प्रयागराज शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 29 जुलाई से शुरू
  संपर्क करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 05 Aug, 2021
  • 59 min read
शासन व्यवस्था

फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिये योजना को जारी रखना

प्रिलिम्स के लिये

निर्भया फंड, फास्ट ट्रैक कोर्ट, किशोर न्याय अधिनियम , यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण

मेन्स के लिये

फास्ट ट्रैक कोर्ट की आवश्यकता एवं संबंधित मुद्दे  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने दो वर्षों (अप्रैल 2021-मार्च 2023) के लिये केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) के रूप में 1000 से अधिक फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (FTSC) को जारी रखने की मंज़ूरी दी।

प्रमुख बिंदु 

पृष्ठभूमि:

  • फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTC) को पहली बार 2000 में ग्यारहवें वित्त आयोग द्वारा "अगले पाँच वर्षों में ज़िला और अधीनस्थ अदालतों में लंबित मामलों को काफी हद तक कम करने के लिये"अनुशंसित किया गया था।
  • वित्त आयोग की रिपोर्ट के बाद केंद्र द्वारा पाँच साल की अवधि के लिये विभिन्न राज्यों में 1,734 अतिरिक्त अदालतें बनाने हेतु 502.90 करोड़ रुपए जारी किये गए।
  • वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने फास्ट ट्रैक कोर्ट को फंड देना बंद कर दिया था।
    • इस फैसले को वर्ष 2012 में  सर्वोच्च न्यायलय (SC) में चुनौती दी गई थी, लेकिन शीर्ष अदालत ने कहा कि यह राज्यों पर निर्भर है कि वे अपनी वित्तीय स्थिति के आधार पर इन अदालतों को जारी रखें या बंद करें।
  • तीन राज्यों - महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल ने इन अदालतों का संचालन जारी रखा, जबकि दिल्ली, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक ने कहा था कि वे 2013 तक जारी रखेंगे।
  • दिसंबर 2012 के गैंगरेप और हत्या के बाद केंद्र सरकार ने 'निर्भया फंड' की स्थापना की, किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन किया और फास्ट-ट्रैक महिला न्यायालयों की स्थापना की।
    • इसके बाद कुछ अन्य राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, बिहार आदि ने भी बलात्कार के मामलों के लिये FTC की स्थापना की।

फास्ट ट्रैक कोर्ट संबंधी योजना

  • वर्ष 2019 में सरकार ने भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत लंबित दुष्कर्म के मामलों और पॉक्सो अधिनियम के तहत अपराधों के शीघ्र निपटान के लिये देश भर में 1,023 फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTSCs) स्थापित करने की एक योजना को मंज़ूरी दी थी।
    • जुलाई 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे प्रत्येक ज़िले में केंद्र द्वारा वित्तपोषित एक विशेष अदालत स्थापित करने का भी निर्देश दिया था, जहाँ 100 से अधिक प्राथमिकी दर्ज की गई हैं, ताकि इन मामलों से विशेष रूप से निपटा जा सके।
  • इस प्रकार फास्ट ट्रैक कोर्ट ऐसी समर्पित अदालतें हैं जिनसे न्याय की त्वरित व्यवस्था सुनिश्चित करने की अपेक्षा की जाती है। नियमित अदालतों की तुलना में उनके पास बेहतर निपटान दर है और वे त्वरित परीक्षण करते हैं।
  • यह यौन अपराधियों के लिये निवारक ढाँचे को भी मज़बूत करता है।

फास्ट ट्रैक कोर्ट का अब तक का प्रदर्शन:

  • इनका प्रदर्शन अब तक आवश्यक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं रहा है।
  • नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, वर्ष 2019 के अंत में दुष्कर्म के लंबित मामलों की दर (वर्ष के अंत में लंबित मामले, मुकदमे के लिये कुल मामलों के प्रतिशत के रूप में) 89.5% और दोषसिद्धि दर 27.8% थी।
  • पॉक्सो अधिनियम के तहत वर्ष के अंत में 88.8% मामले लंबित थे और जिन मामलों का निपटारा किया गया, उनमें से 34.9% मामलों में दोष सिद्ध हुए थे।

फास्ट ट्रैक कोर्ट संबंधी मुद्दे

  • अवसंरचना का अभाव
    • फास्ट-ट्रैक कोर्ट नियमित अदालतों से अलग तरीके से काम नहीं करती हैं। यह ज़िला न्यायपालिका के किसी भी अन्य कोर्ट हॉल की तरह ही है।
    • मामलों को तेज़ी से आगे बढ़ाने में सक्षम बनाने के लिये कानूनी प्रक्रिया में कोई भी विशिष्ट बदलाव नहीं किया गया है। इस व्यवस्था के तहत आवश्यक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये महत्त्वपूर्ण सहायक बुनियादी अवसंरचना का अभाव देखने को मिलता है।
  • कोई स्पष्ट जनादेश नहीं:
    • फास्ट-ट्रैक अदालतों को किस तरह के मामलों की सुनवाई करनी चाहिये, इससे संबंधित कोई स्पष्ट आदेश नहीं है।
    • उदाहरण के लिये निर्भया फंड के तहत स्थापित फास्ट-ट्रैक अदालतें स्पष्ट नहीं थीं कि लिंग आधारित हिंसा जैसे 'ईव-टीज़िंग' (सड़कों पर उत्पीड़न) या घरेलू हिंसा के सभी मामले उनके दायरे में आते हैं या नहीं।
  • फैसले में देरी:
    • एक अध्ययन से पता चला है कि गवाहों की अनुपस्थिति के कारण देरी को स्थगन के मुख्य कारणों में से एक के रूप में देखा गया था।
    • देरी का एक अन्य कारण वकीलों द्वारा मांगे गए स्थगन हैं।
      • भारत में मुकदमेबाज़ी की संस्कृति स्थगन की मांग को प्रोत्साहित करती है; दरअसल, मुवक्किल मामलों में देरी करने के लिये वकीलों के पास आते हैं।
    • देरी इसलिये भी हो सकती है क्योंकि कई बार फास्ट ट्रैक कोर्ट के फैसले को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय दोनों में चुनौती दी जाती है।
  • न्यायाधीशों पर कार्य का अत्यधिक भार:
    • न्यायिक अधिकारियों की कम संख्या।
      • फरवरी 2020 तक विभिन्न राज्यों में अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायिक अधिकारियों की स्वीकृत संख्या (24,018) का लगभग 21% पद खाली थे; 5,146 रिक्तियों में से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात राज्यों में बड़ी संख्या में सीटें खाली थीं।
    • वे कमोबेश सत्र न्यायालयों के न्यायाधीश होते हैं जिन्हें फास्ट-ट्रैक अदालतों की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दी जाती है।

आगे की राह

फास्ट-ट्रैक कोर्ट की आवश्यकता:

  • फास्ट-ट्रैक कोर्ट को अधिक प्रभावी बनाने के लिये समयबद्ध तरीके से परीक्षण पूरा किया जाना चाहिये। इसके लिये पुनर्गठन प्रक्रियाओं के दौरान समर्पित न्यायाधीशों और सक्षम कर्मचारियों के साथ इन अदालतों की मानवीय क्षमता में सुधार करने हेतु दो-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

क्षमता निर्माण:

  • उनके पास समर्पित न्यायाधीश होने चाहिये ताकि मामलों की नियमित आधार पर सुनवाई हो सके।
  • सक्षम कर्मचारी जैसे- आशुलिपिक और लिपिक साक्ष्य प्रसंस्करण व गवाहों तथा जाँच अधिकारियों को नोटिस देने में मदद कर सकते हैं जिससे समय की काफी बचत होती है।

अभियांत्रिकी प्रक्रिया: 

  • कुछ समय लेने वाली प्रक्रियाओं को फिर से तैयार किया जाना चाहिये ताकि सिस्टम को और अधिक कुशल बनाया जा सके।
  • प्रत्येक सुनवाई के लिये लगने वाले समय का वास्तविक मूल्यांकन होना चाहिये और फिर एक उचित समय सारिणी होनी चाहिये जो हर मामले को पर्याप्त समय प्रदान करे।

स्पष्ट जनादेश:

  • फास्ट-ट्रैक कोर्ट के लिये एक स्पष्ट जनादेश होना चाहिये जैसा कि स्पेन और लाइबेरिया जैसे देशों में होता है।
  • सुनवाई एक निर्धारित समय-सीमा में होती है और जेंडर आधारित हिंसा से संबंधित कोई भी मामला स्वचालित रूप से इन अदालतों में स्थानांतरित हो जाता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


आंतरिक सुरक्षा

आईएनएस विक्रांत का समुद्री परीक्षण

प्रिलिम्स के लिये:

आईएनएस विक्रांत,  प्रोजेक्ट-75I, रक्षा अधिग्रहण परिषद, वर्ष 1971 का  युद्ध, मिग-29K, बराक LR SAM 

मेन्स के लिये:

आईएनएस विक्रांत के समुद्री परीक्षण का भारतीय नौसेना हेतु महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में आईएनएस विक्रांत नामक स्वदेशी विमान वाहक (IAC) 1 का समुद्री परीक्षण (परीक्षणों के अंतिम चरणों में से एक) शुरू किया गया।

  • इसके वर्ष 2022 में शामिल होने की संभावना है। वर्तमान में भारत के पास केवल एक विमान वाहक पोत है-रूसी मूल का आईएनएस विक्रमादित्य।
  • इससे पहले रक्षा अधिग्रहण परिषद (DAC) ने प्रोजेक्ट-75 I के तहत भारतीय नौसेना के लिये छह उन्नत पनडुब्बियों के प्रस्ताव हेतु अनुरोध (RFP) जारी करने को मंज़ूरी दी थी।

प्रमुख बिंदु

  • नौसेना के सेवामुक्त प्रथम वाहक के नाम पर पोत का नाम विक्रांत रखा जाएगा।
    • भारत ने वर्ष 1961 में यूनाइटेड किंगडम से विक्रांत का अधिग्रहण किया और इसने पाकिस्तान के साथ वर्ष 1971 के युद्ध में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसके कारण बांग्लादेश का जन्म हुआ।
  • IAC-1 बोर्ड के 76% से अधिक सामग्री और उपकरण स्वदेशी हैं।
  • इसमें 30 विमानों का एक वायु घटक होगा, जिसमें स्वदेशी उन्नत हल्के हेलीकाप्टरों के अलावा मिग-29K लड़ाकू जेट, कामोव-31 हवाई पूर्व चेतावनी हेलीकॉप्टर और जल्द ही शामिल होने वाले MH-60R बहु-भूमिका हेलीकॉप्टर होंगे।
  • इसकी 30 समुद्री मील (लगभग 55 किमी. प्रति घंटे) की शीर्ष गति होने की उम्मीद है और यह चार गैस टर्बाइनों द्वारा संचालित है। इसकी सहनशक्ति 18 समुद्री मील (32 किमी. प्रति घंटे) की गति से 7,500 समुद्री मील है।
  • शिपबोर्न हथियारों में बराक LR SAM और AK-630 शामिल हैं, जबकि इसमें सेंसर के रूप में MFSTAR और RAN-40L 3D रडार हैं। पोत में एक ‘पावर ईडब्ल्यू (इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर) सूट’ भी है।
  • इसमें विमान संचालन को नियंत्रित करने के लिये रनवे की एक जोड़ी और 'शॉर्ट टेक ऑफ अरेस्ट रिकवरी' सिस्टम है।

महत्त्व:

  • यह विशेष रूप से हिंद महासागर क्षेत्र में युद्ध और समुद्री नियंत्रण क्षमता को मज़बूत करता है।
  • वायु सेना की क्षमता में वृद्धि: यह लंबी दूरी के साथ वायु सेना की शक्ति को प्रक्षेपित करनेके साथ एक अतुलनीय सैन्य उपकरण के रुप में भी कार्य करेगा। जिसमें हवाई अवरोध, सतही युद्ध, आक्रामक और रक्षात्मक काउंटर-एयर, हवाई पनडुब्बी रोधी युद्ध तथा हवाई हमले के पूर्व चेतावनी शामिल हैं।
  • आत्मनिर्भरता: वर्तमान में केवल पांँच या छह देशों के पास विमानवाहक पोत बनाने की क्षमता है। भारत अब इस विशिष्ट क्लब में शामिल हो गया है।

भावी प्रयास:

  • वर्ष 2015 से नौसेना देश के लिये एक तीसरे विमानवाहक पोत बनाने की मंज़ूरी मांग रही है जिसे अगर मंज़ूरी मिल जाती है, तो यह भारत का दूसरा स्वदेशी विमान वाहक (IAC-2) बन जाएगा। 
  • आईएनएस विशाल (INS Vishal) नाम से प्रस्तावित यह वाहक 65,000 टन का विशाल पोत है, जो आईएसी-1 (IAC-1) और आईएनएस विक्रमादित्य (INS Vikramaditya) से काफी बड़ा है।

स्रोत: द हिंदू  


जैव विविधता और पर्यावरण

नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य और जलवायु परिवर्तन : ऑक्सफैम रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये

ऑक्सफैम इंटरनेशनल, नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य, अमेज़न वर्षावन, फिट फॉर 55

मेन्स के लिये

नेट  ज़ीरो बनाम जलवायु परिवर्तन, कार्बन सिंक की चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ऑक्सफैम इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट (टाइटनिंग द नेट) के अनुसार, नेट  ज़ीरो कार्बन टारगेट की घोषणा करना कार्बन उत्सर्जन में कटौती की प्राथमिकता से एक खतरनाक भटकाव हो सकता है।

