भारतीय राजव्यवस्था
उच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश
- 27 Jan 2025
- 18 min read
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय (SC), उच्च न्यायालय, अनुच्छेद 224A, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश, कॉलेजियम प्रणाली, नीति आयोग, ज़िला न्यायालय, वाइड एरिया नेटवर्क (WAN), वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR), मध्यस्थता, लोक अदालतें, मध्यस्थता अधिनियम, 2023, मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015, विशेष अनुमति याचिकाएँ (SLP), मलिमथ समिति, भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIAI) । मेन्स के लिये:न्यायपालिका के समक्ष लंबित मामलों को निपटाने में तदर्थ न्यायाधीशों की भूमिका, लंबित मामलों के पीछे के कारण एवं लंबित मामलों को कम करने के लिये आगे की राह। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने कई उच्च न्यायालयों में लंबित आपराधिक मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए अस्थायी तौर पर तदर्थ (आवश्यकतानुसार) आधार पर सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का सुझाव दिया है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्तियों को विशिष्ट मामलों तक सीमित करने के अपने वर्ष 2021 के फैसले को संशोधित करने का सुझाव दिया।
उच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीशों के संबंध में मुख्य बिंदु क्या हैं?
- परिचय: तदर्थ न्यायाधीश किसी न्यायालय में नियुक्त अस्थायी न्यायाधीश होते हैं, जिन्हें आमतौर पर विशिष्ट आवश्यकताओं (जैसे लंबित मामलों को कम करना या स्थायी न्यायाधीशों के उपलब्ध न होने पर रिक्तियों को भरना) को पूरा करने के लिये नियुक्त किया जाता है।
- संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 224A के तहत किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को राष्ट्रपति की मंज़ूरी (सेवानिवृत्त न्यायाधीश की सहमति के साथ) से अस्थायी रूप से सेवा करने के लिये उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को नियुक्त करने की अनुमति दी गई है।
- प्रक्रिया: यह मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (MOP) 1998 में उल्लिखित है, जिसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली के बाद बनाया गया था।
- MOP में कहा गया है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा नियुक्ति पर सहमति देने के बाद, मुख्य न्यायाधीश को उनका नाम एवं नियुक्ति की अवधि का विवरण राज्य के मुख्यमंत्री को भेजना होगा।
- मुख्यमंत्री यह सिफारिश केंद्रीय कानून मंत्री को भेजेंगे, जो सिफारिश और CJI की सलाह को भारत के प्रधानमंत्री को भेजने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) से परामर्श करेंगे।
- प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को सलाह देंगे कि उन्हें मंजूरी देनी है या नहीं।
- लोक प्रहरी बनाम भारत संघ मामले, 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये सिफारिशें सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के माध्यम से होनी चाहिये।
- कॉलेजियम प्रणाली के तहत उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के कॉलेजियम से परामर्श करना चाहिये।
- प्रक्रिया की शुरुआत: लोक प्रहरी बनाम भारत संघ मामले, 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्ति प्रक्रिया शुरू करने के लिये निम्नलिखित आवश्यकताएँ निर्धारित कीं।
- रिक्ति सीमा: न्यायाधीशों के स्वीकृत पद के 20% से अधिक पद रिक्त हैं।
- लंबित मामले: लंबित मामलों में से 10% से अधिक, 5 वर्ष से अधिक पुराने हों।
- नियमित नियुक्तियाँ: तदर्थ नियुक्ति प्रक्रिया, नियमित न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया शुरू होने के बाद ही शुरू की जा सकती है।
- चयन प्रक्रिया: प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को तदर्थ नियुक्तियों के लिये सेवानिवृत्त या जल्द ही सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीशों का एक पैनल बनाना चाहिये।
- चूंकि मनोनीत व्यक्ति पूर्व न्यायाधीश होते हैं इसलिये नियुक्ति प्रक्रिया में खुफिया ब्यूरो की जाँच की आवश्यकता नहीं होगी, जिससे प्रक्रिया छोटी हो जाएगी।
कार्यकाल: तदर्थ न्यायाधीशों का कार्यकाल आमतौर पर दो से तीन वर्ष निर्धारित है, उच्च न्यायालय में लंबित पदों और रिक्तियों के आधार पर यह दो से पाँच वर्ष तक हो सकता है।
- भूमिका और कर्तव्य: तदर्थ न्यायाधीश पाँच वर्ष से अधिक पुराने मामलों की सुनवाई कर सकते हैं और वे अन्य विधिक कार्य, जैसे परामर्श, मध्यस्थता या ग्राहक प्रतिनिधित्व किया जाने से प्रतिबंधित किये गए हैं।
