लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 11 Aug, 2021
  • 51 min read
शासन व्यवस्था

राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-ऑयल पाम

प्रिलिम्स के लिये

पाम तेल, राष्ट्रीय खाद्य तेल और पाम तेल मिशन, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, खरीफ रणनीति, 2021

मेन्स के लिये

खाद्य तेल में आत्मनिर्भरता के लिये सरकार द्वारा की जा रही विविध पहलें

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री ने कृषि आय बढ़ाने में मदद करने के लिये पाम तेल (Palm Oil) उत्पादन पर एक नई राष्ट्रीय पहल की घोषणा की है।

  • खाद्य तेल में आत्मनिर्भरता के लिये  राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-ऑयल पाम (National Edible Oil Mission-Oil Palm) नामक योजना में 11,000 करोड़ रुपए (पाँच वर्ष की अवधि में) से अधिक का निवेश शामिल है।

प्रमुख बिंदु

उद्देश्य:

  • घरेलू खाद्य तेल की कीमतों को कम करना जो महँगे पाम तेल के आयात से तय होती हैं।
  • वर्ष 2025-26 तक पाम तेल का घरेलू उत्पादन तीन गुना बढ़ाकर 11 लाख मीट्रिक टन करना।
    • इस मिशन में वर्ष 2025-26 तक पाम तेल की खेती के क्षेत्र को 10 लाख हेक्टेयर और वर्ष 2029-30 तक 16.7 लाख हेक्टेयर तक बढ़ाना शामिल है।

विशेषताएँ:

  • इस योजना का विशेष बल भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह ( इन क्षेत्रों में अनुकूल मौसम की स्थिति के कारण) में होगा।
  • इस योजना के अंतर्गत पाम तेल किसानों को वित्तीय सहायता और पारिश्रमिक प्रदान किया जाएगा।

योजना का महत्त्व:

  • आयात पर निर्भरता में कमी:
    • इससे तेल के आयात पर निर्भरता कम होने और किसानों को तेल के विशाल बाज़ार से लाभ उठाने की उम्मीद है।
    • भारत विश्व में वनस्पति तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इसमें से पाम तेल का आयात इसके कुल वनस्पति तेल आयात का लगभग 55% है।
  • पैदावार में वृद्धि:
    • भारत सालाना खपत किये जाने वाले लगभग 2.4 करोड़ टन खाद्य तेल के आधे से भी कम का उत्पादन करता है। यह इंडोनेशिया और मलेशिया से पाम तेल, ब्राज़ील तथा अर्जेंटीना से सोया तेल एवं रूस व यूक्रेन से सूरजमुखी का तेल आयात करता है।
    • भारत में 94.1% पाम तेल का उपयोग खाद्य उत्पादों (विशेष रूप से खाना पकाने के प्रयोजनों के लिये) में किया जाता है। यह पाम तेल को भारत की खाद्य तेल अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण बनाता है।

पाम तेल

  • पाम तेल वर्तमान में विश्व का सबसे अधिक खपत वाला वनस्पति तेल है।
  • इसका उपयोग डिटर्जेंट, प्लास्टिक, सौंदर्य प्रसाधन और जैव ईंधन के उत्पादन में बड़े पैमाने पर किया जाता है।
  • कमोडिटी के शीर्ष उपभोक्ता भारत, चीन और यूरोपीय संघ (EU) हैं।

खाद्य तेल अर्थव्यवस्था

  • इसकी दो प्रमुख विशेषताएँ हैं जिन्होंने इस क्षेत्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। एक वर्ष 1986 में तिलहन पर प्रौद्योगिकी मिशन की स्थापना थी जिसे वर्ष 2014 में तिलहन और पाम तेल पर एक राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Oilseeds and Oil Palm) में बदल दिया गया था।
  • इससे तिलहन के उत्पादन को बढ़ाने के सरकार के प्रयासों को बल मिला। यह तिलहन के उत्पादन में वर्ष 1986-87 के लगभग 11.3 मिलियन टन से वर्ष 2019-20 में 33.22 मिलियन टन वृद्धि से स्पष्ट हो जाता है।
  • अन्य प्रमुख विशेषता जिसका खाद्य तिलहन/तेल उद्योग की वर्तमान स्थिति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है, वह उदारीकरण कार्यक्रम है जिसके अंतर्गत सरकार की आर्थिक नीति खुले बाज़ार को अधिक स्वतंत्रता देती है तथा सुरक्षा एवं नियंत्रण के बजाय स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा एवं स्व-नियमन को प्रोत्साहित करती है। 
  • पीली क्रांति (Yellow Revolution) उन क्रांतियों में से एक है जिन्हें देश में खाद्य तिलहन के उत्पादन को बढ़ाने के लिये शुरू किया गया था।
  • सरकार ने तिलहन के लिये खरीफ रणनीति (Kharif Strategy), 2021 भी शुरू की है।
    • यह तिलहन की खेती के अंतर्गत 6.37 लाख हेक्टेयर अतरिक्त क्षेत्र लाएगा और इससे 120.26 लाख क्विंटल तिलहन तथा 24.36 लाख क्विंटल खाद्य तेल का उत्पादन होने की संभावना है।
  • भारत में आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले तेल: मूँगफली, सरसों, रेपसीड, तिल, कुसुम, अलसी, नाइजर बीज, अरंडी पारंपरिक रूप से उगाए जाने वाले प्रमुख तिलहन हैं।
    •  हाल के वर्षों में सोयाबीन और सूरजमुखी के तेल का भी महत्त्व बढ़ा है।
    • बगानी फसलों में नारियल सबसे महत्त्वपूर्ण है।

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

अल्पसंख्यक संस्थान और आरटीई: एनसीपीसीआर सर्वेक्षण

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग 

मेन्स के लिये:

अल्पसंख्यकों से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (National Commission for the Protection of the Rights of the Child-NCPCR) ने अल्पसंख्यक स्कूलों का राष्ट्रव्यापी मूल्यांकन किया। रिपोर्ट का शीर्षक था "अल्पसंख्यक समुदायों की शिक्षा पर भारत के संविधान के अनुच्छेद 21ए के संबंध में अनुच्छेद 15(5) के तहत छूट का प्रभाव"।

  • इसका उद्देश्य यह आकलन करना था कि भारतीय संविधान में 93वाँ संशोधन, जो अल्पसंख्यक संस्थानों को शिक्षा के अधिकार के अनिवार्य प्रावधानों से छूट देता है, अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चों को कैसे प्रभावित करता है।
  • रिपोर्ट में अल्पसंख्यक संस्थानों की अनुपातहीन संख्या या अल्पसंख्यक संस्थानों में गैर- अल्पसंख्यक वर्ग के प्रभुत्व पर प्रकाश डाला गया है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग:

  • NCPCR का गठन मार्च 2007 में ‘कमीशंस फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स’ (Commissions for Protection of Child Rights- CPCR) अधिनियम, 2005 के तहत एक वैधानिक निकाय के रूप में किया गया है।
  • यह महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करता है।
  • आयोग का अधिदेश (Mandate) यह सुनिश्चित करता है कि सभी कानून, नीतियाँ, कार्यक्रम और प्रशासनिक तंत्र भारत के संविधान में निहित बाल अधिकार के प्रावधानों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के बाल अधिकारों के अनुरूप भी हों।
  • यह शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (Right to Education Act, 2009) के तहत एक बच्चे के लिये मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार से संबंधित शिकायतों की जाँच करता है।
  • यह लैंगिक अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 [ Protection of Children from Sexual Offences (POCSO) Act, 2012] के कार्यान्वयन की निगरानी करता है।

प्रमुख बिंदु:

रिपोर्ट के मुख्य बिंदु:

  • गैर-अल्पसंख्यकों के लिये अल्पसंख्यक स्कूल केटरिंग (Minority Schools Catering to the Non-Minorities): कुल मिलाकर इन स्कूलों में 62.5% छात्र गैर-अल्पसंख्यक समुदायों के थे।
    • अल्पसंख्यक स्कूलों में केवल 8.76 प्रतिशत छात्र सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि के हैं।
  • अनुपातहीन संख्या: पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक आबादी का 92.47 प्रतिशत मुस्लिम और 2.47% ईसाई हैं। इसके विपरीत 114 ईसाई अल्पसंख्यक स्कूल हैं और मुस्लिम अल्पसंख्यक दर्जे वाले केवल दो स्कूल हैं।
    • इसी तरह उत्तर प्रदेश में हालाँकि ईसाई आबादी 1% से कम है, राज्य में 197 ईसाई अल्पसंख्यक स्कूल हैं।
    • यह असमानता अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के मूल उद्देश्य को छीन लेती है।
  • मदरसों में गैर-एकरूपता: इसमें पाया गया कि स्कूल से बाहर जाने वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या (1.1 करोड़) मुस्लिम समुदाय की थी।
    • रिपोर्ट के मुताबिक देश में तीन तरह के मदरसे हैं:
      • मान्यता प्राप्त मदरसे: ये पंजीकृत हैं और धार्मिक व धर्मनिरपेक्ष शिक्षा दोनों प्रदान करते हैं; 
      • गैर-मान्यता प्राप्त मदरसे: गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों की संख्या राज्य सरकारों द्वारा पंजीकरण के लिये कम पाया गया है क्योंकि इनमें  धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान नहीं की जाती है।
      • अनमैप्ड मदरसे: अनमैप्ड मदरसों ने कभी पंजीकरण के लिये आवेदन नहीं किया है।
    • NCPCR के अनुसार, सच्चर कमेटी की वर्ष 2005 की रिपोर्ट, जिसमें कहा गया है कि 4% मुस्लिम बच्चे (15.3 लाख) मदरसों में जाते हैं, ने केवल पंजीकृत मदरसों को ध्यान में रखा है।
    • इसके अलावा, मदरसों के पाठ्यक्रम, जिन्हें सदियों पहले विकसित किया गया है, एक समान नहीं हैं और यह अपने आसपास की दुनिया से अनभिज्ञ हैं।
      • कुछ छात्र हीन भावना विकसित कर लेते हैं और बाकी समाज से अलग हो जाते हैं तथा वातावरण के साथ तालमेल बिठाने में असमर्थ होते हैं।
      • इसके अलावा मदरसों में शिक्षक प्रशिक्षण का कोई कार्यक्रम नहीं होता है।

अनुच्छेद 15 (5), 30, 21A का संयोजन 

  • अल्पसंख्यक संस्थान: अल्पसंख्यक संस्थानों को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अपनी पसंद के अनुसार अपने शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का मौलिक अधिकार है।
    • हालाँकि वे राज्य द्वारा अनुशंसित नियमों की अनदेखी नहीं कर सकते।
    • इसके अलावा टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन मामले, 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 30 (1) न तो पूर्ण है और न ही कानून से ऊपर है।
    • राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 (c) के तहत मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी (पारसी) को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया गया है।
  • अनुच्छेद 15 (5) (भारतीय संविधान में 93वाँ संशोधन): यह राज्य को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को छोड़कर निजी शिक्षण संस्थानों (चाहे राज्य द्वारा सहायता प्राप्त या गैर-सहायता प्राप्त) सहित शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिये विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।
  • शिक्षा का अधिकार (RTE): अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा के अधिकार को लागू करने हेतु अधिनियम में समाज के वंचित वर्गों के लिये 25% आरक्षण अनिवार्य है, वंचित समूहों में शामिल हैं:
    • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति
    • सामाजिक रूप से पिछड़ा वर्ग (Socially Backward Class)
    • डिफरेंटली एबल्ड (Differently abled)
  • RTE को दरकिनार (Bypassing) करने हेतु अनुच्छेद 30 का उपयोग करना: अल्पसंख्यक स्कूल RTE अधिनियम के दायरे से बाहर हैं। इसके अलावा वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रमति के फैसले (Pramati Judgment) में पूरे RTE अधिनियम को अल्पसंख्यक स्कूलों के लिये अनुपयुक्त बना दिया।
    • NCPCR के सर्वेक्षण में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि उन स्कूलों और संस्थानों ने इसलिये अल्पसंख्यक संस्थानों के रूप में पंजीकरण कराया है ताकि उन्हें RTE लागू न करना पड़े।

सुझाव:

  • सरकार को मदरसों सहित ऐसे सभी स्कूलों को शिक्षा के अधिकार और सर्व शिक्षा अभियान के दायरे में लाना चाहिये।
  • NCPCR ने ऐसे स्कूलों में अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिये आरक्षण का भी समर्थन किया, क्योंकि इसके सर्वेक्षण में वहाँ पढ़ने वाले गैर-अल्पसंख्यक छात्रों का एक बड़ा हिस्सा पाया गया था।
    • संस्थान में प्रवेश के लिये अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के न्यूनतम प्रतिशत के संबंध में विशिष्ट दिशा-निर्देश निर्धारित करने की आवश्यकता है।
  • अल्पसंख्यक संस्थानों के संबंध में RTE के तहत दी गई छूट की समीक्षा करने की आवश्यकता है।
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक संरक्षण के लिये अपने संस्थान खोलने का अधिकार सुनिश्चित करता है।
    • हालाँकि RTE को अनुच्छेद 21 (A) का उल्लंघन नहीं करना चाहिये जो बच्चे की शिक्षा के मौलिक अधिकार की रक्षा करता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

ITBP में कॉम्बैट भूमिका में महिलाएँ

प्रिलिम्स के लिये

भारत-तिब्बत सीमा पुलिस

मेन्स के लिये

कॉम्बैट भूमिका में महिलाएँ: पक्ष और विपक्ष

चर्चा में क्यों?

पहली बार ‘भारत-तिब्बत सीमा पुलिस’ (ITBP) में महिला अधिकारियों को कॉम्बैट भूमिका में कमीशन किया गया है। इसमें दो महिला अधिकारी ‘सहायक कमांडेंट’ (AC) के रूप में शामिल हुई हैं। 

भारत-तिब्बत सीमा पुलिस

  • ‘भारत-तिब्बत सीमा पुलिस’ (ITBP) भारत सरकार के गृह मंत्रालय के तहत कार्यरत एक केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल है।
    • अन्य केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल हैं: असम राइफल्स (AR), सीमा सुरक्षा बल (BSF), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF), केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF), राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG) और सशस्त्र सीमा बल (SSB)।
  • ITBP की स्थापना 24 अक्तूबर, 1962 को भारत-चीन युद्ध के दौरान की गई थी और यह एक सीमा रक्षक पुलिस बल है जिसके पास ऊँचाई वाले अभियानों की विशेषज्ञता है।
  • वर्तमान में ITBP लद्दाख में काराकोरम दर्रे से लेकर अरुणाचल प्रदेश के जचेप ला तक 3488 किलोमीटर भारत-चीन सीमा की सुरक्षा हेतु उत्तरदायी है।
  • ITBP को नक्सल विरोधी अभियानों और अन्य आंतरिक सुरक्षा मुद्दों के लिये भी तैनात किया जाता है।
  • ITBP को प्रारंभ में ‘केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल’ (CRPF) अधिनियम, 1949 के तहत स्थापित किया गया था। हालाँकि वर्ष 1992 में संसद ने ITBP अधिनियम लागू किया और वर्ष 1994 में इसके संबंध में नियम बनाए गए।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  •  ITBP में अधिकारियों के रूप में शामिल होने वाली महिला अधिकारी पहले भी कॉम्बैट भूमिकाओं में कार्य कर चुकी हैं।
  • हालाँकि यह वर्ष 2016 में ही पहली बार हुआ था, जब ‘संघ लोक सेवा आयोग’ (UPSC) द्वारा आयोजित ‘केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल’ (CAPF) प्रवेश परीक्षा के माध्यम से कॉम्बैट अधिकारियों के रूप में महिलाओं की नियुक्ति को मंज़ूरी दी गई थी।

भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं की स्थिति (रक्षा मंत्रालय के तहत):

