छोटे द्वीपीय विकासशील राज्यों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
प्रिलिम्स के लिये:COP-27 (2022), न्यू लॉस एंड डैमेज फंड, जलवायु परिवर्तन, हरिकेन मारिया, ऋण-GDP अनुपात, COP-29 मेन्स के लिये:विकासशील देशों की सहायता में जलवायु वित्तपोषण का महत्त्व। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
शर्म अल शेख में UNFCCC COP-27 (2022) के दौरान, जलवायु-संवेदनशील देशों, विशेष रूप से छोटे द्वीप विकासशील राज्यों (SIDS) की मदद के लिये एक नया लॉस एंड डैमेज फंड बनाया गया था।
- समझौते के बावजूद, विकसित राष्ट्र- जो सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक हैं, अपनी वित्तीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल रहे हैं, जिसके कारण कई संवेदनशील देशों को आवश्यक सहायता नही मिल पायी हैं।
छोटे द्वीपीय विकासशील राज्य (SIDS)
- छोटे द्वीपीय विकासशील राज्य (SIDS) छोटे द्वीपीय राष्ट्रों और क्षेत्रों के समूह को संदर्भित करते हैं, जो महत्त्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कमज़ोरियों के साथ-साथ सतत् विकास में साझा चुनौतियों का सामना करते हैं।
- SIDS में मालदीव, सेशेल्स, मार्शल द्वीप, सोलोमन द्वीप, सूरीनाम, मॉरीशस, पापुआ न्यू गिनी, वानूआतू, गुयाना और सिंगापुर शामिल हैं।
- SIDS मुख्य रूप से तीन प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में स्थित हैं: कैरीबियाई, प्रशांत, और अटलांटिक, हिंद महासागर और दक्षिण चीन सागर (AIS) क्षेत्र।
- वर्ष 1992 में पर्यावरण एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में, SIDS को उनकी अद्वितीय पर्यावरणीय और विकासात्मक चुनौतियों के कारण औपचारिक रूप से एक विशेष मामले के रूप में मान्यता दी गई थी।
जलवायु परिवर्तन SIDS को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है?
- SIDS की बढ़ती संवेदनशीलता: अन्य देशों की तुलना में SIDS को सरकारी राजस्व के सापेक्ष 3-5 गुना अधिक जलवायु-संबंधी नुकसान का सामना करना पड़ता है।
- यहाँ तक कि बारबाडोस और बहामास जैसे विकसित SIDS देशों को भी अन्य उच्च आय वाले देशों की तुलना में चार गुना अधिक नुकसान का सामना करना पड़ता है।
- 2°C तापमान वृद्धि परिदृश्य के तहत, SIDS के लिये चरम मौसमी घटनाओं से अनुमानित नुकसान वर्ष 2050 तक सालाना 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगा।
- प्रत्यक्ष प्रभाव: जलवायु परिवर्तन से प्रेरित चरम मौसमी घटनाओं से घरों, बुनियादी ढाँचे और सार्वजनिक सेवाओं को काफी नुकसान पहुँचता है, साथ ही जान-माल की हानि भी होती है।
- उदाहरण के लिये वर्ष 2016 में चक्रवात विंस्टन के कारण फिजी में व्यापक बाढ़ आई, जिसके परिणामस्वरूप 44 लोगों की जान चली गई तथा महत्त्वपूर्ण आर्थिक व्यवधान उत्पन्न हुआ।
- अप्रत्यक्ष प्रभाव: पुनर्प्राप्ति लागत और विपथन संसाधनों के कारण आर्थिक सुधार धीमा हो जाता है, तथा पर्यटन और कृषि जैसे क्षेत्र गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं।
- आर्थिक विकास में देरी होती है या प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे रिकवरी व्यय बढ़ जाता है तथा आय सृजन कम हो जाता है। उदाहरण के लिये वर्ष 2016 के चक्रवात के कारण फिजी की GDP वृद्धि 1.4% कम हो गई थी।
- छोटे द्वीपीय राज्यों को लंबे समय तक वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि वसूली लागत राष्ट्रीय ऋण में वृद्धि कर रही है। हरिकेन मारिया से उबरने के बाद डोमिनिका का ऋण-GDP अनुपात 150% रह गया है।
- जलवायु परिवर्तन की लागत: वर्ष 2000 और 2020 के बीच, SIDS ने 141 बिलियन अमेरिकी डॉलर या औसतन प्रति व्यक्ति 2,000 अमेरिकी डॉलर का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव अनुभव किया। हालाँकि, कुछ देशों में प्रति व्यक्ति व्यय काफी अधिक है (उदाहरण के लिये डोमिनिका में हरिकेन मारिया के बाद प्रति व्यक्ति 20,000 अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ)।
- चरम घटना-संबंधी अध्ययनों के अनुसार, कुल नुकसान का 38% जलवायु परिवर्तन के कारण होता है।
छोटे द्वीपीय विकासशील राज्यों पर प्रभाव को कम करने के लिये क्या प्रमुख पहल की गई हैं?
- छोटे द्वीपीय राज्यों का गठबंधन (AOSIS): यह एक अंतर-सरकारी संगठन है जो छोटे द्वीपीय राष्ट्रों का समर्थन करता है तथा अंतर्राष्ट्रीय जलवायु नीति को प्रभावित करता है।
- बारबाडोस कार्य योजना: बारबाडोस कार्य योजना (1994), 1994 में बारबाडोस में आयोजित SIDS के सतत् विकास पर संयुक्त राष्ट्र वैश्विक सम्मेलन में स्थापित, जलवायु परिवर्तन, समुद्र-स्तर में वृद्धि तथा जलवायु परिवर्तनशीलता के कारण SIDS की विशिष्ट कमज़ोरियों को संबोधित करती है।
- छोटे द्वीपीय विकासशील राज्य त्वरित कार्रवाई पद्धति (SAMOA) मार्ग: वर्ष 2014 में छोटे द्वीपीय विकासशील राज्यों पर तीसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में अपनाए गए SAMOA मार्ग का उद्देश्य SIDS के समक्ष आने वाली अनूठी चुनौतियों का समाधान करना, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और जलवायु कार्रवाई के माध्यम से उनके विकास का समर्थन करना है।
- आपदा रोधी अवसंरचना के लिये गठबंधन (CDRI): CDRI एक वैश्विक साझेदारी है, जिसे वर्ष 2019 में भारत सरकार के नेतृत्व में तथा आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNDRR) के सहयोग से जलवायु और आपदा जोखिमों के लिये अवसंरचना के लचीलेपन तथा सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये शुरू किया गया है।
- इन्फ्रास्ट्रक्चर रेज़िलिएंस एक्सेलेरेटर फंड (IRAF): UNDP और UNDRR के समर्थन से स्थापित, विकासशील देशों और SIDS पर विशेष रूप से ज़ोर देते हुए, IRAF (50 मिलियन अमेरिकी डॉलर) विकासशील देशों तथा SIDS पर ध्यान केंद्रित करते हुए आपदा रेज़िलिएंस का समर्थन करता है।
- SIDS के लिये भारत की सहायता: कुल मिलाकर, भारत ने SIDS को परियोजना सहायता के रूप में 70 मिलियन अमेरिकी डॉलर तथा रियायती ऋण तथा ऋण शृंखलाओं के रूप में 350 मिलियन अमेरिकी डॉलर देने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है, जबकि इन देशों ने सतत् विकास, विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये महत्त्वपूर्ण प्रयास किये हैं।
विकसित देशों को भुगतान करने की आवश्यकता क्यों है?
- वित्तीय उत्तरदायित्व: विकसित, औद्योगिक राष्ट्र, जो ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक हैं, संवेदनशील देशों में जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन के वित्तपोषण की प्राथमिक ज़िम्मेदारी वहन करते हैं।
- अपर्याप्त वर्तमान वित्तपोषण: वर्तमान वित्तीय वचनबद्धताएँ पहले से हो रहे नुकसान और क्षति के पैमाने को संबोधित करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
- लॉस एंड डैमेज फंड (हानि एवं क्षति कोष) को प्रतिवर्ष अरबों डॉलर की अतिरिक्त धनराशि की आवश्यकता (विशेष रूप से SIDS जैसे सर्वाधिक असुरक्षित देशों के लिये) होती है।
- मार्शल प्लान स्केल रेस्पोंस की तात्कालिकता: प्रभावों की गंभीरता को देखते हुए, इस कोष को "मॉडर्न मार्शल प्लान" की महत्वाकांक्षा के साथ डिज़ाइन किया जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रभावित देशों के पास पुनर्प्राप्ति एवं अनुकूलन के लिये पर्याप्त संसाधन हों।
- मार्शल प्लान द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व वाली एक पहल थी, जिसने पश्चिमी यूरोप के पुनर्निर्माण में मदद करने के लिये व्यापक आर्थिक सहायता प्रदान की, जिससे आर्थिक सुधार, राजनीतिक स्थिरता एवं दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा मिला।
- प्रभावी रूप से कोष का उपयोग: लॉस एंड डैमेज फंड को बजट सहायता तंत्र उपलब्ध कराना चाहिये, कृषि एवं पर्यटन में समय पर सुधार के लिये त्वरित संवितरण सुनिश्चित करना चाहिये, तथा बढ़ते ऋण बोझ से बचने हेतु रियायती वित्त की पेशकश करनी चाहिये।
- जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफलता: विकसित देश जलवायु वित्त लक्ष्यों और उत्सर्जन में कमी संबंधी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल रहे हैं।
