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भारतीय अर्थव्यवस्था

निवारक निरोध हेतु नए मानक

  • 16 Sep 2024
  • 19 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, निवारक निरोध, विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी निवारण अधिनियम, 1974, अनुच्छेद 22 (5), मौलिक अधिकार, संसद, राज्य विधानमंडल, 44वाँ संशोधन अधिनियम, 1978, गैर-कानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम (UAPA), 1967, अनुच्छेद 21।

मेन्स के लिये:

निवारक निरोध कानूनों के साथ लोकतांत्रिक सिद्धांतों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संतुलित करने में न्यायपालिका की भूमिका।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, जसीला शाजी बनाम भारत संघ मामले, 2024 में  सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा निवारक निरोध हेतु नए मानक स्थापित किये गए।

निवारक निरोध हेतु नए मानक क्या हैं?

  • निष्पक्ष और प्रभावी अवसर: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संबंधित प्राधिकारी द्वारा हिरासत में लिये गए व्यक्ति को हिरासत के लिये आवश्यक सभी दस्तावेज़ों  की प्रतियाँ उपलब्ध करानी होंगी और ऐसा नहीं किये जाने पर हिरासत को अमान्य कर दिया जाएगा।
  • संवैधानिक अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय ने ज़ोर देकर कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक सर्वोपरि संवैधानिक अधिकार है। हिरासत को प्रभावी ढंग से चुनौती देने के लिये सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ और जानकारी प्रदान करने में विफलता संविधान के अनुच्छेद 22 (5) के तहत मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगी।
  • गैर-मनमाने कार्यवाहियाँ: प्राधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे मनमाने कार्यों से बचें तथा यह सुनिश्चित करें कि सभी चरणों में हिरासत में लिये गए व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान किया जाए।
    • इसमें गिरफ्तार किये गए व्यक्ति समझ में आने वाली भाषा में दस्तावेज़ प्रस्तुत करना शामिल है।
  • अनावश्यक रूप से हुई देरी : अधिकारियों को अनावश्यक रूप से हुई देरी से बचने के लिये उपलब्ध प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए, हिरासत से संबंधित सूचना समय पर सुनिश्चित करनी चाहिये।

गिरफ्तारी और नज़रबंदी के विरुद्ध संरक्षण के संदर्भ में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 गिरफ्तार या हिरासत में लिये गए व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है। 
    • ये प्रावधान गिरफ्तारी या नज़रबंदी की विभिन्न परिस्थितियों में मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
    • नज़रबंदी के प्रकार: नज़रबंदी दो प्रकार की होती है।
    • दंडात्मक निरोध (Punitive Detention) : किसी व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए अपराध के लिये न्यायालय में सुनवाई और दोषसिद्धि के पश्चात दंडित किया जाता है। यह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन करता है।
    • निवारक निरोध (Preventive Detention) : इसमें किसी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे या दोषसिद्धि के हिरासत में लिया जाता है, जिसका उद्देश्य भविष्य में अपराध को रोकना होता है। यह निरोध संदेह के आधार पर होता है और संभावित नुकसान से बचने के लिये एहतियाती उपाय के रूप में कार्य करता है।
      • अनुच्छेद 22 के भाग: अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं।
    • पहला भाग: पहला भाग सामान्य कानून के तहत अधिकारों (शत्रु विदेशी या निवारक निरोध कानूनों के तहत हिरासत में लिये  गए व्यक्तियों को छोड़कर सभ अधिकारों में शामिल हैं) से संबंधित है, न की निवारक निरोध से।
      • कानूनी प्रतिनिधित्व का अधिकार : गिरफ्तार व्यक्ति को कानूनी सलाहकार से परामर्श लेने और बचाव का अधिकार है।
      • त्वरित न्यायिक समीक्षा का अधिकार : उन्हें गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
      • लंबे समय तक हिरासत में रखने के विरूद्ध अधिकार : उन्हें 24 घंटे के बाद रिहा कर दिया जाना चाहिये, जब तक कि मजिस्ट्रेट आगे भी हिरासत में रखने का आदेश न दे।
    • दूसरा भाग: यह विशेष रूप से निवारक निरोध कानूनों के तहत सुरक्षा से संबंधित है, जो नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों पर लागू होता है।
      • बिना समीक्षा के अधिकतम हिरासत अवधि : किसी व्यक्ति की हिरासत तीन महीने से अधिक नहीं हो सकती जब तक कि सलाहकार बोर्ड (बोर्ड में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शामिल होंगे) विस्तारित हिरासत के लिये पर्याप्त कारण न बताए।
      • हिरासत के आधार की जानकारी : हिरासत के आधार की जानकारी हिरासत में लिये गए व्यक्ति को दी जानी चाहिये। हालाँकि  सार्वजनिक हित के विरुद्ध माने जाने वाले तथ्यों का खुलासा करना ज़रूरी नहीं है।
      • प्रतिनिधित्व का अधिकार: हिरासत में लिये गए व्यक्ति को नज़रबंदी आदेश के विरुद्ध प्रतिनिधित्व का अवसर दिया जाना चाहिये।
  • निवारक निरोध पर विधायी शक्तियाँ: संसद को रक्षा, विदेशी मामलों और भारत की सुरक्षा से जुड़े कारणों के लिये निवारक निरोध पर कानून बनाने का विशेष अधिकार है। 
    • संसद तथा राज्य विधानमंडल दोनों ही राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाए रखने तथा समुदाय के लिये आवश्यक आपूर्तियों और सेवाओं को बनाए रखने से संबंधित कारणों से निवारक निरोध का कानून एक साथ बना सकते हैं। 
  • नियंत्रण हेतु संसद की शक्ति: अनुच्छेद 22 संसद को यह निर्धारित करने का अधिकार देता है कि:
    • वे परिस्थितियाँ और मामलों के वर्ग जिनमें किसी व्यक्ति को सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किये बिना निवारक निरोध कानून के तहत  तीन महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखा जा सकता है;
    • वह अधिकतम अवधि जिसके लिये किसी व्यक्ति को निवारक निरोध कानून के तहत किसी भी वर्ग के मामलों में  हिरासत में रखा जा सकता है; तथा
    • किसी जाँच में सलाहकार बोर्ड द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया।
  • प्रमुख संशोधन: 44 वें संशोधन अधिनियम, 1978 ने सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किये बिना हिरासत की अवधि को तीन महीने से घटाकर दो महीने कर दिया है। 
    • हालाँकि यह प्रावधान अभी तक लागू नहीं हुआ है, इसलिये तीन महीने की मूल अवधि अभी भी जारी है।
  • भारत में निवारक निरोध कानून: राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने तथा अपराध को रोकने के लिये संसद द्वारा कई निवारक निरोध कानून बनाए गए हैं। उदाहरण:
  • भारत में निवारक निरोध की आलोचना: विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश ने निवारक निरोध को संविधान का अभिन्न अंग नहीं बनाया है, जैसा कि भारत में किया गया है। 
    • संयुक्त राज्य अमेरिका में यह अज्ञात है। 
    • इसका प्रयोग ब्रिटेन में केवल प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किया गया था। 
    • भारत में निवारक निरोध ब्रिटिश शासन के दौरान भी मौजूद था। उदाहरण के लिये बंगाल राज्य कैदी विनियमन, 1818 और भारत रक्षा अधिनियम, 1939 में निवारक निरोध का प्रावधान था। 

निवारक निरोध कानून से संबंधित मुद्दे क्या हैं?

  • कानून का दुरुपयोग : निवारक निरोध भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ मौजूद है, लेकिन राजनीतिक लाभ या मुक्त भाषण को नियंत्रित करने के लिये इसका दुरुपयोग चिंता का विषय है।
    • उत्तर प्रदेश में ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ स्थानीय क्रिकेट विवाद जैसे मामूली मुद्दों पर निवारक निरोध लागू किया गया  तथा इसके दुरुपयोग की संभावना भी दिखाई देती है।
  • नियंत्रण और संतुलन का अभाव: सीमित न्यायिक निगरानी के साथ हिरासत में रखने की व्यापक शक्तियों से प्राधिकार के दुरुपयोग का खतरा बढ़ जाता है।
    • न्यायिक जाँच का दायरा यह सुनिश्चित करने तक सीमित है कि प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों का पालन किया गया है, लेकिन हिरासत के गुण-दोष को सुनिश्चित करना इसमें शामिल नहीं है
  • पारदर्शिता का अभाव: असहमति को रोकने के लिये बार-बार हिरासत में लेने का प्रयोग, अधिक जवाबदेही की आवश्यकता को दर्शाता है।
  • औपनिवेशिक युग के कानून : कुछ निवारक निरोध कानून औपनिवेशिक काल के हैं जो आधुनिक मानवाधिकार मानकों के अनुरूप नहीं हैं।

निवारक निरोध से संबंधित महत्त्वपूर्ण न्यायिक मामले कौन से हैं?

  • शिब्बन लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामला, 1954 : सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि न्यायालय उन तथ्यों की सत्यता की जाँच करने के लिये सक्षम नहीं हैं जो हिरासत का आधार बनते हैं। 
    • इससे निवारक निरोध मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमित भूमिका का संकेत मिलता है।
  • खुदीराम बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला, 1975 : सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) 1971 के तहत नज़रबंदी के आधार की वैधता का आकलन करने की शक्ति उसके पास नहीं है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा कि हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी का निर्णय अंतिम होता है तथा न्यायालय अपने निर्णय को प्रतिस्थापित करने में असमर्थ होते हैं।
  • नंद लाल बजाज बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य मामला, 1981 : सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निवारक निरोध कानून संसदीय प्रणाली के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। 
    • हालाँकि इसने फैसला सुनाया कि यह मुद्दा राजनीतिक प्रकृति का है, इसलिये यह न्यायपालिका की नहीं, बल्कि विधायिका की ज़िम्मेदारी है।
  • रेखा बनाम तमिलनाडु राज्य मामला, 2011 : सर्वोच्च न्यायालय ने निवारक निरोध को "लोकतांत्रिक विचारों के प्रतिकूल"  कहा तथा अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन होने से बचने के लिये इसे संकीर्ण सीमाओं के भीतर लागू करने का आग्रह किया।
  • मरियप्पन बनाम ज़िला कलेक्टर एवं अन्य मामला, 2014 : मद्रास उच्च न्यायालय ने दोहराया कि निवारक निरोध का उद्देश्य राज्य को होने वाले नुकसान को रोकना है, न कि बंदी को दंडित करना। 
    • हिरासत में लेने का निर्णय राज्य सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, विदेशी मामले और सामुदायिक सेवाओं जैसे मानदंडों के अंतर्गत प्राधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि पर आधारित होता है।
  • प्रेम नारायण बनाम भारत संघ केस, 2019 : इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि निवारक निरोध किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है जिसे लापरवाहीपूर्वक आरोपित से नहीं किया जा सकता। 
  • अभयराज गुप्ता बनाम अधीक्षक, सेंट्रल जेल, बरेली केस, 2021 : इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि जब कोई व्यक्ति पहले से ही हिरासत में हो तो निवारक निरोध का उपयोग नहीं किया जाना चाहिये।
    • न्यायालय ने कहा कि यदि हिरासत में लिये गए व्यक्ति के कार्यों से व्यापक सार्वजनिक अव्यवस्था नहीं फैलती है या सामाजिक शांति भंग नहीं होती है, तो उसे निवारक निरोध कानूनों के तहत हिरासत में लेने का कोई वैध आधार नहीं है।

निष्कर्ष

यद्यपि भारतीय संविधान द्वारा निवारक निरोध की अनुमति दी गई है, लेकिन इसे अक्सर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये खतरा माना जाता है। अनियंत्रित प्राधिकरण मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है, जिसमें जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है, जबकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने के लिये आवश्यक है। निष्पक्ष प्रक्रियाओं की गारंटी देने, दुरुपयोग को रोकने और सुरक्षा तथा  मानवाधिकारों के बीच संतुलन बनाने हेतु सुधार आवश्यक हैं। आधुनिक भारत में निवारक निरोध को निष्पक्ष और उचित बनाने के लिये, औपनिवेशिक युग के कानून का गहन परिक्षण एवं अद्यतन की आवश्यकता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में निवारक निरोध से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का परिक्षण कीजिये। निवारक निरोध के संबंध में न्यायपालिका व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने में किस प्रकार मदद करती है?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स  

प्र. रॉलेट अधिनियम का उद्देश्य था:  (2012)

(a) युद्ध प्रयासों के लिये अनिवार्य आर्थिक सहायता प्रदान करना 
(b) परीक्षण के लिये परीक्षण और सारांश प्रक्रियाओं के बिना कारावास
(c) खिलाफत आंदोलन का दमन करना 
(d) प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना

उत्तर: (B)


प्रश्न. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान रॉलेट एक्ट ने किस कारण से सार्वजनिक रोष उत्पन्न किया? (2009)

(a) इसने धर्म की स्वतंत्रता को कम किया
(b) इसने भारतीय पारंपरिक शिक्षा को दबा दिया
(c) इसने सरकार को बिना मुकदमे के लोगों को कैद करने के लिये अधिकृत किया
(d) इसने ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर अंकुश लगाया

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न: भारत सरकार ने हाल ही में गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), 1967 और NIA अधिनियम में संशोधन करके आतंकवाद विरोधी कानूनों को मज़बूत किया है। मानवाधिकार संगठनों द्वारा UAPA के विरोध के दायरे और कारणों पर चर्चा करते हुए मौजूदा सुरक्षा माहौल के संदर्भ में, इन परिवर्तनों का विश्लेषण कीजिये। (2019)

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