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डेली न्यूज़

  • 12 Jan, 2023
  • 38 min read
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राष्ट्रीय उद्यान (भाग- 2)

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भारतीय राजव्यवस्था

लद्दाख द्वारा छठी अनुसूची की मांग

प्रिलिम्स के लिये:

संसद, केंद्रशासित प्रदेश (संघ-राज्य क्षेत्र) लद्दाख, संविधान की छठी अनुसूची, स्वायत्त ज़िला परिषदें (ADCs)

मेन्स के लिये:

केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गृह मंत्रालय (MHA) ने लद्दाख के लोगों के लिये "भूमि और रोज़गार की सुरक्षा सुनिश्चित करने" हेतु केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख के लिये एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया।

  • समिति के कुछ सदस्यों के अनुसार, गृह मंत्रालय का स्पष्ट आदेश है कि छठी अनुसूची में शामिल करने की उनकी मांगों पर विचार-विमर्श नहीं किया जाएगा।
  • सितंबर 2019 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने लद्दाख को छठी अनुसूची के तहत शामिल करने की सिफारिश यह देखते हुए की थी कि नया केंद्रशासित प्रदेश मुख्य रूप से आदिवासी बहुल (97% से अधिक) था और इसकी विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की आवश्यकता थी।

कमेटी का गठन किस कार्य हेतु किया गया है?

  • पृष्ठभूमि:
    • संसद द्वारा 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा समाप्त किये जाने के बाद लद्दाख में नागरिक समाज समूह पिछले तीन वर्षों से भूमि, संसाधनों और रोज़गार की सुरक्षा की मांग कर रहे हैं।
    • बड़े व्यवसायों और बड़े समूहों द्वारा स्थानीय लोगों से भूमि एवं नौकरियाँ छीने जाने के भय ने इस मांग को बढ़ावा दिया है।
  • उद्देश्य:
    • क्षेत्र की अनूठी संस्कृति और भाषायी भौगोलिक स्थिति तथा सामरिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इसकी रक्षा के उपायों पर चर्चा करना।
    • समावेशी विकास की रणनीति बनाना और लेह, कारगिल एवं लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी ज़िला परिषदों के सशक्तीकरण से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करना।

सरकार का रुख:

  • जहाँ तक लद्दाख को विशेष राज्य का दर्जा देने की बात है, तो सरकार इसके लिये बहुत उत्सुक नहीं है।
    • गृह मंत्रालय ने हाल ही में संसद की एक स्थायी समिति को सूचित किया कि छठी अनुसूची के तहत आदिवासी आबादी को शामिल करने का उद्देश्य उनके समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिश्चित करना है, जिसका केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन पहले से ही ध्यान रख रहा है और लद्दाख को इसकी समग्र विकास आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पर्याप्त धन प्रदान किया जा रहा है।
  • गृह मंत्रालय के मुताबिक, लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करना मुश्किल होगा।
    • संविधान की छठी अनुसूची पूर्वोत्तर के लिये है तथा पाँचवीं अनुसूची देश के बाकी हिस्सों के आदिवासी क्षेत्रों के लिये है।
  • राज्यसभा में पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, लद्दाख प्रशासन ने हाल ही में सीधी भर्ती में अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षण को 10% से बढ़ाकर 45% कर दिया है, जिससे जनजातीय आबादी को उनके विकास में काफी मदद मिलेगी।

छठी अनुसूची:

  • अनुच्छेद 244: स्वायत्त ज़िला परिषदों (Autonomous District Councils- ADCs), जिनके पास राज्य के भीतर कुछ विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक स्वायत्तता होती है, को संविधान के अनुच्छेद 244 की छठी अनुसूची के अनुसार बनाया जा सकता है।
    • छठी अनुसूची में पूर्वोत्तर के चार राज्यों असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित विशेष प्रावधान हैं।
  • स्वायत्त ज़िले: इन चार राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों को स्वायत्त ज़िलों के रूप में गठित किया गया है। राज्यपाल के पास स्वायत्त ज़िलों के गठन और पुनर्गठन से संबंधित अधिकार है।
    • संसद या राज्य विधानमंडल के अधिनियम स्वायत्त ज़िलों पर लागू नहीं होते हैं अथवा विशिष्ट संशोधनों और अपवादों के साथ लागू होते हैं।
    • इस संबंध में निर्देशन की शक्ति या तो राष्ट्रपति या फिर राज्यपाल के पास होती है।
  • ज़िला परिषद: प्रत्येक स्वायत्त ज़िले में एक ज़िला परिषद होती है और इसमें सदस्यों की संख्या 30 होती हैं, जिनमें से चार राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं और शेष 26 वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं।
    • निर्वाचित सदस्य पाँच वर्ष की अवधि के लिये पद धारण करते हैं (यदि परिषद पहले भंग नहीं हो जाती है) और मनोनीत सदस्य राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद पर बने रहते हैं।
    • प्रत्येक स्वायत्त क्षेत्र में एक अलग क्षेत्रीय परिषद भी होती है।
  • परिषद की शक्तियाँ: ज़िला और क्षेत्रीय परिषदें अपने अधिकार क्षेत्रों का प्रशासन देखती हैं।
    • वे भूमि, जंगल, नहर का पानी, झूम खेती, ग्राम प्रशासन, संपत्ति की विरासत, विवाह और तलाक, सामाजिक रीति-रिवाज़ों आदि जैसे कुछ विशिष्ट मामलों पर कानून बना सकती हैं। लेकिन ऐसे सभी कानूनों हेतु राज्यपाल की सहमति की आवश्यकता होती है।
    • वे जनजातियों के बीच मुकदमों और मामलों की सुनवाई के लिये ग्राम सभाओं या न्यायालयों का गठन कर सकती हैं। वे उनकी अपील सुनती हैं। इन मुकदमों एवं मामलों पर उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है।
    • ज़िला परिषद ज़िले में प्राथमिक विद्यालयों, औषधालयों, बाज़ारों, घाटों, मत्स्य पालन, सड़कों आदि की स्थापना, निर्माण या प्रबंधन कर सकती है।
    • उन्हें भू-राजस्व का आकलन करने और एकत्र करने एवं कुछ निर्दिष्ट कर लगाने का अधिकार है।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न: 

प्रश्न. संविधान के निम्नलिखित प्रावधानों में से कौन से प्रावधान भारत की शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव डालते हैं? (2012)

  1. राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत
  2. ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकाय
  3. पाँचवीं अनुसूची
  4. छठी अनुसूची
  5. सातवीं अनुसूची

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3, 4 और 5
(c) केवल 1, 2 और 5
(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (d)

व्याख्या:

  • राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के अनुच्छेद 45 में सभी बच्चों को 6 वर्ष की आयु पूरी करने तक प्रारंभिक बचपन की देखभाल और अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा देने का प्रावधान है। अत: 1 सही है।
  • ग्यारहवीं अनुसूची में पंचायत को प्रदान किये गए 29 कार्य शामिल हैं। सूची की प्रविष्टि 17 प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों सहित शिक्षा से संबंधित है। बारहवीं अनुसूची में नगर निकायों को प्रदान किये गए 18 कार्य शामिल हैं। प्रविष्टि 13 में सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं सौंदर्य संबंधी पहलुओं को बढ़ावा देने का प्रावधान है। अत: 2 सही है।
  • पाँचवीं अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिज़ोरम के अलावा अन्य राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है। राज्यपाल, सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा यह निर्देश दे सकता है कि संसद या राज्य के विधानमंडल का कोई विशेष अधिनियम, राज्य के किसी अनुसूचित क्षेत्र या उसके किसी हिस्से पर ऐसे अपवादों एवं संशोधनों के अधीन लागू नहीं होगा जैसा कि वह अधिसूचना में निर्दिष्ट कर सकता है। अत: 3 सही है।
  • छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिज़ोरम में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है। यह ज़िला परिषदों के लिये प्रावधान करती है, जो प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना, निर्माण या प्रबंधन कर सकती हैं। अत: 4 सही है।
  • सातवीं अनुसूची में संघ, राज्य और समवर्ती सूची शामिल है। इसमें ‘शिक्षा’ से संबंधित प्रावधान हैं। अत: 5 सही है।

अतः विकल्प (d) सही है।


प्रश्न. भारतीय संविधान की किस अनुसूची के तहत खनन के लिये निजी पार्टियों को आदिवासी भूमि के हस्तांतरण को शून्य घोषित किया जा सकता है? (2019)

(A) तीसरी अनुसूची
(B) पाँचवी अनुसूची
(C) नौवीं अनुसूची
(D) बारहवीं अनुसूची

उत्तर: (B)

व्याख्या:

  • अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित संविधान की पाँचवी और छठी अनुसूची के साथ अनुच्छेद 244 में निहित प्रावधानों तथा पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 तथा अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 या आदिवासियों के हितों की रक्षा करने वाले कोई अन्य प्रासंगिक वैधानिक अधिनियम के प्रावधानों द्वारा अनुसूचित क्षेत्रों में खनिज रियायतों के लिये अनुदान निर्देशित किया गया है।
  • पाँचवी अनुसूची के तहत राज्यपाल सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा निर्देश दे सकता है कि संसद या राज्य के विधानमंडल का कोई विशेष अधिनियम राज्य में अनुसूचित क्षेत्र या उसके किसी हिस्से पर लागू होगा या नहीं।
  • इस प्रकार पाँचवीं अनुसूची के तहत खनन के लिये निजी पार्टियों को आदिवासी भूमि के हस्तांतरण को शून्य घोषित किया जा सकता है। अतः विकल्प (B) सही है।

प्रश्न. भारत के संविधान में पाँचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची के उपबंध निम्नलिखित में से किसके लिये किये गए हैं?

(a) अनुसूचित जनजातियों के हितों के संरक्षण के लिये
(b) राज्यों के बीच सीमाओं के निर्धारण के लिये
(c) पंचायतों की शक्तियों, प्राधिकारों और उत्तरदायित्त्वों के निर्धारण के लिये
(d) सभी सीमावर्ती राज्यों के हितों के संरक्षण के लिये

उत्तर: (a)

  • पाँचवीं अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के अलावा अन्य राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन एवं नियंत्रण का प्रावधान करती है।
  • छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है। अतः विकल्प (a) सही उत्तर है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

बाल मृत्यु दर और मृत जन्म पर रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

बाल मृत्यु दर, मृत जन्म, यूनिसेफ, ईट राइट इंडिया, फिट इंडिया मूवमेंट, रोगों का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण, समय से पहले जन्म

मेन्स के लिये:

भारत में मृत जन्म और बाल मृत्यु दर का मुद्दा, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप

चर्चा में क्यों?

हाल ही में यूनाइटेड नेशन इंटर-एजेंसी ग्रुप फॉर चाइल्ड मॉर्टेलिटी एस्टिमेशन (UN IGME) द्वारा बाल मृत्यु दर (बाल मृत्यु दर का स्तर एवं प्रवृत्ति) और मृत जन्म पर दो वैश्विक रिपोर्ट जारी की गईं।