  • थलसेना, वायु सेना और नौसेना में वर्ष 1992 में महिलाओं को शॉर्ट-सर्विस कमीशन (SSC) अधिकारियों के रूप में शामिल किया गया था।
    • यह पहली बार था जब महिलाओं को मेडिकल स्ट्रीम से अलग सेना की अन्य ब्रांचों में शामिल होने की अनुमति दी गई थी।
  • सेना में महिलाओं के लिये एक महत्त्वपूर्ण समय वर्ष 2015 में तब आया जब भारतीय वायु सेना (IAF) ने उन्हें कॉम्बैट स्ट्रीम में शामिल करने का निर्णय लिया।
  • वर्ष 2020 में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने केंद्र सरकार को सेना की गैर-कॉम्बैट सहायता इकाइयों में महिला अधिकारियों को उनके पुरुष समकक्षों के बराबर स्थायी कमीशन (PC) देने का आदेश दिया।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने महिला अधिकारियों की शारीरिक सीमा को लेकर सरकार के तर्क को ‘लैंगिक रूढ़िवादिता’ और ‘महिलाओं के विरुद्ध लिंग भेदभाव’ पर आधारित होने के रूप में खारिज कर दिया था।
    • वर्तमान में महिला अधिकारियों को भारतीय सेना में उन सभी दस स्ट्रीम्स में स्थायी कमीशन दिया गया है जहाँ महिलाओं को शॉर्ट-सर्विस कमीशन अधिकारियों के रूप में शामिल किया गया था।
    • महिलाएँ अब पुरुष अधिकारियों के समान सभी कमांड नियुक्तियाँ प्राप्त करने हेतु पात्र हैं, जो उनके लिये उच्च पदों पर पदोन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।
  • वर्ष 2021 की शुरुआत में भारतीय नौसेना ने लगभग 25 वर्षों के अंतराल के बाद चार महिला अधिकारियों को युद्धपोतों पर तैनात किया था।
    • भारत का विमानवाहक पोत ‘आईएनएस विक्रमादित्य’ और फ्लीट टैंकर ‘आईएनएस शक्ति’ ऐसे पहले युद्धपोत हैं, जिन पर 1990 के दशक के बाद से पहली बार किसी महिला चालक को नियुक्त किया गया है।
  • मई 2021 में सेना ने सैन्य पुलिस कोर में महिलाओं के पहले बैच को शामिल किया था, यह पहली बार था जब महिलाएँ गैर-अधिकारी कैडर में सेना में शामिल हुई थीं।
    • हालाँकि महिलाओं को अभी भी इन्फैंट्री और आर्मर्ड कॉर्प्स जैसी लड़ाकू टुकड़ियों में शामिल होने की अनुमति नहीं है।

कॉम्बैट भूमिका में महिलाओं से संबंधित मुद्दे

  • शारीरिक संरचना संबंधी मुद्दे: महिला-पुरुष के बीच कद, ताकत और शारीरिक संरचना में प्राकृतिक विभिन्नता के कारण महिलाएँ चोटों और चिकित्सीय समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील हैं।
    • पुरुषों की तुलना में अधिकांश महिलाओं में प्री-एंट्री फिज़िकल फिटनेस का स्तर कम होता है।
    • ऐसे में जब महिलाओं और पुरुषों के लिये प्रशिक्षण के समान मानक स्थापित किये जाते हैं तो महिलाओं में चोट लगने की संभावना अधिक होती है।
  • शारीरिक क्रिया संबंधी मुद्दे: मासिक धर्म और गर्भावस्था की प्राकृतिक प्रक्रियाएँ महिलाओं को विशेष रूप से युद्ध स्थितियों में कमज़ोर बनाती हैं।
    • गोपनीयता और स्वच्छता की कमी के परिणामस्वरूप संक्रमण की घटनाओं में भी वृद्धि हो सकती है।
    • इसके अलावा कठिन युद्धों में लंबे समय तक तैनाती और महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर शारीरिक गतिविधियों के गंभीर प्रभाव अभी भी अज्ञात हैं।
  • सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मुद्दे: महिलाएँ अपने परिवारों, विशेषकर अपने बच्चों से अधिक जुड़ी होती हैं।
    • वह परिवार से लंबे समय तक अलगाव के दौरान अधिक मानसिक तनाव में होती हैं जो कि सामाजिक समर्थन की आवश्यकता को इंगित करता है।
    • मिलिट्री सेक्सुअल ट्रामा (MST) और महिलाओं के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव काफी गंभीर होता है।
  • सांस्कृतिक मुद्दे: भारतीय समाज में मौजूद सांस्कृतिक बाधाएँ युद्ध में महिलाओं को शामिल करने में सबसे बड़ी रुकावट हो सकती है।

कॉम्बैट भूमिका में महिलाएँ: पक्ष

  • लिंग कोई बाधा नहीं है: जब तक कोई आवेदक किसी पद के लिये योग्य होता है, तब तक उसका लिंग कोई बाधा नहीं होता है। आधुनिक उच्च प्रौद्योगिकी, युद्ध क्षेत्र में तकनीकी विशेषज्ञता और निर्णयन कौशल साधारण शारीरिक शक्ति की तुलना में अधिक मूल्यवान होते जा रहे हैं।
  • सैन्य तत्परता: लैंगिक मिश्रण की अनुमति देने से सेना और अधिक मज़बूत होती है। रिटेंशन तथा भर्ती दरों में गिरावट से सशस्त्र बल गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है। एसे में महिलाओं को लड़ाकू भूमिका में अनुमति देकर इस चुनौती से निपटा जा सकता है।
  • प्रभावशीलता: महिलाओं पर पूर्णतः और मनमाना प्रतिबंध लागू करना, सैन्य थिएटर में कमांडरों की नियुक्ति के लिये सबसे सक्षम व्यक्ति के चयन की प्रकिया को सीमित करता है।
  • परंपरा: युद्ध इकाइयों में महिलाओं के एकीकरण की सुविधा के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। समय के साथ संस्कृतियाँ बदलती हैं और नवीन संस्कृतियाँ विकसित होती है।
  • वैश्विक परिदृश्य: वर्ष 2013 में पहली बार महिलाओं को आधिकारिक तौर पर अमेरिकी सेना में लड़ाकू पदों के लिये अनुमति दी गई थी, इस निर्णय को लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया था। वर्ष 2018 में ब्रिटेन की सेना ने महिलाओं के लिये युद्धक भूमिकाओं में सेवा करने पर प्रतिबंध हटा दिया, जिससे उनके लिये विशिष्ट विशेष बलों में सेवा करने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

आगे की राह

  • महिलाओं को इस कारण से कमांड पोस्ट से बाहर रखा जा रहा था कि इस निर्णय के कारण व्यापक तौर पर सेना के संगठनात्मक ढाँचे में चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती थीं। किंतु अब समय है, जब न केवल सेना के संगठनात्मक ढाँचे को महिलाओं के अनुकूल बनाया जाए बल्कि समग्र तौर पर समाज की संस्कृति, मानदंडों और मूल्यों में भी परिवर्तन किया जाए। इन परिवर्तनों को आगे बढ़ाने का दायित्व वरिष्ठ सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व का है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका, इज़राइल, उत्तर कोरिया, फ्रांँस, जर्मनी, नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा उन वैश्विक सेनाओं में हैं, जो महिलाओं को अग्रिम पंक्ति में युद्ध की स्थिति में नियुक्त करते हैं।
  • प्रत्येक महिला को अपनी पसंद के कॅरियर का चयन करने और शीर्ष पर पहुँचने का अधिकार है, क्योंकि समानता संविधान द्वारा प्रदान किया गया एक मौलिक अधिकार है।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

वैश्विक युवा तंबाकू सर्वेक्षण- 4

प्रिलिम्स के लिये

 वैश्विक युवा तंबाकू सर्वेक्षण, विश्व तंबाकू निषेध दिवस, विश्व स्वास्थ्य संगठन

मेन्स के लिये 

तंबाकू नियंत्रण हेतु किये गए विभिन्न प्रयास

चर्चा में क्यों?

हाल ही में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) द्वारा वैश्विक युवा तंबाकू सर्वेक्षण (GYTS-4) के चौथे चरण की शुरुआत की गई । 

प्रमुख बिंदु

परिचय:

  • स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) के तहत इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज़ (IIPS)) द्वारा वर्ष 2019 में वैश्विक युवा तंबाकू सर्वेक्षण का चौथा चरण (GYTS-4) आयोजित किया गया था।
    • IIPS, मुंबई जिसे पहले 1970 तक जनसांख्यिकी प्रशिक्षण और अनुसंधान केंद्र (DTRC) के रूप में जाना जाता था, की स्थापना सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट, भारत सरकार और संयुक्त राष्ट्र (UN) के संयुक्त प्रयोजन के तहत वर्ष 1956 में की गई थी।
    •  यह एशिया और  प्रशांत क्षेत्र (ESCAP) के लिये आर्थिक और सामाजिक आयोग हेतु जनसंख्या अध्ययन के मामले में प्रशिक्षण और अनुसंधान हेतु एक क्षेत्रीय संस्थान के रूप में कार्य करता है।
  • सर्वेक्षण को राज्य और केंद्रशासित प्रदेश (UT) में 13-15 वर्ष की आयु के स्कूल जाने वाले बच्चों की लैंगिकता, स्कूल के स्थान (ग्रामीण-शहरी) और स्कूल के प्रबंधन (सार्वजनिक-निजी) के बीच तंबाकू के उपयोग का राष्ट्रीय अनुमान तैयार करने के लिये डिज़ाइन किया गया था। 
  • GYTS के पहले तीन चरण 2003, 2006 और 2009 में आयोजित किये गए थे।
  • सर्वेक्षण में 987 स्कूलों के कुल 97,302 छात्रों ने भाग लिया।

सर्वेक्षण का उद्देश्य:

  • सर्वेक्षण का उद्देश्य तंबाकू के उपयोग, तंबाकू को छोड़ना, दूसरों द्वारा किये गए धूम्रपान का असर, पहुँच और उपलब्धता, तंबाकू के दुष्परिणाम बताने वाली जानकारियों तक पहुँच, जागरूकता व तंबाकू की मार्केटिंग, जानकारी एवं दृष्टिकोण आदि के सबंध में सूचना प्रदान करना था।

प्रमुख परिणाम:

  • तंबाकू के प्रयोग में गिरावट:
    • पिछले एक दशक में स्कूल जाने वाले 13-15 वर्ष के बच्चों में तंबाकू के सेवन में 42 प्रतिशत की गिरावट आई है।
    • 13-15 वर्ष की आयु के छात्रों में से करीब प्रत्येक 5 में एक ने अपने जीवन में किसी भी प्रकार के तंबाकू उत्पाद (धूम्रपान, धुआँ रहित और किसी भी अन्य रूप) का उपयोग किया।
  • लिंग आधारित उपयोग:
    • किसी भी प्रकार के तंबाकू के सेवन की मात्रा के मामले में लड़कों की संख्या अधिक थी। लड़कों में तंबाकू के सेवन का प्रसार 9.6 प्रतिशत और लड़कियों में 7.4 प्रतिशत था।
  • राज्यवार आँकड़ा:
    • स्कूल जाने वाले बच्चों में तंबाकू का सेवन करने वाले अरुणाचल प्रदेश और मिज़ोरम में सबसे अधिक तथा हिमाचल प्रदेश एवं कर्नाटक में सबसे कम थे।
  • तंबाकू की शुरुआत की उम्र:
    • सिगरेट का इस्तेमाल करने वाले 38 प्रतिशत, बीड़ी का इस्तेमाल करने वाले 47 प्रतिशत और धूम्रपान रहित तंबाकू का इस्तेमाल करने वाले 52 प्रतिशत ने 10 वर्ष की आयु से पूर्व ही तंबाकू का इस्तेमाल शुरू कर दिया।
    • सिगरेट, बीड़ी तथा धूम्रपान रहित तंबाकू के सेवन की शुरुआती औसत आयु क्रमशः 11.5 वर्ष, 10.5 वर्ष और 9.9 वर्ष थी।
  • जागरूकता:
    • 52 प्रतिशत छात्रों ने मुख्य/मास मीडिया में तंबाकू के दुष्परिणाम बताने वाले संदेशों को तथा 18 प्रतिशत छात्रों ने बिक्री स्थलों पर तंबाकू के हानिकारक विज्ञापन या प्रचार को देखा।
    • 85% स्कूल प्रमुख रूप से सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम (COTPA), 2003 से अवगत थे और 83% स्कूल 'तंबाकू मुक्त स्कूल' बोर्ड प्रदर्शित करने की नीति से अवगत थे।

 भारत में तंबाकू नियंत्रण की दिशा में उपाय:

  •  WHO FCTC को अपनाना:
  • COTPA, 2003:
    • इसने 1975 के सिगरेट अधिनियम को प्रतिस्थापित कर दिया (बड़े पैमाने पर वैधानिक चेतावनियों के ज़रिये- 'सिगरेट धूम्रपान स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है' जिसे सिगरेट पैक और विज्ञापनों पर प्रदर्शित किया जाता है। इसमें गैर-सिगरेट उत्पाद शामिल नहीं थे)।
    • वर्ष 2003 के  इस अधिनियम में सिगार, बीड़ी, चुरूट, पाइप तंबाकू, हुक्का, चबाने वाला तंबाकू, पान मसाला और गुटखा भी शामिल था।
  • इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट निषेध अध्यादेश, 2019 की घोषणा:
    • यह ई-सिगरेट के उत्पादन, निर्माण, आयात, निर्यात, परिवहन, बिक्री, वितरण, भंडारण और विज्ञापन को प्रतिबंधित करता है।
  • नेशनल टोबैको क्विटलाइन सर्विसेज़ (NTQLS): 
    • टोबैको क्विटलाइन सर्विसेज़ में बड़ी संख्या में तंबाकू उपयोगकर्त्ताओं तक पहुँचने की क्षमता है, जिसका एकमात्र उद्देश्य तंबाकू बंद करने के लिये टेलीफोन आधारित जानकारी, सलाह, समर्थन और रेफरल प्रदान करना है।
  • एम-सेसेशन कार्यक्रम (mCessation Programme):
    • यह तंबाकू छोड़ने के लिये मोबाइल प्रौद्योगिकी आधारित एक पहल है।
    • भारत ने सरकार की डिजिटल इंडिया पहल के हिस्से के रूप में वर्ष 2016 में टेक्स्ट संदेशों का उपयोग करते हुए mCessation की शुरुआत की थी।

वैश्विक पहल:

  • विश्व तंबाकू निषेध दिवस- 31 मई
  • WHO फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल : विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा ‘WHO फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल’ (WHO FCTC) के तंबाकू नियंत्रण प्रावधानों को अपनाया गया है और लागू किया गया है।

आगे की राह 

  • तंबाकू के सेवन से होने वाले नुकसान के बारे में बच्चों और उनके माता-पिता के बीच जागरूकता पैदा करने तथा इस संबंध में बच्चों के दृष्टिकोण को आकार देने में शिक्षकों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है।
  • तंबाकू के सेवन से होने वाले नुकसान के बारे में बच्चों में जितनी जल्दी जागरूकता पैदा की जाएगी, बच्चों में और इसके परिणामस्वरूप वयस्कों में तंबाकू के उपयोग की व्यापकता में कमी लाने के परिणाम बेहतर होंगे।
  • तंबाकू सेवन के हानिकारक प्रभावों को प्राथमिक विद्यालय स्तर से ही विभिन्न स्तरों पर स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिये।

स्रोत : द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

विश्व शेर दिवस 2021

प्रिलिम्स के लिये

विश्व शेर दिवस

मेन्स के लिये 

शेरों के संरक्षण संबंधी प्रयास

चर्चा में क्यों?

वैश्विक स्तर पर शेरों के संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये प्रतिवर्ष 10 अगस्त को ‘विश्व शेर दिवस’ का आयोजन किया जाता है।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  • शेरों के संरक्षण की पहल वर्ष 2013 में शुरू हुई थी और इसी वर्ष पहला ‘विश्व शेर दिवस’ भी आयोजित किया गया था।
  • पिछले 100 वर्षों में शेरों की आबादी में 80% की गिरावट दर्ज की गई है।
    • इस दिवस के आयोजन का प्रमुख लक्ष्य शेरों को उनके प्राकृतिक आवास में संरक्षित करने हेतु जागरूकता बढ़ाना है।
  • यह शेर समुदाय की सुरक्षा संबंधी उपायों पर भी काम करता है।

शेर

  • वैज्ञानिक नाम: पैंथेरा लियो
    • शेर को दो उप-प्रजातियों में विभाजित किया गया है: अफ्रीकी शेर (पैंथेरा लियो लियो) और एशियाई शेर (पैंथेरा लियो पर्सिका)।
  • प्राणिजगत में शेरों की भूमिका
    • शेर वन पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान पर मौजूद हैं, वह अपने आवास का  शीर्ष शिकारी है, जो चरवाहों की आबादी को नियंत्रित कर पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।
    • शेर अपने शिकार की आबादी को स्वस्थ रखने और उनके बीच लचीलापन बनाए रखने में भी योगदान देते हैं, क्योंकि वे झुंड के सबसे कमज़ोर सदस्यों को निशाना बनाते हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से शिकार, आबादी में रोग नियंत्रण में मदद करता है।
  • खतरा: अवैध शिकार, एक स्थान पर रहने वाली एक ही तरह की आबादी से उत्पन्न आनुवंशिक अंतर्प्रजनन, रोग जैसे- प्लेग, कैनाइन डिस्टेंपर या प्राकृतिक आपदा।
  • संरक्षण स्थिति:
    • IUCN रेड लिस्ट: संवेदनशील
      • एशियाई शेर: संकटग्रस्त
    • CITES: भारतीय आबादी के लिये परिशिष्ट- I एवं अन्य सभी आबादी परिशिष्ट- II
    • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972: अनुसूची- I
  • भारत में स्थिति
    • भारत एशियाई शेरों का प्रमुख आवास स्थान है और ये मुख्य तौर पर सासन-गिर राष्ट्रीय उद्यान (गुजरात) के संरक्षित क्षेत्र में निवास करते हैं।
    • वर्ष 2020 के आँकड़ों के मुताबिक, भारत में कुल 674 शेर हैं, जबकि वर्ष 2015 में यह संख्या 523 से अधिक थी।
  • संरक्षण संबंधी प्रयास
    • प्रोजेक्ट लायन:प्रोजेक्ट टाइगर’ और ‘प्रोजेक्ट एलीफैंट’ की तर्ज पर अगस्त 2020 में घोषित प्रोजेक्ट लायन के तहत ‘कुनो-पालपुर वन्यजीव अभयारण्य’ (मध्य प्रदेश) के अलावा छह नए स्थलों की पहचान की गई है।
      • यह कार्यक्रम एशियाई शेर के संरक्षण के लिये शुरू किया गया है, जिसकी अंतिम शेष जंगली आबादी गुजरात के ‘एशियाई शेर लैंडस्केप’ (ALL) में मौजूद है।
    • इससे पूर्व केंद्रीय ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा ‘एशियाई शेर संरक्षण परियोजना’ शुरू की गई थी। इसे वर्ष 2018 से वर्ष 2021 तक तीन वित्तीय वर्षों के लिये मंज़ूरी दी गई थी।
      • इसके तहत एशियाई शेरों के समग्र संरक्षण के लिये रोग नियंत्रण एवं पशु चिकित्सा देखभाल हेतु बहु-क्षेत्रीय एजेंसियों के साथ समन्वय में समुदायों की भागीदारी के साथ वैज्ञानिक प्रबंधन की परिकल्पना की गई है।
    • शेरों की जनगणना प्रत्येक पाँच वर्ष में एक बार आयोजित की जाती है।
  • बिल्ली की अन्य बड़ी प्रजातियाँ भी अधिकतर भारत में पाई जाती हैं, जिनमें रॉयल बंगाल टाइगर, भारतीय तेंदुआ, क्लाउडेड लेपर्ड और स्नो लेपर्ड शामिल हैं।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स


शासन व्यवस्था

उज्ज्वला 2.0

प्रिलिम्स के लिये 

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, विश्व जैव ईंधन दिवस, गोबर धन योजना 

मेन्स के लिये 

प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना 2.0 के उद्देश्य एवं महत्त्व तथा संबंधित चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (PMUY) या उज्ज्वला 2.0 योजना के दूसरे चरण का शुभारंभ किया।

  • उन्होंने विश्व जैव ईंधन दिवस (10 अगस्त) के अवसर पर “गोबर धन” को बढ़ावा देने की योजनाओं का उल्लेख किया– ऊर्जा के लिये गाय के गोबर का दोहन
  • उज्जवला व्यवहार परिवर्तन के महत्त्वाकांक्षी एजेंडे का हिस्सा है जो भारत को 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था में स्थानांतरित करने में मदद करेगा।

प्रमुख बिंदु

परिचय:

  • PMUY-I:
    • गरीब परिवारों को एलपीजी (तरलीकृत पेट्रोलियम गैस) कनेक्शन प्रदान करने के लिये मई 2016 में शुरू किया गया।
  • PMUY-II:
    • इसका उद्देश्य उन प्रवासियों को अधिकतम लाभ प्रदान करना है जो दूसरे राज्यों में रहते हैं और उन्हें अपने पते का प्रमाण प्रस्तुत करने में कठिनाई होती है।
    • अब उन्हें लाभ उठाने के लिये केवल "सेल्फ डिक्लेरेशन" देना होगा।

उद्देश्य:

  • महिलाओं को सशक्त बनाना और उनके स्वास्थ्य की रक्षा करना।
  • भारत में अशुद्ध खाना पकाने के ईंधन के कारण होने वाली मौतों की संख्या को कम करना।
  • घर के अंदर जीवाश्म ईंधन जलाने से वायु प्रदूषण के कारण छोटे बच्चों को होने वाली श्वास संबंधी गंभीर बीमारियों से बचाना।

विशेषताएँ:

  • इस योजना में बीपीएल परिवारों को प्रत्येक एलपीजी कनेक्शन के लिये 1600 रुपए की वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
  • एक जमा-मुक्त एलपीजी कनेक्शन के साथ उज्ज्वला 2.0 लाभार्थियों को पहली रिफिल और एक हॉटप्लेट निःशुल्क प्रदान किया जाएगा।

लक्ष्य :

  • उज्ज्वला 1.0 के तहत मार्च 2020 तक गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के परिवारों की 50 मिलियन महिलाओं को एलपीजी कनेक्शन प्रदान करने का लक्ष्य था। हालाँकि अगस्त 2018 में सात अन्य श्रेणियों की महिलाओं को योजना के दायरे में लाया गया था, इनमें शामिल हैं:
  • उज्जवला 2.0 के तहत लाभार्थियों को अतिरिक्त 10 मिलियन एलपीजी कनेक्शन प्रदान किये जाएंगे।
    • सरकार ने 50 ज़िलों के 21 लाख घरों में पाइप से गैस पहुँचाने का भी लक्ष्य रखा है।

नोडल मंत्रालय:

  •  पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय (MoPNG)।

उपलब्धियाँ:

  • PMUY के पहले चरण में दलित और आदिवासी समुदायों सहित 8 करोड़ गरीब परिवारों को मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन दिये गए।
  •  देश में रसोई गैस के बुनियादी ढाँचे का कई गुना विस्तार हुआ है। पिछले छह वर्षों में देश भर में 11,000 से अधिक नए एलपीजी वितरण केंद्र खोले गए हैं।

चुनौतियाँ :

