शंकरी प्रसाद मामला और पहला संशोधन अधिनियम
प्रिलिम्स के लिये:पहला संशोधन अधिनियम, 1951, संपत्ति का अधिकार, नौवीं अनुसूची, ज़मींदारी प्रथा मेन्स के लिये:भारत में भूमि सुधार, मौलिक अधिकार बनाम संवैधानिक संशोधन |
स्रोत: IE
चर्चा में क्यों?
शंकरी प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ, 1951 मामला भारतीय सांविधानिक विधि में एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, जिसमें प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 को चुनौती दी गई थी, जिससे संपत्ति के अधिकार को सीमित किया गया था।
प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 क्या था?
- प्रमुख प्रावधान:
- नौवीं अनुसूची: भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची, जिसे प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा पेश किया गया था, में वे कानून सूचीबद्ध हैं जिन्हें न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती, उनकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती, जिनमें विशेष रूप से भूमि सुधार कानून शामिल हैं। मूल रूप से अनुसूची में 13 कानून जोड़े गए थे।
- भूमि सुधारों का संरक्षण: संविधान में अनुच्छेद 31A और 31B जोड़े गए, जिससे भूमि सुधार कानूनों, विशेष रूप से संपदा अधिग्रहण से संबंधित कानूनों को न्यायिक समीक्षा से सुरक्षा मिली।
- अनुच्छेद 31A: इसके अनुसार भूमि सुधार से संबंधित किसी भी कानून को मौलिक अधिकारों, विशेषकर संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) का उल्लंघन करने के कारण रद्द नहीं किया जा सकता।
- अनुच्छेद 31B: यह सुनिश्चित करता है कि नौवीं अनुसूची में निर्दिष्ट कानून, भले ही उनका मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष हो, विधिमान्य और प्रवर्तित रहेंगे।
- अन्य परिवर्तन: अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध। सामाजिक और शैक्षिक उत्थान के लिये विधि निर्माण की अनुमति प्रदान कर जाति-आधारित आरक्षण का सुदृढ़ीकरण किया गया।
- संशोधन की आवश्यकता: यह भारत के स्वतंत्रता के बाद के भूमि सुधार प्रयासों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण था, जिसका उद्देश्य बड़े भूस्वामियों (ज़मींदारों) की शक्ति को सीमित करना और किसानों को भूमि का पुनर्वितरण करना था।
शंकरी प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ मामला, 1951 क्या था?
- मामले की पृष्ठभूमि: पश्चिम बंगाल के एक ज़मींदार शंकरी प्रसाद सिंह देव ने प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 को चुनौती दी, जिसके माध्यम से संपत्ति के अधिकार को सीमित किया गया था।
- पहले संशोधन में सरकार द्वारा ज़मींदारों को बिना मुआवज़ा दिये उनकी भूमि का अधिग्रहण करने के अधिकार का प्रावधान किया गया था, जो मूल संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों {अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31} के विपरीत था।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने प्रथम संशोधन को मान्य ठहराते हुए सरकार के पक्ष में निर्णय सुनाया।
- न्यायालय ने सामान्य विधि (जिसमें मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता) और संवैधानिक संशोधन (मौलिक अधिकारों में परिवर्तन किया जा सकता है) के बीच अंतर स्पष्ट किया।
- अनुच्छेद 13(2) के अनुसार किसी भी “विधि” से मौलिक अधिकारों को नहीं छीना जा सकता। न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि संवैधानिक संशोधन सामान्य “विधि” नहीं हैं, इसलिये उन्हें इस प्रतिबंध से छूट दी गई है।
- महत्त्व: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से भूमि सुधार संबंधी विधिक बाधाएँ समाप्त हुईं, जिससे राज्यों को ज़मींदारी का उन्मूलन करने की अनुमति मिली।
- निहितार्थ:
- विधिक चुनौतियों की निरंतरता: सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य, 1964 में, न्यायालय ने शंकरी प्रसाद मामले के निर्णय को बरकरार रखा लेकिन दो न्यायाधीशों ने मौलिक अधिकारों के संसोधनीय होने पर सवाल उठाए।
- आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना रुख बदलते हुए निर्णय सुनाया कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973 में न्यायाधीशों की पीठ ने शंकरी प्रसाद मामले के निर्णय को खारिज़ कर दिया और आधारभूत संरचना सिद्धांत पेश किया।
- निर्णय में स्पष्ट किया गया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह मौलिक अधिकारों सहित इसके "आधारभूत संरचना" में बदलाव नहीं कर सकती।
- हालाँकि, संपत्ति के अधिकार को आधारभूत संरचना का हिस्सा नहीं माना गया, जिससे भूमि सुधारों की विधिमान्यता बनी रही।
- विधिक अधिकार के रूप में संपत्ति का अधिकार: वर्ष 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 को निरस्त कर संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया।
- इसके बाद संविधान के अनुच्छेद 300A (विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किया जाना) के तहत संपत्ति के अधिकार को विधिक अधिकार बना दिया गया।
- विधिक चुनौतियों की निरंतरता: सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य, 1964 में, न्यायालय ने शंकरी प्रसाद मामले के निर्णय को बरकरार रखा लेकिन दो न्यायाधीशों ने मौलिक अधिकारों के संसोधनीय होने पर सवाल उठाए।
ज़मींदारी प्रथा क्या थी?
- परिचय: ज़मींदारी प्रथा को ब्रिटिश शासन के तहत वर्ष 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा स्थायी बंदोबस्त के माध्यम से संस्थागत रूप दिया गया था, जिससे भूमि पर ज़मींदारों का नियंत्रण स्थापित हुआ और उन्हें किसानों से लगान वसूलने का अधिकार मिला।
- सांविधिक रीतियों से, अंग्रेज़ों ने रैक-रेंटिंग (अत्यधिक किराया/लगान) जैसे प्रावधानों के माध्यम से ज़मींदारी को एक शोषक विधि का रूप दिया, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ती गई।
- भू-राजस्व का हिस्सा निर्धारित कर दिया गया, जिसमें सरकार को 10/11 भाग तथा शेष हिस्सा जमींदारों को मिलता था, जिससे किसान वर्ग की निर्धनता बढ़ती गई।
- सांविधिक रीतियों से, अंग्रेज़ों ने रैक-रेंटिंग (अत्यधिक किराया/लगान) जैसे प्रावधानों के माध्यम से ज़मींदारी को एक शोषक विधि का रूप दिया, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ती गई।
- उन्मूलन के कारण: इस प्रणाली के कारण सीमित व्यक्तियों का भूमि पर स्वामित्त्व हो गया, जिससे एक व्यापक किसान वर्ग भूमिहीन हो गया। इस प्रथा के उन्मूलन का उद्देश्य किसानों को भूमि का पुनर्वितरण करना और सामंती शोषण को कम करना था।
- संविधान के अनुच्छेद 39(B) और (C) में संसाधनों के समान वितरण पर ज़ोर दिया गया है। यह उन्मूलन भारत को समाजवाद प्रधान अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य के अनुरूप था।
- बड़ी संपदाओं को छोटे-छोटे भू-जोतों में विभाजित करने से उत्पादकता में सुधार होने की उम्मीद थी।
- आंशिक सफलता: पश्चिम बंगाल और केरल जैसे कुछ राज्यों के अतिरिक्त, बेनामी लेनदेन की अनुमति की खामियों के कारण ज़मींदारी उन्मूलन सामंती भूमि एकाधिकार समाप्त करने विफल रहा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भूमि सुधारों का विकास और संपत्ति के अधिकार की विधिक स्थिति में परिवर्तन ने भारत में समाजवादी अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव को किस प्रकार प्रतिबिंबित किया? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत में संपत्ति के अधिकार की क्या स्थिति है? (2021) (a) केवल नागरिकों के लिये उपलब्ध विधिक अधिकार उत्तर: (b) प्रश्न. भारत के संविधान के उद्देश्यों में से एक के रूप में 'आर्थिक न्याय' का किसमें उपबंध किया गया है? (2013) (a) उद्देशिका और मूल अधिकार उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. कोहिलो केस में क्या अभिनिर्धारित किया गया था? इस संदर्भ में क्या आप कह सकते हैं कि न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के बुनियादी अभिलक्षणों में प्रमुख महत्त्व का है? (2016) प्रश्न. कृषि विकास में भूमि सुधारों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। भारत में भूमि सुधारों की सफलता के लिये उत्तरदायी कारकों की पहचान कीजिये। (2016) प्रश्न. भूमि अर्जन, पुनरुद्धार और पुनर्वासन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 पहली जनवरी, 2014 से प्रभावी हो गया है। इस अधिनियम के लागू होने से कौन-से महत्त्वपूर्ण मुद्दों का समाधान निकलेगा? भारत में औद्योगीकरण और कृषि पर इसके क्या परिणाम होंगे? (2014) |
ऑनलाइन बाल दुर्व्यवहार में वृद्धि
प्रिलिम्स के लिये:आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति, साइबर सुरक्षित भारत पहल मेन्स के लिये:बच्चों पर साइबरबुलिंग और ऑनलाइन यौन शोषण का प्रभाव, बच्चों से संबंधित मुद्दे |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
विभिन्न क्षेत्रों के 123 अध्ययनों के व्यापक विश्लेषण के आधार पर द लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन में विश्व भर में बच्चों के समक्ष ऑनलाइन यौन शोषण की बढ़ती चिंता पर प्रकाश डाला गया है।
