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कृषि

नेचुरल फार्मिंग

  • 02 Dec 2021
  • 13 min read

प्रिलिम्स के लिये:

नेचुरल फार्मिंग, जैविक खेती, नीति आयोग, परंपरागत कृषि विकास योजना

मेन्स के लिये:

प्राकृतिक खेती का उद्देश्य एवं महत्त्व, प्राकृतिक खेती और जैविक खेती के बीच अंतर

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नीति आयोग द्वारा प्राकृतिक खेती (Natural Farming) पर एक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया।

  • संपूर्ण विश्व में प्राकृतिक खेती के कई मॉडल परिचालित हैं, इनमें से ज़ीरो बजट नेचुरल फार्मिंग (ZBNF) भारत में सबसे लोकप्रिय मॉडल है। यह पद्म श्री सुभाष पालेकर द्वारा विकसित व्यापक, प्राकृतिक और आध्यात्मिक कृषि प्रणाली है।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय: 
    • इसे "रसायन मुक्त कृषि (Chemical-Free Farming) और पशुधन आधारित (livestock based)" के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। कृषि-पारिस्थितिकी के मानकों पर आधारित, यह एक विविध कृषि प्रणाली है जो फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है, जिससे कार्यात्मक जैव विविधता के इष्टतम उपयोग की अनुमति मिलती है।
    • यह मिट्टी की उर्वरता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य को बढ़ाने तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने या न्यून करने जैसे कई अन्य लाभ प्रदान करते हुए किसानों की आय बढ़ाने में सहायक है।
      • कृषि के इस दृष्टिकोण को एक जापानी किसान और दार्शनिक मासानोबू फुकुओका (Masanobu Fukuoka) ने 1975 में अपनी पुस्तक द वन-स्ट्रॉ रेवोल्यूशन में पेश किया था।
    • यह खेतों में या उसके आसपास के क्षेत्रों में मौज़ूद प्राकृतिक या पारिस्थितिक तंत्र पर आधारित होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृतिक खेती को पुनर्योजी कृषि का एक रूप माना जाता है, जो ग्रह को बचाने के लिये एक प्रमुख रणनीति है।
    • इसमें भूमि प्रथाओं का प्रबंधन और मिट्टी एवं पौधों में वातावरण से कार्बन को अवशोषित करने की क्षमता होती है, जिससे यह हानिकारक के बजाय वास्तव में उपयोगी है।
    • भारत में परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) के तहत प्राकृतिक खेती को भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम (BPKP) के रूप में बढ़ावा दिया जाता है।
      • BPKP योजना का उद्देश्य बाहर से खरीदे जाने वाले आदानों को कम कर पारंपरिक स्वदेशी प्रथाओं को बढ़ावा देना है।
    • प्राकृतिक खेती का आशय पद्धति, प्रथाओं और उपज में वृद्धि  संबंधी  प्राकृतिक विज्ञान से है ताकि कम साधनों में अधिक उत्पादन किया जा सके।

Natural-Farming

  • उद्देश्य:
    • लागत में कमी, कम जोखिम, समान उपज, इंटर-क्रॉपिंग से अर्जित आय द्वारा किसानों की शुद्ध आय में वृद्धि करके खेती को व्यवहार्य और अनुकूल बनाना।
    • किसानों को खेत, प्राकृतिक और घरेलू संसाधनों का उपयोग कर आवश्यक जैविक आदानों को तैयार करने के लिये प्रोत्साहित करना तथा उत्पादन लागत में भारी कटौती करना।
  • महत्त्व:
    • उत्पादन की न्यूनतम लागत:
      • इसे रोज़गार बढ़ाने और ग्रामीण विकास की गुंजाइश के साथ एक लागत-प्रभावी कृषि पद्धति/प्रथा माना जाता है।
    • बेहतर स्वास्थ्य की सुनिश्चित करना:
      • चूँकि प्राकृतिक खेती में किसी भी सिंथेटिक रसायन का उपयोग नहीं किया जाता है, इसलिये स्वास्थ्य जोखिम और खतरे समाप्त हो जाते हैं। साथ ही भोजन में उच्च पोषक तत्त्व होने से यह बेहतर स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।
    • रोज़गार सृजन:
      • प्राकृतिक खेती नए उद्यमों, मूल्यवर्द्धन, स्थानीय क्षेत्रों में विपणन आदि में रोज़गार के  सृजन में सहायक है। प्राकृतिक खेती से प्राप्त अधिशेष का निवेश गाँव में ही किया जा सकता है।
      • चूँकि इसमें रोज़गार सृजन की क्षमता है, जिससे ग्रामीण युवाओं का पलायन रुकेगा।
    • पर्यावरण संरक्षण:
      • यह बेहतर मृदा जीव विज्ञान, बेहतर कृषि जैव विविधता और बहुत छोटे कार्बन एवं नाइट्रोजन पदचिह्नों के साथ जल का अधिक न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करती है।
    • जल की कम खपत:
      • विभिन्न फसलों के साथ प्रतिकिया करके यह एक-दूसरे की मदद करते हैं और वाष्पीकरण के माध्यम से अनावश्यक जल के नुकसान को रोकने के लिये मिट्टी को कवर करते हैं, प्राकृतिक खेती 'प्रति बूँद फसल' की मात्रा को अनुकूलित करती है।
    • मृदा स्वास्थ्य को पुनर्जीवित करना:
      • प्राकृतिक खेती का सबसे तात्कालिक प्रभाव मिट्टी के जीव विज्ञान- रोगाणुओं और अन्य जीवित जीवों जैसे केंचुओं पर पड़ता है। मृदा स्वास्थ्य पूरी तरह से उसमें रहने वाले जीवों पर निर्भर करता है।
    • पशुधन स्थिरता:
      • कृषि प्रणाली में पशुधन का एकीकरण प्राकृतिक खेती में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और पारिस्थितिकी तंत्र के पुनर्चक्रण में मदद करता है। जीवामृत और बीजामृत जैसे इको-फ्रेंडली बायो-इनपुट गाय के गोबर और मूत्र तथा अन्य प्राकृतिक उत्पादों से तैयार किये जाते हैं।
    • लचीलापन:
      • जैविक कार्बन, कम/न्यून जुताई और पौधों की विविधता की मदद से मिट्टी की संरचना में परिवर्तन गंभीर सूखे जैसी चरम स्थितियों में भी पौधों की वृद्धि में सहायक हो सकता है एवं चक्रवात के दौरान गंभीर बाढ़  तथा वायु द्वारा होने वाली क्षति को कम किया जा सकता हैं।
      • मौसम की चरम सीमाओं के खिलाफ फसलों को लचीलापन प्रदान कर प्राकृतिक खेती किसानों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है।
  • संबंधित पहल:
    • बारानी क्षेत्र विकास (RAD): यह उत्पादकता बढ़ाने और जलवायु परिवर्तनशीलता से जुड़े जोखिमों को कम करने के लिये एकीकृत कृषि प्रणाली (IFS) पर केंद्रित है।
    • कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF): इसका उद्देश्य किसानों को जलवायु सुगमता और आय के अतिरिक्त स्रोतों के लिये कृषि फसलों के साथ-साथ बहुउद्देश्यीय पेड़ लगाने हेतु प्रोत्साहित करना है, साथ ही लकड़ी आधारित फीडस्टॉक और हर्बल उद्योग को बढ़ावा देना है। 
    • जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने हेतु कृषि को लचीला बनाने के लिये तकनीकों का विकास, प्रदर्शन और प्रसार करने के लिये सतत् कृषि पर राष्ट्रीय मिशन (NMSA) प्रारंभ किया गया।
    • उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के लिये मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट (MOVCDNER): यह एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है, यह NMSA के तहत एक उप-मिशन है, जिसका उद्देश्य प्रमाणित जैविक उत्पादन को वैल्यू चेन मोड में विकसित करना है।
    • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): इसे वर्ष 2015 में जल संसाधनों के मुद्दों को संबोधित करने और एक स्थायी समाधान प्रदान करने के लिये शुरू किया गया था जो ‘प्रति बूँद अधिक फसल’ की परिकल्पना करती है।
    • हरित भारत मिशन: इसे वर्ष 2014 में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC) के तहत लॉन्च किया गया था, जिसका प्राथमिक उद्देश्य भारत के घटते वन आवरण की रक्षा, पुनर्स्थापना और उसमें वृद्धि करना था।

प्राकृतिक खेती और जैविक खेती के बीच अंतर

              जैविक खेती

            प्राकृतिक खेती

जैविक खेती में जैविक उर्वरक और खाद जैसे- कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, गाय के गोबर की खाद आदि का उपयोग किया जाता है और बाहरी उर्वरक  का खेतो में प्रयोग किया जाता है।

प्राकृतिक खेती में मिट्टी में न तो रासायनिक और न ही जैविक खाद डाली जाती है। वास्तव में बाहरी उर्वरक का प्रयोग न तो मिट्टी में और न ही पौधों में किया जाता है।

जैविक खेती के लिये अभी भी बुनियादी कृषि पद्धतियों जैसे- जुताई, गुड़ाई, खाद का मिश्रण, निराई आदि की आवश्यकता होती है।

प्राकृतिक खेती में मिट्टी की सतह पर ही रोगाणुओं और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के अपघटन को प्रोत्साहित किया जाता है, इससे धीरे-धीरे मिट्टी में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होती है।

व्यापक स्तर पर खाद की आवश्यकता के कारण जैविक खेती अभी भी महँगी है और इस पर  आसपास के वातावरण व पारिस्थितिक का प्रभाव पड़ता है; जबकि प्राकृतिक कृषि एक अत्यंत कम लागत वाली कृषि पद्धति है, जो स्थानीय जैव विविधता के साथ पूरी तरह से अनुकूलित हो जाती है।

प्राकृतिक खेती में न जुताई होती है, न मिट्टी को पलटा जाता है और न ही उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है तथा किसी भी पद्धति का ठीक उसी तरह नहीं अपनाया जाता है जैसे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में होता है।

आगे की राह

  • विश्व की जनसंख्या वर्ष 2050 तक लगभग 10 बिलियन तक बढ़ने का अनुमान है। संभावना है कि वर्ष 2013 की तुलना में कृषि मांग 50% तक बढ़ जाएगी, ऐसी स्थिति में कृषि-पारिस्थितिकी जैसे 'समग्र' दृष्टिकोण की ओर एक परिवर्तनकारी प्रक्रिया, कृषि वानिकी, जलवायु-स्मार्ट कृषि और संरक्षण कृषि की आवश्यकता है।
  • कृषि बाज़ार के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने और सभी राज्यों में खाद्यान्न और गैर-खाद्यान्न फसलों के लिये खरीद तंत्र का विस्तार करने की आवश्यकता है।
  • चयनित फसलों के लिये प्राइस डेफिसिएंसी पेमेंट सिस्टम का कार्यान्वयन करना। 'एमएसपी पर बेचने का अधिकार' पर कानून बनाने या तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है।
  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) को खेती की लागत को कम करने के लिये कृषि कार्य से भी जोड़ा जाना चाहिये, जो पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ी है।

स्रोत: पीआईबी

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