथ अन्य जलीय परिवहन से। 
  • प्रभाव: उपर्युक्त खतरों से डॉल्फिनों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है: 
    • डॉल्फिनों के उपयुक्त निवास स्थान को नुकसान।
    • अवरोध एवं पोत हमलों से डॉल्फिन की मृत्यु। 
    • डॉल्फिनों के स्वास्थ्य पर रासायनिक एवं ध्वनि प्रदूषण का नकारात्मक प्रभाव। 
  • संरक्षण:
    • IUCN की रेड लिस्ट में ‘इंडो-पैसिफिक हम्पबैक डॉल्फिन’ को संवेदनशील (Vulnerable) श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


पारिस्थितिक गरीबी की अवधारणा

प्रिलिम्स के लिये:

पारिस्थितिक गरीबी की अवधारणा, गरीबी उन्मूलन के लिये अंतर्राष्ट्रीय दिवस

मेन्स के लिये:

पारिस्थितिक गरीबी की अवधारणा

चर्चा में क्यों?

17 अक्तूबर, 2020 को 'गरीबी उन्मूलन के लिये अंतर्राष्ट्रीय दिवस' की 27वीं वर्षगाँठ मनाई गई। 

प्रमुख बिंदु:

  • संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के माध्यम से वर्ष 1992 में इसकी शुरुआत की गई थी।
  • वर्ष 2020 में इस दिवस का विषय था- "सभी के लिये सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय प्राप्ति को एक साथ कार्य मिलकर कार्य करना।"

गरीबी की वर्तमान स्थिति:

  • विगत 25 वर्षों में विश्व में पहली बार COVID-19 महामारी के कारण गरीबी में वृद्धि दर्ज की गई है।
  • गरीबी में होने वाली वृद्धि ने देशों को वर्तमान ‘आय आधारित गरीबी मापन’ की पद्धति के स्थान पर अन्य प्रणाली को अपनाने पर विचार करने को मजबूर किया है।
  • COVID-19 महामारी के कारण दुनिया में 115 मिलियन से अधिक लोग 'गरीब की श्रेणी' में शामिल हो गए हैं तथा इनका प्रसार सार्वभौमिक है। अर्थात् इसमें विकसित-विकासशील, नगरीय-ग्रामीण, यूरोप-एशिया सभी क्षेत्रों के लोग शामिल हैं।
  • विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2019 में प्रत्येक 10 लोगों में से एक ‘अत्यधिक गरीब’  (Extreme poor) श्रेणी में शामिल था।
    • विश्व वैंक के अनुसार, 1.90 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन से कम आय स्तर को 'अत्यधिक गरीबी रेखा' के रूप में जाना जाता था।

पारिस्थितिकीय गरीबी (Ecological Poverty):

  • 'पारिस्थितिक अवनयन' (Ecological Degradation) के कारण लोगों का आय स्तर भी प्रभावित होता है। इस प्रकार 'पारिस्थितिक अवनयन' जनित 'आय गरीबी' (Income Poverty) को ‘पारिस्थितिक गरीबी’ कहा जाता है।
  • विभिन्न अनुमानों के अनुसार, विश्व स्तर पर संपत्ति में 'प्राकृतिक पूंजी' (Natural Capital) का 9 प्रतिशत योगदान है, लेकिन कम आय वाले देशों में यह 47 प्रतिशत है। यह विकासशील और गरीब देशों में प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों की निर्भरता को दर्शाता है। इस प्रकार 'पारिस्थितिक अवनयन' से कम आय वाले देशों में गरीबी का स्तर सर्वाधिक बढ़ता है। 
  • 'खाद्य और कृषि संगठन' (FAO) के अनुसार, एक अरब से अधिक लोग वनों पर आश्रित हैं और उनमें से अधिकांश गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं।
  • भारत में 'वन क्षेत्र' और 'गरीबी क्षेत्र' के मैप में समानता देखने को मिलती है। भारत में सबसे अधिक गरीबी छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे सर्वाधिक वनाच्छादित क्षेत्रों में देखने को मिलती है।
  • विश्व बैंक की 'गरीबी और साझा समृद्धि'  रिपोर्ट 2018 के अनुसार, गरीबी में कमी की दर धीमी हो गई है। रिपोर्ट के अनुसार, विगत दो दशकों में दुनिया में गरीबों के वितरण में नाटकीय बदलाव आया है। यह परिवर्तन, आर्थिक भलाई (Economic Well-being) के लिये पारिस्थितिकी के महत्त्व को उजागर करता है।
    • वर्ष 1990 में वैश्विक गरीबों के आधे से अधिक पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र से थे। दुनिया के 27 सबसे गरीब देशों में से 26 उप-सहारा अफ्रीका क्षेत्र से थे। वर्ष 2002 में दुनिया के गरीबों का सिर्फ एक-चौथाई इस क्षेत्र से था लेकिन वर्ष 2015 तक 50 प्रतिशत से अधिक गरीब इस क्षेत्र से थे।

गरीबी का बदलता परिदृश्य: 

  • वर्तमान गरीबी के वितरण को देखकर दो मुख्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
    • प्रथम, अधिकांश गरीब जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है।
    • दूसरा, इन क्षेत्रों की पारिस्थितिकी का बहुत अधिक अवनयन हो चुका है।
  • इन क्षेत्रों में अधिकांश गरीब जनसंख्या अपनी आजीविका के लिये भूमि, जंगल और पशुधन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। उनकी संपूर्ण अर्थव्यवस्था (Economy) पारिस्थितिकी (Ecology) पर आधारित होती है। इस प्रकार इन क्षेत्रों में पारिस्थितिकी में ह्रास, गरीबी का कारण बनता है।

पारिस्थितिकी और अधिकारिता का मुद्दा:

  • प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर जनसंख्या के संबंध में एक असहज प्रश्न यह है कि वे कौन-से कारण हैं जिनके कारण प्रकृति पर निर्भर लोग गरीब बने रहते हैं?
  • 'जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति प्लेटफॉर्म' (IPBES) की 'वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट' के अनुसार, प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होने वाली सेवाओं में वृद्धि हुई है, जबकि विनियमन और रखरखाव सेवाओं के प्रावधान में गिरावट आई है।
  • वर्तमान प्रकृति संरक्षण के प्रयास  निरंतरता यथा- 'आइची जैव विविधता लक्ष्य', ‘सतत् विकास लक्ष्य’- 2030 आदि पर्यावरण अवनयन को रोकने के लिये अपर्याप्त हैं।
  • 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम' (UNEP) के एक अध्ययन के अनुसार, विश्व स्तर पर उत्पादित पूंजी में प्रति हेड दोगुनी और मानव पूंजी में प्रति हेड लगभग 13% की वृद्धि हुई है, लेकिन प्रति हेड प्राकृतिक पूंजी स्टॉक के मूल्य में लगभग 40% की गिरावट आई है (अवधि वर्ष 1992-2014)।
    • अर्थात् जो लोग पर्यावरण पर निर्भर हैं, उनकी संपत्ति में गिरावट देखी गई है, जिससे गरीबी को बढ़ावा मिलता है।

आगे की राह:

  • गरीबी उन्मूलन सहित समग्र विश्व के विकास के लिये पारिस्थितिकी का महत्त्व इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 169 सतत् विकास लक्ष्यों में से 86 प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरणीय क्षति को कम करने या प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिक सेवाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर ज़ोर देने के लिये लक्षित हैं।
  • सभी रूपों में 'गरीबी उन्मूलन' के लक्ष्य को 10 वर्षों अर्थात वर्ष  2030 तक प्राप्त करना है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही 'सामाजिक और पर्यावरणीय' न्याय को हमारी गरीबी उन्मूलन योजनाओं के प्रमुख हिस्से के रूप में अपनाना चाहिये।
  • हमें गरीबी के पारिस्थितिक आयाम पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रकृति पर निर्भर लोगों के लिये प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच और अधिकारिता उपायों को गरीबी उन्मूलन रणनीतियों के केंद्र में रखना चाहिये।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारत में लिंगानुपात में सुधार की आवश्यकता

प्रिलिम्स के लिये:

भारत में लिंगानुपात, कुल प्रजनन दर, प्रतिस्थापन TFR

मेन्स के लिये:

भारत में लिंगानुपात

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व अध्यक्ष सी. रंगराजन ने युवा लोगों तक प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा के साथ-साथ ‘लैंगिक समता मानदंडों’ की तत्काल पहुँच की आवश्यकता पर बल दिया है।

प्रमुख बिंदु:

  • पिछले कुछ समय से भारत में प्रजनन क्षमता घट रही है। 'सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम' (SRS) सांख्यिकीय रिपोर्ट में वर्ष 2018 में  'कुल प्रजनन दर' (Total Fertility Rate- TFR) 2.2 रहने का अनुमान लगाया गया था।
    • SRS देश का सबसे बड़ा जनसांख्यिकीय नमूना सर्वेक्षण है। यह सर्वेक्षण रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय द्वारा किया गया है।

भारत में TFR:

  • देश में प्रजनन क्षमता में गिरावट जारी रहने की संभावना है और अनुमान है कि 2.1 का प्रतिस्थापन TFR को जल्द ही प्राप्त कर लिया जाएगा।
    • कुल प्रजनन दर (TFR), सरल शब्दों में कहा जाए तो एक महिला के उसके जीवन में जन्म लेने वाले या जन्म लेने की संभावना वाले कुल बच्चों की संख्या को संदर्भित करता है।
    • प्रति महिला लगभग 2.1 बच्चों के कुल प्रजनन दर (TFR) को ‘प्रतिस्थापन’ (Replacement) TFR कहा जाता है।

प्रतिस्थापन TFR का महत्त्व:

  • यदि प्रतिस्थापन दर पर TFR लंबे समय तक बनी रहती है, तो प्रत्येक पीढ़ी अपने आप को अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन के बिना अपने देश की जनसंख्या को संतुलित कर देगी।
  • बहुत से लोगों का मानना है कि एक बार प्रतिस्थापन दर पर TFR पहुँच जाने के बाद देश की जनसंख्या कुछ वर्षों में स्थिर हो जाएगी या कम होने लगेगी।

भारत में प्रतिस्थापन TFR के कारण:

  • इसका कारण 'पापुलेशन मोमेंटम इफेक्ट' (Population Momentum Effect) न होकर बड़ी जनसंख्या का 15-49 वर्ष के प्रजनन आयु समूह में प्रवेश करना है।
    • ‘पापुलेशन मोमेंटम इफेक्ट’ का तात्पर्य जन्म और मृत्यु दर में कमी अथवा वृद्धि द्वारा जनसंख्या वृद्धि की प्राकृतिक दर का प्रभावित होना है।
  • उदाहरण के लिये केरल राज्य ने प्रतिस्थापन TFR का स्तर वर्ष 1990 के आसपास प्राप्त कर लिया था, लेकिन इसकी वार्षिक जनसंख्या वृद्धि दर वर्ष 2018 में लगभग 30 साल बाद भी 0.7% थी।

चुनौतियाँ:

प्रतिगामी मानसिकता: 

  • केरल और छत्तीसगढ़ के अलावा संभवतः सभी राज्यों में बेटियों की तुलना में बेटे को प्राथमिकता दी जाती है। यह लोगों के प्रतिगामी मानसिकता को दर्शाता है। उदाहणतः लोग लड़कियों को दहेज से जोड़ते हैं।

प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग: 

  • अल्ट्रासाउंड जैसी सस्ती तकनीक का उपयोग लिंग चयन में करना।

कानून के कार्यान्वयन में विफलता: 

  • 'गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान-तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम’ (Pre-Conception and Pre-natal Diagnostic Techniques- PCPNDT), 1994 लिंग चयन को नियंत्रित करने में विफल रहा है।

निरक्षरता: 

  • 15-49 वर्ष की प्रजनन आयु समूह की साक्षर महिलाओं की तुलना में निरक्षर महिलाओं की प्रजनन दर अधिक होती है।

लैंगिक सुधार के लिये सुझाव:

  • महिला शिक्षा और आर्थिक समृद्धि बढ़ाने की आवश्यकता है क्योंकि आर्थिक स्थिति में बदलाव से लिंगानुपात सुधारने में मदद मिलेगी।
  • युवा लोगों तक सरकारी लैंगिक सुधार कार्यक्रमों की पहुँच से जनसंख्या वृद्धि को कम करने तथा  जन्म के समय लिंग-अनुपात सुधारने में मदद मिलेगी।
  • महिलाओं और बच्चों के प्रति संवेदनशीलता पर रोलआउट अभियान, महिला सुरक्षा सेल बनाना, सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना, साइबर-क्राइम सेल बनाना आदि पहलों को व्यापक स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:

  • अनेक नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करने के बावजूद भारत में महिलाओं और बालिकाओं का स्वास्थ्य लगातार निम्न स्तर का बना हुआ है। अत: महिलाओं और बच्चों से संबंधित नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन तथा स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच से लैंगिक अंतर को कम करने की आवश्यकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


इज़राइल-बहरीन शांति समझौता

प्रिलिम्स के लिये

द अब्राहम एकॉर्ड, तीन नकारात्मक सिद्धांत, सिक्स डे वॉर

मेन्स के लिये

इज़राइल-बहरीन शांति समझौता और इसके निहितार्थ, अरब-इज़राइल संबंध

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इज़राइल और बहरीन ने औपचारिक रूप से राजनयिक संबंध स्थापित कर लिये हैं। ध्यातव्य है कि बहरीन ने सितंबर माह में इज़राइल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने की घोषणा की थी।

प्रमुख बिंदु

  • उल्लेखनीय है कि बहरीन, इज़राइल के साथ संबंध स्थापित करने वाला अरब जगत का चौथा देश बन गया है। इससे पूर्व अगस्त माह में इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात ने ऐतिहासिक 'द अब्राहम एकॉर्ड (The Abraham Accord) के तहत पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की थी। 
  • वहीं इससे पूर्व मिस्र ने वर्ष 1979 में तथा जॉर्डन ने वर्ष 1994 में इज़राइल के साथ शांतिपूर्ण संबंध स्थापित किये थे।

इज़राइल-बहरीन शांति समझौता

  • इस समझौते के अनुसार, बहरीन और इज़राइल एक-दूसरे के देश में अपने दूतावास स्थापित करने के साथ-साथ पर्यटन, व्यापार, स्वास्थ्य और सुरक्षा समेत कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में आपसी सहयोग को बढ़ावा देंगे।
  • इस दौरान इज़राइली पक्ष ने कहा कि इज़राइल, बहरीन के विदेश मंत्रालय के साथ सहयोग करेगा और दोनों देशों के राजनयिकों को वीज़ा संबंधी आवश्यकताओं में छूट प्रदान की जाएगी। 

कारण

  • यद्यपि सऊदी अरब, जो कि अरब जगत का एक महत्त्वपूर्ण देश है, ने स्पष्ट कहा है कि वह इज़राइल के साथ संबंध स्थापित करने के पक्ष में नहीं है, किंतु अधिकांश विश्लेषक मानते हैं कि सऊदी अरब के बिना बहरीन और इज़राइल के बीच किसी भी प्रकार का कोई भी समझौता पूरा नहीं हो सकता है। 
  • इस तरह ईरान और सऊदी अरब के बीच बढ़ती क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता को इस राजनयिक घटनाक्रम का एक प्रमुख कारण माना जा सकता है।
    • ईरान-सऊदी अरब विवाद: धार्मिक मतभेद के कारण अस्तित्व में आए एक दशक पूर्व विवाद, जिसमें ईरान स्वयं को शिया मुस्लिम शक्ति और सऊदी अरब स्वयं को सुन्नी मुस्लिम शक्ति के रूप में देखता है।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2011 में अरब स्प्रिंग की शुरुआत के दौरान सऊदी अरब ने सरकार विरोधी प्रदर्शनों को दबाने के लिये बहरीन में अपने सैनिक भेजे थे। जानकार मानते हैं कि इस समझौते से बहरीन को अपनी राजशाही सत्ता बनाए रखने में काफी मदद मिलेगी।

समझौते के निहितार्थ 

  • यद्यपि विशेषज्ञ मानते हैं कि अरब जगत के देशों के साथ इज़राइल के संबंध इस क्षेत्र में शांति स्थापित नहीं कर सकते हैं, किंतु यह समझौता इज़राइल और अरब जगत के संबंधों को एक नया रूप देने की दिशा में काफी महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
  • इज़राइल और बहरीन के बीच हुए समझौते को ‘स्थायी सुरक्षा तथा समृद्धि की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम बताया जा रहा है।

अरब जगत और इज़राइल के संबंध 

  • वर्ष 1948 में यहूदियों ने स्वतंत्र इज़राइल की घोषणा कर दी और इज़राइल एक देश बन गया, इसके परिणामस्वरूप आस-पास के अरब राज्यों (इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया) ने इज़राइल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के अंत में इज़राइल ने संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना के आदेशानुसार प्राप्त भूमि से भी अधिक भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
  • इसके पश्चात् दोनों देशों के मध्य संघर्ष तेज़ होने लगा और वर्ष 1967 में प्रसिद्ध ‘सिक्स डे वॉर’ (Six-Day War) हुआ, जिसमें इज़राइली सेना ने गोलन हाइट्स, सिनाई प्रायद्वीप, वेस्ट बैंक तथा पूर्वी येरुशलम को भी अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया।
  • इसके बाद अरब देशों ने खार्तूम में आयोजित बैठक में ‘तीन नकारात्मक सिद्धांत’ (Three Nos)’ का प्रस्ताव पेश किया जिसके अंतर्गत ‘इज़राइल के साथ कोई शांति नहीं, इज़राइल के साथ कोई वार्ता नहीं और इज़राइल को किसी प्रकार की मान्यता नहीं’ का प्रावधान था।
    • हालाँकि इस सिद्धांत को दरकिनार करते हुए मिस्र तथा जॉर्डन ने इज़राइल के साथ संबंध स्थापित कर लिये।
  • वर्ष 2000 में दूसरा इंतिफादा (Intifida) अर्थात सैन्य संघर्ष हुआ, इसमें इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच हिंसा शुरू हो गई, जिसके बाद अरब जगत और इज़राइल के बीच संबंध और भी खराब हो गए।
  • हालाँकि बीते कुछ वर्षों में अरब जगत और इज़राइल के संबंधों में काफी हद तक सुधार दिखाई दे रहा है। इज़राइल के साथ संबंध स्थापित करने में मुख्यतः वे देश शामिल हैं, जो ईरान को एक बड़े खतरे के रूप में देखते हैं।
    • वर्ष 2015 में संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने अबू धाबी अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी (International Renewable Energy Agency) में इज़राइल को शामिल होने की अनुमति दी थी।
    • गाज़ा में हमास (Hamas) के प्रभुत्त्व वाले क्षेत्र में संघर्ष विराम के लिये कतर ने इज़राइल के साथ मिलकर कार्य किया है।
    • वर्ष 2018 में इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने ओमान की यात्रा की थी।

अरब जगत और इज़राइल के संबंधों का महत्त्व

  • अरब जगत के लिये
    • इज़राइल के साथ संबंध स्थापित करने वाले खाड़ी देशों के लिये इज़राइल इस क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका की घटती भूमिका के विरुद्ध एक बचाव की तरह है।
    • साथ ही अरब जगत के देशों के लिये इज़राइल, आधुनिक तकनीक के साथ आर्थिक तौर पर समृद्ध एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक भागीदार हो सकता है।
  • इज़राइल के लिये
    • इज़राइल के लिये खाड़ी देशों के साथ संबंध स्थापित करना, इस क्षेत्र में अपने अलगाव को कम करने का एक प्रयास है। इसके अलावा इज़राइल अरब देशों के साथ संबंध स्थापित कर ‘अरब बनाम इज़राइल’ के युद्ध को ‘अरब बनाम ईरान’ युद्ध के रूप में परिवर्तित करना चाहता है।

भारत की भूमिका

  • हाल के वर्षों में भारत और खाड़ी देशों के संबंधों में बहुत सुधार देखने को मिला है, साथ ही इज़राइल के साथ भी रक्षा सहित कई अन्य क्षेत्रों में भारत ने बड़ी साझेदारी की है।  
  • खाड़ी क्षेत्र के देश, ऊर्जा (खनिज तेल) और प्रवासी कामगारों हेतु रोज़गार की दृष्टि से भारत के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इस समझौते से क्षेत्र में स्थिरता के प्रयासों को बल मिलेगा जो भारत के लिये एक सकारात्मक संकेत है।   
  •  इस समझौते से खाड़ी क्षेत्र के देशों में भारत की राजनीतिक पकड़ और अधिक मज़बूत होगी।   

आगे की राह

  • माना जा रहा है कि इस समझौते के कारण खाड़ी क्षेत्र के अन्य देश भी संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन का अनुसरण कर इज़राइल के साथ संबंध स्थापित करने पर विचार कर सकते हैं। 
  • इस क्षेत्र में स्थायी शांति के लिये शिया और सुन्नी तथा फारसियों (Persian) एवं अरब के बीच संतुलन को बनाए रखना बहुत ही आवश्यक होगा।
  • भारत को इस क्षेत्र के उभरते बाज़ार में अपने हस्तक्षेप को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


खाद्य उपभोग पर रिपोर्ट: डब्ल्यूडब्ल्यूएफ

प्रिलिम्स के लिये:

वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड, बेंडिंग कर्व: द रिस्टोरेटिव पावर ऑफ प्लेनेट-बेस्ड डाइट्स रिपोर्ट

मेन्स के लिये: 

खाद्य उपभोग पैटर्न और पर्यावरणीय क्षति 

चर्चा में क्यों? 

9 अक्तूबर, 2020 को वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (World Wildlife Fund) द्वारा ‘बेंडिंग कर्व: द रिस्टोरेटिव पावर ऑफ प्लेनेट-बेस्ड डाइट्स’ (Bending the Curve: The Restorative Power of Planet-Based Diets) नामक रिपोर्ट प्रकाशित की गई। 

रिपोर्ट सर्वेक्षण: 

  • इस रिपोर्ट में 147 देशों और 6 क्षेत्रों में खाद्य उपभोग के पैटर्न और 75 देशों के राष्ट्रीय दैनिक आहार दिशा-निर्देश (National Dietary Guidelines- NDGs) का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रत्येक देश और क्षेत्र के लिये विभिन्न पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संकेतकों पर आहार के प्रभावों का मूल्यांकन किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • विश्व में खाद्य उपभोग के पैटर्न व्यापक रूप से भिन्न होते हैं और इनमें बड़े पैमाने पर असमानता पाई जाती है। 
    • सबसे अमीर एवं सबसे गरीब देशों में विभिन्न खाद्य उपभोग पैटर्न देखे जाते हैं। जैसे- यूरोपीय देशों (1,800 ग्राम/दिन) में अफ्रीकी देशों (1,200 ग्राम/दिन) की तुलना में प्रतिदिन लगभग 600 ग्राम अधिक भोजन ग्रहण किया जाता है। 
    • हालाँकि अल्पपोषण और मोटापा लगभग सभी देशों को प्रभावित करता है। अन्य देशों की तुलना में सबसे गरीब देशों में कम वजन वाले लोगों की दर 10 गुना अधिक है। 
    • जबकि सबसे अमीर देशों में अधिक वजन/मोटापे से ग्रस्त लोगों की दर 5 गुना तक अधिक है।

प्रमुख चिंताएँ:

  • कम एवं मध्यम आय वाले देशों में समय से पहले मृत्यु (Premature Deaths) का कारण अस्वास्थ्यकर आहार, न्यूनतम उपभोग के साथ-साथ अधिकतम उपभोग है।
  • भारत को खाद्य में होने वाले परिवर्तनों का पता लगाने में अतिरिक्त सावधानी बरतने की आवश्यकता है क्योंकि ‘हेल्थियर एंड प्लैनेट-फ्रेंडली डाईट’ (Healthier and Planet-Friendly Diet)  में बदलाव और बड़े पैमाने पर उपभोग में हुई वृद्धि के कारण जैव विविधता में कमी देखी जा रही है।
    • देश को अपनी पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये फलों, सब्जियों और डेयरी उत्पादों की खपत बढ़ानी होगी।

सुझाव:  

  • इस क्षेत्र में संतुलन बनाने की आवश्यकता है कि देश अपने भोजन के साथ-साथ प्लांट -बेस्ड डाईट (Plant-based Diet) की ओर शिफ्ट हो जाएँ, जो समय की आवश्यकता है।
    • हालाँकि आहार में यह परिवर्तन विभिन्न देशों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करेगा। 
      • कुछ देशों को पशु-स्रोत खाद्य पदार्थों (Animal-source Foods) की अपनी खपत को कम करने की आवश्यकता होगी, तो दूसरी ओर कुछ देशों को उन्हें बढ़ाने की आवश्यकता हो सकती है।
  • आहार को लेकर यह स्थानान्तरण न केवल किसी भी भोजन के अधिक उपभोग को रोककर मानव स्वास्थ्य में सुधार करेगा बल्कि अब तक हुई जैविक क्षति को भी सकारात्मक रूप से परिवर्तित कर देगा और पर्यावरणीय स्वास्थ्य में सुधार करेगा।
    • अधिक प्लांट-बेस्ड आहारों में बदलाव से कार्बन उत्सर्जन में 30%, वन्यजीवों की हानि में 46%, कृषि भूमि के उपयोग में 41% और अकाल मृत्यु में 20% की कमी आएगी।
  • एक संधारणीय पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य जीवन शैली में बदलाव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है जिसमें निम्नलिखित खाद्य पदार्थ शामिल हैं:
    • अधिक धारणीय आहार 
    • अधिक प्लांट-बेस्ड फूड और कम एनिमल-बेस्ड फूड 
    • स्वस्थ एवं स्थानीय रूप से विकसित और न्यूनतम संसाधित आहार
    • आहार में एकात्मकता के बजाय अधिक विविधता
  • भारत सहित विश्व के अनेक देशों को केवल घरेलू उत्पादन पर निर्भर नहीं होना चाहिये। 
  • जैव विविधता संपन्न देशों को अधिक उपज एवं कम जैव विविधता वाले राष्ट्रों से भोजन आयात करना चाहिये।

प्लैनेट-बेस्ड डाईट्स इम्पैक्ट एंड एक्शन कैलकुलेटर

(Planet-Based Diets Impact and Action Calculator):

  • WWF ने एक नया प्लेटफॉर्म लॉन्च किया है जिसे ‘प्लैनेट-बेस्ड डाइट्स इम्पैक्ट एंड एक्शन कैलकुलेटर’ (Planet-Based Diets Impact and Action Calculator) के नाम से जाना जाता है।
    • इससे कोई भी अपने उपभोग की गणना कर सकता है और पर्यावरण पर उनके आहार से होने वाले प्रभाव का पता लगा सकता है।
  • यह प्लेटफॉर्म राष्ट्रीय स्तर के प्रभावों को भी दर्शाता है। 
  • यह दुनिया में कहीं भी रहने वाले लोगों को यह पता लगाने में मदद करेगा कि क्या उनका आहार उनके साथ-साथ उनके पर्यावरण के लिये भी अच्छा है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


आधुनिक दासता पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

आधुनिक दासता,  देवदासी प्रथा

मेन्स के लिये:  

महिला सशक्तीकरण से संबंधित मुद्दे और सरकार के प्रयास 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में विश्व में लगभग 29 मिलियन महिलाएँ आधुनिक दासता (Modern Slavery) की शिकार हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • ‘स्टैक्ड ऑड्स’ (Stacked Odds) शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर 130 में 1 महिला आधुनिक दासता की शिकार है। 
  • मानव इतिहास में किसी अन्य समय की तुलना में वर्तमान में सबसे अधिक लोग किसी-न-किसी प्रकार की दासता के शिकार हैं।
  • रिपोर्ट के अनुसार, यौन शोषण के सभी पीड़ितों में से 99% महिलाएँ हैं, इसी प्रकार ज़बरन विवाह और बंधुआ मज़दूरी के पीड़ितों में क्रमशः 84% व 58% महिलाएँ ही हैं ।

आधुनिक दासता (Modern Slavery): 

  • आधुनिक दासता का आशय किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यवस्थित रूप से हटाने की उस प्रक्रिया से है, जहाँ एक व्यक्ति द्वारा अपने व्यक्तिगत या वित्तीय लाभ के लिये किसी दूसरे व्यक्ति का शोषण किया जाता है।

COVID-19 और आधुनिक दासता:

  • COVID-19 महामारी ने विश्व भर में सबसे कमज़ोर वर्ग के लोगों को आधुनिक दासता की प्रथा की तरफ और अधिक धकेल दिया है। 
  • COVID-19 महामारी के दौरान विश्व भर में ज़बरन और बाल विवाह के मामलों के साथ श्रमिकों के शोषण के मामलों में भारी वृद्धि देखने को मिली है।

भारत की स्थिति:  

  • इस रिपोर्ट में भारत में आधुनिक दासता के मामलों में वृद्धि के लिये  जातिगत भेदभाव को एक प्रमुख कारण बताया गया है।
  • इसके साथ ही रिपोर्ट में भारत को वर्ष 2019 में लड़कों के जन्म के प्रति सबसे अधिक पूर्वाग्रह वाले विश्व के शीर्ष 10 देशों में 5वें स्थान पर रखा गया था।
  • रिपोर्ट के अनुसार, लिंगानुपात में अप्राकृतिक विकृति के कारण भारत और चीन में विवाह के लिये लड़कियों की तस्करी के मामले देखने को मिले हैं।
  • इस रिपोर्ट में भारत के कुछ हिस्सों में प्रचलित देवदासी प्रथा पर चिंता व्यक्त की गई है, रिपोर्ट के अनुसार, इस प्रथा में शामिल 98% लड़कियाँ घरेलू हिंसा और लगभग 92% लड़कियाँ बाल मज़दूरी  की शिकार रही हैं।
  • रिपोर्ट के अनुसार, असम के चाय बागानों और दक्षिण भारत के कताई कारखानों में लड़कियों के बंधुआ मज़दूर के रूप में कार्य करने के मामले सामने आए हैं।

समाधान :   

