शासन व्यवस्था
मृत्युदंड प्रणाली में सुधार
प्रिलिम्स के लिये:मृत्युदंड से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामले, मृत्युदंड के प्रावधान, अनुच्छेद-21 मेन्स के लिये:न्यायपालिका, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन से उत्पन्न मुद्दे, मृत्युदंड तथा इससे संबंधित तर्क। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) की एक बेंच मृत्युदंड से संबंधित प्रक्रियाओं की व्यापक जाँच करने हेतु सहमत हुई है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जिन न्यायाधीशों को आजीवन कारावास और मृत्युदंड की सज़ा के बीच चयन करना है, उनके पास मामले से संबंधित व्यापक सूचना उपलब्ध हो।
- इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड की सज़ा के मामलों में उपलब्ध सूचनाओं के न्यून आकलन की प्रक्रिया को लेकर चिंता जताई थी।
- न्यायालय उन प्रक्रियाओं में सुधार करने की कवायद कर रही है, जिसके द्वारा मौत की सज़ा के मामले में आवश्यक जानकारी अदालतों के सामने लाई जाती है। ऐसा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय मृत्युदंड की प्रक्रिया में मौजूद चिंताओं को स्वीकार कर रहा है।
- जबकि मृत्युदंड की सज़ा को संवैधानिक माना गया है, किंतु कई बार इसकी प्रकिया को अनुचित और मनमाने ढंग से लागू करने के आरोप लगाए जाते हैं।
मृत्युदंड का अर्थ:
- मौत की सज़ा, जिसे मृत्युदंड भी कहा जाता है, किसी अपराधी को उसके आपराधिक कृत्य के लिये अदालत द्वारा मिलने वाला सर्वोच्च दंड है।
- आमतौर पर यह सज़ा हत्या, बलात्कार, देशद्रोह आदि अत्यंत गंभीर मामलों में दी जाती है।
- मृत्युदंड को सबसे खराब अपराधों के लिये सबसे उपयुक्त सज़ा एवं प्रभावी निवारक के रूप में देखा जाता है।
- हालाँकि इसका विरोध करने वाले इसे अमानवीय मानते हैं। इस प्रकार मौत की सज़ा की नैतिकता बहस का विषय है और दुनिया भर में कई मानवाधिकारवादी व समाजवादी लंबे समय से मौत की सज़ा को खत्म करने की मांग कर रहे हैं।
आजीवन कारावास और मृत्युदंड की सज़ा के बीच चयन:
- मई 1980 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने बचन सिंह वाद में मौत की सज़ा की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था, तो भविष्य के मामलों के लिये इस संबंध में एक फ्रेमवर्क विकसित किया गया था।
- इस फ्रेमवर्क के केंद्र में यह धारणा थी कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता में विधायिका ने यह स्पष्ट कर दिया था कि आजीवन कारावास डिफ़ॉल्ट सज़ा होगी और न्यायाधीश एक विशेष उपकरण के तौर पर मृत्युदंड के प्रावधान का उपयोग करेंगे।
- वर्ष 1980 में स्थापित इस फ्रेमवर्क- जिसे लोकप्रिय रूप से ‘दुर्लभ से दुर्लभ’ फ्रेमवर्क के रूप में जाना जाता है, के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को मृत्युदंड की सज़ा का निर्धारण करते समय गंभीर एवं शमन दोनों कारकों पर विचार करना चाहिये।
- निर्णय ने यह भी स्पष्ट कि मृत्युदंड देने से पहले न्यायाधीशों को चाहिये की वे व्यक्ति की आजीवन कारावास की सज़ा को ‘निर्विवाद रूप से’ समाप्त करें।
- यह उन कारकों की एक सांकेतिक सूची थी, जिनकी उपस्थिति निर्णय के प्रासंगिक होने हेतु आवश्यक थी, किंतु यह स्पष्ट था यह सूची पूर्णतः विस्तृत नहीं थी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने बचन सिंह वाद में प्रस्तुत फ्रेमवर्क में मौजूद विसंगति पर बार-बार चिंता ज़ाहिर की है। भारतीय विधि आयोग (262वीं रिपोर्ट) ने भी इसी तरह की चिंता व्यक्त की है।
मृत्युदंड के मामलों में लघुकरण:
- किसी भी आपराधिक मुकदमे में दो चरण होते हैं- अपराध चरण और सज़ा देने का चरण।
- अभियुक्त को अपराध का दोषी पाए जाने के बाद सज़ा सुनाई जाती है; यह वह चरण है जहाँ सज़ा निर्धारित की जाती है। इसलिये सज़ा सुनाए जाने के दौरान प्रस्तुत या कही गई किसी भी बात का उपयोग अपराध के निष्कर्ष को उलटने या बदलने के लिये नहीं किया जा सकता है।
- यह आपराधिक कानून का एक मौलिक सिद्धांत है कि सज़ा देने का कार्य वैयक्तिक रूप से किया जाना चाहिये, यानी सज़ा निर्धारित करने की प्रक्रिया में न्यायाधीश को अभियुक्त की व्यक्तिगत परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिये।
- लघुकरण, जिसे "लघुकरण कारक" या "लघुकरण साक्ष्य" के रूप में भी जाना जाता है, वह साक्ष्य (सूचना) है जिसे बचाव पक्ष द्वारा सज़ा दिये जाने के चरण में (उन मामलों में जहाँ मृत्युदंड दिया जा सकता है) प्रस्तुत किया जा सकता है, इस संदर्भ में कारण प्रस्तुत किये जाते हैं कि अभियुक्त को मृत्युदंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिये।
- इन्हें एकत्र करने का कार्य कुछ ऐसा नहीं है जिसके लिये वकीलों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिये, यही कारण है कि मृत्युदंड की सज़ा के बचाव हेतु नियुक्त वकील और उसके कार्यों के लिये अमेरिकन बार एसोसिएशन के 2003 दिशा-निर्देश स्पष्ट रूप से परिभाषित भूमिका के साथ एक शमन विशेषज्ञ को मान्यता प्रदान करते हैं जो वकीलों द्वारा किये गये बचाव कार्यों से अलग है।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सांता सिंह (1976) और मोहम्मद मन्नान (2019) के निर्णयों में इस तरह के अभ्यास की अंतःविषयक प्रकृति को मान्यता दी गई है तथा इस प्रकार की जानकारी एकत्र करने हेतु वकीलों के अलावा अन्य पेशेवरों की आवश्यकता होती है।
भारतीय संदर्भ में मृत्युदंड की स्थिति:
- 1955 के आपराधिक प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम (Cr PC) से पहले भारत में मृत्युदंड नियम और आजीवन कारावास एक अपवाद था।
- इसके अलावा न्यायालय मृत्युदंड के स्थान पर हल्का दंड देने हेतु स्पष्टीकरण देने को बाध्य था।
- वर्ष 1955 के संशोधन के बाद न्यायालय मृत्युदंड या आजीवन कारावास देने के लिये स्वतंत्र था।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 354 (3) के अनुसार, न्यायालयों को अधिकतम दंड देने हेतु लिखित में कारण बताना आवश्यक है।
- वर्तमान में स्थिति इसके विपरीत है जिसमें गंभीर अपराध के लिये आजीवन कारावास की सज़ा एक नियम है और मृत्युदंड की सज़ा एक अपवाद।
- इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र द्वारा मृत्युदंड के खिलाफ वैश्विक रोक के बावजूद भारत में मृत्युदंड की सज़ा बरकरार है।
- भारत का दृष्टिकोण है कि निर्दयी, जान-बूझकर और नृशंस हत्या के दोषी अपराधियों को कम सज़ा देने से इस कानून की प्रभावशीलता कम हो जाएगी जिसका परिणाम न्याय का उपहास होगा।
- इस संदर्भ में वर्ष 1967 की विधि आयोग की 35वीं रिपोर्ट में मृत्युदंड को समाप्त करने के प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया गया था।
- आधिकारिक आंँकड़ों के अनुसार, भारत में वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से 720 लोगों को फांँसी हुई है जो कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा मौत की सज़ा पाने वाले लोगों का एक छोटा सा अंश है।
- अधिकांश मामलों में मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था और कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों द्वारा बरी कर दिया गया था।
आगे की राह
- एक ऐसी प्रणाली, जिससे व्यक्ति मृत्युदंड के अनुभव से गुज़रता है और अंततः कानूनी प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है, में अत्यधिक उच्च स्तर की निष्पक्षता होनी चाहिये। निष्पक्षता को प्रारंभिक बिंदु मानते हुए आपराधिक न्याय प्रणाली को ऐसे प्रयास करने की आवश्यकता है जो प्रक्रियात्मक निष्पक्षता हेतु एक प्रणाली का निर्माण सुनिश्चित करे।
- एक तरफ मृत्युदंड में सुधार तो दूसरी तरफ इसे समाप्त करने की बात, ये दोनों ही रास्ते काफी दूर तक साथ जाते हैं। मृत्युदंड में सुधार की बात में संलग्न होने का प्रत्येक उदाहरण मृत्युदंड के उपयोग में अंतर्निहित अनुचितता पर प्रकाश डालता है, विशेष रूप से ऐसी प्रणाली में जिसका अनुसरण हम करते हैं।
- भारत में मृत्युदंड की वर्तमान स्थिति काफी संतुलित है लेकिन न्यायालय के व्यापक न्यायिक विवेक के परिणामस्वरूप समान प्रकृति के मामलों में असमान निर्णय की स्थितियाँ भी देखी गई हैं; इस प्रकार की स्थिति भारतीय न्यायपालिका की अच्छी छवि का प्रतिनिधित्व नहीं करती है।
- बचन सिंह या माछी सिंह जैसे मामलों में निर्धारित किये गए सिद्धांतों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये ताकि समान प्रकृति के अपराध के लिये दोषी व्यक्ति को समान श्रेणी की सज़ा दी जा सके।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
सतलज-यमुना लिंक (SYL) नहर पर विवाद
प्रिलिम्स के लिये:सिंधु जल संधि, रावी और ब्यास, अनुच्छेद 143, सतलज नदी, यमुना नदी। मेन्स के लिये:सतलज यमुना लिंक नहर, अंतर्राज्यीय नदी जल से संबंधित मुद्दों पर विवाद। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में हरियाणा विधानसभा द्वारा सतलज-यमुना लिंक (Sutlej Yamuna Link- SYL) नहर को पूरा करने की मांग को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया गया है।
- इसके पूरा हो जाने के बाद यह नहर हरियाणा और पंजाब के बीच रावी और ब्यास नदियों के पानी को साझा करने में सक्षम होगी।
- प्रस्तावित सतलज-यमुना लिंक नहर 214 किलोमीटर लंबी नहर है जो सतलज और यमुना नदियों को जोड़ती है।
- जल संसाधन राज्य सूची के अंतर्गत आते हैं, जबकि संसद को संघ सूची के तहत अंतर्राज्यीय नदियों के संबंध में कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है।
प्रमुख बिंदु
पृष्ठभूमि:
- वर्ष 1960: विवाद की उत्पत्ति भारत और पाकिस्तान के बीच हुए सिंधु जल संधि में देखी जा सकती है, जिसमें रावी, ब्यास और सतलज के पूर्व में 'मुक्त और अप्रतिबंधित उपयोग' (Free And Unrestricted Use) की अनुमति दी गई थी।
- वर्ष 1966: पुराने (अविभाजित) पंजाब से निर्मित हरियाणा को नदी के पानी का हिस्सा देने की समस्या उभरकर सामने आई।
- सतलज और उसकी सहायक ब्यास नदी के जल का हिस्सा हरियाणा को देने के लिये सतलज को यमुना से जोड़ने वाली एक नहर (एसवाईएल नहर) की योजना बनाई गई थी।
- पंजाब ने यह कहते हुए हरियाणा के साथ पानी साझा करने से इनकार कर दिया कि यह रिपेरियन सिद्धांत (Riparian Principle) के खिलाफ है जिसके अनुसार, नदी के पानी पर केवल उस राज्य और देश या राज्यों और देशों का अधिकार होता है जहांँ से नदी बहती है।
- वर्ष 1981: दोनों राज्य पानी के पुन: आवंटन हेतु परस्पर सहमत हुए।
- वर्ष 1982: पंजाब के कपूरी गांँव में 214 किलोमीटर लंबी सतलज-यमुना लिंक नहर (SYL) का निर्माण शुरू किया गया।
- राज्य में आतंकवाद का माहौल बनाने और राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बनाने के विरोध में आंदोलन, विरोध प्रदर्शन हुए तथा हत्याएंँ की गईं।
- वर्ष 1885:
- प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन अकाली दल के प्रमुख संत ने पानी का आकलन करने हेतु एक नए न्यायाधिकरण के लिये सहमति व्यक्त की।
- पानी की उपलब्धता और बंँटवारे के पुनर्मूल्यांकन हेतु सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी बालकृष्ण एराडी (V Balakrishna Eradi) की अध्यक्षता में ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई थी।
- वर्ष 1987 में ट्रिब्यूनल ने पंजाब और हरियाणा को आवंटित पानी में क्रमशः 5 एमएएफ और 3.83 एमएएफ तक की वृद्धि की सिफारिश की।
- वर्ष 1996: हरियाणा ने SYL का काम पूरा करने के लिये पंजाब को निर्देश देने हेतु सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया।
- वर्ष 2002 और वर्ष 2004: सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब को अपने क्षेत्र में SYL के काम को पूरा करने का निर्देश दिया।
- वर्ष 2004: पंजाब विधानसभा ने पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट्स अधिनियम पारित किया, इसके माध्यम से जल-साझाकरण समझौतों को समाप्त कर दिया गया और इस तरह पंजाब में SYL का निर्माण अधर में रह गया।
- वर्ष 2016: सर्वोच्च न्यायालय ने 2004 के अधिनियम की वैधता पर निर्णय लेने के लिये राष्ट्रपति के संदर्भ (अनुच्छेद 143) पर सुनवाई शुरू की और यह माना कि पंजाब नदियों के जल को साझा करने के अपने वादे से पीछे हट गया है। इस प्रकार अधिनियम को संवैधानिक रूप से अमान्य घोषित कर दिया गया था।
- वर्ष 2020:
- सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को SYL नहर के मुद्दे पर उच्चतम राजनीतिक स्तर पर केंद्र सरकार की मध्यस्थता के माध्यम से बातचीत करने और मामले को निपटाने का निर्देश दिया।
- पंजाब ने जल की उपलब्धता के नए समयबद्ध आकलन हेतु एक न्यायाधिकरण की मांग की है।
- पंजाब का मानना है कि आज तक राज्य में नदी जल का कोई अधिनिर्णय या वैज्ञानिक मूल्यांकन नहीं हुआ है।
- रावी-ब्यास जल की उपलब्धता भी 1981 के अनुमानित 17.17 MAF (मिलियन एकड़ फुट) से घटकर 2013 में 13.38 MAF हो गई है। एक नया न्यायाधिकरण इन सभी की जाँच सुनिश्चित करेगा।
पंजाब और हरियाणा राज्यों के तर्क:
- पंजाब:
- वर्ष 2029 के बाद पंजाब के कई क्षेत्रों में जल समाप्त हो सकता है और सिंचाई के लिये राज्य पहले ही अपने भूजल का अत्यधिक दोहन कर चुका है क्योंकि गेहूंँ और धान की खेती करके यह केंद्र सरकार को हर साल लगभग 70,000 करोड़ रुपए मूल्य का अन्न भंडार उपलब्ध कराता है।
- राज्य के लगभग 79% क्षेत्र में पानी का अत्यधिक दोहन है और ऐसे में सरकार का कहना है कि किसी अन्य राज्य के साथ पानी साझा करना असंभव है।
- वर्ष 2029 के बाद पंजाब के कई क्षेत्रों में जल समाप्त हो सकता है और सिंचाई के लिये राज्य पहले ही अपने भूजल का अत्यधिक दोहन कर चुका है क्योंकि गेहूंँ और धान की खेती करके यह केंद्र सरकार को हर साल लगभग 70,000 करोड़ रुपए मूल्य का अन्न भंडार उपलब्ध कराता है।
- हरियाणा:
- हरियाणा का तर्क है कि राज्य में सिंचाई के लिये जल उपलब्ध कराना कठिन है और हरियाणा के दक्षिणी हिस्सों में पीने के पानी की समस्या है जहांँ भूजल 1,700 फीट तक कम हो गया है।
- हरियाणा केंद्रीय खाद्य पूल (Central Food Pool) में अपने योगदान का हवाला देता रहा है और तर्क दे रहा है कि एक न्यायाधिकरण द्वारा किये गए मूल्यांकन के अनुसार उसे पानी में उसके उचित हिस्से से वंचित किया जा रहा है।
सतलज और यमुना नदी की मुख्य विशेषताएँ:
- सतलज:
- सतलज नदी का प्राचीन नाम जराद्रोस (प्राचीन यूनानी) शुतुद्री या शतद्रु (संस्कृत) है।
- यह सिंधु नदी की पाँच सहायक नदियों में सबसे लंबी है, जो पंजाब (जिसका अर्थ है "पाँच नदियाँ") को अपना नाम देती है।
- झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास और सतलज, सिंधु की मुख्य सहायक नदियाँ हैं।
- इसका उद्गम दक्षिण-पश्चिमी तिब्बत की ‘लंगा झील’ में हिमालय के उत्तरी ढलान पर होता है।
- सर्वप्रथम यह हिमाचल प्रदेश में प्रवेश करती है और फिर हिमालय की घाटियों के माध्यम से उत्तर-पश्चिम की ओर तथा बाद में पश्चिम-दक्षिण-पश्चिम की ओर बहते हुए, यह नंगल के पास पंजाब के मैदान के माध्यम से प्रवाहित होती है।
- एक विस्तृत चैनल के माध्यम से दक्षिण-पश्चिम की ओर बढ़ते हुए यह ब्यास नदी में मिलती है और पाकिस्तान में प्रवेश करने से पहले भारत-पाकिस्तान सीमा पर 65 मील तक प्रवाहित होती है, इस प्रकार अंततः बहावलपुर के पश्चिम में चिनाब नदी में शामिल होने के साथ 220 मील की दूरी तय करती है।
- सतलज नदी पाकिस्तान में प्रवेश करने से पहले फिरोज़पुर ज़िले के हरिके में ब्यास नदी में मिलती है।
- संयुक्त नदियाँ तब पंजनाद बनाती हैं, जो पाँच नदियों और सिंधु के बीच की कड़ी है।
- लुहरी चरण-I जल विद्युत परियोजना हिमाचल प्रदेश के शिमला और कुल्लू ज़िलों में सतलज नदी पर स्थित है।
- यमुना:
- उद्गम: यह गंगा नदी की एक प्रमुख सहायक नदी है जो उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले में समुद्र तल से लगभग 6387 मीटर की ऊंँचाई पर निम्न हिमालय की मसूरी रेंज से बंदरपूंँछ चोटियों (Bandarpoonch Peaks) के पास यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है।
- बेसिन: यह उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली होकर बहने के बाद प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में संगम (जहांँ कुंभ मेला आयोजित किया जाता है) में गंगा नदी से मिलती है।
- लंबाई: 1376 किमी.
- महत्त्वपूर्ण बाँध: लखवाड़-व्यासी बाँध (उत्तराखंड), ताज़ेवाला बैराज बाँध (हरियाणा) आदि।
- महत्त्वपूर्ण सहायक नदियाँ: चंबल, सिंध, बेतवा और केन।
आगे की राह
- न्यायाधिकरण के निर्णय पर सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार के साथ एक स्थायी न्यायाधिकरण स्थापित करके जल विवादों को हल या संतुलित किया जा सकता है।
- किसी भी संवैधानिक सरकार का तात्कालिक लक्ष्य अनुच्छेद-262 में संशोधन (अंतर-राज्यीय नदियों या नदी घाटियों के जल से संबंधित विवादों का न्यायनिर्णयन) और अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम में संशोधन एवं समान रूप से इसका कार्यान्वयन होना चाहिये।
विगत वर्षों के प्रश्न:प्रश्न. सिंधु नदी प्रणाली के संदर्भ में निम्नलिखित चार नदियों में से तीन उनमें से एक में मिलती हैं, जो अंततः सीधे सिंधु में मिलती हैं। निम्नलिखित में से कौन सी ऐसी नदी है जो सीधे सिंधु से मिलती है? (a) चिनाब उत्तर: (d)
प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2014) आर्द्रभूमि नदियों का संगम
उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (a)
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स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय इतिहास
बाबू जगजीवन राम
प्रिलिम्स के लिये:बाबू जगजीवन राम, पंडित मदन मोहन मालवीय, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन। मेन्स के लिये:महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व, स्वतंत्रता पूर्व राष्ट्र निर्माण में बाबू जगजीवन राम का महत्त्व। |
चर्चा में क्यों?
प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता सेनानी बाबू जगजीवन राम की 115वीं जयंती (5 अप्रैल) पर उन्हें श्रद्धांजलि दी।
- जगजीवन राम, जिन्हें बाबूजी के नाम से जाना जाता है, एक राष्ट्रीय नेता, स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक न्याय हेतु लड़ाई लड़ने वाले योद्धा, वंचित वर्गों के हिमायती तथा एक उत्कृष्ट सांसद थे।
जगजीवन राम और उनका योगदान:
- जन्म:
- जगजीवन राम का जन्म 5 अप्रैल, 1908 को चंदवा, बिहार के एक दलित परिवार में हुआ था।
- आरंभिक जीवन और शिक्षा:
- उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा आरा शहर से प्राप्त की, जहाँ उन्होंने पहली बार भेदभाव का सामना किया।
- उन्हें ‘अछूत’ (Untouchable) माना जाता था जिसके चलते उन्हें एक अलग बर्तन से पानी पीना पड़ता था।
- जगजीवन राम ने उस घड़े/बर्तन को तोड़कर इसका विरोध किया। इसके बाद प्रधानाचार्य को स्कूल में अछूतों के लिये अलग से रखे गए पानी पीने के बर्तन को हटाना पड़ा।
- जगजीवन राम वर्ष 1925 में पंडित मदन मोहन मालवीय से मिले तथा उनसे बहुत अधिक प्रभावित हुए। बाद में मालवीय जी के आमंत्रण पर वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) गए।
- विश्वविद्यालय में जगजीवन राम को भेदभाव का सामना करना पड़ा। इस घटना ने उन्हें समाज के एक वर्ग के साथ इस प्रकार के सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ विरोध करने के लिये प्रेरित किया।
- इस तरह के अन्याय के विरोध में उन्होंने अनुसूचित जातियों को संगठित किया।
- BHU में कार्यकाल पूर्ण होने के बाद उन्होंने वर्ष 1931 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. की डिग्री हासिल की।
- जगजीवन राम ने कई बार रविदास सम्मेलन का आयोजन कर कलकत्ता (कोलकाता) के विभिन्न क्षेत्रों में गुरु रविदास जयंती मनाई थी।
- उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा आरा शहर से प्राप्त की, जहाँ उन्होंने पहली बार भेदभाव का सामना किया।
- स्वतंत्रता पूर्व योगदान:
- वर्ष 1931 में वह भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस (कॉन्ग्रेस पार्टी) के सदस्य बन गए।
- उन्होंने वर्ष 1934-35 में अखिल भारतीय शोषित वर्ग लीग (All India Depressed Classes League) की नींव रखने में अहम योगदान दिया था। यह संगठन अछूतों को समानता का अधिकार दिलाने हेतु समर्पित था।
- वह सामाजिक समानता और शोषित वर्गों के लिये समान अधिकारों के प्रणेता थे।
- वर्ष 1935 में उन्होंने हिंदू महासभा के एक सत्र में प्रस्ताव रखा कि पीने के पानी के कुएँ और मंदिर अछूतों के लिये खुले रखे जाएँ।
- वर्ष 1935 में बाबूजी राँची में हैमोंड आयोग के समक्ष भी उपस्थित हुए और पहली बार दलितों के लिये मतदान के अधिकार की मांग की ।
- उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और इससे जुड़ी राजनीतिक गतिविधियों के लिये 1940 के दशक में उन्हें दो बार जेल जाना पड़ा।
- स्वतंत्रता के बाद योगदान:
- बाबू जगजीवन राम वर्ष 1946 में जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार में सबसे युवा मंत्री बने।
- स्वतंत्रता के बाद उन्होंने 1952 तक श्रम विभाग का संचालन किया। इसके बाद उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल में संचार विभाग (1952–56), परिवहन और रेलवे (1956–62) तथा परिवहन और संचार (1962–63) मंत्री के पदों पर कार्य किया।
- उन्होंने 1967-70 के मध्य खाद्य और कृषि मंत्री के रूप में कार्य किया तथा 1970 में उन्हें रक्षा मंत्री बनाया गया।
- वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान वे भारत के रक्षा मंत्री थे जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का निर्माण हुआ था।
- वर्ष 1977 में उन्होंने कॉन्ग्रेस छोड़ दी और जनता पार्टी (नई पार्टी) में शामिल हो गए। बाद में उन्होंने जनता पार्टी सरकार में भारत के उप प्रधानमंत्री (1977-79) के रूप में कार्य किया।
- वर्ष 1936-1986 (40 वर्ष) तक संसद में उनका निर्बाध प्रतिनिधित्व एक विश्व रिकॉर्ड है।
- उनका भारत में सबसे लंबे समय तक सेवारत कैबिनेट मंत्री (30 वर्ष) होने का भी रिकॉर्ड है।
- मृत्यु:
- उनका निधन 6 जुलाई, 1986 को नई दिल्ली में हुआ।
- उनके श्मशान स्थल पर स्मारक का नाम समता स्थल (समानता का स्थान) है।
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
प्रभावी प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के लिये हरित पहल
प्रिलिम्स के लिये:प्रकृति, सिंगल यूज़ प्लास्टिक के उन्मूलन पर राष्ट्रीय डैशबोर्ड, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व पोर्टल, ग्राफीन, प्लास्टिक अपशिष्ट और संबंधित पहल। मेन्स के लिये:संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट, सरकारी नीतियांँ और हस्तक्षेप, प्लास्टिक अपशिष्ट एवं संबंधित पहल। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री (MoEFCC) द्वारा प्रभावी प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन पर जागरूकता हेतु शुभंकर 'प्रकृति' (Prakriti) और हरित पहल (Green Initiatives) का शुभारंभ किया गया।
- शुभंकर जनता के बीच छोटे बदलावों के बारे में अधिक जागरूकता बढ़ाएगा जिन्हें बेहतर पर्यावरण के लिये हमारी जीवनशैली में स्थायी रूप से अपनाया जा सकता है।
- इससे पहले फरवरी में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (संशोधन) नियम, 2022 की घोषणा की थी।
प्रमुख बिंदु
शुरू की गई हरित पहल:
- MoEFCC द्वारा सिंगल यूज़ प्लास्टिक (Single Use Plastic- SUP) और प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के उन्मूलन पर राष्ट्रीय डैशबोर्ड केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों, राज्य/संघ राज्य क्षेत्रों की सरकारों सहित सभी हितधारकों को एक स्थान पर लाने और सिंगल यूज़ प्लास्टिक के उन्मूलन तथा प्लास्टिक कचरे के प्रभावी प्रबंधन के लिये हुई प्रगति को ट्रैक कराना।
- प्लास्टिक पैकेजिंग के लिये जवाबदेही सुनिश्चित करने, ट्रैक करने की क्षमता, पारदर्शिता और उत्पादकों, आयातकों व ब्रांड-मालिकों के माध्यम से EPR दायित्वों के अनुपालन को सुविधाजनक बनाने हेतु, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) द्वारा विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (Extended Producer Responsibility- EPR) पोर्टल को लॉन्च किया गया
- नागरिकों को अपने क्षेत्र में एसयूपी की बिक्री/उपयोग/विनिर्माण की जांँच करने और प्लास्टिक के खतरे से निपटने में सक्षम बनाने के लिये CPCB द्वारा एकल उपयोग प्लास्टिक शिकायत निवारण हेतु मोबाइल एप।
- ज़िला स्तर पर वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में एसयूपी उत्पादन/बिक्री और उपयोग के विवरण की सूची बनाने व एसयूपी पर प्रतिबंध को लागू करने को लेकर स्थानीय निकायों, एसपीसीबी/पीसीसी तथा सीपीसीबी हेतु एसयूपी (सीपीसीबी) के लिये निगरानी मॉड्यूल।
- प्लास्टिक कचरे के पुनर्चक्रण हेतु आगे आने और अधिक उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संस्थान तथा राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम द्वारा अपशिष्ट प्लास्टिक से ग्राफीन का औद्योगिक उत्पादन।
प्लास्टिक अपशिष्ट:
- कागज़, खाद्यान्नों के छिलके, पत्ते आदि जैसे कचरे के अन्य रूप जो प्रकृति में बायोडिग्रेडेबल (बैक्टीरिया या अन्य जीवित जीवों द्वारा विघटित होने में सक्षम) होते हैं, के विपरीत प्लास्टिक कचरा अपनी गैर-बायोडिग्रेडेबल प्रकृति के कारण सैकड़ों (या हज़ारों) वर्षों तक पर्यावरण में बना रहता है।
- प्लास्टिक प्रदूषण, पर्यावरण में प्लास्टिक कचरे/अपशिष्ट के जमा होने के कारण होता है। इसे प्राथमिक प्लास्टिक जैसे- सिगरेट बट्स और बोतलों के ढक्कन अथवा द्वितीयक प्लास्टिक, जो प्राथमिक प्लास्टिक के क्षरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है, के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- वर्तमान समय में प्लास्टिक हमारे समक्ष उत्पन्न सबसे अधिक दबाव वाले पर्यावरणीय मुद्दों में से एक बन गया है।
- भारत सालाना लगभग 3.5 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा पैदा कर रहा है और प्रति व्यक्ति प्लास्टिक कचरा उत्पादन पिछले पांँच वर्षों में लगभग दोगुना हो गया है।
- प्लास्टिक प्रदूषण हमारे इको-सिस्टम पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है और वायु प्रदूषण से भी जुड़ा हुआ है।
प्लास्टिक अपशिष्ट के प्रबंधन में चुनौतियाँ:
- प्लास्टिक अपशिष्ट का अव्यवस्थित प्रबंधन (प्लास्टिक को खुले तौर पर फेंक दिया जाता है): माइक्रोप्लास्टिक/माइक्रोबीड्स के रूप में प्लास्टिक अंतर्देशीय जलमार्गों, अपशिष्ट जल के बहिर्वाह और वायु या ज्वार द्वारा परिवहन के माध्यम से पर्यावरण में प्रवेश करते हैं तथा एक बार समुद्र में प्रवेश करने के बाद इन अपशिष्टों को फिल्टर नहीं किया जा सकता है।
- प्लास्टिक समुद्री धाराओं के साथ प्रवाहित होने के परिणामस्वरूप ही ग्रेट पैसिफिक गारबेज पैच नामक एक द्वीप का निर्माण इन अपशिष्टों के कारण हुआ है।
- अप्रमाणिक बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक: उत्पादकों द्वारा किये गए दावों को सत्यापित करने के लिये ठोस परीक्षण और प्रमाणन के अभाव में नकली बायोडिग्रेडेबल व कंपोस्टेबल प्लास्टिक बाज़ार में प्रवेश कर रहे हैं।
- ऑनलाइन या ई-कॉमर्स कंपनियाँ: पारंपरिक रूप से हम खुदरा बाज़ार में प्लास्टिक का उपयोग करते हैं लेकिन ऑनलाइन रिटेल एवं खाद्य वितरण एप की लोकप्रियता ने प्लास्टिक अपशिष्ट की वृद्धि में योगदान दिया है भले ही यह बड़े शहरों तक सीमित है।
- माइक्रोप्लास्टिक्स: जलीय वातावरण में प्रवेश करने के बाद माइक्रोप्लास्टिक्स समुद्री जल में तैरते हुए या तलछट से समुद्र तल तक बड़ी दूरी तक यात्रा कर सकते हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि वातावरण में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक बादलों और गिरती बर्फ में फंँस जाते हैं।
- माइक्रोप्लास्टिक कण आमतौर पर सफेद या अपारदर्शी होते हैं, जिन्हें सतह पर रहने वाली कई मछलियों द्वारा भोजन (प्लवक) के रूप में गलती से उपभोग किया जाता है, जिसके कारण यह खाद्य शृंखला का हिस्सा बनकर मानव उपभोक्ताओं (दूषित मछली/समुद्री भोजन/शेलफिश के माध्यम से) तक पहुँचता है।
- समुद्री कचरा: मीठे पानी और समुद्री वातावरण में प्लास्टिक प्रदूषण को एक वैश्विक समस्या के रूप में पहचाना गया है और यह अनुमान लगाया गया है कि प्लास्टिक प्रदूषण समुद्री प्लास्टिक कचरे का 60-80% हिस्सा है।
- स्थलीय प्लास्टिक: 80% प्लास्टिक प्रदूषण भूमि-आधारित स्रोतों से उत्पन्न होता है और शेष समुद्र-आधारित स्रोतों (मछली पकड़ने के जाल, मछली पकड़ने की रस्सी) से उत्पन्न होता है।
अन्य संबंधित पहल क्या हैं?
- स्वच्छ भारत मिशन
- भारत प्लास्टिक समझौता
- प्रोजेक्ट रिप्लान
- अन-प्लास्टिक कलेक्टिव
- गो-लिटर पार्टनरशिप प्रोजेक्ट
आगे की राह
- व्यवहार में परिवर्तन लाने हेतु शिक्षा एवं आउटरीच कार्यक्रमों के माध्यम से प्लास्टिक प्रदूषण से होने वाले नुकसान के विषय में जनता के बीच जागरूकता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।
- इससे ‘यूज़ एंड थ्रो’ प्लास्टिक के विकल्प तलाशने और उत्पादकों, कचरा बीनने वालों तथा व्यवसाय से जुड़े अन्य समूहों के लिये वैकल्पिक आजीविका सुनिश्चित करने से संबंधित समस्या का समाधान हो सकेगा।
- सरकार को न केवल दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करने हेतु जुर्माना लगाना चाहिये, बल्कि कचरा फैलाने वाले उत्पादकों को अधिक टिकाऊ उत्पादों के साथ स्विच करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये। उचित निगरानी के साथ-साथ उत्तरदायी उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना बहुत आवश्यक है।
- व्यापक खरीद सुनिश्चित करने के लिये खुदरा विक्रेताओं, उपभोक्ताओं, उद्योग प्रतिनिधियों, स्थानीय सरकार, निर्माताओं, नागरिक समाज, पर्यावरण समूहों और पर्यटन संघों जैसे प्रमुख हितधारक समूहों को पहचान करने और उन्हें संलग्न किये जाने की आवश्यकता है।
- नागरिकों को भी व्यवहार में बदलाव लाना होगा और कचरा न फैलाकर तथा अपशिष्ट पृथक्करण एवं अपशिष्ट प्रबंधन में मदद करके योगदान देना होगा।
विगत वर्षों के प्रश्न:प्रश्न. ‘बिस्फेनॉल-ए’ (BPA), जो कि एक चिंता का कारण है, निम्नलिखित में से किस प्रकार के प्लास्टिक के उत्पादन में एक संरचनात्मक/मुख्य घटक है? (a) कम घनत्व वाली पॉलीथीन उत्तर: (b)
प्रश्न: पर्यावरण में छोड़े जाने वाले 'माइक्रोबीड्स' को लेकर इतनी चिंता क्यों है? (2019) (a) उन्हें समुद्री पारिस्थितिक तंत्र हेतु हानिकारक माना जाता है। उत्तर: (a)
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स्रोत: पी.आई.बी.
सामाजिक न्याय
विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियाँ
प्रीलिम्स के लिये:विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजाति, संबंधित आयोग और समितियाँ, विमुक्त समुदायों हेतु विकास एवं कल्याण बोर्ड, खानाबदोश एवं अर्द्ध-घुमंतू समुदाय (DWBDNC), DNTs से संबंधित योजनाएँ। मेन्स के लिये:SC और ST से संबंधित मुद्दे, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, भारत में विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियों की स्थिति। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संसद की स्थायी समिति ने विमुक्त, खानाबदोश और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियों के विकास कार्यक्रम के कामकाज की आलोचना की है।
- स्थायी समिति ने कहा कि विमुक्त जनजाति (DNT) समुदायों के आर्थिक सशक्तीकरण की योजना में वर्ष 2021-22 से पाँच वर्षों की अवधि के लिये कुल 200 करोड़ रुपए का परिव्यय है और वर्ष 2021-22 में अब तक एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया है।
विमुक्त, खानाबदोश और अर्द्ध-घुमंतू जनजाति:
- ये ऐसे समुदाय हैं जो सबसे सुभेद्य और वंचित हैं।
- विमुक्त ऐसे समुदाय हैं जिन्हें ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम से शुरू होने वाली कानूनों की एक शृंखला के तहत 'जन्मजात अपराधी' के रूप में 'अधिसूचित' किया गया था।
- इन अधिनियमों को स्वतंत्र भारत सरकार द्वारा वर्ष 1952 में निरस्त कर दिया गया था और इन समुदायों को ‘विमुक्त’ कर दिया गया था।
- इनमें से कुछ समुदाय जिन्हें विमुक्त के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, वे भी खानाबदोश थे।
- खानाबदोश और अर्द्ध-घुमंतू समुदायों को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो हर समय एक ही स्थान पर रहने के बजाय एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
- ऐतिहासिक रूप से घुमंतू जनजातियों और गैर-अधिसूचित जनजातियों की कभी भी निजी भूमि या घर के स्वामित्व तक पहुँच नहीं थी।
- जबकि अधिकांश विमुक्त समुदाय, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणियों में वितरित हैं, वहीं कुछ विमुक्त समुदाय SC, ST या OBC श्रेणियों में से किसी में भी शामिल नहीं हैं।
- आज़ादी के बाद से गठित कई आयोगों और समितियों ने इन समुदायों की समस्याओं का उल्लेख किया है।
- इनमें संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में गठित आपराधिक जनजाति जाँच समिति, 1947 भी शामिल है।
- वर्ष 1949 की अनंतशयनम आयंगर समिति (इसी समिति की रिपोर्ट के आधार पर आपराधिक जनजाति अधिनियम को निरस्त किया गया था)।
- काका कालेलकर आयोग (जिसे पहला ओबीसी आयोग भी कहा जाता है) का गठन वर्ष 1953 में किया गया था।
- वर्ष 1980 में गठित बीपी मंडल आयोग ने भी इस मुद्दे पर कुछ सिफारिशें की थीं।
- संविधान के कामकाज की समीक्षा हेतु राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) ने भी माना था कि विमुक्त समुदायों को अपराध प्रवण के रूप में गलत तरीके से कलंकित किया गया है और कानून-व्यवस्था एवं सामान्य समाज के प्रतिनिधियों द्वारा शोषण के अधीन किया गया है।
- NCRWC की स्थापना न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में हुई थी।
- एक अनुमान के अनुसार, दक्षिण एशिया में विश्व की सबसे बड़ी यायावर/खानाबदोश आबादी (Nomadic Population) निवास करती है।
- भारत में लगभग 10% आबादी विमुक्त और खानाबदोश है।
- जबकि विमुक्त जनजातियों की संख्या लगभग 150 है, खानाबदोश जनजातियों की जनसंख्या में लगभग 500 विभिन्न समुदाय शामिल हैं।
DNT के संबंध में विकासात्मक प्रयास:
- पृष्ठभूमि: वर्ष 2006 में तत्कालीन सरकार द्वारा गैर-अधिसूचित, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियों (De-notified, Nomadic and Semi-Nomadic Tribes- NCDNT) के लिये एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया था।
- इसकी अध्यक्षता बालकृष्ण सिदराम रेन्के (Balkrishna Sidram Renke) ने की और वर्ष 2008 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- आयोग ने कहा कि “यह विडंबना है कि ये जनजातियाँ किसी तरह हमारे संविधान निर्माताओं के ध्यान से वंचित रही हैं।
- वे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विपरीत संवैधानिकअधिकारों से वंचित हैं।
- रेन्के आयोग ने 2001 की जनगणना के आधार पर उनकी आबादी लगभग 10.74 करोड़ होने का अनुमान लगाया था।
- DNT के लिये योजनाएँ: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा DNT के कल्याण के लिये निम्नलिखित योजनाओं को लागू किया जा रहा है।
- DNT के लिये डॉ. अंबेडकर प्री-मैट्रिक और पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति:
- यह केंद्रीय प्रायोजित योजना वर्ष 2014-15 में विमुक्त, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजाति (DNT) के उन छात्रों के कल्याण हेतु शुरू की गई थी, जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणी के अंतर्गत नहीं आते हैं।
- DNT बालकों और बालिकाओं हेतु छात्रावासों के निर्माण संबंधी नानाजी देशमुख योजना:
- वर्ष 2014-15 में शुरू की गई यह केंद्र प्रायोजित योजना, राज्य सरकारों/ केंद्रशासित प्रदेशों/केंद्रीय विश्वविद्यालयों के माध्यम से लागू की गई है।
- वर्ष 2017-18 से "ओबीसी के कल्याण के लिये काम कर रहे स्वैच्छिक संगठन को सहायता" योजना का विस्तार DNT के लिये किया गया।
- DNT के लिये डॉ. अंबेडकर प्री-मैट्रिक और पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति:
गैर-अधिसूचित, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियों (DWBDNC) के लिये विकास और कल्याण बोर्ड:
- राज्यवार सूची तैयार करने के लिये फरवरी 2014 में एक नए आयोग का गठन किया गया, जिसने वर्ष 2018 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, इस रिपोर्ट के अनुसार 1,262 समुदायों को गैर-अधिसूचित, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू के रूप में पहचाना गया।
- सरकार ने गैर-अधिसूचित, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू समुदायों (DWBDNC) के लिये विकास व कल्याण बोर्ड की स्थापना की।
- कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने के उद्देश्य से सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तत्त्वावधान में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत DWBDNC की स्थापना की गई थी.
- DWBDNC का गठन 21 फरवरी, 2019 को भीकू रामजी इदते की अध्यक्षता में किया गया था।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
निपाह वायरस संक्रमण (NiV)
प्रिलिम्स के लिये:निपाह वायरस संक्रमण, आईजीजी, आईजीएम, आईजीए, आईजीडी, आईजीई, जूनोटिक वायरस, राइबोन्यूक्लिक एसिड वायरस, एन्सेफेलाइटिक सिंड्रोम मेन्स के लिये:विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियांँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में वैज्ञानिकों द्वारा कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी से पकड़े गए 51 चमगादड़ों में निपाह वायरस संक्रमण ( Nipah virus infection- NiV) के खिलाफ आईजीजी (IgG) एंटीबॉडी की उपस्थिति का पता लगाया गया है।
एंटीबॉडी:
- एंटीबॉडी, जिसे इम्युनोग्लोबुलिन भी कहा जाता है एक सुरक्षात्मक प्रोटीन है जो एक बाह्य पदार्थ की उपस्थिति की प्रतिक्रिया में प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) जिसे एंटीजन कहा जाता है, द्वारा निर्मित होता है।
- पदार्थों की एक विस्तृत शृंखला को शरीर द्वारा एंटीजन के रूप में जाना जाता है, जिसमें रोग उत्पन्न करने वाले जीव और विषाक्त पदार्थ शामिल हैं।
- एंटीबॉडी शरीर से निकालने के लिये एंटीजन की पहचान कर उन पर हमला करते हैं।
एंटीबॉडी के प्रकार:
- आईजीजी (IgG):
- यह रक्त में पाई जाने वाली मुख्य एंटीबॉडी है और इसमें बैक्टीरिया और विषाक्त पदार्थों को बाँधने की ज़बरदस्त क्षमता होती है। यह जैविक रक्षा प्रणाली में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- यह एकमात्र आइसोटाइप है जो प्लेसेंटा से गुज़रता है। माँ के शरीर से स्थानांतरित IgG नवजात शिशु की रक्षा करता है।.
- आईजीएम (IgM):
- यह बुनियादी Y-आकार की संरचनाओं की पाँच इकाइयों से निर्मित होती है तथा जिसे मुख्य रूप से रक्त में वितरित किया जाता है। B कोशिकाओं द्वारा रोगजनक़ के आक्रमण करने पर सबसे पहले IgM का निर्माण होता है जिनकी शरीर में प्रारंभिक प्रतिरक्षा प्रणाली की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
- B-सेल, जिसे बी-लिम्फोसाइट (B-lymphocyte) भी कहा जाता है, एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिका होती है जिनकी शरीर को संक्रमण से बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
- यह बुनियादी Y-आकार की संरचनाओं की पाँच इकाइयों से निर्मित होती है तथा जिसे मुख्य रूप से रक्त में वितरित किया जाता है। B कोशिकाओं द्वारा रोगजनक़ के आक्रमण करने पर सबसे पहले IgM का निर्माण होता है जिनकी शरीर में प्रारंभिक प्रतिरक्षा प्रणाली की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
- आईजीए (IgA):
- रक्त में IgA मुख्य रूप से मोनोमर्स (एकल Y का आकार) के रूप में मौजूद होती है लेकिन यह श्लेष्मा झिल्ली से बैक्टीरिया के आक्रमण को रोकने वाले आंत्र द्रव, नाक से स्राव और लार जैसे स्राव में डिमर (2 Ys का संयोजन) का निर्माण करती है। यह स्तन के दूध में भी मौजूद होती है और नवजात शिशुओं के जठरांत्र संबंधी मार्ग को बैक्टीरिया और वायरल संक्रमण से सुरक्षित रखती है।
- आईजीडी (IgD):
- यह B कोशिकाओं की सतह पर मौजूद होती है और यह एंटीबॉडी उत्पादन शुरू करने तथा श्वसन पथ के संक्रमण की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- आईजीई (IgE):
- ऐसा माना जाता है कि IgE का संबंध मूल रूप से परजीवियों के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं से था। मस्तूल कोशिकाओं (Mast Cells) से जुड़कर IgE को परागण जैसी एलर्जी के लिये उत्तरदायी भी माना जाता है।
निपाह वायरस:
- परिचय:
- यह एक ज़ूनोटिक वायरस है (जानवरों से इंसानों में संचरित होता है)।
- निपाह वायरस एन्सेफेलाइटिस के लिये उत्तरदायी जीव पैरामाइक्सोविरिडे श्रेणी तथा हेनिपावायरस जीनस/वंश का एक RNA या राइबोन्यूक्लिक एसिड वायरस है तथा हेंड्रा वायरस से निकटता से संबंधित है।
- हेंड्रा वायरस (HeV) संक्रमण एक दुर्लभ उभरता हुआ ज़ूनोसिस है जो संक्रमित घोड़ों और मनुष्यों दोनों में गंभीर तथा अक्सर घातक बीमारी का कारण बनता है।
- यह पहली बार वर्ष 1998 और 1999 में मलेशिया तथा सिंगापुर में देखा गया था।
- यह पहली बार घरेलू सुअरों में देखा गया और कुत्तों, बिल्लियों, बकरियों, घोड़ों तथा भेड़ों सहित घरेलू जानवरों की कई प्रजातियों में पाया गया।
- संक्रमण:
- यह रोग पटरोपस जीनस के ‘फ्रूट बैट’ या 'फ्लाइंग फॉक्स' के माध्यम से फैलता है, जो निपाह और हेंड्रा वायरस के प्राकृतिक स्रोत हैं।
- यह वायरस चमगादड़ के मूत्र और संभावित रूप से चमगादड़ के मल, लार व जन्म के समय तरल पदार्थों में मौजूद होता है।
- लक्षण:
- मानव संक्रमण में बुखार, सिरदर्द, उनींदापन, भटकाव, मानसिक भ्रम, कोमा और संभावित मृत्यु आदि एन्सेफेलाइटिक सिंड्रोम सामने आते हैं।
- रोकथाम:
- वर्तमान में मनुष्यों और जानवरों दोनों के लिये कोई टीका नहीं है। निपाह वायरस से संक्रमित मनुष्यों की गहन देखभाल की आवश्यकता होती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs):प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c)
प्रश्न. H1N1 विषाणु का प्रायः समाचारों में निम्निलखित में से किस एक बीमारी के संदर्भ में उल्लेख किया जाता है? (2015) (a) एड्स (AIDS) उत्तर: (d)
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