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सामाजिक न्याय

उचित समायोजन: कल्याण-आधारित दृष्टिकोण

  • 29 Jul 2024
  • 18 min read

यह एडिटोरियल 22/07/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Reasonable accommodations and disability rights” लेख पर आधारित है। इसमें उचित समायोजन (RAs) के लिये कानूनी ढाँचे और दिव्यांगजनों के लिये कानूनी ढाँचे के कार्यान्वयन में राज्य की भूमिका के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

उचित समायोजन (RAs), दिव्यांगजन अधिकार नियम, 2017, RPwD अधिनियम, 2016, भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017, सुगम्य भारत अभियान, दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना, दिव्यांग छात्रों के लिये राष्ट्रीय फैलोशिप। 

मेन्स के लिये:

उचित समायोजन का महत्त्व, भारत में दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने का मॉडल।

रीज़नेबल एकोमोडेशन (Reasonable Accommodations- RAs)—जिसका हिंदी अनुवाद ‘उचित समायोजन’ के रूप में कर सकते हैं, का सिद्धांत समावेशिता और समानता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है। यह दिव्यांगजनों (Persons with Disabilities- PwDs) को राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक ताने-बाने में पूरी तरह से एकीकृत करने की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016  के तहत RAs का सिद्धांत यह सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखता है कि दिव्यांगजन भी अन्य लोगों के समान अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकें।

दिव्यांगजन अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCRPD) अनुचित बोझ का निर्धारण करने के लिये दिशा-निर्देश प्रदान करता है। इसके बावजूद, कई भारतीय संस्थान वित्तीय चिंताओं के कारण RAs की लागतों की पूर्ति में संकोच रखते हैं। इसके अलावा, वे प्रायः लागत-लाभ दृष्टिकोण का उपयोग करते हैं, जहाँ दिव्यांगजनों के कल्याण पर विचार करने के बजाय दक्षता पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।

इस परिदृश्य में, राज्य को कल्याण-आधारित दृष्टिकोण अपनाने और RAs से संबंधित मुद्दों का समाधान करने के लिये विधिक एवं उचित समायोजन के विषय में स्पष्ट दिशानिर्देश स्थापित करने होंगे।

उचित समायोजन (RAs) का सिद्धांत क्या है?

  • परिचय:
    • उचित समायोजन एक सिद्धांत है जिसे समानता को बढ़ावा देने और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिये अभिकल्पित किया गया है। इन समायोजनों में रैंप या तकनीकी सहायता जैसे भौतिक समायोजन और नौकरी संबंधी आवश्यकताओं या नीतियों में संशोधन शामिल हो सकते हैं। यह सिद्धांत मुख्य रूप से दिव्यांगजनों के अधिकारों के मामले में लागू किया जाता है।
  • राज्य पर दायित्व:
    • इसमें दिव्यांगजनों को आवश्यक सहायता प्रदान करने तथा समाज में उनकी पूर्ण एवं प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये राज्य और निजी संस्थाओं दोनों का दायित्व निहित है।
  • वैश्विक मानक:

RAs का महत्त्व: 

  • समान भागीदारी को सक्षम बनाना:
    • दिव्यांगजनों और उनके गैर-दिव्यांग समकक्षों के बीच के अंतराल को दूर करना आवश्यक है। RAs यह सुनिश्चित करने में मदद करते हैं कि दिव्यांगता या निःशक्तता (disability) किसी व्यक्ति की शिक्षा, रोज़गार या सार्वजनिक सेवाओं तक पहुँच में बाधा न बने।
      • उदाहरण: सार्वजनिक भवनों में रैंप और लिफ्ट उपलब्ध कराने से यह सुनिश्चित होता है कि चलन संबंधी निःशक्तता वाले व्यक्ति भी अन्य लोगों के समान आवश्यक सेवाओं और सुविधाओं का उपयोग कर सकें।
  • समावेशन को बढ़ावा देना:
    • RAs समावेशन और स्वीकृति की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। ये एक ऐसे परिवेश के निर्माण के लिये प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के रूप में भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण और रूढ़िवादिता को चुनौती देते हैं जहाँ हर कोई मूल्यवान एवं सम्मानित अनुभव करे।
      • उदाहरण: शैक्षिक संस्थानों में सांकेतिक भाषा दुभाषियों (sign language interpreters) की व्यवस्था करने से बधिर छात्र भी कक्षा में होने वाली चर्चाओं और अधिगम में सक्रिय रूप से भाग ले सकते हैं।
  • मानव अधिकारों का समर्थन:
    • यह मानवाधिकारों का एक मूलभूत पहलू है, जैसा कि दिव्यांगजन अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संधियों में निहित है।
      • उदाहरण: दृष्टिबाधित व्यक्तियों को सहायक प्रौद्योगिकी प्रदान करने से उन्हें सूचना तक पहुँच प्राप्त करने और प्रभावी ढंग से संवाद करने में सहायता मिलती है; इस प्रकार उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की पुष्टि होती है।
  • आर्थिक सशक्तीकरण:
    • कार्यस्थल पर RAs का होना दिव्यांगजनों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
      • उदाहरण: दिव्यांग कर्मचारियों के लिये कार्य भूमिका को अनुकूलित करना या उनके लिये लचीली कार्य व्यवस्था प्रदान करना, उनके लिये रोज़गार को बनाए रखने और करियर में प्रगति करने में मदद कर सकता है।

भारत में दिव्यांगता संबंधी प्रमुख अवधारणाएँ 

  • परिचय:
    • जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में 2.68 करोड़ दिव्यांगजन उपस्थित थे, जो कुल जनसंख्या में 2.21% की हिस्सेदारी रखते थे।
  • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 के अंतर्गत दिव्यांगता के प्रकार:
    • इस अधिनियम में 21 प्रकार की दिव्यांगताओं को चिह्नित किया गया है, जिनमें चलन संबंधी या लोकोमोटर दिव्यांगता, दृश्य दिव्यांगता, श्रवण दिव्यांगता, वाणी एवं भाषा संबंधी दिव्यांगता, बौद्धिक दिव्यांगता, बहु दिव्यांगता, मस्तिष्क पक्षाघात (Cerebral Palsy), बौनापन आदि शामिल हैं।
  • दिव्यांगता अधिकार मॉडल:
    • चिकित्सा मॉडल: यह व्यक्ति की दिव्यांगता और उसके उपचार पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • सामाजिक मॉडल: दिव्यांगता को एक सामाजिक मुद्दे के रूप में देखता है और दिव्यांगजनों के लिये समान अधिकारों तथा समाज में उनके एकीकरण की पैरोकारी करता है।
    • मानवाधिकार मॉडल: यह सामाजिक मॉडल पर आधारित है, जिसमें इस बात पर बल दिया गया है कि दिव्यांगजनों को सभी मानवाधिकारों के समान रूप से उपभोग का अवसर मिलना चाहिये। यह मॉडल सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के लिये दिव्यांगजनों की पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को रेखांकित करता है।
  • प्रमुख विधान
    • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016: इसने वर्ष 1995 के अधिनियम को प्रतिस्थापित किया। इसका उद्देश्य दिव्यांगजनों के लिये समान अवसर, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करना है ।
    • राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम 1999: राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम द्वारा ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और बहु दिव्यांगता वाले व्यक्तियों के कल्याण के लिये एक निकाय की स्थापना की गई है।
    • भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992: यह अधिनियम दिव्यांगता पुनर्वास के क्षेत्र में पेशेवरों के प्रशिक्षण और पंजीकरण को नियंत्रित करता है।
    • मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017: यह अधिनियम मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों के अधिकारों एवं गरिमा की रक्षा करता है।

 

RAs के क्रियान्वयन में संस्थानों के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ:

  • वित्तीय बाधाएँ:
    • भारतीय संस्थान दिव्यांगजनों के लिये RAs लागू कर सकने में अपनी अनिच्छा के लिये प्रायः वित्तीय बाधाओं को प्राथमिक कारण बताते हैं।
    • भेदभाव विरोधी कानून (जैसे कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016) के अनुपालन का बोझ एक महत्त्वपूर्ण वित्तीय चुनौती के रूप में देखा जाता है।
  • उपयोगितावादी बनाम कल्याण-आधारित दृष्टिकोण:
    • जब संस्थान RAs की लागतों के लिये पूरी तरह ज़िम्मेदार होते हैं तो वे कल्याण-आधारित दृष्टिकोण के बजाय लागत दक्षता पर केंद्रित उपयोगितावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं।
    • यह दृष्टिकोण दिव्यांगजनों की आवश्यकताओं एवं अधिकारों की अपेक्षा वित्तीय पहलुओं को अधिक प्राथमिकता देता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रायः अपर्याप्त या अनुचित समायोजन की स्थिति बनती है।
  • पूर्वाग्रह और गलत धारणाएँ:
    • संस्थान ऐसे पूर्वाग्रहों और गलत धारणाओं से भी प्रभावित हो सकते हैं कि दिव्यांगजन कम उत्पादक होते हैं या उन्हें समायोजित करना अत्यधिक महंगा है।
  • अनुचित बोझ बचाव:
    • संस्थानों द्वारा अनुचित बोझ बचाव (Undue Burden Defense) पर निर्भरता प्रायः कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग को दर्शाती है।
    • संस्थान RAs को क्रियान्वित करने की कठिनाई का वास्तविक रूप से आकलन करने के बजाय लागत से बचने के लिये इस रक्षा या बचाव विकल्प का उपयोग कर सकते हैं, जिससे दिव्यांगजनों के अधिकार कमज़ोर पड़ सकते हैं।
  • जागरूकता और संवेदनशीलता का अभाव: कई संस्थान और नियोक्ता RAs प्रदान करने की आवश्यकताओं या लाभों के बारे में पूरी तरह से अवगत नहीं हैं। जागरूकता की इस कमी के कारण प्रायः गैर-अनुपालन की स्थिति बनती है या आवश्यक समायोजन के न्यूनतम प्रयास किये जाते हैं।

RAs को किस प्रकार प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जा सकता है?

  • प्रोत्साहन/इंसेंटिव और लागत साझेदारी:
    • RAs के क्रियान्वयन के लिये संस्थानों को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिये एक लागत-साझाकरण कार्यक्रम के माध्यान से उचित समायोजन के मद में होने वाले व्यय पर सब्सिडी प्रदान किया जा सकता है।
      • उदाहरण के लिये, सरकार व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं के लिये आवश्यक संरचनात्मक संशोधनों की लागत का एक महत्त्वपूर्ण भाग का स्वयं वहन कर सकती है, जिससे संस्थानों को सुगम्यता मानकों को पूरा करने में मदद मिलेगी।
    • कर लाभ, सब्सिडी या कटौती की पेशकश संस्थानों को सक्रिय रूप से RAs प्रदान करने के लिये प्रेरित कर सकती है।
  • दिव्यांगजनों के लिये राष्ट्रीय कोष का लाभ उठाना:
    • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 के तहत गठित राष्ट्रीय दिव्यांगजन कोष में पर्याप्त, लेकिन अभी तक कम उपयोग किये गए संसाधन मौजूद हैं। इन संसाधनों का उपयोग कर RAs को बढ़ावा दिया जा सकता है।
      • इस कोष की धनराशि को सुपरिभाषित मानदंडों के आधार पर विवेकपूर्ण तरीके से वितरित किया जाना चाहिये, जहाँ उच्च प्रभावपूर्ण परियोजनाओं और समावेशन के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने वाली संस्थाओं को प्राथमिकता दी जा सकती है।
  • अभिवृत्तिक एवं व्यवहारगत परिवर्तन:
    • दिव्यांगजनों के बारे में व्याप्त रूढ़िवादिता और गलत धारणाओं को चुनौती देने के लिये नियोक्ताओं, कर्मचारियों और आम जनता के बीच व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जाएँ।
      • उन संस्थाओं के सफल उदाहरणों को प्रदर्शित किया जाए जिन्होंने RAs को क्रियान्वित किया है और इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
  • विधिक एवं नीतिगत ढाँचा:
    • दिव्यांगता कानूनों के गैर-अनुपालन के लिये कठोर दंड लागू किये जाएँ। अनुचित बोझ (undue burden) का निर्धारण करने के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश प्रदान किये जाएँ ताकि इसका दुरुपयोग रोका जा सके।
      • दिव्यांगता कानूनों के अनुपालन की निगरानी करने तथा संस्थाओं को तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिये एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना की जाए।

अभ्यास प्रश्न: दिव्यांगजनों के अधिकारों के संदर्भ में उचित समायोजन (RAs) की अवधारणा और इसके महत्त्व पर चर्चा कीजिये। भारत में उचित समायोजन को लागू करने की राह की प्रमुख चुनौतियों और इन चुनौतियों से निपटने के लिये उठाए जा सकने वाले नीतिगत उपायों का विश्लेषण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स

प्रश्न.  भारत लाखों दिव्यांग व्यक्तियों का घर है। कानून के अंतर्गत उन्हें क्या लाभ उपलब्ध हैं? (2011)

  1. सरकारी स्कूलों में 18 साल की उम्र तक मुफ्त स्कूली शिक्षा।  
  2. व्यवसाय स्थापित करने के लिये भूमि का अधिमान्य आवंटन।
  3.  सार्वजनिक भवनों में रैंप।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1                 
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3        
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: d


मेन्स:

प्रश्न: क्या विकलांग व्यक्तियों का अधिकार अधिनियम, 2016 समाज में इच्छित लाभार्थियों के सशक्तीकरण और समावेशन हेतु प्रभावी तंत्र सुनिश्चित करता है? चर्चा कीजिये। (2017)

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