ऑनलाइन बाल दुर्व्यवहार से संबंधित अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- दुर्व्यवहार की व्यापकता: इसमें बताया गया है कि पिछले दशक में वैश्विक स्तर पर 12 में से एक बच्चे (लगभग 8.3%) को ऑनलाइन यौन दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा है।
- शोषण के प्रकार: इस अध्ययन में ऑनलाइन यौन शोषण के कई उपप्रकारों की पहचान की गई है, जिनमें यौन संबंधी पूछताछ/बातचीत से संबंधित ऑनलाइन प्रलोभन (12.5%), बिना सहमति के छवि साझा करना (12.6%),ऑनलाइन यौन शोषण (4.7%) और सेक्सुअल एक्सटाॅर्शन (3.5%) शामिल हैं।
- लैंगिक गतिशीलता: बालक और बालिकाओं के बीच ऑनलाइन दुर्व्यवहार की दरों में कोई प्रमुख अंतर नहीं है, जिससे इस पूर्वधारणा को चुनौती मिलती है कि लड़कियाँ अधिक असुरक्षित हैं।
- इससे ऑनलाइन वातावरण और व्यवहार में बदलाव का संकेत मिलता है, जिससे लड़कों के लिये जोखिम बढ़ रहा है।
- मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: इस रिपोर्ट में ऑनलाइन यौन शोषण को गंभीर मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य परिणामों से जोड़ा गया है, जिसमें जीवन प्रत्याशा और रोज़गार की संभावनाओं में कमी शामिल है।
ऑनलाइन बाल दुर्व्यवहार बढ़ने के क्या कारण हैं?
- इंटरनेट तक पहुँच में वृद्धि: व्यापक इंटरनेट पहुँच ने बच्चों की ऑनलाइन उपस्थिति (इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं का 1/3) में उल्लेखनीय वृद्धि की है, जिससे ये शोषण के प्रति संवेदनशील हो गए हैं, विशेष रूप से अनियंत्रित सोशल मीडिया और गेमिंग में।
- महामारी से संबंधित कारक: कोविड-19 महामारी के दौरान ऑनलाइन गतिविधि में वृद्धि ने अपराधियों को बच्चों का शोषण करने में सक्षम बनाया, जिससे दुर्व्यवहार के मामलों में वृद्धि हुई, जिसमें मार्च 2020 से अब तक सेक्टॉर्शन के मामलों में तीन गुना वृद्धि देखी गई।
- प्रौद्योगिकी में उन्नति: बड़ी संख्या में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) उपकरणों और डिजिटल प्लेटफॉर्मों के प्रयोग ने अपराधियों के लिये बाल यौन शोषण सामग्री (CSAM) बनाना और वितरित करना आसान बना दिया है, जिसका पता लगाना मुश्किल है।
- डिजिटल साक्षरता का अभाव: ऑनलाइन सुरक्षा के बारे में सीमित जागरूकता उपयोगकर्त्ताओं को असुरक्षित बनाती है; केवल 38% भारतीय परिवार डिजिटल रूप से साक्षर हैं।
- अपर्याप्त निगरानी और प्रवर्तन: विधिक प्रवर्तन और प्रौद्योगिकी कंपनियों को तेजी से विकसित हो रहे ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों के साथ तालमेल बनाए रखने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे निगरानी और प्रवर्तन में अंतराल रह जाता है।
ऑनलाइन बाल शोषण से संबंधित भारत की पहल
- विधायी एवं नीतिगत उपाय:
- यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 ऑनलाइन शोषण समेत बाल यौन शोषण से निपटने के लिये विधिक ढाँचा प्रदान करता है।
- सूचना प्रौद्योगिकी (IT) अधिनियम, 2000 में बच्चों के विरुद्ध साइबर अपराध से संबंधित प्रावधान हैं।
- किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 ऑनलाइन दुर्व्यवहार सहित बाल संरक्षण मुद्दों को संबोधित करता है।
- संस्थागत तंत्र:
- राष्ट्रीय साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल: बाल दुर्व्यवहार मामलों की ऑनलाइन रिपोर्टिंग की सुविधा प्रदान करता है।
- भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र (I4C) बाल शोषण समेत साइबर अपराधों के खिलाफ विधिक प्रवर्तन प्रयासों को मज़बूत करता है।
ऑनलाइन बाल दुर्व्यवहार को रोकने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?
- सशक्त कानून और प्रवर्तन:
- सशक्त कानून: अपराधियों के लिये अधिक दंड के साथ कठोर कानूनी ढाँचे को लागू करना।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: सीमा पार दुर्व्यवहार नेटवर्क को नष्ट करने के लिये इंटरपोल और FBI जैसी एजेंसियों के साथ सहयोग को मज़बूत करना।
- रिपोर्टिंग प्रणाली की सुदृढ़ता: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के लिये वास्तविक समय रिपोर्टिंग और निगरानी उपकरणों में सुधार करना, गोपनीय हेल्पलाइन स्थापित करना साथ ही दुर्व्यवहार सामग्री को साझा करने के उभरते तरीकों की रिपोर्ट करने के लिये सोशल नेटवर्क को प्रोत्साहित करना।
- जन जागरूकता और शिक्षा: बच्चों, अभिभावकों और शिक्षकों के लिये जागरूकता अभियानों के माध्यम से डिजिटल साक्षरता और ऑनलाइन सुरक्षा को बढ़ावा देना।
- बच्चों के लिये समर्पित अनुभाग, सोशल मीडिया और ब्राउज़िंग प्लेटफॉर्म पर "सुरक्षित खोज", कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) आधारित सामग्री फिल्टरिंग और अभिभावकीय नियंत्रण जैसी सुविधाओं के माध्यम से ऑनलाइन सुरक्षा बढ़ाने की आवश्यकता है।
- तकनीकी उद्योग के साथ सहयोग: तकनीकी कंपनियों को सामग्री का कठोरता से मॉडरेशन करने, आयु-सत्यापन की बेहतर विधि अपनाने और डार्क वेब प्लेटफार्मों पर CSAM के निर्माण की रोकथाम करने हेतु एथिकल AI साधन विकसित करने के लिये प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
- अनुसंधान की आवश्यकता: साक्ष्य-आधारित नीतियाँ तैयार करने और बाल संरक्षण ढाँचे को सुदृढ़ करने के लिये, विशेष रूप से विश्व के अल्प प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों में व्यापक अनुसंधान और डेटा संग्रह में निवेश करने की आवश्यकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में साइबर अपराध की स्थिति और बालकों पर इसके प्रभाव की विवेचना कीजिये। इन खतरों का समाधान करने के उपायों का सुझाव दीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत में, किसी व्यक्ति के साइबर बीमा कराने पर, निधि की हानि की भरपाई एवं अन्य लाभों के अतिरिक्त, सामान्यतः निम्नलिखित में से कौन-कौन से लाभ दिये जाते हैं ? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2 और 4 उत्तर: (b) प्रश्न. भारत में, साइबर सुरक्षा घटनाओं पर रिपोर्ट करना निम्नलिखित में से किसके/किनके लिए विधितः अधिदेशात्मक है/हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. साइबर सुरक्षा के विभिन्न तत्त्व क्या हैं? साइबर सुरक्षा की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए समीक्षा कीजिये कि भारत ने किस हद तक एक व्यापक राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा रणनीति सफलतापूर्वक विकसित की है। (2022) |
न्याय तक पहुँच के अधिकार की सीमाएँ
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय न्यायपालिका, सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, विशेष अनुमति याचिका मेन्स के लिये:लंबित वाद, मूल अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध, भारतीय न्यायपालिका से संबंधित प्रमुख मुद्दे |
स्रोत: लाइवलॉ
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा न्यायिक समय और संसाधनों के दुरुपयोग का हवाला देते हुए एक याचिकाकर्त्ता पर अनावश्यक मुकदमेबाजी के लिये जुर्माना लगाया गया।
- इस मामले से विधिक प्रणाली के दुरुपयोग पर प्रकाश पड़ता है, जिसमें याचिकाकर्त्ता ने सेवा बर्खास्तगी को रद्द करने के लिये बार-बार आधारहीन याचिकाएँ दायर कीं।
न्याय तक पहुँच के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या है?
