डेली न्यूज़ (10 Jan, 2024)



रोगाणुरोधी प्रतिरोध

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (NCDC), रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR), विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR)

मेन्स के लिये:

रोगाणुरोधी प्रतिरोध, सरकारी नीतियाँ और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप तथा उनके डिज़ाइन एवं कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रोगाणुरोधी प्रतिरोध (Antimicrobial Resistance- AMR) के बारे में बढ़ती चिंताओं के बीच, राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (National Centre for Disease Control- NCDC) द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में अस्पतालों में एंटीबायोटिक दवाओं के नुस्खे और उपयोग के संबंध में कई प्रमुख निष्कर्षों पर प्रकाश डाला गया।

सर्वेक्षण के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • एंटीबायोटिक्स का निवारक उपयोग:
    • सर्वेक्षण में शामिल आधे से अधिक रोगियों (55%) को संक्रमण के इलाज के लिये चिकित्सीय उद्देश्यों (45%) के बजाय रोगनिरोधी संकेतों हेतु एंटीबायोटिक्स निर्धारित की गईं, जिनका उद्देश्य संक्रमण को रोकना था।
  • एंटीबायोटिक प्रिस्क्रिप्शन पैटर्न:
    • केवल कुछ ही रोगियों (6%) को उनकी बीमारी (निश्चित चिकित्सा) का कारण बनने वाले विशिष्ट बैक्टीरिया के निदान की पुष्टि के बाद एंटीबायोटिक्स निर्धारित किये गए थे, जबकि अधिकांश (94%) बीमारी के संभावित कारण के डॉक्टर के नैदानिक ​​मूल्यांकन के आधार पर अनुभवजन्य चिकित्सा पर थे।
  • विशिष्ट निदान का अभाव:
    • 94% रोगियों को निश्चित चिकित्सा निदान की पुष्टि होने से पहले एंटीबायोटिक्स प्राप्त हुए, जो संक्रमण के कारण के सटीक ज्ञान के बिना एंटीबायोटिक दवाओं के प्रचलित उपयोग को उजागर करता है।
  • अस्पतालों में भिन्नता:
    • अस्पतालों में एंटीबायोटिक प्रिस्क्रिप्शन दरों में व्यापक भिन्नताएँ पाई गई थीं, 37% से लेकर 100% रोगियों को एंटीबायोटिक्स निर्धारित किये गए थे।
    • निर्धारित एंटीबायोटिक दवाओं का एक महत्त्वपूर्ण अनुपात (86.5%) पैरेंट्रल मार्ग (मौखिक रूप से नहीं) के माध्यम से दिया गया था।
  • AMR के चालक:
    • NCDC सर्वेक्षण में कहा गया है कि एंटीबायोटिक प्रतिरोध के विकास के लिये मुख्य कारकों में से एक एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक और अनुचित उपयोग है। 

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) क्या है?

  • परिचय:
    • रोगाणुरोधी प्रतिरोध (Antimicrobial Resistance-AMR) का तात्पर्य किसी भी सूक्ष्मजीव (बैक्टीरिया, वायरस, कवक, परजीवी, आदि) द्वारा एंटीमाइक्रोबियल दवाओं (जैसे एंटीबायोटिक्स, एंटीफंगल, एंटीवायरल, एंटीमाइरियल और एंटीहेलमिंटिक्स) जिनका उपयोग संक्रमण के इलाज के लिये किया जाता है, के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेने से है। 
      • परिणामस्वरूप मानक उपचार अप्रभावी हो जाते हैं, संक्रमण जारी रहता है और दूसरों में फैल सकता है।
    • यह एक प्राकृतिक घटना है क्योंकि बैक्टीरिया विकसित होते हैं, जिससे संक्रमण के इलाज के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाएँ कम प्रभावी हो जाती हैं।
    • रोगाणुरोधी प्रतिरोध विकसित करने वाले सूक्ष्मजीवों को कभी-कभी "सुपरबग्स" के रूप में जाना जाता है।

AMR के प्रसार के कारण क्या हैं?

  • संचारी रोगों का उच्च प्रसार: तपेदिक, दस्त, श्वसन संक्रमण आदि जैसे संचारी रोगों का उच्च प्रसार, जिनके लिये रोगाणुरोधी उपचार की आवश्यकता होती है।
  • अत्यधिक बोझ से दबी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली: यह एटियलजि-आधारित निदान और उचित रूप से लक्षित उपचार के लिये प्रयोगशाला क्षमता को सीमित करती है।
  • खराब संक्रमण नियंत्रण प्रथाएँ: अस्पतालों और क्लीनिकों में स्वच्छता संबंधी खामियाँ प्रतिरोधी बैक्टीरिया के प्रसार को बढ़ावा देती हैं।
  • अविवेकपूर्ण उपयोग: मरीज़ों के दबाव में डॉक्टरों द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा दवाएँ लिखना (अक्सर स्व-दवा), अधूरे एंटीबायोटिक कोर्स और ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक दवाओं का अनावश्यक रूप से इस्तेमाल प्रतिरोधी बैक्टीरिया के लिये चयनात्मक दबाव पैदा करता है।
    • आसान पहुँच: एंटीबायोटिक दवाओं की अनियमित ओवर-द-काउंटर उपलब्धता और सामर्थ्य स्व-दवा तथा अनुचित उपयोग को बढ़ावा देती है।
  • जागरूकता की कमी: AMR और एंटीबायोटिक के उचित उपयोग के बारे में लोगों की कम समझ दुरुपयोग को बढ़ावा देती है।
  • सीमित निगरानी: पर्याप्त निगरानी प्रणालियों की कमी के कारण AMR के दायरे को ट्रैक करना और समझना मुश्किल हो जाता है।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध के प्रसार के निहितार्थ क्या हैं?

  • स्वास्थ्य सेवा पर प्रभाव:
    • AMR बैक्टीरिया संक्रमण के खिलाफ पहले से प्रभावी एंटीबायोटिक दवाओं को अप्रभावी बना सकता है। इससे निमोनिया, मूत्र पथ के संक्रमण और त्वचा संक्रमण जैसी सामान्य बीमारियों का इलाज जटिल हो जाता है, जिससे लंबी बीमारियाँ, अधिक गंभीर लक्षण तथा मृत्यु दर में वृद्धि होती है।
  • स्वास्थ्य देखभाल लागत में वृद्धि:
    • प्रतिरोधी संक्रमणों के इलाज के लिये अक्सर अधिक महंगी और दीर्घकालिक चिकित्सा, अस्पताल में अधिक समय तक भर्ती तथा कभी-कभी अधिक शल्य प्रक्रियाओं का उपयोग किया जाता है। इससे व्यक्तियों, स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों और सरकारों के लिये स्वास्थ्य देखभाल की लागत बढ़ जाती है।
  • चिकित्सा प्रक्रियाओं में चुनौतियाँ:
    • AMR कुछ चिकित्सीय प्रक्रियाओं को जोखिमपूर्ण बना देता है। मानक एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी संक्रमण के बढ़ते जोखिम के कारण सर्जरी, कैंसर कीमोथेरेपी और अंग प्रत्यारोपण अधिक खतरनाक हो जाते हैं।
  • उपचार विकल्पों में सीमाएँ:
    • जैसे-जैसे प्रतिरोध बढ़ता है, एंटीबायोटिक दवाओं की प्रभाव-कुशलता कम होती जाती है। उपचार विकल्पों में यह सीमा एक ऐसे परिदृश्य को जन्म दे सकती है जहाँ पहले से प्रबंधनीय संक्रमण अनुपचारित हो जाते हैं, जिससे दवा पूर्व-एंटीबायोटिक युग में पहुँच जाती है जहाँ सामान्य संक्रमण घातक हो सकते हैं।

AMR को संबोधित करने हेतु क्या उपाय किये गए हैं?

  • भारतीय:
    • AMR नियंत्रण पर राष्ट्रीय कार्यक्रम: इसे वर्ष 2012 में शुरू किया गया। इस कार्यक्रम के तहत राज्यों के मेडिकल कॉलेजों में प्रयोगशालाओं की स्थापना करके AMR निगरानी नेटवर्क को मज़बूत किया गया है।
    • AMR पर राष्ट्रीय कार्ययोजना: यह स्वास्थ्य दृष्टिकोण पर केंद्रित है और अप्रैल 2017 में विभिन्न हितधारक मंत्रालयों/विभागों को शामिल करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।
    • AMR सर्विलांस एंड रिसर्च नेटवर्क (AMRSN): इसे वर्ष 2013 में लॉन्च किया गया था ताकि देश में दवा प्रतिरोधी संक्रमणों के सबूत और प्रवृत्तियों तथा पैटर्न का अनुसरण किया जा सके।
    • AMR अनुसंधान और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने AMR में चिकित्सा अनुसंधान को मज़बूत करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से नई दवाओं को विकसित करने की पहल की है।
      • ICMR ने नॉर्वे की रिसर्च काउंसिल (RCN) के साथ मिलकर वर्ष 2017 में रोगाणुरोधी प्रतिरोध में अनुसंधान हेतु एक संयुक्त आह्वान शुरू किया।
      • ICMR ने संघीय शिक्षा और अनुसंधान मंत्रालय (BMBF), जर्मनी के साथ AMR पर शोध के लिये एक संयुक्त भारत-जर्मन सहयोग किया है।
    • एंटीबायोटिक प्रबंधन कार्यक्रम: ICMR ने अस्पताल के वार्डों और आईसीयू में एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग तथा अति प्रयोग को नियंत्रित करने के लिये भारत में एक पायलट परियोजना पर एंटीबायोटिक स्टीवर्डशिप कार्यक्रम शुरू किया है। 
      • DCGI ने अनुपयुक्त पाए गए 40 फिक्स डोज़ कॉम्बिनेशन पर प्रतिबंध लगा दिया है।
  • वैश्विक उपाय:
    • विश्व रोगाणुरोधी जागरूकता सप्ताह (WAAW): यह वर्ष 2015 से प्रतिवर्ष आयोजित किया जाने वाला एक वैश्विक अभियान है, इसका उद्देश्य विश्व भर में AMR के बारे में जागरूकता बढ़ाना और दवा प्रतिरोधी संक्रमणों के विकास व प्रसार की गति को धीमा करने के लिये आम जनता, स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं एवं नीति निर्माताओं के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं को प्रोत्साहित करना है।
    • वैश्विक रोगाणुरोधी प्रतिरोध और उपयोग निगरानी प्रणाली (GLASS): विश्व स्तर पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध संबंधी ज्ञान के अंतराल को कम करने तथा सभी स्तरों पर रणनीतियाँ साझा करने हेतु WHO ने वर्ष 2015 में वैश्विक रोगाणुरोधी प्रतिरोध और उपयोग निगरानी प्रणाली (GLASS) की शुरुआत की।
      • इसकी परिकल्पना मनुष्यों में AMR, रोगाणुरोधी दवाओं के उपयोग, खाद्य शृंखला तथा पर्यावरण में AMR की निगरानी से प्राप्त डेटा को क्रमिक रूप से शामिल करने के लिये की गई है।
    • ग्लोबल पॉइंट प्रेवेलेंस सर्वे मेथडोलाॅजी: रोगी स्तर पर एंटीबायोटिक दवाओं के निर्धारण और उपयोग संबंधी सीमित जानकारी की चुनौती से निपटने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अस्पतालों में निर्धारित पैटर्न को समझने के लिये ग्लोबल पॉइंट प्रेवेलेंस सर्वे मेथडोलाॅजी की शुरुआत की है। इसकी सहायता से निरंतर होने वाले सर्वेक्षणों में एंटीबायोटिक के उपयोग में बदलाव दर्ज किये जाते हैं।
    • इस पद्धति का उपयोग करके भारत में कुछ अध्ययन किये गए हैं।

आगे की राह

  • जन शिक्षण अभियान: लोगों को रोगाणुरोधी प्रतिरोध, इसके खतरों और इसे नियंत्रित करने के तरीके के बारे में सूचित करने के लिये जनसंचार माध्यमों, सामुदायिक आउटरीच कार्यक्रमों तथा स्थानीय भाषाओं में शैक्षिक सामग्री का उपयोग किया जा सकता है।
  • एंटीबायोटिक प्रबंध कार्यक्रम: एंटीबायोटिक के इस्तेमाल की निगरानी और अनुकूलित करने के लिये अस्पतालों तथा क्लीनिकों में आवश्यक कार्यक्रम लागू किया जा सकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि एंटीबायोटिक का इस्तेमाल केवल आवश्यक पड़ने पर एवं सबसे कम अवधि के लिये किया जाए।
  • एंटीबायोटिक बिक्री का विनियमन: दुकानों पर एंटीबायोटिक दवाओं की बिक्री पर सख्त नियम लागू करने की आवश्यकता है जिससे किसी भी प्रकार की एंटीबायोटिक दवाओं की बिक्री हेतु ग्राहक को चिकित्सक की पर्ची दिखाना अनिवार्य हो।
  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध निगरानी का दायरा बढ़ाना: मानव, पशुओं और पर्यावरण में प्रतिरोधी बैक्टीरिया की व्यापकता तथा प्रसार की निगरानी के लिये एक राष्ट्रव्यापी रोगाणुरोधी प्रतिरोध निगरानी प्रणाली स्थापित किये जाने की आवश्यकता है।
  • नई तकनीकों का विकास करना: रोगाणुरोधी प्रतिरोध संबंधी चुनौतियों का समाधान करने के लिये फेज़ थेरेपी जैसी नई प्रौद्योगिकियों की संभावनाओं पर विचार किये जाने की आवश्यकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न1. निम्नलिखित में से कौन-से, भारत में सूक्ष्मजैविक रोगजनकों में बहु-औषध प्रतिरोध के होने के कारण हैं? (2019)

  1. कुछ व्यक्तियों में आनुवंशिक पूर्ववृत्ति (जेनेटिक प्रीडिस्पोज़ीशन) का होना।
  2.  रोगों के उपचार के लिये वैज्ञानिकों (एंटिबॉयोटिक्स) की गलत खुराकें लेना।
  3.  पशुधन फार्मिंग प्रतिजैविकों का इस्तेमाल करना।
  4.  कुछ व्यक्तियों में चिरकालिक रोगों की बहुलता होना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3 
(c) केवल 1, 3 और 4 
(d) केवल 2, 3 और 4 

उत्तर: (b) 


मेन्स: 

प्रश्न1. क्या एंटीबायोटिकों का अति-उपयोग और डॉक्टरी नुस्खे के बिना मुक्त उपलब्धता, भारत में औषधि-प्रतिरोधी रोगों के अंशदाता हो सकते हैं? अनुवीक्षण और नियंत्रण की क्या क्रियाविधियाँ उपलब्ध हैं? इस संबंध में विभिन्न मुद्दों पर समालोचनात्मक चर्चा कीजिये। (2014)


मौजूदा परीक्षा प्रणाली पर चिंता

प्रिलिम्स के लिये: 

नई शिक्षा नीति 2020, राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (NTA) 

मेन्स के लिये:

वर्तमान परीक्षा प्रणाली में चुनौतियाँ, नीतियों के डिज़ाइन और कार्यान्वयन से उत्पन्न मुद्दे

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

शिक्षा के निरंतर विकसित होते परिदृश्य में, परीक्षा प्रणाली अधिगम के परिणामों को आयाम देने और अकादमिक प्रमाण-पत्रों की विश्वसनीयता निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

  • हालाँकि, बार-बार होने वाले घोटालों, असंगत मानकों और रटकर याद करने पर व्यापक फोकस ने भारत में मौजूदा परीक्षा प्रणाली की प्रभावशीलता के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं।

भारत में मौजूदा परीक्षा प्रणाली के संबंध में क्या चिंताएँ हैं?

  • विश्वसनीयता और शैक्षिक मानक:
    • परीक्षा सत्र के दौरान घोटाले परीक्षा बोर्डों की विश्वसनीयता पर असर डालते हैं।
    • विश्वसनीयता की कमी शैक्षिक मानकों को प्रभावित करती है क्योंकि शिक्षण परीक्षा पैटर्न के साथ संरेखित होता है, जो प्रायः रटने को बढ़ावा देता है।
  • अल्पकालिक स्मरण:
    • मध्यावधि, सेमेस्टर परीक्षा और यूनिट परीक्षण एक लघु कार्यक्रम प्रदान करते हैं लेकिन अल्पकालिक स्मरण पैटर्न को प्रोत्साहित करते हैं।
    • छात्र प्रायः अंकों के लिये अध्ययन करते हैं और परीक्षा के तुरंत बाद सीखी गई पाठ/विषय वस्तु को भूल जाते हैं।
    • शिक्षा को अल्पकालिक स्मरणीय बनाने के बदले दीर्घकालिक अधिगम, आंतरिक ज्ञान के रूप में स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। 
      • शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक होना चाहिये, जिससे छात्रों की क्षमताओं का प्रभावी ढंग से परीक्षण किया जा सके।
  • मूल्यांकन गुणवत्ता:
    • संस्थानों में योगात्मक परीक्षा की वैधता और तुलनीयता आज अर्थहीन है। ऐसी शिकायतें हैं कि परीक्षा बोर्ड केवल स्मृति का परीक्षण करते हैं, जिसके कारण छात्रों को उच्च-स्तरीय सोच विकसित करने के बदले उत्तर याद रखने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है।
      • इसके अतिरिक्त, प्रश्न पत्रों में प्रायः भाषा की त्रुटियाँ, अप्रासंगिक प्रश्न और वैचारिकता में त्रुटियाँ जैसी गंभीर खामियाँ होती हैं।
    • परीक्षा प्रणाली नकल और कदाचार से ग्रस्त है, जैसे– नकल करना, लीक करना, प्रतिरूपण करना आदि।
      • यह मूल्यांकन और शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता एवं गुणवत्ता को कमज़ोर करता है।
  • विकेंद्रीकृत प्रणाली:
    • भारत में मूल्यांकन के विविध तरीकों के साथ कई उच्च शिक्षा परीक्षा प्रणालियाँ हैं, जिनमें 1,100 विश्वविद्यालय, 50,000 संबद्ध कॉलेज और 700 स्वायत्त कॉलेज शामिल हैं।
      • कुल छात्र नामांकन 40.15 मिलियन से अधिक है, जो उच्च शिक्षा क्षेत्र के विस्तार को दर्शाता है।
      • इसके अतिरिक्त, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के लिये 60 स्कूल बोर्ड हैं, जो सालाना 15 मिलियन से अधिक छात्रों को प्रामाणित करते हैं।
    • गोपनीयता और मानकीकरण को अच्छे परीक्षा बोर्डों की पहचान माना जाता है, लेकिन उचित जाँच के बिना गोपनीयता घोटालों को जन्म देती है।
    • परीक्षाओं में एकरूपता, निरंतरता की मांग करते हुए, मूल्यांकन और पाठ्यक्रम में प्रयोग में बाधा बन सकती है।
      • इससे शिक्षा की विश्वसनीयता पर बड़ा संकट उत्पन्न हो गया है। एक गतिशील और प्रभावी शिक्षा प्रणाली के लिये नवाचार की संभावना के साथ मानकीकरण को संतुलित करना आवश्यक है।
  • रोज़गार क्षमता पर प्रभाव:
    • नियोक्ता उम्मीदवारों के मूल्यांकन के लिये संस्थागत प्रमाणपत्रों के बदले उनके मूल्यांकन पर भरोसा करते हैं।
      • उच्च स्तरीय शिक्षा पर ज़ोर रोज़गार के लिये महत्त्वपूर्ण है, फिर भी संस्थागत परीक्षाएँ प्रायः कम पड़ जाती हैं।
      • इसने बदले में प्रतियोगी परीक्षाओं और कौशल के लिये एक कोचिंग बाज़ार तैयार किया है।

परीक्षा प्रणाली में चुनौतियों का समाधान करने हेतु क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  • सीखने के परिणाम सुनिश्चित करना:
    • स्पष्ट बेंचमार्क प्रदान करने के लिये सीखने के परिणामों के न्यूनतम मानक निर्दिष्ट किया जाए।
    • पाठ्यक्रम डिज़ाइन, शिक्षाशास्त्र और मूल्यांकन प्रणालियों में योगदान करने के लिये सभी विषयों के शिक्षाविदों को प्रोत्साहित किया जाए।
  • विषय और कौशल-विशिष्ट मूल्यांकन:
    • व्यापक मूल्यांकन सुनिश्चित करने के लिये विषय-विशिष्ट और कौशल-विशिष्ट मूल्यांकन प्रक्रियाओं को शामिल किया जाए।
      • यह अपेक्षा की जाए कि विश्वविद्यालय की डिग्रियाँ और स्कूल बोर्ड प्रमाण-पत्र वास्तव में छात्रों की अधिगम की उपलब्धियों को प्रतिबिंबित किया जाए।
      • व्यापक और चुनौतीपूर्ण मूल्यांकन का समर्थन किया जाए जो छात्रों को उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों के आधार पर अलग कर सकें।
    • शिक्षक की भागीदारी और छात्र की भागीदारी के साथ पूरे पाठ्यक्रम में निरंतर मूल्यांकन पर ज़ोर दिया जाए।
    • नियंत्रण और संतुलन लागू करके योगात्मक मूल्यांकन और मूल्यांकन को पारदर्शी बनाए जाएं।
  • विश्वसनीयता हेतु प्रौद्योगिकी का लाभ उठाएं:
    • विश्वसनीयता बढ़ाने, प्रश्नपत्रों और मूल्यांकन को मानकीकृत करने के लिये मूल्यांकन में प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाए।
    • केंद्रीकृत और वितरित मूल्यांकन प्रणालियों दोनों के लिये बाज़ार में उपलब्ध सॉफ्टवेयर समाधानों का अन्वेषण किया जाए।
  • मूल्यांकन प्रणालियों का बाहरी ऑडिट:
    • विश्वविद्यालयों और स्कूल बोर्डों में मूल्यांकन प्रणालियों का नियमित बाहरी ऑडिट किया जाए।
    • विश्वसनीयता और निरंतरता सुनिश्चित करते हुए ऑडिट रिपोर्ट के लिये बेंचमार्क सिद्धांत तथा मानक स्थापित किया जाए।
    • पारदर्शिता, विश्वसनीयता और निरंतरता के आधार पर ग्रेड परीक्षा बोर्ड, ऑडिट रिपोर्ट में इन पहलुओं को दर्शाते हैं।
  • छात्रों के लिये पारदर्शिता उपाय:
    • पारदर्शिता के लिये उपाय लागू किया जाए, जिससे छात्रों को मूल्यांकन प्रक्रिया तक पहुँचने और शिकायतों का समाधान करने की अनुमति मिले।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न1. भारत के संविधान के निम्नलिखित में से किस प्रावधान का शिक्षा पर प्रभाव है? (वर्ष 2012)

  1. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत
  2.  ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकाय
  3.  पाँचवीं अनुसूची
  4.  छठी अनुसूची
  5.  सातवीं अनुसूची

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

 (A) केवल 1 और 2
(B) केवल 3, 4 और 5
(C) केवल 1, 2 और 5
(D) 1, 2, 3, 4 और 5

 उत्तर- (D)


मेन्स

प्रश्न1. भारत में डिजिटल पहल ने किस प्रकार से देश की शिक्षा व्यवस्था के संचालन में योगदान किया है? विस्तृत उत्तर दीजिये। (2020)


हिट-एंड-रन कानून से संबंधित चिंताएँ

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय न्याय संहिता 2023, भारतीय दंड संहिता, 1860, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो

मेन्स के लिये:

भारतीय न्याय संहिता 2023, आपराधिक न्याय प्रणाली से संबंधित सरकारी पहल, नीतियों की रूपरेखा और कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल तथा पंजाब जैसे राज्यों में ट्रांसपोर्टरों तथा वाणिज्यिक ड्राइवरों के हालिया विरोध प्रदर्शन ने भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की विवादास्पद धारा 106 (2) पर प्रकाश डाला है।

  • यह धारा जो हिट-एंड-रन की घटनाओं के लिये गंभीर दंड का प्रावधान करती है, वाहनचालकों के बीच असंतोष का केंद्र बिंदु बन गई है।
  • सरकार द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि वह हिट-एंड-रन के विरुद्ध विवादास्पद कानून क्रियान्वित करने से पूर्व हितधारकों से परामर्श करेगी जिससे पूरे देश के ट्रक ड्राइवरों ने हड़ताल समाप्त कर दी है।

हिट-एंड-रन कानून क्या है?

  • उपबंध:
    • हिट-एंड-रन उपबंध भारतीय न्याय संहिता (BNS) का हिस्सा है जिसका उद्देश्य औपनिवेशिक युग के भारतीय दंड संहिता, 1860 को प्रतिस्थापित करना है।
      • BNS, 2023 की धारा 106 (2) में दुर्घटना स्थल से भागने तथा किसी पुलिस अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट को घटना की रिपोर्ट करने में विफल रहने पर 10 वर्ष तक की कारावास तथा ज़ुर्माने का प्रावधान है।
      • हालाँकि यदि ड्राइवर दुर्घटना के तुरंत बाद घटना की रिपोर्ट करता है तो उन पर धारा 106(2) के स्थान पर धारा 106(1) के तहत आरोप सिद्ध किया जाएगा। धारा 106(1) में गैर-इरादतन हत्या की श्रेणी में नहीं आने वाली मौत (लापरवाही के कारण होने वाली मौत) के लिये पाँच वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान है
  • आवश्यकता:
    • यह नया कानून भारत में सड़क दुर्घटनाओं से संबंधित चिंताजनक आँकड़ों की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया है।
      • वर्ष 2022 में भारत में 1.68 लाख से अधिक सड़क दुर्घटना मौतें दर्ज की गईं अर्थात् प्रतिदिन औसतन 462 मौतें हुई।
      • भारत में सड़क दुर्घटनाओं में 12% की वृद्धि तथा मृत्यु दर में 9.4% की वृद्धि देखी गई जबकि वैश्विक सड़क दुर्घटना में होने वाली मौतों में 5% की कमी आई।
        • भारत में सड़क दुर्घटनाओं के कारण प्रति घंटे औसतन 19 मौतें होती हैं जिसके अनुसार लगभग प्रत्येक साढ़े तीन मिनट में एक मौत होती है।
      • आधे से अधिक सड़क पर मौतें राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों पर हुईं, जो कुल सड़क नेटवर्क का 5% से भी कम है।
      • भारत, दुनिया के केवल 1% वाहनों के साथ, दुर्घटना-संबंधी मौतों में लगभग 10% का योगदान देता है और सड़क दुर्घटनाओं के कारण अपने सकल घरेलू उत्पाद का 5-7% वार्षिक आर्थिक नुकसान झेलता है।
  • विधि के अंतर्निहित सिद्धांत:
    • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने वर्ष 2022 में 47,806 हिट एंड रन की घटनाएँ दर्ज कीं, जिसके परिणामस्वरूप 50,815 लोगों की मौत हो गई।
      • पुलिस या मज़िस्ट्रेट को सड़क दुर्घटनाओं की रिपोर्ट करना अपराधियों का कानूनी कर्त्तव्य है और इस कर्त्तव्य की चूक को आपराधिक बनाने के प्रावधान हैं।
    • हिट-एंड-रन कानून की धारा 106 (2) का अंतर्निहित तेज़ गति और लापरवाही से गाड़ी चलाने को रोकना तथा उन लोगों को दंडित करना है जो पीड़ितों की सूचना दिये बिना या उनकी मदद किये बिना घटनास्थल से भाग जाते हैं।
    • यह कानून अपराधी पर पीड़ित के प्रति नैतिक ज़िम्मेदारी लागू करने की विधायी मंशा को दर्शाता है।
      • मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 134 जैसे मौजूदा कानूनों के साथ समानताएँ दर्शाते हुए, दुर्घटनाओं के बाद ड्राइवरों से त्वरित और ज़िम्मेदार प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिये सरकार की प्रतिबद्धता पर प्रकाश डाला गया है।
        • मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 134 के तहत वाहन के चालक को घायल व्यक्ति के लिये चिकित्सा देखभाल सुनिश्चित करने के लिये सभी उचित कदम उठाने की आवश्यकता होती है, जब तक कि भीड़ के गुस्से या उसके नियंत्रण से परे किसी अन्य कारण से यह संभव न हो।

प्रदर्शनकारियों की चिंताएँ क्या हैं?

  • BNS, 2023 की धारा 106 (2):
    • ट्रांसपोर्टर और वाणिज्यिक चालक BNS, 2023 की धारा 106 (2) को वापस लेने या संशोधन की मांग कर रहे हैं।
    • प्रदर्शनकारियों का तर्क है कि 10 साल की कैद और 7 लाख रुपए ज़ुर्माने सहित निर्धारित दोनों दंड अत्यधिक गंभीर हैं।
    • व्यापक रूप से प्रसारित यह विचार कि BNS की धारा 106 (2) दुर्घटना स्थल से भागने और पुलिस अधिकारी/मजिस्ट्रेट को घटना की रिपोर्ट करने में विफल रहने पर 10 साल तक की कैद तथा 7 लाख रुपए के ज़ुर्माने का प्रावधान करती है, पूरी तरह से गलत है।
      • हालाँकि इस धारा में अधिकतम 10 साल की सज़ा और ज़ुर्माने की चर्चा है, लेकिन BNS में 7 लाख रुपए के ज़ुर्माने के बारे में कोई वास्तविक उल्लेख नहीं है।

नोट:

  • मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम, 2019 की धारा 161 के तहत हिट एंड रन में पीड़ित की मृत्यु होने पर 2,00,000 रुपए के मुआवज़े का प्रावधान किया गया है। 
    • मृत्यु पर मुआवज़ा 2 लाख रुपए और गंभीर चोट पर 50,000 रुपए है। BNS की धारा 106 (2) के विपरीत, इस मामले में मुआवज़ा ड्राइवरों से वसूल नहीं किया जा सकता है।
  • चुनौतीपूर्ण स्थितियाँ:
    • उनका तर्क है कि ज़ुर्माना अत्यधिक है और ड्राइवरों की चुनौतीपूर्ण कार्य स्थितियों, जैसे लंबे समय तक ड्राइविंग तथा कठिन सड़कों पर विचार करने में विफल रहता है।
    • ट्रांसपोर्टरों का यह भी तर्क है कि दुर्घटनाएँ ड्राइवर के नियंत्रण से परे कारकों के कारण हो सकती हैं, जैसे– कोहरे के कारण खराब दृश्यता और दुर्घटना स्थलों पर सहायता के लिये रुकने पर ड्राइवरों के खिलाफ भीड़ की हिंसा का डर
      • दुर्घटनाओं के बाद हिंसा का डर ड्राइवरों के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया को और जटिल बना देता है।
  • अनुचित दोष माना गया:
    • ड्राइवरों का तर्क है कि वास्तविक परिस्थितियों के बावजूद, दुर्घटनाओं के लिये अक्सर उन्हें गलत तरीके से दोषी ठहराया जाता है।
    • कानून का दंडात्मक दृष्टिकोण अनुचित धारणा को बढ़ा सकता है और परिवहन उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
  • अधिकारियों द्वारा संभावित दुरुपयोग:
    • उन्हें चिंता है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा कानून का दुरुपयोग किया जा सकता है और कठोर दंड से समग्र रूप से परिवहन उद्योग को नुकसान हो सकता है।
  • अनुचित व्यवहार और सीमित वर्गीकरण:
    • वर्तमान कानून ट्रक चालकों और व्यक्तिगत वाहन चालकों पर लगाए गए दंड की निष्पक्षता के बारे में चिंता पैदा करता है।
      • उदाहरण के लिये जल्दबाज़ी या लापरवाही से काम करने की स्थिति में डॉक्टरों के लिये BNS की धारा 106 (1) के तहत एक अपवाद बनाया गया है, जहाँ ज़ुर्माने के साथ दो वर्ष तक की सज़ा होगी।
    • यह सीमित वर्गीकरण समस्याग्रस्त है और समानता के सिद्धांतों के विरुद्ध है, क्योंकि अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले विभिन्न प्रकार के लोगों के दायित्व को भी नियंत्रित करने की आवश्यकता है।
  •    विभेदीकरण का अभाव:
    • धारा 106(2) में तेज़ गति और लापरवाही से गाड़ी चलाने के बीच अंतर का अभाव है, जो दायित्व के विभिन्न स्तरों के साथ दो अलग-अलग प्रकार के अपराध हैं।
      • उनका यह भी तर्क है कि इस अनुभाग में लापरवाह कृत्यों में योगदान देने वाले कारकों पर विचार नहीं किया गया है, जैसे कि यात्रियों का व्यवहार, सड़क की स्थिति, सड़क पर रोशनी की व्यवस्था और अन्य समान कारक, जो चालक की ज़िम्मेदारी को प्रभावित कर सकते हैं।
    • सभी स्थितियों में एक खंड लागू करने से विभिन्न परिस्थितियों में ड्राइवरों पर अनुचित पूर्वाग्रह हो सकता है।

आगे की राह 

  • चिंताओं को दूर करने और विविध दृष्टिकोण जुटाने के लिये हितधारकों, विशेष रूप से ड्राइवरों व परिवहन संघों के साथ व्यापक परामर्श शुरू किया जाना चाहिये।
    • आपातकालीन अनुक्रिया के लिये एक स्पष्ट और मानकीकृत प्रोटोकॉल स्थापित की जानी चाहिये, जिसमें संभावित हिंसा के लिये ड्राइवरों को उजागर किये बिना शीघ्र रिपोर्टिंग के महत्त्व पर ज़ोर दिया जाए।
  • BNS की धारा 106 (2) के तहत मौजूदा हिट-एंड-रन कानून दुर्घटनाओं के विभिन्न प्रकारों और परिणामों के बीच अंतर/विभेद नहीं करता है।
    • कानून को देनदारियों के आधार पर विभिन्न पैमानों में वर्गीकृत किया जाना चाहिये, जैसे– मृत्यु, गंभीर चोट, साधारण चोट या छोटी चोटें तथा इसके लिये दंड अपराध के अनुरूप होनी चाहिये।
  • कानून को रिपोर्टिंग प्रक्रिया और ड्राइवरों के लिये अपनी बेगुनाही या अपराध को कम करने वाले कारकों को साबित करने के लिये आवश्यक सबूतों को भी स्पष्ट करना चाहिये।
  • सड़क दुर्घटनाओं में मामूली चोट आने को आपराधिक कृत्यों के बराबर नहीं माना जाना चाहिये बल्कि सामुदायिक सेवा, ड्राइविंग लाइसेंस रद्द करना या अनिवार्य ड्राइविंग दोबारा परीक्षण जैसे वैकल्पिक उपाय लागू करने चाहिये।
  • दुर्घटनाओं को कम करने और हिट-एंड-रन घटनाओं की संभावना को कम करने के लिये बेहतर सड़क बुनियादी ढाँचे, दृश्यता उपायों तथा सुरक्षा सुविधाओं में निवेश किया जाना चाहिये।
  • प्रभावी हिट-एंड-रन कानून के साथ अन्य देशों के सफल मॉडल और सर्वोत्तम प्रथाओं का अध्ययन कर उन्हें भारतीय संदर्भ में अपनाने की आवश्यकता है।

विधिक अंतर्दृष्टि:    https://www.drishtijudiciary.com/hin/editorial/Hit-and-Run-Law


ऋण स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन

प्रिलिम्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विनिमय दर गतिशीलता, क्रेडिट रेटिंग, भारत के बढ़ते ऋण स्तर से संबंधित परस्पर जुड़े कारक, कर चोरी, राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003, आईएमएफ का स्थिर व्यवस्था का वर्गीकरण।

मेन्स के लिये:

भारत के आर्थिक आउटलुक से संबंधित आईएमएफ के अनुमान, सतत ऋण प्रबंधन के लिये भारत जो उपाय कर सकता है।

स्रोत:द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund - IMF) ने हाल ही में भारत पर अपनी वार्षिक अनुच्छेद IV परामर्श रिपोर्ट जारी की, जिसमें देश की ऋण स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन से संबंधित महत्त्वपूर्ण मुद्दों का अवलोकन किया गया है।

भारत के आर्थिक आउटलुक से संबंधित IMF के अनुमान क्या हैं? 

  • ऋण स्थिरता: IMF ने भारत की दीर्घकालिक ऋण स्थिरता के बारे में चिंता व्यक्त की।
    • इसने अनुमान लगाया कि भारत का सामान्य सरकारी ऋण, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों शामिल हैं, संभावित रूप से वित्तीय वर्ष 2028 तक विशेष रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों में सकल घरेलू उत्पाद के 100% तक बढ़ सकता है।
  • ऋण प्रबंधन की चुनौतियाँ: रिपोर्ट में अधिक विवेकपूर्ण ऋण प्रबंधन प्रथाओं की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें जलवायु परिवर्तन शमन लक्ष्यों को प्राप्त करने और प्राकृतिक आपदाओं के खिलाफ लचीलापन बढ़ाने के लिये वित्तपोषण की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पर बल दिया गया है।
    • भारतीय वित्त मंत्रालय ने  IMF के ऋण अनुमानों का विरोध किया और उन्हें आसन्न वास्तविकता के बजाय सबसे खराब स्थिति के रूप में खारिज कर दिया।
  • विनिमय दर गतिशीलता: IMF ने दिसंबर 2022 से अक्टूबर 2023 के लिये भारत की वास्तविक विनिमय दर व्यवस्था को "फ्लोटिंग" से "स्थिर व्यवस्था (stabilized arrangement)" में पुनर्वर्गीकृत किया।
    • यह पुनर्वर्गीकरण RBI के हस्तक्षेप के कारण रुपए के मूल्य में नियंत्रित उतार-चढ़ाव के बारे में  निष्कर्ष शामिल हैं।
  • स्थिर क्रेडिट रेटिंग: सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में सराहना पाने के बावजूद भारत की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग काफी समय से स्थिर बनी हुई है।
    • फिच रेटिंग्स और एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स जैसी एजेंसियों ने कमज़ोर राजकोषीय प्रदर्शन, बोझिल कर्ज़ और कम प्रति व्यक्ति आय के बारे में चिंताओं का हवाला देते हुए वर्ष 2006 से भारत की क्रेडिट रेटिंग को 'बीबीबी-स्थिर दृष्टिकोण के साथ' पर बनाए रखा है।

  वैश्विक ऋण परिदृश्य क्या है?

  • बढ़ता वैश्विक ऋण: वैश्विक स्तर पर, सार्वजनिक ऋण में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है, जो वर्ष 2022 में 92 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर गया है, जो कि वर्ष 2000 के बाद से चार गुना से अधिक की वृद्धि है, जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि को पार कर गया है।
    • संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, वर्ष 2022 में 3.3 अरब लोग ऐसे देशों में रहते हैं जो शिक्षा या स्वास्थ्य की तुलना में ब्याज भुगतान पर अधिक व्यय करते हैं।
    • विकासशील देशों की कुल हिस्सेदारी लगभग 30% है, जिनमें से लगभग 70% चीन, भारत और ब्राज़ील के लिये ज़िम्मेदार है, जो बड़े पैमाने पर महामारी, जीवन-यापन संकट और जलवायु परिवर्तन जैसे विविध कारकों से प्रेरित है।
  • विकसित और विकासशील देशों के बीच ऋण विषमता: अफ्रीका सहित विकासशील देश, विकसित देशों की तुलना में काफी अधिक उधार लेने की लागत का सामना करते हैं।
    • उधार दरों में यह असमानता विकासशील देशों के लिये ऋण स्थिरता से समझौता करती है, जिससे सार्वजनिक राजस्व के सापेक्ष ब्याज खर्च में वृद्धि होती है।

भारत का वर्तमान ऋण परिदृश्य क्या है?

  • सरकार का वर्तमान ऋण स्तर: मार्च 2023 तक केंद्र सरकार का ऋण ₹155.6 ट्रिलियन था, जो सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 57.1% था। इस बीच, राज्य सरकारों पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 28% ऋण था।
    •  वित्त मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2022-23 में भारत का सार्वजनिक ऋण-से-GDP (debt-to-GDP) अनुपात 81% है। यह, FRBM लक्ष्य द्वारा निर्दिष्ट स्तरों से कहीं अधिक है।
      • FRBM अधिनियम में वर्ष 2018 के संशोधन ने केंद्र, राज्यों और उनके संयुक्त खातों के लिये क्रमशः 40%, 20% तथा 60% पर ऋण-GDP लक्ष्य निर्दिष्ट किये।
  • भारत के बढ़ते ऋण स्तर से संबंधित परस्पर जुड़े कारक:
    • उच्च राजकोषीय घाटा: सरकार लगातार अपनी आय से अधिक व्यय करती है, जिसके कारण घाटे को उधार के माध्यम से पूरा किया जाता है। यह घाटा निम्न कारणों से उत्पन्न हो सकता है:
      • उच्च व्यय प्रतिबद्धताएँ: सामाजिक कल्याण कार्यक्रम, सब्सिडी और रक्षा व्यय सरकारी परिव्यय में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
      • धीमी राजस्व वृद्धि: कर सुधारों से राजस्व संग्रह में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई है, जिससे राजस्व-व्यय में अंतर उत्पन्न हो गया है।
    • वैश्विक भू-राजनीतिक घटनाएँ: रूस-यूक्रेन युद्ध और बढ़ती कमोडिटी कीमतों जैसी घटनाओं से आर्थिक व्यवधान एवं उच्च आयात लागत हो सकती है, जिससे सरकार को स्थिरता बनाए रखने के लिये उधार लेने हेतु मजबूर होना पड़ सकता है।
    • अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और कर रिसाव: भारत की बड़ी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था कुशल कर संग्रह के लिये चुनौतियाँ पेश करती है।
      • कृषि और छोटे व्यवसायों जैसे क्षेत्रों में कर चोरी तथा औपचारिकता की कमी राजस्व सृजन को सीमित करती है, जिससे संभावित रूप से सरकार को ऋण वित्तपोषण पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
    • गारंटी और आकस्मिकताएँ: सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं द्वारा लिये गए ऋण या आकस्मिक देनदारियों हेतु सरकार की गारंटी, जैसे सार्वजनिक-निजी भागीदारी से संभावित नुकसान, अप्रत्यक्ष रूप से ऋण में काफी वृद्धि करते हैं।
    • विनिमय दर में उतार-चढ़ाव: विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव विदेशी मुद्रा-मूल्य वाले ऋण की सेवा की लागत को प्रभावित करते हैं, जिससे संभावित रूप से समग्र ऋण बोझ बढ़ जाता है।
  • भारत में ऋण प्रबंधन हेतु विधान:
    • राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 (FRBM अधिनियम): FRBM अधिनियम एक भारतीय कानून है जो सरकार के राजकोषीय संचालन में वित्तीय अनुशासन लाने और देश के राजकोषीय घाटे को कम करने के लिये बनाया गया है।
      • FRBM का लक्ष्य केंद्र और राज्यों के लिये विशिष्ट ऋण-GDP लक्ष्य निर्धारित करना है।
        • हालाँकि महामारी से उत्पन्न व्यवधान ने निर्दिष्ट सीमा को पार करते हुए ऋण-GDP अनुपात को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
      • इसके अलावा इसके अधिनियमन के कई वर्षों के बावजूद, भारत सरकार FRBM अधिनियम के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये संघर्ष कर रही है।

अस्थाई विनिमय दर गतिशीलता को स्थिर व्यवस्था से क्या अलग करता है?

