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एडिटोरियल

  • 28 Aug, 2019
  • 12 min read
कृषि

सतत् कृषि

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में सतत् कृषि एवं मृदा जैविक कार्बन की चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

  • कृषि भारत की लगभग आधी जनसंख्या को आजीविका प्रदान करती है और देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करती है।
  • वस्तुतः हम खाद्यान्न संकट को टालने में इसलिये सफल रहे हैं क्योंकि हमारे देश के किसान कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित आधुनिक अनुसंधान और प्रौद्योगिकी का उपयोग कर उत्पादन में वृद्धि कर रहे हैं।
  • लेकिन इसके कुछ प्रतिप्रभाव भी उत्पन्न हुए हैं जैसे हमारे प्राकृतिक संसाधनों, विशेष रूप से मृदा व जल का अतिदोहन हुआ है, इसके साथ ही धारणीयता का मुद्दा भी उभरकर सामने आया है।

सतत् कृषि से संबंधित मुद्दे

  • पहला मुद्दा, भूजल का गिरता स्तर है जिस पर स्वयं प्रधानमंत्री ने हाल ही में ध्यान केंद्रित किया है।
  • दूसरा मुद्दा है कि मृदा में से कार्बनिक पदार्थ समाप्त होते जा रहे हैं।
  • तीसरा मुद्दा जलवायु परिवर्तन की व्यापक चिंता से संबंधित है; फसल के दौरान मानसूनी वर्षा की अनिश्चितता और तापमान में वृद्धि जैसी समस्याओं से हम भली-भाँति अवगत हैं।

मृदा जैविक कार्बन (Soil Organic Carbon- SOC)

  • मृदा में उपस्थित जैविक कार्बन कृषि के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • जैविक पदार्थ का लगभग 58 प्रतिशत कार्बन के रूप में मौजूद होता है।
  • इस प्रकार मृदा में कार्बनिक पदार्थ की प्रतिशतता का आकलन मृदा जैविक कार्बन (SOC) के प्रतिशत को 1.72 (100/58) के रूपांतरण कारक (Conversion Factor) द्वारा गुणा करके किया जा सकता है।

मृदा जैविक कार्बन क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • किसान फसलों के लिये यूरिया या डाई-अमोनियम फॉस्फेट (DAP) का उपयोग करते हैं, उपयुक्त SOC स्तर ही वह कारक है जो इन रासायनिक उर्वरकों से नाइट्रोजन और फॉस्फोरस को फसलों के लिये उपयोगी बनाता है।
  • कार्बनिक पदार्थ उन सूक्ष्मजीवों के भोजन के स्रोत भी हैं जो मृदा की सरंध्रता और वायु संचरण (Porosity and Aeration) को बढ़ाने में मदद करते हैं।
  • उच्च कार्बन स्तर के साथ मिट्टी की नमी को धारण करने की क्षमता में भी वृद्धि होती है जिससे जल की बर्बादी को भी कम किया जा सकता है।
  • सरल शब्दों में कहें तो SOC स्तर का मृदा की उत्पादकता के साथ प्रत्यक्ष संबंध है और इस प्रकार इसका संबंध कृषि की धारणीयता से है।

यह जलवायु परिवर्तन से कैसे संबद्ध है?

  • फसल उत्पादन में अवशोषण की प्रक्रिया के माध्यम से और मिट्टी में पौधों के अवशेषों के मिलने से वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) मृदा जैविक कार्बन के रूप में संग्रहीत होती है।
  • वायुमंडलीय CO2 का पृथक्करण (Carbon Sequestration) वस्तुतः जलवायु परिवर्तन के लिये एक शक्तिशाली शमन उपाय हो सकता है।
  • लेकिन पिछले चार वर्षों में केंद्र की मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना (SHC Scheme) के अंतर्गत प्राप्त नमूना परीक्षण परिणामों के आधार पर जो तस्वीर नज़र आती है, वह उत्साहजनक नहीं है।
  • भारत के अधिकांश हिस्सों में SOC का स्तर बहुत कम पाया गया है।
  • समशीतोष्ण जलवायु क्षेत्र की मिट्टी में कार्बन का स्तर बेहतर होता है। यह स्थिति भारत जैसे गर्म और उष्णकटिबंधीय वायुमंडलीय क्षेत्रों में एकदम विपरीत है, जहाँ मिट्टी पौधों के अवशेषों के अपघटन (खनिजीकरण) के माध्यम से कार्बन हानि की प्रवृत्ति रखती है।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान इस स्थिति को और गंभीर बना देता है।

पर्याप्त SOC स्तर का पता कैसे लगाएँ?

  • कृषि अवशेषों और बाह्य कार्बनिक पदार्थों को मिलाकर SOC स्तर को ऊपर उठाया जा सकता है।

कृषि की सततता सुनिश्चित करने हेतु कार्ययोजना

  • प्रथम चरण: उपयुक्त फसल चयन
    • पौधे वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं और इसे प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया के माध्यम से भोजन में परिवर्तित करते हैं।
    • आदर्शतः ऐसी फसलों को उगाना चाहिये जिनका जैवभार अधिक हो तथा जो मिट्टी के कार्बनिक पदार्थों को बढ़ाकर दीर्घकालिक उत्पादकता में योगदान करती हों।
    • किंतु किसान आर्थिक लाभ के उद्देश्य से केवल उन फसलों के उत्पादन की इच्छा रखते हैं जो उच्च और आश्वस्त आय प्रदान करे, भले ही यह लाभ अल्पावधिक हो।
    • उच्च SOC और दीर्घकालिक उत्पादकता सुनिश्चित करने के लिये फसल प्रारूप (Cropping Patterns) में परिवर्तन तब तक प्रदर्शित नहीं होगा जब तक कि वांछित वैकल्पिक फसलें लाभदायी नहीं होंगी।
    • ऐसी फसलों के लिये कृषि-प्रसंस्करण इकाइयाँ स्थापित करने हेतु प्रोत्साहन देने सहित उपयुक्त नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी जो इन्हें लाभदायी बनाएगी और किसान इनके उत्पादन के लिये आकर्षित होंगे।
  • द्वितीय चरण: फसल अवशेषों का उपयुक्त नियोजन
    • कटाई के बाद फसल अवशेष और चारे के लिये ज़रूरी सूखे डंठलों को अधिकाधिक मात्रा में खेत में छोड़ दिया जाए।
    • इसके लिये वैज्ञानिक फसल अवशेष प्रबंधन (CRM) की आवश्यकता है।
    • पराली (Crop Stubble) को जलाने से न केवल पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर बल्कि मिट्टी की उर्वरता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
    • फसल अवशेष जलाए जाने पर वह मिट्टी के साथ मिश्रित हो मृदा जैविक कार्बन में वृद्धि करने के बज़ाय कार्बन डाइऑक्साइड में परिवर्तित हो जाते हैं।
    • वर्तमान में एक ऐसी रणनीति की आवश्यकता है जो फसल अवशेषों के स्व-स्थाने और बाह्य-स्थाने (In-situ and Ex-situ) प्रबंधन पर केंद्रित हो।
    • वर्तमान में हैप्पी सीडर, सुपर-स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम अटैचमेंट, मल्चर और चॉपर-श्रेडर जैसे उपकरणों पर सब्सिडी दिये जाने के प्रावधान से इस समस्या को हल करने की कोशिश की जा रही है।
    • लेकिन ये सब उपाय अधिकांशतः राष्ट्रीय राज़धानी के निकटवर्ती क्षेत्रों में कार्यान्वित हैं। सतत् कृषि और मृदा स्वास्थ्य में सुधार के लिये सभी राज्यों के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता है।
  • तृतीय चरण: बाहरी स्रोतों से कार्बनिक पदार्थ जोड़ना
    • कम्पोस्ट के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
    • मनरेगा और अन्य योजनाओं के धन का उपयोग करते हुए वर्मीकम्पोस्ट गड्ढों या ’नाडेप’ कम्पोस्ट टैंकों के निर्माण के लिये सब्सिडी दी जा सकती है।
    • शहरी हरे कचरे और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों से प्राप्त खाद को भी खेत की मिट्टी की ओर मोड़ा जा सकता है।
    • इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जब पारंपरिक खाद (Farm Yard Manure) के साथ नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम (NPK) का उपयोग किया जाता है, तो NPK अनुपात के साथ-साथ SOC के स्तर में भी वृद्धि होती है।
  • चतुर्थ चरण: फसल का चक्रीकरण
    • इस पद्धति में भूमि की उर्वरता बनाए रखने के लिये एक के बाद एक फसलों की खेती की जाती है ताकि मिट्टी की उर्वरता बनी रहे।
    • गेहूँ और धान की तरह दलहन के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की उपयुक्त प्रणाली न होने के कारण किसान दाल की खेती करने में रूचि नहीं दिखाते।
    • चावल-गेहूँ प्रणाली में अथवा खरीफ/रबी मौसम में ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में दलहनी अथवा फलीदार फसलों की खेती अत्यंत आवश्यक है।
    • फलियों की जड़ में राइज़ोबियम जीवाणु रहते हैं जो वायुमंडल से नाइट्रोजन ग्रहण करते हैं।
    • यह नाइट्रोजन लंबे समय तक मिट्टी में कार्बन के स्थिरीकरण में मदद करता है।
    • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में दालों को शामिल करने से मृदा स्वास्थ्य के साथ-साथ आम लोगों के लिये पोषण सुरक्षा को बढ़ावा देने का दूरगामी लाभ प्राप्त होगा।
  • पंचम चरण: ज़ीरो टिलेज/शून्य जुताई को बढ़ावा देना
    • शून्य जुताई को बड़े स्तर पर प्रोत्साहन दिये जाने की आवश्यकता है क्योंकि मिट्टी के बड़े टुकड़ों में जैविक कार्बन बरकरार रहता है।
    • गहरी जुताई वाले उपकरण इन बड़े टुकड़ों को तोड़ कर मृदा जैविक कार्बन (SOC) को नुकसान पहुँचाते हैं, जहाँ पानी के साथ इनके अपवाह या कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में वाष्पीकरण की स्थिति बनती है।
    • ज़ीरो-टिल सीड ड्रिल, हैप्पी सीडर्स और डायरेक्ट सीडेड राइस मशीन मिट्टी के बड़े टुकड़ों में न्यूनतम हस्तक्षेप और जैविक पदार्थों की निम्न अपक्षय को सुनिश्चित करने में सहायक हो सकते हैं।

निष्कर्ष

  • हमें निर्दिष्ट और समयबद्ध लक्ष्यों के साथ, मिट्टी की जैविक पदार्थ सामग्री में वृद्धि के लिये एक व्यापक जागरूकता कार्यक्रम शुरू करने की आवश्यकता है।
  • परिणामों की निगरानी और आकलन का कार्य इस महत्त्वपूर्ण पहलू पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करेगा।
  • निश्चय ही कृषि लाभदायक होनी चाहिये, लेकिन इसे सतत् ् भी होना आवश्यक है।

प्रश्न: कृषि की आर्थिक दक्षता के साथ-साथ इसका सतत् होना भी आवश्यक है। इस कथन के आलोक में मृदा जैविक कार्बन (SOC) की चर्चा कीजिये।


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