तटीय अनुकूलन | 31 Oct 2023

प्रिलिम्स के लिये:

भारत के तटीय पारिस्थितिकी तंत्र, तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना- 2019, तटीय प्रबंधन सूचना प्रणाली, मैंग्रोव

मेन्स के लिये:

तटीय अनुकूलन से होने वाले लाभ, तटीय प्रबंधन से संबंधित भारत सरकार की पहल।

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

चर्चा में क्यों? 

नेचर क्लाइमेट चेंज जर्नल  में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में कई क्षेत्रों में तटीय अनुकूलन पहल पर ज़ोर दिया गया है, जिसमें मुंबई, सुंदरबन में घोरमारा, ओडिशा में पुरी और कोंकण क्षेत्र जैसे भारतीय तटीय क्षेत्र शामिल हैं तथा उनके प्रयासों को 'मध्यम-से-उच्च' अनुकूलन उपायों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष:  

  • निम्न तटीय क्षेत्रों पर प्रभाव: 
    • निम्न तटीय क्षेत्र में, जहाँ बाढ़ का खतरा है, वैश्विक जनसंख्या घनत्व का लगभग 11% हिस्सा निवास करता है और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में लगभग 14% का योगदान करते हैं।
  • विश्व में क्षेत्रीय अनुकूलन असमानताएँ:
    • सर्वेक्षण किये गए लगभग 50% क्षेत्रों में अनुकूलन में काफी अंतर दिखाई दिया, जिसमें भेद्यता के मूल कारणों की अनदेखी करते हुए व्यक्तिगत जोखिमों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • लगभग 13% केस स्टडीज़ ने उच्चतम स्तर के अनुकूलन का खुलासा किया, जो मुख्य रूप से यूरोप और उत्तरी अमेरिका में लक्षित हुए। 
    • ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड सहित अन्य शेष मध्यम श्रेणी में आ गए
  • विशिष्ट भारतीय तटीय क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न अनुकूलन स्थितियाँ:
    • भारत से मुंबई, पुरी, कोंकण और सुंदरबन के घोरमारा क्षेत्र में अलग-अलग अनुकूलन उपायों का प्रदर्शन किया गया।
      • घोरमारा ने सामान्य अनुकूलन योजनाएँ प्रदर्शित कीं, जिनमें स्थानीय स्तर पर राज्य-एजेंसी की विशिष्ट रणनीतियों का अभाव था।
      • कोंकण क्षेत्र में भी अनुकूलन योजनाओं का अभाव है, जिससे राज्य की कार्य योजना में कई तटीय खतरों की उपेक्षा की गई है।
      • जबकि मुंबई के पास जलवायु कार्य योजना मौजूद है,  फिर भी इसकी अनुकूलन रणनीतियाँ जोखिमों का सटीक मूल्यांकन करने और सुभेद्य निवासियों की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति करने में विफल रहीं।
      • पुरी में कार्य योजनाएँ होने के बावजूद, क्षेत्र-विशिष्ट अनुकूलन रणनीतियों और उच्च जोखिम वाले समुदायों की पहचान का अभाव था।

तटीय अनुकूलन

  • परिचय: 
    • तटीय अनुकूलन में तटीय क्षेत्रों पर प्राकृतिक खतरों एवं जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने तथा इसे कम करने के लिये की गई रणनीतियाँ और कार्रवाइयाँ शामिल हैं, जिसका उद्देश्य समुदायों तथा बुनियादी ढाँचे को बढ़ते समुद्र के स्तर, क्षरण एवं चरम मौसमी घटनाओं से बचाना है।
      • इसके अतिरिक्त, तटीय अनुकूलन उपायों में कई प्रकार के आर्थिक अवसर उत्पन्न करने की क्षमता है।
  • तटीय अनुकूलन से होने वाले लाभ:
    • आर्थिक विविधीकरण: तटीय अनुकूलन पहलों के कार्यान्वयन से जलवायु-समुत्थानशील बुनियादी ढाँचे, नवीकरणीय ऊर्जा और पर्यावरण-पर्यटन से संबंधित नए उद्योगों के निर्माण के माध्यम से आर्थिक विकास को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे संभावित रूप से रोज़गार एवं व्यापार के अवसर उत्पन्न हो सकते हैं।
    • जैवविविधता संवर्धन: प्रभावी तटीय अनुकूलन अप्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की बहाली और संरक्षण का कारण बन सकता है।
      • यह पुनर्स्थापन स्थानीय प्रजातियों को संरक्षित करने और लुप्तप्राय या सुभेद्य प्रजातियों के लिये आवासों के विकास को बढ़ावा देने में सहायता करती है।
    • आपदा जोखिम न्यूनीकरण और समुत्थानशक्ति निर्माण: तटीय समुदायों की आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता को कम करने में तटीय अनुकूलन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
      • लचीले बुनियादी ढाँचे, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और प्राकृतिक बाधाओं के निर्माण जैसे उपायों को लागू करके, यह तूफान, सुनामी तथा समुद्र के स्तर में वृद्धि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने में सहायता करता है।
      • इन आपदाओं से जुड़े खतरों को कम करके, तटीय लचीलेपन को मज़बूत करने से लोगों के जीवन, संपत्ति और आजीविका के साधनों की रक्षा होती है।
    • स्थायी खाद्य स्रोत और आजीविका: प्रभावी तटीय अनुकूलन, विशेष रूप से एक्वाकल्चर, स्थायी मत्स्यन एवं तटीय क्षेत्रों में एकीकृत कृषि जैसी प्रथाएँ, समुद्री भोजन तथा कृषि उपज की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित कर सकती हैं।
      • यह तटीय समुदायों के लिये आजीविका सुरक्षित करता है और वैश्विक खाद्य सुरक्षा में योगदान देता है।
  • संबंधित चुनौतियाँ:
    • जटिल हितधारक समन्वय: तटीय अनुकूलन में सरकारी निकायों, स्थानीय समुदायों, व्यवसायों और पर्यावरण समूहों सहित कई हितधारक शामिल होते हैं।
      • इन विविध हितों का समन्वय करना और उनके बीच प्रभावी सहयोग सुनिश्चित करना अलग-अलग प्राथमिकताओं के कारण सामान्यतः मुश्किल होता है, जिससे सहयोग में देरी तथा हितों में टकराव उत्पन्न हो सकता है।
    • भविष्य के जलवायु अनुमानों में अनिश्चितता: समुद्र के स्तर में वृद्धि और चरम मौसम की घटनाओं सहित भविष्य के जलवायु परिदृश्यों की भविष्यवाणी करना एक चुनौती है।
      • दीर्घकालिक रणनीतियों की योजना बनाते समय अनिश्चित जलवायु अनुमानों को अपनाना एक जटिल कार्य हो सकता है, जिससे बुनियादी ढाँचे और विकास योजना में अनिश्चितताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। 
    • सामुदायिक विखंडन और सामाजिक सामंजस्य: कुछ मामलों में तटीय अनुकूलन पहल के कारण भूमि उपयोग में स्थानांतरण या परिवर्तन से समुदायों का विखंडन हो सकता है।
      • जनसंख्या फैलाव या स्थानांतरण सामाजिक संरचनाओं और एकजुटता को बाधित करके समुदाय के लचीलेपन तथा सांस्कृतिक प्रथाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

तटीय प्रबंधन से संबंधित भारत सरकार की पहलें: 

  • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने जलवायु परिवर्तन के कारण तटरेखा परिवर्तन का प्रबंधन करने के लिये भारत के तटों के लिये खतरे की रेखा का निर्धारण किया है।
  • तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना, 2019 का उद्देश्य तटीय क्षेत्रों और आजीविका का संरक्षण करना है साथ ही नो डेवलपमेंट ज़ोन को परिभाषित करते हुए क्षरण नियंत्रण उपायों की अनुमति देना है।
  • तटीय प्रबंधन सूचना प्रणाली (CMIS) संवेदनशील हिस्सों पर सुरक्षा संरचनाओं को डिज़ाइन करने और बनाए रखने के लिये तट के निकट तटीय डेटा को एकत्र करती है।
  • पुडुचेरी और केरल में सफल तटीय क्षरण शमन उपायों का प्रदर्शन किया गया, जिससे तटीय क्षेत्रों की बहाली एवं सुरक्षा में सहायता मिली।

आगे की राह:

  • प्रकृति-आधारित समाधान (Nature-Based Solutions- NBS): प्रकृति-आधारित समाधानों पर ज़ोर देना चाहिये जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं के विरुद्ध प्रतिक्रिया करने के बजाय उनके सहायक के रूप में योगदान करें।
    • मैंग्रोव, ज्वारीय दलदल एवं टीलों की बहाली जैसी रणनीतियों को लागू करने से लागत प्रभावी और पर्यावरण के अनुकूल तटीय सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।
  • समुदाय-केंद्रित दृष्टिकोण: तटीय अनुकूलन उपायों के डिज़ाइन और कार्यान्वयन में स्थानीय समुदायों को शामिल करने की आवश्यकता है।
    • उन्हें निर्णय लेने में सहायता के लिये विज्ञान संबंधी ज्ञान और संसाधन प्रदान करें, क्योंकि उन्हें पहले से ही संबद्ध क्षेत्र का पारंपरिक ज्ञान है।
  • उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग: तटीय परिवर्तनों को बेहतर ढंग से समझने और पूर्वानुमान के लिये रिमोट सेंसिंग, कृत्रिम बुद्धिमत्ता एवं पूर्वानुमानित मॉडलिंग जैसी नवीन तकनीकों का उपयोग करें।
    • ये उपकरण अधिक सटीक योजना और समस्या समाधान के लिये डेटा प्रदान कर सकते हैं।
  • हाइब्रिड इंजीनियरिंग सॉल्यूशंस: पारंपरिक हार्ड इंफ्रास्ट्रक्चर और इनोवेटिव हाइब्रिड इंजीनियरिंग सॉल्यूशंस को एकीकृत करना चाहिये।
    • उदाहरण के लिये पारंपरिक संरचनाओं में कृत्रिम भित्तियों जैसी प्राकृतिक विशेषताओं को एकीकृत करने से जैवविविधता को बढ़ावा देते हुए तटीय सुरक्षा को बेहतर किया जा सकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के निम्नलिखित क्षेत्रों में से किस एक में मैंग्रोव वन, सदापर्णी वन और पर्णपाती वनों का संयोजन है? (2015)

(a) उत्तर तटीय आंध्र प्रदेश
(b) दक्षिण-पश्चिम बंगाल
(c) दक्षिणी सौराष्ट्र
(d) अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह 

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न. आपदा प्रबंधन में पूर्ववर्ती प्रतिक्रियात्मक उपागम से हटते हुए भारत सरकार द्वारा आरंभ किये गये अभिनूतन उपायों की विवेचना कीजिये। (2020)