दलित उद्यमियों के द्वारा आय असमानता का सामना | 16 Aug 2024

प्रिलिम्स के लिये:

दलित,अनुसूचित जनजाति (STs),अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs), ज्योतिबा फुले, दयानंद सरस्वती,भक्ति आंदोलन, नव-वैदांतिक आंदोलन, डॉ. बी.आर. अंबेडकर, अनुच्छेद 17

मेन्स के लिये:

सामाजिक न्याय और आर्थिक असमानताएँ, दलितों का सामाजिक उत्थान, दलितों के समक्ष चुनौतियाँ

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

भारतीय प्रबंधन संस्थान, बेंगलूरू के एक अध्ययन के अनुसार, समान शिक्षा और सामाजिक पूंजी के स्तर के बावजूद भारत में दलित व्यवसाय मालिकों को अन्य हाशिए के समूहों की तुलना में आय के महत्त्वपूर्ण अंतर का सामना करना पड़ता है। 

  • अध्ययन में दलितों के आर्थिक परिणामों पर संस्थागत कलंक के प्रभाव को रेखांकित किया गया है, तथा उनकी व्यावसायिक आय में लगातार असमानताओं पर प्रकाश डाला गया है।

अध्ययन की मुख्य बातें क्या हैं?

  • कार्य पद्धति: अध्ययन में भारत मानव विकास सर्वेक्षण (IHDS) 2011 के आँकड़ों का उपयोग किया गया है, जिसमें भारत के 373 ज़िलों के 42,000 से अधिक परिवारों को शामिल किया गया है, ताकि व्यवसाय-स्वामित्व वाले परिवारों के बीच आय असमानताओं का विश्लेषण किया जा सके।
  • संस्थागत कलंक का प्रभाव
    • अध्ययन में दलित व्यवसाय मालिकों द्वारा सामना किये जाने वाले विशिष्ट कलंक-संबंधी नकारात्मक प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है, जिनकी तुलना लैंगिक, जाति या जातीयता जैसी अन्य पहचान-आधारित चुनौतियों से नहीं की जा सकती
    • अध्ययन संस्थागत कलंक को उनके जनसांख्यिकीय समूह सदस्यता के आधार पर व्यक्तियों के प्रति पूर्वाग्रह और नकारात्मक धारणाओं के रूप में परिभाषित करता है, जो परस्पर जुड़े सामाजिक तंत्रों के माध्यम से समाज में विद्यमान है।
    • दलित व्यवसाय मालिकों को उनकी ऐतिहासिक रूप से वंचित स्थिति के कारण निम्न आय स्तर का सामना करना पड़ता है, जो संसाधनों,अवसरों और व्यक्तिगत गरिमा तक उनकी पहुँच को प्रतिबंधित करता है, जिससे उनकी आर्थिक उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है।
  • आय असमानताएँ: दलित व्यवसाय मालिकों को आय में काफ़ी अंतर का सामना करना पड़ता है, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs), अनुसूचित जनजाति (STs) और मुसलमानों जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे अन्य हाशिए पर पड़े समुदायों की तुलना में उनकी आय लगभग 16% कम है।
    • शिक्षा, भूमि स्वामित्व, शहरी परिवेश और सामाजिक वातावरण जैसे कारकों को नियंत्रित करने पर भी यह आय अंतर बना रहता है।
  • सामाजिक पूंजी: सामाजिक पूंजी लोगों के बीच संबंधों के नेटवर्क को संदर्भित करती है जो समाज या समुदाय को प्रभावी ढंग से कार्य करने में सक्षम बनाती है।
    • सामाजिक पूंजी आम तौर पर नेटवर्क और संसाधनों तक पहुँच प्रदान करके व्यवसाय मालिकों को लाभान्वित करती है; हालाँकि, दलितों को अन्य वंचित समूहों की तुलना में इन नेटवर्क से काफी कम लाभ होता है
    • सामाजिक पूंजी में एक मानक विचलन वृद्धि के परिणामस्वरूप गैर-कलंकित समुदायों के लिये व्यावसायिक आय में 17.3% की वृद्धि होती है, लेकिन दलित परिवारों के लिये सिर्फ 6% की वृद्धि होती है
  • मानव पूंजी: मानव पूंजी का तात्पर्य ज्ञान, कौशल, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूल्यवान कारकों सहित व्यक्तिगत विशेषताओं से है, जो उत्पादन प्रक्रिया में योगदान करती है।
    • अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि यद्यपि शिक्षा से दलितों को लाभ होता है, लेकिन यह कुप्रथाएँ के कारण होने वाली आय की हानि को दूर करने के लिये अपर्याप्त है
  • अध्ययन की सीमाएँ:
    • अध्ययन में सामाजिक पूंजी की माप काफी सीमित है; इसमें केवल संबंधों को ही शामिल किया गया है, उनकी मात्रा या गुणवत्ता को नहीं।
    • अध्ययन में वर्ष 2011 के डेटा का उपयोग किया गया है,जिससे वर्तमान आर्थिक गतिशीलता और जाति-आधारित आय असमानताओं में बदलाव का पूर्णरूप से मापन करना असंभव है। परिणामों की वर्तमान प्रासंगिकता का आकलन करने के लिये निष्कर्षों को नवीनतम डेटा के साथ पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता हो सकती है।

आय असमानताओं के निहितार्थ क्या हैं?

  • पारंपरिक विचारों को चुनौती: अध्ययन उस पारंपरिक दृष्टिकोण को चुनौती देता है कि जाति की पहचान आय असमानता में योगदान करने वाले कई कारकों में से एक है, इसके स्थान पर यह दलितों द्वारा सामना किये जाने वाले अद्वितीय कुप्रथाएँ-संबंधी नुकसानों को उजागर करता है।
  • निष्पक्ष आर्थिक प्रणालियों की आवश्यकता: परिणाम समतामूलक आर्थिक प्रणालियों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं, जिनकी सफलता किसी व्यक्ति की जन्म पहचान पर निर्भर नहीं होती।
    • अध्ययन में दलित समुदायों द्वारा सामना किये जाने वाले भेदभाव की अंतर्निहित प्रक्रियाओं की गहन समझ की आवश्यकता निर्धारित की गई है।
  • लक्षित हस्तक्षेप: अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि नीतिगत हस्तक्षेपों को दलितों द्वारा सामना की जाने वाली विशिष्ट कुप्रथाएँ-संबंधी चुनौतियों को समाधान करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, न कि सार्वभौमिक रणनीतियों पर निर्भर रहना चाहिये जो आय के अंतर को प्रभावी रूप से कम नहीं कर सकती हैं।
    • इन परिणामों से इस बात की अधिक जाँच का मार्ग प्रशस्त होता है कि कुप्रथाएँ आर्थिक परिणामों को किस प्रकार प्रभावित करता है, ताकि भारत में वंचित वर्गों को अधिक सहायता प्रदान की जा सके।

दलित कौन हैं?

  • दलित, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से "अछूत" कहा जाता है, भारत में एक हाशिये पर स्थित समूह है जो पारंपरिक जाति पदानुक्रम में सबसे नीचे है। इस समूह को सदियों से प्रणालीगत भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक अभाव का सामना करना पड़ा है।
    • भारत की आबादी में दलित समुदाय का लगभग 16.6% हिस्सा हैं। वे मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में केंद्रित हैं।
  • "दलित" शब्द का ऐतिहासिक विकास: 
    • "दलित" शब्द संस्कृत शब्द "दल" से निकला है, जिसका अर्थ है "ज़मीन", "दबाया हुआ" या "कुचल दिया हुआ।" इसका प्रयोग पहली बार 19वीं सदी के समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने जाति व्यवस्था से पीड़ित लोगों का वर्णन करने के लिये किया था।
      • पूरे इतिहास में दलितों को कई नामों से जाना जाता रहा है, जिनमें अंत्यज, परिया और चांडाल शामिल हैं। 
      • महात्मा गांधी ने दलितों का वर्णन करने के लिये "हरिजन" (ईश्वर की संतान) शब्द का प्रयोग किया। हालाँकि इसका उद्देश्य अधिक सम्मान देना था, लेकिन दलित नेताओं सहित कई लोगों ने इसे संरक्षणात्मक और अपर्याप्त रूप से सशक्त बनाने वाला पाया।
  • अनुसूचित जातियाँ: ब्रिटिश प्रशासन ने वर्ष 1935 में इन समूहों को आधिकारिक तौर पर "अनुसूचित जातियाँ" के रूप में मान्यता दी, जिससे कानूनी ढाँचे के भीतर उनकी स्थिति औपचारिक हो गई। 
    • वर्तमान में  कानूनी तौर पर दलितों को भारत में अनुसूचित जाति के रूप में जाना जाता है और संविधान में प्रतिपूरक कार्यक्रमों के लिये इन जातियों की एक सूची अनिवार्य है। वर्तमान में भारत में लगभग 166.6 मिलियन दलित हैं।
      • हालांकि इस सूची में ईसाई और इस्लाम में धर्मांतरित दलितों को शामिल नहीं किया गया है, इसमें सिख धर्म अपनाने वाले लोग शामिल हैं।
      • संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 में कहा गया है कि केवल हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म को मानने वाले व्यक्ति ही अनुसूचित जाति के सदस्य माने जाते हैं।
  • दलित उत्पीड़न:
    • जाति व्यवस्था: दलित उत्पीड़न की जड़ें जाति व्यवस्था की उत्पत्ति में निहित हैं, जैसा कि मनुस्मृति में वर्णित है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का एक हिंदू ग्रंथ है। दलितों को ऐतिहासिक रूप से निम्न कार्यों तक ही सीमित रखा गया था।
      • पारंपरिक वर्ण व्यवस्था में अछूतों को पंचम वर्ण के रूप में वर्गीकृत किया गया था, जो समाज में सबसे निचले पायदान पर थे। उन्हें नीच और प्रदूषणकारी व्यवसायों में धकेल दिया गया और उन्हें गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ा।
    • स्वतंत्रता-पूर्व भारत में प्रमुख दलित आंदोलन:
      • भक्ति आंदोलन: 15वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन ने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया और रूढ़िवादी हिंदू धर्म को चुनौती दी। इसमें सगुण (साकार इश्वर) और निर्गुण (निराकार इश्वर) परंपराएँ शामिल थीं।
        • रविदास और कबीर जैसे संत, जिन्होंने सामाजिक समानता और आध्यात्मिक मोक्ष का समर्थन  करके दलितों को प्रेरित किया।
      • नव-वैदांतिक आंदोलन: दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों द्वारा शुरू किये गए इन आंदोलनों का उद्देश्य जाति व्यवस्था के भीतर अस्पृश्यता को खत्म करना था।
        • वर्ष 1875 में दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज का उद्देश्य जाति व्यवस्था को अस्वीकार करके और सामाजिक समानता को बढ़ावा देकर हिंदू धर्म में सुधार करना था।
        • वर्ष 1873 में ज्योतिबा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज, ने  गैर-ब्राह्मणों को ब्राह्मणवादी प्रभुत्व से मुक्त करने का प्रयास किया।
          • इसने निचली जातियों के उत्थान के लिये शैक्षिक और सामाजिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया तथा मौजूदा जाति पदानुक्रमों को चुनौती दी।
      • संस्कृतिकरण के लिये आंदोलन: एम.एन. श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण को निम्न जाति के समूहों द्वारा अपनी स्थिति को ऊपर उठाने के लिये उच्च जाति के रीति-रिवाजों को अपनाने के रूप में परिभाषित किया। 
        • दलित नेताओं ने सामाजिक मुखरता और उत्थान के रूप में ब्राह्मणवादी प्रथाओं (जैसे, शाकाहार) का अनुसरण किया
      • गांधी का योगदान: उन्होंने छुआछूत की आलोचना की और दलितों के उत्थान की दिशा में काम करने के लिये वर्ष 1932 में हरिजन सेवक संघ की स्थापना की
        • महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और उनका उद्देश्य दलितों को समाज में मुख्यधारा के रूम में एकीकृत करना था।
      • डॉ. बी.आर. अंबेडकर का योगदान: उन्होंने दलित अधिकारों के लिये विभिन्न आंदोलनों और कानूनी लड़ाइयों का नेतृत्त्व किया, जिनमें महाड़ सत्याग्रह (1927) और कालाराम मंदिर सत्याग्रह (1930) शामिल हैं।
        • डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने बहिष्कृत भारत और समाज समता संघ की स्थापना की और राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिये अनुसूचित जाति महासंघ की स्थापना की।

समकालीन भारत में दलितों के सामने क्या चुनौतियाँ विद्यमान हैं?

  • सामाजिक भेदभाव और बहिष्कार: दलितों को अक्सर गाँवों और शहरी क्षेत्रों में अलग-थलग तथा  सार्वजनिक स्थानों से बहिष्कृत कर दिया जाता है एवं उन्हें अस्पृश्यता संबंधी प्रथाओं का सामना करना पड़ता है
    • संकट के समय भी भेदभाव जारी रहता है जैसे कि वर्ष 2004 की सुनामी, जिसमें तमिलनाडु में दलितों को राहत प्रयासों से गंभीर रूप से वंचित रखा गया था।
  • आर्थिक शोषण: कई दलित कर्ज़ के कारण बंधुआ मज़दूर के रूप में कार्य करते हैं जबकि वर्ष 1976 में इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उन्हें अक्सर न्यूनतम या कोई मज़दूरी नहीं मिलती है तथा विरोध करने पर उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है।
    • लगभग 80% दलित समुदाय ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं, मुख्य रूप से भूमिहीन मजदूरों या सीमांत किसानों के रूप में  जिससे वे आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं।
    • कानूनी निषेध के बावज़ूद कई दलितों के लिये हाथ से मैला ढोना एक प्रचलित और अपमानजनक व्यवसाय बना हुआ है।
    • "भारत में आय और संपत्ति असमानता" रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष 1% भारतीयों को वर्ष 2022 में राष्ट्रीय आय का 22.6% प्राप्त हुआ, जो वर्ष 1951 में 11.5% था, इसी अवधि में मध्यम स्तर 40% की आय का अनुपात 42.8% से घटकर 27.3% हो गया, जबकि निचले स्तर  50% की आय का हिस्सा 20.6% से घटकर 15% हो गया।
      • ये आँकड़े बढ़ते आय अंतर को रेखांकित करते हैं, जिसने दलितों सहित सभी वंचित समुदायों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
  • राजनीतिक भेदभाव: राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण के बावज़ूद दलित मुद्दों को अक्सर राजनीतिक दलों द्वारा दरकिनार कर दिया जाता है।
    • हालाँकि हाल के वर्षों में राजनीतिक लामबंदी हुई है और दलित नेताओं का उदय हुआ है, लेकिन बहुसंख्यक दलितों के लिये वास्तविक लाभ अभी भी सीमित हैं।
  • अप्रभावी कानून: नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 जैसे कानून राजनीतिक इच्छाशक्ति और संस्थागत समर्थन की कमी के कारण अप्रभावी तरीके से लागू किये जाते हैं।
  • न्यायिक स्तर पर अन्याय: जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर भेदभाव के कारण दलित महिलाओं को गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें अक्सर यौन शोषण एवं हिंसा का सामना करना पड़ता है, इन अपराधों के लिये अपराध दर भारत में अन्य महिलाओं की तुलना में काफी अधिक है
    • कुछ क्षेत्रों में युवा दलित लड़कियों को धार्मिक या सांस्कृतिक प्रथाओं के आधार पर   वेश्यावृत्ति में धकेला जाता है।
  • प्रवासन एवं शहरी चुनौतियाँ: कई दलित परिवार शहरों की ओर पलायन करते हैं, जहाँ वे अक्सर शहरी स्लम क्षेत्रों में रहते हैं, जहाँ वे न्यूनतम सुरक्षा के साथ सबसे कम वेतन वाली नौकरियाँ करते हैं।
    • हालाँकि शहरों में दलित मध्यम वर्ग में वृद्धि हो रही है, जो शिक्षा तक पहुँच प्राप्त कर रहा है और सार्वजनिक सेवा, बैंकिंग और निजी उद्योगों में सुरक्षित रोज़गार प्राप्त कर रहा है।

भारत में दलितों के लिये क्या पहल और योजनाएँ हैं?

आगे की राह 

  • अमेरिका में अश्वेत पूंजीवाद: आपूर्ति शृंखलाओं में लक्षित समावेशन द्वारा समर्थित अमेरिका में अश्वेत उद्यमिता का अनुभव, इस बात का एक मॉडल प्रस्तुत करता है कि कैसे इसी तरह के उपाय भारत में दलित व्यवसायों को लाभ पहुँचा सकते हैं।
    • जबकि कुछ भारतीय निगमों ने दलित व्यवसायों का समर्थन करने में सकारात्मक संकेत दिखाए हैं लेकिन व्यापक और अधिक प्रणालीगत परिवर्तनों की आवश्यकता है।
  • नेटवर्क तक पहुँच बढ़ाना: दलित उद्यमियों को औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों सहित व्यापक व्यावसायिक नेटवर्क में एकीकृत करने के लिये पहल विकसित करें। बड़ी निगमों को अपनी आपूर्ति शृंखलाओं और खरीद प्रक्रियाओं में दलित व्यवसायों को सक्रिय रूप से शामिल करने के लिये प्रोत्साहित करें।
  • वित्तीय सहायता में सुधार: सुनिश्चित करना कि स्टैंड अप इंडिया पहल बेहतर निगरानी के साथ प्रभावी ढंग से लागू की जाए।
  • दलित उद्यमियों के सामने आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिये वैकल्पिक वित्तपोषण तंत्रों की खोज करें और जोखिम पूंजी प्रदान करें।
  • सामाजिक भेदभाव को खत्म करना: ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करें जो बाज़ार प्रणालियों के भीतर जाति-आधारित भेदभाव को कम करते हैं और दलित उद्यमियों के साथ समान व्यवहार को बढ़ावा देते हैं।
  • नीति एकीकरण: आर्थिक सशक्तीकरण पहलों को व्यापक सामाजिक न्याय लक्ष्यों के साथ संरेखित करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बाज़ार में प्रगति सामाजिक असमानताओं को दूर करने में भी योगदान दे।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: दलित उद्यमियों के विशेष संदर्भ में आर्थिक परिणामों पर संस्थागत कुप्रथाएँ के प्रभाव की जाँच कीजिये। नीतिगत हस्तक्षेप इन चुनौतियों का समाधान कैसे कर सकते हैं?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न . 'स्टैंड अप इंडिया स्कीम (Stand Up India Scheme)' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

  1. इसका प्रयोजन SC/ST एवं महिला उद्यमियों में उद्यमिता को प्रोत्साहित करना है।
  2. यह SIDBI के माध्यम से पुनर्वित्त का प्रावधान करता है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये।

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर (c)


मेन्स

प्रश्न 1. क्या बहु-सांस्कृतिक भारतीय समाज को समझने में जाति ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है? उदाहरणों के साथ अपने उत्तर को विस्तृत कीजिये। (2020)

प्रश्न 2."जाति व्यवस्था नई पहचान और संघात्मक रूप ग्रहण कर रही है। इसलिये भारत में जाति व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता।" टिप्पणी कीजिये।(2018)

प्रश्न 3. इस मुद्दे पर चर्चा कीजिये कि क्या और कैसे दलित पहचान हेतु समकालीन आंदोलन जाति के उन्मूलन की दिशा में कार्य करते हैं। (2015)

प्रश्न 4. महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अंबेडकर के अलग-अलग दृष्टिकोण और रणनीति होने के बावज़ूद, दलितों के उत्थान का एक ही लक्ष्य था। स्पष्ट कीजिये।2015)