एडिटोरियल (07 Sep, 2022)



स्मार्ट और उचित कृषि के लिये राह

यह एडिटोरियल 03/09/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Precision farming needs to be promoted to get more output with less exploitation of natural resources” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में कृषि की स्थिति और इसके विकास हेतु संवहनीय/सतत् उपायों पर चर्चा की गई है।

भारत में 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति (Green Revolution) ने राष्ट्र को घरेलू खाद्य उत्पादन में व्यापक स्तर उन्नत कर कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसने भारत को एक खाद्य-कमी वाले वाले देश से एक खाद्य-अधिशेष वाले और निर्यात-उन्मुख देश में रूपांतरित कर दिया है।

भारत में 70% ग्रामीण परिवार अभी भी अपनी आजीविका के लिये मुख्य रूप से कृषि पर ही निर्भर हैं, जिसमें से 82% छोटे और सीमांत किसान शामिल हैं।

हालाँकि अब भारत दूसरी पीढ़ी की  विशेष रूप से संवहनीयता, पोषण, नई कृषि तकनीकों के अंगीकरण और खेती पर निर्भर आबादी के आय स्तर के संबंध में समस्याओं का सामना कर रही है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व

  • खाद्य सुरक्षा और औद्योगिक क्षेत्र का प्रेरित विकास: भारत में समृद्ध कृषि उत्पादन, वृहत भारतीय आबादी की खाद्य सुरक्षा हेतु मुख्य कारक है।
    • कृषि चीनी, जूट, सूती वस्त्र और वनस्पति उद्योगों जैसे विभिन्न कृषि आधारित उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करती है। इसी प्रकार, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी कृषि पर ही निर्भर है।
    • औद्योगिक विकास के लिये ग्रामीण क्रय शक्ति में वृद्धि लाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि भारत की दो-तिहाई आबादी गाँवों में ही निवास करती है।
      • हरित क्रांति के बाद आय में वृद्धि के साथ बड़े किसानों की क्रय शक्ति में व्यापक रूप से वृद्धि हुई।
  • सरकारी राजस्व का स्रोत: कृषि देश की केंद्र और राज्य सरकारों दोनों के लिये ही राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। भू-राजस्व में वृद्धि से सरकार को एक उल्लेखनीय आय प्राप्त हो रही है।
    • रेलवे, रोडवेज़ जैसे कुछ अन्य क्षेत्र भी कृषि वस्तुओं की आवाजाही से अपनी आय का एक उल्लेखनीय अंश प्राप्त कर रहे हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में योगदान: कृषि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जूट, चाय, कॉफी और मसाले देश के जाने-माने पारंपरिक निर्यात उत्पाद हैं।

भारतीय कृषि के समक्ष विद्यमान वर्तमान चुनौतियाँ

  • मृदा स्वास्थ्य में गिरावट: पवन एवं जल अपरदन, निर्वनीकरण, शहरीकरण, प्राकृतिक वनस्पतियों की कटाई, वनों का कृषि-भूमियों में रूपांतरण आदि व्यापक रूप से मृदा स्वास्थ्य में गिरावट ला रहे हैं।
  • खेतों का घटता आकार: भूमि के आकार के कारण श्रम उत्पादकता बाधित होती है। भारत में खेतों का औसत आकार लगातार छोटा होता जा रहा है जिससे श्रम उत्पादकता में बाधा उत्पन्न हो रही है और यह आकारिक मितव्ययिता (Economies Of Scale) को सीमित कर रहा है।
    • अधिकांश ग्रामीण परिवारों के खेत का आकार अव्यवहार्य स्तर तक छोटा हो गया है जिससे किसान खेती छोड़ बेहतर रोज़गार अवसरों की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने के लिये प्रेरित हो रहे हैं।
  • प्रति बूंद अधिक फसल: राष्ट्रीय स्तर पर भारत के सकल फसल क्षेत्र (Gross Cropped Area-GCA) का केवल 52% ही सिंचाई के दायरे में है।
    • स्वतंत्रता के बाद से हुई उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद भारत में खेतों का एक बड़ा अनुपात सिंचाई के लिये मानसून पर निर्भर है, जिससे फसल की तीव्रता बढ़ाने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
  • ऋण तक सुविधाजनक पहुँच का अभाव: छोटे और सीमांत किसानों के लिये सुविधाजनक ऋण उपलब्ध नहीं है। नाबार्ड द्वारा वर्ष 2018 में किये एक सर्वेक्षण के अनुसार छोटे भूखंड आकार के स्वामी किसानों ने बड़े भूखंड आकार (> 2 हेक्टेयर) के स्वामी किसानों की तुलना में गैर-संस्थागत ऋणदाताओं से अधिक ऋण लिया था।
    • यह इंगित करता है कि छोटे और सीमांत किसान बड़े किसानों की तुलना में ऋण के अनौपचारिक स्रोतों (जो अधिक ब्याज भी लेते हैं) पर अधिक निर्भरता रखते हैं।
  • फसल असुरक्षा: भारतीय कृषि के तेज़ी से व्यावसायीकरण के बावजूद अधिकांश किसान, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसान, अनाज के उत्पादन को अधिक प्राथमिकता देते हैं (न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण) और फसल विविधीकरण (Crop Diversification) की उपेक्षा करते हैं।
  • नीति अंतःस्रवण की अप्रभाविता: भारत में लैंड लीजिंग कानूनों ने ऐसे रूप ग्रहण कर लिये हैं जो भू-स्वामी और पट्टेदार/काश्तकार के बीच औपचारिक लीजिंग अनुबंध को हतोत्साहित करते हैं।
    • देश में बड़ी संख्या में अनौपचारिक पट्टेदारी की स्थिति है। काश्तकारों की पहचान की कमी के कारण, काश्तकारों के लिये आपदा राहत और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसे लक्षित लाभ भू-स्वामियों को वितरित हो जाने का जोखिम रखते हैं क्योंकि आधिकारिक रिकॉर्ड में भू-स्वामी ही काश्तकार प्रतीत होता है।