- SIDS वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 1% से भी कम के लिये ज़िम्मेदार हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
- चूँकि जलवायु का प्रभाव अधिक गंभीर होता जा रहा है, इसलिये भविष्य के जलवायु वित्त लक्ष्यों को पर्याप्त रूप से महत्वाकांक्षी होना चाहिये ताकि वे SIDS के समक्ष आने वाली चुनौतियों सामना कर सकें।
- प्रेरित आर्थिक हानि (IELD) और FRLD: चरम मौसमी घटनाओं के कारण अप्रत्यक्ष आर्थिक हानि वर्ष वर्ष 2000 से 2022 तक कुल 107 बिलियन अमेरिकी डॉलर रही है, जिसमें से 36% जलवायु परिवर्तन के कारण हुई है।
- हानि और क्षति का प्रत्युत्तर देने के लिये कोष (FRLD) जिसका उद्देश्य सुभेद्य देशों, विशेष रूप से SIDS और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों जैसे हानि, क्षति और पुनर्प्राप्ति के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करना है, को इन अप्रत्यक्ष हानियों का भी समाधान करना चाहिये तथा कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं के लिये तेज़ी से पुनर्प्राप्ति सुनिश्चित करनी चाहिये।
- राजकोषीय तनाव: 2°C तापमान वृद्धि परिदृश्य के तहत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रभावों से संचयी नुकसान वर्ष 2050 तक प्रति वर्ष 75.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकता है।
- विकसित देशों को अपने वित्तीय योगदान को बढ़ाना होगा, तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि SIDS के तात्कालिक प्रभावों तथा दीर्घकालिक आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिये धन उपलब्ध हो।
निष्कर्ष:
UNFCCC COP27 में लॉस एंड डैमेज फंड का निर्माण SIDS के समर्थन हेतु एक महत्त्वपूर्ण कदम है। हालाँकि, विकसित देशों को जलवायु समुत्थान के लिये पर्याप्त संसाधन प्रदान करने हेतु अपनी वित्तीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करना चाहिये, इन सुभेद्य देशों पर जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रभावों को संबोधित करना चाहिये, जिससे उनका सतत् विकास सुनिश्चित हो सके।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: जलवायु परिवर्तन से निपटने में छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (SIDS) के समक्ष प्रमुख वित्तीय चुनौतियाँ क्या हैं? इन देशों को सहायता देने में अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण की भूमिका पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. “मोमेंटम फॉर चेंज: क्लाइमेट न्यूट्रल नाउ” यह पहल किसके द्वारा शुरू की गई थी? (2018) (a) जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल उत्तर: (c) |
भारत में संरक्षित क्षेत्रों का संरक्षण
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL), हूलोंगापार गिब्बन अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA), सामुदायिक रिज़र्व, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC), वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980, WWF इंडिया, काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT)। मेन्स के लिये:संरक्षित क्षेत्रों और वन्यजीव आवास के संरक्षण का महत्त्व। |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL) ने असम के हूलोंगापार गिब्बन अभयारण्य में तेल अन्वेषण हेतु एक कंपनी की सहायक कंपनी के प्रस्ताव को विलंबित कर दिया, जो लुप्तप्राय हूलॉक गिब्बन का आवास स्थल है।
- भारत की एकमात्र वानर प्रजाति के आवास के रूप में इस अभयारण्य का महत्त्व, तथा अतिक्रमण और विकास पर बढ़ती चिंताओं के कारण विकास एवं संरक्षण के बीच संतुलन बनाने पर चर्चा की जा रही है।
भारत में संरक्षित क्षेत्र और संबंधित विनियम क्या हैं?
- परिचय:
- संरक्षित क्षेत्र (PA) ऐसे निर्दिष्ट क्षेत्र हैं जिनका उद्देश्य जैव विविधता का संरक्षण करना और वन्यजीवों को मानवीय हस्तक्षेप से बचाना है।
- वर्गीकरण और विनियमन:
- राष्ट्रीय उद्यान: राष्ट्रीय उद्यान भारत में सर्वाधिक संरक्षित क्षेत्र हैं, जो उच्च स्तर की कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं।
- इन क्षेत्रों का संरक्षण वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम (WPA), 1972 के तहत किया जाता है, तथा वैज्ञानिक अनुसंधान एवं नियंत्रित पर्यटन को छोड़कर, इनकी सीमाओं के भीतर किसी भी मानवीय गतिविधियों की अनुमति नहीं है।
- खनन, लकड़ी काटना और पशुओं को चराना जैसी विकासात्मक गतिविधियाँ सख्त वर्जित हैं।
- राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधन का कार्य राज्य सरकार का है, लेकिन राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) भी इसमें, विशेष रूप से बाघों जैसी विशिष्ट प्रजातियों के लिये, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- वन्यजीव अभयारण्य: वन्यजीव अभयारण्य भी WPA, 1972 के अंतर्गत आते हैं, लेकिन राष्ट्रीय उद्यानों की तुलना में कुछ अधिक फ्लेक्सिबिटी प्रदान करते हैं।
- वे कुछ मानवीय गतिविधियों, जैसे चराई और वन उत्पादों के संग्रहण की अनुमति देते हैं, बशर्ते कि वे वन्यजीवों पर प्रतिकूल प्रभाव न डालें।
- अभयारण्यों का प्रबंधन वन्यजीव संगठनों और विशेषज्ञों के सहयोग से राज्य वन विभागों के अधिकार क्षेत्र में आता है।
- संरक्षण रिज़र्व: संरक्षण रिज़र्व WPA के तहत निर्दिष्ट क्षेत्र हैं जहाँ वन्यजीव और जैव विविधता संरक्षित है, लेकिन मानव गतिविधियों, जैसे चराई और जलाऊ लकड़ी संग्रह, को विनियमन के तहत अनुमति दी जाती है।
- इन क्षेत्रों का निर्माण महत्त्वपूर्ण आवासों को सुरक्षित रखने, वन्यजीव गलियारों की रक्षा करने तथा अत्यधिक संरक्षित क्षेत्रों के बाहर जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये किया गया है।
- ये क्षेत्र स्थानीय समुदायों को स्थायी आजीविका बनाए रखते हुए संरक्षण प्रयासों में भाग लेने की अनुमति देते हैं।
- राज्य सरकार स्थानीय हितधारकों और संरक्षणवादियों की भागीदारी से इन क्षेत्रों का प्रबंधन करती है।
- सामुदायिक रिज़र्व: सामुदायिक रिज़र्व संरक्षण हेतु निर्दिष्ट क्षेत्र हैं, जिनमें प्राकृतिक संसाधनों और वन्य जीव के संरक्षण में स्थानीय समुदायों की प्रत्यक्ष भागीदारी शामिल होती है।
- ये रिज़र्व निजी या सामुदायिक स्वामित्व वाली भूमि पर स्थापित किये जा सकते हैं, जिनका लक्ष्य जैव विविधता संरक्षण एवं सतत् संसाधन प्रबंधन में सुधार करना है।
- पर्यटन, कृषि और छोटे पैमाने पर वन उत्पाद निष्कर्षण जैसी गतिविधियाँ तब तक अनुमेय हैं जब तक वे संरक्षण लक्ष्यों के अनुरूप हों।
- इसका प्रबंधन राज्य सरकार द्वारा किया जाता है, लेकिन इसमें स्थानीय समुदायों और गैर सरकारी संगठनों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
- राष्ट्रीय उद्यान: राष्ट्रीय उद्यान भारत में सर्वाधिक संरक्षित क्षेत्र हैं, जो उच्च स्तर की कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं।
विनियामक प्राधिकरण
- पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC): MoEFCC राष्ट्रीय स्तर पर वन्यजीव संरक्षण एवं वन प्रबंधन के लिये ज़िम्मेदार शीर्ष निकाय है।
- यह संरक्षित क्षेत्रों के विकास और रखरखाव के लिये नीतियाँ, दिशा-निर्देश तैयार करता है तथा वित्तपोषण उपलब्ध कराता है।
- पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत वन्यजीव विभाग वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों की देखरेख करता है तथा WPA के अनुपालन को सुनिश्चित करता है।
- राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL): NBWL एक सलाहकार निकाय है जो संरक्षित क्षेत्रों में या उसके आसपास परियोजनाओं के अनुमोदन सहित संरक्षण के मुद्दों पर सिफारिशें प्रदान करता है।
- यह नए संरक्षित क्षेत्रों और उनकी प्रबंधन योजनाओं को मंजूरी देने के लिये भी ज़िम्मेदार है।
- राज्य वन विभाग: प्रत्येक राज्य का अपना वन विभाग होता है जो अपने अधिकार क्षेत्र में संरक्षित क्षेत्रों का प्रबंधन करता है। यह विभाग दिन-प्रतिदिन के कार्यों, संरक्षण कानूनों के प्रवर्तन और वन्यजीव आबादी की निगरानी के लिये ज़िम्मेदार होता है।
- ये विभाग वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 को लागू करने के लिये भी ज़िम्मेदार हैं, जो संरक्षित क्षेत्रों में आने वाले वन क्षेत्रों सहित वनों की कटाई और भूमि उपयोग परिवर्तन को नियंत्रित करता है।
- वन्यजीव संरक्षण सोसायटी और गैर सरकारी संगठन: विभिन्न वन्यजीव संरक्षण संगठन, जैसे कि भारतीय वन्यजीव संरक्षण सोसायटी (WPSI) और WWF इंडिया, संरक्षित क्षेत्रों की ज़मीनी सुरक्षा, अवैध गतिविधियों की निगरानी तथा मज़बूत संरक्षण कानूनों के समर्थन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
संरक्षित क्षेत्रों से संबंधित मुद्दे और चुनौतियाँ क्या हैं?
