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डेली न्यूज़

  • 07 Apr, 2022
  • 48 min read
शासन व्यवस्था

सामूहिक विनाश के हथियार और उनकी आपूर्ति प्रणाली (गैरकानूनी गतिविधियाँ निषेध) संशोधन विधेयक-2022

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, वित्तीय कार्रवाई टास्क फोर्स, 1968 की परमाणु अप्रसार संधि, 1972 का जैविक हथियार कन्वेंशन, 1993 का रासायनिक हथियार कन्वेंशन

मेन्स के लिये:

सामूहिक विनाश के हथियार और उनकी आपूर्ति प्रणाली (गैरकानूनी गतिविधियाँ निषेध) संशोधन विधेयक-2022

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत सरकार ने लोकसभा में सामूहिक विनाश के हथियार और उनकी आपूर्ति प्रणाली (गैरकानूनी गतिविधियाँ निषेध) संशोधन विधेयक-2022 पेश किया है।

  • विधेयक में सामूहिक विनाश के हथियारों (WMD) से संबंधित किसी भी गतिविधि के वित्तपोषण पर रोक लगाने और ऐसी गतिविधियों के वित्तपोषकों के विरुद्ध कार्रवाई करने का अधिकार देने की परिकल्पना की गई है।

विधेयक से संबंधित प्रमुख प्रावधान:

  • पृष्ठभूमि: इस विधेयक का उद्देश्य सामूहिक विनाश के हथियार एवं उनकी आपूर्ति प्रणाली (गैरकानूनी गतिविधियाँ निषेध) अधिनियम-2005 को संशोधित करना है।
  • मूल अधिनियम: वर्ष 2005 का अधिनियम सामूहिक विनाश के हथियारों और उनकी वितरण प्रणालियों के संबंध में गैरकानूनी गतिविधियों को प्रतिबंधित करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
    • इस अधिनियम में जैविक, रासायनिक और परमाणु हथियारों तथा उनकी वितरण प्रणालियों से संबंधित गैरकानूनी गतिविधियों को शामिल किया गया है।
    • यह सामूहिक विनाश के हथियारों और उनकी वितरण प्रणालियों के संबंध में सामग्री, उपकरण और प्रौद्योगिकियों के निर्यात पर नियंत्रण लगाने और गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं या आतंकवादियों को उनके हस्तांतरण की रोकथाम हेतु एकीकृत कानूनी उपायों का भी प्रावधान करता है।
  • संशोधन की आवश्यकता: सामूहिक विनाश के हथियारों से संबंधित मौजूदा अधिनियम ऐसी वितरण प्रणालियों के वित्तीय पहलू को कवर नहीं करता है, ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने के लिये नए प्रावधान आवश्यक हैं।
  • विधेयक का उद्देश्य: विधेयक का उद्देश्य तीन लक्ष्यों को प्राप्त करना है:
    • सामूहिक विनाश के हथियारों से संबद्ध गतिविधियों के वित्तपोषण को प्रतिबंधित करना।
    • इस तरह के वित्तपोषण को रोकने के लिये केंद्र को धन, वित्तीय संपत्ति या आर्थिक संसाधनों को फ्रीज करने, ज़ब्त करने या संलग्न करने का अधिकार देना।
    • सामूहिक विनाश के हथियारों और उनकी वितरण प्रणालियों के संबंध में किसी भी निषिद्ध गतिविधि के लिये धन, वित्तीय संपत्ति या आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने पर रोक लगाना।

सामूहिक विनाश के हथियार (WMD):

  • WMD के तहत ऐसे हथियार शामिल हैं जिनमें बड़े पैमाने पर मौत और विनाश करने की क्षमता होती है तथा एक शत्रु शक्ति के हाथों में इनकी उपस्थिति को एक गंभीर खतरा माना जा सकता है।
  • सामूहिक विनाश के आधुनिक हथियारों में परमाणु, जैविक, रासायनिक हथियार शामिल होते है जिन्हें एनबीसी हथियार (NBC Weapons) कहा जाता है।
  • सामूहिक विनाश के हथियार शब्द वर्ष 1937 से चलन में है, जब इसका इस्तेमाल बमवर्षक विमानों के बड़े पैमाने पर संरचनाओं का वर्णन करने के लिये किया जाता था।
    • उदाहरण के लिये जापान में हिरोशिमा और नागासाकी हमले में इस्तेमाल किये गए परमाणु बम।
  • WMD के प्रसार को नियंत्रित करने के प्रयास अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में निहित हैं, जैसे:
    • 1968 की परमाणु अप्रसार संधि
    • वर्ष 1972 का जैविक हथियार सम्मेलन
    • वर्ष 1993 का रासायनिक हथियार सम्मेलन
  • भारत ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं, लेकिन जैविक हथियार सम्मेलन और रासायनिक हथियार सम्मेलन दोनों का हस्ताक्षरकर्त्ता है।

विगत वर्षों के प्रश्न:

प्रश्न. हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका ने ‘ऑस्ट्रेलिया समूह’ तथा ‘वासेनार व्यवस्था’ के नाम से ज्ञात बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं में भारत को सदस्य बनाए जाने का समर्थन करने का निर्णय लिया है। इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच क्या अंतर है? (2011)

  1. ‘ऑस्ट्रेलिया समूह’ एक अनौपचारिक व्यवस्था है जिसका लक्ष्य निर्यातक देशों द्वारा रासायनिक तथा जैविक हथियारों के प्रगुणन में सहायक होने के जोखिम को न्यूनीकृत करना है, जबकि ‘वासेनार व्यवस्था’ OECD के अंतर्गत गठित औपचारिक समूह है जिसके समान लक्ष्य हैं।
  2. ‘ऑस्ट्रेलिया समूह’ के सहभागी मुख्यतः एशियाई, अफ्रीकी और उत्तरी अमेरिका के देश हैं, जबकि ‘वासेनार व्यवस्था’ के सहभागी मुख्यतः यूरोपीय संघ और अमेरिकी महाद्वीप के देश हैं।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (d)

व्याख्या:

  • ऑस्ट्रेलिया समूह एक बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्था और देशों का एक अनौपचारिक समूह है (अब यूरोपीय आयोग में शामिल हो गया)। इसे वर्ष 1985 में (1984 में इराक द्वारा रासायनिक हथियारों के उपयोग के बाद) सदस्य देशों को उन निर्यातों की पहचान करने, जिन्हें नियंत्रित करने की आवश्यकता है, में मदद के लिये स्थापित किया गया था ताकि रासायनिक एवं जैविक हथियारों का प्रसार न हो सके।
  • औपचारिक रूप से जुलाई 1996 में स्थापित वासेनार अरेंजमेंट, पारंपरिक हथियारों के लिये एक स्वैच्छिक निर्यात नियंत्रण व्यवस्था है तथा दोहरे उपयोग वाले सामान और प्रौद्योगिकी एक बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्था है।
    • वासेनार अरेंजमेंट 42 देशों का समूह है, जिसमें शामिल होने वाला भारत सबसे नवीनतम देश है।

प्रश्न: 'रासायनिक हथियार निषेध संगठन (OPCW)' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

  1. यह नाटो और डब्ल्यूएचओ के साथ कार्य करने के संबंध में यूरोपीय संघ का एक संगठन है।
  2. यह नए हथियारों के उपयोग को रोकने हेतु रासायनिक उद्योगों की निगरानी करता है।
  3. यह रासायनिक हथियारों के खतरों के खिलाफ राज्यों (पार्टियों) को सहायता और सुरक्षा प्रदान करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)

व्याख्या:

  • 29 अप्रैल, 1997 को रासायनिक हथियार कन्वेंशन (CWC) के लागू होने से रासायनिक हथियार निषेध संगठन (OPCW) के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय रासायनिक हथियार निरस्त्रीकरण व्यवस्था की स्थापना हुई।
  • इसका मुख्यालय हेग, नीदरलैंड में है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


कृषि

नेचुरल फार्मिंग (Natural Farming)

प्रिलिम्स के लिये:

नेचुरल फार्मिंग, शून्य-बजट प्राकृतिक खेती, भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम, परंपरागत कृषि विकास योजना, सतत् कृषि पर राष्ट्रीय मिशन

मेन्स के लिये:

प्राकृतिक खेती का महत्त्व और संबद्ध मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने राष्ट्रीय कृषि विस्तार प्रबंधन संस्थान (National Institute of Agricultural Extension Management- MANAGE) द्वारा आयोजित प्राकृतिक खेती/नेचुरल फार्मिंग (Natural Farming) पर व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन किया।

  • MANAGE की स्थापना वर्ष 1987 में तेज़ी से बढ़ते विविध कृषि क्षेत्रों में कृषि विस्तार की चुनौतियों के प्रति भारतीय प्रतिक्रिया के रूप में की गई थी।
  • व्यावहारिक रूप से इस विस्तार का अर्थ है किसानों को उनकी उत्पादकता, खाद्य सुरक्षा और आजीविका में सुधार हेतु कृषि संबंधी तकनीकों एवं कौशल ज्ञान प्रदान करना।

प्रमुख बिंदु

नेचुरल फार्मिंग के बारे में:

  • इसे "रसायन मुक्त कृषि (Chemical-Free Farming) और पशुधन आधारित (livestock based)" के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। कृषि-पारिस्थितिकी के मानकों पर आधारित यह एक विविध कृषि प्रणाली है जो फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है, जिससे कार्यात्मक जैव विविधता के इष्टतम उपयोग की अनुमति मिलती है।
  • यह मिट्टी की उर्वरता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य को बढ़ाने तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने या न्यून करने जैसे कई अन्य लाभ प्रदान करते हुए किसानों की आय बढ़ाने में सहायक है।
    • कृषि के इस दृष्टिकोण को एक जापानी किसान और दार्शनिक मासानोबू फुकुओका (Masanobu Fukuoka) ने वर्ष 1975 में अपनी पुस्तक द वन-स्ट्रॉ रेवोल्यूशन में पेश किया था।
  • यह खेतों में या उसके आसपास के क्षेत्रों में मौज़ूद प्राकृतिक या पारिस्थितिक तंत्र पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृतिक खेती को पुनर्योजी कृषि का एक रूप माना जाता है, जो ग्रह को बचाने के लिये एक प्रमुख रणनीति है।
  • इसमें भूमि प्रथाओं का प्रबंधन और मिट्टी एवं पौधों में वातावरण से कार्बन को अवशोषित करने की क्षमता होती है, जिससे यह हानिकारक के बजाय वास्तव में उपयोगी है।
  • भारत में परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) के तहत प्राकृतिक खेती को भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम (BPKP) के रूप में बढ़ावा दिया जाता है।
    • BPKP योजना का उद्देश्य बाहर से खरीदे जाने वाले आदानों के आयात को कम कर पारंपरिक स्वदेशी प्रथाओं को बढ़ावा देना है।
  • प्राकृतिक खेती का आशय पद्धति, प्रथाओं और उपज में वृद्धि संबंधी प्राकृतिक विज्ञान से है ताकि कम साधनों में अधिक उत्पादन किया जा सके।

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नेचुरल फार्मिंग का महत्त्व:

  • उत्पादन की न्यूनतम लागत:
    • इसे रोज़गार बढ़ाने और ग्रामीण विकास की गुंजाइश के साथ एक लागत-प्रभावी कृषि पद्धति/प्रथा माना जाता है।
  • बेहतर स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना:
    • चूँकि प्राकृतिक खेती में किसी भी सिंथेटिक रसायन का उपयोग नहीं किया जाता है, इसलिये स्वास्थ्य जोखिम और खतरे समाप्त हो जाते हैं। साथ ही भोजन में उच्च पोषक तत्त्व होने से यह बेहतर स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।
  • जल की कम खपत:
    • विभिन्न फसलों के साथ प्रतिकिया करके यह एक-दूसरे की मदद करते हैं और वाष्पीकरण के माध्यम से अनावश्यक जल के नुकसान को रोकने के लिये मिट्टी को कवर करते हैं, प्राकृतिक खेती 'प्रति बूँद फसल' की मात्रा को अनुकूलित करती है।
  • मृदा स्वास्थ्य को पुनर्जीवित करना:
    • प्राकृतिक खेती का सबसे तात्कालिक प्रभाव मिट्टी के जीव विज्ञान- रोगाणुओं और अन्य जीवित जीवों जैसे- केंचुओं पर पड़ता है। मृदा स्वास्थ्य पूरी तरह से उसमें रहने वाले जीवों पर निर्भर करता है।
  • पर्यावरण संरक्षण:
    • यह बेहतर मृदा जीव विज्ञान, बेहतर कृषि जैव विविधता और बहुत छोटे कार्बन एवं नाइट्रोजन पदचिह्नों के साथ जल का अधिक न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करती है।
  • पशुधन स्थिरता:
    • कृषि प्रणाली में पशुधन का एकीकरण प्राकृतिक खेती में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और पारिस्थितिकी तंत्र के पुनर्चक्रण में मदद करता है। जीवामृत तथा बीजामृत जैसे इको-फ्रेंडली बायो-इनपुट गाय के गोबर व मूत्र एवं अन्य प्राकृतिक उत्पादों से तैयार किये जाते हैं।
  • लचीलापन:
    • जैविक कार्बन, कम/न्यून जुताई और पौधों की विविधता की मदद से मिट्टी की संरचना में परिवर्तन जैसे गंभीर सूखे की चरम स्थितियों में भी पौधों की वृद्धि में सहायक हो सकता है एवं चक्रवात के दौरान गंभीर बाढ़ तथा वायु द्वारा होने वाली क्षति को कम किया जा सकता हैं।
    • मौसम की चरम सीमाओं के खिलाफ फसलों को लचीलापन प्रदान कर प्राकृतिक खेती कृषि क्षेत्र पर सकारात्मक प्रभाव डालती है।

प्राकृतिक खेती और जैविक खेती के बीच अंतर

जैविक खेती प्राकृतिक खेती
जैविक खेती में जैविक उर्वरक और खाद जैसे- कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, गाय के गोबर की खाद आदि का उपयोग किया जाता है और बाहरी उर्वरक का खेतो में प्रयोग किया जाता है। प्राकृतिक खेती में मिट्टी में न तो रासायनिक और न ही जैविक खाद डाली जाती है। वास्तव में बाहरी उर्वरक का प्रयोग न तो मिट्टी में और न ही पौधों में किया जाता है।
जैविक खेती के लिये अभी भी बुनियादी कृषि पद्धतियों जैसे- जुताई, गुड़ाई, खाद का मिश्रण, निराई आदि की आवश्यकता होती है। प्राकृतिक खेती में मिट्टी की सतह पर ही रोगाणुओं और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के अपघटन को प्रोत्साहित किया जाता है, इससे धीरे-धीरे मिट्टी में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होती है।
व्यापक स्तर पर खाद की आवश्यकता के कारण जैविक खेती अभी भी महँगी है और इस पर आसपास के वातावरण व पारिस्थितिक का प्रभाव पड़ता है; जबकि प्राकृतिक कृषि एक अत्यंत कम लागत वाली कृषि पद्धति है, जो स्थानीय जैव विविधता के साथ पूरी तरह से अनुकूलित हो जाती है। प्राकृतिक खेती में न जुताई होती है, न मिट्टी को पलटा जाता है और न ही उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है तथा किसी भी पद्धति को ठीक उसी तरह नहीं अपनाया जाता है जैसे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में होता है।

