भारतीय राजनीति
केशवानंद भारती वाद और ‘मूल संरचना’ का सिद्धांत
प्रिलिम्स के लियेकेशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, संबंधित संविधान संशोधन, अनुच्छेद 368, इस वाद की पृष्ठभूमि में मौजूद सभी कानूनी मामले मेन्स के लियेभारतीय लोकतंत्र में ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत की भूमिका और इसका महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
केरल स्थित एडनीर मठ (Edneer Mutt) के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती का 79 वर्ष की आयु में केरल के कासरगोड (Kasaragod) स्थित आश्रम में निधन हो गया है। गौरतलब है कि स्वामी केशवानंद भारती द्वारा दायर याचिका में ही सर्वोच्च न्यायालय ने 24 अप्रैल, 1973 को संविधान की ‘मूल संरचना’ (Basic Structure) का ऐतिहासिक सिद्धांत दिया था।
प्रमुख बिंदु
- ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ वाद (1973) में दिये गए निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय के सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णयों में से एक माना जाता है क्योंकि इसके माध्यम से भारतीय संविधान की उस ‘मूल संरचना’ को निर्धारित किया गया, जिसे संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है।
केशवानंद भारती
- स्वामी केशवानंद भारती वर्ष 1961 से ही केरल के कासरगोड ज़िले में स्थित एडनीर मठ के प्रमुख के रूप में कार्य कर रहे थे। केशवानंद भारती को केरल भूमि सुधार कानून को चुनौती देने और सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत के लिये आज भी याद किया जाता है और भविष्य में भी किया जाता रहेगा।
- इस मामले की सुनवाई के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने 13 न्यायाधीशों की एक खंडपीठ का गठन किया था, जो कि अब तक सबसे बड़ी खंडपीठ थी। इस मामले की सुनवाई कुल छह माह तक तकरीबन 68 कार्यदिवसों में पूरी की गई थी।
केशवानंद भारती वाद- पृष्ठभूमि
- किसी देश का संविधान उस देश का मूलभूत कानून होता है, इस दस्तावेज़ के आधार पर देश में अन्य सभी कानून बनाए और लागू किये जाते हैं।
- कई देशों के संविधानों में उसके कुछ विशिष्ट हिस्सों को संशोधन के प्रावधानों से सुरक्षा प्रदान की गई है, इन विशिष्ट हिस्सों को संविधान के अन्य हिस्सों की तुलना में खास दर्जा दिया गया है।
- भारतीय संविधान के लागू होने के साथ ही संविधान के कुछ प्रावधानों को संशोधित करने की संसद की शक्ति को लेकर बहस शुरू हो गई थी।
- स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार वाद’ (1951) और ‘सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार वाद’ (1965) में निर्णय देते हुए संसद को संविधान में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति प्रदान की।
- बाद के वर्षों में जब सत्तारुढ़ सरकार ने अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिये संविधान संशोधन जारी रखा तो गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद (1967) में अपने पुराने निर्णयों को बदलते हुए निर्णय दिया कि संसद के पास मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की शक्ति नहीं है।
- 1970 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन सरकार ने ‘आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970), ‘माधवराव सिंधिया बनाम भारत संघ (1970) और पूर्व उल्लेखित गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद (1967) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये निर्णयों को बदलने के उद्देश्य से संविधान में कई महत्त्वपूर्ण संशोधन (24वाँ, 25वाँ, 26वाँ और 29वाँ) किये।
- इन सभी संशोधनों और गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में चुनौती दी गई। असल में इस मामले में एडनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती द्वारा याचिका के माध्यम से केरल सरकार के दो राज्य भूमि सुधार कानूनों से राहत की मांग की गई थी।
- दरअसल 1970 के दौर में केरल की तत्कालीन सरकार द्वारा नागरिकों के बीच समानता स्थापित करने हेतु भूमि सुधार कानून लाए गए, इन कानूनों के तहत राज्य सरकार ने ज़मींदारों और मठों के पास मौजूद भूमि का अधिग्रहण कर लिया, इसी निर्णय के तहत एडनीर मठ की भूमि का भू अधिग्रहण कर लिया गया था। राज्य सरकार के इसी निर्णय को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में चुनौती दी गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और संविधान की ‘मूल संरचना’
- चूँकि गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद में 11 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने निर्णय लिया था, इसलिये केशवानंद भारती मामले की सुनवाई करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 13 न्यायाधीशों की खंडपीठ का गठन किया गया।
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13-सदस्यीय खंडपीठ के सदस्यों के बीच भारी वैचारिक मतभेद देखने को मिला और खंडपीठ ने 7-6 से निर्णय दिया कि संसद को संविधान की मूल संरचना में परिवर्तन करने से रोका जाना चाहिये।
- खंडपीठ ने यह स्पष्ट किया कि संविधान के कुछ हिस्से इतने अंतर्निहित और महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्हें संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 जो कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्तियाँ प्रदान करता है, के तहत संविधान की आधारभूत संरचना में बदलाव नहीं किया जा सकता है।
‘मूल संरचना’ का सिद्धांत
- ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत की उत्पत्ति असल में जर्मनी के संविधान में पाई जाती है, जिसे नाज़ी शासन के बाद कुछ बुनियादी कानूनों की रक्षा के लिये संशोधित किया गया था।
- जर्मनी में नाज़ी शासन के पूर्व के संविधान में संसद को दो-तिहाई बहुमत के साथ संविधान संशोधन की शक्ति दी गई थी और इन्ही प्रावधानों का उपयोग हिटलर द्वारा कई महत्त्वपूर्ण बदलाव करने के लिये किया गया था।
- इन्ही अनुभवों से सीखते हुए जर्मनी के नए संविधान में इसके कुछ विशिष्ट हिस्सों को संशोधित करने के लिये संसद की शक्तियों पर पर्याप्त सीमाएँ लागू की गई।
- भारत में मूल संरचना सिद्धांत के माध्यम से संसद द्वारा पारित सभी कानूनों की न्यायिक समीक्षा का आधार प्रस्तुत किया गया है।
- हालाँकि, बुनियादी संरचना क्या है, यह निरंतर विचार-विमर्श का विषय रहा है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मूल संरचना’ को परिभाषित नहीं किया, किंतु संविधान की कुछ विशेताओं को ‘मूल संरचना’ के रूप निर्धारित किया है, जिसमें संघवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र, मौलिक अधिकार, न्यायिक समीक्षा आदि शामिल हैं। तब से इस सूची का निरंतर विस्तार किया जा रहा है।
निष्कर्ष
यद्यपि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में एडनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती को केरल सरकार के कानूनों से तो राहत नहीं मिल सकी थी, किंतु इस मामले से भारतीय लोकतंत्र की जीत ज़रूर हुई थी। इस सिद्धांत के आलोचक इसे अलोकतांत्रिक सिद्धांत मानते हैं, क्योंकि यह न्यायाधीशों को जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के बनाए कानूनों को रद्द करने का अधिकार देता है। वहीं इसके समर्थकों का मत है कि यह सिद्धांत बहुसंख्यकवाद और अधिनायकवाद के विरुद्ध एक सुरक्षा उपकरण के रूप में कार्य करता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
गैर-सरकारी संगठनों के विदेशी अंशदान पर सख्ती
प्रिलिम्स के लिये:गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम मेन्स के लिये:विदेशी अंशदान का दुरुपयोग और इसका नियंत्रण |
चर्चा में क्यों?
केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा ‘विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम’ (Foreign Contribution Regulation Act -FCRA) के तहत 6 ‘गैर-सरकारी संस्थाओं’ (Non-Governmental Organizations or NGOs) का लाइसेंस रद्द कर दिया गया है।
प्रमुख बिंदु:
- वर्ष 2020 में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जिन 6 NGOs के लाइसेंस रद्द किये गए हैं उनमें से 4 ईसाई संगठन (Christian Associations) हैं।
- इनमें से कई संगठनों के दानकर्त्ताओं के प्रभाव के संदर्भ में चिंताएँ व्यक्त की गई थी।
- इससे पहले वर्ष 2016 में भी FCRA के प्रावधानों के उल्लंघन के कारण लगभग 20,000 गैर-सरकारी संस्थाओं के लाइसेंस रद्द कर दिये गए थे।
- ध्यातव्य है कि गैर-सरकारी संस्थाओं को विदेशी चंदा/अंशदान प्राप्त करने के लिये FCRA लाइसेंस प्राप्त करना अनिवार्य होता है।
- वर्तमान में देश में 22,457 NGOs या अन्य संगठन FCRA के तहत पंजीकृत हैं, जबकि वर्ष 2012 से अब तक 20,674 NGOs का FCRA लाइसेंस रद्द किया जा चुका है और 6,702 NGOs के FCRA लाइसेंस नवीनीकरण के अभाव में समाप्त को गए।
प्रभावित संस्थाएँ और पृष्ठभूमि:
- एक्रियोसोकुलिस नॉर्थ वेस्टर्न गॉसनर इवैंजेलिकल (Ecreosoculis North Western Gossner Evangelical)- झारखंड
- एवैंजेलिकल चर्चेस एसोसिएशन (Evangelical Churches Association- ECA)- मणिपुर (वर्ष 1952 में स्थापित, यह एक वेल्श प्रेस्बिटेरियन मिशनरी से संबंधित है, जिसने 1910 में भारत का दौरा किया था। )
- नॉर्दर्न इवैंजेलिकल लूथरन चर्च (Northern Evangelical Lutheran Church)- झारखंड (वर्ष 1987 में स्थापित, यह लूथरन परंपरा पर आधारित विश्व के 99 देशों में फैले 148 चर्चों के समूह का हिस्सा है।)
- न्यू लाइफ फैलोशिप एसोसिएशन (New Life Fellowship Association- NLFA)- मुंबई (वर्ष 1964 में न्यूजीलैंड के न्यू लाइफ चर्च से मिशनरियों के आगमन के बाद इस संस्था ने भारत में 1960 के दशक में कार्य करना प्रारंभ किया।)
- गृह मंत्रालय द्वारा ‘राजनंदगाँव लेप्रोसी हॉस्पिटल एंड क्लीनिक’ (Rajnandgaon Leprosy Hospital and Clinics) और ‘डॉन बॉस्को ट्राइबल डेवलपमेंट सोसाइटी’ नामक दो अन्य NGOs के FCRA लाइसेंस को रद्द कर दिया गया है।
FCRA लाइसेंस निरस्तीकरण से जुड़े पूर्व मामले:
- वर्ष 2017 में गृह मंत्रालय द्वारा अमेरिका के ‘कंपैशन इंटरनेशनल’ (Compassion International) नामक NGO को धार्मिक मतांतरण को बढ़ावा देने से संबंधित गतिविधियों में शामिल पाए जाने के बाद संस्था को भारत में अपनी कार्यक्रमों को बंद करना पड़ा था।
- तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव के अनुसार, ‘कंपैशन इंटरनेशनल’ द्वारा FCRA के दिशा निर्देशों का सही से पालन नहीं किया जा रहा था।
- इसके अतिरिक्त वर्ष 2017 में ही ‘ब्लूमबर्ग फिलैंथ्रपीज़‘ (Bloomberg Philanthropies) नामक अमेरिकी धर्मार्थ संगठन से अनुदान प्राप्त करने वाले दो अन्य NGOs के FCRA लाइसेंस के नवीनीकरण के आवेदन को रद्द कर दिया गया था।
- ‘ब्लूमबर्ग फिलैंथ्रपीज़‘ न्यूयॉर्क के पूर्व मेयर और अरबपति माइकल ब्लूमबर्ग द्वारा स्थापित एक धर्मार्थ संस्थान है।
- गौरतलब है कि वर्ष 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री और न्यूयॉर्क के पूर्व मेयर माइकल ब्लूमबर्ग ने ‘ब्लूमबर्ग फिलैंथ्रपीज़‘ की सहायता से भारत में ‘स्मार्ट सिटीज़’ (Smart Cities) के निर्माण हेतु एक संयुक्त पहल की घोषणा की थी।
कारण:
- नवंबर 2019 में कुछ हिंदू समूहों ने NLFA पर धार्मिक मतांतरण को बढ़ावा देने का आरोप लगाया था और इस संदर्भ में एक पुलिस शिकायत भी दायर की थी।
- गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, 10 फरवरी 2020 को NLFA के FCRA लाइसेंस को रद्द कर दिया गया था।
भारत में NGOs से जुड़ी समस्याएँ:
- वर्ष 2015 में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (Central Bureau of Investigation-CBI) द्वारा सर्वोच्च न्यायलय को दी गई जानकारी के अनुसार, भारत में सक्रिय कुल NGOs की संख्या लगभग 31 लाख बताई गई थी।
- देश में बड़ी संख्या में NGOs के कार्यों और वित्तीय प्रबंधन के संदर्भ में पारदर्शिता का अभाव पाया गया है।
- वर्ष 2015 में देश में सक्रिय कुल NGOs में से 10% से भी कम ने ही अपनी बैलेंस शीट और आय-व्यय विवरण को जमा करने से संबंधी अनिवार्यताओं को पूरा किया था।
- वर्ष 2017 में अनेक NGOs को लगातार 5 वर्षो तक अपने वार्षिक रिटर्न न दाखिल करने के कारण नोटिस जारी किया गया था।
गैर-सरकारी संस्था (Non-Governmental Organization or NGO):
- गैर-लाभकारी या गैर-सरकारी संस्थान या एनजीओ (NGO) से आशय ऐसी संस्थाओं से है जो न तो सरकार का हिस्सा होती हैं और न ही वे अन्य व्यावसायिक संस्थानों की तरह लाभ के उद्देश्य से कार्य करती हैं।
- भारत में ‘धार्मिक विन्यास अधिनियम, 1863’, सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम, 1860, भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882’ आदि के तहत NGOs का पंजीकरण किया जाता है।
विदेशी अंशदान:
- विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 के तहत किसी व्यक्ति/संस्था/कंपनी आदि द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी विदेशी स्रोत से उपहार के रूप में प्राप्त कोई वस्तु, मुद्रा या प्रतिभूतियों (जिसका मूल्य उस तिथि को 25,000 रुपए से अधिक हो) को विदेशी अंशदान के रूप में परिभाषित किया गया है।
‘विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम’
