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वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों की चुनौतियाँ और समाधान

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय 1951, शरणार्थी को एक 'ऐसे व्यक्ति' के रूप में परिभाषित करता है जो अपनी राष्ट्रीयता या अभ्यस्त निवास के देश से बाहर है; जिसे अपनी जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता या राजनीतिक राय के कारण सताए जाने का एक सुस्थापित भय है; और उत्पीड़न के डर से, उस देश की सुरक्षा के लिए, या वहां लौटने में वो असमर्थ या अनिच्छुक है। इसे सामान्य शब्दों में अगर कहा जाए तो जब एक देश के नागरिक को अपने देश मे रहने के लिए काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है तो वह मजबूरी में दूसरे देश में शरणार्थी के रूप में शरण लेता है।

शरणार्थियों से संबंधित समस्याओं के प्रति लोगों में जागरूकता प्रसार के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रतिवर्ष 20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की शुरूआत वर्ष 2001 से हुई थी जब संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय, 1951 के अमल में लाए जाने के 50 वर्ष पूरे हुए थे। इससे पहले यह दिवस अफ्रीकी शरणार्थी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हालांकि भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय, 1951 का न तो हस्ताक्षरकर्ता है और न ही इसका पुष्टिकर्ता है।

यदि शरणार्थियों से सम्बंधित संकट और वैश्विक चुनौतियों की बात करें तो यह पिछली एक शताब्दी का सबसे ज्वलंत मुद्दा रहा है। विभिन्न प्राकृतिक एवं मानवीय आपदाएँ जैसे- भूकंप, समुद्र का जल स्तर बढ़ना, सूखा, गरीबी, गृहयुद्ध, आतंकवाद-चरमपंथ और गैर राज्य अभिकर्ताओं द्वारा देश के शासन-प्रशासन में स्थापित होने के कारण वैश्विक स्तर पर लोगों के विस्थापन की दरें बढ़ी हैं।

गरीबी, गृहयुद्ध और आंतरिक संघर्ष के कारण लेबनान, सीरिया और लीबिया से काफी बड़ी संख्या में लोग यूरोप के देशों की ओर पलायन कर रहे है। यूरोप के इन देशों में संसाधनों की सीमित उपलब्धता के चलते यहाँ के रहवासियों पर अतिरिक्त बोझ भी पड़ रहा है। इसके साथ ही यहाँ शरणार्थियों के स्वागत संबंधी मुद्दे, इनके वितरण संबंधी मुद्दों को भी उचित ढंग से संबोधित नहीं किया गया है। अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन के कारण यहाँ पर भी विस्थापितों की संख्या विकराल रूप से बढ़ रही है।

भारत भी अपने पड़ोसी और निकट आसन्न देशों जैसे बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, तिब्बत और म्यांमार से आने वाले शरणार्थियों की समस्या से जूझ रहा है। वर्तमान में रोहिंग्या, चकमा-हाजोंग, तिब्बती और बांग्लादेशी शरणार्थियों के कारण भारत मानवीय, आंतरिक सुरक्षा, संसाधनों की कमी आदि समस्याओं का सामना कर रहा है। ऐसे में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि भारत भी शरणार्थियों के संबंध में एक ऐसी घरेलू नीति तैयार करे, जो धर्म, रंग, नस्ल, भाषा और जातीयता की दृष्टि से तटस्थ हो तथा भेदभाव, हिंसा और रक्तपात की विकराल स्थिति से उबारने में मुफ़ीद हो।

शरणार्थियों से संबंधी कोई घरेलू कानून न होने के बावजूद भी दक्षिण एशिया के देशों में भारत में ही सर्वाधिक संख्या में शरणार्थी रहते हैं। यहाँ शरणार्थियों से संबंधी कानून एवं नीति का अभाव है और मामले-दर-मामले के आधार पर शरणार्थियों से संबंधित मुद्दों को संबोधित किया जाता है। विभिन्न भारतीय कानून जैसे पासपोर्ट (भारत मे प्रवेश) अधिनियम, 1920, पासपोर्ट अधिनियम (1967), विदेशियों के पंजीकरण अधिनियम, 1939, विदेशी अधिनियम, 1946 और विदेशी आदेश (1948) शरणार्थियों से संबंधी मुद्दों का समाधान करने में विफल रहे हैं। अब जरूरत है कि भारत इस सम्बंध में एक सुस्पष्ट कानून और नीति बनाए।

वैश्विक स्तर पर शरणार्थी संकट के समाधान हेतु प्रभावी उपाय भी किये गए हैं। इस संबंध में 'शरणार्थियों और प्रवासियों के लिए न्यूयॉर्क घोषणा' उल्लेखनीय है। इसे सितंबर 2016 में संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन में अपनाया गया था। यह शरणार्थियों की रक्षा एवं उनके मानवाधिकार के साथ इनके बच्चों के शिक्षा संबंधी अधिकारों को भी सुनिश्चित करती है। इसके तहत शरण देने वाले देश को शरणार्थियों के आगमन के कुछ महीनों के भीतर ही इनके बच्चे की शिक्षा संबंधी इंतज़ामात करने पड़ते हैं। इसके साथ ही यौन एवं लिंग आधारित हिंसा को रोकने के लिए पर्याप्त प्रावधान भी करने पड़ते हैं। न्यूयॉर्क घोषणा, शरणार्थियों की शरण देने वाले देश के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही भी तय करती है। इसके अनुसार शरणार्थियों को भी शरण देने वाले देश की आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए सकारात्मक कार्य करना चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय, 1951 के माध्यम से भी शरणार्थियों को सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान किया जाता है। इसके अंतर्गत विस्थापितों और शरणार्थियों को मूलभूत और जरूरी मानवाधिकार प्रदान किये जाते है- शरण देने वाले देश द्वारा सुरक्षा का अधिकार, विस्थापितों को निष्कासित न करने का अधिकार, अभिसमय के तहत अनुबंधित देश द्वारा शरणार्थियों को अवैध प्रवेश पर दंडित न करना; इसके साथ ही शरणार्थियों को काम करने का अधिकार, आवास-शिक्षा-भोजन आदि का अधिकार प्रदान करना। इसके साथ ही यह शरणार्थियों को वास्तविक और सच्चे लोकतांत्रिक अधिकारों जैसे धर्म की स्वतंत्रता, अपने देश के भीतर अदालतों तक पहुँच और अपने क्षेत्र के भीतर आंदोलन की स्वतंत्रता आदि को भी सुनिश्चित करती है। यह अभिसमय शरणार्थियों को मेजबान देश मे पहचान और यात्रा दस्तावेज को भी उपलब्ध कराती है।

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त द्वारा ‘स्टेप विद रिफ्यूजी’ अभियान का भी प्रारंभ किया गया है। इसका उद्देश्य शरणार्थी परिवारों को सुरक्षित रखने के लिये कार्य करना तथा उनके जुझारूपन और दृढ़ संकल्प का सम्मान करना है। इस अभियान में भाग लेने वाले प्रतिभागियों द्वारा एक वर्ष यानी 12 महीनों में दो बिलियन किलोमीटर की दूरी तय करने के लिये स्वयं को चुनौती दी जाएगी क्योंकि विश्व में शरणार्थियों द्वारा अपनी सुरक्षा के लिये हर वर्ष लगभग इतने किलोमीटर की यात्रा तय की जाती है। इस अभियान में भाग लेने वाले व्यक्ति पैदल चलकर, साइकिल चलाकर या दौड़कर शामिल हो सकते हैं तथा फिटनेस ऐप फिटबिट, स्ट्रवा या गूगलफिट के माध्यम से भी आंदोलन में शामिल हो सकते हैं और वे जितने किलोमीटर तक यात्रा करेंगे वह अभियान में अपने आप जुड़ जाएगा। इस अभियान में भारतीय भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे है। अब जरूरत है कि भारत सरकार भी संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अभिसमय, 1951 से सुसंगत एक राष्ट्रीय नीति बनाए।

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

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