कृषि क्षेत्र के विकास के लिये सरकार की कुछ प्रमुख पहलें

आगे की राह

  • पारंपरिक और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों को संयुक्त करना: वर्षा जल संचयन (Rainwater Harvesting) और पौधों के पोषक तत्त्वों, कीट प्रबंधन आदि के लिये जैविक अपशिष्ट के पुनर्चक्रण (Recycling Of Organic Waste) के क्षेत्र में पारंपरिक प्रौद्योगिकियाँ अत्यंत उपयोगी और प्रासंगिक साबित हुई हैं।
    • एक सहक्रियात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये पारंपरिक प्रौद्योगिकियों को टिशू कल्चर, जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी आधुनिक फ्रंटियर प्रौद्योगिकियों के साथ संयुक्त किया जाना चाहिये ताकि उच्च उत्पादकता प्राप्त की जा सके।
  • ज्ञान गहन कृषि (Knowledge Intensive Agriculture) के लिये इनपुट: भारत कृषि पद्धतियों की विविधता के लिये जाना जाता है। भविष्य के लिये उपयुक्त समाधान पाने हेतु राष्ट्रीय स्तर के संवाद में विविध दृष्टिकोणों को शामिल किया जाना महत्त्वपूर्ण है।
    • इसके अलावा, उन्नत राष्ट्र अब परिशुद्ध कृषि (Precision Farming) की ओर आगे बढ़ रहे हैं जहाँ इनपुट के सटीक अभ्यासों और अनुप्रयोगों के लिये सेंसर एवं अन्य वैज्ञानिक उपकरणों का उपयोग किया जाता है।
      • भारत में हाई-टेक फार्मिंग की ओर एक कुशल/स्मार्ट और सटीक कदम औसत लागत को कम करेगा, किसानों की आय बढ़ाएगा और कई अन्य आकारिक चुनौतियों (Challenges Of Scale) का समाधान करेगा।
  • अनुसंधान और नवाचार में निवेश: कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दूर करने और संवहनीय कृषि की दिशा में आगे बढ़ने के लिये कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और नवाचार में वृद्धि करना आवश्यक है।
    • उदाहरण के लिये, पशुधन क्षेत्र भारत में कृषि क्षेत्र के भीतर कार्बन उत्सर्जन में सबसे अधिक योगदान करता है, इसलिये स्थायी समाधान खोजने के लिये उनके प्रभावों का आकलन करना महत्त्वपूर्ण है।
    • भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographical Information System- GIS) और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एंड मशीन लर्निंग (AIML) जैसी नवीन प्रौद्योगिकियाँ कृषि में एक क्रांतिकारी युग को आधार प्रदान करने के लिये तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं।
  • जैव सुरक्षा की ओर: चूँकि भारत कीट और खरपतवार के हमलों के प्रति अतिसंवेदनशील है, इसलिये उपभोक्ताओं की खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ पशुओं एवं पौधों के जीवन एवं उनके स्वास्थ्य के लिये उत्पन्न जोखिमों से निपटने हेतु एक रणनीतिक और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
    • राष्ट्रीय किसान आयोग (National Farmers Commission) के अध्यक्ष एम.एस. स्वामीनाथन ने भी एक राष्ट्रीय कृषि जैव सुरक्षा कार्यक्रम (National Agricultural Biosecurity Program) स्थापित करने की सिफारिश की थी।
  • फसल अधिशेष प्रबंधन का उन्नयन: पोस्ट-हार्वेस्ट प्रबंधन, बीज, उर्वरक और कृषि रसायन गुणवत्ता विनियमन के लिये एक अवसंरचना उन्नयन और विकास कार्यक्रम की आवश्यकता है।
    • इसके साथ ही, उपार्जन केंद्रों की ग्रेडिंग और मानकीकरण को बढ़ावा देना भी आवश्यक है।
  • बाज़ार एकीकरण के माध्यम से व्यापक लाभ उठाना: घरेलू बाज़ारों को सुव्यवस्थित करने और स्थानीय बाज़ारों को राष्ट्रीय एवं वैश्विक बाज़ारों से जोड़ने के लिये बुनियादी ढाँचे और संस्थानों को स्थापित किया जाना चाहिये।
    • घरेलू एवं वैश्विक बाज़ारों के बीच सहज एकीकरण की सुविधा हेतु और व्यापार उदारीकरण को अधिक प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिये भारत को एक नोडल संस्थान की आवश्यकता है जो वैश्विक और घरेलू मूल्य संचालनों की सूक्ष्म निगरानी कर सके तथा बड़े आघातों से बचाव के लिये समयबद्ध एवं उपयुक्त उपाय कर सके।

अभ्यास प्रश्न: भारत एक खाद्य कमी वाले राष्ट्र से एक खाद्य-अधिशेष राष्ट्र के रूप में कैसे रूपांतरित हुआ? कृषि विकास के समक्ष विद्यमान चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।