इन डेप्थ: लंबित मामलों और मध्यस्थता में कमी | 10 Jun 2024

प्रिलिम्स के लिये:

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मेन्स के लिये:

भारत में मध्यस्थता से जुड़े मुद्दों और चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।

चर्चा में क्यों?  

नवंबर 2019 तक भारतीय न्यायपालिका पर लंबित मामलों का भारी दबाव है, सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 60,000 मामले, विभिन्न उच्च न्यायालयों में 4.47 मिलियन मामले तथा ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 31.4 मिलियन मामले लंबित हैं, जिसके कारण वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution- ADR) पद्धतियों पर निर्भरता बढ़ रही है।

वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) क्या है?

  • परिचय:
  • विधियाँ:
    • CrPC की धारा 89 न्यायालय को किसी विवाद को विभिन्न तरीकों से निपटाने के लिये संदर्भित करने की अनुमति देती है, जब ऐसा प्रतीत होता है कि पक्षों को स्वीकार्य समाधान प्राप्त किया जा सकता है।
    • इन विधियों में समझौता,मध्यस्थता और सुलह शामिल हैं।
      • समझौता: यह तब होता है जब दो या अधिक पक्ष इस बात पर सहमत होते हैं कि किसी विवाद अथवा संभावित विवाद को एक या अधिक निष्पक्ष व्यक्तियों द्वारा कानूनी रूप से बाध्यकारी तरीके से हल किया जाएगा।
        • मध्यस्थता के माध्यम से प्राप्त निर्णय को "पुरस्कार" कहा जाता है, जो पक्षों पर बाध्यकारी होता है और न्यायालयों द्वारा लागू किया जा सकता है। सुलह और मध्यस्थता (Conciliation and Mediation) के विपरीत, मध्यस्थता पुरस्कार के खिलाफ कोई अपील नहीं होती है। 
      • मध्यस्थता: यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक स्वतंत्र तीसरा व्यक्ति विवादित पक्षों को बातचीत के माध्यम से समाधान तक पहुँचने में मदद करता है।
        • यह तीसरा व्यक्ति, जिसे मध्यस्थ के रूप में जाना जाता है, चर्चाओं को सुगम बनाता है और पक्षों को आम सहमति बनाने में सहायता करता है, लेकिन विवाद के गुण-दोष पर राय व्यक्त नहीं करता है। मध्यस्थ विवाद का निर्धारण नहीं करता है, बल्कि बातचीत की प्रक्रिया में सहायता करता है।
      • सुलह: सुलह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक तीसरा पक्ष पक्षों को उनके विवाद के लिये पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान तक पहुँचने में सहायता करता है। तीसरे पक्ष को, जिसे सुलहकर्त्ता के रूप में जाना जाता है, दोनों पक्षों की आपसी सहमति से नियुक्त किया जाता है।
        • मध्यस्थता और न्यायालयी मुकदमेबाज़ी के विपरीत, सुलह एक स्वैच्छिक एवं गैर-बाध्यकारी प्रक्रिया है।

भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution- ADR) की क्या आवश्यकता है?

  • न्यायिक लंबित मामले: भारत में न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक है, जिसके कारण न्याय मिलने में काफी विलंब हो जाता है।
    • दिसंबर, 2023 तक देश भर की विभिन्न अदालतों में लगभग पाँच करोड़ मामले लंबित थे।
  • महँगा मुकदमा: पारंपरिक अदालती मुकदमा महँगा है, जिसमें अदालती फीस, वकीलों की फीस और अन्य संबंधित लागतें जैसे दस्तावेज़ी शुल्क, यात्रा व्यय तथा प्रशासनिक लागतें शामिल हैं, जो इसे कई व्यक्तियों के लिये वहन करने योग्य नहीं बनाती हैं।
  • लंबी अदालती प्रक्रियाएँ: भारत में अदालती प्रक्रियाएँ अक्सर लंबी और समय लेने वाली होती हैं, जिससे मामले के समाधान में देरी बढ़ जाती है। 
  • सुगम्यता: भारत की जनसंख्या का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा अशिक्षित और गरीब है, जिसके लिये न्यायिक प्रणाली अत्यधिक तकनीकी, लंबी तथा महँगी है।
    •  ADR इन व्यक्तियों के लिये एक सरल एवं अधिक सुलभ विकल्प प्रदान करता है।
  • समुत्थानशीलता और दक्षता: ADR कार्यवाही समुत्थानशील होती है, जिससे पक्षकारों को लागू कानून चुनने, किसी भी सहमत तरीके और भाषा में कार्यवाही करने तथा कम बैठकों में मामलों को निपटाने की सुविधा मिलती है, जिससे समय एवं व्यय की बचत होती है।
  • सुविधा: ADR में, पक्षकार तटस्थ तृतीय पक्ष के लिये तिथि, स्थान और शुल्क पर पारस्परिक रूप से सहमत हो सकते हैं, जिससे प्रक्रिया अधिक सुविधाजनक हो जाती है।
  • न्यायालय का भार कम करना: छोटे मामलों को ADR में स्थानांतरित करने से न्यायालयों को अधिक गंभीर मामलों, विशेषकर जघन्य अपराधों से संबंधित मामलों पर ध्यान केंद्रित करने में सहायता मिलती है।
  • सरकारी व्यय: मुकदमेबाज़ी से अदालतों के परिचालन व्यय में वृद्धि होती है, जिनका वित्तपोषण सार्वजनिक धन से होता है।
    • ADR के माध्यम द्वारा मामलों की संख्या कम करने से इन लागतों को कम करने में सहायता मिल सकती है।
  • रिश्तों को बनाए रखना: मुकदमेबाज़ी प्राय: रिश्तों को नुकसान पहुँचाती है और भावनात्मक तनाव का कारण बनती है। ADR विवादों को सुलझाने का एक अधिक सौहार्दपूर्ण तरीका प्रदान करता है, जिससे रिश्तों को बनाए रखने में सहायता मिलती है।

मध्यस्थता केंद्र के रूप में उभरने में भारत की क्या क्षमता है?

  • आर्थिक विकास: जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था का विस्तार हो रहा है, वाणिज्यिक विवादों की मात्रा भी आनुपातिक रूप से बढ़ रही है, जिससे इन विवादों को कुशलतापूर्वक हल करने हेतु मज़बूत मध्यस्थता तंत्र की आवश्यकता हो रही है।
  • प्रौद्योगिकी का प्रभाव: कोविड-19 महामारी ने आभासी मध्यस्थता सुनवाई की ओर बदलाव लाया है, जिससे मध्यस्थता प्रक्रियाओं में प्रौद्योगिकी के चल रहे एकीकरण की दक्षता में काफी वृद्धि हुई है।
  • कानूनी विशेषज्ञता: भारत में अत्यधिक कुशल वकीलों, न्यायाधीशों और मध्यस्थों का एक समूह है, जो मध्यस्थता प्रथाओं में पारंगत हैं तथा जटिल विवादों से निपटने के लिये एक मज़बूत आधार प्रदान करते हैं।
  • कानूनी सुधार: भारत ने वैश्विक मानकों के अनुरूप अपने मध्यस्थता कानूनों का आधुनिकीकरण किया है, जिसमें विदेशी मध्यस्थता पुरस्कारों की मान्यता और प्रवर्तन पर न्यूयॉर्क कन्वेंशन का पालन करना भी शामिल है, जिससे मध्यस्थता-अनुकूल क्षेत्राधिकार के रूप में इसकी विश्वसनीयता बढ़ी है।
  • मध्यस्थता संस्थाएँ: देश में भारतीय मध्यस्थता परिषद (Indian Council of Arbitration- ICA), मुंबई अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (Mumbai Centre for International Arbitration- MCIA) और दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (Delhi International Arbitration Centre- DIAC) जैसे स्थापित मध्यस्थता केंद्र हैं, जो विवाद समाधान के लिये संरचित तथा पेशेवर वातावरण प्रदान करते हैं।

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वैकल्पिक विवाद समाधान को बढ़ावा देने के लिये सरकार के विभिन्न उपाय क्या हैं?

  • भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (India International Arbitration Centre- IIAC): इसकी स्थापना भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र अधिनियम, 2019 के तहत घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों विवादों हेतु प्रमुख मध्यस्थता सेवाएँ तथा सुविधाएँ प्रदान करने के लिये की गई थी।
  • लोक अदालतें: इसे विधिक सेवा प्राधिकरण (Legal Services Authorities- LSA) अधिनियम, 1987 के तहत बढ़ावा दिया गया था, ताकि मुकदमे और पूर्व- मुकदमेबाज़ी दोनों चरणों में विवादों का सौहार्दपूर्ण समाधान हो सके, लोक अदालतों द्वारा लिये गए निर्णय बाध्यकारी होते हैं और सिविल अदालत के आदेशों के समतुल्य होते हैं।
  • कानूनी ढाँचे की स्थापना:
    • मध्यस्थता अधिनियम, 2023: यह न्यायालयों को विवादों को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने का अधिकार देता है और मध्यस्थता हेतु एक व्यापक विधायी ढाँचा प्रदान करता है।
    • धारा 89, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908: वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution- ADR) विधियों के रूप में लोक अदालतों सहित मध्यस्थता, समझौता, मध्यस्थता और न्यायिक निपटान को मान्यता देता है तथा उनका समर्थन करता है।
    • मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996: घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता तथा विदेशी मध्यस्थता पुरस्कारों के प्रवर्तन से संबंधित कानूनों को एकीकृत एवं संशोधित करने के लिये अधिनियमित किया गया।
      • वर्ष 2015, 2019 और 2021 के संशोधन न्यायिक हस्तक्षेप को कम करते हुए त्वरित, लागत प्रभावी तथा संस्थागत मध्यस्थता को प्रोत्साहित करते हैं।
    • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015: इसमें वर्ष 2018 में संशोधन किया गया ताकि कुछ वाणिज्यिक विवादों के लिये वाद-पूर्व मध्यस्थता और निपटान (Pre-Institution Mediation and Settlement -PIMS) की शुरुआत की जा सके, जिसमें मुकदमेबाज़ी से पहले मध्यस्थता की आवश्यकता होती है।

ADR से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?

  • कानूनी और संस्थागत बाधाएँ: मौजूदा कानूनी ढाँचे और संस्थागत प्रथाएँ ADR तंत्र को पूरी तरह से समर्थन या एकीकृत नहीं कर सकती हैं।
    • उदाहरण के लिये, मध्यस्थता समझौतों की प्रवर्तनीयता कभी-कभी अस्पष्ट या बोझिल हो सकती है, जैसा कि ऐसे न्यायक्षेत्रों में देखा जाता है जहाँ मध्यस्थता समझौतों को बाध्यकारी बनने के लिये अतिरिक्त कानूनी कदम उठाने की आवश्यकता होती है।
  • जागरूकता और स्वीकृति का अभाव: कानूनी पेशेवरों और आम जनता सहित कई व्यक्ति, ADR तंत्र के लाभों तथा प्रक्रियाओं से अपरिचित हो सकते हैं या उनके मन में इसके बारे में गलत धारणाएँ हो सकती हैं।
    • उदाहरण के लिये, कुछ लोग गलती से यह मान लेते हैं कि ADR में पारंपरिक मुकदमेबाज़ी के समान अधिकार नहीं है, जिसके कारण वे इन तरीकों को चुनने में झिझकते हैं।
  • अपर्याप्त प्रशिक्षण: मध्यस्थों जैसे ADR पेशेवरों को सामान्य कानूनी प्रशिक्षण से परे विशेष कौशल की आवश्यकता होती है।
    • मध्यस्थों के लिये वर्तमान पूर्वापेक्षाएँ, जैसे कि व्यापक व्यावसायिक अनुभव की आवश्यकता, प्रवेश में बाधाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप अच्छी तरह से प्रशिक्षित मध्यस्थों की कमी हो सकती है।
  • पहुँच-योग्यता का अभाव: पहुँच-योग्यता संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, विशेष रूप से दूर-दराज़ या ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ ADR सेवाओं की कमी हो सकती है।
    • उदाहरण के लिये, कुछ ग्रामीण समुदायों में, पार्टियों को ADR पेशेवरों तक पहुँचने हेतु लंबी दूरी तय करनी पड़ सकती है, जिससे कुल लागत और असुविधा बढ़ जाती है।

ADR को बढ़ावा देने के लिये क्या उपाय अपनाए जाने चाहिये?

  • कानूनी ढाँचे को मज़बूत करना: यह सुनिश्चित करना कि कानूनी प्रणाली स्पष्ट कानूनों और विनियमों के माध्यम से ADR तंत्र का समर्थन करती है, इसमें मध्यस्थता समझौतों को आसानी से लागू करने योग्य बनाना तथा ADR प्रक्रियाओं को न्यायिक प्रणाली में अधिक सहजता से एकीकृत करना शामिल है।
    • 129वें विधि आयोग की रिपोर्ट और मलिमथ समिति ने सिफारिश की है कि अदालतों के लिये विवादों को मुकदमेबाज़ी के बजाय ADR के माध्यम से समाधान हेतु भेजना अनिवार्य बनाया जाए।
  • जागरूकता और शिक्षा बढ़ाना: ADR के लाभों तथा प्रक्रियाओं के बारे में जनता एवं कानूनी पेशेवरों दोनों को सूचित करने के लिये जागरूकता अभियान व शैक्षिक कार्यक्रमों को लागू करना।
  • प्रशिक्षण और प्रमाणन में सुधार: मध्यस्थों तथा पंचों के लिये व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित करना, सह-मध्यस्थता एवं छाया मध्यस्थता जैसी तकनीकों को शामिल करना, प्रमाणन प्रक्रियाओं की स्थापना करना व ADR प्रशिक्षण को डिग्री पाठ्यक्रमों में एकीकृत करना ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पेशेवर आवश्यक कौशल और ज्ञान से सुसज्जित हों।
    • उदाहरण के लिये, चार्टर्ड इंस्टीट्यूट ऑफ आर्बिट्रेटर्स (Chartered Institute of Arbitrators- CIArb) एक व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त प्रमाणन कार्यक्रम प्रदान करता है जिसमें व्यापक प्रशिक्षण और व्यावहारिक मूल्यांकन शामिल हैं।
  • प्रौद्योगिकी की भूमिका: कृत्रिम बुद्धिमत्ता, बिग डेटा, मशीन लर्निंग और ब्लॉकचेन के रूप में सूचना प्रौद्योगिकी की उन्नति को कानूनी प्रक्रियाओं में तेज़ी से शामिल किया जा सकता है।
    • एक उदाहरण जहाँ स्मार्ट अनुबंधों के लिये ब्लॉकचेन-संचालित मध्यस्थता प्रक्रियाओं के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी की वास्तविक क्षमता का दोहन और उपयोग किया जा सकता है।
  • मध्यस्थता की ओर सरकार का झुकाव: चूँकि संघ और राज्य स्तर पर सरकारें लगभग 40% मुकदमों में शामिल होती हैं, इसलिये ADR के माध्यम से विवादों को हल करने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर है, विभिन्न सरकारी विभागों में ADR केंद्रों, विशेष रूप से मध्यस्थता केंद्रों की स्थापना करके इस बदलाव को सुविधाजनक बनाया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिये, भारत में, राज्य सरकार के सहयोग से स्थापित महाराष्ट्र मध्यस्थता और सुलह केंद्र का उद्देश्य सरकारी विभागों से जुड़े विवादों को सुलझाना है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न 1. लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है? (2010)

(a) लोक अदालतों के पास पूर्व-मुकदमेबाज़ी के स्तर पर मामलों को निपटाने का अधिकार क्षेत्र है, न कि उन मामलों को जो किसी भी अदालत के समक्ष लंबित हैं। 
(b) लोक अदालतें उन मामलों से निपट सकती हैं जो दीवानी हैं और फौजदारी प्रकृति के नहीं हैं। 
(c) प्रत्येक लोक अदालत में या तो केवल सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी होते हैं और कोई अन्य व्यक्ति नहीं होता है। 
(d) उपर्युक्त कथनों में से कोई भी सही नहीं है।

उत्तर: (d)


प्रश्न. राष्ट्रपति द्वारा हाल में प्रख्यापित अध्यादेश के द्वारा से मध्यस्थतम् और सुलह अधिनियम, 1996 में क्या प्रमुख परिवर्तन किये गए हैं? यह भारत के विवाद समाधान यंत्रिक्त्व को किस सीमा तक सुधारेगा? चर्चा कीजिये। (2015)