- उपलब्धियाँ और भत्ते: तदर्थ न्यायाधीशों को पेंशन के अतिरिक्त, उस उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के बराबर उपलब्धियाँ और भत्ते प्राप्त होते हैं।
- पूर्व की नियुक्तियाँ: अनुच्छेद 224A के तहत केवल तीन तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई है और सर्वोच्च न्यायालय ने इसे "निष्क्रिय प्रावधान" कहा है।
- न्यायमूर्ति सूरजभान को वर्ष 1972 में चुनाव याचिकाओं की सुनवाई के लिये एक वर्ष के लिये मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया था।
- वर्ष 1982 में न्यायमूर्ति पी. वेणुगोपाल को मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया जिनका वर्ष 1983 में एक वर्ष के लिये कार्यकाल बढ़ाया गया।
- अयोध्या भूमि विवाद की सुनवाई के लिये न्यायमूर्ति ओपी श्रीवास्तव की वर्ष 2007 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्ति की गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश (अनुच्छेद 127)
- जब सर्वोच्च न्यायालय के किसी सत्र को आयोजित करने या जारी रखने के लिये स्थायी न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त नहीं होती है, तो भारत का मुख्य न्यायाधीश किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को अस्थायी अवधि के लिये सर्वोच्च न्यायालय का तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।
- वह ऐसा केवल संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श तथा राष्ट्रपति की पूर्व सहमति के पश्चात् ही कर सकता है।
- इस प्रकार नियुक्त न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये अर्हित होना चाहिये।
- इस प्रकार नियुक्त न्यायाधीश का यह कर्तव्य है कि वह अपने पद के अन्य कर्तव्यों की अपेक्षा सर्वोच्च न्यायालय की बैठकों में उपस्थित रहे।
- इसमें भाग लेने के दौरान, उसे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सभी अधिकार क्षेत्र, शक्तियाँ और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं (और वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है)।
भारत में लंबित मामलों की स्थिति क्या है?
- लंबित मामले: वर्ष 2024 तक, भारत के विभिन्न न्यायालयों में 51 मिलियन (5.1 करोड़) से अधिक लंबित मामले हैं, जिनमें ज़िला और उच्च न्यायालय दोनों शामिल हैं।
- इस लंबित मामले में 169,000 से अधिक ऐसे मामले शामिल हैं जो 30 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।
- अधिकांश मामले (लगभग 87% या 4.5 करोड़ ) ज़िला न्यायालयों में हैं ।
- निपटान की दर: नीति आयोग की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार अनुमानित रूप से लंबित मामलों को निपटाने में 324 वर्ष से अधिक का समय लगेगा, जो उस समय 29 मिलियन था।
- न्यायिक विलंब के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद के अनुमानतः 1.5% से 2% का नुकसान होता है।
- प्रभाव: न्यायिक प्रणाली में देरी के कारण समय पर न्याय नहीं मिल पाता तथा न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास कम होता है।
- विधि नियम सूचकांक, 2023 में भारत नागरिक न्याय में 111 वें तथा आपराधिक न्याय में 93वें स्थान पर है, जो न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी के विषय में वैश्विक चिंताओं को उजागर करता है।
- मामले लंबित रहने के कारण:
- जनवरी 2024 तक भारत के 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के स्वीकृत पद 1,114 थे, परंतु वर्तमान में केवल 783 पद ही भरे हुए हैं। वर्ष 2023 तक ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में 5,000 से अधिक रिक्तियाँ थीं।
- बुनियादी ढाँचे का अभाव: 10 राज्यों के 20 ज़िला न्यायालयों में किये गए अध्ययन में पाया गया कि केवल 45% न्यायिक अधिकारियों के पास इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले सुविधाएँ हैं, तथा 32.7% न्यायालय परिसरों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा नहीं है।
- न्यायिक जवाबदेही का अभाव: न्यायाधीशों को हटाने के लिये महाभियोग प्रक्रिया का उपयोग शायद ही कभी किया गया है और महाभियोग के दायरे में न आने वाले साधारण मुद्दों के समाधान हेतु अपर्याप्त प्रावधान हैं।
- कथित भ्रष्टाचार और सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति संबंधी विवादों से न्यायपालिका में पारदर्शिता की मांग बढ़ गई है।
- न्याय तक पहुँच में बाधाएँ: वर्ष 2022 तक भारत की जेलों में बंद 76% कैदी विचाराधीन होंगे, जिनमें से अधिकांश वंचित समुदायों से होंगे, जिसका कारण उच्च लागत, जटिल प्रक्रियाएँ और भाषा संबंधी बाधाएँ आती हैं।
लंबित मामलों को कम करने के लिये क्या पहल की गई हैं?
