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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

शरणार्थियों की सुरक्षा और भारत

  • 24 Jun 2024
  • 21 min read

यह एडिटोरियल 20/06/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Blueprints Beyond Borders, for Solace and Shelter” लेख पर आधारित है। इसमें बल दिया गया है कि शरणार्थियों के समक्ष विद्यमान समस्याओं को संबोधित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है और भारत को ‘मानवता के वृहत’ की सेवा करने की अपनी छवि को बनाए रखने के लिये प्रयास करना चाहिये।

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व शरणार्थी दिवस, 1951 शरणार्थी सम्मेलन, विश्व शरणार्थी दिवस, भारत की शरणार्थी नीति, 1967 प्रोटोकॉल, 1946 का विदेशी अधिनियम, नागरिकता अधिनियम, 1955, CAA, तिब्बती शरणार्थी, शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (UNHCR), रोहिंग्या शरणार्थी, यूरोप-केंद्रित

मेन्स के लिये: 

भारत में शरणार्थियों से संबंधित प्रमुख मुद्दे, इनकी स्थिति में सुधार हेतु उपाय।

20 जून को मनाया जाने वाला विश्व शरणार्थी दिवस (World Refugee Day) शरणार्थियों से संबद्ध मानवता की मार्मिक याद दिलाता है। दुनिया भर में 43.4 मिलियन से अधिक शरणार्थी मौजूद हैं और वैश्विक स्तर पर जारी संघर्षों के साथ उनकी संख्या बढ़ ही रही है।

शरणार्थियों के प्रति भारत के दृष्टिकोण ने उसके ऐतिहासिक अनुभवों, मानवीय विचारों और पड़ोसी देशों के साथ राजनयिक संबंधों के आधार पर आकार ग्रहण किया है। वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत ने अपने पड़ोसी देशों से बलात पलायन की कई लहरों का सामना किया है, जिसने देश को एक जटिल एवं विकसित शरणार्थी नीति अपनाने के लिये प्रेरित किया गया है।

भारत की शरणार्थी नीति मुख्य रूप से किसी व्यापक राष्ट्रीय कानून या ढाँचे के बजाय विशिष्ट संकटों के लिये तदर्थ प्रतिक्रियाओं द्वारा आकार लेती रही है। देश ने विभिन्न शरणार्थी समूहों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्रशासनिक नीतियों, न्यायिक घोषणाओं और संवैधानिक प्रावधानों के संयोजन पर भरोसा किया है।

भारत की शरणार्थी नीति की व्यापक समीक्षा और शरणार्थी संकट के प्रबंधन में एक कुशल देश बनने के लिये रणनीतिक रोडमैप पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

भारत में शरणार्थी संकट:

  • परिचय:
    • शरणार्थी (Refugees) वे व्यक्ति हैं जो अपने जीवन, शारीरिक सुरक्षा या स्वतंत्रता के प्रति गंभीर खतरों के कारण अपने देश से पलायन को बाध्य हुए हैं और अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण की आवश्यकता रखते हैं।
    • ये खतरे उनके मूल देश में उत्पीड़न, सशस्त्र संघर्ष, हिंसा या गंभीर सार्वजनिक अशांति से उत्पन्न हो सकते हैं।
  • भारत के शरणार्थी संकट के प्रमुख कारण:
    • भारत ‘शरणार्थी अभिसमय 1951’ का हस्ताक्षरकर्ता नहीं: भारत में शरणार्थी या ‘रिफ्यूजी’ शब्द को कानूनी रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, क्योंकि देश वर्ष 1951 के शरणार्थी अभिसमय या वर्ष 1967 के इसके प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है।
      • चूँकि भारत ने शरणार्थी अभिसमय में उल्लिखित अंतर्राष्ट्रीय परिभाषाओं और मानकों को नहीं अपनाया है, इसलिये भारतीय कानून के तहत शरणार्थियों के लिये कोई विशिष्ट कानूनी ढाँचा या परिभाषा मौजूद नहीं है।
      • इस अभाव के कारण आर्थिक प्रवासियों और शरण की मांग रखने वाले वास्तविक शरणार्थियों के बीच अंतर करना कठिन हो जाता है।
    • पड़ोसी देशों में राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष: भारत ऐसे कई देशों के साथ सीमा साझा करता है, जहाँ राजनीतिक उथल-पुथल, गृह युद्ध और जातीय संघर्ष की स्थिति रही है, जिसके कारण लोगों को बड़े पैमाने पर विस्थापन का सामना करना पड़ा है।
      • उदाहरण के लिये, वर्ष 1947 में भारत का विभाजन, 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, 1983 से 2009 तक श्रीलंका का गृह युद्ध और फिर म्यांमार जारी रोहिंग्या संकट के परिणामस्वरूप भारत में शरणार्थियों की बड़ी संख्या में आमद हुई है।
    • जातीय एवं धार्मिक उत्पीड़न और मानवीय पहलू: मानवीय सिद्धांतों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता और उत्पीड़न एवं संघर्ष से भाग रहे लोगों को शरण प्रदान करने की इसकी परंपरा भी शरणार्थियों को समायोजित करने में एक प्रमुख रही है।
      • उदाहरण के लिये, वर्ष 1959 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद तिब्बती बौद्धों ने भारत में शरण ली।
    • प्राकृतिक आपदाएँ और पर्यावरणीय कारक: बाढ़, भूकंप और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी पड़ोसी देश के लोगों को विस्थापित होना पड़ा है, जिसके कारण उन्हें भारत में शरण लेनी पड़ी है।
      • वर्ष 2015 में नेपाल में विनाशकारी भूकंप आया था, जिसके कारण हज़ारों नेपाली नागरिकों को सुरक्षा एवं सहायता के लिये खुली सीमा पार कर भारत में प्रवेश करना पड़ा था। इनमें कई शरणार्थियों ने बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे भारतीय राज्यों में शरण ली।
    • पारगम्य सीमाएँ और व्यापक शरणार्थी नीति का अभाव: पड़ोसी देशों के साथ भारत की लंबी और पारगम्य सीमाएँ और व्यापक शरणार्थी नीति का अभाव शरणार्थियों के आगमन के प्रभावी ढंग प्रबंधन एवं विनियमन को चुनौतीपूर्ण बना देता है।
      • अतीत में बांग्लादेश में उत्पीड़न से बचने के लिये आर्थिक प्रवासी और शरणार्थी भारत के पूर्वोत्तर राज्यों, जैसे असम और पश्चिम बंगाल में आकर बसते रहे हैं।

शरणार्थियों को शरण देने का भारत का इतिहास 

  • यहूदी शरणार्थी: प्राचीन काल से भारत अन्य क्षेत्रों के लोगों को शरण देता रहा है। यहूदियों ने यरूशलेम में अपने हेरोदे मंदिर (Herod's Temple) के विनाश के बाद भारत में शरण ली थी।
    • इस मंदिर को 70 ई. में प्रथम यहूदी-रोमन युद्ध के दौरान रोमनों द्वारा नष्ट कर दिया गया था, जिसके कारण यहूदियों का अपनी मातृभूमि से पलायन शुरू हो गया और अनेक यहूदियों ने भारत सहित विश्व के विभिन्न भागों में शरण ली।
  • तिब्बती शरणार्थी: वर्ष 1959 में भारत ने तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भाग रहे तिब्बती शरणार्थियों के लिये अपने दरवाज़े खोलते हुए  उन्हें शरण दी और उनके पुनर्वास के लिये बस्तियाँ स्थापित कीं।
  • विभाजन शरणार्थी: वर्ष 1947 में देश विभाजन के दौरान सबसे बड़े शरणार्थी संकटों में से एक का सामना करते हुए भारत ने नवगठित पाकिस्तान राज्य से आए लाखों शरणार्थियों को शरण दी।
  • चकमा और हाजोंग शरणार्थी: 1960 के दशक के प्रारंभ में भारत ने चकमा और हाजोंग समुदायों को प्रवेश दिया जो वर्तमान बांग्लादेश के चटगांव हिल ट्रैक्ट्स क्षेत्र में अपने पैतृक घरों से विस्थापित हो गए थे।
  • पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के शरणार्थी: वर्ष 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद भारत ने बड़ी संख्या में बांग्लादेशी शरणार्थियों को शरण दी और संकट के समय उन्हें आश्रय एवं सहायता प्रदान की।
  • श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी: 1980 के दशक से भारत श्रीलंका में गृहयुद्ध और जातीय हिंसा से भाग कर आए श्रीलंकाई तमिलों के लिये शरणस्थली के रूप में कार्य कर रहा है।
  • रोहिंग्या शरणार्थी: हाल के वर्षों में भारत को रोहिंग्या शरणार्थियों को आश्रय देने की चुनौती का सामना करना पड़ा है। रोहिंग्या म्यांमार के उत्पीड़ित मुस्लिम अल्पसंख्यक समूह हैं, जो म्यांमार के रखाइन राज्य में व्यापक हिंसा और मानवाधिकारों के हनन से बचकर सुरक्षा की तलाश में भारतीय सीमा में प्रवेश कर गए हैं।

भारत ने वर्ष 1951 के शरणार्थी अभिसमय पर हस्ताक्षर क्यों नहीं किये?