  • अस्थायी विनिमय दर:
    • बाज़ार-संचालित: मुद्रा का मूल्य न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप के साथ, विदेशी मुद्रा बाज़ार में पूरी तरह से आपूर्ति और मांग से निर्धारित होता है।
    • उच्च अस्थिरता: आर्थिक समाचारों, घटनाओं या बाज़ार की धारणा के जवाब में विनिमय दर में काफी उतार-चढ़ाव हो सकता है।
    • लचीलेपन में वृद्धि:  व्यवसाय और व्यक्ति बाज़ार-निर्धारित विनिमय दरों के माध्यम से बदलती आर्थिक स्थितियों के साथ तालमेल बैठा सकते हैं।
  • स्थिर व्यवस्था:
    • विशुद्ध रूप से अस्थाई से अधिक प्रबंधित: अत्यधिक अस्थिरता को दूर करने या मुद्रा के लिये लक्ष्य सीमा बनाए रखने हेतु सरकार या केंद्रीय बैंक कभी-कभी विदेशी मुद्रा बाज़ार में हस्तक्षेप कर सकता है।
    • मध्यम अस्थिरता:  शुद्ध फ्लोट की तुलना में अधिक स्थिरता का लक्ष्य, लेकिन फिर भी कुछ हद तक उतार-चढ़ाव स्वीकार करना।
    • पूर्वानुमान की पेशकश: व्यवसाय और व्यक्ति अधिक स्थिर विनिमय दर वातावरण के साथ योजना बना सकते हैं।
  • स्थिर व्यवस्था का IMF का वर्गीकरण:
    • IMF एक विनिमय दर व्यवस्था को एक स्थिर व्यवस्था के रूप में वर्गीकृत करता है जब यह निर्धारित करता है कि विनिमय दर 6 महीनों में 2% बैंड से आगे नहीं बढ़ी है और यह स्थिरता बाज़ार की स्थितियों के बजाय बाज़ार के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप हुई है।

सतत् ऋण प्रबंधन के लिये भारत क्या उपाय कर सकता है? 

  • अल्पकालिक: राजकोषीय समेकन:
    • लक्षित सुधार: सब्सिडी को सुव्यवस्थित करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में सुधार करना तथा प्रशासनिक अक्षमताओं को कम करना एवं FRBM अधिनियम के लक्ष्यों का सख्ती से अनुपालन करना ऋण चुकौती व लाभकारी निवेश के लिये संसाधनों की बचत कर सकता है।
    • बेहतर कर दक्षता: कर प्रशासन को सुदृढ़ करने तथा कर चोरी की रोकथाम से अत्यधिक उधार लिये बिना राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
  • दीर्घकालिक: विकासोन्मुख रणनीतियाँ:
    • कौशल विकास और शिक्षा: शिक्षा तथा कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से मानव पूंजी में निवेश करने से उत्पादकता एवं प्रतिस्पर्द्धात्मकता में वृद्धि होती है जिससे उच्च आर्थिक विकास होता है तथा कराधान में सुधार होता है।
    • निर्यात संवर्द्धन: निर्यात बाज़ारों में विविधता लाने, उच्च मूल्य वाले निर्यात को प्रोत्साहित करने तथा प्रतिस्पर्द्धात्मक चुनौतियों का समाधान करने से विदेशी मुद्रा आय को बढ़ावा मिल सकता है जिससे संभावित रूप से बाह्य ऋण की आवश्यकता कम हो सकती है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न

प्रिलिम्स:

प्रश्न1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजये: (2018)

  1. राजकोषीय दायित्व और बजट प्रबंधन (एफ.आर.बी.एम.) समीक्षा समिति के प्रतिवेदन में सिफारिश की गई है कि वर्ष 2023 तक केंद्र एवं राज्य सरकारों को मिलाकर ॠण-जी.डी.पी. अनुपात 60% रखा जाए जिसमें केंद्र सरकार के लिये यह 40% तथा राज्य सरकारों के लिये 20% हो।
  2. राज्य सरकारों के जी.डी.पी. के 49% की तुलना में केंद्र सरकार के लिये जी.डी.पी. का 21% घरेलू देयताएँ हैं।
  3. भारत के संविधान के अनुसार यदि किसी राज्य के पास केंद्र सरकार की बकाया देयताएँ हैं तो उसे कोई भी ऋण लेने से पहले केंद्र सरकार से सहमति लेना अनिवार्य है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: C


मेन्स:

प्रश्न1. उत्तर-उदारीकरण अवधि के दौरान, बजट निर्माण के संदर्भ में, लोक व्यय प्रबंधन भारत सरकार के समक्ष एक चुनौती है। स्पष्ट कीजिये। (2019)


बिलकिस बानो मामला और परिहार

प्रिलिम्स के लिये:

बिलकिस बानो मामला और परिहार, दंड का परिहार, 2002 दंगे, सर्वोच्च न्यायालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, अनुच्छेद 72

मेन्स के लिये:

बिलकिस बानो मामला और परिहार, विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये सरकारी नीतियाँ एवं हस्तक्षेप तथा उनकी रूपरेखा और कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात राज्य में वर्ष 2002 के दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार तथा उसके परिवार के सात सदस्यों की हत्या में शामिल 11 दोषियों को दंड परिहार देने के गुजरात सरकार के निर्णय को रद्द कर दिया है।

बिलकिस बानो मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के दौरान उक्त गर्भवती महिला बिलकिस बानो के साथ क्रूर सामूहिक बलात्कार किया गया था तथा उसकी तीन वर्ष की बेटी सहित परिवार के सात सदस्यों को दंगाइयों ने मार डाला था।
  • व्यापक विधिक कार्यवाही के बाद केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (Central Bureau of Investigation- CBI) ने मामले की जाँच की।
  • वर्ष 2004 में बिलकिस को जान से मारने की धमकियाँ मिलने के बाद SC ने मुकदमे को गुजरात से मुंबई न्यायालय स्थानांतरित कर दिया तथा केंद्र सरकार को एक विशेष लोक अभियोजक (Public Prosecutor) नियुक्त करने का निर्देश दिया।
  • वर्ष 2008 में मुंबई की एक न्यायालय ने 11 व्यक्तियों को सामूहिक बलात्कार तथा हत्या में शामिल होने के लिये दोषी सिद्ध किया जो बिलकिस बानो को न्याय दिलाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था।
  • हालाँकि अगस्त 2022 में गुजरात सरकार ने इन 11 दोषियों को परिहार/माफी दे दी जिससे उनकी रिहाई हो गई। इस निर्णय ने संबद्ध छूट देने के लिये उत्तरदायी प्राधिकरण तथा क्षेत्राधिकार के संबंध में चिंताओं के कारण विवाद एवं विधिक चुनौतियों को उजागर किया।

गुजरात सरकार की दंड परिहार अनुदान को रद्द करने वाला सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय क्या है?