- न्याय प्रदान करने और कानूनी सुधार हेतु राष्ट्रीय मिशन: अगस्त 2011 में आरंभ की गई इस पहल का उद्देश्य बुनियादी ढाँचे में सुधार और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर न्यायिक विलंब और अधिशेष को कम करना है।
- ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना: यह न्यायालय प्रक्रियाओं को सक्षम बनाने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिये सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) का लाभ उठाती है। प्रमुख घटकों में शामिल हैं:
- न्यायालय परिसरों में वाइड एरिया नेटवर्क (WAN) कनेक्टिविटी
- आभासी न्यायालयों की स्थापना।
- टेली-लॉ प्रोग्राम: वर्ष 2017 में लॉन्च किये गए इस कार्यक्रम का उद्देश्य वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, फोन और मोबाइल ऐप के माध्यम से वंचित समुदायों को विधिक सलाह प्रदान करना है।
- ADR तंत्र: सरकार ने माध्यस्थम, मध्यस्थता और लोक अदालतों जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्रों को सुदृढ़ किया है ।
- फास्ट ट्रैक कोर्ट: इनकी स्थापना विशिष्ट मामलों की सुनवाई में तेजी लाने के लिये की गई थी, जिसमें जघन्य अपराध, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध तथा सांसदों/विधायकों से जुड़े अपराध शामिल थे।
आगे की राह
- SLP के लिये राष्ट्रीय अपील न्यायालय: बिहार लीगल सपोर्ट सोसाइटी बनाम भारत के मुख्य न्यायाधीश (1986) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिकाओं (SLP) की सुनवाई के लिये राष्ट्रीय अपील न्यायालय की स्थापना का सुझाव दिया था।
- इससे उच्चतम न्यायालय को केवल संवैधानिक और सार्वजनिक कानून से संबंधित मुद्दों की सुनवाई तक सीमित रहना पड़ेगा, जिससे न्यायालय का कार्यभार काफी कम हो जाएगा और लंबित मामलों का अधिक कुशलतापूर्वक समाधान हो सकेगा।
- सांविधिक और विधिक प्रभाग: भारत के दसवें विधि आयोग, 1981 ने उच्चतम न्यायालय को दो प्रभागों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा: जिसमें सांविधिक मामलों के लिये एक सांविधिक प्रभाग और अन्य विधिक मुद्दों के लिये एक विधिक प्रभाग शामिल है।
- इससे सांविधिक मुद्दों को विशेष पीठ को सौंपकर न्यायिक प्रक्रिया को सुचारू बनाया जा सकेगा, जिससे इन मामलों का तेजी से निपटारा सुनिश्चित होगा।
- कार्यदिवसों की संख्या में वृद्धि: मलिमथ समिति ने लंबित मामलों की संख्या को कम करने के लिये उच्चतम न्यायालय में 206 दिन कार्य करने तथा अवकाश में 21 दिन की कटौती करने की सिफारिश की थी।
- विधि आयोग की 2009 की 230वीं रिपोर्ट में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने के लिये सभी न्यायिक स्तरों पर न्यायालयी अवकाश को 10-15 दिन तक कम करने की सिफारिश की गई थी।
- न्यायिक अवसंरचना के लिये समर्पित प्राधिकरण: भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने भारत की न्यायिक प्रणाली में महत्त्वपूर्ण अवसंरचना अंतराल को दूर करने के लिये भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIAI) की स्थापना का प्रस्ताव रखा।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में विशाल संख्या में लंबित मामलों के पीछे के कारणों की जाँच कीजिये। लंबित मामलों की समस्या से निपटने के लिये आवश्यक प्रमुख सुधारों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न 1. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्सQ. भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर उच्चतम न्यायालय के फैसले का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |