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एडिटोरियल

  • 22 Aug, 2024
  • 39 min read
सामाजिक न्याय

भारत में महिला सुरक्षा

यह एडिटोरियल 21/08/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Kolkata rape and murder: When the law fails women” लेख पर आधारित है। इसमें हाल ही में एक युवा महिला चिकित्सक के नृशंस बलात्कार एवं हत्या की घटना के बारे में चर्चा की गई है जो भारत की विधिक व्यवस्था में लगातार विफलताओं को उजागर करती है। दंडाभाव या दंड-मुक्ति की संस्कृति पर रोक लगाने और महिलाओं को बेहतर सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से कठोर दंड अधिरोपित करने तथा मुक़दमों की त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये तत्काल सुधारों की आवश्यकता है।

प्रिलिम्स के लिये:

महिलाओं के विरुद्ध अपराध, लैंगिक समानता, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वार्षिक रिपोर्ट, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, बाल विवाह, दहेज प्रथा, विशाखा दिशा-निर्देश, सर्वोच्च न्यायालय, घरेलू हिंसा, महिलाओं पर एसिड अटैक, प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994, अनुच्छेद 21, निर्भया फंड, वन स्टॉप सेंटर, महिला पुलिस स्वयंसेवक, यौन अपराधों के लिये जाँच ट्रैकिंग प्रणाली, न्यायमूर्ति वर्मा समिति, कानून प्रवर्तन और न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व। 

मेन्स के लिये:

महिलाओं से संबंधित मुद्दों के समाधान में सरकारी नीतियों और हस्तक्षेपों का महत्त्व।

भारत में महिलाओं के विरुद्ध अपराध एक व्यापक और अत्यंत चिंताजनक मुद्दा बना हुआ है, जो लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय की दिशा में देश की प्रगति को चुनौती देता है। कोलकाता में युवा महिला चिकित्सक के साथ नृशंस बलात्कार एवं हत्या की हाल की घटना महिला सुरक्षा उपायों के क्रियान्वयन में मौजूदा अपर्याप्तताओं को उजागर करती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की वार्षिक रिपोर्ट से पुष्टि होती है कि विधायी उपायों और बढ़ती जागरूकता के बावजूद महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ चिंताजनक रूप से उच्च स्तर पर बनी हुई हैं। घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न से लेकर दहेज से संबंधित अपराधों और मानव तस्करी तक, भारत में महिलाओं को अपनी सुरक्षा, गरिमा एवं कल्याण के विषय में विभिन्न तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है।

इस लगातार बनी रही समस्या की जड़ें भारत के जटिल सामाजिक ताने-बाने में गहराई से धँसी  हैं, जहाँ पितृसत्तात्मक मानदंड, आर्थिक असमानताएँ और सांस्कृतिक प्रथाएँ प्रायः लिंग-आधारित हिंसा को बढ़ावा देने के लिये आपस में मिल जाती हैं। जबकि शहरी क्षेत्रों में मामलों की रिपोर्टिंग और जागरूकता में वृद्धि देखी गई है, ग्रामीण क्षेत्र अभी भी सामाजिक कलंक और सहायता प्रणालियों तक पहुँच की कमी के कारण कम रिपोर्टिंग की समस्या से जूझ रहे हैं।

इस जटिल समस्या से निपटने के लिये न केवल मौजूदा कानूनों को अधिक प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करना आवश्यक है, बल्कि एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना भी महत्त्वपूर्ण है, जिसमें महिलाओं के लिये अधिक सुरक्षित एवं समतामूलक वातावरण के निर्माण के लिये सामुदायिक सहभागिता, उन्नत सहायता प्रणालियाँ और व्यापक डेटा विश्लेषण शामिल हों।

महिला सुरक्षा संबंधी आँकड़े:

  • समग्र आँकड़े: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में भारत भर में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के कुल 4,45,256 मामले दर्ज किये गए, यानी प्रत्येक घंटे लगभग 51 प्राथमिकी (FIR) और यह पिछले वर्ष की तुलना में 4% की वृद्धि को दर्शाता है।
    • महिलाओं के विरुद्ध अपराध की दर प्रति लाख जनसंख्या पर 66.4 रही, जबकि आरोप-पत्र (charge sheet) दाखिल करने की दर 75.8 दर्ज की गई।
  • अपराध के प्रकार: महिलाओं के विरुद्ध अपराध का एक बड़ा भाग पति या रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता के रूप में वर्गीकृत किया गया, जो कुल मामलों का 31.4% था।
    • कुल मामलों के 19.2% मामले महिलाओं के व्यपहरण (kidnapping) एवं अपहरण (abduction), 18.7% मामले शील भंग करने के इरादे से हमला करने और  7.1% मामले बलात्कार से संबंधित थे।
    • महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा की घटनाएँ वर्ष 2016 में लगभग 39,000 तक पहुँच गईं और वर्ष 2018 में देश भर में औसतन प्रत्येक 15 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार हुआ।
    • भारत में वर्ष 2018 से प्रत्येक वर्ष कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के 400 से अधिक मामले सामने आए हैं, जहाँ प्रति वर्ष औसतन 445 मामले दर्ज किये गए।
    • बलात्कार के 86 मामलों में किशोर शामिल थे, जबकि महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाने के 68 मामले दर्ज किये गए।
  • राज्यवार आँकड़े: दिल्ली में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की दर सबसे अधिक थी (प्रति लाख जनसंख्या पर 144.4 की दर) और वर्ष 2022 में 14,247 मामले दर्ज किये गए।
    • उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 65,743 प्राथमिकियाँ (FIRs) दर्ज की गईं; उसके बाद महाराष्ट्र, राजस्थान और पश्चिम बंगाल का स्थान रहा।

महिलाओं के विरुद्ध अपराध से निपटने की राह की चुनौतियाँ:

  • पितृसत्तात्मक सामाजिक मानदंड: पितृसत्तात्मक मूल्य, जो महिलाओं को अधीनस्थ मानते हैं, हिंसा की संस्कृति में योगदान करते हैं।
    • उदाहरण के लिये, खाप पंचायतें प्रायः कठोर लैंगिक मानदंड लागू करती हैं और ऐसी प्रथाओं का समर्थन करती हैं जो महिलाओं की स्वायत्तता को कमज़ोर करती हैं।
  • कार्यस्थल पर शोषण: कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013 के अधिनियमित होने के बावजूद, भारत विभिन्न कार्य वातावरणों में बड़े पैमाने पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न एवं शोषण के मामलों से जूझ रहा है ।
    • NCRB के आँकड़ों से पता चलता है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के औसतन 400 से अधिक मामले प्रति वर्ष दर्ज किये जाते हैं।
    • मलयालम फिल्म उद्योग में कार्यस्थल वातावरण पर न्यायमूर्ति हेमा समिति की हाल की रिपोर्ट से इस उद्योग में यौन शोषण की व्यापक संस्कृति का खुलासा हुआ है। रिपोर्ट में वेतन/भुगतान में गंभीर लैंगिक असमानताओं और कार्यस्थल पर अपर्याप्त सुरक्षा पर भी प्रकाश डाला गया है, जबकि आंतरिक शिकायत समितियाँ प्रभावहीन पाई गई हैं।
  • सुरक्षित सार्वजनिक स्थानों की कमी: असुरक्षित सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध की संभावना बढ़ जाती है। सुरक्षित एवं पर्याप्त रोशन सड़कों की कमी और अपर्याप्त सार्वजनिक परिवहन के कारण उत्पीड़न एवं हमले हो सकते हैं।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2012 में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की कुख्यात घटना शहर के खराब रोशनी वाले क्षेत्र में घटित हुई थी, जिसने अपर्याप्त सार्वजनिक सुरक्षा उपायों से जुड़े खतरों की ओर ध्यान दिलाया था।
  • अपर्याप्त अवसंरचना और संसाधन: कई क्षेत्रों में अपराधों से प्रभावी ढंग से निपटने और अपराधों की जाँच करने के लिये कार्यात्मक पुलिस स्टेशन, फोरेंसिक प्रयोगशालाओं और आपातकालीन सेवाओं जैसी आवश्यक अवसंरचना का अभाव पाया जाता है।
  • कमज़ोर कानून प्रवर्तन और न्यायिक प्रणाली: कानूनी प्रणाली में व्याप्त अकुशलताएँ प्रभावी न्याय में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।
    • उदाहरण के लिये, निर्भया मामले की सुनवाई में देरी और अभियुक्तों के प्रति आरंभिक नरमी, कानून प्रवर्तन एवं न्यायपालिका के भीतर प्रणालीगत समस्याओं को परिलक्षित करती है।
    • इसी तरह, यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के मामलों में निम्न दोषसिद्धि दर कानून प्रवर्तन में व्याप्त कमियों को दर्शाती है। उदाहरण के लिये, NCRB के आँकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2018-2022 की अवधि में बलात्कार के लिये दोषसिद्धि दर महज 27-28% रही।
  • प्रणालीगत मुद्दे: विधिक और विधि प्रवर्तन प्रणालियों में व्याप्त भ्रष्टाचार महिलाओं के विरुद्ध अपराधों से निपटने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि रिश्वतखोरी और कदाचार के कारण मामलों को दोषपूर्ण तरीके से निपटाया जा सकता है या निरस्त किया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिये, बलात्कार के कई मामलों में पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने में आनाकानी या देरी करती है, जैसा कि हाल में बदलापुर यौन उत्पीड़न मामले में भी आरोप लगाया गया।
  • सामाजिक कलंक और पीड़िता को दोष देना: पीड़िता को दोष देने की प्रवृत्ति (Victim-blaming attitudes) महिलाओं को अपराधों की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित करती है।
    • महिलाओं को उत्पीड़न या बलात्कार के मामलों में प्रायः अपने समुदायों या यहाँ तक कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों की ओर से भी कलंक और दोष का सामना करना पड़ता है।
    • बलात्कार की घटनाओं और पीड़िताओं पर राजनेताओं की ओर से गैर-ज़िम्मेदाराना और सस्ती टिप्पणियों के दृष्टांत भी पाए जाते हैं जहाँ अपराध की गंभीरता को कमतर आँका जाता है या पीड़िताओं पर ही अनुचित दोष मढ़ दिया जाता है।
  • लैंगिक असमानता एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण: शिक्षा, रोज़गार अवसर, निर्णय लेने की शक्ति और पारंपरिक मान्यताओं एवं प्रथाओं में व्याप्त असमानताएँ महिलाओं की भेद्यता में योगदान करती हैं।
    • उदाहरण के लिये, कुछ समुदायों में बाल विवाह और महिलाओं की आवाजाही पर प्रतिबंध जैसी प्रथाएँ आम हैं, जो गहरी जड़ें जमाए हुए पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। इसके अलावा, दहेज प्रथा के कारण भी  दहेज हत्या और घरेलू हिंसा के मामले सामने आते रहते हैं।
  • शिक्षा और जागरूकता की कमी: महिलाओं के अधिकारों और विधिक सुरक्षा के बारे में सीमित शिक्षा एवं जागरूकता के कारण महिलाएँ इनका लाभ नहीं उठा पातीं।
    • पारंपरिक मान्यताएँ और शिक्षा तक सीमित पहुँच महिलाओं को अपराधों की रिपोर्ट करने या न्याय की मांग करने से बाधित कर सकती हैं, जैसा कि उन मामलों में देखा गया है जहाँ घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाएँ अज्ञानतावश इसे सहती रहती हैं।
  • आर्थिक निर्भरता: जो महिलाएँ आर्थिक रूप से परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर होती हैं, उनके लिये दुर्व्यवहारपूर्ण स्थितियों से निकलना कठिन सिद्ध हो सकता है।
    • उदाहरण के लिये, निम्न-आय परिवारों में कई महिलाएँ अपने पतियों पर आर्थिक निर्भरता रखती हैं, जिसके कारण वे दुर्व्यवहारपूर्ण संबंधों में बंधी रह सकती हैं।
  • घरेलू हिंसा: घरेलू हिंसा प्रायः अन्य गंभीर अपराधों को जन्म देती है। घरेलू हिंसा का सामना करने वाली महिलाएँ यौन उत्पीड़न या हत्या का भी शिकार हो सकती हैं।
  • प्रौद्योगिकीय और साइबर खतरे: डिजिटल प्लेटफॉर्मों के उदय के साथ महिलाओं को ऑनलाइन माध्यम से उत्पीड़न एवं दुर्व्यवहार के नए रूपों का सामना करना पड़ रहा है। ऑनलाइन धमकी या साइबरबुलिइंग, पीछा करना या स्टाकिंग (stalking) और अंतरंग तस्वीरों की बिना सहमति साझेदारी जैसे मुद्दे आम बनते जा रहे हैं, जिनके लिये अद्यतन विधिक एवं तकनीकी समाधान की आवश्यकता है।
  • मादक द्रव्यों का सेवन: मादक द्रव्यों के सेवन का महिलाओं के विरुद्ध हिंसा में वृद्धि से संबंध देखा जाता है। हिंसा के कई मामलों में अपराधी शराब या मादक द्रव्यों के प्रभाव में होते हैं।
  • झूठे आरोप: बलात्कार के झूठे मामले वास्तविक पीड़ितों की विश्वसनीयता को क्षति पहुँचाते हैं। जब लोग झूठे आरोपों के बारे में बार-बार सुनते हैं तो वे वास्तविक मामलों की सत्यता पर भी संदेह करने लगते हैं। यह पीड़िताओं को आगे आने से हतोत्साहित कर सकता है, जिससे फिर दोषसिद्धि कम होगी और अन्याय की वृहत भावना का प्रसार होगा।

विभिन्न ढाँचे और पहलें:

  • विधिक ढाँचा:
    • कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013: सर्वोच्च न्यायालय के विशाखा दिशा-निर्देशों (Vishakha Guidelines) के आधार पर तैयार इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं के लिये सुरक्षित कार्य वातावरण का निर्माण करना है।
      • यह अधिनियम 10 से अधिक कर्मचारियों वाले संगठनों में आंतरिक शिकायत समितियों (ICCs) के गठन को अनिवार्य बनाता है, यौन उत्पीड़न को परिभाषित करता है और शिकायत दर्ज करने एवं उसकी जाँच करने की प्रक्रिया निर्धारित करता है।
      • यह अधिनियम कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने और उसे संबोधित करने के लिये एक व्यापक ढाँचा प्रदान करता है, जिससे महिलाओं की सुरक्षा और उनकी शिकायतों का निवारण सुनिश्चित होता है।
    • दंड विधि (संशोधन) अधिनियम 2013: इसेनिर्भया अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है। इसने यौन अपराधों के लिये दंड को सबल बनाया, बलात्कार के पुनरावृत्तिकर्ता अपराधियों के लिये मृत्युदंड का प्रावधान किया और उत्तरजीवियों (survivors) की सुरक्षा के लिये प्रावधानों का विस्तार किया। अधिनियम में बलात्कार, पीछा करने (stalking) और उत्पीड़न जैसे अपराधों के लिये पहले से कठोर परिभाषाओं और दंडों का भी प्रावधान किया गया।
      • अधिनियम में पीछा करने (stalking) और दृश्यरतिकता (voyeurism) जैसे नए श्रेणियों को अपराध के रूप में परिभाषित किया गया तथा बलात्कार के लिये न्यूनतम दंड को सात वर्ष से बढ़ाकर दस वर्ष कर दिया गया।
      • इसके अलावा, कठोर दंड अधिरोपित करने के लिये दांडिक विधि (संशोधन) अधिनियम 2018 अधिनियमित किया गया, जिसके अंदर 12 वर्ष से कम आयु की बालिका के साथ बलात्कार के लिये मृत्यु दंड का प्रावधान किया गया। अधिनियम में यह प्रावधान भी किया गया है कि जाँच और सुनवाई दो महीने के भीतर पूरी कर ली जाए।
    • यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO): वर्ष 2012 में अधिनियमित यह अधिनियम बच्चों के विरुद्ध यौन अपराधों के मुद्दे से व्यापक रूप से संबोधित होता है। POCSO न केवल अपराधों के लिये दंड का प्रावधान करता है, बल्कि पीड़ितों की सहायता के लिये एक प्रणाली और अपराधियों को पकड़ने के लिये बेहतर तरीकों का भी उपबंध करता है।
    • बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006: इस विधान का उद्देश्य बाल विवाह को प्रतिषिद्ध करना है, जो बालिकाओं को असमान रूप से प्रभावित करता है। इसके अंदर महिलाओं के लिये विवाह की विधिक आयु 18 वर्ष और पुरुषों के लिये 21 वर्ष निर्धारित की गई है।
    • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005: यह ऐतिहासिक विधान घरेलू हिंसा की व्यापक परिभाषा प्रदान करता है और घरों के भीतर दुर्व्यवहार से महिलाओं की सुरक्षा के लिये सिविल उपचार प्रदान करता है।
    • स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986: यह विज्ञापनों, प्रकाशनों, लेखों, रंगचित्रों, आकृतियों या किसी अन्य रीति से स्त्रियों के अशिष्ट रूपण का प्रतिषेध करने और उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक विषयों के लिये उपबंध प्रदान करता है।
    • अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956: यह वेश्यावृत्ति में संलग्नता की वैधता को मान्यता देते हुए भी वेश्यालय के संचालन और ग्राहकों को लुभाने को निषिद्ध करने वाली विधिक रुपरेखा प्रदान करने के माध्यम से देह व्यपार के वाणिज्यीकरण एवं महिलाओं की तस्करी को रोकने का लक्ष्य रखता है।
  • न्यायिक हस्तक्षेप:
    • जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018): इस निर्णय ने व्यभिचार (adultery) को अपराध से मुक्त कर दिया और औपनिवेशिक युग के उस कानून को रद्द कर दिया जिसका उपयोग प्रायः महिलाओं की कामुकता को नियंत्रित करने तथा पितृसत्तात्मक मानदंडों को सुदृढ़ करने के लिये किया जाता था।
    • इंडिपेंडेंट थॉट बनाम भारत संघ (2017): इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने बाल संरक्षण कानूनों में व्याप्त एक महत्त्वपूर्ण दोष को संबोधित करते हुए 18 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के साथ वैवाहिक संबंध में बने यौन संबंध को भी (इसे ‘मैरिटल रेप’ मानते हुए) अपराध घोषित कर दिया।
    • लक्ष्मी बनाम भारत संघ (2014): इस मामले ने महिलाओं पर एसिड हमलों के मुद्दे को उजागर किया, जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को एसिड की बिक्री को विनियमित करने तथा एसिड हमले की उत्तरजीवी पीड़िताओं के लिये मुआवजे एवं चिकित्सा उपचार में सुधार लाने का निर्देश दिया।
    • दिल्ली गैंग रेप केस ( निर्भया केस) (2012): वर्ष 2012 में दिल्ली में एक युवती के साथ नृशंस सामूहिक बलात्कार एवं हत्या के बाद व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, जहाँ कठोर और प्रभावी रूप से क्रियान्वित कानूनों की मांग की गई। इस घटना के प्रभाव में भारत के आपराधिक कानूनों में महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गए और यौन अपराधों के लिये अधिक कठोर दंड की शुरुआत हुई।
    • लिल्लू बनाम हरियाणा राज्य (2013): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ‘टू-फिंगर टेस्ट’ बलात्कार पीड़िताओं की निजता, शारीरिक एवं मानसिक अखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है।
    • CEHAT बनाम भारत संघ एवं अन्य (2003): सर्वोच्च न्यायालय ने लिंग चयन एवं लिंग चयनात्मक गर्भपात के संबंध में और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 के उचित कार्यान्वयन के संबंध में कई निर्देश दिए, जहाँ यह कहा कि कन्या भ्रूण हत्या एक जघन्य कृत्य है और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का सूचक है।
    • विशाखा एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997): सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक निर्णय ने कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिये ‘विशाखा दिशानिर्देश’ स्थापित किये तथा नियोक्ताओं के लिये ऐसे उत्पीड़न को संबोधित करने और इसे रोकने के लिये एक रूपरेखा प्रदान की।
    • अन्य मामले: दिल्ली डोमेस्टिक वर्किंग वीमन फोरम बनाम भारत संघ जैसे कुछ मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बलात्कार मूलभूत मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है, जो पीड़िताओं के सबसे अभिलषित अधिकारों का उल्लंघन करता है, जैसे कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन एवं निजता का अधिकार। न्यायालय ने बलात्कार पीड़िताओं के लिये मुआवज़ा प्रदान करने का निर्देश दिया।
  • सरकारी पहलें:
    • ‘निर्भया फंड’: सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा बढ़ाने वाली परियोजनाओं का समर्थन करने के लिये ‘निर्भया फंड’ की स्थापना की है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय इस फंड के तहत वित्तपोषण के लिये प्रस्तावों एवं योजनाओं की समीक्षा और अनुशंसा करने के लिये नोडल प्राधिकरण के रूप में कार्य करता है।
    • वन स्टॉप सेंटरऔर महिला हेल्पलाइन: महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने हिंसा से प्रभावित महिलाओं को एकीकृत सहायता प्रदान करने के लिये वन स्टॉप सेंटर की शुरुआत की है। मंत्रालय ने 24X7 आपातकालीन एवं गैर-आपातकालीन सहायता प्रदान करने के लिये महिला हेल्पलाइनों के सार्वभौमीकरण की योजना भी शुरू की है।
    • महिला पुलिस स्वयंसेवक: इसमें राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में महिला पुलिस स्वयंसेवकों (Mahila Police Volunteers) की तैनाती करना शामिल है, जो पुलिस और समुदाय के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करती हैं तथा संकटग्रस्त महिलाओं को सहायता प्रदान करती हैं।
    • स्वाधार गृह योजना: महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा संचालित इस योजना का उद्देश्य चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना कर रही ऐसी महिलाओं की सहायता करना है, जिन्हें अपने पुनर्वास के लिये संस्थागत सहायता की आवश्यकता होती है। यह योजना आश्रय, भोजन, कपड़े, स्वास्थ्य सेवा जैसी सुविधाएँ प्रदान करती है और इन महिलाओं के गरिमापूर्ण जीवनयापन में मदद करने के लिये आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
    • कामकाजी महिला छात्रावास योजना: सरकार कामकाजी महिलाओं के लिये सुरक्षित एवं सुविधाजनक स्थान पर आवास उपलब्ध कराने के लिये इस योजना का क्रियान्वयन कर रही है। इस योजना का उद्देश्य महिलाओं के लिये रोज़गार अवसर प्रदान करने वाले शहरी, अर्द्ध-शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ भी संभव हो, उनके बच्चों के लिये ‘डे केयर’ सुविधाएँ प्रदान करना भी है।
    • ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’: इस योजना का उद्देश्य लैंगिक रूप से पक्षपातपूर्ण लिंग चयन उन्मूलन को रोकना, बालिकाओं की जीविता एवं संरक्षण को सुनिश्चित करना और बालिकाओं के लिये शिक्षा एवं सहभागिता को समर्थन देना है।
    • यौन अपराधों के लिये जाँच ट्रैकिंग प्रणाली: वर्ष 2019 में गृह मंत्रालय ने, दांडिक विधान (संशोधन) अधिनियम 2018 के निर्देशानुसार, यौन उत्पीड़न मामलों में समयबद्ध जाँच की निगरानी एवं ट्रैकिंग में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सहायता के लियेयौन अपराधों के लिये जाँच ट्रैकिंग प्रणाली’ (Investigation Tracking System for Sexual Offences) शुरू की।
    • आपातकालीन प्रतिक्रिया सहायता प्रणाली (Emergency Response Support System- ERSS): यह एकल आपातकालीन नंबर (112) और संकटग्रस्त स्थानों पर क्षेत्रीय संसाधनों का कंप्यूटर-सहायता प्राप्त प्रेषण प्रदान करता है।
    • सुरक्षित शहर परियोजना (Safe City Projects): यह गृह मंत्रालय की एक पहल है, जो निर्भया फंड के तहत महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सहयोग से शुरू की गई है। इसका उद्देश्य सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं एवं बालिकाओं के लिये सुरक्षित, संरक्षित एवं सशक्त वातावरण का निर्माण करना है।
    • जागरूकता कार्यक्रम: सरकार कार्यशालाओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, संगोष्ठियों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और मीडिया विज्ञापनों के माध्यम से महिला अधिकारों पर जागरूकता को बढ़ावा डे रही है।

आगे की राह:

  • क्रियान्वयन को सुदृढ़ करना: मौजूदा कानूनों एवं नीतियों को और अधिक प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। इसके लिये कानून प्रवर्तन कर्मियों के बेहतर प्रशिक्षण, न्यायिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और सभी स्तरों पर जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
  • फास्ट-ट्रैक कोर्ट: न्यायमूर्ति वर्मा समिति की अनुशंसा के अनुरूप फास्ट-ट्रैक कोर्ट स्थापित किये जाएँ और बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में दंड को कठोर बनाया जाए। न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए।
  • लिंग संवेदीकरण (Gender Sensitization): लिंग-आधारित हिंसा और भेदभाव के मूल कारणों को संबोधित करने के लिये स्कूलों, कॉलेजों और कार्यस्थलों में व्यापक लिंग संवेदीकरण कार्यक्रम शुरू किये जाने चाहिये।
  • पुलिस प्रशिक्षण में सुधार: लिंग-आधारित हिंसा के मामलों को अधिक संवेदनशील एवं प्रभावी ढंग से संभाल सकने के लिये पुलिस अधिकारियों के प्रशिक्षण में सुधार किया जाए। इसमें बेहतर साक्ष्य संग्रहण, पीड़िता सहायता और मामले का दस्तावेज़ीकरण शामिल होगा।
    • महिलाओं की सुरक्षा बढ़ाने के लिये विशेष पुलिस इकाइयों की स्थापना की जा सकती है, जैसे कि तेलंगाना पुलिस के एक विशेष प्रभाग के रूप में ‘SHE Teams’ की स्थापना की है।
  • बेहतर उत्तरजीवी सहायता प्रणालियाँ: हिंसा के उत्तरजीवियों (survivors) के लिये सहायता प्रणालियों का विस्तार एवं संवर्द्धन किया जाए, जिसमें परामर्श सेवाएँ, पुनर्वास कार्यक्रम और आर्थिक सहायता शामिल हैं, ताकि उन्हें अपना सामान्य जीवनयापन पुनः शुरू कर सकने में मदद मिल सके।
  • आर्थिक सशक्तिकरण: शिक्षा, कौशल विकास और रोज़गार अवसरों के माध्यम से महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया जाए। वित्तीय स्वायत्तता महिलाओं की हिंसा और शोषण के प्रति संवेदनशीलता को कम कर सकती है।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की बेहतर रिपोर्टिंग एवं ट्रैकिंग के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाया जाए। इसमें अपराधों की रिपोर्टिंग के लिये उपयोगकर्ता-अनुकूल मोबाइल ऐप और डेटा विश्लेषण के लिये AI-संचालित सिस्टम शामिल हो सकते हैं।
  • महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना: विधि प्रवर्तन और न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए, ताकि विविध दृष्टिकोण सामने आ सकें और लिंग-आधारित हिंसा के मामलों को बेहतर तरीके से संबोधित किया जा सके।
  • नियमित प्रभाव आकलन: मौजूदा योजनाओं और नीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करने तथा आवश्यक समायोजन करने के लिये उनका आवधिक मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
  • मीडिया का उत्तरदायित्व: मीडिया में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की ज़िम्मेदारीपूर्ण रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित किया जाए, जहाँ वे सनसनी फैलाने के बजाय प्रणालीगत मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करें।

स्वास्थ्य पेशेवरों और रोगियों की सुरक्षा के लिये केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के हाल के निर्देश:

  • कोलकाता में हाल ही में हुई बलात्कार एवं हत्या की घटना के मद्देनजर केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने केंद्र सरकार द्वारा संचालित सभी अस्पतालों और प्रमुख स्वास्थ्य संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे स्वास्थ्य पेशेवरों और रोगियों की अभिगम्यता एवं सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए व्याप्त कमज़ोरियों को दूर करने के लिये अपने सुरक्षा उपायों को बेहतर बनाएँ।
  • मंत्रालय के निर्देश में 12 प्रमुख अनुशंसाएँ शामिल हैं, जिनमें हाई-रिज़ॉल्यूशन के सीसीटीवी कैमरे लगाना, आपातकालीन प्रतिक्रिया के लिये नियंत्रण कक्ष स्थापित करना और महिला स्वास्थ्य पेशेवरों के लिये सुरक्षित ड्यूटी रूम एवं परिवहन सुनिश्चित करना शामिल है।
  • इन निर्देशों में सुप्रशिक्षित सुरक्षा गार्डों, संवेदनशील क्षेत्रों तक सीमित पहुँच और व्यापक आपातकालीन योजनाओं की आवश्यकता पर भी बल दिया गया है।
  • इसके अतिरिक्त, मंत्रालय के निर्देशों में बेहतर प्रकाश व्यवस्था, कर्मचारियों के लिये नियमित सुरक्षा प्रशिक्षण और स्थानीय पुलिस एवं आपातकालीन सेवाओं के साथ समन्वय की बात भी कही गई है।

निष्कर्ष

भारत में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की लगातार बनी रही चुनौती इस गहरी सामाजिक समस्या से निपटने के लिये एक व्यापक, बहुआयामी दृष्टिकोण की मांग करती है। NCRB रिपोर्ट में प्रस्तुत चिंताजनक आँकड़े इस बात की याद दिलाते हैं कि भारत में महिलाओं की सुरक्षा एवं गरिमा सुनिश्चित करने के लिये अभी और प्रबल प्रयासों की आवश्यकता है।

आगे की राह के लिये सभी हितधारकों की ओर से महिलाओं के लिये सुरक्षित और अधिक समतामूलक वातावरण का निर्माण करने की दिशा में मिलकर कार्य करने की दृढ़ प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। इस प्रयास को सक्रिय हस्तक्षेपों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये जो लिंग-आधारित हिंसा को प्रश्रय देने वाले अंतर्निहित सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारकों को संबोधित करें। मौजूदा कानूनों के प्रवर्तन को सुदृढ़ करना, लिंग संवेदीकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना और उत्तरजीवियों के लिये व्यापक सहायता सेवाएँ प्रदान करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण कदम होंगे।

भारत में महिलाओं को लक्षित करने वाले अपराधों के विरुद्ध संघर्ष के लिये समाज के सभी क्षेत्रों से निरंतर, ठोस एवं करुणापूर्ण प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। भारत एक ऐसे भविष्य की दिशा में कार्य कर, जहाँ महिलाओं के अधिकार एवं सुरक्षा अनुल्लंघनीय हों, वास्तविक लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय प्राप्त करने की दिशा में सार्थक प्रगति कर सकता है।

अभ्यास प्रश्न: कार्यस्थल पर महिलाओं के समक्ष विद्यमान चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये। कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण ) अधिनियम 2013 जैसे विभिन्न कानूनी प्रावधानों के अनुपालन एवं प्रवर्तन में सुधार के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न: स्वाधार और स्वयं सिद्ध महिलाओं के विकास के लिये भारत सरकार द्वारा शुरू की गई दो योजनाएँ हैं। उनके बीच अंतर के संबंध में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये : (2010) 

  1. स्वयं सिद्ध उन लोगों के लिये है जो प्राकृतिक आपदाओं या आतंकवाद से बची महिलाओं, ज़ेलों से रिहा महिला कैदियों, मानसिक रूप से विकृत महिलाओं आदि जैसी कठिन परिस्थितियों में हैं, जबकि स्वाधार स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं के समग्र सशक्तीकरण के लिये है। 
  2.  स्वयं सिद्ध स्थानीय स्व-सरकारी निकायों या प्रतिष्ठित स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से कार्यान्वित किया जाता है जबकि स्वाधार राज्यों में स्थापित आईसीडीएस इकाइयों के माध्यम से कार्यान्वित किया जाता है। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 2 दोनों 
(d) न तो 1 और न ही 2 

उत्तर: (d) 


मेन्स:

प्रश्न 2: भारत में महिलाओं पर वैश्वीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों की चर्चा कीजिये? (2015)


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