सत्य के अनेक पहलू | 05 Jun 2024

प्रिलिम्स के लिये:

महात्मा गांधी, अहिंसा, सत्याग्रह 

मेन्स के लिये:

सत्य की दुविधाएँ और जटिलता, ऐतिहासिक आख्यानों में नैतिक दुविधाएँ, नैतिक आचरण और लोकतांत्रिक लोकाचार, महात्मा गांधी की शिक्षाओं की प्रासंगिकता और महत्त्व

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

सहस्राब्दियों से दार्शनिक सत्य की प्रकृति, जानने की योग्यता तथा क्या वह सार्वभौमिक है या व्यक्तिपरक है, जैसे प्रश्नों से जूझते रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप इस अवधारणा पर विभिन्न दृष्टिकोण सामने आए हैं।

सत्य के संबंध में विभिन्न विचारकों के दृष्टिकोण क्या हैं?

  • पत्राचार सिद्धांत:
    • अरस्तू और बर्ट्रेंड रसेल जैसे विचारकों का मानना ​​है कि सत्य का निर्धारण हमारे कथनों या विचारों तथा बाह्य विश्व के मध्य स्थापित सामंजस्य से होता है अर्थात् एक कथन सत्य है यदि वह वास्तविकता को सटीक रूप से प्रतिबिंबित करता है।
    • उदाहरण के लिये "घास हरी है" सत्य है क्योंकि वास्तविक संसार में घास में हरेपन का गुण होता है।
    • यह सिद्धांत उन अमूर्त सत्यों (जैसे, गणितीय प्रमेय) पर विचार नहीं करता जो प्रत्यक्ष रूप से भौतिक वास्तविकता से समानता नहीं रखते हैं।
  • सुसंगति सिद्धांत:
    • इमैनुअल कांट और फ्रेडरिक हेगेल जैसे विचारकों का मानना ​​है कि सत्य का निर्धारण विचारों की आंतरिक संगति से होता है, जहाँ एक कथन तभी सत्य होता है जब वह ज्ञान के स्थापित ढाँचे के साथ सुसंगत हो।
    • उदाहरण के लिये वैज्ञानिक सिद्धांतों को सत्य माना जाता है, यदि वे आंतरिक रूप से सुसंगत हों और व्यापक प्रकार की घटनाओं की व्याख्या करते हों।
    • यह सिद्धांत संकीर्ण विचार प्रणालियों (Closed Belief Systems) को जन्म दे सकता है जो मौजूदा ढाँचे के विपरीत नए साक्ष्य का विरोध करते हैं।
  • व्यावहारिक सिद्धांत:
    • विलियम जेम्स और जॉन डेवी जैसे विचारकों का तर्क है कि किसी कथन की सत्यता उसकी व्यावहारिक उपयोगिता एवं सफल परिणाम देने की उसकी क्षमता द्वारा निर्धारित होती है।
    • उदाहरण: गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत सत्य माना जाता है क्योंकि यह हमें वस्तुओं की गति का पूर्वानुमान लगाने और स्थिर संरचनाएँ बनाने की अनुमति देता है।
    • यह सिद्धांत सत्य को संदर्भ के सापेक्ष बनाता है तथा मानवीय उपयोगिता से स्वतंत्र वस्तुनिष्ठ तथ्यों को ध्यान में नहीं रखता।
  • महात्मा गांधी की सत्य की खोज:
    • ईश्वरीय सत्य और अहिंसा:
      • गांधीजी का सत्य केवल तथ्यात्मक सटीकता नहीं था। उन्होंने इसे परम सत्य, ईश्वर के बराबर बताया।
      • सत्य स्वाभाविक रूप से स्पष्ट है, लेकिन यह तभी स्पष्ट होता है जब इसके आस-पास का अज्ञान दूर हो जाता है। इस परम सत्य को अहिंसा के माध्यम से समझा जा सकता है।
      • उनका सत्य केवल एक अवधारणा नहीं है, बल्कि ईश्वर के समतुल्य एक शाश्वत सिद्धांत है, जो सत्य की खोज और अहिंसा के अभ्यास को अविभाज्य बनाता है।
      • सत्य की अंतहीन खोज में आत्मनिरीक्षण, निरंतर प्रश्न पूछना और गलतियों को स्वीकार करने की तत्परता शामिल थी, जिसमें सत्य को एक निर्धारित समापन बिंदु के बजाय आत्म-खोज की एक सतत् यात्रा के रूप में देखना आवश्यक है।
    • सत्य का क्रियान्वयन:
      • सत्य के प्रति गांधी की प्रतिबद्धता उनके विरोध के तरीकों तक फैली हुई थी। उन्होंने सत्याग्रह की रचना की, जिसका अर्थ है "सत्य बल।"
      • सत्याग्रहियों अर्थात् गांधीजी के अनुयायियों का उद्देश्य सविनय अवज्ञा और अटल सत्यनिष्ठा के माध्यम से उत्पीड़कों की अंतरात्मा को जागृत करना था।

सत्य की दुविधाएँ और जटिलताएँ क्या हैं?

  • सत्य की जटिलता:
    • भारत के राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न, अशोक स्तंभ पर स्थित तीन सिंह, सत्य के तीन दृष्टिकोणों के प्रतीक हैं: मेरा सत्य, आपका सत्य, और एक पर्यवेक्षक का सत्य।
    • सत्य का चौथा, अपरिमेय आयाम अक्सर इस कहावत की ओर ले जाता है, "केवल ईश्वर ही सत्य जानता है।"
    • उदाहरण के लिये, चुनाव के दौरान भारत निर्वाचन आयोग का कार्य चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
      • चुनौती यह है कि राजनीतिक दल अक्सर चालाकी से जातिगत या सांप्रदायिक भाषा का प्रयोग करते हैं, जिससे निर्वाचन आयोग के लिये कार्रवाई करना कठिन हो जाता है।
      • आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct- MCC), हालाँकि इन आधारों पर स्पष्ट अपील पर प्रतिबंध लगाती है, लेकिन इसमें मौजूद दोषों के कारण राजनीतिक दल अप्रत्यक्ष रूप से विभाजनकारी बयानबाज़ी कर सकते हैं।
  • सत्य और असत्य की दुविधा:
    • महाभारत में युधिष्ठिर के अर्धसत्य जैसे ऐतिहासिक और पौराणिक आख्यान, सत्य के साथ छेड़छाड़ किये जाने पर सामने आने वाली नैतिक दुविधाओं को दर्शाते हैं।
    • युधिष्ठिर द्वारा अश्वत्थामा की मृत्यु की घोषणा के कारण गलत व्याख्या हुई, जिसके कारण द्रोणाचार्य की मृत्यु हो गई।
    • यह कहानी उन नैतिक जटिलताओं को रेखांकित करती है जो तब उत्पन्न होती हैं जब रणनीतिक उद्देश्यों के लिये सत्य के साथ छेड़छाड़ की जाती है तथा नैतिक उच्चता के संभावित नुकसान को उजागर करती है।

निष्कर्ष:

  • "सत्यमेव जयते" का सिद्धांत भारत के लोकतांत्रिक लोकाचार के लिये एक मार्गदर्शक बना हुआ है। 
  • हालाँकि, हमारे दैनिक जीवन में इस सिद्धांत के व्यावहारिक अनुप्रयोग के लिये सभी हितधारकों द्वारा नैतिक आचरण के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।
  • इसे राजनीतिक नेतृत्वकर्त्ताओं और नागरिकों के मध्य सामूहिक नैतिक जागृति द्वारा समर्थित किया जाना आवश्यक है।
  • यह सुनिश्चित करने के लिये कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सत्य की जीत हो, निरंतर सतर्कता, आत्मनिरीक्षण तथा विधि के शासन और नैतिक मूल्यों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: प्रभावी शासन और नीति निर्माण के संदर्भ में, समकालीन घटनाओं के उदाहरणों के साथ, सामाजिक वास्तविकताओं को समझने में सत्य के विविध आयामों को पहचानने के महत्त्व पर विवेचना कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. "भ्रष्टाचार सरकारी राजकोष का दुरुपयोग, प्रशासनिक अदक्षता एवं राष्ट्रीय विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है।" कौटिल्य के विचारों की विवेचना कीजिये। (2016)

प्रश्न. निम्नलिखित में से प्रत्येक उद्धरण का आपके विचार से क्या अभिप्राय है? (2021)

(a): "प्रत्येक कार्य की सफलता से पहले उसे सैकड़ों कठिनाइयों से गुज़रना पड़ता है। जो दृढ़निश्चयी हैं वे ही देर-सबेर प्रकाश को देख पाएंगे।" -स्वामी विवेकानंद
(b): "हम बाहरी दुनिया में तब तक शांति प्राप्त नहीं कर सकते जब तक कि हम अपने भीतर शांति प्राप्त नहीं कर लेते।" - दलाई लामा
(c): "परस्पर निर्भरता के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है। हमें एक-दूसरे की ज़रूरत है और जितनी हम जल्दी इसे सीख लें यह हम सबके लिये उतना ही अच्छा है।" - एरिक एरिक्सन