  • न्यूज़ीलैंड, यूके, यूएस, चीन तथा यूरोपीय संघ जैसे कई देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर शुद्ध-शून्य लक्ष्य निर्धारित किये हैं।
  • रिपोर्ट में ज़ोर दिया गया है कि उत्सर्जन में कमी को उत्सर्जन में कटौती का विकल्प नहीं माना जा सकता है।
  • ऑक्सफैम इंटरनेशनल वर्ष 1995 में गठित स्वतंत्र गैर-सरकारी संगठनों का एक समूह है।

प्रमुख बिंदु

नेट  ज़ीरो:

  • नेट  ज़ीरो यानी कार्बन तटस्थता राज्य वह है जिसमें किसी देश के उत्सर्जन की खपत वातावरण से ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण और निष्कासन से होती है।
    • इसका मतलब यह नहीं है कि कोई देश अपने उत्सर्जन को शून्य पर लाएगा। यह ग्रॉस  ज़ीरो होगा, जिसका अर्थ है कि ऐसे राज्य में पहुँचाना जहाँ बिल्कुल भी उत्सर्जन न हो अर्थात् एक ऐसा परिदृश्य जिसे सुलझाना मुश्किल है।
  • यह कार्बन सिंक बनाने का एक तरीका है जिसके द्वारा कार्बन को अवशोषित किया जा सकता है। इस तरह किसी देश के लिये नकारात्मक उत्सर्जन होना भी संभव है, अगर अवशोषण और निष्कासन वास्तविक उत्सर्जन से अधिक हो।
    • कुछ समय पूर्व तक दक्षिण अमेरिका में अमेज़न वर्षावन, जो दुनिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय वन हैं, कार्बन सिंक थे। लेकिन इन जंगलों के पूर्वी हिस्सों  के  महत्त्वपूर्ण वनोन्मूलन के परिणामस्वरूप इन्होंने कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित करने के बजाय CO2 का उत्सर्जन करना शुरू कर दिया है।
    • भूटान पहले से ही कार्बन नकारात्मक देश है अर्थात् यह CO2  के  उत्सर्जन की तुलना में अधिक अवशोषण करता है।

जिन देशों ने शुद्ध शून्य लक्ष्यों की घोषणा की है (कुछ उदाहरण):

  • यह यूरोपीय संघ की एक योजना है, जिसे कार्बन तटस्थता लक्ष्य प्रदान करने के लिये "फिट फॉर 55" कहा जाता है।
  • चीन ने यह भी घोषणा की कि वह वर्ष 2060 तक शुद्ध शून्य स्थिति प्राप्त लेगा और साथ ही अपने उत्सर्जन को 2030 के स्तर से अधिक नहीं होने देगा।
  • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) ने अपना शुद्ध शून्य उत्सर्जन (NZE) रोडमैप जारी किया है, जिसका नाम 'नेट ज़ीरो बाय 2050' है।

रिपोर्ट के निष्कर्ष:

  • ऊर्जा क्षेत्र के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिये एक बहुत बड़े क्षेत्र की आवश्यकता है:
    • यदि संपूर्ण ऊर्जा क्षेत्र जिसका उत्सर्जन बढ़ता रहता है- समान 'शुद्ध शून्य' लक्ष्य निर्धारित करता है, तो उसे दुनिया भर में सभी कृषि भूमि के एक-तिहाई के बराबर अमेज़न वर्षावन के आकार की भूमि की आवश्यकता होगी।
  • अधिक वनों की आवश्यकता:
    • यदि परिवर्तन की चुनौती का समाधान केवल अधिक-से-अधिक पेड़ लगाकर किया जाता है, तो वर्ष 2050 तक दुनिया से अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन को दूर करने के लिये लगभग 1.6 बिलियन हेक्टेयर नए वनों की आवश्यकता होगी।
  • भूमि आधारित तरीके खाद्य संकट बढ़ा सकते हैं:
    • वर्तमान में उत्सर्जन में कटौती करने की देशों की योजना से वर्ष 2030 तक केवल 1% की कमी आएगी।
    • गौरतलब है कि अगर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये केवल भूमि आधारित तरीकों (वनीकरण) का इस्तेमाल किया जाए तो खाद्य संकट और भी बढ़ने की आशंका है। ऑक्सफैम का अनुमान है कि यह वर्ष 2050 तक 80% तक बढ़ सकता है।
  • उत्सर्जन में उल्लेखनीय कटौती की आवश्यकता:
    • ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर से नीचे सीमित करने और जलवायु परिवर्तन से अपरिवर्तनीय क्षति को रोकने हेतु वैश्विक स्तर पर सामूहिक रूप से प्रयास किया जाना चाहिये तथा सबसे बड़े उत्सर्जकों द्वारा तेज़ी के साथ वर्ष 2030 तक उत्सर्जन को वर्ष 2010 के स्तर से 45% की कटौती करने का लक्ष्य रखना चाहिये।

विश्लेषण (नेट-ज़ीरो बनाम जलवायु परिवर्तन):

  • 'नेट ज़ीरो' 'सबसे बड़े उत्सर्जक' की ज़िम्मेदारी को कम करता है:
    • कई सरकारें और कंपनियांँ शुद्ध शून्य जलवायु लक्ष्यों को अपना रही हैं क्योंकि वे जलवायु संकट की तात्कालिकता को पहचानती हैं।
    • हालांँकि एक  स्पष्ट परिभाषा के बिना ये लक्ष्य कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये कम आय वाले देशों में भूमि के विशाल क्षेत्रों का उपयोग करने के जोखिम पर निर्भर करते हैं, जिससे सबसे बड़े उत्सर्जक अपने स्वयं के उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण कटौती करने से बचते हैं।
  • ज़मीन की मांग बढ़ने की संभावना:
    • यह भूमि की मांग को और अधिक तीव्र कर सकता है, यदि सावधानीपूर्वक सुरक्षा उपायों को नहीं अपनाया गया है, तो भुखमरी व भूमि असमानता का जोखिम और अधिक बढ़ सकता है। 

आगे की राह: 

  • ग्रीनवाश/स्वच्छ और हरित कार्रवाइयों के स्थान पर शुद्ध शून्य वास्तविक व परिवर्तनकारी जलवायु कार्रवाई को अपनाने की आवश्यकता है। वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता है और भूमि आधारित जलवायु समाधान 'खाद्य-पहले' दृष्टिकोण पर ध्यान  केंद्रित करना चाहिये ताकि शून्य उत्सर्जन एवं शून्य भूख दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिल सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस  


भारतीय अर्थव्यवस्था

सार्वजनिक उपक्रमों को न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता से छूट

प्रिलिम्स के लिये:

प्रतिभूति अनुबंध (विनियमन) नियम, 1957, न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता, आईपीओ 

मेन्स के लिये:

सार्वजनिक उपक्रमों को न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता से छूट संबंधी प्रावधान का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

वित्त मंत्रालय ने सूचीबद्ध सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता मानदंड से छूट देने के लिये प्रतिभूति अनुबंध (विनियमन) नियम, 1957 में संशोधन किया है।

प्रमुख बिंदु:

संशोधन:

  • सरकार अब किसी भी सूचीबद्ध सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम को न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता (एमपीएस) मानदंड से छूट दे सकती है, जो सभी सूचीबद्ध संस्थाओं के लिये कम-से-कम 25% सार्वजनिक फ्लोट को अनिवार्य करता है।

नए संशोधन का औचित्य:

  • बड़ी कंपनियों के लिये आईपीओ लॉन्च करना आसान बनाने के लिये एमपीएस के ढाँचे को संशोधित किया गया है।
  • यह कदम तब उठाया गया है जब सरकार भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के आईपीओ की तैयारी कर रही है, जो अब तक की सबसे बड़ी लिस्टिंग होगी।

चिंताएँ:

  • पीएसयू शेयरों में तरलता को प्रभावित कर सकता है:
    • निवेशक विशेष रूप से विदेशी, तरलता की कमी के कारण ऐसे शेयरों में निवेश करने से सावधान रहते हैं- उच्च प्रमोटर होल्डिंग के कारण।
  • विदेशी निवेश को प्रभावित कर सकता है:
    • सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा न्यूनतम सार्वजनिक फ्लोट का रखरखाव उच्च विदेशी पूंजी को आकर्षित करने में मदद करता है और MSCI (मॉर्गन स्टेनली कैपिटल इंटरनेशनल) तथा FTSE (फाइनेंशियल टाइम्स स्टॉक एक्सचेंज) जैसे अंतर्राष्ट्रीय सूचकांकों में भारत का वज़न बढ़ाता है।
    • इन मानदंडों का पालन नहीं करने वाली सरकारी कंपनियाँ विदेशी पूंजी के प्रवाह पर दबाव डाल सकती हैं।
  • सामरिक विनिवेश कार्यक्रम को प्रभावित कर सकता है:
    • यह उस समय हानिकारक हो सकता है जब सरकार बीपीसीएल, शिपिंग कॉर्पोरेशन और एयर इंडिया सहित विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों में रणनीतिक बिक्री की योजना बना रही है।
    • ‘लो फ्री फ्लोट’ का एक कारण पीएसयू शेयरों का बाज़ार में कम मूल्यांकन है।
  • गैर-समान शासन मानक:
    • विभिन्न सरकारी विशेषज्ञ समितियों ने अपनी रिपोर्ट में तर्क दिया है कि सभी सूचीबद्ध संस्थाओं, सरकारी या निजी को शासन मानकों के समान माना जाना चाहिये।

न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता (MSP):

  • MSP के बारे में:
    • MPS (जिसे फ्री फ्लोट भी कहा जाता है) नियम के लिये भारत में सभी सूचीबद्ध कंपनियों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि उनके इक्विटी शेयरों का कम-से-कम 25% गैर-प्रवर्तकों, अर्थात् जनता के पास है।
    • सार्वजनिक शेयरधारक व्यक्तिगत या वित्तीय संस्थान हो सकते हैं और वे आमतौर पर सार्वजनिक पेशकश या द्वितीयक बाज़ारों के माध्यम से शेयरों की खरीद करते हैं।
    • न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता की अवधारणा सूचीबद्ध कंपनियों के कामकाज में अधिक पारदर्शिता लाने हेतु पेश की गई थी।
      • वर्ष 2010 में सेबी ने निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिये 25% सार्वजनिक फ्लोट पर ज़ोर देने हेतु प्रतिभूति अनुबंध विनियमन नियमों में संशोधन किया।
    • भारत में औसत प्रमोटर होल्डिंग (Promoter Holding) वैश्विक स्तर पर सबसे ज़्यादा है।
      • वर्ष 2019-20 के बजट में सरकार ने न्यूनतम सार्वजनिक फ्लोट (Minimum Public Float) को 25% से बढ़ाकर 35% करने का प्रस्ताव किया था।
  • अनुपालन की स्थिति:
    • सूचीबद्ध कंपनियों के लिये 25% MPS प्राप्त करने की समय-सीमा वर्ष 2013 तक निर्धारित की गई थी। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों अर्थात्  PSU और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) हेतु समय-सीमा के अनुपालन के लिये ऐसी कंपनियों के प्रयासों की कमी के कारण समय-सीमा को कई बार बढ़ाया गया था।
      • पिछले ऐसे विस्तार हेतु उन्हें अनुपालन के लिये 2 अगस्त, 2021 तक का समय दिया गया था।
    • नवीनतम संशोधन के साथ केंद्र सरकार ने चुनिंदा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को 25% MPS मानदंड से छूट देने का अधिकार दिया है।
  • महत्त्व:
    • यह एक सूचीबद्ध कंपनी में फ्री फ्लोट ट्रेडिंग स्टॉक में पर्याप्त तरलता प्रदान करने हेतु आवश्यक है जिससे उचित मूल्य और बाज़ार की एकता को बनाए रखने में सुविधा हो।
    • पब्लिक फ्लोट यह सुनिश्चित करता है कि स्टॉक की कीमतों में कम हेरफेर हो।
    • सूचीबद्ध कंपनियों पर अपनी पकड़ कम करने के लिये प्रवर्तकों को मजबूर कर व सार्वजनिक शेयरधारकों और संस्थानों को कॉर्पोरेट कार्यों में अधिक-से-अधिक हिस्सेदारी देकर कॉर्पोरेट प्रशासन में सुधार किया जा सकता है।
      • शेयर बाज़ार में निवेश के बहुत कम अवसर विद्यमान हैं और इसलिये  प्रमोटरों को शेयर बेचने के लिये मजबूर करने से शेयरों की आपूर्ति में सुधार होगा।

भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड

  • सेबी, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड अधिनियम, 1992 के प्रावधानों के तहत अप्रैल 1992 में स्थापित एक वैधानिक निकाय है।
  • भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड का मूल कार्य प्रतिभूतियों में निवेशकों के हितों की रक्षा करना और प्रतिभूति बाज़ार को बढ़ावा देना एवं विनियमित करना है।

सूचीबद्ध कंपनियाँ

  • ‘सूचीबद्ध कंपनियों’ का आशय ऐसी कंपनी से है जो किसी विशिष्ट स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होती है ताकि उसके स्टॉक का कारोबार किया जा सके।

केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम (CPSE)

  • ‘केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम’ (CPSE) का आशय इन कंपनियों से है, जिनमें केंद्र सरकार या अन्य CPSEs की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी 51% या उससे अधिक होती है।
  • 31 मार्च, 2019 तक कुल 348 ‘केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम’ (बीमा कंपनियों को छोड़कर) थे। इनमें से 86 उद्यमों ने अब तक वाणिज्यिक परिचालन शुरू नहीं किया था, जबकि 13 CPSEs परिसमापन के अधीन हैं। शेष 249 उद्यम अभी भी संचालित हैं।

प्रवर्तक

  • कंपनी अधिनियम, 2013 और सेबी (ICDR) विनियम, 2018 में 'प्रवर्तक' एवं 'प्रवर्तक समूह' को परिभाषित किया गया है।
  • प्रायः प्रवर्तक किसी विशिष्ट स्थान पर एक विशेष व्यवसाय स्थापित करने के लिये विचार की कल्पना करता है और कंपनी शुरू करने के लिये आवश्यक विभिन्न औपचारिकताओं को पूरा करता है।

प्राथमिक बाज़ार और द्वितीयक बाज़ार

  • प्राथमिक बाज़ार वह है जहाँ प्रतिभूतियों का सृजन किया जाता है, जबकि द्वितीयक बाज़ार वह होता है जहाँ निवेशकों द्वारा उन प्रतिभूतियों का कारोबार किया जाता है।
  • प्राथमिक बाज़ार में कंपनियाँ पहली बार जनता को नए स्टॉक और बॉण्ड बेचती हैं, जैसे कि प्रारंभिक सार्वजनिक पेशकश (IPO)।
  • द्वितीयक बाज़ार मूल रूप से शेयर बाज़ार है, जैसे- न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज आदि।

स्टॉक तरलता

  • तरलता आम तौर पर यह संदर्भित करती है कि द्वितीयक बाज़ार में स्टॉक को कितनी आसानी से या जल्दी से खरीदा या बेचा जा सकता है। तरल निवेश को ज़रूरत पड़ने पर बिना किसी भारी शुल्क के आसानी से बेचा जा सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 


सामाजिक न्याय

'ज़ीरो हंगर' लक्ष्य: SDG-2

प्रिलिम्स के लिये

सतत् विकास लक्ष्य

मेन्स के लिये

'ज़ीरो हंगर' लक्ष्य संबंधी चुनौतियाँ और समाधान 

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, सतत् विकास लक्ष्य-2 (SDG-2) यानी 'ज़ीरो हंगर' को प्राप्त करने का लक्ष्य कोरोना वायरस (कोविड-19) महामारी के मद्देनज़र प्रभावित हुआ है।

  • 'ज़ीरो हंगर' का लक्ष्य कई अन्य लक्ष्यों जैसे- गरीबी उन्मूलन (SDG-1), बेहतर स्वास्थ्य और कल्याण (SDG-2) तथा स्वच्छ पेयजल (SDG-6) के साथ मिलकर काम करता है।

प्रमुख बिंदु

अन्य SDG लक्ष्यों के साथ संबंध

  •  SDG-2 और SDG-1:
    • खाद्य सुरक्षा न केवल खाद्य उपलब्धता पर निर्भर करती है, बल्कि खाद्य पहुँच पर भी निर्भर करती है।
    • यदि खाद्य सुरक्षा और गरीबी को एक ही लड़ाई के हिस्से के रूप में देखा जाए, तो गरीबी को कम करने के लिये न केवल कम खाद्य कीमतों के माध्यम से बल्कि उच्च आय के माध्यम से भी मांग की जानी चाहिये।
  • SDG-2 और SDG-3:
    • पोषण बेहतर स्वास्थ्य की कुंजी है, इसलिये SDG-2 और SDG-3 के बीच का संबंध भी सहक्रियात्मक है।
    • अधिक सतत् कृषि के माध्यम से पर्यावरणीय स्वास्थ्य भी SDG-2 और SDG-3 के बीच संबंध स्थापित करता है।
      • कृषि गतिविधियाँ वैश्विक प्रदूषण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं: बायोमास जलने से वायु प्रदूषण होता है।
      • कृषि अमोनिया उत्सर्जन मानव स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। यह वैश्विक स्तर पर प्रतिवर्ष कई लाख मौतों का कारण है।
  • अन्य SDGs: इसी प्रकार शिक्षा (SDG-4), लैंगिक समानता (SDG-5), अच्छा कार्य और आर्थिक विकास (SDG-8), असमानता में कमी (SDG-10), स्थायी शहर व समुदाय (SDG-11), शांति, न्याय और मजबूत संस्थान (SDG-16) एवं साझेदारी के लिये लक्ष्य (SDG-17) खपत पैटर्न और स्वस्थ आहार विकल्प को भी प्रभावित करते हैं।
    • लैंगिक असमानता तथा महिलाओं की खाद्य असुरक्षा: महिला श्रमिक कृषि कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा है परंतु उन्हें भूमि, पशुधन, शिक्षा, विस्तार और वित्तीय सेवाओं तक पहुँचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
    • अच्छा कार्य व आर्थिक विकास (SDG-8) तथा असमानता में कमी (SDG-10) भी SDG-1 से आगे जाकर और आर्थिक संसाधन प्रदान कर बेहतर पोषण का समर्थन कर सकते हैं।

चुनौतियाँ:

  • खाद्य प्रणाली के सबसे व्यापक रूप से अध्ययन किये गए प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभावों में से एक जलवायु परिवर्तन में इसका योगदान है।
    • खाद्य प्रणाली मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 34% का योगदान करती है।
  • जल संसाधनों का अत्यधिक उपभोग कृषि के सामने एक और महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
    • सिंचाई वैश्विक जल निकासी के लगभग 70% का प्रतिनिधित्व करती है और आने वाले दशकों में इस मांग में वृद्धि की उम्मीद है।
  • नाइट्रोजन (N) तथा फास्फोरस (P) का अत्यधिक उपयोग स्थलीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के लिये हानिकारक है।
    • नाइट्रोजन की अधिकता मिट्टी तथा मीठे पानी के अम्लीकरण का कारण बनती है और नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) जलवायु-वार्मिंग उत्सर्जन एवं समतापमंडलीय ओज़ोन रिक्तीकरण का कारण बनता है।

सुझाव:

  • सतत् कृषि के लिये नए निवेश, अनुसंधान और नवाचार को सुगम बनाना।
  • खाद्यान्न के नुकसान को कम करना।
  • प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव को कम करके और स्वास्थ्य लाभों को बढ़ावा देकर SDG परिणामों का अधिक लाभ उठाने के लिये हमारे उपभोग पैटर्न को बदलना।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


सामाजिक न्याय

असमान खाद्य प्रणाली

प्रिलिम्स के लिये:

सार्वजनिक वितरण प्रणाली, वन नेशन वन कार्ड, राष्ट्रीय पोषण मिशन

मेन्स के लिये:

भारत में खाद्य सुरक्षा से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

खाद्य प्रणाली पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में खाद्य प्रणालियाँ शक्ति असंतुलन और असमानता से अत्यधिक ग्रसित हैं तथा अधिकांश महिलाओं के लिये अनुकूल नहीं हैं।

  • जलवायु परिवर्तन, कोविड-19, भेदभाव, कम भूमि अधिकार, प्रवास आदि जैसे कारकों से महिलाएँ असमान रूप से प्रभावित हुई हैं।
  • यह रिपोर्ट सितंबर 2021 में फूड सिस्टम्स समिट से पहले आई है।

प्रमुख बिंदु:

खाद्य प्रणाली:

  • खाद्य प्रणाली उत्पादन, प्रसंस्करण, हैंडलिंग, तैयारी, भंडारण, वितरण, विपणन, पहुँच, खरीद, खपत, खाद्य हानि और अपशिष्ट के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय परिणामों सहित इन गतिविधियों के आउटपुट से जुड़ी गतिविधियों का एक जटिल जाल है।

रिपोर्ट से प्राप्त निष्कर्ष:

  • जलवायु परिवर्तन:
    • महिला किसान जलवायु परिवर्तन और भूमि क्षरण से अधिक प्रभावित हैं।
    • पुरुषों की तुलना में महिलाओं में जलवायु और कृषि संबंधी जानकारी प्राप्त करने की संभावना कम होती है, जबकि महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में कृषि उत्पादकता, पशुधन समस्याओं तथा जल की उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की पहचान करने में अधिक सक्षम हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे जलवायु संबंधी चिंताओं के लिये योजना बनाने की सहमति प्रदान करती है।
  • कुपोषण:
    • इन्हें मोटापे के उच्च स्तर का सामना पड़ता है और पुराने रोग के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
    • भूख और कुपोषण को मिटाने में आदिवासी महिलाओं की अहम भूमिका होती है। लेकिन अधिकारों को मान्यता और प्रयोग संबंधी सीमाओं ने भोजन की समान प्रणालियों तक पहुँच में बाधा उत्पन्न की है।
  • प्रवास:
    • शहरी ट्रांजिशन के दौरान युवाओं के प्रवासन ने लिंग आधारित आर्थिक भूमिकाओं को प्रभावित किया है।
    • इस तरह के प्रवासन ने खाद्य उत्पादन और खाद्य खपत के बीच बढ़ते अंतर को जन्म दिया है।
    • इसके बाद जीवनशैली में बदलाव आ सकता है, जिसमें आहार संबंधी आदतें भी शामिल हैं।
  • कोविड-19:
    • वर्ष 2020 की संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने संकेत दिया था कि कैसे महामारी महिलाओं की आर्थिक और आजीविका गतिविधियों में बाधा उत्पन्न कर सकती है, गरीबी दर और खाद्य असुरक्षा को बढ़ा सकती है।
  • खाद्य असुरक्षा
    • 821 मिलियन (वर्ष 2017 तक) की खाद्य असुरक्षित आबादी में ग्रामीण महिलाएँ सबसे बुरी तरह प्रभावित थीं।
    • वर्ष 2019 तक 31 अफ्रीकी देश बाहरी खाद्य सहायता पर निर्भर थे।
  • भेदभाव:
    • विकासशील देशों में कृषि कार्यबल की लगभग आधी संख्या ग्रामीण महिलाओं पर  निर्भर है जिन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है इसका कारण उनके पास बहुत कम भूमि अधिकार, स्वामित्व प्राप्त करने में व्याप्त चुनौतियाँ, ऋण तक जटिल पहुँच तथा अवैतनिक कार्य में संलग्न होना है।
    • इनसे संबंधित निकायों की यह कमी उनके आहार पैटर्न में परिलक्षित होती है क्योंकि वे कम, अंत में और कम गुणवत्ता वाला भोजन करती हैं। वहीं संसाधनों को नियंत्रित करने वाली महिला किसान आमतौर पर बेहतर गुणवत्ता वाले आहार लेती हैं।

सुझाव:

  • महिला स्व-सहायता समूहों की आवश्यकता है:
    • उप-सहारा अफ्रीका के ग्रामीण क्षेत्रों में दिमित्रा क्लब (Dimitra Clubs) एक दशक से भी अधिक समय से महिला नेतृत्व के संचालक रहे हैं। इन समूहों में महिलाएँ एवं पुरुष शामिल हैं जो परिवारों तथा समुदायों में लैंगिक असमानताओं पर प्रकाश डालते हैं।
    • संयुक्त राष्ट्र ने संस्थागत अवसंरचना को मज़बूत करने तथा खाद्य प्रणालियों से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को और अधिक समावेशी बनाने के लिये राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर ऐसी व्यापक स्वतंत्र, सामाजिक प्रणालियों का आह्वान किया है।
  • मौलिक सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित करना:
    • इसने प्रणालियों से ऐसी नीतियों को अपनाने का आग्रह किया जो मूलभूत सेवाओं तक पहुँच में बाधाओं को दूर करती हैं, उदाहरण के लिये भोजन, आश्रय  तथा स्वास्थ्य का अधिकार सुनिश्चित करती हैं।
    • रिपोर्ट ने जर्मन दोहरी प्रशिक्षण प्रणाली का उदाहरण दिया, एक संस्थागत बुनियादी ढाँचा जो नौकरियों के साथ-साथ बेहतर आजीविका निर्माण करता है। यह इच्छुक किसानों के लिये वैज्ञानिक प्रशिक्षण के साथ-साथ विशिष्ट कौशल पर अल्पकालिक पाठ्यक्रम प्रदान कर स्कूल-आधारित शिक्षा को कार्य-आधारित अभ्यास के साथ एकीकृत करता है।
  • सरकारों और व्यवसायों को जवाबदेह बनाना:
    • संयुक्त राष्ट्र ने विशेष रूप से कहा कि खाद्य प्रणाली श्रमिकों तथा उपभोक्ताओं के लिये असमानताओं को सक्षम और बढ़ाने वाली असमान प्रणालियों एवं संरचनाओं को समाप्त किया जाना चाहिये, साथ ही समान आजीविका सुनिश्चित करने के लिये सरकारों, व्यवसायों और संगठनों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिये।

समान खाद्य प्रणाली के लिये भारत की पहल

  • वर्ग: छोटे और सीमांत किसान FPO (किसान उत्पादक संगठन), सहकारिता, अधिकांश विकास कार्यक्रमों में काम करने हेतु क्लस्टर मोड।
  • वंचित वर्ग (कृषि श्रमिक और आदिवासी आबादी): कार्यक्रमों में बेहतर समावेश के लिये समर्पित बजट आवंटन।
  • जेंडर बजटिंग, अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु प्रोत्साहन, महिला सशक्तीकरण परियोजना (M/oRD की महिला सशक्तीकरण योजना), कृषि के लिये राष्ट्रीय जेंडर संसाधन केंद्र।
  • खाद्य और पोषण सुरक्षा: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), वन नेशन वन कार्ड, राष्ट्रीय पोषण मिशन, पोषक अनाज पर ध्यान देना।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन

परिचय:

  • इसे वर्ष 2030 तक सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के लिये कार्रवाई के दशक के हिस्से के रूप में आयोजित किया जाएगा।
  • यह शिखर सम्मेलन सभी 17 SDG पर प्रगति के लिये साहसिक नए कार्य शुरू करेगा, जिनमें से प्रत्येक स्वस्थ और अधिक स्थायी तथा न्यायसंगत खाद्य प्रणालियों पर कुछ हद तक निर्भर करता है।
  • फूड सिस्टम्स समिट (Food Systems Summit) का आयोजन पाँच एक्शन ट्रैक्स के आसपास किया जाता है।

एक्शन ट्रैक्स:

  • सुरक्षित और पौष्टिक भोजन।
  • सतत् खपत पैटर्न।
  • प्रकृति अनुकूल उत्पादन।
  • समान आजीविका को बढ़ाना।
  • कमज़ोरियों, झटकों और तनाव के प्रति लचीलापन।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन में भारत:

  • भारत ने स्वेच्छा से एक्शन ट्रैक 4 संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन 2021 के लिये कृषि-खाद्य प्रणाली-उन्नतशील आजीविका हेतु पहल की है लेकिन यह इसी पहल  तक सीमित नहीं है। 
  • कृषि राज्य का विषय होने के कारण राज्य सरकारों द्वारा विशिष्ट पहलों का कार्यान्वयन किया जाना महत्त्वपूर्ण है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


जैव विविधता और पर्यावरण

स्टबल बर्निंग

प्रिलिम्स के लिये:

दक्षिण-पश्चिम मानसून, वायु आयोग विधेयक, 2021 

मेन्स के लिये:

पराली जलाने से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव एवं इसे रोकने के लिये किये गए प्रावधान 

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में कुछ विशेषज्ञों ने सलाह दी कि सरकार को पराली जलाने (Stubble Burning) के विकल्पों के कार्यान्वयन में तेज़ी लानी चाहिये।

  • कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों की आलोचना का सामना कर रही केंद्र सरकार ने वायु आयोग विधेयक, 2021 में एक खंड को हटाने का निर्णय  लिया था, जो किसानों को पराली जलाने हेतु दंडित करेगा और वायु की गुणवत्ता को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण योगदानकर्त्ता है।

प्रमुख बिंदु: 

पराली के बारे में:

  • पराली जलाना, अगली फसल बोने के लिये फसल के अवशेषों को खेत में आग लगाने की क्रिया है।
  • इसी क्रम में सर्दियों की फसल (रबी की फसल) बोने के लिये हरियाणा और पंजाब के किसानों द्वारा कम अंतराल पर फसल की बोआई की जाती है  तथा अगर सर्दी की छोटी अवधि के कारण फसल बोआई  में देरी होती है तो उन्हें काफी नुकसान हो सकता है, इसलिये पराली को जलना पराली की समस्या का सबसे सस्ता और तीव्र तरीका है।
    • यदि पराली को खेत में छोड़ दिया जाता है, तो दीमक जैसे कीट आगामी फसल पर हमला कर सकते हैं।
    • किसानों की अनिश्चित आर्थिक स्थिति उन्हें पराली हटाने के लिये महंँगे मशीनीकृत तरीकों का उपयोग करने की अनुमति नहीं देती है।
  • पराली जलाने की यह प्रक्रिया अक्तूबर के आसपास शुरू होती है और नवंबर में अपने चरम पर होती है, जो दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी का समय भी है।

प्रमुख कारण:

  • प्रौद्योगिकी
    • मशीनीकृत कटाई के कारण समस्या उत्पन्न होती है जिससे खेतों में कई इंच फसल के अवशेष/ठूंठ (Stubble) रह जाते हैं।
    • इससे पहले फसल के इन अतिरिक्त अवशेषों का उपयोग किसान खाना पकाने के लिये, घास के रूप में, अपने पशुओं को गर्म रखने के लिये या यहांँ तक कि घरों के लिये अतिरिक्त इन्सुलेशन के रूप में करते थे।
    • लेकिन अब ऐसे उद्देश्यों के लिये पराली का उपयोग तार्किक नहीं रह गया है।
  • कानूनों का प्रतिकूल प्रभाव:
    • पंजाब उप-जल संरक्षण अधिनियम (2009) के कार्यान्वयन से उत्तरी भारत में सर्दियों की शुरुआत के साथ पराली जलाने की समयावधि का भी संयोग बन गया।
    • पीपीएसडब्ल्यू अधिनियम (2009) द्वारा निर्देशित जल की कमी को रोकने के लिये खरीफ मौसम के दौरान धान की देर से रोपाई करने से किसानों के पास अगली फसल हेतु फसल की कटाई और खेत तैयार करने के बीच बहुत कम समय बचता था, इसलिये किसान पराली जलाने का सहारा ले रहे हैं।
  • उच्च सिलिका सामग्री:
    • उच्च सिलिका सामग्री के कारण गैर-बासमती चावल के मामले में चावल के भूसे को चारे के लिये उपयुक्त नहीं माना जाता है।

पराली जलाने के प्रभाव:

  • प्रदूषण:
    • खुले में पराली जलाने से वातावरण में बड़ी मात्रा में ज़हरीले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं जिनमें मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें होती हैं।
    • वातावरण में छोड़े जाने के बाद ये प्रदूषक वातावरण में फैल जाते हैं, भौतिक और रासायनिक परिवर्तन से गुज़र सकते हैं तथा अंततः स्मॉग की मोटी चादर बनाकर मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
  • मृदा उर्वरकता:
    • भूसी को ज़मीन पर जलाने से मिट्टी के पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, जिससे यह कम उर्वरक हो जाती है।
  • गर्मी उत्पन्न होना:
    • पराली जलाने से उत्पन्न गर्मी मिट्टी में प्रवेश करती है, जिससे नमी और उपयोगी रोगाणुओं को नुकसान होता है।

पराली जलाने के विकल्प:

  • पराली का स्व-स्थानिक उपचार: उदाहरण के लिये ‘ज़ीरो टिलर’ मशीन द्वारा फसल अवशेष प्रबंधन और बायो डीकंपोजर का उपयोग।
  • गैर-स्थानिक उपचार: उदाहरण के लिये मवेशियों के चारे के रूप में चावल के भूसे का उपयोग।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: उदाहरण के लिये ‘टर्बो हैप्पी सीडर’ (THS) मशीन, जो पराली को उखाड़ सकती है और साफ किये गए क्षेत्र में बीज भी बो सकती है। इसके बाद पराली को खेत के लिये गीली घास के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • फसल पैटर्न में बदलाव: यह अधिक मौलिक समाधान है।

आगे की राह

  • पराली जलाने पर अंकुश लगाने के लिये जुर्माना लगाना भारतीय सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के लिहाज़ से बेहतर विकल्प नहीं है। हमें वैकल्पिक समाधानों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
  • यद्यपि सरकार मशीनों का वितरण कर रही है, किंतु स्व-स्थानिक प्रबंधन के लिये सभी को मशीनें नहीं मिल पाती हैं। सरकार को उनकी उपलब्धता सभी के लिये सुनिश्चित करनी चाहिये।
  • इसी तरह गैर-स्थानिक उपचार प्रबंधन में कुछ कंपनियों ने अपने उपयोग के लिये पराली इकट्ठा करना शुरू कर दिया है, किंतु इस दृष्टिकोण को और अधिक बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है।
  • छोटे और सीमांत किसानों को विशेष रूप से, गैर-स्थानिक रणनीतियों को अपनाने के लिये समर्थन की आवश्यकता होती है, ताकि भूसे को मिट्टी में मिलाया जा सके और इसे जलाया नहीं जाए। समाधान तक पहुँचे बिना दंड अधिरोपित करना विकल्प नहीं है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

भुगतान प्रणाली ऑपरेटरों के लिये नया फ्रेमवर्क

प्रिलिम्स के लिये

भारतीय रिज़र्व बैंक, भुगतान एवं निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007, भुगतान प्रणाली ऑपरेटर

मेन्स के लिये

भुगतान प्रणाली ऑपरेटरों के लिये नए फ्रेमवर्क की आवश्यकता एवं महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने भुगतान प्रणाली ऑपरेटरों द्वारा भुगतान एवं निपटान से संबंधित गतिविधियों के लिये एक रूपरेखा (फ्रेमवर्क) जारी की है।

  • यह फ्रेमवर्क भुगतान एवं निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007 के प्रावधानों के तहत जारी किया गया है।
  • भुगतान एवं निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007 भारत में भुगतान प्रणालियों के लिये विनियमन और पर्यवेक्षण प्रदान करता है तथा RBI को उसके उद्देश्य और सभी संबंधित मामलों के लिये प्राधिकरण के रूप में नामित करता है।

भुगतान प्रणाली

  • भुगतान प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है जिसका उपयोग मौद्रिक मूल्य के हस्तांतरण के माध्यम से वित्तीय लेन-देन को निपटाने के लिये किया जाता है तथा इसमें विभिन्न तंत्र शामिल होते हैं जो एक पार्टी (भुगतानकर्त्ता) से दूसरे (प्रदाता) को धन के हस्तांतरण की सुविधा प्रदान करते हैं। 
  • एक भुगतान प्रणाली में प्रतिभागियों (संस्थाओं) व उपयोगकर्ताओं (ग्राहकों/पक्षकार), नियमों और विनियमों को शामिल किया जाता है जो इसके संचालन, मानकों एवं  प्रौद्योगिकियों को निर्देशित करते हैं जिन पर सिस्टम संचालित होता है।
  • भुगतान और निपटान प्रणाली के विनियमन एवं पर्यवेक्षण बोर्ड (BPSS), RBI के केंद्रीय बोर्ड की एक उप-समिति, भारत  में भुगतान प्रणाली पर नीति निर्माण करने वाली सर्वोच्च संस्था है।

भुगतान प्रणाली ऑपरेटर (PSO)

  • PSO अपने द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं और उन मॉडलों के निर्माण के आधार पर, जिन पर वे काम करते हैं, बड़े पैमाने पर अपने भुगतान और निपटान से संबंधित गतिविधियों को विभिन्न अन्य संस्थाओं को आउटसोर्स करते हैं।
  • यह एक संस्था है जिसे भुगतान प्रणाली के संचालन के लिये एक प्राधिकरण प्रदान किया गया है।

प्रमुख बिंदु

नया ढाँचा:

  • लाइसेंस प्राप्त गैर-बैंक भुगतान प्रणाली ऑपरेटर (PSOs), मुख्य प्रबंधन कार्यों को आउटसोर्स नहीं कर सकते हैं।
    • मुख्य प्रबंधन कार्यों में जोखिम प्रबंधन और आंतरिक लेखापरीक्षा, अनुपालन तथा निर्णय लेने के कार्य जैसे-KYC मानदंडों के अनुपालन का निर्धारण करना, शामिल है।
  • यह भारत या विदेश में स्थित सभी सेवा प्रदाताओं पर लागू होगा।

उद्देश्य:

  • इसका उद्देश्य ग्राहकों और आईटी-आधारित सेवाओं जैसे ऑनबोर्डिंग कार्यों सहित भुगतान तथा निपटान संबंधी गतिविधियों की आउटसोर्सिंग में जोखिमों के प्रबंधन के लिये न्यूनतम मानकों को स्थापित करना है।

आवश्यकता:

  • भुगतान प्रणाली ऑपरेटरों और अधिकृत भुगतान प्रणालियों के प्रतिभागियों द्वारा आउटसोर्सिंग से जुड़े परिचालन जोखिम का एक संभावित क्षेत्र है।
    • भारत के तकनीकी पारिस्थितिकी तंत्र ने पिछले साल ग्राहकों के भुगतान डेटा को लक्षित करते हुए कई हाई-प्रोफाइल साइबर हमले देखे हैं, जैसे कि जसपे (Juspay), अपस्टॉक्स (Upstox) और मोबिक्विक (Mobikwik) पर।

संबंधित पूर्व की पहलें:

  • इससे पहले RBI ने उन नई संस्थाओं द्वारा भुगतान प्रणाली ऑपरेटरों (PSO) में निवेश के संबंध में प्रतिबंध लगा दिया है जिनके पास मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकवादी वित्तपोषण गतिविधियों से निपटने के लिये कमज़ोर उपाय हैं।

आगे की राह

  • चूँकि, विश्व स्तर पर 17 सबसे अधिक डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं में से भारत दूसरा सबसे तेज़ डिजिटल एडेप्टर है और तेज़ी से डिजिटलीकरण हेतु साइबर सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिये दूरंदेशी उपायों की आवश्यकता होती है।
  • कॉरपोरेट्स या संबंधित सरकारी विभागों के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे अपने संगठनों में कमियों का पता लगाएँ तथा उन कमियों को दूर करें और एक स्तरित सुरक्षा प्रणाली बनाएँ जिसमें विभिन्न चरणों के बीच सुरक्षा खतरे की खुफिया जानकारी साझा हो रही हो।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2