प्रमुख बिंदु

  • बाल मृत्यु दर का स्तर एवं प्रवृत्ति:
    • मृत्यु दर से संबंधित आँकड़े:
      • वैश्विक स्तर पर वर्ष 2021 में पाँच वर्ष से कम आयु में मरने वाले बच्चों की संख्या 5 मिलियन थी।
      • इनमें आधे से अधिक (2.7 मिलियन) 1-59 माह की आयु के बच्चे शामिल हैं, जबकि शेष (2.3 मिलियन) की जीवन के पहले माह (नवजात मृत्यु) में ही मृत्यु हो गई।
      • भारत में पाँच वर्ष से कम आयु में मरने वाले बच्चों की संख्या लगभग 7 लाख है, जिनमें 5.8 लाख शिशु मृत्यु (एक वर्ष से पूर्व मृत्यु) और 4.4 लाख नवजात मौतें शामिल हैं।
    • मृत्यु दर में गिरावट:
      • सदी की शुरुआत के बाद से वैश्विक अंडर-5 मृत्यु दर में 50% की गिरावट आई है, जबकि बड़े बच्चों और युवाओं की मृत्यु दर में 36% की गिरावट आई है एवं मृत जन्म दर में 35% की कमी आई है।
      • यह महिलाओं, बच्चों और युवाओं के कल्याण हेतु प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में किये जाने वाले निवेश के परिणामस्वरूप है।
      • हालाँकि वर्ष 2010 के बाद से प्रगति नाटकीय रूप से धीमी हो गई है और 54 देश अंडर-5 मृत्यु दर के लिये सतत् विकास लक्ष्यों को पूरा करने में पीछे रह गए।
    • क्षेत्रवार विश्लेषण:
      • उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिणी एशिया में बाल मृत्यु दर की उच्चतम दर बनी हुई है, उप-सहारा अफ्रीका में पैदा हुए बच्चों के जीवित रहने की संभावना सबसे कम है।
    • गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँच:
      • विश्व स्तर पर बच्चों के लिये गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच और उपलब्धता जीवन या मृत्यु का मामला बना हुआ है।
      • अधिकांश बच्चों की मृत्यु पहले पाँच वर्षों में हो जाती है, जिनमें से 50% बच्चों की मृत्यु जीवन के पहले माह में ही हो जाती है।
      • इन कम उम्र के बच्चों के समय से पूर्व जन्म और प्रसव के दौरान जटिलताएँ मृत्यु के प्रमुख कारण हैं।
    • बढ़ते संक्रामक रोग:
      • वैश्विक स्वास्थ्य एजेंसी ने पाया कि जो बच्चे अपने जन्म के 28 दिनों तक जीवित रहते हैं, उनके लिये निमोनिया, डायरिया और मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियाँ सबसे बड़ा खतरा हैं।
  • स्टिलबर्थ (मृत जन्म) पर रिपोर्ट:
    • वैश्विक स्तर पर वर्ष 2021 में मृत जन्म का आँकड़ा अनुमानित 1.9 मिलियन है।
    • वर्ष 2021 में भारत में मृत जन्मों की कुल अनुमानित संख्या (2,86,482) 1-59 माह (2,67,565) में मृत बच्चों की संख्या से अधिक थी।

अधिकांश बच्चों की मृत्यु का कारण:

  • समय पूर्व जन्म (गर्भावस्था के 37 सप्ताह से पूर्व जन्मे बच्चे):
    • यह एक चुनौती है क्योंकि 37 सप्ताह के गर्भ के बाद जन्म लेने वालों की तुलना में 'समय पूर्व जन्मे शिशुओं' में जन्म के बाद मृत्यु का जोखिम दो से चार गुना अधिक होता है।
    • विश्व स्तर पर प्रत्येक 10 जन्मों में से एक अपरिपक्व है; भारत में प्रत्येक छह से सात जन्मों में से एक समय से पूर्व होता है।
    • भारत में समय पूर्व जन्म का एक बड़ा संकट है, जिसका अर्थ है कि देश में नवजात शिशुओं को जटिलताओं और मृत्यु दर का अधिक खतरा है।
  • मृत जन्म:
    • समय पूर्व जन्म और मृत जन्म दोनों की दर तथा संख्या अस्वीकार्य रूप से उच्च है जो भारत में नवजात शिशु एवं बाल मृत्यु दर को बढ़ाती है। इस प्रकार वे तत्काल हस्तक्षेप की मांग करते हैं।
      • एक बच्चा जिसकी गर्भावस्था के 22 सप्ताह के बाद लेकिन जन्म से पहले या उसके दौरान किसी भी समय मृत्यु हो जाती है, तो उसे मृत शिशु के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
    • समय पूर्व जन्म और मृत जन्म पर उचित ध्यान न देने का एक कारण विस्तृत और विश्वसनीय डेटा की कमी है।