(Foreign Contribution Regulation Act -FCRA):
- किसी विदेशी नागरिक या संस्था द्वारा भारत में किसी NGO या अन्य संस्थाओं को दिये गए अंशदान को विनियमित करने के लिये वर्ष 1976 में विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम लागू किया गया।
- वर्ष 2010 में इस अधिनियम में बड़े पैमाने पर सुधार किये गए।
- भारत में कार्यरत NGOs को विदेशी अंशदान प्राप्त करने के लिये FCRA के तहत केंद्रीय गृह मंत्रालय में पंजीकरण कराना अनिवार्य होता है।
- इस अधिनियम के तहत NGOs का FCRA लाइसेंस पाँच वर्ष के लिये वैध होता है।
- FCRA के तहत पंजीकरण के बगैर कोई भी NGO या अन्य संस्थान 25,000 रुपए से अधिक की आर्थिक सहायता या कोई अन्य विदेशी अंशदान नहीं स्वीकार कर सकते।
आगे की राह :
- NGOs समाज में सरकार और निजी क्षेत्र की पहुँच से दूर रह गए लोगों तक मूलभूत सुविधाएँ पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
- ऐसे में सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि किसी भी सामाजिक संस्था पर राजनीतिक दुर्भावना या कानूनों के दुरुपयोग के माध्यम से गलत कार्रवाई न की जाए।
- हाल के वर्षों में देश में NGOs की कार्यशैली से संबंधित अनियमितताओं को देखते हुए देश में NGOs के पंजीकरण के नियमों में आवश्यक सुधार किये जाने चाहिये।
- NGOs के अंशदान और वित्तीय व्यय के विवरण की नियमित जाँच की जानी चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
आंतरिक सुरक्षा
असम राइफल्स की दोहरी नियंत्रण संरचना
प्रिलिम्स के लियेअसम राइफल्स, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल मेन्स के लियेसीमा प्रबंधन से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को असम राइफल्स (Assam Rifles) के लिये दोहरी नियंत्रण संरचना को समाप्त करने अथवा उसे बनाए रखने को लेकर निर्णय लेने हेतु 12 सप्ताह का समय दिया है।
प्रमुख बिंदु
- ध्यातव्य है कि वर्तमान में असम राइफल्स का नियंत्रण गृह मंत्रालय (MHA) तथा रक्षा मंत्रालय द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है।
- इस संबंध में मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि चूँकि इस मामले में सैनिक/पूर्व-सैनिक भी शामिल हैं और उनके हित सर्वोपरि हैं, इसलिये इस मामले को निपटने में और अधिक देर नहीं की जा सकती है।
- उल्लेखनीय है कि यह मामला बीते तीन वर्ष से इसी प्रकार लंबित पड़ा हुआ है।
- उच्च न्यायालय ने गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, दोनों मंत्रालय के सचिवों, थल सेनाध्यक्ष, असम राइफल्स के महानिदेशक और इस मामले से संबंधित अन्य सभी हितधारकों से निर्धारित अवधि के भीतर निर्णय लेने में सहयोग करने का अनुरोध किया है।
क्या है असम राइफल्स?
- असम राइफल्स गृह मंत्रालय (MHA) के प्रशासनिक नियंत्रण के तहत आने वाले केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (Central Armed Police Forces-CAPFs) में से एक है।
- यह बल भारतीय सेना के साथ मिलकर पूर्वोत्तर में कानून व्यवस्था के रख-रखाव के अलावा भारत-म्याँमार सीमा की रक्षा भी करता है।
- प्रशासनिक और प्रशिक्षण स्टाफ के अलावा असम राइफल्स के पास 63,000 से अधिक सैनिक और कुल 46 बटालियन हैं।
- ऐतिहासिक दृष्टि से असम राइफल्स का गठन वर्ष 1835 में कछार लेवी (Cachar Levy) नामक एक एकल सैन्यबल के रूप में पूर्वोत्तर भारत में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया था। कुछ समय बाद इस सैन्य बल को वर्ष 1870 में कुछ अतिरिक्त बटालियनों के साथ असम सैन्य पुलिस बटालियन में परिवर्तित कर दिया गया।
- वर्ष 1917 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद इसका नाम बदलकर असम राइफल्स कर दिया गया। वर्ष 1962 में चीनी आक्रमण के बाद असम राइफल्स को सेना के संचालन नियंत्रण में रखा गया।
असम राइफल्स की भूमिका
- असम राइफल्स भारत के सबसे पुराने अर्द्ध-सैनिक बलों में से एक है जिसे वर्ष 1835 में ब्रिटिश भारत में सिर्फ 750 सैनिकों के साथ बनाया गया था। तब इस बल ने दो विश्व युद्धों और वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध में हिस्सा लिया है, साथ ही इसने पूर्वोत्तर में आतंकवादी समूहों के विरुद्ध चलाए गए अभियानों में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- यह स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् सबसे अधिक सम्मानित अर्द्ध-सैनिक बल बना हुआ है। असम राइफल्स को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कुल 76 वीरता पदकों से सम्मानित किया गया था।
- असम राइफल्स ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी कई लड़ाईयाँ लड़ी थीं और इस दौरान इसे 48 वीरता पदकों से सम्मानित किया गया था।
- स्वतंत्रता के बाद से असम राइफल्स ने 188 सेना पदकों के अलावा 120 शौर्य चक्र, 31 कीर्ति चक्र, पाँच वीर चक्र और चार अशोक चक्र जीते हैं।
विवाद
- ध्यातव्य है कि यह दोहरी संरचना वाला एकमात्र अर्द्धसैनिक बल है, असम राइफल्स का प्रशासनिक नियंत्रण गृह मंत्रालय (MHA) और संचालन नियंत्रण रक्षा मंत्रालय के अधीन सेना द्वारा किया जाता है।
- इसके अर्थ है कि असम राइफल्स के लिये वेतन और बुनियादी ढाँचा गृह मंत्रालय द्वारा प्रदान किया गया है, जबकि कर्मियों की नियुक्ति, स्थानांतरण और प्रतिनियुक्ति आदि का निर्णय सेना द्वारा लिया जाता है।
- महानिदेशक (DG) से लेकर महानिरीक्षक (IG) तक असम राइफल्स के सभी वरिष्ठ पदों पर नियुक्ति सेना द्वारा ही की जाती है और इन पदों पर अधिकांश भारतीय सेना के अधिकारी कार्यरत होते हैं। इस बल की कमान भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल के पास होती है।