  • रिफिल की कम खपत:
    • एलपीजी के निरंतर उपयोग को प्रोत्साहित करना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, और रिफिल की कम खपत ने योजना के तहत वितरित बकाया ऋण की वसूली में बाधा उत्पन्न की।
    • 31 दिसंबर, 2018 को वार्षिक औसत प्रति उपभोक्ता सिर्फ 3.21 रिफिल थी।
  • प्रणाली संबंधित विसंगतियाँ:
    • अनपेक्षित लाभार्थियों को कनेक्शन जारी करने जैसी कमियाँ तथा राज्य संचालित तेल विपणन कंपनियों के सॉफ्टवेयर के साथ समस्याएँ देखी गई हैं, जो कि लाभार्थियों की पहचान करने के लिये डिडुप्लीकेशन प्रक्रिया में अपर्याप्तता को दर्शाता है।

आगे की राह 

  • इस योजना को शहरी और अर्द्ध-शहरी स्लम क्षेत्रों के गरीब परिवारों तक विस्तारित किया जाना चाहिये।
  • जिन घरों में एलपीजी नहीं है, उन्हें कनेक्शन प्रदान करके अधिक जनसंख्या तक उच्च एलपीजी कवरेज की आवश्यकता है।
  • अपात्र लाभार्थियों को कनेक्शन हेतु प्रतिबंधित करने के लिये वितरकों के सॉफ्टवेयर में डिडुप्लीकेशन (Deduplication) के प्रभावी और उचित उपाय करने हेतु मौजूदा एवं नए लाभार्थियों के परिवार के सभी वयस्क सदस्यों के आधार नंबर दर्ज करना।

स्रोत : द हिंदू


सामाजिक न्याय

मारबर्ग वायरस

प्रिलिम्स के लिये

मारबर्ग वायरस

मेन्स के लिये

मारबर्ग वायरस: लक्षण, उपचार और निदान

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पश्चिम अफ्रीका के गिनी में अत्यंत संक्रामक और घातक ‘मारबर्ग वायरस’ के पहले मामले की पुष्टि हुई है।

  • देश को इबोला मुक्त घोषित किये जाने के ठीक दो माह बाद पहली बार इसके पहले मामले की पहचान की गई थी।
  • मारबर्ग वायरस के मामले और इस वर्ष के इबोला वायरस के मामले दोनों ही गिनी के ‘गुएकेडौ ज़िले में पाए गए हैं।
  • वर्ष 2014-2016 के दौरान इबोला महामारी के प्रारंभिक मामले भी दक्षिणपूर्वी गिनी के वन क्षेत्र में ही पाए गए थे।

West-Africa

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  • ‘मारबर्ग वायरस’ रोग एक अत्यधिक विषाणुजनित रोग है, जो रक्तस्रावी बुखार का कारण बनता है, इसका प्रसार चमगादड़ द्वारा किया जाता है और इसमें मृत्यु दर 88% से अधिक है।
  • यह वायरस भी इबोला वायरस परिवार से संबंधित है।
  • वर्ष 1967 में मारबर्ग और फ्रैंकफर्ट (जर्मनी) तथा बेलग्रेड (सर्बिया) में एक साथ वायरस के दो बड़े प्रकोप देखे गए थे।
    • ये प्रकोप युगांडा से आयातित अफ्रीकी हरे बंदरों (सर्कोपिथेकस एथियोप्स) के उपयोग संबंधी प्रयोगशाला के कार्य से जुड़े हुए थे।
  • इसके बाद अंगोला, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, केन्या, दक्षिण अफ्रीका और युगांडा में प्रकोप देखे गए।
  • वर्ष 1967 से अब तक मारबर्ग वायरस के कुल 12 प्रकोप हो चुके हैं, जिसमें से अधिकतर दक्षिणी और पूर्वी अफ्रीका में हुए।

मानव- संक्रमण

  • ‘मारबर्ग वायरस’ रोग के साथ मानव संक्रमण प्रारंभ में ऐसी खानों या गुफाओं के लंबे समय तक संपर्क का परिणाम था, जिनमें ‘राउसेटस बैट कॉलोनियाँ’ मौजूद थीं।
    • राउसेटस ओल्ड वर्ल्ड फ्रूट बैट या मेगाबैट्स की एक प्रजाति है। इन्हें डॉग-फेसड फ्रूट बैट या ‘फ्लाइंग फॉक्स’ के रूप में जाना जाता है।

संचरण:

  • एक बार जब कोई व्यक्ति इस वायरस से संक्रमित हो जाता है, तो मारबर्ग मानव-से-मानव संचरण के माध्यम से सीधे संपर्क (त्वचा या श्लेष्मा झिल्ली) द्वारा संक्रमित लोगों के रक्त, स्राव, अंगों या अन्य शारीरिक तरल पदार्थ और सतहों तथा सामग्रियों के साथ फैल सकता है (जैसे बिस्तर और कपड़े आदि)।

लक्षण:

  • सिरदर्द, उल्टी में रक्त आना, मांसपेशियों में दर्द और विभिन्न छिद्रों से रक्तस्राव।
  • इसके लक्षण तीव्र गति से गंभीर रूप ले सकते हैं और इससे पीलिया, अग्न्याशय की सूजन, तीव्र वज़न हास्र, लीवर की विफलता, बड़े पैमाने पर रक्तस्राव तथा बहु-अंग रोग आदि हो सकते हैं।

निदान:

उपचार:

  • मारबर्ग रक्तस्रावी बुखार के लिये कोई विशिष्ट उपचार या अनुमोदित टीका नहीं है। इसमें अस्पताल समर्थित चिकित्सा पद्धति का उपयोग किया जाना चाहिये।
  • अस्पताल समर्थित चिकित्सा पद्धति में रोगी के तरल पदार्थ तथा इलेक्ट्रोलाइट्स को संतुलित करना, ऑक्सीजन की स्थिति और रक्तचाप को बनाए रखना, रक्त की कमी एवं रक्त के थक्के के कारकों को बदलना एवं किसी भी जटिल संक्रमण के लिये उपचार शामिल है।

स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस 


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2