  •  रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं और लड़कियों के बीच आधुनिक दासता के खतरों को कम करने के लिये मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
    1. महिलाओं की शिक्षा तक पहुँच में सुधार।
    2. लड़कियों को आर्थिक और व्यावसायिक अवसर प्रदान करना।
    3. लिंग-पक्षपात से जुड़े नज़रिये को बदलने के लिये समुदाय के साथ कार्य करना।

भारत सरकार के प्रयास: 

  • केंद्र सरकार द्वारा देश में कन्या भ्रूण हत्या के मामलों को रोकने, लड़कियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम की शुरुआत की गई है।
  • इसके साथ ही महिलाओं को प्रत्यक्ष बैंकिंग प्रणाली से जोड़ने में ‘प्रधानमंत्री जन धन योजना’ की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण रही है।
  • कार्यस्थलों पर महिलाओं के शोषण को रोकने के लिये विशाखा दिशा-निर्देशों (Vishaka Guidelines) के साथ ही कई अन्य महत्वपूर्ण प्रयास किये गए हैं।
  • बच्‍चों को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने के लिये वर्ष 2019 में केंद्र सरकार द्वारा 'बाल यौन अपराध संरक्षण कानून 2012' (पोक्‍सो) में आवश्यक संशोधन को मंज़ूरी दी गई है।
  • COVID महामारी के दौरान महिलाओं की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिये चिकित्सा, मनोवैज्ञानिक, कानूनी, पुलिस और आश्रय सुविधाएँ प्रदान करने वाले वन स्टॉप सेंटर जैसे कई उपाय किये गए।

अन्य वैश्विक प्रयास:

  • ‘वाॅक फ्री’ और संयुक्त राष्ट्र के ‘एवरी वुमन एवरी चाइल्ड’ द्वारा आधुनिक दासता को समाप्त करने के लिये एक वैश्विक कार्यक्रम की शुरुआत की जा रही है।
    • यह अभियान बाल विवाह और ज़बरन विवाह की प्रथा को समाप्त करने की मांग करता है, गौरतलब है कि वर्तमान में विश्व के 136 देशों में इस प्रथा को गैर-कानूनी घोषित नहीं किया गया है।
    • साथ ही यह शोषण की ‘कफाला’ जैसी कानूनी प्रणालियों के उन्मूलन की मांग करता है।  

स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया


भारत में स्किंक की प्रजातियाँ

प्रिलिम्स के लिये:

स्किंक की प्रजातियाँ,  भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण, जैव-भौगोलिक क्षेत्र

मेन्स के लिये:

जैव-भौगोलिक क्षेत्र

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'भारतीय प्राणी विज्ञान सर्वेक्षण' (Zoological Survey of India-ZSI) द्वारा भारत में स्किंक की प्रजातियों के वितरण पर ‘स्किंक इन इंडिया’ नामक पुस्तक जारी की गई।

प्रमुख बिंदु:

  • यह पुस्तक भारत के सभी 11 ‘जैव-भौगोलिक क्षेत्रों’ (Bio-geographic Zone) में क्लिंक्स की प्रजातियों के वितरण का एक जातिवृत्तीय (Phylogenetic) और जैव-भौगोलिक विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
  • पुस्तक में क्लिंक्स की प्रजातियों पर ब्रिटिश युग से लेकर वर्तमान तक के ऐतिहासिक अध्ययनों पर विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।

स्किंक (Skinks) प्रजातियाँ:

Skinks

  • परिवार: स्किनकेड, फाइलम: कॉर्डेटा, क्रम: स्क्वामाटा, वर्ग:  रेप्टिलिया।
  • यह छोटे या अनुपस्थित अंगों के साथ चिकना शरीर वाली छिपकली है।
  • इसकी प्रजातियाँ आमतौर पर रेतीले मैदानों, उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
  • स्किंक अत्यधिक सतर्क, फुर्तीली प्रजाति है जो विभिन्न प्रकार के कीड़ों और छोटे अकशेरुकी जीवों को भोजन के रूप में प्राप्त करने के लिये तेज़ी से आगे हैं।

सर्पों से भिन्नता :

  • स्किंक प्रजातियों में कम अंग या पूरी तरह से अंगों का अभाव पाया जाता है, अत: ये सर्पों के समान रेंगकर चलती हैं।
  • सर्पों से मिलती-जुलती चाल के कारण लोगों की इसके प्रति गलत धारणा है कि ये विषैले होते हैं। इसी कारण इन प्राणियों में से कई को लोगों द्वारा मार दिया जाता है।

भारत में स्किंक्स प्रजातियाँ:

skink-species-distribution

  • विश्व भर में स्किंक्स की 1,602 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें से 4% से भी कम प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं।
  • भारत में स्किंक्स की 62 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें से 57% (33 प्रजातियाँ) स्थानिक हैं।
  • पश्चिमी घाट में स्किंक्स की कुल 24 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 18 प्रजातियाँ स्थानिक हैं।
  • दक्कन प्रायद्वीपीय क्षेत्र में कुल 19 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 13 स्थानिक हैं।
  • उत्तर-पूर्व में स्किंक की कुल 14 कंकाल प्रजातियों को रिकॉर्ड किया गया हैं जिनमें से दो प्रजातियाँ स्थानिक हैं।

स्किंक्स के जेनेरा:

  • भारत में पाए जाने वाले स्किंक्स के 16 जेनेरा में से चार जेनेरा स्थानिक हैं। 
    • जेनेरा, समान लक्षणों वाले पशुओं, पौधों आदि का वर्ग होता है, जो  परिवार (Family) से छोटा और प्रजाति (Species) से बड़ा होता है। 
  • सित्सोफिस (एक प्रजाति के साथ) और बरकुड़िया (दो प्रजातियों के साथ) पूर्वी तट की पहाड़ियों और तटीय मैदानों में पाए जाने वाले जेनेरा हैं।
  • ओडिशा के चिल्का झील में बरकुड द्वीप (Barkud Island) में बरकूडिया इंसुलिरिस जेनेरा पाया जाता है।
  • कैस्टलिया (Kaestlea) जेनेरा की पाँच प्रजातियाँ पश्चिमी घाट और रिस्टेला की चार प्रजातियाँ पश्चिमी घाट के दक्षिणी भाग में स्थानिक हैं।

महत्त्व:

  • स्किंक्स की प्रजातियों के वर्गीकरण के दृष्टिकोण से पुस्तक का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण है और    पुस्तक का प्रकाशन प्रकृति के प्रति उत्साही लोगों के बीच रुचि पैदा करेगी।
  • स्किंक्स की प्रजातियों के बारे में लोगों को सटीक जानकारी प्रदान करने से इन प्रजातियों के बारे में गलत धारणाओं को दूर करने में मदद मिलेगी।

स्रोत: द हिंदू


बोडोलैंड राज्य आंदोलन

प्रिलिम्स के लिये:

ऑल इंडिया बोडो पीपुल्स नेशनल लीग फॉर बोडोलैंड स्टेटहुड, बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल

मेन्स के लिये: 

बोडोलैंड राज्य आंदोलन की पृष्ठभूमि, कारण एवं इस समस्या के समाधान के लिये सरकार द्वारा किये गए प्रयास 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक नए संगठन ‘ऑल इंडिया बोडो पीपुल्स नेशनल लीग फॉर बोडोलैंड स्टेटहुड’(All India Bodo People’s National League for Bodoland Statehood) द्वारा ‘बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल’ (Bodoland Territorial Council-BTC) के चुनावों से पहले ‘बोडोलैंड राज्य आंदोलन’ (Bodoland Statehood Movement)  की शुरुआत/पुनरुद्धार( Revival ) करने की घोषणा की गई है।

Bodoland-Territorial-Region

प्रमुख बिंदु: 

  • बोडोज़ के बारे में:  यह असम में अधिसूचित अनुसूचित जनजातियों का सबसे बड़ा समुदाय है। बोडो-कचारी समूह (Larger Umbrella of Bodo-Kachari) के रूप में असम की कुल आबादी में बोडो समुदाय की लगभग 5-6% जनसंख्या निवास करती है।

बोडो राज्य आंदोलन के बारे में:

  • वर्ष 1967-68: बोडो राज्य के लिये सर्वप्रथम संगठित मांग असम के राजनीतिक दल ‘मैदानी आदिवासी परिषद’( Plains Tribals Council of Assam) द्वारा की गई।
  • वर्ष 1986: ‘सशस्त्र समूह बोडो सिक्योरिटी फोर्स’(The armed group Bodo Security Force) का उदय हुआ, जिसने बाद में स्वयं को ‘नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड’(National Democratic Front of Bodoland-NDFB) में तब्दील कर लिया। इस संगठन को हमलों, हत्याओं एवं लोगों से ज़बरन वसूली में शामिल माना जाता है। बाद में इस गुट का विभाजन हो गया।
  • वर्ष 1987: ‘ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन’ (All Bodo Students Union -ABSU) द्वारा बोडो राज्य की मांग फिर से उठाई गई।
    • असम आंदोलन (1979-85) जिसकी परिणति ‘असम समझौते के रूप में हुई, ने ‘असमिया लोगों’ (Assamese People) के लिये सुरक्षा एवं सुरक्षा उपायों की मांग को संबोधित किया तथा इसने बोडो समुदाय को उनकी पहचान की रक्षा के लिये एक आंदोलन शुरू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
  • 1990 का दशक: भारतीय सुरक्षा बलों (Indian security forces) द्वारा NDFB के विरुद्ध व्यापक स्तर पर अभियान चलाया गया, इसने बाद में भूटान की सीमा पर पलायन कर लिया।
    • 2000 के प्रारंभिक दशक में NDFB को भूटान में भारतीय सेना (Indian Army) और रॉयल भूटान सेना (Royal Bhutan Army) द्वारा चलाए गए कठोर आतंकवाद विरोधी अभियानों का सामना करना पड़ा।

सरकारी हस्तक्षेप:

  • वर्ष 1993 का बोडो समझौता/अकॉर्ड : वर्ष 1987 के  ABSU के नेतृत्व वाले आंदोलन का समापन वर्ष 1993 के बोडो समझौते द्वारा हुआ , जिसने ‘बोडोलैंड स्वायत्त परिषद’  (Bodoland Autonomous CounciI-BAC) का मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन ABSU द्वारा स्वयं को इस समझौते  से बाहर करते हुए फिर से एक अलग राज्य की मांग की गई।
  • वर्ष 2003 का बोडो समझौता/अकॉर्ड: 2003 में दूसरा बोडो समझौता चरमपंथी समूह ‘बोडो लिबरेशन टाइगर फोर्स’ (Bodo Liberation Tiger Force- BLTF) एवं केंद्र तथा  राज्य सरकार के मध्य संपन्न हुआ जिसे ‘बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल’ (Bodoland Territorial Council- BTC) द्वारा  लागू किया गया।
    • BTC संविधान की छठी अनुसूची के तहत एक स्वायत्त निकाय है।
    • BTC के  अंतर्गत आए क्षेत्र को ‘बोडो प्रादेशिक स्वायत्त ज़िला’ (Bodo Territorial Autonomous District- BTAD) कहा जाता है।
  • वर्ष 2020 का समझौता: केंद्र सरकार द्वारा  बोडो मुद्दे के ‘स्थायी’ समाधान के लिये  राज्य सरकार और विभिन्न बोडो समूहों सहित नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (NDFB) के चार गुटों के साथ एक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किये गए जिसके कुछ मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं:
    • यह समझौता ‘BTAD के क्षेत्र में परिवर्तन’ (Alteration of Area of BTAD) एवं ‘BTAD  के बाहर बोडो के लिये  प्रावधान’ (Provisions for Bodos Outside BTAD) प्रदान करता है।
    • BTAD का नाम बदलकर ‘बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन’ (Bodoland Territorial Region-BTR) कर दिया गया।
    • यह BTC के लिये अधिक विधायी, कार्यकारी, प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियों का प्रावधान करता है।
    • NDFB के आत्मसमर्पण कर चुके आतंकवादियों के पुनर्वास की व्यवस्था करना तथा क्षेत्र के विकास  के लिये 1500 करोड़ रुपए के एक विशेष विकास पैकेज का प्रावधान।

वर्तमान बोडोलैंड राज्य आंदोलन का  पुनरुद्धार:

  • नए संगठन के अनुसार, नया समझौता (2020) बोडो लोगों के साथ एक विश्वासघात है। यह समझौता वर्तमान में BTC के तहत निर्धारित क्षेत्र को कम करता है।
    • यह समझौता  50% से अधिक गैर-बोडो लोगों को  BTR गाँवों से बाहर करने का प्रावधान करता है एवं वर्ष 2003 के समझौते के बाद BTC मानचित्र से बाहर हुए  50% से अधिक बोडो गाँवों के लोगों को शामिल करता है।

आगे की राह:

  • इस समझौते में शामिल  हस्ताक्षरकर्त्ताओं  पर दबाव होगा कि वे समझौते के सफल कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये  कोई रास्ता निकालें जिसके लिये प्रासंगिक संगठनों के समर्थन की आवश्यकता होगी।
  • इसके अलावा गैर-बोडो समुदायों जैसे- कोच-राजबंगशियों, आदिवासियों तथा  धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यकों द्वारा नवीनतम समझौते के विरोध ने आशंकाओं को जन्म दिया है। अगर समय रहते उनकी शिकायतों का समाधान नहीं किया जाता है, तो असम में नृजातीय समूहों में विभेदीकरण की समस्या और गंभीर हो जाएगी। इस प्रकार इस  समझौते की सफलता  BTR में पावर-शेयरिंग व्यवस्था का कार्य करने वाले हितधारकों में  निहित होगी  जिन्हें ‘आधिपत्य पर विशेषाधिकार’ (Privileges Equity over Hegemony) प्राप्त है ।
  • असम के  बोडो हार्टलैंड (Bodo Heartland) क्षेत्र में शांति तब तक बनी रहेगी जब तक कि सभी साझा समावेशी शक्तियाँ एवं  शासन मॉडल, छठी अनुसूची के प्रावधानों के तहत विकसित नहीं हो जाते हैं।

स्रोत: द हिंदू


COVID-19 संक्रमण के चरम बिंदु की समाप्ति

प्रिलिम्स के लिये:

विभागीय समितियाँ

मेन्स के लिये:

विभिन्न संसदीय समितियाँ तथा उनकी आवश्यकता, COVID-19 संक्रमण तथा भारत

चर्चा में क्यों?

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की एक समिति द्वारा किये गए "COVID-19 इंडिया नेशनल सुपरमॉडल" (COVID-19 India National Supermodel) नामक अध्ययन के अनुसार, भारत में COVID-19 महामारी सितंबर माह में संक्रमण के चरम बिंदु को पार कर गई है और यदि वर्तमान रुझान जारी रहता है, तो फरवरी तक "न्यूनतम मामले" होंगे।

प्रमुख बिंदु:

  • COVID-19 महामारी के भविष्य को लेकर गठित सात सदस्यीय विशेषज्ञ समिति द्वारा किये गए अध्ययन के आधार पर कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत किये गए हैं।
  • "COVID-19 इंडिया नेशनल सुपरमॉडल" नामक मॉडलिंग अध्ययन, समिति द्वारा गणितज्ञों और महामारी विज्ञानियों के विश्लेषण के परिणाम के आधार पर किया गया है।
  • भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न समूहों द्वारा महामारी के कई गणितीय मॉडल-आधारित अनुमान लगाए गए हैं।

अध्ययन के निष्कर्ष:

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  • अध्ययन के अनुसार, भारत में अगले वर्ष की शुरुआत तक 106 लाख संक्रमितों के ठीक होने की उम्मीद है और दिसंबर में 50,000 से कम सक्रिय मामले होने की उम्मीद है।
  • भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research- ICMR) ने अगस्त में अपने नवीनतम सीरो-सर्वेक्षण में अनुमान लगाया था कि भारत में लगभग 7% वयस्क आबादी वायरस से संक्रमित है।
  • समिति के अनुसार, कई शहरों में छोटे स्तर पर किये गए सीरो सर्वेक्षण के अनुसार, आबादी में 22 से 30% के बीच एंटीबॉडी प्रसार दिखा।
  • समिति के अनुसार, अगस्त में लगभग 14% आबादी के संक्रमित होने की संभावना थी।
  • समिति के अनुसार,  COVID-19 महामारी सितंबर माह में संक्रमण के चरम बिंदु को पार कर गई है लेकिन यह निम्नगामी प्रवृत्ति केवल तभी जारी रहेगी जब हम सुरक्षात्मक उपायों का प्रयोग करते रहेंगे।
  • भारत में पहले से ही संक्रमण के चरम बिंदु को पार कर जाने का एक संभावित कारण वायरस के प्रति अलग-अलग लोगों की बदलती संवेदनशीलता हो सकती है।
  • वायरस से संक्रमित कुछ लोग बीमारी विकसित करते हैं और कुछ लोग केवल एंटीबॉडी विकसित करते हैं। समिति के अनुसार, ‘हर्ड इम्यूनिटी’ विकसित करने के लिये 60 -70% आबादी को संक्रमित होने की आवश्यकता होगी।
  • अगर भारत में कोई लॉकडाउन लागू नहीं होता तो जून तक 40-147 लाख तक सक्रिय संक्रमण के मामले देखे जाते और 1 अप्रैल या मई से शुरू होने वाले लॉकडाउन में जुलाई तक 30-40 लाख संक्रमण के मामलों का चरम बिंदु देखा जाता।
  • व्यापक लॉकडाउन के साथ विभिन्न सुरक्षा प्रोटोकॉल जैसे- मास्क पहनना, सामाजिक दूरी को एक साथ लागू करना आदि ने भारत को कई अन्य देशों की तुलना में बेहतर स्थिति में पहुँचाया है।
  • मौजूदा व्यक्तिगत सुरक्षा प्रोटोकॉल को पूर्ण रूप से जारी रखने की आवश्यकता है। अन्यथा संक्रमण में तेज़ी से वृद्धि देखने को मिलेगी। विशेष रूप से बंद स्थानों में भीड़भाड़ से बचना, बच्चों तथा  65 वर्ष से ऊपर के वृद्ध व्यक्तियों की विशेष देखभाल और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण सह-रुग्णता वाले व्यक्तियों को अतिरिक्त सतर्क रहने की आवश्यकता है।

स्रोत-द हिंदू