वायनाड में भूस्खलन | 01 Aug 2024

प्रिलिम्स के लिये:

भूस्खलन और इसके प्रकार, राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति, भूस्खलन जोखिम शमन योजना (LRMS), बाढ़ जोखिम न्यूनीकरण योजना (FRMS), भूस्खलन और हिमस्खलन पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देश, लैंडस्लाइड एटलस ऑफ इंडिया, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण

मेन्स के लिये:

भूस्खलन उनके कारण, हिमालय और पश्चिमी घाट में भूस्खलन के बीच अंतर, शमन के संभावित उपाय तथा पहले से की गई प्रमुख पहल। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल के वायनाड ज़िले में अत्यधिक वर्षा और नाज़ुक पारिस्थितिक स्थितियों के कारण सबसे विनाशकारी भूस्खलन संबंधी आपदाएँ देखी गईं।

  • ज़िले में 24 घंटे में 140 मिमी. से अधिक बारिश हुई, जो उम्मीद से अधिक है और इसने वर्ष 2018 की विनाशकारी बाढ़ की याद दिला दी जिसमें लगभग 500 लोगों की मृत्यु हो गई थी।

नोट: 

  • केंद्र सरकार ने 18वीं लोकसभा में आपदा प्रबंधन (संशोधन) विधेयक, 2024 पेश करने की योजना बनाई है।
  • विधेयक में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर आपदा डाटाबेस तैयार करने तथा राज्य की राजधानियों व नगर निगमों वाले बड़े शहरों के लिये शहरी आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के गठन का प्रावधान किया गया है।
    • डेटाबेस में आपदा मूल्यांकन, निधि आवंटन विवरण, व्यय, तैयारी और शमन योजना, जोखिम के प्रकार व गंभीरता के अनुसार जोखिम रजिस्टर तथा अन्य प्रासंगिक मामले शामिल होंगे।

भूस्खलन क्या है?

  • परिचय: 
    • भूस्खलन (Landslide) एक भू-वैज्ञानिक घटना है जिसमें शैल, मृदा और मलबे के एक भाग का नीचे की ओर खिसकना या संचलन शामिल होता है। यह संचलन छोटे एवं स्थानीय बदलावों से लेकर बड़े एवं विनाशकारी घटनाओं तक भिन्न-भिन्न पैमाने का हो सकता है।
    • भूस्खलन प्राकृतिक और मानव-निर्मित, दोनों ही ढलानों पर घटित हो सकते हैं तथा वे प्रायः भारी वर्षा, भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, मानव गतिविधि (जैसे- निर्माण या खनन) और भूजल स्तर में परिवर्तन जैसे कारकों के संयोजन से उत्पन्न होते हैं। 
  • प्रकार:
    • स्खलन/स्लाइड (Slides): एक विखंडित सतह (Rupture surface) के साथ गति, जिसमें घूर्णी और स्थानांतरणीय स्लाइड शामिल हैं।
    • प्रवाह/फ्लो (Flows): ये मृदा या शैल के ऐसे संचलन हैं जिनमें बड़ी मात्रा में जल भी शामिल होता है, जो इस द्रव्यमान को तरल पदार्थ की तरह प्रवाहित करता है, जैसे कि पृथ्वी का प्रवाह, मलबे का प्रवाह, कीचड़ का प्रवाह।
    • फैलाव/स्प्रेड (Spreads): ये मृदा या शैल के ऐसे संचलन हैं जिनमें पार्श्व विस्तार और द्रव्यमान का टूटना शामिल होता है। 
    • अग्रपात/टॉपल्स (Topples): ये मृदा या शैल के ऐसे संचलन हैं जिनमें ऊर्ध्वाधर या निकट-ऊर्ध्वाधर भृगु या ढलान से द्रव्यमान का आगे की ओर घूमना और मुक्त रूप से गिरना शामिल होता है। 
    • प्रपात/फॉल्स (Falls): ये मृदा या शैलों के ऐसे संचलन हैं जिनमें ये खड़ी ढलान या भृगु से अलग हो जाते हैं और मुक्त रूप से गिरते हैं तथा लुढ़कते हुए आगे बढ़ते हैं। 

  • ISRO द्वारा लैंडस्लाइड एटलस ऑफ इंडिया:
    • भारत विश्व स्तर पर भूस्खलन-प्रवण शीर्ष 5 देशों में से एक है।
    • अन्य देश हैं चीन, अमेरिका, इटली और स्विट्ज़रलैंड।
    • भारत में लगभग 0.42 मिलियन वर्ग किमी. (भूमि क्षेत्र का 12.6%) भूस्खलन के खतरे से ग्रस्त है।
    • भारत में दर्ज भूस्खलन की घटनाएँ निम्नानुसार वितरित हैं:
      • उत्तर-पश्चिमी हिमालय में 66.5%
      • उत्तर-पूर्वी हिमालय में 18.8%
      • पश्चिमी घाट में 14.7%
    • भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, कई विकासशील देशों में भूस्खलन के कारण होने वाली आर्थिक क्षति सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) के 1% से 2% तक हो सकती है।
  • भारत में प्रमुख भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र:
    • पूर्वोत्तर क्षेत्र (जिसमें कुल भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों का लगभग 50% हिस्सा शामिल है)।  
    • हिमालय के साथ उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू -कश्मीर। 
    • पश्चिमी घाट के साथ महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु।  
    • पूर्वी घाट के साथ आंध्र प्रदेश में अराकू क्षेत्र। 
    • केरल में लगभग 17,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र, जो मुख्यतः पश्चिमी घाट के पश्चिमी भाग में है, भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया गया है।

भारत में प्रमुख भूस्खलन

भूस्खलन के कारण क्या हैं?              

  • गुरुत्वाकर्षण बल: ये भूस्खलन का प्राथमिक कारण हैं, जो ढलानों पर मौजूद सामग्रियों को लगातार नीचे की ओर खींचते रहते हैं।
    • जब गुरुत्वाकर्षण बल चट्टानों, रेत, गाद और मृदा जैसे भू-पदार्थों की अपरूपण शक्ति से अधिक हो जाता है, तो ढलान विफल हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप ये पदार्थ नीचे की ओर खिसकते हैं।
  • प्राकृतिक ट्रिगर:
    • वर्षा: लंबे समय तक या तीव्र वर्षा से मृदा में जल की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे संसक्ति कम हो जाती है और ढलानों पर भार बढ़ जाता है, जिससे स्खलन की संभावना और भी बढ़ जाती है।
      • वायनाड के भू-भाग में दो विशिष्ट परतें हैं: कठोर चट्टानों के ऊपर मृदा की परत। भारी बारिश से मृदा में नमी भर जाती है, जिससे मृदा को चट्टानों से बाँधने वाला ससंजक बल कमज़ोर हो जाता है और भूस्खलन की घटना होती है।
      • इसके अलावा, अरब सागर के हाल ही में गर्म होने से पश्चिमी घाटों में गहरे बादल छा गए हैं और अत्यधिक भारी वर्षा हुई है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। जलवायु परिवर्तन ने वर्षाण क्षेत्र को भी स्थानांतरित कर दिया है, जिससे वायनाड जैसे दक्षिणी क्षेत्रों में संवहनीय वर्षा बढ़ गई है।
        • संवहनीय वर्षा तब होती है जब पृथ्वी की सतह से गर्म वायु ऊपर की ओर उठती है और ऊँचाई पर जलवाष्प संघनित होती है। जलवाष्प ले जाने वाले बादल वायु द्वारा दूर नहीं ले जाए जाते, जिसके परिणामस्वरूप उसी स्थान पर वर्षा होती है।
    • भूकंप: भूकंप ज़मीन को हिलाकर ढलानों को अस्थिर कर देते हैं और भू-पदार्थों की संरचनात्मक अखंडता को कमज़ोर कर देते हैं, विशेष रूप से हिमालय जैसे टेक्टोनिक रूप से सक्रिय क्षेत्रों में।  
    • अपरदन: नदी या लहरों जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाएँ ढलानों के आधार को नष्ट कर सकती हैं, जिससे उनकी स्थिरता कम हो सकती है। लहरों से होने वाले अपरदन के कारण तटीय क्षेत्र भूस्खलन के लिये विशेष रूप से अतिसंवेदनशील होते हैं।
  • जल विज्ञान संबंधी कारक: भूजल की गति भूस्खलन के जोखिम में योगदान कर सकती है। जल छिद्रपूर्ण सामग्रियों से रिस सकता है, जिससे छिद्र दबाव बढ़ जाता है और प्रभावी तनाव कम हो जाता है, जिससे ढलान कमज़ोर हो जाती है।
  • मानवजनित कारक:
    • निर्वनीकरण: इससे वनस्पति नष्ट हो गई है तथा प्राकृतिक सुदृढ़ीकरण और जल निकासी प्रदान करने वाली वृक्ष जड़ों को नष्ट करके ढलानों को अस्थिर कर दिया है।
    • निर्माण एवं भूमि उपयोग में परिवर्तन: खनन, सड़क निर्माण और शहरी विकास जैसी गतिविधियों ने प्राकृतिक जल निकासी तथा भार वितरण को बाधित कर दिया है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है।
      • इसके अलावा, अंग्रेज़ों द्वारा कृषि और चाय बागानों के लिये ऐतिहासिक रूप से निर्वनीकरण ने मृदा की स्थिरता को कमज़ोर कर दिया है, जिससे यह क्षेत्र (पश्चिमी घाट) भारी बारिश के दौरान भूस्खलन के प्रति अधिक संवेदनशील हो गया है।
    • बुनियादी ढाँचे का विकास: पर्यटन और बुनियादी ढाँचे के विकास, जिसमें रिसॉर्ट, कृत्रिम झीलें व निर्माण गतिविधियाँ शामिल हैं, ने भूमि पर दबाव बढ़ा दिया है तथा प्राकृतिक जल निकासी को बाधित कर दिया है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है।
  • भू-वैज्ञानिक कारक: सामग्रियों की संरचना और अपक्षय की स्थिति जैसे भू-वैज्ञानिक कारक ढलान की स्थिरता को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं।
    • पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी नाज़ुक है, इसकी ढलानें तीव्र हैं और इसमें दोहरी परत है, जिससे भूस्खलन की आशंका बनी रहती है, क्योंकि वर्षा का जल मृदा को नमी प्रदान करता है, जिससे उसका भार बढ़ जाता है तथा स्थिरता कम हो जाती है।
  • बंद/निष्क्रिय खदानें: आस-पास के क्षेत्र में खदानों की उपस्थिति, यहाँ तक ​​कि उनके बंद हो जाने के बाद भी, मृदा की अस्थिरता में योगदान दे रही है, क्योंकि इन गतिविधियों से उत्पन्न कंपन और आघात तरंगें भूगर्भीय संरचना को कमज़ोर कर सकती हैं, जिससे भारी बारिश के दौरान यह क्षेत्र भूस्खलन के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकता है।

पश्चिमी घाट में होने वाले भूस्खलन हिमालय क्षेत्र में होने वाले भूस्खलन से किस प्रकार भिन्न है?

क्षेत्र

कारण

पश्चिमी घाट

  • सघन वर्षा
  • पहाड़ियों पर अत्यधिक भार
  • खनन और उत्खनन
  • मानवजनित गतिविधियाँ जैसे कृषि गतिविधियाँ, पवनचक्की परियोजनाएँ आदि
  • पतली मृदा पर्पटी पर सघन वनस्पति के साथ वनों का विखंडन

हिमालय

  • प्लेट विवर्तनिकी गतिशीलता के कारण उच्च भूकंपीयता
  • शीघ्रता से अपरदनशील अवसादी चट्टानें
  • तीव्र धारा एवं आवेग वाली नदियाँ (उदाहरण: गंगा, यमुना, झेलम आदि) जिनमें उच्च अपरदनशीलता है
  • भारी बारिश और बर्फबारी
  • मानवजनित कारक जैसे वनों की कटाई, झूम खेती, सड़क निर्माण आदि।

भूस्खलन से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?