कृषि से संबंधित अन्य पहलें:

  • बारानी क्षेत्र विकास (RAD): यह उत्पादकता बढ़ाने और जलवायु परिवर्तनशीलता से जुड़े जोखिमों को कम करने के लिये एकीकृत कृषि प्रणाली (IFS) पर केंद्रित है।
  • कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF): इसका उद्देश्य किसानों को जलवायु सुगमता और आय के अतिरिक्त स्रोतों के लिये कृषि फसलों के साथ-साथ बहुउद्देश्यीय पेड़ लगाने हेतु प्रोत्साहित करना है, साथ ही लकड़ी आधारित फीडस्टॉक एवं हर्बल उद्योग को बढ़ावा देना है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने हेतु कृषि को लचीला बनाने के लिये तकनीकों का विकास, प्रदर्शन और प्रसार करने हेतु सतत् कृषि पर राष्ट्रीय मिशन (NMSA) प्रारंभ करना।
  • उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के लिये मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट (MOVCDNER): यह एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है, यह NMSA के तहत एक उप-मिशन है, जिसका उद्देश्य प्रमाणित जैविक उत्पादन को वैल्यू चेन मोड में विकसित करना है।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): इसे वर्ष 2015 में जल संसाधनों के मुद्दों को संबोधित करने और एक स्थायी समाधान प्रदान करने के लिये शुरू किया गया था जिसमें ‘प्रति बूँद अधिक फसल’ की परिकल्पना की गई है।

आगे की राह

  • विश्व की जनसंख्या वर्ष 2050 तक लगभग 10 बिलियन तक बढ़ने का अनुमान है। संभावना है कि वर्ष 2013 की तुलना में कृषि मांग 50% तक बढ़ जाएगी, ऐसी स्थिति में कृषि-पारिस्थितिकी जैसे 'समग्र' दृष्टिकोण से एक परिवर्तनकारी प्रक्रिया, कृषि वानिकी, जलवायु-स्मार्ट कृषि और संरक्षण कृषि की आवश्यकता है।
  • कृषि बाज़ार के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने और सभी राज्यों में खाद्यान्न एवं गैर-खाद्यान्न फसलों के लिये खरीद तंत्र का विस्तार करने की आवश्यकता है।
  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) को खेती की लागत को कम करने के लिये कृषि कार्य से जोड़ा जाना चाहिये, जो की पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ी है।

स्रोत: पी.आई.बी.


सामाजिक न्याय

विश्व स्वास्थ्य दिवस

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व स्वास्थ्य दिवस, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) अधिनियम, 2019, प्रधानमंत्री भारतीय जन-औषधि परियोजना, प्रधानमंत्री- जन आरोग्य योजना, भारत का स्वास्थ्य सूचकांक, SAMRIDH पहल।

मेन्स के लिये:

विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस और इसका महत्त्व, भारत में वर्तमान स्वास्थ्य देखभाल परिदृश्य।

चर्चा में क्यों?

प्रत्येक वर्ष 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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विश्व स्वास्थ्य दिवस की मुख्य विशेषताएँ:

  • परिचय:
    • इसका विचार की परिकल्पना वर्ष 1948 में आयोजित विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रथम विश्व स्वास्थ्य सभा में की गई थी, जिसे वर्ष 1950 में लागू किया गया।
    • प्रत्येक वर्ष 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के स्थापना दिवस (7 अप्रैल, 1948) की वर्षगाँठ पर विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है।
    • इन वर्षों में इसने मानसिक स्वास्थ्य, मातृ एवं शिशु देखभाल और जलवायु परिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य मुद्दों को प्रकाश में लाया है।
  • उद्देश्य:
    • इसका उद्देश्य वैश्विक स्वास्थ्य एवं उससे संबंधित समस्याओं पर विचार-विमर्श करना तथा विश्व में समान स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं के बारे में जागरूकता फैलान है।
  • 2022 के लिये थीम:
    • हमारा ग्रह, हमारा स्वास्थ्य (Our Planet, Our Health)।

महत्त्व:

  • पर्यावरणीय कारणों से होने वाली मौत की घटनाओं में वृद्धि:
    • दुनिया भर में 13 मिलियन मौतें परिहार्य पर्यावरणीय कारणों से होती हैं।
      • इसमें जलवायु संकट भी शामिल है जो मानवता के समक्ष सबसे बड़ा स्वास्थ्य खतरा है।
  • बढ़ता वायु प्रदूषण:
    • 90% से अधिक लोग जीवाश्म ईंधन के जलने से प्रदूषित होने वाली अस्वास्थ्यकर वायु में साँस लेते हैं।
  • महामारी का प्रभाव:
    • महामारी ने समाज के सभी क्षेत्रों में सुभेद्यताओं को उजागर किया है और पारिस्थितिक सीमाओं को तोड़े बिना मौजूदा एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिये समान स्वास्थ्य प्राप्त करने हेतु प्रतिबद्ध स्थायी कल्याणकारी समाज बनाने की तात्कालिकता को रेखांकित किया है।
  • बढ़ती चरम मौसम की घटनाएँ:
    • चरम मौसम की घटनाएँ, भूमि क्षरण और पानी की कमी लोगों को विस्थापन के लिये मजबूर कर रही है और उनके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है।
  • बढ़ता प्रदूषण और प्लास्टिक:
    • प्रदूषण और प्लास्टिक भी लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहे हैं और इसने हमारी खाद्य शृंखला में अपनी जगह बना ली है।
  • आय का असमान वितरण:
    • अर्थव्यवस्था का वर्तमान स्वरूप आय, धन और शक्ति के असमान वितरण की ओर ले जाता है, जिसमें बहुत से लोग अब भी गरीबी और अस्थिरता में जी रहे हैं।

भारत में मौजूदा स्वास्थ्य कल्याण परिदृश्य:

  • यद्यपि पिछले पाँच वर्षों में भारत का स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र तेज़ी से बढ़ा है (22% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर), किंतु कोविड-19 ने कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली, गुणवत्तापूर्ण बुनियादी अवसंरचना की कमी और गुणवत्तापूर्ण सेवा वितरण की कमी जैसी चुनौतियों को उजागर किया है।
  • भारत का स्वास्थ्य देखभाल खर्च सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 3.6% है, जिसमें जेब खर्च के आलावा सार्वजनिक व्यय शामिल हैं।
    • केंद्र और राज्य दोनों का संयुक्त कुल सरकारी खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 1.29% है।
    • भारत का स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च ब्रिक्स देशों में सबसे कम है। ब्राज़ील सबसे अधिक (9.2%) खर्च करता है, उसके बाद दक्षिण अफ्रीका (8.1%), रूस (5.3%), चीन (5%) का स्थान है।
  • भारत सरकार ने प्रमुख पहल आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना शुरू की है, जो सरकार द्वारा प्रायोजित विश्व की सबसे बड़ी गैर-अंशदायी स्वास्थ्य बीमा योजना है तथा माध्यमिक और तृतीयक सुविधाओं के साथ गरीब व कमज़ोर परिवारों को इन-पेशेंट स्वास्थ्य देखभाल (In-Patient Healthcare) तक पहुंँच प्रदान करती है।

स्वास्थ्य क्षेत्र से संबंधित पहलें:

स्रोत: डाउन टू अर्थ


जैव विविधता और पर्यावरण

ज़िला गंगा समितियाँ और ‘नमामि गंगे’

प्रिलिम्स के लिये:

नमामि गंगे कार्यक्रम, ज़िला गंगा समितियाँ, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन।

मेन्स के लिये:

गंगा नदी के कायाकल्प में नमामि गंगे कार्यक्रम का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

जल शक्ति मंत्रालय ने ‘नमामि गंगे’ कार्यक्रम के तहत 'डिजिटल डैशबोर्ड फॉर डिस्ट्रिक्ट गंगा कमेटी (DGCs) परफॉर्मेंस मॉनीटरिंग सिस्टम' (GDPMS) लॉन्च किया है।

  • आम लोगों और नदी के बीच संबंध को बढ़ावा देने में डिस्ट्रिक्ट गंगा कमेटी यानी ज़िला गंगा समितियों की मदद करने के लिये इस डिजिटल डैशबोर्ड को तैयार किया गया है।

‘ज़िला गंगा समितियों’ के विषय में:

  • गंगा और उसकी सहायक नदियों में प्रबंधन एवं प्रदूषण उपशमन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु ज़िला स्तर पर एक तंत्र स्थापित करने के लिये गंगा नदी बेसिन पर स्थित ज़िलों में ‘ज़िला गंगा समितियों’ का गठन किया गया था।
  • DGCs को ‘नमामि गंगे’ के तहत विकसित संपत्ति का उचित उपयोग सुनिश्चित करने, गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों में गिरने वाले नालों/सीवेज की निगरानी करने तथा गंगा कायाकल्प के साथ लोगों का एक मज़बूत जुड़ाव बनाने का कार्य सौंपा गया है।

‘नमामि गंगे’ क्या है?

  • नमामि गंगे कार्यक्रम एक एकीकृत संरक्षण मिशन है, जिसे जून 2014 में केंद्र सरकार द्वारा ‘फ्लैगशिप कार्यक्रम' के रूप में अनुमोदित किया गया था, ताकि प्रदूषण के प्रभावी उन्मूलन और राष्ट्रीय नदी गंगा के संरक्षण एवं कायाकल्प के दोहरे उद्देश्यों को पूरा किया जा सके।
  • यह जल संसाधन मंत्रालय, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग तथा जल शक्ति मंत्रालय के तहत संचालित किया जा रहा है।
  • यह कार्यक्रम राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG) और इसके राज्य समकक्ष संगठनों यानी राज्य कार्यक्रम प्रबंधन समूहों (SPMGs) द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।
  • NMCG राष्ट्रीय गंगा परिषद का कार्यान्वयन विंग है, यह वर्ष 2016 में स्थापित किया गया था जिसने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (NGRBA) को प्रस्थापित किया।
  • इसके पास 20,000 करोड़ रुपए का केंद्रीय वित्तपोषित, गैर-व्यपगत कोष है और इसमें लगभग 288 परियोजनाएँ शामिल हैं।
  • कार्यक्रम के मुख्य स्तंभ हैं:
    • सीवेज ट्रीटमेंट इंफ्रास्ट्रक्चर
    • रिवर फ्रंट डेवलपमेंट
    • नदी-सतह की सफाई
    • जैव विविधता
    • वनीकरण
    • जन जागरण
    • औद्योगिक प्रवाह निगरानी
    • गंगा ग्राम

संबंधित पहलें:

  • गंगा एक्शन प्लान: यह पहली नदी कार्ययोजना थी जो 1985 में पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा लाई गई थी। इसका उद्देश्य जल अवरोधन, डायवर्ज़न और घरेलू सीवेज के उपचार द्वारा पानी की गुणवत्ता में सुधार करना तथा विषाक्त एवं औद्योगिक रासायनिक कचरे (पहचानी गई प्रदूषणकारी इकाइयों से) को नदी में प्रवेश करने से रोकना था।
    • राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना गंगा एक्शन प्लान का ही विस्तार है। इसका उद्देश्य गंगा एक्शन प्लान के फेज-2 के तहत गंगा नदी की सफाई करना है।
  • राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण (NRGBA): इसका गठन भारत सरकार द्वारा वर्ष 2009 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा-3 के तहत किया गया था।
  • इसने गंगा नदी को भारत की 'राष्ट्रीय नदी' घोषित किया।
  • स्वच्छ गंगा कोष: वर्ष 2014 में इसका गठन गंगा की सफाई, अपशिष्ट उपचार संयंत्रों की स्थापना तथा नदी की जैविक विविधता के संरक्षण के लिये किया गया था।
  • भुवन-गंगा वेब एप: यह गंगा नदी में होने वाले प्रदूषण की निगरानी में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करता है।
  • अपशिष्ट निपटान पर प्रतिबंध: वर्ष 2017 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा गंगा नदी में किसी भी प्रकार के कचरे के निपटान पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

गंगा नदी प्रणाली:

  • गंगा नदी उद्गम जिसे 'भागीरथी' कहा जाता है, गंगोत्री ग्लेशियर द्वारा पोषित है और उत्तराखंड के देवप्रयाग में यह अलकनंदा से मिलती है।
  • हरिद्वार में गंगा पहाड़ों से निकलकर मैदानी इलाकों में प्रवेश कर जाती है।
  • गंगा में हिमालय की कई सहायक नदियाँ मिलती हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख नदियाँ यमुना, घाघरा, गंडक और कोसी आदि हैं।

स्रोत: पी.आई.बी.


सामाजिक न्याय

मनरेगा के तहत संशोधित मज़दूरी दर

प्रिलिम्स के लिये:

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS), न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948, डॉ अनूप सत्पथी समिति।

मेन्स के लिये:

गरीबी, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, विकास से संबंधित मुद्दे, मनरेगा और संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिये महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत नई मज़दूरी दरों को अधिसूचित किया है।

संशोधित दरें:

  • 34 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से 21 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 5% से कम वृद्धि तथा 10 राज्यों में 5% से अधिक की वृद्धि हो रही है।
    • जिन 31 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में मज़दूरी में वृद्धि देखी गई, उनमें से सबसे अधिक 7.14% गोवा में दर्ज की गई है।
    • सबसे कम 1.77% की वृद्धि मेघालय में हुई है।
  • तीन राज्यों- मणिपुर, मिज़ोरम और त्रिपुरा की मज़दूरी दरों में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

मनरेगा:

  • परिचय: मनरेगा दुनिया के सबसे बड़े कार्य गारंटी कार्यक्रमों में से एक है।
    • योजना का प्राथमिक उद्देश्य किसी भी ग्रामीण परिवार के सार्वजनिक कार्य से संबंधित अकुशल शारीरिक कार्य करने के इच्छुक वयस्क सदस्यों को प्रत्येक वित्तीय वर्ष में 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी देना है।
  • कार्य का कानूनी अधिकार: पहले की रोज़गार गारंटी योजनाओं के विपरीत मनरेगा का उद्देश्य अधिकार-आधारित ढाँचे के माध्यम से चरम निर्धनता के कारणों का समाधान करना है।
  • मांग-प्रेरित योजना: मनरेगा की रूपरेखा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग यह है कि इसके तहत किसी भी ग्रामीण वयस्क को मांग करने के 15 दिनों के भीतर काम पाने की कानूनी रूप से समर्थित गारंटी प्राप्त है, जिसमें विफल होने पर उसे 'बेरोज़गारी भत्ता' प्रदान किया जाता है।
    • यह मांग-प्रेरित योजना श्रमिकों के स्व-चयन (Self-Selection) को सक्षम बनाती है।
  • विकेंद्रीकृत योजना: इन कार्यों के योजना निर्माण और कार्यान्वयन में पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सौंपकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को सशक्त करने पर बल दिया गया है।
    • अधिनियम में आरंभ किये जाने वाले कार्यों की सिफारिश करने का अधिकार ग्राम सभाओं को सौंपा गया है और इन कार्यों को कम-से-कम 50% उनके द्वारा ही निष्पादित किया जाता है।

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योजना के कार्यान्वयन से संबद्ध समस्याएँ:

  • धन के वितरण में देरी और अपर्याप्तता: अधिकांश राज्य मनरेगा द्वारा निर्दिष्ट 15 दिनों के भीतर अनिवार्य रूप से मज़दूरी भुगतान करने में विफल रहे हैं। इसके साथ ही मज़दूरी भुगतान में देरी हेतु श्रमिकों को मुआवज़ा भी नहीं दिया जाता है।
    • इसने योजना को एक आपूर्ति-आधारित कार्यक्रम में बदल दिया है और इसके परिणामस्वरूप श्रमिक इसके तहत काम करने में रुचि नहीं ले रहे हैं।
    • इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मिलते रहे हैं और इसे स्वयं वित्त मंत्रालय द्वारा स्वीकार किया गया है कि मज़दूरी भुगतान में देरी धन की अपर्याप्तता का परिणाम है।
  • जाति आधारित पृथक्करण: भुगतान में देरी के मामले में जाति के आधार पर भी उल्लेखनीय भिन्नताएँ नज़र आई हैं, जबकि निर्दिष्ट सात दिनों की अवधि के अंदर अनुसूचित जाति के श्रमिकों के लिये 46% और अनुसूचित जनजाति के श्रमिकों के लिये 37% भुगतान सुनिश्चित होता नज़र आया था, गैर-एससी/एसटी श्रमिकों के लिये यह मात्र 26% था।
    • मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे गरीब राज्यों में जाति-आधारित पृथक्करण का नकारात्मक प्रभाव तीव्र रूप से महसूस किया गया है।
  • पंचायती राज संस्थाओं की अप्रभावी भूमिका: बेहद कम स्वायत्तता के कारण ग्राम पंचायतें इस अधिनियम को प्रभावी और कुशल तरीके से लागू करने में सक्षम नहीं हैं।
  • बड़ी संख्या में अधूरे कार्य: मनरेगा के तहत कार्यों को पूरा करने में देरी हुई है और परियोजनाओं का निरीक्षण अनियमित रहा है। इसके साथ ही मनरेगा के तहत संपन्न कार्य की गुणवत्ता व परिसंपत्ति निर्माण समस्याजनक रही है।
  • जॉब कार्ड में धांधली: फर्जी जॉब कार्ड, कार्ड में फर्जी नाम शामिल करने, अपूर्ण प्रविष्टियाँ और जॉब कार्डों में प्रविष्टियाँ करने में देरी जैसी भी कई समस्याएँ मौजूद हैं।

आगे की राह

  • विभिन्न सरकारी विभागों और कार्य आवंटन तथा मापन तंत्र के बीच बेहतर समन्वय की आवश्यकता है।
  • भुगतान अदायगी के मामले में व्याप्त कुछ विसंगतियों को भी दूर करने की ज़रूरत है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र की महिलाओं को अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में औसतन 22.24% कम आय प्राप्त होती है।
  • राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि हर गाँव में सार्वजनिक कार्य शुरू हो। कार्यस्थल पर आने वाले श्रमिकों को बिना किसी देरी के तुरंत काम दिया जाना चाहिये।
  • स्थानीय निकायों को सक्रियता से वापस लौटे और क्वारंटाइन किये गए प्रवासी कामगारों की सहायता करना चाहिये तथा उन लोगों की मदद करनी चाहिये जिन्हें जॉब कार्ड प्राप्त करने की आवश्यकता है।
  • ग्राम पंचायतों को कार्यों को मंज़ूरी देने, कार्य की मांग पर इसकी पूर्ति करने और समयबद्ध मज़दूरी भुगतान सुनिश्चित करने हेतु पर्याप्त संसाधन, शक्तियाँ तथा उत्तरदायित्व सौंपे जाने की आवश्यकता है।
  • मनरेगा को सरकार की अन्य योजनाओं, जैसे- ग्रीन इंडिया पहल, स्वच्छ भारत अभियान आदि के साथ संबद्ध किया जाना भी उपयुक्त होगा।

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन "महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम" से लाभान्वित होने के पात्र हैं? (2011)

(a) केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति परिवारों के वयस्क सदस्य
(b) गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के परिवारों के वयस्क सदस्य
(c) सभी पिछड़े समुदायों के परिवारों के वयस्क सदस्य
(d) किसी भी परिवार के वयस्क सदस्य

उत्तर: (d)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

‘वन हेल्थ’ दृष्टिकोण

प्रिलिम्स के लिये:

वन हेल्थ, नेशनल डिजिटल लाइवस्टॉक मिशन।

मेन्स के लिये:

‘वन हेल्थ’ अवधारणा और इसका महत्त्व, भारत का ‘वन हेल्थ’ फ्रेमवर्क।

चर्चा में क्यों?

मत्स्य पालन, पशुपालन एवं डेयरी मंत्रालय ने उत्तराखंड राज्य में ‘वन हेल्थ सपोर्ट यूनिट’ द्वारा ‘वन हेल्थ फ्रेमवर्क’ को लागू करने हेतु एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है।

  • इस यूनिट का प्राथमिक कार्य पायलट परियोजना कार्यान्वयन के आधार पर ‘वन नेशन, वन हेल्थ’ रोडमैप विकसित करना है।
  • इस पायलट परियोजना के हिस्से के रूप में शुरू की जाने वाली कुछ प्रमुख गतिविधियों में बीमारी के प्रकोप, प्रसार, प्रबंधन और लक्षित निगरानी योजना के विकास पर डेटा संग्रह के तंत्र को संस्थागत बनाना, प्रयोगशालाओं के नेटवर्क को एकीकृत करना, सभी क्षेत्रों में संचार रणनीति विकसित करना और लागू करना शामिल है।

‘वन हेल्थ’ दृष्टिकोण का अर्थ:

  • परिचय:
    • वन हेल्थ एक ऐसा दृष्टिकोण है जो यह मानता है कि मानव स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य और हमारे चारों ओर के पर्यावरण के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है।
    • वन हेल्थ का सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO), विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (OIE) के त्रिपक्षीय-प्लस गठबंधन के बीच हुए समझौते के अंतर्गत एक पहल/ब्लूप्रिंट है।
    • इसका उद्देश्य मानव स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य, पौधों, मिट्टी, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र जैसे विभिन्न विषयों के अनुसंधान और ज्ञान को कई स्तरों पर साझा करने के लिये प्रोत्साहित करना है, जो सभी प्रजातियों के स्वास्थ्य में सुधार, उनकी रक्षा व बचाव के लिये ज़रूरी है।

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  • बढ़ता महत्त्व: यह हाल के वर्षों में और अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि कई कारकों ने लोगों, जानवरों, पौधों और हमारे पर्यावरण के बीच पारस्परिक प्रभाव को बदल दिया है।
    • मानव विस्तार: मानव आबादी बढ़ रही है और नए भौगोलिक क्षेत्रों का विस्तार कर रही है जिसके कारण जानवरों तथा उनके वातावरण के साथ निकट संपर्क की वजह से जानवरों द्वारा मनुष्यों में बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ रहा है।
      • मनुष्यों को प्रभावित करने वाले संक्रामक रोगों में से 65% से अधिक ज़ूनोटिक रोगों की उत्पत्ति के मुख्य स्रोत जानवर हैं।
    • पर्यावरण संबंधी व्यवधान: पर्यावरणीय परिस्थितियों और आवासों में व्यवधान जानवरों में रोगोंका संचार करने के नए अवसर प्रदान कर सकता है।
    • अंतर्राष्ट्रीय यात्रा और व्यापार: अंतर्राष्ट्रीय यात्रा व व्यापार के कारण लोगों, जानवरों और पशु उत्पादों की आवाजाही बढ़ गई है, जिसके कारण बीमारियाँ तेज़ी से सीमाओं एवं दुनिया भर में फैल सकती हैं।
    • वन्यजीवों में वायरस: वैज्ञानिकों के अनुसार, वन्यजीवों में लगभग 1.7 मिलियन से अधिक वायरस पाए जाते हैं, जिनमें से अधिकतर के ज़ूनोटिक होने की संभावना है।
      • इसका तात्पर्य है कि समय रहते अगर इन वायरस का पता नहीं चलता है तो भारत को आने वाले समय में कई महामारियों का सामना करना पड़ सकता है।

भारत का वन हेल्थ फ्रेमवर्क:

  • दीर्घकालिक उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भारत ने 1980 के दशक के रूप में जूनोज़िस (Zoonoses) पर एक राष्ट्रीय स्थायी समिति की स्थापना की।
  • पशुपालन और डेयरी विभाग (Department of Animal Husbandry and Dairying- DAHD) ने पशु रोगों के प्रसार को कम करने के लिये कई योजनाएँ शुरू की हैं।
    • इसके अलावा DAHD ज़ल्द ही अपने मंत्रालय के भीतर एक एक स्वास्थ्य इकाई स्थापित करेगा।
  • इसके अतिरिक्त, सरकार ऐसे कार्यक्रमों को पुनर्जीवित करने के लिये काम कर रही है जो पशु चिकित्सकों के लिये क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करते हैं एवं पशु स्वास्थ्य निदान प्रणाली जैसे कि, राज्यों को पशु रोग नियंत्रण हेतु सहायता प्रदान करना (Assistance to States for Control of Animal Diseases- ASCAD) हेतु उपयोगी है।
  • हाल ही में नागपुर में 'एक स्वास्थ्य केंद्र' की स्थापना के लिये धनराशि स्वीकृत की गई थी।

आगे की राह

  • कोविड-19 महामारी ने संक्रामक रोगों के दौरान 'वन हेल्थ' सिद्धांत की प्रासंगिकता को विशेष रूप से पूरे विश्व में ज़ूनोटिक रोगों को रोकने और नियंत्रित करने के प्रयास के रूप में प्रदर्शित किया है।
  • भारत को पूरे देश में इस तरह के एक मॉडल को विकसित करने और दुनिया भर में सार्थक अनुसंधान सहयोग स्थापित करने की आवश्यकता है।
  • अनौपचारिक बाज़ार और बूचड़खानों के संचालन (जैसे- निरीक्षण, रोग प्रसार आकलन) हेतु सर्वोत्तम अभ्यास दिशा-निर्देश विकसित करने तथा ग्राम स्तर तक प्रत्येक स्तर पर 'वन हेल्थ' अवधारणा के संचालन के लिये तंत्र बनाने की आवश्यकता है।
  • जागरूकता फैलाना और 'वन हेल्थ' लक्ष्यों को पूरा करने के लिये निवेश बढ़ाना समय की मांग है।

स्रोत: पी.आई.बी.


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