ऊर्जा एवं जलवायु पर G20 की बैठक | 26 Jul 2021
प्रिलिम्स के लियेG20, ग्रीनहाउस गैस, COP 26 , पेरिस समझौता मेन्स के लियेG20 की जलवायु बैठक की प्रमुख विशेषताएँ, शहरी जलवायु कार्रवाई के अंतर्गत भारत की पहल |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में G20 की जलवायु बैठक में भारत ने 20 विकसित देशों (G20) के समूह से विश्व औसत से प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन स्तर को कम करने की अपील की है जिसका उद्देश्य विकासशील देशों के लिये कुछ कार्बन स्पेस/रिक्तिकरण प्रदान करना है।
- इससे विकासशील देशों की विकासात्मक आकांक्षाओं को बढ़ावा और समर्थन मिलेगा।
- वर्तमान में इटली G20 की अध्यक्षता कर रहा है तथा जलवायु बैठक को नवंबर 2021 में स्कॉटलैंड के ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन' के COP 26 बैठक की प्रस्तावना के रूप में देखा जा रहा है।
जी-20 (G20)
- G-20 समूह विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रतिनिधि, यूरोपियन संघ एवं 19 देशों का एक अनौपचारिक समूह है।
- G-20 समूह विश्व की प्रमुख उन्नत और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों को एक साथ लाता है। यह वैश्विक व्यापार का 75%, वैश्विक निवेश का 85%, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 85% तथा विश्व की दो-तिहाई जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है।
- G-20 के सदस्य देशों में अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, यूरोपियन यूनियन, फ्राँस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मेक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, कोरिया गणराज्य, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
- इसका कोई स्थायी सचिवालय या मुख्यालय नहीं है।
प्रमुख बिंदु
भारत का रुख:
- पेरिस समझौते को ध्यान में रखते हुए पूर्ण उत्सर्जन में तेज़ी से कटौती करने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया:
- संबंधित ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियाँ।
- प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को ध्यान में रखते हुए वादे के अनुरूप कम लागत वाली प्रौद्योगिकियों की सुपुर्दगी पर ज़ोर।
- प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अंतर और सतत् विकास के अधूरे एजेंडे को ध्यान में रखना।
- भारत ने मध्य शताब्दी तक या उसके आसपास शुद्ध शून्य GHG उत्सर्जन या कार्बन तटस्थता हासिल करने के लिये कुछ देशों द्वारा की गई प्रतिज्ञाओं को अपनाया है।
- हालाँकि तेज़ी से घटते कार्बन स्पेस या रिक्तिकरण को देखते हुए यह पर्याप्त नहीं हो सकता है।
- विकासशील देशों की वृद्धि एवं विकास संबंधी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए भारत ने G20 देशों से वर्ष 2030 तक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को वैश्विक औसत पर लाने के लिये प्रतिबद्ध होने का आग्रह किया।
- कार्बन तटस्थता का अर्थ है कार्बन सिंक हेतु कार्बन उत्सर्जन और वातावरण से कार्बन को अवशोषित करने के बीच संतुलन होना।
- कार्बन रिक्तिकरण का आशय कार्बन (या CO2) की उस मात्रा से है जिसे वार्मिंग के स्तर या CO2 की अंतर्निहित सांद्रता को प्रभावित किये बिना वातावरण में उत्सर्जित किया जा सकता है।
- जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये साझा लेकिन विभेदित उत्तरदायित्व (CBDR) पर बल दिया गया।
- 2030 तक 450 गीगावाट क्षमता की नवीकरणीय ऊर्जा प्रणाली की स्थापना, जैव-ईंधन के क्षेत्र में उन्नत आकांक्षा, भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) और शहरी जलवायु से जुड़ी कार्रवाई के संबंध में भारत द्वारा की गई अन्य विभिन्न पहलों का उल्लेख किया गया।
समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व (CBDR)
- ‘समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व’ (CBDR) ‘जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ (UNFCCC) के अंतर्गत एक सिद्धांत है।
- यह जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने में अलग-अलग देशों की विभिन्न क्षमताओं और अलग-अलग दायित्वों को स्वीकार करता है।
- ‘समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व’ का सिद्धांत 'मानव जाति की साझी विरासत' की अवधारणा से विकसित हुआ है।
- यह सिद्धांत रियो डी जनेरियो, ब्राज़ील में आयोजित ‘अर्थ समिट (1992) में प्रतिष्ठापित किया गया था।
- CBDR उत्तरदायित्वों के दो तत्त्वों पर आधारित है:
- पहला- पर्यावरण संरक्षण और सतत् विकास की चिंताओं के संबोधन में सभी राज्यों का साझा एवं समान दायित्व।
- दूसरा: विभेदित उत्तरदायित्व, जो राज्यों को पर्यावरण संरक्षण के लिये उनकी राष्ट्रीय क्षमता और प्राथमिकता के अनुसार कार्य करने में सक्षम बनाता है।
- यह सिद्धांत वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं की स्थिति में विकसित और विकासशील राज्यों के योगदान में ऐतिहासिक अंतर और इन समस्याओं से निपटने के लिये उनकी संबंधित आर्थिक एवं तकनीकी क्षमता में अंतर को मान्यता प्रदान करता है।
शहरी जलवायु कार्रवाई के अंतर्गत भारत की पहलें:
- जलवायु स्मार्ट शहरों का आकलन ढाँचा: इस पहल का उद्देश्य भारत में शहरी नियोजन एवं विकास के लिये जलवायु-संवेदनशील दृष्टिकोण विकसित करना है।
- निवेश सहित उनके कार्यों की योजना और कार्यान्वयन करते समय जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने की दिशा में शहरों के लिये स्पष्ट रोडमैप प्रदान करना।
- नेशनल मिशन ऑन सस्टेनेबल हैबिटेट: यह जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (National Climate Change Action Plan) के अंतर्गत आठ मिशनों में से एक है। इसका उद्देश्य इमारतों में ऊर्जा दक्षता में सुधार, ठोस कचरे के प्रबंधन और सार्वजनिक परिवहन में बदलाव के माध्यम से शहरों को धारणीय बनाना है।
- क्लाइमेट प्रैक्टिशनर्स इंडिया नेटवर्क: यह क्लाइमेट सेंटर फॉर सिटीज़ (सी-क्यूब) द्वारा विकसित अपनी तरह का पहला नेटवर्क है, जो पूरे भारत में शहरों और प्रैक्टिशनर्स को सपोर्ट करता है।
- सी-क्यूब भारत के सभी शहरों में जलवायु प्रैक्टिशनर्स के लिये एक मंच बनाना चाहता है ताकि जलवायु क्रियाओं को लागू करने में सहयोग और योगदान दिया जा सके।
- शहरी वानिकी: भारत सरकार ने वर्ष 2020 में नगर वन योजना (Nagar Van Scheme) की शुरुआत की। इसका लक्ष्य अगले पाँच वर्षों में देश भर में 200 शहरी वन विकसित करना है।
- शहरी वानिकी को शहरी क्षेत्रों में वृक्षों के रोपण, रखरखाव, देखभाल और संरक्षण के रूप में परिभाषित किया गया है।
- भारत ने जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिये वैश्विक सहयोग का नेतृत्व किया:
आगे की राह
- विकास-जलवायु परिवर्तन की दुविधा का समाधान: वर्तमान दुविधा भारत जैसे विकासशील देश के विकास लक्ष्यों को पूरा करते हुए कार्बन को कम करने की है।
- इसलिये महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नए निवेश कार्बनीकरण की दिशा में किये जाएँ लेकिन इसके लिये अन्य विकास उद्देश्यों के साथ संभावित तालमेल और ट्रेड-ऑफ को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये।
- जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक सामूहिक कार्रवाई समस्या: वैश्विक समुदाय को गोलपोस्ट (Goalposts) को स्थानांतरित नहीं करना चाहिये और वैश्विक जलवायु महत्त्वाकांक्षा के लिये नए मानक स्थापित नहीं करने चाहिये।
- जलवायु परिवर्तन को वैश्विक सामूहिक कार्रवाई समस्या के रूप में मान्यता देने की आवश्यकता है और इसे 'संबंधित क्षमताओं व राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार' पूरा किया जाना चाहिये।
- आपदा से निपटने की तैयारी: आपदाओं को रोका नहीं जा सकता है लेकिन अच्छी तैयारी और मज़बूत जलवायु परिवर्तन शमन नीतियाँ निश्चित रूप से भारी मात्रा में नुकसान को रोकने में मदद कर सकती हैं।
- अभिसरण दृष्टिकोण: सतत् विकास समय पर की गई जलवायु कार्रवाई पर निर्भर करता है और ऐसा होने के लिये नीति निर्माण में कार्बन उत्सर्जन, वायुमंडलीय वार्मिंग, ग्लेशियरों के पिघलने, अत्यधिक बाढ़ व तूफान के संबंध में एक अभिसरण दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।