सर्वोच्च न्यायालय के 75 वर्ष | 02 Sep 2024
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, संविधान, संसद, मूल संरचना सिद्धांत, अनुच्छेद 21, आपातकाल, जनहित याचिका (PIL), कॉलेजियम प्रणाली, रिट याचिकाएँ, ई-कोर्ट परियोजना, केंद्रीय सतर्कता आयोग। मेन्स के लिये:अपने गठन के बाद से लोकतंत्र को मज़बूत करने और व्यक्तिगत अधिकारों को बढ़ावा देने में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका। |
स्रोत: पी.आई.बी
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय (स्थापना - 26 जनवरी 1950) की स्थापना के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में इसके नए ध्वज और प्रतीक चिह्न का अनावरण किया।
- ध्वज में अशोक चक्र, सर्वोच्च न्यायालय भवन और भारत के संविधान की पुस्तक अंकित है।
- इसके अलावा प्रधानमंत्री ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय की 75वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया।
75 वर्षों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका से जुड़े मुख्य तथ्य क्या हैं?
लोकतंत्र को मज़बूत करने में न्यायपालिका की भूमिका: भारत में न्यायपालिका ने स्वतंत्रता के बाद से लोकतंत्र और उदार मूल्यों की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इसने संविधान के संरक्षक, हाशिये पर पड़े लोगों के अधिकारों के रक्षक तथा बहुसंख्यकवाद विरोधी शासन संस्था के रूप में कार्य किया है।
सर्वोच्च न्यायालय (SC) का विकास: सर्वोच्च न्यायालय की यात्रा और लोकतंत्र को मज़बूत करने तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा में इसकी भूमिका को चार चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
न्यायिक समीक्षा पर ध्यान: स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों में न्यायपालिका ने रूढ़िवादी दृष्टिकोण बनाए रखा तथा स्वयं को संविधान की लिखित व्याख्या तक ही सीमित रखा।
इसने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किये बिना विधायी कार्यों की जाँच करने के लिये न्यायिक समीक्षा का प्रयोग किया।
वैचारिक प्रभाव से बचाव: न्यायपालिका समाजवाद और सकारात्मक कार्रवाई जैसी सरकारी विचारधाराओं से प्रभावित होने से बचती है।
उदाहरण के लिये कामेश्वर सिंह मामले, 1952 में ज़मींदारी उन्मूलन को अवैध घोषित किया गया, लेकिन संसद द्वारा किये गए संवैधानिक संशोधनों को अमान्य नहीं किया गया।
विधायी सर्वोच्चता के प्रति सम्मान: चंपकम दोरायराजन मामला, 1951 जैसे मामलों से पता चलता है कि न्यायपालिका ने समानता के अधिकार का उल्लंघन करते हुए शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण को खारिज कर दिया, लेकिन संविधान की सकारात्मक व्याख्या का पालन करते हुए उसने संसद के साथ टकराव से परहेज किया।
मौलिक अधिकारों का विस्तार: गोलक नाथ निर्णय, 1967 ने मौलिक अधिकारों की अधिक विस्तृत व्याख्या की ओर एक बदलाव को चिह्नित किया, जिसने संसद की विधायी शक्ति को चुनौती दी और न्यायिक समीक्षा की शक्ति पर पुनः ज़ोर दिया।
गोलक नाथ मामले, 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद किसी भी मौलिक अधिकार को छीन या कम नहीं कर सकती।
संविधान संशोधन पर ऐतिहासिक निर्णय: केशवानंद भारती मामले, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने 'मूल संरचना' सिद्धांत को प्रस्तुत किया, जिसने संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित कर दिया, जिससे न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई।
न्यायिक स्वतंत्रता पर आपातकाल का प्रभाव: राष्ट्रीय आपातकाल और तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों की अनदेखी कर न्यायमूर्ति ए.एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किये जाने ने ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, 1976 मामले में न्यायिक आत्मसमर्पण में प्रमुख योगदान दिया, जिसमें मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार को निलंबित करने के सरकार के कृत्य का समर्थन किया गया था।
इस निर्णय ने देश में संवैधानिक लोकतंत्र के लिये एक नया निम्न स्तर चिह्नित किया, साथ ही उच्च न्यायपालिका की संस्थागत कमज़ोरी को भी उजागर किया।
आपातकाल के बाद सुधार: आपातकाल के बाद न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता और विश्वसनीयता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। मेनका गांधी मामले, 1978 ने अनुच्छेद 21 की व्याख्या को व्यापक बनाया तथा जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे का विस्तार किया।
जनहित याचिका (PIL) का उदय: हुसैनारा खातून मामला, 1979 जैसे मामलों के माध्यम से न्यायपालिका ने जनहितैषी व्यक्तियों को हाशिये पर पड़े समूहों की ओर से याचिका दायर करने की अनुमति देकर न्याय तक पहुँच का विस्तार किया।
जनहित याचिकाएँ न्यायिक सक्रियता का एक साधन बन गईं, जो मानवाधिकार, पर्यावरण संरक्षण और शासन जैसे मुद्दों को हल करती हैं।
कॉलेजियम प्रणाली: न्यायपालिका ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम सिस्टम शुरू करके अपनी स्वायत्तता बनाए रखने की कोशिश की।
इस प्रणाली को बाद में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 द्वारा चुनौती दी गई, जिसे न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिये रद्द कर दिया।
उदार व्याख्या: सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के पूर्ण एकीकरण के लिये अनुच्छेद 370 को हटाने को बरकरार रखा है।
न्यायिक सक्रियता को बनाए रखना: आलोचनाओं के बावजूद न्यायपालिका ने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा में अपनी भूमिका पर ज़ोर देना जारी रखा है। उदाहरण के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने अपारदर्शी चुनावी बॉण्ड योजना को अमान्य ठहराया।
वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को रद्द कर दिया, जिसने व्यभिचार को अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने वाला अपराध घोषित किया था।
प्रथम चरण (1950-1967): इसमें संवैधानिक पाठ के प्रति अनुपालन और न्यायिक संयम को प्रतिबिंबित किया गया।
दूसरा चरण (1967-1976): इसमें न्यायिक सक्रियता और संसद के साथ टकराव प्रदर्शित हुआ।
तीसरा चरण (1978-2014): इसने न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका (PIL) के विस्तार को प्रदर्शित किया।
चौथा चरण (2014-वर्तमान): यह संविधान की उदार व्याख्या और संविधान को एक जीवंत दस्तावेज़ के रूप में मानने पर केंद्रित था।
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य चुनौतियाँ क्या हैं?
- लंबित मामलों की संख्या: वर्ष 2023 के अंत में सर्वोच्च न्यायालय में 80,439 मामले लंबित थे। ये लंबित मामले न्याय प्रदान करने में पर्याप्त विलंब करते हैं जो न्यायपालिका की दक्षता और विश्वसनीयता को कमज़ोर करते हैं।
- विशेष अनुमति याचिकाओं (SLP) का प्रभुत्व: सर्वोच्च न्यायालय के पास लंबित मामलों की सूची में सर्वाधिक मामले विशेष अनुमति याचिकाओं (सिविल एवं आपराधिक अपीलों के लिये वरीयता साधन) से संबंधित हैं, जो रिट याचिकाओं और संवैधानिक चुनौतियों जैसे अन्य प्रकार के मामलों से सर्वोपरि हैं।
- यह वरीयता न्यायालय की विविध प्रकार के मुद्दों को प्रभावी ढंग से हल करने की क्षमता को प्रभावित करती है।
- मामलों की चयनात्मक वरीयता: ‘पिक एंड चूज़ मॉडल’ कुछ मामलों को अन्य मामलों पर प्राथमिकता देने की अनुमति देता है, जिससे तरजीही व्यवहार की धारणा बनती है। उदाहरण के लिये अन्य महत्त्वपूर्ण मामलों की तुलना में एक हाई-प्रोफाइल जमानत आवेदन पर तेज़ी से ध्यान दिया जाना।
- न्यायिक अपवंचन: लंबित मामलों के कारण कभी-कभी ‘न्यायिक अपवंचन’ होती है, जहाँ महत्त्वपूर्ण मामलों को टाला जाता है या विलंब किया जाता है। उल्लेखनीय उदाहरणों में आधार बायोमेट्रिक ID योजना चुनौती और चुनावी बॉण्ड मामले का निर्णय सुनाने करने में विलंब शामिल है।
- हितों का टकराव और ईमानदारी: सर्वोच्च न्यायालय सहित न्यायपालिका के भीतर भ्रष्टाचार के आरोप इसकी सत्यनिष्ठा और सार्वजनिक विश्वास के लिये चुनौतियाँ पेश करते हैं।
- उदाहरण के लिये संभावित हितों के टकराव की बात तब सामने आई जब कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय ने न्यायाधीश के रूप में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और कुछ ही समय बाद राजनीति में प्रवेश कर गए।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति की चिंताएँ: न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया, विशेष रूप से कॉलेजियम प्रणाली की भूमिका, विवाद का विषय रही है।
- नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसे सुधारों पर चर्चा हुई है।
आगे की राह
- अखिल भारतीय न्यायिक भर्ती: हाल ही में राष्ट्रपति ने अखिल भारतीय स्तर पर न्यायिक भर्ती का आह्वान किया। न्यायिक भर्ती के लिये एक राष्ट्रीय मानक स्थापित करने से राज्यों में एकरूपता और गुणवत्ता सुनिश्चित होती है, जिससे दक्षता में सुधार होता है।
- ज़िला न्यायालयों में न्यायिक भर्तियों को अब क्षेत्रवाद की संकीर्णता जैसी घरेलू बाधाएँ और राज्य-केंद्रित चयनों की सीमाओं तक सीमित नहीं किया जाना चाहिये।
- मामला प्रबंधन सुधार: प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने के लिये उन्नत केस प्रबंधन तकनीकों को लागू करने की आवश्यकता है।
- उदाहरण के लिये ई-कोर्ट परियोजना का उद्देश्य न्यायालय संचालन को डिजिटल बनाना और स्वचालित करना है, जो केस बैकलॉग को प्रबंधित करने एवं विलंब को कम करने में मदद कर सकता है।
- मामलों की ट्रैकिंग और प्रबंधन को बढ़ाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय की केस मैनेजमेंट सिस्टम (CMS) के उपयोग का विस्तार करना।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को बढ़ावा देना: उन मामलों के लिये ADR तंत्र के उपयोग को प्रोत्साहित करना जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है, जैसा कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में उल्लिखित है।
- पारदर्शी मामला सूचीकरण: पारदर्शी मामला सूचीकरण और प्राथमिकता प्रोटोकॉल विकसित करें।
- सर्वोच्च न्यायालय पोर्टल में मामलों की स्थिति और प्राथमिकताओं पर सार्वजनिक रूप से नज़र रखने की सुविधा शामिल की जा सकती है, जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित होगी।
- संस्थागत लक्ष्यों को स्पष्ट करना: संस्थागत लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना और उन्हें संप्रेषित करना। न्यायिक प्रदर्शन मूल्यांकन ढाँचे को न्यायालय के लक्ष्यों का आकलन करने तथा उन्हें पुनः संरेखित करने के लिये अनुकूलित किया जा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय का अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान इस फोकस को समर्थन देने में भूमिका निभा सकता है।
- जवाबदेही तंत्र को मज़बूत करना: न्यायाधीशों के लिये सख्त जवाबदेही उपायों को लागू करें। उदाहरणतः सरकारी अधिकारियों हेतु केंद्रीय सतर्कता आयोग के समान एक स्वतंत्र न्यायिक जवाबदेही आयोग की स्थापना करें।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बढ़ावा देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के 75 वर्ष के विकास पर चर्चा कीजिये। प्रभावी न्याय सुनिश्चित करने के लिये वर्तमान चुनौतियों पर काबू पाने की रणनीतियों पर चर्चा कीजिये? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) प्रश्न. भारत के संविधान के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. 'संवैधानिक नैतिकता' की जड़ संविधान में ही निहित है और इसके तात्त्विक फलकों पर आधारित है। प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से 'संवैधानिक नैतिकता' के सिद्धांत की व्याख्या कीजिये। (2021) प्रश्न. न्यायिक विधायन, भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का प्रतिपक्षी है। इस संदर्भ में कार्यपालक अधिकरणों को दिशा-निर्देश देने की प्रार्थना करने संबंधी, बड़ी संख्या में दायर होने वाली, लोकहित याचिकाओं का न्याय औचित्य सिद्ध कीजिये। (2020 प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |