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विविध

अंतर्राष्ट्रीय संबंध और वैश्विक शासन में नैतिकता

  • 31 Dec 2024
  • 21 min read

मेन्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय संबंध और वैश्विक शासन में नैतिकता का महत्त्व एवं भारत के हितों पर इसका प्रभाव। 

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता की क्या भूमिका है?

  • अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता:
    • अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता का आशय उन नैतिक सिद्धांतों से है जो राष्ट्रों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों एवं गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के बीच अंतःक्रियाओं का मार्गदर्शन करते हैं। 
    • यह वैश्वीकरण के दौर में राज्यों के बीच नैतिक दायित्वों की सीमा एवं दायरे से संबंधित है। अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता का लक्ष्य एक निष्पक्ष तथा न्यायपूर्ण वैश्विक समुदाय का निर्माण करना है।  
  • वैश्विक न्याय और मानवाधिकारों को बढ़ावा देना:
    • नैतिकता से मानवाधिकारों तथा मानवीय चिंताओं से संबंधित मानदंड तैयार करके वैश्विक न्याय को स्थापित करने में सहायता मिलती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था से राष्ट्रीय सीमाओं से परे सभी व्यक्तियों के लिये आधारभूत मानवाधिकार सुनिश्चित करने को बल मिला है।
      • संरक्षण का उत्तरदायित्व (R2P) सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाया गया एक नैतिक ढाँचा है जिसके तहत नरसंहार, युद्ध अपराध एवं मानवता के विरुद्ध अपराधों को रोकने तथा उनमें हस्तक्षेप करने के अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के दायित्व पर बल दिया गया है।
  • विदेश नीति निर्णयों का मार्गदर्शन:
    • नैतिक विचार राज्यों के विदेश नीति निर्णयों (विशेषकर सैन्य हस्तक्षेप, व्यापार संबंधों तथा पर्यावरण संरक्षण) को प्रभावित करते हैं।
      • कोसोवो में नाटो के हस्तक्षेप या इराक पर अमेरिका के नेतृत्व वाले आक्रमण जैसी स्थितियों के संदर्भ में सैन्य हस्तक्षेप की नैतिकता पर बहस होती है। इन मामलों में हस्तक्षेप (मानवीय सहायता बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा) के नैतिक औचित्य संबंधी विवाद को जन्म मिला।
  • शांति एवं कूटनीति को बढ़ावा मिलना:
    • नैतिकता से राज्यों के बीच शांतिपूर्ण एवं कूटनीतिक संबंधों को समर्थन मिलता है। इससे समन्वय, संघर्ष समाधान तथा शांति को बढ़ावा देने के लिये एक नैतिक आधार मिलता है। नैतिकता से शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, सहयोग तथा आपसी सम्मान को प्राथमिकता मिलती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय कानून एवं संस्थाओं को मज़बूत बनाना:
    • नैतिक ढाँचे से अंतर्राष्ट्रीय कानून एवं अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC), विश्व व्यापार संगठन (WTO) और संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं की वैधता पर प्रकाश पड़ता है। 
    • ये संस्थाएँ राष्ट्रों के बीच न्याय, निष्पक्षता एवं समानता के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होती हैं। 
    • अंतर्राष्ट्रीय कानून का उद्देश्य एक ऐसी प्रणाली बनाना है, जिसमें राज्यों को उनके कार्यों के लिये न्यायोचित तरीके से जवाबदेह ठहराया जाए तथा मानव गरिमा का सम्मान किया जाए।
      • जिनेवा कन्वेंशन (जिसके तहत  सशस्त्र संघर्षों में युद्धबंदियों एवं नागरिकों के उपचार के लिये नैतिक दिशा-निर्देश स्थापित किये गए हैं), अंतर्राष्ट्रीय कानूनी मानदंडों पर आधारित है जिससे मानवाधिकारों को बल मिलता है।
  • पर्यावरणीय नैतिकता और वैश्विक स्थिरता:
    • अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता से पर्यावरण संरक्षण एवं स्थिरता हेतु साझा ज़िम्मेदारी (जैसा कि पेरिस समझौते में देखा गया) को बल मिलता है तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने एवं ग्रह की रक्षा के लिये सामूहिक कार्रवाई को बढ़ावा मिलता है।
  • वैश्विक शासन में नैतिक दुविधाओं का समाधान:
    • वैश्विक शासन में नैतिक दुविधाओं में अक्सर प्रतिस्पर्द्धी नैतिक विचारों को संतुलित करना शामिल होता है, जैसे राज्य संप्रभुता बनाम मानवाधिकार, राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, या आर्थिक विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण। 
    • कोविड-19 वैक्सीन वितरण विमर्श में सभी देशों के लिये समान पहुँच तथा अमीर देशों को प्राथमिकता देने के बीच दुविधा पर प्रकाश डाला गया।

अंतर्राष्ट्रीय संबंध और वैश्विक शासन में प्रमुख नैतिक सिद्धांत क्या हैं?

  • यथार्थवाद: यथार्थवाद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक आधारभूत सिद्धांत है, जो इस बात पर बल देता है कि राज्यों को बाहरी खतरों का यथार्थवादी आकलन करना चाहिये और रक्षात्मक रणनीतियों को प्राथमिकता देनी चाहिये। 
    • यथार्थवादी इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अराजक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में, जहाँ नियमों को लागू करने के लिये कोई सर्वोपरि प्राधिकार नहीं है, प्रत्येक राज्य स्वयं सहायता वाले वातावरण में काम करता है, जहाँ अस्तित्व, सुरक्षा और शक्ति सर्वोपरि हैं।
    • आधुनिक यथार्थवादी विचारधारा के अनुसार, वैश्विक प्रवर्तक की कमी सुरक्षा को सभी राज्यों का प्राथमिक उद्देश्य बना देती है। अपनी सुरक्षा के लिये, राज्य अपनी क्षमताओं को मज़बूत करके और संभावित हमलावरों को रोककर शक्ति संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं, तथा शक्ति को प्रतिस्पर्द्धी और अनिश्चित वैश्विक व्यवस्था में राष्ट्रीय हितों की रक्षा के साधन के रूप में देखते हैं।
  • आदर्शवाद: यह इस विचार को बढ़ावा देता है कि राज्यों को नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों पर काम करना चाहिये, सहयोग और नैतिक मानकों की क्षमता पर ज़ोर देना चाहिये। इसके प्रमुख पहलू हैं:
    • नैतिक मानक: आदर्शवादी नैतिक मानकों और न्याय के पालन की वकालत करते हैं, जैसे संधियों का सम्मान करना, युद्ध के नियमों का पालन करना और शांति बनाए रखना।
    • सहयोग के माध्यम से शांति: आदर्शवाद का मानना ​​है कि साझा मानदंडों और नैतिक दायित्वों के पालन के साथ-साथ राज्यों के बीच सहयोग और अन्योन्याश्रितता को बढ़ावा देकर शांति प्राप्त की जा सकती है।
  • नव यथार्थवाद (संरचनात्मक यथार्थवाद): केनेथ वाल्ट्ज द्वारा प्रतिपादित नवयथार्थवाद, मानव प्रकृति के बजाय अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली की संरचना पर ध्यान केंद्रित करके पारंपरिक यथार्थवाद को संशोधित करता है। प्रमुख विचारों में शामिल हैं:
    • मानव प्रकृति पर संरचना का प्रभुत्व: वाल्ट्ज का तर्क है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली की अराजक संरचना राज्यों को अस्तित्व को प्राथमिकता देने के लिये बाध्य करती है।
    • सत्ता का वितरण: पारंपरिक यथार्थवादियों के विपरीत, नवयथार्थवादी सत्ता को साध्य के बजाय सुरक्षा के साधन के रूप में देखते हैं। राज्य सत्ता के वितरण का आकलन प्रभुत्व के बजाय खुद की रक्षा के लिये करते हैं।
  • नव उदारवाद:
    • नव उदारवाद, या उदार संस्थागतवाद, शांति को बढ़ावा देने में सहयोग और संस्थाओं की भूमिका पर जोर देता है। मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
      • अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ: नव उदारवादियों का तर्क है कि WTO जैसी संस्थाएँ और START जैसी संधियाँ शांतिपूर्ण वार्ता और पारस्परिक लाभ को प्रोत्साहित कर सकती हैं।
      • लोकतंत्र के माध्यम से शांति: इमैनुअल कांट से प्रेरित होकर, नव उदारवाद इस बात पर जोर देता है कि लोकतंत्र एवं संस्थाएँ शांतिपूर्ण सहयोग को बढ़ावा देती हैं और ऐसे मानदंड बनाती हैं जो संघर्षों को कम करते हैं।
  • उत्तर आधुनिकतावाद: उत्तर आधुनिकतावाद पश्चिमी दर्शन में एक आंदोलन है जो 20वीं सदी के अंत में उभरा। यह तर्कसंगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित आधुनिक पश्चिमी दार्शनिक सिद्धांतों से प्राप्त मूल्यों और विश्वदृष्टि को अस्वीकार करता है।
    • इसका मानवीय तर्क में बहुत कम विश्वास है और विशेष रूप से सामाजिक विज्ञान में वस्तुनिष्ठ ज्ञान की संभावना से इनकार किया जाता है।
    • उत्तर आधुनिकतावाद सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य के निष्कर्षों को व्यक्ति की व्यक्तिपरकता पर आधारित मानता है। यह मुख्यधारा के सामाजिक मूल्यों और संस्थाओं को संदेह और शंका की दृष्टि से देखता है।
    • इसका मानना ​​है कि समाज के प्रभावशाली वर्गों की राजनीतिक और सामाजिक शक्ति, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विचारधारा पर आधारित, सामाजिक विज्ञानों और मानविकी में व्याप्त है।
  • नारीवाद: अंतर्राष्ट्रीय संबंध में नारीवादी सिद्धांत लैंगिक भूमिका पर ज़ोर देते हैं और वैश्विक राजनीति में लैंगिक समानता की वकालत करते हैं। यह इस बात पर प्रकाश डालता है:
    • लैंगिक शक्ति गतिशीलता: नारीवादी सिद्धांतकारों का तर्क है कि पारंपरिक अंतर्राष्ट्रीय संबंध महिलाओं की भूमिकाओं और प्रभावों को नजरअंदाज करता है, तथा इसके बजाय पुरुष प्रधान शक्ति संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • नारीवाद की लहरें: अंतर्राष्ट्रीय संबंध में नारीवाद तीन लहरों को समाहित करता है: विधिक समानता, कार्यस्थल समावेशन, और जाति, वर्ग और लैंगिक समानता, जिनमें से प्रत्येक विविध आवाज़ों को शामिल करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय संबंध के दृष्टिकोणों को चुनौती देने और विस्तारित करने का प्रयास करता है।

अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता के प्रमुख स्रोत क्या हैं?

  • अंतर्राष्ट्रीय कानून: संधियों, सम्मेलनों और समझौतों के माध्यम से स्थापित विधिक ढाँचे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में नैतिक व्यवहार की नींव बनाते हैं। 
  • सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत: कुछ नैतिक सिद्धांत राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक सीमाओं से परे होते हैं। इनमें मानवीय गरिमा, समानता और गैर-भेदभाव के सिद्धांत के प्रति सम्मान शामिल होता है। ये मूल्य कई अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में अंतर्निहित हैं एवं वैश्विक न्याय तथा मानवाधिकारों को बढ़ावा देने का आधार हैं।
  • धार्मिक एवं दार्शनिक परंपराएँ: धार्मिक तथा दार्शनिक परंपराओं की अवधारणाओं से अंतर्राष्ट्रीय नैतिक विमर्श को आकार मिलता है। 
    • उदाहरण के लिये, "न्यायपूर्ण युद्ध" सिद्धांत से यह दिशा-निर्देश मिलते हैं कि कब युद्ध करना नैतिक रूप से उचित है जबकि "अहिंसा" का सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रति भारत के दृष्टिकोण को प्रभावित करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ: संयुक्त राष्ट्र (UN) जैसे संगठन एवं इसकी विशेष एजेंसियाँ ​​राष्ट्रों के बीच नैतिक व्यवहार को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
    • संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्य (SDG) राष्ट्रों की वैश्विक नैतिक आकांक्षाओं का उदाहरण हैं, जिनके तहत गरीबी उन्मूलन, लैंगिक समानता एवं पर्यावरणीय स्थिरता जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
  • वैश्विक जनमत: जनमत एवं नागरिक समाज आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता को प्रभावित कर सकते हैं। वैश्विक अभियान (जैसे कि जलवायु कार्रवाई या निष्पक्ष व्यापार प्रथाओं की वकालत करने वाले अभियान) से सरकारों तथा अंतर्राष्ट्रीय अभिकर्त्ताओं पर नैतिक मानकों का पालन करने के लिये दबाव डाला जा सकता है।
  • अकादमिक चर्चा: विद्वान, दार्शनिक एवं शोधकर्त्ता विमर्श तथा अकादमिक चर्चाओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता को आकार देने में योगदान देते हैं। थिंक टैंक तथा अकादमिक संस्थान वैश्विक कूटनीति का मार्गदर्शन करने वाले नैतिक ढाँचों को परिष्कृत करने के क्रम में मंच प्रदान करते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रमुख नैतिक चुनौतियाँ कौन सी हैं?

  • मानवाधिकार बनाम सांस्कृतिक सापेक्षवाद: अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक प्रमुख नैतिक मुद्दा यह है कि क्या मानवाधिकार सार्वभौमिक रूप से लागू हैं या उन्हें विभिन्न सांस्कृतिक संदर्भों के अनुकूल बनाया जाना चाहिये। यह मुद्दा मानवीय हस्तक्षेप तक विस्तारित है, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से राज्य संप्रभुता का सम्मान करने के साथ मानवाधिकारों की रक्षा के बीच संतुलित करने की अपेक्षा की जाती है।
  • संप्रभुता बनाम हस्तक्षेप: राज्य संप्रभुता के लिये सम्मान अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक मौलिक सिद्धांत है, हालांकि, अक्सर नरसंहार जैसे मानवाधिकारों के उल्लंघन को रोकने के नैतिक अनिवार्यता के साथ इसका संघर्ष देखा जाता है।
  • युद्ध एवं शांति: युद्ध में नैतिक दुविधा न्यायपूर्ण युद्ध सिद्धांत के सिद्धांतों - आनुपातिकता, वैध इरादे एवं नागरिक सुरक्षा को संतुलित करने से संबंधित है। अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) जैसे अंतर्राष्ट्रीय निकायों को राज्य की संप्रभुता एवं राजनीतिक प्रतिरोध के कारण युद्ध अपराधियों को जवाबदेह ठहराने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे वैश्विक न्याय के प्रयास जटिल हो जाते हैं।
  • वैश्विक असमानता: धनी देशों का नैतिक दायित्व है कि वे निष्पक्ष व्यापार, ऋण राहत और सतत् विकास के माध्यम से विकासशील देशों को समर्थन देने के साथ वैश्विक आर्थिक असमानताओं को कम करने का प्रयास करें लेकिन वे अधिकांशतः इसे पूरा करने में विफल रहे हैं।
  • पर्यावरणीय नैतिकता: अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिक दुविधा विकसित देशों की ज़िम्मेदारी के इर्द-गिर्द घूमती है, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से जलवायु परिवर्तन में योगदान दिया है, तथा वैश्विक सहयोग की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया गया है।
    • पेरिस समझौते जैसे समझौतों के बावजूद, आर्थिक क्षमता और ऐतिहासिक उत्सर्जन में असमानताएँ जलवायु कार्यवाही में निष्पक्षता और जवाबदेही सुनिश्चित करने में चुनौतियाँ पैदा करती हैं।
  • प्रवासन और शरणार्थी: राष्ट्रों को शरणार्थियों की सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं के बीच संतुलन बनाने में नैतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसके लिये मानवीय आव्रजन नीतियों की आवश्यकता होती है।
  • वैश्विक शासन में शक्ति असंतुलन : वैश्विक संस्थाएँ प्रायः धनी देशों का पक्ष लेती हैं, जिससे निर्णय लेने में वैधता और निष्पक्षता के बारे में नैतिक प्रश्न उठते हैं, तथा छोटे देश हाशिये पर चले जाते हैं।


आगे की राह

  • सार्वभौमिक मानवाधिकार और सांस्कृतिक सापेक्षवाद: सांस्कृतिक विविधता के साथ मानवाधिकार ढाँचे को संतुलित करने के लिये अंतर-सांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा देना, यह सुनिश्चित करना कि मूल सिद्धांतों को वैश्विक स्तर पर बरकरार रखा जाए।
  • संप्रभुता और मानवीय हस्तक्षेप: हस्तक्षेप के लिये स्पष्ट मानदंड स्थापित करना, वैधता, बहुपक्षीय निरीक्षण और संघर्ष की रोकथाम पर ध्यान केंद्रित करना, साथ ही संरक्षण के लिये उत्तरदायित्व (R2P) ढाँचे को मज़बूत करना।
  • अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) की भूमिका: रोम संविधि के व्यापक अनुसमर्थन को प्रोत्साहित करना, निष्पक्ष मामले का चयन सुनिश्चित करना, और मज़बूत अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से प्रवर्तन को बढ़ाना।
  • वैश्विक असमानता: बाधाओं को दूर करने, ऋण राहत कार्यक्रमों का विस्तार करने और सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के लिये वित्तपोषण सुनिश्चित करने के लिये वैश्विक व्यापार में सुधार करना।
  • प्रवासन और शरणार्थी: मानवीय आव्रजन नीतियों, अंतर्राष्ट्रीय भार-साझाकरण को बढ़ावा देना, तथा संघर्ष और जलवायु परिवर्तन जैसे मूल कारणों का समाधान करना।
  • वैश्विक शासन में शक्ति असंतुलन: वैश्विक संस्थाओं का लोकतंत्रीकरण करना, छोटे देशों को अधिक प्रतिनिधित्व देना और पारदर्शी, न्यायसंगत निर्णय लेने को बढ़ावा देना, साथ ही दक्षिण-दक्षिण सहयोग को मज़बूत करना।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

मेन्स

प्रश्न: शक्ति, शांति एवं सुरक्षा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के आधार माने जाते हैं। स्पष्ट कीजिये। (2017)

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