- अतिक्रमण और विकासात्मक गतिविधियाँ: सड़कें, औद्योगिक क्षेत्र, खनन कार्य और अन्य बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ संरक्षित क्षेत्रों पर अधिक से अधिक दबाव डाल रही हैं।
- उदाहरण के लिये, काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान से होकर सड़क निर्माण और पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य के पास औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना के प्रस्तावों ने आवास विनाश के बारे में चिंताएँ उत्पन्न कर दी हैं।
- प्रवर्तन और निगरानी का अभाव: PA के प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण मुद्दों में से एक कानूनों के प्रभावी प्रवर्तन का अभाव है।
- कुछ मामलों में, संरक्षित क्षेत्र अपर्याप्त जनशक्ति, खराब निगरानी प्रणाली और भ्रष्टाचार के कारण अवैध गतिविधियों को रोकने में असमर्थ हैं।
- संरक्षण और विकास के बीच संघर्ष: संरक्षण और विकास हितों के बीच तनाव अक्सर नीतिगत संघर्षों को जन्म देता है।
- उदाहरण के लिये, असम में हूलोंगापार गिब्बन अभयारण्य और पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य चर्चा का विषय रहे हैं, जहाँ उद्योगपति ऐसी परियोजनाओं पर ज़ोर दे रहे हैं, जो इन क्षेत्रों की पारिस्थितिक अखंडता के लिये खतरा उत्पन्न करती हैं।
- राजनीतिक और संस्थागत विफलताएँ: संरक्षित क्षेत्रों में उल्लंघनों के विरुद्ध समय पर और प्रभावी कार्रवाई करने में स्थानीय सरकारों तथा वन विभागों की विफलता के कारण भी संरक्षण प्रयासों में कमी आई है।
- राजनीतिक दबाव कभी-कभी पर्यावरणीय चिंताओं पर भारी पड़ जाते हैं, जैसा कि असम में बराक भुबन वन्यजीव अभयारण्य से होकर गुजरने वाली सड़क के लिये विवादास्पद मंजूरी या काज़ीरंगा के निकट नियोजित होटल निर्माण के मामले में देखा जा सकता है।
- सामुदायिक प्रतिरोध और भूमि अधिकार: संरक्षण नियमों के लागू होने से अक्सर स्थानीय समुदायों के साथ संघर्ष होता है, खासकर तब जब उनकी पारंपरिक आजीविका बाधित होती है।
- जलवायु परिवर्तन और आवास की क्षति: कई संरक्षित क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना कर रहे हैं, जो आवासों प्रभावित, प्रजातियों के क्षेत्रों को स्थानांतरित, तथा चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति को बढ़ा रहा है।
आगे की राह:
- प्रवर्तन तंत्र को मज़बूत करना: अतिक्रमण और अवैध गतिविधियों को रोकने के लिये संरक्षित क्षेत्रों की प्रभावी निगरानी, गश्त एवं नियंत्रण आवश्यक है।
- उदाहरण के लिये बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में हाथियों की हाल ही में हुई मौत वन्यजीव प्रबंधन में गंभीर चूक को उज़ागर करती है। संरक्षित क्षेत्रों में भविष्य में होने वाली त्रासदियों को रोकने के लिये इस तरह की लापरवाही को दूर किया जाना चाहिये।
- विकास परियोजनाओं के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश: संरक्षित क्षेत्रों के निकट या अंदर विकास परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये अधिक पारदर्शी एवं मज़बूत तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
- दिशा-निर्देशों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि किसी भी प्रस्तावित परियोजना का पर्यावरणीय प्रभाव का गहन मूल्यांकन किया जाए, तथा वन्यजीव आवासों को होने वाले नुकसान को कम करने के लिये विशिष्ट उपाय किये जाएं।
- समावेशी संरक्षण मॉडल: स्थानीय समुदायों को संरक्षण में संलग्न होना चाहिये, तथा विस्तारित संरक्षण एवं सामुदायिक आरक्षित मॉडल के माध्यम से सतत् आजीविका को बढ़ावा देना चाहिये।