  • जान-माल की हानि और आघात: भूस्खलन के कारण प्रभावित क्षेत्रों में लोग हताहत हो सकते हैं और यहाँ तक कि उनकी मृत्यु भी हो जाती है। भूस्खलन की अकस्मात् प्रकृति के कारण प्रायः लोगों को निकालने या उनका बचाव करने के लिये बहुत कम समय मिलता है।
  • समुदायों का विस्थापन: भूस्खलन के कारण आबादी का विस्थापन हो सकता है, जिससे समुदायों को स्थानांतरित होने के लिये मजबूर होना पड़ता है। इससे सामाजिक संरचनाएँ बाधित हो सकती हैं और दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • बुनियादी ढाँचे को नुकसान: सड़क, पुल और इमारतों जैसे महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त या नष्ट हो सकते हैं, जिससे महत्त्वपूर्ण आर्थिक नुकसान हो सकता है तथा बचाव या राहत कार्यों में बाधा आ सकती है।
  • आर्थिक प्रभाव: क्षतिग्रस्त बुनियादी ढाँचे की मरम्मत और मानवीय सहायता प्रदान करने की लागत काफी अधिक हो सकती है। इसके अतिरिक्त, भूस्खलन स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बाधित कर सकता है, विशेष रूप से कृषि और पर्यटन पर निर्भर क्षेत्रों में।
  • पर्यावरणीय क्षरण: भूस्खलन से मृदा अपरदन, वनस्पति का नुकसान और आवास विनाश हो सकता है, जिससे जैवविविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

भूस्खलन का पूर्वानुमान करना क्यों मुश्किल है?

  • भू-पदार्थ की जटिलता: भू-सतह में विभिन्न चट्टानें और कणिका पदार्थ होते हैं, जिनकी शक्ति अलग-अलग होती है, जिससे स्थिरता का सही आकलन करना मुश्किल हो जाता है।
  • अपर्याप्त डेटा: भू-पदार्थों का विस्तृत त्रि-आयामी मानचित्रण आवश्यक है, लेकिन वर्तमान तकनीक प्रायः चुनिंदा स्थानों से सीमित डेटा पर निर्भर करती है, जिससे अनिश्चितता होती है।
  • कमज़ोर बिंदुओं की पहचान करना: महत्त्वपूर्ण कमज़ोर बिंदु, जैसे कि चट्टानों में दरारें, आसानी से अनदेखी की जा सकती हैं, जिससे पूर्वानुमान में विसंगतियाँ हो सकती हैं।
  • आकार और रनआउट का अनुमान लगाना: संभावित भूस्खलन का एक सटीक आकार और इसकी रनआउट दूरी निर्धारित करना चुनौतीपूर्ण होता है, जिससे जोखिम का आकलन जटिल हो जाता है।
  • समय का पूर्वानुमान: भूस्खलन कब होगा, इसका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है, जो मौसम या भूकंपीय गतिविधि का पूर्वानुमान करने जैसा है और जिसमें अंतर्निहित अनिश्चितताएँ शामिल हैं।
  • पर्यावरणीय परिवर्तनशीलता: वर्षा पैटर्न, भूकंपीय गतिविधि और मानवीय गतिविधियों में परिवर्तन सभी प्रवण स्थलाकृतियों की स्थिरता को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे पूर्वानुमान में और भी जटिलता आ सकती है।
  • तकनीकी सीमाएँ: वर्तमान सेंसर और मॉडल सटीक पूर्वानुमानों के लिये आवश्यक परिशुद्धता प्रदान नहीं कर सकते हैं, विशेष रूप से दूरस्थ या दुर्गम क्षेत्रों में।

भारत में भूस्खलन के जोखिम को कम करने के लिये सरकार की क्या पहल है?

  • राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति (2019): यह एक व्यापक रणनीति है जो खतरे की मैपिंग, निगरानी, ​​प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, जागरूकता कार्यक्रम, क्षमता निर्माण, नीतियों और स्थिरीकरण उपायों को सुनिश्चित करती है।
  • भूस्खलन जोखिम शमन योजना (LRMS): तैयारी के तहत इस योजना का उद्देश्य संवेदनशील राज्यों में अनुरूप भूस्खलन शमन परियोजनाओं के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करना है, जो आपदा की रोकथाम, शमन रणनीतियों और महत्त्वपूर्ण भूस्खलन की निगरानी के लिये अनुसंधान एवं विकास पर ध्यान केंद्रित करती है।
    • यह पहल एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (EWS) की स्थापना में योगदान देने के साथ ही क्षमता निर्माण प्रयासों को बढ़ावा देती है।
  • बाढ़ जोखिम शमन योजना (FRMS): बाढ़ के दौरान राहत आश्रयों, नदी बेसिन-विशिष्ट प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों और बाढ़ की तैयारी एवं इसकी जल-निकासी हेतु डिजिटल एलिवेशन मैप को विकसित करने के लिये एक आगामी योजना।
  • भूस्खलन और हिमस्खलन पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देश: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) द्वारा दिशा-निर्देश जो खतरे का आकलन, जोखिम प्रबंधन, संरचनात्मक और गैर-संरचनात्मक उपायों, संस्थागत तंत्र, वित्तीय व्यवस्था एवं सामुदायिक भागीदारी को कवर करते हैं।
  • भारत का भूस्खलन एटलस: यह एक विस्तृत संसाधन है जो देश के संवेदनशील क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाओं का दस्तावेज़ीकरण करता है और इसमें कुछ स्थलों के लिये क्षति का आकलन भी शामिल है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के तहत राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (NRSC) द्वारा विकसित, यह भारत में भूस्खलन से संबंधित महत्त्वपूर्ण सुचना और अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।

पश्चिमी घाट पर विभिन्न समितियों की सिफारिशें क्या हैं?

  • पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल, 2011 (माधव गाडगिल की अध्यक्षता में):
    • पश्चिमी घाट के सभी क्षेत्रों को पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र (ESA) घोषित किया जाए।
    • श्रेणीबद्ध क्षेत्रों में केवल सीमित विकास की अनुमति दी जाए।
    • पश्चिमी घाटों को ESA 1, 2 और 3 में वर्गीकृत किया जाए, जिसमें ESA-1 को उच्च प्राथमिकता दी जाए, जहाँ लगभग सभी विकासात्मक गतिविधियाँ प्रतिबंधित हों।
    • शासन की प्रणाली को अधोगामी उपागम के बजाय उर्ध्वगामी उपागम (ग्रामसभाओं से) के रूप में निर्दिष्ट किया जाए।
    • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत एक वैधानिक प्राधिकरण के रूप में पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी प्राधिकरण (WGEA) का गठन किया जाए, जिसे पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 के तहत शक्तियाँ प्रदान की जाएँ।
    • रिपोर्ट की आलोचना इस बात के लिये की गई कि यह पर्यावरण के लिये अधिक अनुकूल तो है और ज़मीनी हकीकत से मेल नहीं खाती।
    • पश्चिमी घाट के कुल क्षेत्रफल के बजाय, कुल क्षेत्रफल का केवल 37% ESA के अंतर्गत लाया जाना चाहिये।
  • कस्तूरीरंगन समिति, 2013: इसने गाडगिल रिपोर्ट के विपरीत विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की:
    • ESA में खनन, उत्खनन और रेत खनन पर पूर्ण प्रतिबंध।
    • किसी भी ताप विद्युत परियोजना की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये और विस्तृत अध्ययन के बाद ही जल विद्युत परियोजनाओं की अनुमति दी जानी चाहिये।
    • रेड इंडस्ट्रीज़ यानी जो अत्यधिक प्रदूषण करते हैं, उन पर सख्ती से प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये।
    • आबादी वाले क्षेत्रों और बागानों को ESA के दायरे से बाहर रखा जाना इसे किसान समर्थक दृष्टिकोण बनाता है।

भूस्खलन के खतरों को रोकने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  • आघात सहनीयता उत्पन्न करना: इसमें रियल टाइम निगरानी और डेटा संग्रह के लिये सेंसर का एक नेटवर्क स्थापित करना शामिल है।
    • विभिन्न क्षेत्रों में मृदा-संतृप्ति के लिये वर्षा की सीमा का आकलन।
    • भूस्खलन-प्रवण संभावित मार्गों का मानचित्रण करना।
    • उन क्षेत्रों को चिह्नित करने के लिये रूट मैप बनाना जो बस्तियों या गतिविधियों के लिये सीमा से बाहर होने चाहिये।
  • सतर्क निगरानी के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग करना: घनी आबादी वाले और शहरीकृत क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी के लिये वर्षा गेज, पीज़ोमीटर, इनक्लिनोमीटर, एक्सटेन्सोमीटर, इंटरफेरोमेट्रिक सिंथेटिक एपर्चर रडार (InSAR) तथा टोटल स्टेशन जैसे वेब-आधारित सेंसर का उपयोग किया जाना चाहिये।
  • एकीकृत EWS: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग (ML) एल्गोरिदम का प्रयोग करके एक व्यापक EWS विकसित किया जाना चाहिये ताकि समुदायों को आसन्न खतरों के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सके और उन्हें सचेत किया जा सके, जिससे एहतियाती उपायों के लिये मूल्यवान समय मिल सके।
  • सतत् सामाजिक-आर्थिक प्रगति: सतत् सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये क्षेत्र के मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों, जैसे ग्लेशियर, झरने, खनिज, ऊर्जा स्रोत और औषधीय पौधों को पहचान की आवश्यकता है। दीर्घकालिक व्यवहार्यता के लिये पारिस्थितिक संरक्षण के साथ संसाधन उपयोग को संतुलित किया जाना चाहिये।
  • पर्यावरण संबंधी विचार: संधारणीय प्रथाओं और जिम्मेदार संसाधन उपयोग के माध्यम से पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा करने की आवश्यकता है।
    • पहाड़ी क्षेत्रों में विचारशील शहरी नियोजन को लागू कर व्यापक निर्माण गतिविधियों को प्रतिबंधित करना चाहिये और वैज्ञानिक रूप से जल निकासी एवं ढलान की उत्खनन का प्रबंधन करना चाहिये।
    • पुनर्वनीकरण एवं मृदा संरक्षण प्रयासों के माध्यम से मृदा को स्थायित्व प्रदान करने और पारिस्थितिक संतुलन को पुनर्स्थापित करने के लिये रिटेनिंग वाॅल का प्रयोग करने की आवश्यकता है।
  • बिल्डिंग कोड और मूल्यांकन: खतरे वाले क्षेत्रों में सुरक्षित निर्माण के लिये मज़बूत बिल्डिंग कोड विकसित करने के लिये शहरों की मैपिंग करने और भार वहन करने की क्षमताओं का आकलन करने की आवश्यकता है। मृदा को अस्थिर करने वाली गतिविधियों को रोकने के लिये इन क्षेत्रों में सख्त भूमि उपयोग प्रतिबंध लागू किया जाना चाहिये।

भूस्खलन की रोकथाम हेतु सॉइल नेलिंग और हाइड्रोसीडिंग

  • केरल में राज्य राजमार्ग विभाग नीलगिरी में भूस्खलन की समस्या से निपटने के लिये मिट्टी की सॉइल नेलिंग और हाइड्रोसीडिंग का काम कर रहा है।
  • सॉइल नेलिंग से मृदा को मज़बूती मिलती है, जबकि हाइड्रोसीडिंग से बीज, उर्वरक और पानी के मिश्रण से पौधों की वृद्धि को बढ़ावा मिलता है।
  • इस दृष्टिकोण में सड़क अवसंरचना के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिये घास की पाँच प्रजातियों को रोपना और वनस्पति को बनाए रखना शामिल है।

निष्कर्ष

वायनाड भूस्खलन प्राकृतिक आपदाओं और मानवीय गतिविधियों के बीच के अंतर्संबंध की एक स्पष्ट याद दिलाता है। भविष्य में जोखिमों को कम करने तथा कमज़ोर समुदायों की रक्षा करने के लिये विनियमन, शिक्षा एवं वैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़ा एक बहुआयामी दृष्टिकोण आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: पश्चिमी घाट में लगातार भूस्खलन के क्या कारण हैं? क्या शमन रणनीतियाँ अपनाई जा सकती हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. हिमालयी क्षेत्र तथा पश्चिमी घाटों में भू-स्खलनों के विभिन्न कारणों में अंतर स्पष्ट कीजिये। (2021)

प्रश्न. “हिमालय भूस्खलनों के प्रति अत्यधिक प्रवण है” कारणों  की विवेचना कीजिये तथा अल्पीकरण के उपयुक्त उपाय सुझाइये। (2016)