  • अधिकार की कमी और छुपाए गए तथ्य:
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि गुजरात सरकार के पास दंड परिहार के आदेश जारी करने का अधिकार या क्षेत्राधिकार नहीं है।
    • CrPC की धारा 432 के तहत, राज्य सरकारों के पास किसी दंड को निलंबित करने या क्षमा करने की शक्ति है। लेकिन न्यायालय ने कहा कि कानून की धारा 7(B) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उपयुक्त सरकार वह है जिसके अधिकार क्षेत्र में अपराधी को सज़ा सुनाई जाती है।
    • इसने बताया कि दंड परिहार देने का निर्णय उस राज्य के अधिकार क्षेत्र में होना चाहिये जहाँ दोषियों को सज़ा सुनाई गई थी, न कि जहाँ अपराध हुआ था या जहाँ उन्हें कैद किया गया था।
  • दंड परिहार प्रक्रिया की आलोचना:
    • न्यायालय ने यह उल्लेख करते हुए दंड परिहार प्रक्रिया में गंभीर खामियों को उजागर किया है कि आदेशों पर उचित विचार नहीं किया गया और तथ्यों को छिपाकर प्राप्त किया गया, जो न्यायालय के साथ धोखाधड़ी है।
  • सत्ता का अतिरेक और गैरकानूनी प्रयोग:
    • न्यायालय ने गुजरात सरकार की अतिरेक की आलोचना करते हुए कहा कि उसने दंड परिहार के आदेश जारी करने में उस शक्ति का गैरकानूनी तरीके से प्रयोग किया जो महाराष्ट्र सरकार के पास थी।
  • स्वतंत्रता याचिका के निर्देश और अस्वीकृति:
    • अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिये दोषियों की याचिका को खारिज करते हुए, न्यायालय ने उन्हें दो सप्ताह के भीतर जेल के अधिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।

परिहार क्या है?

  • परिचय:
    • परिहार (Remission) एक बिंदु पर किसी दंड या सज़ा की पूर्ण रूप से समाप्ति है। दंड परिहार फर्लो (Furlough) और पैरोल (Parole) दोनों से अलग है क्योंकि इसमें कारावास-जीवन से विराम के विपरीत दंड में कमी कर दी जाती है। 
    • दंड परिहार में सज़ा की प्रकृति बदलती नहीं है, जबकि अवधि कम हो जाती है अर्थात् शेष सज़ा भुगतने की ज़रूरत नहीं होती है।
    • दंड परिहार का प्रभाव यह होता है कि कैदी को एक निश्चित तारीख दी जाती है जिस दिन उसे रिहा किया जाएगा और कानून की नज़र में वह एक स्वतंत्र व्यक्ति होगा।
    • हालाँकि दंड परिहार की किसी भी शर्त के उल्लंघन के मामले में इसे रद्द कर दिया जाएगा और अपराधी को वह पूरी अवधि वापस कारावास में व्यतीत करनी होगी जिसके लिये उसे मूल रूप से सज़ा सुनाई गई थी।
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को संविधान द्वारा क्षमा की संप्रभु शक्ति प्रदान की गई है।
    • अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति किसी भी व्यक्ति की सज़ा को क्षमा, लघुकरण, विराम या प्रविलंबन कर सकता है या निलंबित या कम कर सकता है। 
      • यह सभी मामलों में किसी भी अपराध के लिये दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति हेतु किया जा सकता है:
        • सज़ा उन सभी मामलों में कोर्ट-मार्शल द्वारा होगी जहाँ सज़ा केंद्र सरकार की कार्यकारी शक्ति से संबंधित किसी भी कानून के तहत अपराध को संदर्भित करती है और सभी मामलों में मौत की सज़ा होगी।
    • अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल सज़ा को क्षमा, प्रविलंबन, विराम या परिहार दे सकता है या सज़ा को निलंबित, हटा या कम कर सकता है।
      • यह राज्य की कार्यकारी शक्ति के अंतर्गत आने वाले मामले में किसी भी कानून के तहत दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति के लिये किया जा सकता है। 
    • अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का दायरा अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल की क्षमादान शक्ति से अधिक व्यापक है। 
  • परिहार की सांविधिक शक्ति:
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) जेल की सज़ा में दंड परिहार का प्रावधान करती है, जिसका अर्थ है कि पूरी सज़ा या उसका एक हिस्सा रद्द किया जा सकता है। 
    • धारा 432 के तहत 'उपयुक्त सरकार' किसी सज़ा को पूरी तरह या आंशिक रूप से शर्तों के साथ या उसके बिना निलंबित या माफ कर सकती है। 
    • धारा 433 के तहत किसी भी सज़ा को उपयुक्त सरकार द्वारा कम किया जा सकता है। 
    • यह शक्ति राज्य सरकारों को उपलब्ध है ताकि वे जेल की अवधि पूरी करने से पहले कैदियों को रिहा करने का आदेश दे सकें। 
  • परिहार के ऐतिहासिक मामले:
    • लक्ष्मण नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2000):
      • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उन कारकों को निर्धारित किया जो परिहार के अनुदान को नियंत्रित करते हैं:
        • क्या अपराध बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित किये बिना अपराध का एक व्यक्तिगत कार्य है?
        • क्या भविष्य में अपराध की पुनरावृत्ति की कोई संभावना है?
        • क्या अपराधी अपराध करने की अपनी क्षमता खो चुका है?
        • क्या इस दोषी को अब और कैद में रखने का कोई सार्थक उद्देश्य है?
        • दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति।
    • इपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006):
      • SC ने माना कि दंड परिहार के आदेश की न्यायिक समीक्षा निम्नलिखित आधारों पर उपलब्ध है:
        • दिमाग का उपयोग न करना;
        • आदेश दुर्भावनापूर्ण है;
        • आदेश अप्रासंगिक या पूर्णतः अप्रासंगिक विचारों पर पारित किया गया है;
        • प्रासंगिक सामग्रियों को विचार से बाहर रखा गया;
        • आदेश मनमानी से ग्रस्त है।

नोट:

  • क्षमादान: यह सज़ा और दोषसिद्धि दोनों को हटा देता है तथा दोषी को सभी सज़ाओं, दंडों एवं अयोग्यताओं से पूरी तरह से मुक्त कर देता है।
  • संपरिवर्तन: यह सज़ा के एक रूप को कम सज़ा के साथ प्रतिस्थापित करने को दर्शाता है। उदाहरण के लिये, मौत की सज़ा को कठोर कारावास में बदला जा सकता है।
  • राहत: यह किसी विशेष तथ्य, जैसे किसी दोषी की शारीरिक विकलांगता या किसी महिला अपराधी की गर्भावस्था, के कारण मूल रूप से दी गई सज़ा के स्थान पर कम सज़ा देने को दर्शाता है।
  • दंडविराम: इसका तात्पर्य अस्थायी अवधि के लिये किसी सज़ा (विशेष रूप से मौत की सज़ा) के निष्पादन पर रोक लगाना है। इसका उद्देश्य दोषी को राष्ट्रपति से माफी या सज़ा में छूट मांगने के लिये समय देना है।

और पढ़ें: 

https://www.drishtijudiciary.com/hin/editorial/Remission-in-Bilkis-Bano-Judgment