- इन मॉडलों में क्षमता निर्माण कार्यक्रम शामिल होने चाहिये ताकि समुदायों को वैकल्पिक आय स्रोत विकसित करने में मदद मिल सके जो वन्यजीवों के लिये हानिकारक न हों।
- कानूनी और संस्थागत सुधार: मौजूदा कानूनी ढाँचे व्यापक होने के बावजूद बेहतर क्रियान्वयन की ज़रूरत है। वन (संरक्षण) अधिनियम और WPA को उल्लंघन के लिये सख्त दंड के साथ मज़बूत किया जाना चाहिये, और स्थानीय सरकारी संस्थानों को संरक्षण कानूनों को बनाए रखने में विफल रहने के लिये जवाबदेह बनाया जाना चाहिये।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने उल्लंघनों को दूर करने में सक्रिय भूमिका दिखाई है, लेकिन कानूनी प्रक्रियाओं की गति में सुधार की आवश्यकता है।
- जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटना: जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील संरक्षित क्षेत्रों को बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों से निपटने के लिये अनुकूली संरक्षण रणनीतियों की आवश्यकता है।
- जन जागरूकता और समर्थन: संरक्षित क्षेत्रों एवं वन्यजीवों के बारे में जन जागरूकता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है। गैर सरकारी संगठनों, कार्यकर्त्ताओं एवं मीडिया को संरक्षण पर प्रकाश डालना चाहिये तथा विकास एवं पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाने पर संवाद को बढ़ावा देना चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: संरक्षित क्षेत्रों के निकट विकास संबंधी परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देशों और मज़बूत तंत्र की आवश्यकता का मूल्यांकन कीजिये, तथा ऐसे उपाय वन्यजीव आवासों को होने वाले नुकसान को कैसे रोक सकते हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय अनूप मृग (बारहसिंगा) की उस उपजाति, जो पक्की भूमि पर फलती-फूलती है और केवल घासभक्षी है, के संरक्षण के लिये निम्नलिखित में से कौन-सा संरक्षित क्षेत्र प्रसिद्ध है? (2020) (a) कान्हा राष्ट्रीय उद्यान उत्तर: (a) |
सेंडाई फ्रेमवर्क और DRR के प्रति भारत की प्रतिबद्धता
प्रिलिम्स के लिये:सेंडाई फ्रेमवर्क, 2015, एशियाई आपदा तैयारी केंद्र, CDRI, DRR के प्रति भारत की प्रतिबद्धता, G20 आपदा जोखिम न्यूनीकरण (DRR), सतत् विकास लक्ष्य मेन्स के लिये:वैश्विक आपदा जोखिम न्यूनीकरण में भारत की भूमिका, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये पहल, DRR में भारत के लिये प्रमुख चुनौतियाँ, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये प्रमुख समिति की सिफारिशें। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
ब्राज़ील के बेलेम में G20 आपदा जोखिम न्यूनीकरण (डिज़ास्टर रिस्क रिडक्सन-DRR) कार्य समूह मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में वैश्विक आपदा जोखिम न्यूनीकरण (DRR) पहलों के प्रति भारत की अटूट प्रतिबद्धता पर बल दिया गया।
- बैठक में वर्ष 2015 का सेंडाई फ्रेमवर्क के प्रति भारत की प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया गया, जिसका उद्देश्य आपदा जोखिम एवं क्षति को कम करना है।
नोट:
- G20 देशों द्वारा गठित G20 आपदा जोखिम न्यूनीकरण (DRR) कार्य समूह का उद्देश्य सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के निवेश निर्णयों और नीति निर्माण में जोखिम न्यूनीकरण उपायों को एकीकृत करना है, ताकि मौजूदा जोखिम को कम किया जा सके, नए जोखिम के निर्माण को रोका जा सके तथा अंततः लचीली अर्थव्यवस्थाओं, समाजों एवं प्राकृतिक प्रणालियों का निर्माण किया जा सके।
सेंडाई फ्रेमवर्क (2015-2030) क्या है?
- परिचय: यह एक संयुक्त राष्ट्र समर्थित ढाँचा है, जो बेहतर तैयारी, आपदा जोखिम वित्तपोषण और सतत् विकास जैसे उपायों के माध्यम से आपदा जोखिमों को कम करने पर ध्यान केंद्रित करता है।
- इसे वर्ष 2015 में सेंडाई, मियागी, जापान में आयोजित आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन में अपनाया गया था।
- यह ह्योगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन (HFA) 2005-2015: आपदाओं के प्रति राष्ट्रीय और सामुदायिक लचीलापन पर केंद्रित है।
- आपदा जोखिम को कम करने में प्राथमिक भूमिका राज्य की है, लेकिन यह ज़िम्मेदारी स्थानीय सरकार, निजी क्षेत्र और अन्य हितधारकों सहित अन्य हितधारकों के साथ साझा की जानी चाहिये।
- इसे वर्ष 2015 में सेंडाई, मियागी, जापान में आयोजित आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन में अपनाया गया था।
- कार्यान्वयन संगठन: संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (UNDRR) को सेंडाई फ्रेमवर्क के कार्यान्वयन, अनुवर्ती कार्रवाई और समीक्षा में सहायता करने का कार्य सौंपा गया है।
- एजेंडा 2030 में भूमिका: सेंडाई फ्रेमवर्क अन्य एजेंडा 2030 समझौतों के साथ मिलकर कार्य करता है, जिसमें पेरिस समझौता (2015), विकास के लिये वित्तपोषण पर अदीस अबाबा एक्शन एजेंडा (2015), न्यू अर्बन एजेंडा और अंततः सतत् विकास लक्ष्य शामिल हैं।
नोट:
- ह्योगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन (HFA) 2005 और 2015 के बीच आपदा जोखिम न्यूनीकरण प्रयासों के लिये वैश्विक ब्लूप्रिंट था। इसे वर्ष 2005 में कोबे, ह्योगो, जापान में आयोजित आपदा न्यूनीकरण पर दूसरे विश्व सम्मेलन में अपनाया गया था ।
- वर्ष 1994 में प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण पर पहला विश्व सम्मेलन योकोहामा, जापान में आयोजित किया गया था।
- इसका लक्ष्य वर्ष 2015 तक आपदा से होने वाली क्षति, जीवन के साथ-साथ समुदायों तथा देशों की सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय परिसंपत्तियों को होने वाली क्षति को भी कम करना है।
DRR पहल में भारत की क्या भूमिका रही है?
- वैश्विक स्तर:
- G20: वर्ष 2023 में G20 की अध्यक्षता के दौरान, भारत ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्य समूह के गठन की पहल की, जो आपदा समुत्थान (Disaster Resilience) के लिये वैश्विक सहयोग में एक मील का पत्थर साबित होगा।
- G20 की अध्यक्षता में भारत ने पाँच प्राथमिकताओं के आधार पर इस मुद्दे पर अपना सक्रिय दृष्टिकोण व्यक्त किया है।
- पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ
- आपदा-रोधी अवसंरचना
-
आपदा जोखिम न्यूनीकरण वित्तपोषण
- रिकवरी रेज़िलिएशन
- प्रकृति आधारित समाधान
- G20 की अध्यक्षता में भारत ने पाँच प्राथमिकताओं के आधार पर इस मुद्दे पर अपना सक्रिय दृष्टिकोण व्यक्त किया है।
- G20: वर्ष 2023 में G20 की अध्यक्षता के दौरान, भारत ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्य समूह के गठन की पहल की, जो आपदा समुत्थान (Disaster Resilience) के लिये वैश्विक सहयोग में एक मील का पत्थर साबित होगा।
- आपदा रोधी अवसंरचना के लिये गठबंधन (CDRI): भारत के नेतृत्व में CDRI आपदा रोधी अवसंरचना के निर्माण और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करता है।
- अब इसमें 40 देश और सात अंतर्राष्ट्रीय संगठन शामिल हैं ।
- द्विपक्षीय और बहुपक्षीय भागीदारी: ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका के साथ त्रिपक्षीय बैठकों में भारत की भागीदारी, साथ ही जापान, जर्मनी और दक्षिण कोरिया जैसे देशों के साथ द्विपक्षीय संवाद, वैश्विक आपदा जोखिम न्यूनीकरण नीतियों को आकार देने में भारत के बढ़ते प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं।
- एशियाई आपदा तैयारी केंद्र (ADPC): ADPC एक स्वायत्त अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जो एशिया और प्रशांत क्षेत्र में आपदा जोखिम न्यूनीकरण तथा जलवायु लचीलेपन पर केंद्रित है। भारत ने वर्ष 2024-25 के लिये एशियाई आपदा तैयारी केंद्र (ADPC) के अध्यक्ष का पदभार संभाला।
- इसकी स्थापना भारत और आठ पड़ोसी देशों: बांग्लादेश, कंबोडिया, चीन, नेपाल, पाकिस्तान, फिलीपींस, श्रीलंका और थाईलैंड द्वारा की गई थी।
- राष्ट्रीय स्तर:
- आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005: आपदाओं और इससे जुड़े अन्य मामलों के कुशल प्रबंधन के लिये भारत सरकार द्वारा वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम पारित किया गया था।
- NDMA का औपचारिक गठन 27 सितंबर, 2006 को आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अनुसार किया गया था, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री और नौ अन्य सदस्य थे तथा एक सदस्य को उपाध्यक्ष के रूप में नामित किया गया था।
- राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) आपदा प्रतिक्रिया के लिये समर्पित दुनिया का सबसे बड़ा त्वरित प्रतिक्रिया बल है। इसका गठन वर्ष 2006 में आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं के लिये विशेष प्रतिक्रिया के उद्देश्य से किया गया था।
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (NDMP): राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (NDMP) केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों, राज्य सरकारों, केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासनों, ज़िला प्राधिकरणों और स्थानीय स्वशासन सहित विभिन्न हितधारकों की भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को परिभाषित करती है।
- वर्ष 2016 की NDMP विश्व की पहली राष्ट्रीय योजना थी, जो सेंडाई फ्रेमवर्क के साथ स्पष्ट रूप से संरेखित थी। संशोधित NDMP वर्ष 2019 में पेश किया गया था।
DRR में भारत के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- जोखिम प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर तैयारियों में, खासकर बड़े भूकंप और बाढ़ जैसी भयावह आपदाओं के लिये, महत्त्वपूर्ण अंतराल हैं। विभिन्न सरकारी एजेंसियों और हितधारकों के बीच खराब समन्वय आपदा प्रतिक्रिया एवं पुनर्प्राप्ति में अक्षमता का कारण बन सकता है।
- भारत की आपदा जोखिम प्रबंधन क्षमता को इसके विशाल जनसंख्या के कारण चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष 2030 तक दुनिया के किसी भी देश की तुलना में भारत में चरम मौसम और प्राकृतिक आपदाओं का सबसे अधिक जोखिम होने की संभावना है।
- कई क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे की कमी है , जिससे अधिक नुकसान और क्षति होती है। पूर्वोत्तर क्षेत्र भूकंप से सबसे अधिक जोखिम में है तथा यहाँ भूकंपीय रूप से सुरक्षित बुनियादी ढाँचे और भवनों का अभाव है। यह भूस्खलन, बाढ़ और कटाव के प्रति भी संवेदनशील है।
- जनता में प्रायः जागरूकता और तैयारी की कमी होती है, जिससे प्रभावी आपदा प्रतिक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।
- आपदा प्रबंधन के लिये वित्तीय और मानव संसाधन अक्सर अपर्याप्त होते हैं, जिससे जोखिम न्यूनीकरण उपायों का कार्यान्वयन प्रभावित होता है।
आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये प्रमुख समिति की सिफारिशें क्या हैं?
- आपदा प्रबंधन और राहत 2019 के लिये केंद्रीय सहायता पर स्थायी समिति की रिपोर्ट:
- राहत का पैमाना: सभी प्रमुख आपदा व्यय को कवर करने के लिये राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (SDRF) और राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (NDRF) के मानदंडों का विस्तार किया जाएगा।
- आपदा न्यूनीकरण निधि: आपदा-प्रवण राज्यों में स्थायी न्यूनीकरण उपाय करने के लिये एक अलग आपदा न्यूनीकरण निधि का संचालन किया जाएगा।
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वित्तपोषण तंत्र: केन्द्र प्रायोजित निधियों का 10% विशेष रूप से क्षतिग्रस्त संरचनाओं की स्थायी बहाली के लिये निर्धारित किया जाएगा।
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द्वितीय ARC द्वारा अनुशंसित सुधार:
- दीर्घकालिक न्यूनीकरण और आपातकालीन प्रतिक्रिया के लिये ज़िला आपदा प्रबंधन योजना का सुझाव दिया गया।
- संविधान में आपदा के लिये अलग प्रावधान।
- आपदा प्रबंधन को शिक्षा पाठ्यक्रम में एक विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिये।
- आपदा प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति लागू की जाएगी।
- राज्य सरकारों को आपदा/संकट प्रबंधन की प्राथमिक ज़िम्मेदारी संभालनी चाहिये, तथा केंद्र द्वारा सरकार सहयोग प्रदान किया जाना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: वैश्विक आपदा जोखिम न्यूनीकरण में भारत की भूमिका पर चर्चा कीजिये, विशेष रूप से G20 ढाँचे के माध्यम से, तथा मूल्यांकन कीजिये कि इसकी प्राथमिकताएँ सेंडाई फ्रेमवर्क 2015-30 के साथ किस प्रकार संरेखित हैं। घरेलू स्तर पर प्रभावी आपदा जोखिम न्यूनीकरण को लागू करने में भारत को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से किस एक समूह में चारों देश G-20 के सदस्य हैं? (2020) (a) अर्जेंटीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की उत्तर: (a) |