भारत की संबंधित पहल:

यूनाइटेड नेशन इंटर-एजेंसी ग्रुप फॉर चाइल्ड मॉर्टेलिटी एस्टिमेशन (UN IGME):

  • UN IGME का गठन वर्ष 2004 में बाल मृत्यु दर पर डेटा साझा करने, बाल मृत्यु दर अनुमान के तरीकों में सुधार करने, बाल उत्तरजीविता लक्ष्यों की दिशा में प्रगति पर रिपोर्ट करने और बाल मृत्यु दर का सटीक अनुमान लगाने एवं देश की क्षमता को मज़बूत करने के लिये की गई थी।
  • UN IGME का नेतृत्त्व संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) द्वारा किया जाता है और इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक समूह और संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक मामलों का विभाग, जनसंख्या प्रभाग शामिल हैं।

मृत जन्म और बाल मृत्यु दर को रोकने के लिये संभावित उपाय:

  • ज्ञात और प्रमाणिक उपायों में वृद्धि करना:
    • मृत जन्म और बाल मृत्यु दर को रोकने के लिये निम्न बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये:
      • परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच बढ़ाना।
      • गर्भवती माताओं द्वारा आयरन फोलिक एसिड के सेवन सहित स्वास्थ्य और पोषण जैसी प्रसव पूर्व सेवाओं में सुधार।
      • स्वस्थ आहार, और इष्टतम पोषण के महत्त्व पर परामर्श प्रदान करना।
      • जोखिम कारकों की पहचान और प्रबंधन।
  • दिशा-निर्देशों का प्रभावी कार्यान्वयन:
    • यदि समय से पहले जन्म और मृत जन्म के आँकड़ों को बेहतर तरीके से रिकॉर्ड एवं रिपोर्ट किया जाए तो और बेहतर परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय रोगों के वर्गीकरण की परिभाषा के अनुरूप मातृ और प्रसवकालीन मृत्यु की निगरानी से संबंधित दिशा-निर्देशों को प्रभावी ढंग से लागू करने की आवश्यकता है।
      • इस वर्गीकरण के उपयोग से मृत जन्म रिपोर्टिंग के कारणों को मानकीकृत करने में मदद मिलेगी।
    • साथ ही भारत को स्थानीय और लक्षित हस्तक्षेपों के लिये स्टिलबर्थ/मृत जन्म एवं अपरिपक्व जन्म के प्रमुख क्षेत्र समूहों की पहचान करने की आवश्यकता है।
  • अधिक राशि का आवंटन:
    • वर्ष 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार, सरकार ने वर्ष 2025 तक स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.5% निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई थी।
      • तब से छह वर्ष बाद भी स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार द्वारा किये जाने वाले आवंटन में मामूली वृद्धि हुई है।
    • हालिया दो रिपोर्टें की मानें तो अब समय आ गया है कि सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये अधिक राशि आवंटित करे, जिसकी शुरुआत आगामी बजट से की जा सकती है।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न: 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन' के उद्देश्य हैं? (2017)

  1. गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं में कुपोषण के प्रति जागरूकता पैदा करना।
  2. छोटे बच्चों, किशोरियों और महिलाओं में एनीमिया के मामलों में कमी लाना।
  3. बाजरा, मोटे अनाज और बिना पॉलिश किये गए चावल की खपत को बढ़ावा देना।
  4. पोल्ट्री अंडे की खपत को बढ़ावा देना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 3
(c) केवल 1, 2 और 4
(d) केवल 3 और 4

उत्तर: (a)


मेन्स

प्रश्न. क्या लैंगिक असमानता, गरीबी और कुपोषण के दुश्चक्र को महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को सूक्ष्म वित्त (माइक्रोफाइनेंस) प्रदान करके तोड़ा जा सकता है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिये। (2021)

स्रोत: द हिंदू


भूगोल

शीत लहर

प्रिलिम्स के लिये:

शीत लहर, पछुआ हवाएँ, आईएमडी, कोहरा, भारत-गंगा का मैदान।

मेन्स के लिये:

शीत लहर के लिये ज़िम्मेदार कारक।

चर्चा में क्यों?

दिल्ली और उत्तर पश्चिम भारत के अनेक हिस्से वर्ष 2023 की शुरुआत से ही शीत लहर की चपेट में हैं।

  • इस महीने का न्यूनतम तापमान 8 जनवरी को 1.9 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था, जो 15 वर्षों में जनवरी माह का दूसरा सबसे न्यूनतम तापमान था।
  • दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में अधिक कोहरा तथा बादलों की कमी के कारण क्षेत्र में कड़ाके की ठंड पड़ रही है।

शीत लहर के ज़िम्मेदार कारक:

  • बड़े पैमाने पर कोहरा:
    • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, जनवरी 2023 में उत्तर भारत में सामान्य तापमान से अधिक ठंड के प्रमुख कारकों में से एक बड़े पैमाने पर कोहरा है।
    • कोहरा लंबे समय तक बना रहता है जो सूर्य की रोशनी को सतह तक पहुँचने से रोकता है और विकिरण संतुलन को प्रभावित करता है। दिन के समय में गर्मी नहीं होती है तथा फिर रात का प्रभाव होता है।
  • धुँधली रातें:
    • धुँधली या बादल भरी रातें आमतौर पर गर्म रातों से संबंधित होती हैं, लेकिन अगर कोहरा दो या तीन दिनों तक रहता है, तो रात में भी ठंड शुरू हो जाती है।
    • हल्की हवाएँ और भूमि की सतह के पास उच्च नमी सुबह के समय भारत-गंगा के मैदानी इलाकों के बड़े हिस्से में कोहरे की चादर के निर्माण में योगदान दे रही है।
  • पछुआ हवाएँ:
    • चूँकि इस क्षेत्र में पश्चिमी विक्षोभ का कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव नहीं है, इसलिये ठंडी उत्तर-पश्चिमी हवाएँ भी कम तापमान में योगदान दे रही हैं।
    • दोपहर में लगभग 5 से 10 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी हवाएँ भी तापमान गिरावट में योगदान दे रही हैं।

शीत लहर:

  • परिचय:
    • 24 घंटों के भीतर तापमान में तेज़ी से गिरावट को शीत लहर कहते है, फलस्वरूप कृषि, उद्योग, वाणिज्य और सामाजिक गतिविधियों के लिये अत्यधिक सुरक्षा की आवश्यकता होती है।
    • शीत लहर की स्थिति:
    • मैदानी इलाकों के लिये शीतलहर की घोषणा तब की जाती है जब न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस या उससे कम हो और लगातार दो दिनों तक सामान्य से 4.5 डिग्री सेल्सियस कम हो।
      • 'अत्यंत' ठंडा दिन तब माना जाता है जब अधिकतम तापमान सामान्य से कम-से-कम 6.5 डिग्री कम होता है।
    • तटीय स्थानों पर न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस शायद ही कभी होता है। ठंडी हवा की गति के आधार पर न्यूनतम तापमान कुछ डिग्री कम हो जाता है जो स्थानीय लोगों के लिये परेशानी का कारण बनता है।
      • हवा के तापमान पर शीतलन प्रभाव के माप को विंड चिल फैक्टर कहते है।
  • भारत का मुख्य शीत लहर क्षेत्र:
    • 'प्रमुख शीत लहर' क्षेत्र के अंतर्गत पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना आदि आते हैं।
  • भारत में शीत लहर का कारण:
    • क्षेत्र में बादलों के आच्छादन का अभाव: बादल कुछ उत्सर्जित अवरक्त विकिरण को वापस परावर्तित कर देते हैं, जिससे पृथ्वी गर्म हो जाती है, किंतु बादलों की अनुपस्थिति से क्षेत्र में यह प्रक्रिया नहीं हो पाती है।
    • ऊपरी हिमालय में बर्फबारी से इन क्षेत्रों की ओर ठंडी हवाओं का चलना।
    • इस क्षेत्र में ठंडी हवा का अधोगमन (Subsidence): ठंडी एवं शुष्क वायु का पृथ्वी की सतह के पास नीचे की ओर गति हवाओं का अधोगमन (Subsidence of Air) कहलाता है।
    • ला नीना: प्रशांत महासागर इस समय ला नीना की स्थिति का सामना कर रहा है। ला नीना प्रशांत महासागर के ऊपर होने वाली एक जटिल मौसमी घटना है जिसका विश्व भर के मौसम पर व्यापक असर पड़ता है, यह स्थिति शीत लहर को प्रोत्साहित करती है।
      • ला नीना वर्षों के दौरान ठंड की स्थिति अत्यंत तीव्र हो जाती है और शीत लहर की आवृत्ति एवं क्षेत्र बढ़ जाता है।
    • पश्चिमी विक्षोभ: पश्चिमी विक्षोभ भारत में शीत लहर का कारण बन सकता है। पश्चिमी विक्षोभ मौसम प्रणालियाँ हैं जो भूमध्य सागर में उत्पन्न होती हैं और पूर्व की ओर प्रवाहित होती हैं, जो भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में ठंडी हवाएँ, वर्षा और बादल का निर्माण करती हैं। इन विक्षोभ से तापमान में गिरावट आ सकती है एवं शीत लहर की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। हालाँकि सभी पश्चिमी विक्षोभ शीत लहर की स्थिति उत्पन्न नहीं करते हैं।

भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department- IMD):

  • IMD की स्थापना वर्ष 1875 में हुई थी।
  • यह भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक एजेंसी है।
  • यह मौसम संबंधी निगरानी, मौसम पूर्वानुमान और भूकंप विज्ञान के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख एजेंसी है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजव्यवस्था

प्रत्यायोजित विधान

प्रिलिम्स के लिये:

विमुद्रीकरण का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, आरबीआई अधिनियम 1934, अध्यादेश, शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत

मेन्स के लिये:

प्रत्यायोजित विधान- महत्त्व और आलोचना, शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत और प्रत्यायोजित विधान

चर्चा में क्यों?

केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत के फैसले ने प्रत्यायोजित कानून की वैधता को बरकरार रखा, जबकि असहमति वाले फैसले में कहा गया कि सत्ता का अत्यधिक प्रत्यायोजन मनमाना है।

प्रत्यायोजित विधान क्या है?

  • परिचय:
    • चूँकि संसद स्वयं शासन प्रणाली के हर पहलू से नहीं निपट सकती है, इसलिये इन कार्यों को कानून द्वारा नियुक्त अधिकारियों को सौंपती है। ऐसा प्रतिनिधिमंडल विधियों में उल्लेख किया गया है, जिसे आमतौर पर प्रत्यायोजित विधान कहा जाता है।
    • उदाहरण- विधानों के तहत विनियम और उपनियम (एक स्थानीय प्राधिकरण द्वारा बनाए गए कानून जो केवल उसके क्षेत्र में लागू होते हैं)।
  • प्रत्यायोजित कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का विचार:
    • हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ (1959) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने शक्तियों के प्रत्यायोजन को इस आधार पर रद्द कर दिया कि यह अस्पष्ट था।
      • यह निष्कर्ष निकाला गया कि 1954 के ड्रग एंड मैजिक रेमेडीज़ (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम के केंद्र द्वारा विशिष्ट बीमारियों और स्थितियों को निर्दिष्ट करने का अधिकार अनैतिक एवं अनियंत्रित है और एक वैध प्रतिनिधिमंडल के दायरे से परे है। इसलिये इसे असंवैधानिक करार दिया गया।
    • 1973 के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्यायोजित कानून का विचार एक समकालीन कल्याणकारी राज्य की व्यावहारिक आवश्यकताओं तथा मांगों के कारण अस्तित्व में आया है।
  • विमुद्रीकरण मामले में प्रत्यायोजित विधान:
    • RBI अधिनियम, 1934 की धारा 26(2) के अनुसार, केंद्र सरकार के पास मुद्रा के किसी मूल्यवर्ग की कानूनी मुद्रा को बंद करने का अधिकार है।
      • संसद ने केंद्र सरकार को कानूनी निविदा की प्रकृति में परिवर्तन करने की शक्ति सौंपी है। जिसे बाद में राजपत्र अधिसूचना (विधायी आधार) जारी करके प्रयोग किया जाता है।
    • केंद्र की सत्ता के इस प्रतिनिधिमंडल को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि धारा 26 (2) में केंद्र द्वारा अपनी शक्तियों के प्रयोग संबंधी कोई नीतिगत दिशा-निर्देश नहीं है, इस प्रकार यह मनमाना (और असंवैधानिक) है।

प्रत्यायोजित विधान का महत्त्व और आलोचना:

  • महत्त्व:
    • यह कानून बनाने की प्रक्रिया में लचीलापन और अनुकूलता प्रदान करता है। कुछ शक्तियों को प्रत्यायोजित करके विधायिका बदलती परिस्थितियों और उभरते मुद्दों पर अधिक तेज़ी एवं कुशलता से प्रतिक्रिया कर सकती है।
    • अतिरिक्त कौशल, अनुभव और ज्ञान (प्रौद्योगिकी, पर्यावरण आदि जैसे क्षेत्रों में जहाँ संसद के पास हमेशा विशेषज्ञता नहीं हो सकती है) के साथ प्रत्यायोजित प्राधिकरण कानून बनाने के लिये अधिक उपयुक्त हैं।
  • आलोचना:
    • इसके परिणामस्वरूप विधायी प्रक्रिया में जवाबदेही/पारदर्शिता की कमी हो सकती है क्योंकि कार्यकारी एजेंसियों/प्रशासनिक निकायों द्वारा अधिनियमित कानून सार्वजनिक जाँच और बहस के उसी स्तर के अधीन नहीं होते हैं जैसा कि विधायिका द्वारा अधिनियमित कानून हैं।
    • इसके अतिरिक्त यह सरकार की कार्यकारी और प्रशासनिक शाखाओं में शक्ति केंद्रीकरण को भी जन्म दे सकता है, जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कमज़ोर कर सकता है।
      • हालाँकि कुछ प्रकार के प्रत्यायोजित कानून, जैसे अध्यादेशों को विधायिका द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिये।

आगे की राह

  • भारत में प्रत्यायोजित विधान पर संसदीय नियंत्रण कम प्रभावी है; प्रत्यायोजित विधान के 'स्थापन' को नियंत्रित करने वाली कोई वैधानिक प्रक्रिया नहीं है।
    • संसद की समितियों को सशक्त करना आवश्यक है और शक्तियों के प्रत्यायोजन के लिये समान नियमों का प्रावधान करने वाला एक अलग कानून बनाया जाना चाहिये।
  • इसके अलावा नागरिक कार्यकारी एजेंसियों और प्रशासनिक निकायों द्वारा प्रस्तावित तथा कार्यान्वित किये जा रहे कानूनों एवं विनियमों से परिचित रहते हुए प्रत्यायोजित विधान में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित कर सकते हैं।
    • वे सार्वजनिक परामर्श और टिप्पणी अवधि में भी भाग ले सकते हैं तथा अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से सरकार को जवाबदेह ठहरा सकते हैं।
  • इसके अतिरिक्त मीडिया प्रत्यायोजित कानून के साथ किसी भी मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करने और सार्वजनिक संवाद के लिये एक मंच प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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