- मामले की पृष्ठभूमि: याचिकाकर्त्ता ने बार-बार खारिज होने के बावजूद औद्योगिक न्यायाधिकरण, उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय सहित कई मंचों पर कदाचार के आधार पर अपनी बर्खास्तगी को चुनौती दी।
- अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी याचिकाओं को खारिज करते हुए फोरम शॉपिंग के लिये उस पर जुर्माना लगाया।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि न्याय तक पहुँच का अधिकार एक मूल अधिकार (अनुच्छेद 21) है, परंतु यह निरपेक्ष नहीं है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनावश्यक याचिकाओं से न्यायिक समय बर्बाद होने एवं न्याय में देरी होने के साथ विधिक प्रणाली की शुचिता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- न्याय तक पहुँच के अधिकार पर न्यायिक निर्णय:
- अनीता खुश्वा बनाम पुष्पा सदन, 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि न्याय तक पहुँच अनुच्छेद 21 और 14 के तहत एक मूल अधिकार है और इसके द्वारा न्याय तक पहुँच के लिये 4 प्रमुख घटकों की पहचान की गई:
- प्रभावी न्यायिक तंत्र।
- दूरी के संदर्भ में उचित पहुँच।
- त्वरित निर्णय।
- न्यायिक प्रक्रिया तक सुलभ पहुँच।
- बुद्धि कोटा सुब्बाराव बनाम के. परासरण, 1996 मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने जासूसी के आरोप में मुकदमे का सामना कर रहे एक सेवानिवृत्त नौसेना कप्तान की याचिकाएँ खारिज कर दीं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने साक्ष्यों के अभाव के कारण उनके धोखाधड़ी के दावों को खारिज कर दिया, न्यायिक अंतिमता को बरकरार रखा और यह निर्णय दिया कि बिना नए साक्ष्यों के उच्च न्यायालय के फैसलों को अंतहीन चुनौती नहीं दी जा सकती।
और पढ़ें: सर्वोच्च न्यायालय ने SLP निपटान को प्राथमिकता दी
न्याय तक पहुँच के अधिकार से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार): अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधि के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी व्याख्या न्याय तक पहुँच के अधिकार को शामिल करते हुए की है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के विधिक संरक्षण पाने का समान अवसर मिले।
- अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार): अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधि के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार): अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अपनी शिकायतों के लिये न्यायिक उपचार प्राप्त कर सकते हैं, इस प्रकार उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा होती है।
- अनुच्छेद 39A (निःशुल्क विधिक सहायता): अनुच्छेद 39A नि:शुल्क विधिक सहायता प्रदान करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय से वंचित न होना पड़े।
- इसका उद्देश्य समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देना है, यह विशेष रूप से समाज के वंचित वर्गों पर केंद्रित है।
- अनुच्छेद 32 और 226: अनुच्छेद 32 और 226 पीड़ित पक्षों को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में जाकर न्याय तक पहुँच के अपने अधिकार को लागू करने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 39A (निःशुल्क विधिक सहायता): अनुच्छेद 39A नि:शुल्क विधिक सहायता प्रदान करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय से वंचित न होना पड़े।
- विधिक ढाँचा:
- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 ने समाज के वंचित वर्गों को मुफ्त विधिक सहायता प्रदान करने के लिये नालसा की स्थापना की।
- अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत पात्र समूहों में महिलाएँ, बच्चे, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, विकलांग व्यक्ति और निम्न आय वाले व्यक्ति शामिल हैं, जिससे कमज़ोर आबादी के लिये कानूनी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है।
- लोक अदालतें अधिनियम के अंतर्गत त्वरित एवं सुलभ विवाद समाधान उपलब्ध कराती हैं।
- टेली-लॉ हाशिए पर स्थित समुदायों को विधिक परामर्श प्रदान करता है, जबकि ई-लोक अदालतें उन लोगों के लिये पहुँच सुनिश्चित करती हैं जो भौतिक सुनवाई में भाग लेने में असमर्थ हैं।
- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 ने समाज के वंचित वर्गों को मुफ्त विधिक सहायता प्रदान करने के लिये नालसा की स्थापना की।
- लोकहित वाद (PIL):
- लोकहित वाद से सुने जाने के अधिकार (locus standi) का विस्तार हुआ, जिससे न कि केवल प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित व्यक्तियों को अपितु जनहितैषी व्यक्तियों या संगठनों को भी अधिकारों को प्रवर्तित करने के हेतु मामले दर्ज कराने की सुविधा मिली।
- उदाहरण: एमसी मेहता बनाम भारत संघ (1987) दिल्ली में पर्यावरण प्रदूषण पर दायर पहला लोकहित वाद था।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका में मामलों के लगातार लंबित रहने के मुद्दे पर चर्चा कीजिये और इसे हल करने के लिये पर्याप्त उपायों का सुझाव दीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) प्रश्न. राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) प्रश्न. निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करने के हकदार कौन है? निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रतिपादन में राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (एन.ए.एल.एस.ए.) की भूमिका का आकलन कीजिये। (2023) |