- असम राइफल्स को लेकर चल रहा विवाद भी इसी दोहरी संरचना प्रणाली से उत्पन्न होता है। स्वयं असम राइफल्स के अंदर और गृह मंत्रालय तथा रक्षा मंत्रालय दोनों ओर से किसी एक मंत्रालय को बल के पूर्ण नियंत्रण दिये जाने की मांग की जा रही है, जिससे बल को और कुशलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सके।
- गौरतलब है कि स्वयं असम राइफल्स के अंदर एक ऐसा बड़ा वर्ग है जो बल के नियंत्रण को पूरी तरह से रक्षा मंत्रालय को दिये जाने के पक्ष में है, क्योंकि इससे असम राइफल्स के सैनिकों/पूर्व-सैनिकों को गृह मंत्रालय के तहत आने वाले केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF) की तुलना में बेहतर भत्ता और सेवानिवृत्त लाभ मिलेगा।
- हालाँकि सेना के तहत सेवानिवृत्ति की आयु 35 वर्ष है, जबकि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF) के तहत सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है, लेकिन सेना के जवानों को वन-रैंक-वन-पेंशन का लाभ भी मिलती है जो CAPF को नहीं मिलती है।
गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय को पूर्ण नियंत्रण क्यों चाहिये?
- गृह मंत्रालय का तर्क है कि लगभग सभी सीमा रक्षक बल गृह मंत्रालय के परिचालन नियंत्रण में आते हैं और यदि असम राइफल्स को गृह मंत्रालय के पूर्व नियंत्रण में दिया जाता है तो इससे देश की सीमा को एक व्यापक तथा एकीकृत दृष्टिकोण मिल सकेगा।
- गृह मंत्रालय की माने तो असम राइफल्स 1960 के दशक में निर्धारित कार्य पद्धति के आधार पर काम कर रहा है, वहीं गृह मंत्रालय के नियंत्रण में आने से इसकी कार्य पद्धति को केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF) की पद्धति के आधार पर विकसित किया जाएगा।
- वहीं भारतीय सेना का तर्क है कि असम राइफल्स ने सेना के साथ समन्वय के माध्यम से काफी बेहतरीन कार्य किया है और यह सशस्त्र बल की तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अपने मुख्य कार्य पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।
- यह भी तर्क दिया गया है कि असम राइफल्स सदैव से ही एक पुलिस बल न होकर एक सैन्य बल रहा है और इसे इसी रूप में विकसित किया गया है।
निष्कर्ष
असम राइफल्स के नियंत्रण का यह मामला बीते कई वर्षों से इसी प्रकार बना हुए है। सेना को नियंत्रण दिये जाने के समर्थकों के अनुसार, चूँकि असम राइफल्स के सैनिक भारतीय सेना के जवानों के साथ एक समान परिस्थितियों में कार्य करते हैं, इसलिये उनके वतन और भत्तों की सुविधाओं में असमानता के कारण जवान का मनोबल काफी प्रभावित होता है। वहीं गृह मंत्रालय को पूर्ण नियंत्रण दिये जाने के समर्थकों का मत है कि इससे बल की कार्यकुशलता में वृद्धि होगी। ऐसे में आवश्यक है कि उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देश का पालन किया जाए और समय सीमा में रहते हुए इस मुद्दे को जल्द-से-जल्द हल किया जाए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय अर्थव्यवस्था
पुराने तापीय विद्युत संयंत्रों को बंद करने का सुझाव
प्रिलिम्स के लिये:स्मार्ट मीटर नेशनल प्रोग्राम, उदय योजना मेन्स के लिये:भारतीय विद्युत क्षेत्र की चुनौतियाँ, नवीकरणीय ऊर्जा से जुड़ी संभावनाएँ और लाभ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में क्लाइमेट रिसर्च होराइज़न (Climate Research Horizon) नामक शोध संस्थान द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के 11 राज्यों में 20 वर्ष से पुराने तापीय विद्युत संयंत्रों को बंद करने से सरकार को अगले पाँच वर्षों में 53,000 करोड़ रुपए की बचत हो सकती है।
प्रमुख बिंदु:
- शोधकर्ताओं के अनुसार, पुराने संयंत्रों बंद करने से सरकार को दो तरीके से लाभ होगा-
- पुराने तापीय विद्युत संयंत्रों से उत्सर्जन कम करने के लिये मरम्मत और अतिरिक्त उपकरण के खर्च से मुक्ति
- नवीकरणीय ऊर्जा विकल्पों की कम लागत से होने वाली बचत।
- रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में COVID-19 महामारी के दौरान विद्युत मांग में आई गिरावट के बीच पुराने कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों को बंद करने और निर्माणाधीन संयंत्रों के निर्माण कार्य को रोक कर 1.45 लाख करोड़ रुपए की बचत की जा सकती है।
- COVID-19 महामारी के कारण विद्युत मांग में गिरावट और राजस्व उगाही से जुड़ी समस्याओं के कारण विद्युत वितरण कंपनियों का बकाया बढ़कर 114,733 करोड़ रुपये हो गया है।
- रिपोर्ट के अनुसार, विद्युत वितरण कंपनियों की वित्तीय चुनौतियों को दूर करने हेतु केंद्र सरकार द्वारा उदय योजना (Ujwal Discom Assurance Yojana- UDAY) जैसे प्रयासों के बाद भी उनकी स्थिति और अधिक बिगड़ती गई है।
- गौरतलब है कि वर्तमान में भारत में कुल उत्पादित विद्युत का लगभग 53% कोयला आधारित संयंत्रों से ही आता है।
- इस विश्लेषण में 11 राज्यों (आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) को शामिल किया गया था।
- गौरतलब है कि पूरे देश में विद्युत वितरण कंपनियों या डिस्कॉम (Discom) द्वारा कुल बकाया राशि का लगभग आधा इन्हीं 11 राज्यों से है।
विद्युत् क्षेत्र की वर्तमान समस्याएँ:
- वित्तीय चुनौती:
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वर्तमान में देश में अधिशेष विद्युत् उत्पादन क्षमता होने के बावज़ूद भी कई डिस्कॉम वित्तीय चुनौतियों से जूझ रहीं हैं।
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विद्युत वितरण कंपनियों को पूर्व निर्धारित अतार्किक दरों पर अपनी सेवाएँ देनी पड़ती है।
- विद्युत वितरण कंपनियों के लिये अपने ग्राहकों के एक विशेष वर्ग को कम दरों या मुफ्त में विद्युत् आपूर्ति की अनिवार्यता कंपनियों की प्रगति के लिये एक बड़ी बाधा रही है।
- वित्तीय कमी के कारण कई सरकारी संस्थाओं से विद्युत कंपनियों को भुगतान में देरी इस समस्या को और बढ़ा देती है।
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- बिजली चोरी :
- हाल के वर्षों में देश के सभी हिस्सों में विद्युत मीटर अनिवार्य किये जाने पर विशेष ध्यान दिया गया है परंतु अभी भी बड़े पैमाने पर बिजली की चोरी और कृषि के लिये मुफ्त बिजली से जुड़ी योजनाएँ आदि विद्युत् क्षेत्र के आर्थिक नुकसान का एक बड़ा कारण हैं।
विद्युत क्षेत्र पर COVID-19 का प्रभाव:
- COVID-19 महामारी और इसके प्रसार को रोकने के लिये लागू लॉकडाउन के कारण औद्योगिक गतिविधियों के बंद होने से देश भर में विद्युत की मांग में भारी गिरावट देखी गई है।
आवश्यकता से अधिक ऊर्जा उत्पादन:
- शोधकर्त्ताओं के अनुसार, कई राज्यों में अनुमान के आधार पर विद्युत् संयंत्रों की स्थापना की गई है, जो उनकी वास्तविक आवश्यकता से बहुत अधिक है।
- अधिशेष विद्युत उत्पादन के कारण कई संयंत्रों को ‘संयंत्र भार घटक’ (Plant Load Factor- PLF) से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
- आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में लगभग 66,000 मेगावाट क्षमता के तापीय विद्युत संयंत्रों की स्थापना का कार्य चल रहा है।
- वहीं 29,000 मेगावाट क्षमता के विद्युत संयंत्रों की स्थापना प्रस्ताव/अनुमति के चरण पर है।
सुझाव:
- पुराने तापीय विद्युत संयंत्रों को बंद करने की प्रक्रिया तेज़ करना।
- कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों के नए प्रस्ताव या शुरूआती चरण के संयत्रों का निर्माण स्थगित करना।
- मध्यस्थता और बातचीत के माध्यम से डिस्कॉम के लिये निश्चित लागत दायित्त्वों को कम करना।
- कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों की विद्युत मांग को पूरा करने के लिये सामुदायिक सौर फीडरों की स्थापना को बढ़ावा देना।
लाभ:
- वर्तमान में कोयला आधारित विद्युत् परियोजनाओं की औसत लागत 4 रुपए प्रति यूनिट है और आमतौर पर इसमें वृद्धि देखने को मिलती है।
- जबकि नए सौर ऊर्जा संयंत्रों की बोली 3 रुपए प्रति यूनिट से भी कम ही रही है।
- साथ ही इससे हानिकारक गैसों के उत्सर्जन की समस्या को भी नियंत्रित करने में सहायता प्राप्त होगी।
सरकार के प्रयास:
- केंद्र सरकार द्वारा विद्युत वितरण कंपनियों को अपना बकाया चुकाने के लिये 1 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज जारी करने की तैयारी की जा रही है।
- फरवरी 2020 में वित्तीय वर्ष 2020-21 के बजट भाषण के दौरान केंद्रीय वित्त मंत्री ने ‘राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम’ (National Clean Air Programme-NCAP) के मापदंडों को पूरा न करने वाले पुराने और प्रदूषणकारी विद्युत् संयंत्रों को बंद करने का सुझाव दिया था।
- केंद्र सरकार द्वारा COVID-19 महामारी के दौरान ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के तहत बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के लिये 90 हजार करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की गई।
- द्वारा जून, 2020 में विद्युत् मंत्रालय द्वारा वास्तविक समय में विद्युत् खरीद के लिये ‘रियल टाइम इलेक्ट्रिसिटी मार्केट’ (Real Time Electricity Market-RTEM) की शुरुआत की गई।
चुनौतियाँ:
- रिपोर्ट के अनुसार, विद्युत् संयंत्रों को बंद करने से कुछ अल्पकालिक नुकसान (जैसे- करदाताओं की आय की क्षति, सरकारी संयंत्रों को उम्मीद से पहले बंद करना आदि) का सामना करना पड़ सकता है।
- परंतु इस कदम से उपभोक्ताओं और विद्युत वितरण कंपनियों को होने वाली बचत पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।
- वर्तमान में देश की कुल ऊर्जा ज़रुरत को पूरा करने के लिये आवश्यक नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्रों के विकास में बहुत समय और धन लग सकता है, साथ ही सौर ऊर्जा संयंत्रों से प्राप्त विद्युत का सुरक्षित भंडारण भी एक बड़ी चुनौती है।
आगे की राह:
- वर्तमान में कृषि और घरेलू क्षेत्र में बढ़ती ऊर्जा मांग को पूरा करने और ऊर्जा स्त्रोत के विकेंद्रीकरण के लिये सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- विद्युत वितरण कंपनियों के बकाया धन की समस्या के साथ इस क्षेत्र के सतत विकास के लिये निश्चित देय राशि के स्थान पर अनुबंध और अन्य वित्तीय सुधारों पर विचार किया जाना चाहिये।
- विद्युत उत्पादन में नवीन किफायती तकनीकों को अपनाने के साथ इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देने के लिये निज़ी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- क्रॉस सब्सिडी जैसी समस्याओं को दूर करने के लिये ‘प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण’ (DBT) और ‘स्मार्ट मीटर नेशनल प्रोग्राम’ (Smart Meter National Programme-SMNP) जैसे प्रयासों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय इतिहास
मोपला विद्रोही, स्वतंत्रता सेनानी नहीं: ICHR रिपोर्ट
प्रिलिम्स के लिये:मोपला/मलाबार विद्रोह, वैगन ट्रैजडी, वरियामकुननाथ कुंजाहम्मद हाजी मेन्स के लिये:मोपला/मलाबार विद्रोह |
चर्चा में क्यों?
'भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद' (Indian Council of Historical Research- ICHR) को इसके एक सदस्य द्वारा सौपीं गई रिपोर्ट में ‘मालाबार विद्रोह’ (मोपला विद्रोह) के नेताओं के नाम ‘शहीदों की सूची’ से हटाने की सिफारिश की है।
प्रमुख बिंदु:
- ICHR की यह रिपोर्ट, दक्षिण भारत से स्वतंत्रता संग्राम के शामिल नेता जिनको 'शहीद के रूप में’ शामिल किया गया है, की समीक्षा के संबंधित थी।
- रिपोर्ट में अली मुसलीयर, वरियामकुननाथ कुंजाहम्मद हाजी सहित 387 मोपला विद्रोहियों (जिसमें लगभग 10 हिंदू भी शामिल हैं) तथा ‘वैगन त्रासदी’ में शहीद नेताओं के नाम ‘शहीदों की सूची’ से हटाने की मांग की गई थी।
- यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि वर्ष 2019 में प्रधानमंत्री द्वारा ‘शहीदों की सूची’ से संबंधित एक पुस्तक 'शहीदों का शब्दकोष: भारत का स्वतंत्रता संग्राम वर्ष 1857-1947' को जारी किया गया था।
- इस शब्दकोश में मोपला विद्रोह में शामिल नेताओं को भी स्वतंत्रता सेनानियों की 'शहीद सूची' में शामिल किया गया है।
वैगन ट्रैजडी (Wagon Tragedy):
- यह ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों के खिलाफ अपनाई गई दमनकारी घटनाओं में से एक प्रमुख घटना थी।
- वैगन त्रासदी में लगभग 60 मोपला कैदियों को एक बंद रेल के मालवाहक डिब्बे/वैगन में मौत के घाट उतार दिया गया था।
ICHR रिपोर्ट और वैगन ट्रैजडी:
- रिपोर्ट के अनुसार 'वैगन ट्रैजडी' में जिनकी मृत्यु हुई वे भारत के स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, क्योंकि विद्रोहियों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम या असहयोग आंदोलन पूर्ण का समर्थन नहीं किया गया था, अपितु एक संक्षिप्त अवधि के लिये केवल खिलाफत आंदोलन को समर्थन दिया गया था।
- रिपोर्ट के अनुसार, अंग्रेजों द्वारा उचित परीक्षण के बाद ही विद्रोहियों को दोषी ठहराया तथा इन मृतकों को कहीं और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी।
मोपला या मालाबार विद्रोह:
- 19वीं शताब्दी में केरल के मालाबार क्षेत्र के मोपलाओं ने जमीदारों के अत्याचारों से पीड़ित होकर कई बार विद्रोह किया था। अगस्त, 1921 में अवैध कारणों से प्रेरित होकर स्थानीय मोपला किसानों ने विद्रोह कर दिया।
- यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि वर्ष 2021 को मोपला विद्रोह की 100 वीं वर्षगांठ के रूप में चिन्हित किया गया है।
- मोपला केरल के मालाबार तट के मुस्लिम किसान थे जहाँ जमींदार, जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में ‘जेनमी’ कहा जाता था, अधिकतर हिंदू थे।
- मोपला विद्रोह के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे:
- लगान की उच्च दर;
- नज़राना एवं अन्य दमनकारी तौर तरीके;
- राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ संबंध।
- फरवरी, 1921 में सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर दी और कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
मोपला विद्रोह और सांप्रदायिकता:
- मोपला विद्रोह प्रारंभ में वर्ग संघर्ष के रूप में शुरू हुआ था लेकिन बाद में उसने सांप्रदायिक रूप ले लिया। मोपला (मुस्लिम किसान) और ‘जेनमी’ (हिंदू जमीदार) दोनों ही समूह अपने पक्ष में लोगों को शामिल करने के लिये अपने धर्मों का हवाला देने लगे।
- विद्रोह के दौरान अनेक धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया गया। मोपलाओं द्वारा जमीदारों के घरों को लूटना तथा आग लगाना शुरू कर दिया गया, जिससे विद्रोह ने धार्मिक रूप ले लिया।
मोपला विद्रोह का राष्ट्रीय आंदोलन से संबंध:
- महात्मा गाँधी के आह्वान पर मालाबार में मोपलाओं के धार्मिक प्रमुख के नेतृत्त्व में एक 'खिलाफत समिति' का गठन किया गया।
- ‘खिलाफत आंदोलन’ में किसानों की मांग का समर्थन किया गया, बदले में किसानों ने भी आंदोलन में अपनी पूरी शक्ति के साथ भाग लिया।
- 'भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस' (INC) द्वारा मोपला विद्रोह का समर्थन किया गया तथा कृषि सुधारों और स्वतंत्रता दोनों की मांग का एक साथ समर्थन किया।
- मोपला विद्रोह के हिंसक रूप लेने के साथ ही कई राष्ट्रवादी नेता आंदोलन से अलग हो गए तथा शीघ्र ही आंदोलन समाप्त हो गया।
वरियामकुननाथ कुंजाहम्मद हाजी:
- खिलाफत आंदोलन के नेताओं तथा भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस ने उनको भारत में खिलाफत आंदोलन के प्रणेता के रूप में पेश किया।
- हालाँकि कुंजाहम्मद हाजी का मानना था कि खिलाफत तुर्की का आंतरिक मामला है परंतु उन्होंने अंग्रेजों और जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ जुड़ने का वादा किया।
- उन्होंने कालीकट तथा दक्षिण मालाबार में खिलाफत आंदोलन का नेतृत्त्व किया।
- हाजी ने खिलाफत आंदोलन की धर्मनिरपेक्षता को सुनिश्चित किया तथा आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया एवं अन्य धर्मों के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने पर बल दिया।
- अंग्रेजों ने उन्हें धार्मिक कट्टरपंथी नेता के रूप में पेश किया ताकि आंदोलन को धार्मिक रंग देकर समाप्त किया जा सके।
ICHR रिपोर्ट में कुंजाहम्मद हाजी:
- ICHR रिपोर्ट में हाजी को 'कुख्यात मोपला विद्रोही नेता' और 'कट्टर अपराधी' के रूप में वर्णित किया गया है।
- रिपोर्ट के अनुसार, हाजी ने वर्ष 1921 के मोपला विद्रोह के दौरान असंख्य हिंदू पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मार डाला और उनके शवों को एक कुएँ में जमा कर दिया था।
- मोपला विद्रोह के अंतिम चरण में हाजी को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर, 20 जनवरी, 1922 को गोली मारकर हत्या कर दी गई।
निष्कर्ष:
- 'संघ परिवार' सहित अनेक हिंदूवादी नेता मोपला विद्रोहियों को ‘शहीद सूची’ में शामिल करने के सरकार के इस निश्चय से नाराज थे। उनका मानना है कि मोपला विद्रोह में शामिल नेताओं ने न केवल सैकड़ों हिंदुओं का नरसंहार किया अपितु अनेक हिंदुओं को इस्लाम धर्मं अपनाने को मज़बूर किया गया। परंतु इस प्रकार भारतीय इतिहास से संबंधित किसी भी प्रकार के निर्णय वर्तमान राजनीति के प्रभाव के स्वतंत्र रहते हुए लिये जाने चाहिये।
भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (ICHR) :
- ICHR, 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' (शिक्षा मंत्रालय) का एक स्वायत्त निकाय है, जिसे वर्ष 1972 में ‘सोसायटी पंजीकरण अधिनियम’- 1860 के तहत स्थापित किया गया था।
- यह फेलोशिप, अनुदान और संगोष्ठी के माध्यम से इतिहासकारों और विद्वानों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
ICHR की स्थापना के उदेश्य:
- इतिहास में अनुसंधान को बढ़ावा देना, गति देना और समन्वय करना;
- इतिहासकारों के बीच विचारों के आदान-प्रदान के लिये एक मंच प्रदान करना;
- इतिहास के वैज्ञानिक लेखन को बढ़ावा देना और इतिहास की तर्कसंगत प्रस्तुति और व्याख्या करना;
- विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान प्रयासों के संतुलित वितरण को बढ़ावा देना।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजनीति
PG में सरकारी डॉक्टरों को दिया जाएगा आरक्षण: SC
प्रिलिम्स के लियेमेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया मेन्स के लियेPG में सरकारी डॉक्टरों के आरक्षण से संबंधी मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को सरकारी नौकरी कर रहे डॉक्टरों को मेडिकल के पोस्ट ग्रेजुएट (पीजी) पाठ्यक्रम में प्रवेश में आरक्षण का लाभ देने की अनुमति प्रदान की है। सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह भी कहा कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI) के पास PG पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिये सरकारी नौकरी वाले डॉक्टरों (इन-सर्विस डॉक्टरों) को आरक्षण प्रदान करने या न करने की कोई शक्ति नहीं है।
प्रमुख बिंदु
- खंडपीठ ने कहा है कि इस तरह के आरक्षण पर प्रतिबंध लगाने वाले MCI के नियम असंवैधानिक और मनमाने हैं। इन-सर्विस डॉक्टरों के लिये आरक्षण प्रदान करने का अधिकार राज्य विधायिका के पास है।
- मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI) के पास PG कोर्सेज़ में दाखिले के लिये इन-सर्विस डाक्टरों को आरक्षण देने या नहीं देने की कोई शक्ति नहीं है। पीठ ने MCI के विषय में स्पष्ट किया कि यह एक संवैधानिक संस्था है और इसे आरक्षण संबंधी प्रावधान बनाने का कोई अधिकार नहीं है।
- पीठ ने कहा कि एक राज्य के पास विधायी क्षमता और अधिकार है, राज्य को सूची-III की प्रविष्टि 25 के तहत स्नातकोत्तर डिग्री/डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के इच्छुक इन-सर्विस उम्मीदवारों के लिये प्रवेश का एक अलग स्रोत प्रदान करने की शक्ति प्राप्त है।
- सूची-III की प्रविष्टि 25: शिक्षा (तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और विश्वविद्यालयों सहित) संबंधी प्रावधान प्रविष्टि संख्या 63, 64, 65 के विषय हैं।
- संविधान संघ और राज्यों के बीच विधायी विषयों को सातवीं अनुसूची के तहत तीन स्तरों पर विभाजित करता है, जो सूची-I (संघ सूची), सूची-II (राज्य सूची) और सूची-III (समवर्ती सूची) में वर्णित हैं।
- पीठ ने राज्यों से PG की डिग्री पूरी करने के बाद इन-सर्विस डॉक्टरों द्वारा ग्रामीण/दूरस्थ सेवा में सेवा देने के लिये एक योजना तैयार करने को कहा है। साथ ही पीठ ने यह भी कहा कि नीट PG कोर्सेज़ में दाखिले हेतु आरक्षण के लिये डॉक्टरों द्वारा दूरदराज़ या ग्रामीण इलाकों में 5 वर्ष तक काम करने का बॉण्ड साइन किया जाना अनिवार्य है।
पृष्ठभूमि:
- केरल, महाराष्ट्र, और हरियाणा के डॉक्टरों ने एक याचिका दायर की थी जिसमें MCI द्वारा तैयार किये गए पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन रेगुलेशन, 2000 की वैधता को चुनौती दी गई थी।
- पीजी डिग्री पाठ्यक्रमों में सभी प्रवेश परीक्षाएँ NEET के माध्यम से आयोजित की जाती हैं और 50% सीटें अखिल भारतीय कोटा के माध्यम से भरी जाती हैं और शेष 50% राज्य कोटा से।
- वर्तमान में PG डिप्लोमा कोर्सेज़ में होने वाले दाखिले के लिये 50 फीसदी सीटें सरकारी डाक्टरों के लिये आरक्षित की गई हैं लेकिन वहीं MCI नियमों के मुताबिक PG के डिग्री कोर्सेज़ में दाखिले हेतु सरकारी डाक्टरों के लिये आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है।
- PG के डिग्री कोर्सेज़ के लिये होने वाले दाखिले में 50 फीसद सीटें ऑल इंडिया कोटे से और 50 फीसदी सीटें स्टेट (राज्य) कोटे से भरी जाती हैं।
- डॉक्टरों का कहना है कि आरक्षण का लाभ मिलने से सरकारी अस्पतालों और ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले डॉक्टरों को प्रोत्साहन मिलेगा।
- सेवारत उम्मीदवारों को, उनके काम (ड्यूटी) के कारण, अध्ययन करने के लिये मुश्किल से समय मिल पाता है, ऐसे में उनके लिये सामान्य मेरिट वाले उम्मीदवारों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करना बहुत कठिन हो जाता है।
- केंद्र सरकार और MCI ने यह कहते हुए इस दलील का विरोध किया कि इन-सर्विस उम्मीदवारों को कोर्स में प्रवेश का एक अलग स्रोत उपलब्ध कराने या आरक्षण देने से न केवल मेडिकल एजुकेशन के स्तर पर प्रभाव पड़ेगा बल्कि इससे MCI की अथॉरिटी भी प्रभावित होगी।
स्रोत: द हिंदू
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
रूस-जर्मनी के बीच तनाव
प्रिलिम्स के लिये:नॉर्ड स्ट्रीम 2, नोविचोक, बाल्टिक देश, बाल्टिक सागर मेन्स के लिये:रूस-जर्मनी के बीच तनाव और यूरोपीय देशों के हित |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में रूस और जर्मनी के बीच रूसी विपक्षी नेता अलेक्सी नवलनी (Alexei Navalny) को जहर देने को लेकर तनाव गहरा गया है।
- उपरोक्त संदर्भ में जर्मनी ने रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है जिसके प्रत्युत्तर में रूस ने जर्मनी पर इस मामले की जाँच में देरी करने का आरोप लगाया है।
प्रमुख बिंदु:
- अलेक्सी नवलनी, रूस के विपक्षी नेता और भ्रष्टाचार-विरोधी प्रचारक हैं। गौरतलब है कि अलेक्सई नवलनी (Alexei Navalny) बर्लिन के एक अस्पताल में कोमा में है।
- जर्मनी ने दावा किया है कि अलेक्सई नवलनी को जहर देने के लिये सोवियत युग के नोविचोक नामक एक नर्व एजेंट (विषाक्त जहर) का प्रयोग किया गया था।
- यह जर्मनी की तरफ से अब तक लगाए गए सबसे मज़बूत आरोपों में से एक है कि इस घातक पदार्थ (नोविचोक) का उपयोग रूसी अधिकारियों द्वारा अतीत में भी किया गया है।
- जर्मनी जो वर्तमान में यूरोपीय संघ (European Union) का अध्यक्ष है, ने कहा है कि यदि रूस अलेक्सई नवलनी मामले में स्पष्टीकरण देने में विफल रहता है तो वह यूरोपीय संघ की बैठक में रूस के खिलाफ संभावित प्रतिबंधों पर चर्चा करेगा।
- विश्लेषक अनुमान लगा रहे है कि यूरोपीय संघ ‘नॉर्ड स्ट्रीम 2’ (Nord Stream 2) पर प्रतिबंधों को लेकर चर्चा कर सकता है जो रूसी सरकार की एक महत्त्वपूर्ण ऊर्जा निर्यात परियोजना है।
‘नॉर्ड स्ट्रीम 2’ (Nord Stream 2):
- इस ऊर्जा निर्यात परियोजना के तहत बाल्टिक सागर (Baltic Sea) के माध्यम से रूस से जर्मनी तक लगभग 1200 किलोमीटर की पाइपलाइन का निर्माण करना है।
बाल्टिक सागर (Baltic Sea):
- बाल्टिक सागर अटलांटिक महासागर की ही एक शाखा है जो डेनमार्क, एस्टोनिया, फिनलैंड, लातविया, लिथुआनिया, स्वीडन, पूर्वोत्तर जर्मनी, पोलैंड, रूस और उत्तर व मध्य यूरोपीय मैदान से घिरा हुआ है।
बाल्टिक देश:
- बाल्टिक देशों में यूरोप का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र और बाल्टिक सागर के पूर्वी किनारे पर स्थित देश एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया शामिल हैं।
- बाल्टिक देश पश्चिम और उत्तर में बाल्टिक सागर से घिरे हुए हैं जिसके नाम पर क्षेत्र का नाम रखा गया है।
- वर्ष 1991 में इन देशों की चुनी हुई तत्कालीन सरकारों ने जनता के भारी समर्थन के साथ सोवियत संघ सोशलिस्ट रिपब्लिक (Union of Soviet Socialist Republics-USSR) से स्वतंत्रता की घोषणा की।
- बाल्टिक क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध नहीं है। हालाँकि एस्टोनिया खनिज तेल उत्पादक है लेकिन इस क्षेत्र में खनिज और ऊर्जा संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा आयात किया जाता है।
- इस परियोजना का निर्माण पहले से ही निर्मित नॉर्ड स्ट्रीम के साथ-साथ किया जाएगा जिससे बाल्टिक सागर के माध्यम से प्रति वर्ष 110 बिलियन क्यूबिक मीटर तक गैस की मात्रा को दोगुनी हो जाएगी।
लाभ:
- इस परियोजना का उद्देश्य यूरोप को स्थायी गैस आपूर्ति प्रदान करना है जबकि इस परियोजना के माध्यम से रूस को प्रत्यक्ष रूप से यूरोपीय गैस बाज़ार तक पहुँचने का अवसर मिल जाएगा।
- इस परियोजना का प्रस्तावित मार्ग तीन अन्य देशों फिनलैंड, स्वीडन एवं डेनमार्क के प्रादेशिक जल एवं विशेष आर्थिक क्षेत्र (Exclusive Economic Zone- EEZ) से होकर गुजरता है।
- इन देशों की सरकारों एवं स्थानीय अधिकारियों को पाइपलाइन में निवेश एवं रोज़गार से आर्थिक रूप से लाभ होगा।
सुरक्षा से संबंधित चिंताएँ और आलोचना:
- इस परियोजना की संयुक्त राज्य अमेरिका और जर्मनी के पूर्वी पड़ोसियों जैसे- पोलैंड एवं चेक गणराज्य आदि ने आलोचना की है।
- इन देशों का मानना है कि साझा बाज़ार के लिये रूस पर निर्भरता यूरोपीय संघ के रणनीतिक हितों के लिये खतरा है।
- यह पाइपलाइन रूस को बाल्टिक सागर में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाने और विभिन्न देशों के नौसैनिक जहाज़ों की गतिविधियों से संबंधित सैन्य सूचनाएँ प्रसारित करने में सक्षम बनाएगी।