  • शरणार्थी की भेदभावपूर्ण परिभाषा:
    • वर्ष 1951 के कन्वेंशन में शरणार्थियों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया गया है जिन्हें उनके नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया गया है, लेकिन उनके आर्थिक अधिकारों से नहीं।
    • भारत का मानना है कि यह परिभाषा बहुत संकीर्ण है, क्योंकि इसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया गया है जो आर्थिक अभाव या आजीविका के अवसरों की कमी के कारण अपने देश से पलायन को विवश हुए हैं।
    • शरणार्थी की परिभाषा में आर्थिक अधिकारों के उल्लंघन को शामिल करने से विकसित देशों पर भारी बोझ पड़ सकता है, जिसे उठाने के लिये संभवतः भारत भी तैयार न हो।
  • यूरोप-केंद्रीयता:
    • भारत वर्ष 1951 के शरणार्थी अभिसमय को काफी हद तक यूरोप-केंद्रित मानता है, जो मुख्य रूप से इसके प्रारूपण के समय यूरोप में व्याप्त चिंताओं एवं परिदृश्यों पर केंद्रित रहा था।
    • यह अभिसमय शरणार्थियों की आमद एवं सीमा पार आवागमन के मामले में भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों के समक्ष विद्यमान विशिष्ट चुनौतियों और संदर्भों को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं करता है।
  • संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताएँ:
    • भारत आशंका रखता है कि इस अभिसमय पर हस्ताक्षर करने से उसकी संप्रभुता और क्षेत्र में विदेशी नागरिकों के प्रवेश एवं प्रवास को विनियमित करने की उसकी क्षमता कमज़ोर पड़ सकती है।
    • इस अभिसमय में शामिल होने से जुड़ी कुछ चिंताएँ भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा और सीमा नियंत्रण से संबंधित घरेलू कानूनों एवं नीतियों को प्रभावित कर सकती हैं।
  • संसाधन और अवसंरचना की कमी:
    • भारत ने इस अभिसमय पर हस्ताक्षर न करने के पीछे अपने सीमित संसाधनों और अपर्याप्त अवसंरचना को एक प्रमुख कारण बताया है, क्योंकि उसे बड़ी संख्या में आने वाले शरणार्थियों को आवश्यक स्तर की सहायता एवं सुरक्षा प्रदान करने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।
  • संभावित दुरुपयोग संबंधी चिंताएँ:
    • ऐसी आशंकाएँ मौजूद हैं कि इस अभिसमय के प्रावधानों का आर्थिक प्रवासियों या गुप्त उद्देश्य रखने वाले व्यक्तियों द्वारा दुरुपयोग किया जा सकता है, जिससे सुरक्षा संबंधी जोखिम उत्पन्न हो सकता है।
    • रोहिंग्या समुदाय के कुछ व्यक्तियों के चरमपंथी संगठनों से संबंध होने के आरोप लगते रहे हैं, जबकि श्रीलंकाई गृहयुद्ध के दौरान ऐसी चिंताएँ प्रकट की गई थीं कि LTTE (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम) के सदस्य शरणार्थी के रूप में भारत में प्रवेश कर सकते हैं।

भारत में शरणार्थियों से संबंधित कानूनी ढाँचा 

  • नागरिकता अधिनियम, 1955: यह अधिनियम भारतीय नागरिकता के त्याग, समाप्ति और वंचना के प्रावधान प्रदान करता है। नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA) को पूर्व के नागरिकता अधिनियम में एक विवादास्पद संशोधन के रूप में देखा गया है।
    • CAA बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए उत्पीड़ित हिंदू, ईसाई, जैन, पारसी , सिख एवं बौद्ध प्रवासियों को नागरिकता का मार्ग प्रदान करने का ध्येय रखता है। हालाँकि, इन दोनों देशों से आए मुस्लिम प्रवासियों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है।
  • विदेशियों का पंजीकरण अधिनियम, 1939: यह अधिनियम निर्दिष्ट करता है कि दीर्घकालिक वीज़ा (180 दिनों से अधिक) पर भारत आने वाले सभी विदेशी नागरिकों (भारत के प्रवासी नागरिकों को छोड़कर) को देश में आने के 14 दिनों के भीतर पंजीकरण अधिकारी के पास अपना पंजीकरण कराना होगा।
  • विदेशी विषयक अधिनियम, 1946: इस अधिनियम की धारा 3 के तहत केंद्र सरकार को देश में मौजूद अवैध विदेशी नागरिकों का पता लगाने, उन्हें हिरासत में लेने और निर्वासित करने का अधिकार प्राप्त है।
  • पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920: इस अधिनियम की धारा 5 अधिकारियों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 258(1) का अनुपालन करते हुए अवैध विदेशियों को भारत से बलपूर्वक निकालने की अनुमति देती है।
    • अनुच्छेद 258(1) में कहा गया है कि इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल की सहमति से उस सरकार को या उसके अधिकारियों को किसी ऐसे विषय से संबंधित कृत्य सशर्त या बिना शर्त सौंप सकेगा, जिन पर संघ की कार्यपालिका शक्ति लागू होती है।

भारत में शरणार्थी संकट से निपटने के लिये भविष्य की रणनीति:

  • ‘नॉन-रिफाउलमेंट’ (Non-refoulement) को कायम रखना:
    • ‘नॉन-रिफाउलमेंट’ अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी कानून का एक मौलिक सिद्धांत है, जो राज्यों को शरणार्थियों को ऐसे देश में वापस भेजने से रोकता है, जहाँ उन्हें उत्पीड़न एवं यातना का सामना करना पड़ सकता है। 
    • हालाँकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं, लेकिन ऐतिहासिक रूप से इसने नॉन-रिफाउलमेंट के सिद्धांत का सम्मान किया है । इस सिद्धांत को सीमाओं से परे भी बनाए रखने की आवश्यकता है।
  • उन्नत राजनयिक संलग्नता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:
    • बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार में रोहिंग्याओं की स्थिति में सुधार के लिये सहायता प्रदान करने हेतु भारत का ‘ऑपरेशन इंसानियत’ इस दृष्टिकोण की पुष्टि करता है।
    • भारत ने म्यांमार के रखाइन राज्य के लिये 25 मिलियन डॉलर की विकास सहायता की घोषणा की है, जहाँ से हज़ारों रोहिंग्या मुसलमान हिंसा की घटनाओं के बाद पलायन को विवश हुए थे।
    • भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) के साथ अपने सहयोग का विस्तार कर सकता है, जिस तरह उसने 1960 के दशक में तिब्बती शरणार्थी संकट के दौरान किया था।
  • सुरक्षा संबंधी और मानवीय चिंताओं के बीच संतुलन लाना:
    • सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शन के अनुरूप, भारत को राष्ट्रीय सुरक्षा हितों और मानवीय दायित्वों के बीच एक नाजुक संतुलन बनाना होगा।
    • उदाहरण के लिये, भारत और म्यांमार के बीच सांस्कृतिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए भारत वहाँ से आए शरणार्थियों के लिये एक अस्थायी पहचान प्रणाली लागू कर सकता है।
      • सुरक्षा संबंधी चिंताओं को संबोधित करते हुए रोहिंग्या शरणार्थियों को स्वास्थ्य सेवा, खाद्य और अस्थायी आश्रय जैसी आवश्यक सेवाएँ प्रदान की जा सकती हैं।
  • महिला एवं बाल संरक्षण:
    • कमज़ोर समूहों के लिये विशिष्ट कार्यक्रम लागू किये जाएँ। इथियोपिया में UNHCR का ‘Safe from the Start’ कार्यक्रम (जो शरणार्थी शिविरों में यौन एवं लिंग आधारित हिंसा को रोकने पर केंद्रित है) एक ऐसा उदाहरण है जिस पर भारत भी विचार कर सकता है।
  • दीर्घकालिक क्षेत्रीय रणनीति:
    • एक क्षेत्रीय रणनीति की दिशा में कार्य किया जाए। 1980 के दशक में क्रियान्वित ‘इंडोचाइनीज शरणार्थियों के लिये व्यापक कार्ययोजना’, जिसमें कई दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश शामिल थे, शरणार्थी संकट के स्थायी समाधान के लिये एक प्रारूप के रूप में कार्य कर सकती है।

उपर्युक्त रणनीतियों ने भारत में शरणार्थियों के लिये विधिक एवं सामाजिक परिदृश्य को नया आकार प्रदान किया है, जो मानवीय चिंताओं, राष्ट्रीय सुरक्षा और जनसांख्यिकीय पहलुओं के बीच जटिल अंतर्संबंध को उजागर करता है। बदलती भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के साथ आतिथ्य की अपनी परंपराओं को संतुलित करना भारत के नीति-निर्माताओं और वृहत रूप से समाज के लिये एक महत्त्वपूर्ण कार्य बना हुआ है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में शरणार्थियों की स्थिति किस प्रकार मानव अधिकारों और अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सिद्धांतों के व्यापक मुद्दों के साथ गहराई से जुड़ गई है? इसके संबंधों एवं निहितार्थों का परीक्षण कीजिये।

Q निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2016)

कभी-कभी समाचारों में रहने वाले समुदाय एवं संबंधित देश:

  1. कुर्द— बांग्लादेश
  2.  मधेसी— नेपाल
  3.  रोहिंग्या— म्याँमार

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल  1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: C

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