डेली न्यूज़ (28 May, 2022)



मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉज़ ऑफ डेथ (MCCD) 2020 रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

MCCD रिपोर्ट,साँस की बीमारी, कोविड-19 

मेन्स के लिये:

MCCD रिपोर्ट, रोगों का कारण और रोकथाम, स्वास्थ्य 

चर्चा में क्यों? 

मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉज़ ऑफ डेथ (MCCD) 2020 रिपोर्ट के अनुसार, कोविड-19 लॉकडाउन के पहले वर्ष में पिछले एक दशक के दौरान साँस की बीमारियों से मरने वाले व्यक्तियों की सबसे अधिक घटनाएँ देखी गईं। 

MCCD रिपोर्ट: 

  • जन्म और मृत्यु पंजीकरण (RBD) अधिनियम, 1969 के प्रावधानों के तहत देश में मृत्यु के कारणों की चिकित्सा प्रमाणन (MCCD) योजना शुरू की गई थी। 
  • तब से यह देश में राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में दक्षता के विभिन्न स्तरों के साथ प्रारंभ है। 
  • इस योजना के तहत भारत के महापंजीयक का कार्यालय राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों के संबंधित मुख्य रजिस्ट्रारों के जन्म और मृत्यु पंजीकरण कार्यालयों द्वारा एकत्रित, संकलित एवं सारणीबद्ध रूप में मृत्यु के चिकित्सकीय प्रमाणित कारणों पर डेटा प्राप्त करता है। 

MCCD रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएंँ: 

  • कुल मौतें: वर्ष 2020 में सभी कारणों से होने वाली मौतों की कुल संख्या 81.2 लाख थी। 
    • रिपोर्ट में 2020 और 2021 के लिये भारत की अतिरिक्त मृत्यु दर 47.4 लाख आँकी गई है। 
    • नागरिक पंजीकरण प्रणाली (CRS) के आंँकड़ों ने 2019 की तुलना में 2020 में सभी कारणों से 4.75 लाख अतिरिक्त मौतों की जानकारी दी। 
  • चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित मौतें: चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित मृत्यु के मामले में यह राष्ट्रीय स्तर पर कुल पंजीकृत मौतों का 22.5% है, लेकिन लाइलाज़ बीमारी के समय मृतकों की यह संख्या बढ़कर 54.6% हो गई।राष्ट्रीय स्तर पर कुल पंजीकृत मौतों का 22.5% चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित मौतें हैं, लेकिन टर्मिनल बीमारी के समय यह बढ़कर 54.6% हो गई। 
    • चिकित्सकीय रूप से कुल प्रमाणित मौतों का लगभग 5.7% शिशुओं की मौतों के रूप में रिपोर्ट की गई है। 
  • मौतों के प्रमुख समूहिक कारण: मौतों के नौ प्रमुख समूहिक कारण है जो चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित मौतों के कुल कारणों का लगभग 88.7% हैं: 
    • संचारी रोग (32.1%) 
    • श्वसन तंत्र संबंधी रोग (10%) 
    • विशेष प्रयोजन के लिये कोड- कोविड-19 (8.9%) 
    • कुछ संक्रामक और परजीवी रोग- मुख्य रूप से सेप्टीसीमिया तथा तपेदिक से युक्त (7.1%) 
    • अंतःस्रावी, पोषण और चयापचय संबंधी रोग (5.8%) 
    • चोट, ज़हर और बाहरी कारणों के कुछ अन्य परिणाम (5.6%)  
    • नियोप्लाज़्म (4.7%) 
    • प्रसवकालीन अवधि में उत्पन्न होने वाली कुछ स्थितियाँ (4.1%) 
    • लक्षण और असामान्य नैदानिक परिणाम "अन्यत्र वर्गीकृत नहीं" (10.6%) 

कोविड-19 से हुई मौतें:  

  • कोविड-19 वायरस, एक साँस संबंधी बीमारी का कारक भी है जिसे अलग से रिपोर्ट में "विशेष उद्देश्यों के लिये कोड (कोविड-19 मौत) के तहत रिपोर्ट की गई मौतों" के रूप में दर्ज किया गया है। 
  • कोविड-19 मृत्यु का तीसरा प्रमुख कारण है, जिसके राष्ट्रीय स्तर पर कुल चिकित्सकीय मौतों में से 8.9% मामले दर्ज किये गए है  
  • हालाँकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2020 में 1.49 लाख लोगों की मृत्यु कोविड-19 के कारण हुई थी। 
  • मई 2022 तक भारत में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या 5.2 लाख थी। 

साँस की बीमारी से होने वाली मौतें:

Short-of-breath  MCCD 

  • वर्ष 2020 में निमोनिया, अस्थमा और ब्रोंकाइटिस जैसी साँस की बीमारियों के कारण 1,81,160 मौतें हुईं, वहीँ वर्ष 2019 में 1,52,311 से अधिक मौतें हुईं थीं। 
  • 70 वर्ष से ऊपर के लोग श्वसन रोगों से सबसे अधिक प्रभावित थे, जो सबसे ज़्यादा मौतों के लिये ज़िम्मेदार थे, कुल पंजीकृत चिकित्सकीय प्रमाणित मौतों का 29.4% लोग इस आयु वर्ग से संबंधित थे। 
    • इसके बाद 55-64 वर्ष के आयु वर्ग में 23.9% मौतें दर्ज हुईं, जबकि 65-69 वर्ष के आयु वर्ग के लोगों में भी मौतों की एक बड़ी संख्या (4.5%) दर्ज की गई है। 
  • मौतों की सबसे ज़्यादा संख्या 45 वर्ष और उससे अधिक आयु वर्ग मेंं देखी गई जो कुल मौतों का 82.7% है। 

स्रोत: द हिंदू 


श्रेणी-C के कोयला संयंत्रों के लिये अनुपालन की समय-सीमा

प्रिलिम्स के लिये:

कोयला संयंत्र श्रेणियाँ, फ़्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड। 

मेन्स के लिये :

ऊर्जा संसाधन, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट। 

चर्चा में क्यों?    

विद्युत मंत्रालय (MoP) ने उत्सर्जन मानदंडों का पालन करने के लिये 398 थर्मल श्रेणी-C कोयला बिजली संयंत्रों के लिये पुनः 20 वर्ष के विस्तार की मांग की है। 

  • केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) ने 78% कोयले से चलने वाली तापीय बिजली क्षमता वाली इकाइयों के लिये वर्ष 2017 की मूल समय-सीमा तय की थी, वर्ष 2021 में इस समय-सीमा को संशोधित कर वर्ष 2024 कर दिया गया था। 
  • वर्तमान में श्रेणी-C वाले बिजली संयंत्र केवल 5% उत्सर्जन क्षमता मानदंडों का अनुपालन करते हैं। 

समय-सीमा में विस्तार के प्रमुख कारण:  

  • पृष्ठभूमि: 
    • भारत ने प्रारंभ में ज़हरीले सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती करने वाली फ्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन (FGD) इकाइयों को स्थापित करने हेतु उत्सर्जन मानकों का पालन करने को थर्मल पावर प्लांट के लिये वर्ष 2017 की समय-सीमा निर्धारित की थी। 
    • वर्ष 2021 में विद्युत मंत्रालय ने कोरोनोवायरस महामारी और आयात प्रतिबंधों सहित विभिन्न कारणों से देरी का हवाला देते हुए पर्यावरण मंत्रालय से अनुरोध किया कि वह वर्ष 2022 से 2024 तक सभी ताप विद्युत संयंत्रों के लिये उत्सर्जन मानदंडों को पूरा करने की समय-सीमा को बढ़ाए। 
    • अतः अप्रैल 2021 में पर्यावरण मंत्रालय ने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के लिये उत्सर्जन मानदंडों का पालन करने हेतु समय-सीमा को तीन वर्ष से बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया।  
      • ये संशोधित मानदंड बिजली संयंत्रों को उनकी अवस्थिति के आधार पर अनुपालन के लिये समय-सीमा को कम कर देते हैं। 
      • इसके अंतर्गत सभी ताप विद्युत संयंत्रों को तीन समूहों- श्रेणी- A, B और C में वर्गीकृत किया गया है। 
    • पर्यावरण के हितों की रक्षा करना प्राथमिकता होनी चाहिये और प्रदूषण फैलाने वालों और लगातार उल्लंघन करने वालों का पक्ष नहीं लिया जाना चाहिये। 
    • बिजली संयंत्रों को अधिक कुशल और पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए कोयला गैसीकरण, कोयला लाभकारी जैसी नई तकनीकों को आसानी से नियोजित किया जाना चाहिये। 
    • साथ ही भारतीय ऊर्जा संक्रमण क्षेत्र में परिवर्तन के लिये अक्षय ऊर्जा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। 
  • कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों से उत्सर्जन: 
    • थर्मल पावर कंपनियांँ देश की बिजली का तीन-चौथाई उत्पादन करती हैं, इनके द्वारा उत्सर्जित पार्टिकुलेट मैटर, सल्फर एवं नाइट्रस-ऑक्साइड औद्योगिक उत्सर्जन का लगभग 80% हिस्सा है, जो फेफड़ों की बीमारियों, अम्ल वर्षा और स्मॉग का कारण बनती हैं। 
    • े सभी उद्योग कुल पीने योग्य ज़ल का 70% उपयोग करने के लिये ज़िम्मेदार हैं। 
  • विस्तार का कारण: 
    • 'आत्मनिर्भर भारत' को प्रोत्साहित करने हेतु फ्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन (FGD) के लिये चरणबद्ध निर्माण कार्यक्रम। 
      • FGD थर्मल प्रोसेसिंग, उपचार और दहन भट्टियों, बॉयलरों तथा अन्य औद्योगिक प्रक्रियाओं द्वारा उत्पादित फ्लू गैसों से सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) को हटाना है। 
    • मांग-आपूर्ति में अंतर के कारण FGD की प्रति यूनिट उत्पादन उच्च लागत 0.39 करोड़ रुपए से बढ़कर 1.14 करोड़ रुपए हो गईं। 
    • कोविड-19 महामारी के कारण FGD की योजना, निविदा और कार्यान्वयन बाधित हो गया था। 
    • इसके अलावा भू-राजनीतिक परिस्थितियों के कारण एब्जॉर्बर लाइनिंग और बोरोसिलिकेट्स जैसे FGD के घटकों के लिये आयात बाधाएंँ मौजूद हैं। 

कोयला संयंत्रों की विभिन्न श्रेणियांँ: 

  • मिलियन से अधिक आबादी वाले शहरों, गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों, गैर-प्राप्ति शहरों और दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र आदि को उनकी हवाई दूरी के आधार पर कोयला संयंत्रों को श्रेणी-A, श्रेणी-B और श्रेणी-C संयंत्रों में वर्गीकृत किया गया है। 
    • श्रेणी-A: 
      • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) या दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के 10 किमी. के दायरे में बिजली संयंत्रों को दिसंबर 2022 की समय-सीमा पूरी करनी होगी। 
      • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) द्वारा तैयार की गई सूची के अनुसार, ऐसे 79 कोयला आधारित बिजली संयंत्र हैं। 
    • श्रेणी-B और श्रेणी- C: 
      • गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों या गैर-प्राप्ति शहरों के 10 किमी. के दायरे में बिजली संयंत्रों को दिसंबर 2023 की समय-सीमा पूरी करनी होगी। इस समय B-श्रेणी के 68 संयंत्र हैं। 
      • शेष संयंत्रों में कुल मिलाकर 75% श्रेणी-C के अंतर्गत आते हैं, जिनके दिसंबर 2024 की समय-सीमा में पूरा किये जाने की उम्मीद थी। इस समय C-श्रेणी के तहत 449 संयंत्र हैं। 
  • वर्ष 2021 के संशोधन ने पहली बार दंड की शुरुआत की। श्रेणी-ए में गैर-सेवानिवृत्त संयंत्रों के लिये समय-सीमा के उल्लंघन पर अधिकतम जुर्माना 20 पैसे प्रति यूनिट है; श्रेणी-बी संयंत्रों के लिये प्रति यूनिट 15 पैसे और श्रेणी-C संयंत्रों के लिये 10 पैसे प्रति यूनिट। सेवानिवृत्त होने वाले संयंत्रों मामले में 20 पैसे प्रति यूनिट की दर से ज़ुर्माना लगाया जाता है। 

श्रेणी-A और श्रेणी-B संयंत्रों की अनुपालन स्थिति: 

  • श्रेणी-A के लगभग आधे (54%) संयंत्र दिसंबर 2022 की समय-सीमा का पालन नहीं करते हैं। अब तक सिर्फ 13 फीसदी संयंत्र ही उत्सर्जन मानकों पर खरे उतरे हैं। 
  • श्रेणी-B के केवल 8% संयंत्र अनुपालन का दावा करते हैं और 30% समय-सीमा को पूरा करने की संभावना रखते हैं। 61% के समय-सीमा से चूकने की आशंका है। 

आगे की राह 

  • पर्यावरण की रक्षा करना प्राथमिकता होनी चाहिये और प्रदूषण फैलाने वालों तथा लगातार उल्लंघन करने वालों का पक्ष नहीं लिया जाना चाहिये। 
  • बिजली संयंत्रों को अधिक कुशल और पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिये कोयला गैसीकरण जैसी  लाभकारी नई तकनीकों को आसानी से नियोजित किया जाना चाहिये। 
  • साथ ही भारतीय ऊर्जा संक्रमण क्षेत्र में परिवर्तन के लिये अक्षय ऊर्जा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। 

िगत वर्ष के प्रश्न:

 

प्रश्न. राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) से किस प्रकार भिन्न है? (2018) 

  1. NGT को एक अधिनियम द्वारा स्थापित किया गया है जबकि CPCB सरकार के एक कार्यकारी आदेश द्वारा बनाया गया है।
  2. NGT पर्यावरणीय न्याय प्रदान करता है तथा उच्च न्यायालयों में मुकदमों के बोझ को कम करने में मदद करता है, जबकि CPCB नदियों और कुओं की सफाई को बढ़ावा देता है तथा इसका उद्देश्य देश में वायु की गुणवत्ता में सुधार करना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(A) केवल 1 
(B) केवल 2 
(C) 1 और 2 दोनों 
(D) न तो 1 और न ही 2 

उत्तर: (B) 

  • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) एक वैधानिक संगठन है जिसका गठन सितंबर 1974 में जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के तहत किया गया था। इसे वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत शक्तियांँ और कार्य सौंपे गए थे। NGT, राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम (2010) के तहत स्थापित एक विशेष निकाय है। अतः कथन 1 सही नहीं है। 
  • CPCB के कार्यं: 
    • जल प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और उपशमन के माध्यम से राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में नालों व कुओं की सफाई को बढ़ावा देकर जल की गुणवत्ता की निगरानी करना। 
    • देश में वायु प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और उपशमन के माध्यम से वायु गुणवत्ता में सुधार करके वायु गुणवत्ता की निगरानी करना। 
  • NGT पर्यावरण संरक्षण और वनों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों के प्रभावी एवं शीघ्र निपटान का प्रावधान करता है। अत: कथन 2 सही है। 

स्रोत: डाउन टू अर्थ 


पहला लैवेंडर महोत्सव

प्रिलिम्स के लिये:

पर्पल रेवोल्यूशन, अरोमा मिशन। 

मेन्स के लिये:

लैवेंडर की खेती और इसका महत्त्व, कृषि मूल्य निर्धारण, कृषि संसाधन। 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में जम्मू के भद्रवाह में भारत के पहले लैवेंडर महोत्सव का उद्घाटन किया गया। 

  • लैवेंडर की खेती ने जम्मू और कश्मीर के दूरदराज़ के क्षेत्रों में लगभग 5,000 किसानों और युवा उद्यमियों के लिये रोज़गार पैदा किया है। 200 एकड़ में इसकी खेती करने वाले 1,000 से अधिक किसान परिवार इसमें शामिल हैं। 

लैवेंडर क्रांति: 

  • परिचय: 
    • बैंगनी या लैवेंडर क्रांति 2016 में केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) अरोमा मिशन के माध्यम से शुरू की गई थी। 
    • जम्मू-कश्मीर के लगभग सभी 20 ज़िलों में लैवेंडर की खेती की जाती है। 
    • पहली बार में किसानों को खेती के लिये मुफ्त में लैवेंडर के पौधे दिये गए, जबकि जिन किसानों ने पहले लैवेंडर की खेती की थी, उन्हें 5-6 रुपए प्रति पौधा दिया गया था। 
  • लक्ष्य: 
    • आयातित सुगंधित तेलों की बजाय घरेलू किस्मों को बढ़ावा देकर घरेलू सुगंधित फसल आधारित कृषि अर्थव्यवस्था का समर्थन करना। 
  • उत्पाद: 
    • मुख्य उत्पाद लैवेंडर तेल है जो कम-से-कम 10,000 रुपए प्रति लीटर बिकता है। 
    • लैवेंडर का जल जो लैवेंडर के तेल से अलग होता है, का उपयोग अगरबत्ती बनाने के लिये किया जाता है। 
    • हाइड्रोसोल जो कि फूलों से आसवन के बाद बनता है, साबुन और रूम फ्रेशनर बनाने के लिये उपयोग किया जाता है। 
  • महत्त्व: 
    • यह 2022 तक कृषि आय को दोगुना करने की सरकार की नीति के अनुरूप है। 
    • यह उभरते किसानों, कृषि उद्यमियों को आजीविका के साधन प्रदान करने में मदद करेगा और स्टार्टअप इंडिया अभियान एवं क्षेत्र में उद्यमशीलता की भावना को बढ़ावा देगा। 
      • 500 से अधिक युवाओं ने बैंगनी क्रांति का लाभ उठाया था और अपनी आय में कई गुना  वृद्धि की। 

अरोमा मिशन: 

  • परिचय:  
    • इत्र उद्योग और ग्रामीण रोज़गार के विकास को बढ़ावा देने के लिये कृषि, प्रसंस्करण और उत्पाद विकास के क्षेत्रों में वांछित हस्तक्षेप के माध्यम से सुगंध क्षेत्र में परिवर्तनकारी बदलाव लाने के लिये CSIR द्वारा अरोमा मिशन की परिकल्पना की गई है। 
    • यह मिशन ऐसे आवश्यक तेलों के लिये सुगंधित फसलों की खेती को बढ़ावा देगा, जिनकी अरोमा (इत्र) उद्योग में काफी अधिक मांग है। 
  • यह मिशन भारतीय किसानों और अरोमा (सुगंध) उद्योग को ‘मेन्थॉलिक मिंट’ जैसे कुछ अन्य आवश्यक तेलों के उत्पादन व निर्यात में वैश्विक प्रतिनिधि बनने में मदद करेगा। 
  • इसका उद्देश्य उच्च लाभ, बंजर भूमि के उपयोग और जंगली एवं पालतू जानवरों से फसलों की रक्षा करके किसानों को समृद्ध बनाना है। 
  • अरोमा मिशन चरण- I एवं चरण II: 
    • पहले चरण के दौरान CSIR ने 6000 हेक्टेयर भूमि पर खेती करने में मदद की और देश भर के 46 आकांक्षी ज़िलों को कवर किया। इसके अलावा 44,000 से अधिक लोगों को प्रशिक्षित किया। 
    • फरवरी 2021 में CSIR ने अरोमा मिशन का दूसरा चरण शुरू किया जिसमें 45,000 से अधिक कुशल मानव संसाधनों को शामिल करने का प्रस्ताव है जिससे देश भर में 75,000 से अधिक किसान परिवारों को लाभ होगा। 
  • नोडल एजेंसी: 
  • सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय और सुगंधित पौधा संस्थान (CSIR-CIMAP), लखनऊ इसकी नोडल एजेंसी है। 
  • संभावित परिणाम: 
    • लगभग 5500 हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र को सुगंधित नकदी फसलों की कैप्टिव खेती के तहत लाना, विशेष रूप से पूरे देश में वर्षा सिंचित / निम्नीकृत भूमि को लक्षित करना। 
    • पूरे देश में किसानों/उत्पादकों को आसवन और मूल्यवर्द्धन के लिये तकनीकी और ढांँचागत सहायता प्रदान करना। 
    • किसानों/उत्पादकों हेतु लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने के लिये प्रभावी बाय-बैक (Buy-Back) तंत्र को सक्षम करना। 
    • वैश्विक व्यापार और अर्थव्यवस्था में उनके एकीकरण के लिये आवश्यक तेलों व सुगंध सामग्री का मूल्यवर्नद्ध करना। 
       

      स्रोत: पी.आई.बी. 


सरोगेसी

प्रिलिम्स के लिये:

सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी, परोपकारी और वाणिज्यिक सरोगेसी। 

मेन्स के लिये:

सरोगेसी, कानूनी प्रावधान और कमियाँ, महिलाओं से संबंधित मुद्दे। 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें एक एकल पुरुष और एक महिला को सरोगेसी द्वारा बच्चा पैदा करने के बहिष्कार को चुनौती दी गई और वाणिज्यिक सरोगेसी के गैर-अपराधीकरण की मांग की गई है। 

  • याचिकाकर्त्ताओं ने सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी (विनियमन) अधिनियम, 2021 और सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के अंतर्गत सरोगेसी का लाभ उठाने से प्रतिबंधित करने के विनियम को चुनौती दी है। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि सरोगेसी के माध्यम से बच्चे के जन्म के बारे में एक व्यक्ति का व्यक्तिगत निर्णय, यानी प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता के अधिकार का एक पहलू है। 
    • इस प्रकार सरोगेसी के माध्यम से बच्चे को जन्म देने या जन्म देने के निर्णय को मूल रूप से प्रभावित करने वाले मामलों में हर नागरिक या व्यक्ति के अनुचित सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त होने के निजता के अधिकार को छीना नहीं जा सकता है। 

सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021: 

  • प्रावधान: 
    • सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के अनुसार, महिला जो 35 से 45 वर्ष की आयु के बीच विधवा या तलाकशुदा है या कानूनी रूप से विवाहित महिला और पुरुष के रूप में परिभाषित युगल सरोगेसी का लाभ उठा सकते है 
    • इसमें वाणिज्यिक सरोगेसी पर भी प्रतिबंध है, जो 10 साल की जेल और 10 लाख रुपये तक के जुर्माने से दंडनीय है। 
    • कानून केवल परोपकारी सरोगेसी की अनुमति देता है जहांँ कोई पैसे का आदान-प्रदान नहीं होता है, साथ ही सरोगेट मांँ आनुवंशिक रूप से बच्चे की तलाश करने वालों से संबंधित होनी चाहिये। 
  • चुनौतियांँ: 
    • सरोगेट और बच्चे का शोषण: 
      • कोई भी यह तर्क दे सकता है कि राज्य को सरोगेसी के तहत गरीब महिलाओं के शोषण को रोकने के साथ बच्चे के जन्म लेने के अधिकार की रक्षा करनी चाहिये। हालांँकि वर्तमान अधिनियम इन दोनो चुनौतियों का निवारण करने में विफल है। 
    • पितृसत्तात्मक मानदंडों को मज़बूत करता है: 
      • यह अधिनियम हमारे समाज के पारंपरिक पितृसत्तात्मक मानदंडों को मज़बूत करता है जो महिलाओं को उनके कार्य का कोई आर्थिक मूल्य नहीं देता है, साथ ही संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत महिलाओं के प्रजनन के मौलिक अधिकारों को सीधे प्रभावित करता है। 
    • सरोगेट को वैध आय से वंचित करता है: 
      • वाणिज्यिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने से सरोगेट की आय का वैध स्रोत भी प्रतिवंधित हो जाता है, अर्थात् ऐसा करना सरोगेट करने के लिये इच्छुक महिलाओं की संख्या को और सीमित करना है। 
      • कुल मिलाकर यह कदम परोक्ष रूप से उन युगलों को बच्चे से वंचित रखता है जो बच्चे पैदा करने के लिये इस विकल्प का चयन करना चाहते हैं। 
    • भावनात्मक जटिलताएँ: 
      • परोपकारी सरोगेसी में दोस्त या रिश्तेदार सरोगेट मांँ के रूप में न केवल इच्छुक माता-पिता के लिये बल्कि सरोगेट बच्चे के लिये भी भावनात्मक जटिलताओं का कारण बन सकता है क्योंकि यह सरोगेसी अवधि और जन्म के बाद रिश्ते को जोखिम में डाल सकता है। 
      • परोपकारी सरोगेसी भी सरोगेट मांँ चुनने में इच्छुक जोड़े के विकल्प को सीमित करती है क्योंकि बहुत सीमित रिश्तेदार इस प्रक्रिया में शामिल होने के लिये तैयार होंगे। 
    • तृतीय-पक्ष भागीदारी नहीं: 
      • एक परोपकारी सरोगेसी में कोई तीसरे पक्ष की भागीदारी नहीं है। 
      • तीसरे पक्ष की भागीदारी यह सुनिश्चित करती है कि सरोगेसी प्रक्रिया के दौरान इच्छित युगल चिकित्सा और अन्य विविध खर्चों को वहन करेगा, साथ ही उनका समर्थन करेगा। 
      • कुल मिलाकर तीसरा पक्ष इच्छित जोड़े एवं सरोगेट मांँ दोनों को जटिल प्रक्रिया के माध्यम से नेविगेट करने में मदद करता है, जो परोपकारी सरोगेसी के मामले में संभव नहीं हो सकता है। 

सरोगेसी:  

  • परिचय: 
    • सरोगेसी एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें एक महिला (सरोगेट) किसी अन्य व्यक्ति या जोड़े (इच्छित माता-पिता) की ओर से बच्चे को जन्म देने के लिये सहमत होती है। 
    • एक सरोगेट, जिसे कभी-कभी गर्भकालीन वाहक (Gestational Carrier,) भी कहा जाता है, एक महिला है जो किसी अन्य व्यक्ति या जोड़े (इच्छित माता-पिता) के लिये गर्भधारण करती है, बच्चे को कोख में रखती है और फिर उस बच्चे को जन्म देती है। 
  • परोपकारी सरोगेसी: 
    • इसमें गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज के अलावा सरोगेट माँ को अन्य किसी प्रकार का मौद्रिक मुआवाज़ा प्राप्त नहींं होता है। 
  • वाणिज्यिक सरोगेसी: 
    • इसमें सरोगेसी या उससे संबंधित प्रक्रियाएँ शामिल हैं जो बुनियादी चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज के अलावा सेरोगेट माँ को मौद्रिक मुआवज़ा या इनाम (नकद या वस्तु) प्रदान किया जाता है। 

सहायक प्रजनन तकनीक: 

  • परिचय: 
    • सहायक प्रजनन तकनीक का प्रयोग बाँझपन की समस्या के समाधान के लिये किया जाता है। इसमें बाँझपन के ऐसे उपचार शामिल हैं जिसमें महिलाओं के अंडे और पुरुषों के शुक्राणु दोनों का प्रयोग किया । 
    • इसमें महिलाओं के शरीर से अंडे प्राप्त कर भ्रूण बनाने के लिये उन्हें शुक्राणु के साथ मिलाया जाता है। इसके बाद भ्रूण को दोबारा महिला के शरीर में डाल दिया जाता है। 
    • इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (In Vitro fertilization- IVF), ART का सबसे सामान्य और प्रभावशाली प्रकार है। 
  • कानूनी प्रावधान: 
    • सहायक प्रजनन तकनीक अधिनियम (ART),  2021 राष्ट्रीय सहायक प्रजनन तकनीक और सरोगेसी बोर्ड की स्थापना करके सरोगेसी पर कानून के कार्यान्वयन के लिये एक प्रणाली प्रदान करता है। 
    • सहायक प्रजनन तकनीक (विनियम) विधेयक, 2021: यह सहायक प्रजनन तकनीक क्लीनिकों और सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी बैंकों के विनियमन एवं पर्यवेक्षण, दुरुपयोग की रोकथाम, सहायक प्रजनन तकनीक सेवाओं के सुरक्षित व नैतिक अभ्यास का प्रावधान करता है। 
  • कमियांँ: 
    • अविवाहित और विषम लैंगिक जोड़ों का बहिष्करण: 
      • यह अधिनियम अविवाहित पुरुषों, तलाकशुदा पुरुषों, विधुर, लिव-इन (Live-in) में रहने वाले, विषम लैंगिक युगल, ट्रांसजेंडर और समलैंगिक जोड़ों (चाहे विवाहित या लिव-इन में रहने वाले) को सहायक प्रजनन तकनीक सेवाओं का लाभ उठाने से प्रतिबंधित करता है। 
      • यह बहिष्करण प्रासंगिक है क्योंकि सरोगेसी अधिनियम भी उपरोक्त व्यक्तियों को प्रजनन की एक विधि के रूप में सरोगेसी का सहारा लेने से बाहर करता है। 
    • प्रजनन विकल्पों को कम करता है: 
      • अधिनियम उन वैधानिक युगल तक सीमित है जो बांँझ हैं- वे जो एक वर्ष के असुरक्षित सहवास के बाद भी गर्भधारण करने में असमर्थ हैं। इस प्रकार यह सीमितता के साथ-साथ बहिष्कृत लोगों के प्रजनन विकल्पों को काफी कम कर देता है। 
    • अनियंत्रित कीमतें: 
      • सेवाओं की कीमतें विनियमित नहीं हैं; यह निश्चित रूप से सरल निर्देशों के साथ इसे ठीक किया जा सकता है। 

आगे की राह 

  • चूंकि भारत इन प्रथाओं के प्रमुख केंद्रों में से एक है, यह अधिनियम निश्चित रूप से सही दिशा में एक कदम है। हालाँकि, यह सुनिश्चित करने के लिये गतिशील निरीक्षण की आवश्यकता है कि कानून तेज़ी से विकसित हो रही तकनीक, नैतिकता और सामाजिक परिवर्तनों में संतुलन स्थापित कर सके। 

स्रोत: द हिंदू 


राष्ट्रीय डेटा गवर्नेंस फ्रेमवर्क नीति मसौदा

प्रिलिम्स के लिये:

डेटा गोपनीयता, राष्ट्रीय डेटा गवर्नेंस फ्रेमवर्क नीति, डेटा संरक्षण। 

मैन्स के लिये:

राष्ट्रीय डेटा शासन फ्रेमवर्क नीति, डेटा गोपनीयता और डेटा संरक्षण से संबंधित मुद्दे, आईपीआर मुद्दे। 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MEITY) ने संशोधित राष्ट्रीय डेटा गवर्नेंस फ्रेमवर्क नीति मसौद ज़ारी किया है। 

राष्ट्रीय डेटा गवर्नेंस फ्रेमवर्क नीति मसौदा के बारे में: 

  • संशोधित मसौदा:  
  • प्रावधान: 
    • भारतीय डेटासेट कार्यक्रम: यह एक भारत डेटासेट कार्यक्रम की स्थापना का आह्वान करता है, जिसमें भारतीय नागरिकों या भारत के लोगों से केंद्र सरकार की संस्थाओं द्वारा एकत्र किये गए गैर-व्यक्तिगत और अज्ञात डेटासेट शामिल होंगे। निजी फर्मों को ऐसी जानकारी साझा करने के लिये "प्रोत्साहित" किया जाएगा। 
      • इस कार्यक्रम के तहत गैर-व्यक्तिगत डेटा स्टार्टअप और भारतीय शोधकर्त्ताओं के लिये सुलभ होगा। 
      • गैर-व्यक्तिगत डेटा, डेटा का समूह है जिसमें व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य जानकारी नहीं होती है; अर्थात् इस तरह के डेटा को देखकर किसी भी व्यक्ति की पहचान नहीं की जा सकती है। 
      • गैर-व्यक्तिगत डेटा का उपयोग करने का प्रस्ताव सबसे पहले इंफोसिस के सह-संस्थापक क्रिस गोपालकृष्णन की अध्यक्षता वाली सरकारी समिति द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसे इस तरह के डेटा के आर्थिक मूल्य की समीक्षा करने और इससे उत्पन्न होने वाली चिंताओं को दूर करने के लिये स्थापित किया गया था। 
    • इंडिया डेटा मैनेजमेंट ऑफिस (IDMO): इस ड्राफ्ट में इंडिया डेटा मैनेजमेंट ऑफिस (IDMO) के निर्माण का भी प्रावधान किया गया है, जो इंडिया डेटासेट प्लेटफॉर्म की संरचना का निर्माण   और उसका प्रबंधन करेगा। 
      • IDMO सभी संस्थाओं (सरकारी व निजी) हेतु नाम प्रकट न करने संबंधी मानकों सहित अन्य नियमों का निर्धारण करेगा। 
      • सुरक्षा और विश्वास के उद्देश्यों के लिये किसी भी संस्था द्वारा कोई भी गैर-व्यक्तिगत डेटा साझाकरण केवल IDMO द्वारा नामित  एवं अधिकृत प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से हो सकता है। 
    • डेटा की बिक्री को रोकना: इस नए ड्राफ्ट में सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन केंद्रीय स्तर पर एकत्र डेटा की खुले बाज़ार में बिक्री के संबंध में किया गया है; ये बदलाव पुराने ड्राफ्ट में सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से हैं। 
  • आवेदन: एक बार अंतिम रूप देने के बाद नीति सभी गैर-व्यक्तिगत डेटासेट और संबंधित मानकों तथा नियमों के साथ-साथ स्टार्टअप व शोधकर्त्ताओं द्वारा इसकी पहुंँच को नियंत्रित करने वाले सभी केंद्र सरकार के विभागों पर लागू होगी। 
    • राज्य सरकारों को नीति के प्रावधानों को अपनाने के लिये "प्रोत्साहित" किया जाएगा। 
  • भारत डेटा एक्सेसिबिलिटी और उपयोग नीति: 
    • पुराने मसौदे- 'इंडिया डेटा एक्सेसिबिलिटी एंड यूज़ पॉलिसी' में प्रस्तावित किया गया था कि केंद्र द्वारा एकत्र किया गया डेटा जिसमें "मूल्यवर्द्धन किया गया है", को खुले बाज़ार में "उचित मूल्य" पर बेचा जा सकता है। 
      • भारत में डेटा संरक्षण कानून के अभाव में सरकार द्वारा इसे मुद्रीकृत करने के लिये डेटा एकत्र करने के बारे में सवालों के साथ व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा। 

नए मसौदे की चुनौतियांँ: 

  • IDMO की संरचना और प्रक्रिया को नई मसौदा नीति में स्पष्ट नहीं किया गया है। 
  • विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि निजी कंपनियाँ स्वेच्छा से गैर-व्यक्तिगत डेटा साझा नहीं कर सकती हैं। 
    • इसमें व्यापार और बौद्धिक संपदा के मुद्दे हो सकते हैं। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 


कोयला गैसीकरण

प्रिलिम्स के लिये:

कोयला गैसीकरण, सिनगैस, हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था। 

मेन्स के लिये:

कोयला गैसीकरण, हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था, कोयला गैसीकरण संयंत्रों से जुड़ी चिंताएँ। 

चर्चा में क्यों? 

कोयला मंत्रालय ने 2030 तक 100 मीट्रिक टन कोयला गैसीकरण प्राप्त करने के लिये एक राष्ट्रीय मिशन दस्तावेज़ तैयार किया है। 

कोयला गैसीकरण: 

  • प्रक्रिया: कोयला गैसीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें ‘फ्यूल गैस’ बनाने के लिये कोयले को वायु, ऑक्सीजन, वाष्प या कार्बन डाइऑक्साइड के साथ आंशिक रूप से ऑक्सीकृत किया जाता है। 
  • इस गैस का उपयोग पाइप्ड प्राकृतिक गैस, मीथेन और अन्य के स्थान पर ऊर्जा प्राप्त करने हेतु किया जाता है। 
  • कोयले का ‘इन-सीटू’ गैसीकरण या भूमिगत कोयला गैसीकरण कोयले को गैस में परिवर्तित करने की तकनीक है, इसे कुओं के माध्यम से निकाला जाता है। 
  • सिनगैस का उत्पादन: यह सिनगैस (Syngas) को उत्पन्न करता है जो मुख्य रूप से मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), हाइड्रोजन (H2), कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और जल वाष्प (H2O) का मिश्रण है। 
    •  सिनगैस का उपयोग बिजली के उत्पादन और उर्वरक जैसे रासायनिक उत्पाद के निर्माण सहित विभिन्न प्रकार के अनुप्रयोगों में किया जा सकता है। 

Coal-gasification

कोयला गैसीकरण का महत्व: 

  • स्टील कंपनियांँ आमतौर पर अपनी निर्माण प्रक्रिया में कोकिंग कोल का उपयोग करती हैं। अधिकांश कोकिंग कोल आयात किया जाता है और महंँगा होता है। लागत में कटौती करने के लिये संयंत्र सिनगैस का उपयोग कर सकते हैं जो कोकिंग कोल के स्थान पर कोयला गैसीकरण संयंत्रों से प्राप्त होता है। 
  • कोयला गैसीकरण से प्राप्त हाइड्रोजन का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों हेतु किया जा सकता है जैसे- अमोनिया निर्माण, हाइड्रोजन इकॉनमी को मज़बूती प्रदान करने में। 
  • भारत में हाइड्रोजन की मांग वर्ष 2030 तक बढ़कर 11.7 मिलियन टन होने की संभावना है, जो अब तक 6.7 मिलियन टन प्रतिवर्ष है। रिफाइनरी और उर्वरक संयंत्र अब हाइड्रोजन के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं, जो प्राकृतिक गैस से उत्पादित किया जा रहा है। यह कोयला गैसीकरण की प्रक्रियाओं में कोयले के माध्यम से उत्पादित किया जा सकता है। 

कोयला गैसीकरण संयंत्रों से जुड़ी चिंताएंँ:  

  • पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य: कोयला गैसीकरण वास्तव में एक पारंपरिक कोयले से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट की तुलना में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करता है। 
    • सीएसई (CSE) के अनुमानों के अनुसार, गैसीफाइड कोयले को जलाने से उत्पन्न बिजली की एक इकाई सीधे कोयले को जलाने के परिणाम की तुलना में 2.5 गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करती है। 
  • दक्षता परिप्रेक्ष्य: सिनगैस प्रक्रिया अपेक्षाकृत उच्च गुणवत्ता वाले ऊर्जा स्रोत (कोयला) को निम्न गुणवत्ता वाली स्थिति (गैस) में परिवर्तित करती है और ऐसा करने में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत होती है। 
    • इस प्रकार रूपांतरण की दक्षता भी कम है। 

हाइड्रोजन इकॉनमी: 

  • यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो वाणिज्यिक ईंधन के रूप में हाइड्रोजन पर निर्भर करती है जो किसी देश की ऊर्जा और सेवाओं में एक बड़ा हिस्सा प्रदान करती है। 
  • हाइड्रोजन एक शून्य-कार्बन ईंधन है और इसे ईंधन का विकल्प तथा स्वच्छ ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत माना जाता है। 
  • इसे सौर और पवन जैसे ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों से उत्पादित किया जा सकता है। 
  • यह भविष्य के ईधन के रूप में परिकल्पित है जहांँ हाइड्रोजन का उपयोग वाहनों, ऊर्जा भंडारण और लंबी दूरी के परिवहन के लिये ईंधन के रूप में किया जाता है।  
  • हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था का उपयोग करने के विभिन्न मार्गों में हाइड्रोजन उत्पादन, भंडारण, परिवहन और उपयोग शामिल हैं। 
  • वर्ष 1970 में जॉन बोक्रिस (John Bockris) द्वारा 'हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था' शब्द का प्रयोग किया गया था। 
  • उन्होंने उल्लेख किया कि एक हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था वर्तमान हाइड्रोकार्बन आधारित अर्थव्यवस्था का स्थान ले सकती है, जिससे एक स्वच्छ वातावरण निर्मित हो सकता है। 

आगे की राह 

  • कंपनियों को वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं का समर्थन करने के लिये नई तकनीकों को अपनाने और डिजिटल बुनियादी ढांँचे का निर्माण करने की आवश्यकता है। 
  • इस क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। 

स्रोत: पी.आई.बी. 


कोविड -19 के दौरान स्कूल बंद होने का आर्थिक प्रभाव

प्रिलिम्स के लिये:

सकल घरेलू उत्पाद, एशियाई विकास बैंक। 

मेन्स के लिये:

भारतीय शिक्षा प्रणाली और अर्थव्यवस्था पर कोविड-19 का प्रभाव। 

 चर्चा में क्यों?

एशियाई विकास बैंक (ADB) के एक शोधपत्र के अनुसार, कोविड-19 की वजह से स्कूलों के बंद होने के कारण दक्षिण एशिया में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सबसे अधिक गिरावट दिखने की संभावना है। 

  • स्कूल बंद होने से वैश्विक जीडीपी और रोज़गार में संकुचन देखा गया। यह स्थिति समय के साथ और विकराल होने की आशंका है। 
  • भारत उन देशों में शामिल है जहांँ कोविड-19 महामारी के दौरान सबसे लंबे समय तक स्कूल बंद रहे। 

अर्थव्यवस्था पर प्रभाव: 

  • वैश्विक परिदृश्य:  
    • GDP पर प्रभाव: 
      • सकल घरेलू उत्पाद में वर्ष 2024 में 0.19%, 2028 में 0.64% और 2030 में 1.11% की गिरावट का अनुमान लगाया गया है, जिसका कुल अनुमान 943 बिलियन डॉलर है। 
    • कुशल श्रम पर प्रभाव: 
      • स्कूल बंद होने से वर्ष 2030 तक दुनिया भर में लगभग 5.44 मिलियन लोगों के कुशल श्रम बल को रोज़गार से वंचित होना पड़ेगा। 
      • रोजगार के वर्ष 2024 में 0.05%, वर्ष 2026 में 0.25% और वर्ष 2030 में 0.75% तक घटने की संभावना है, जिससे कुल 94.86 बिलियन डॉलर की मज़दूरी का नुकसान होगा। 
    • अकुशल श्रम पर प्रभाव:  
      • रोज़गार वर्ष 2025 में 0.22%, वर्ष 2027 में 0.51% और वर्ष 2030 में 1.15% तक घटने का अनुमान है। 
      • वर्ष 2030 में लगभग 35.69 मिलियन लोग अकुशल श्रम-बल की ओर पलायन करेंगे, जो कि 121.54 बिलियन डॉलर की मज़दूरी का नुकसान होगा। 
  • विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं पर अलग-अलग प्रभाव: 
    • एशिया भर में सबसे बुरी तरह प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं में बड़ी ग्रामीण छात्र आबादी के साथ-साथ सबसे गरीब और द्वितीय संपत्ति पंचमक/क्विंटाइल (Second Wealth Quintile) में शामिल हैं। यह इंटरनेट कनेक्टिविटी की कमी के कारण है जिससे ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न हुई है। 
    • कई प्रभावित छात्रों का अकुशल श्रम-बल की ओर पलायन हुआ, जो अर्थव्यवस्थाएँ अकुशल श्रम रोज़गार की उच्च हिस्सेदारी रखती हैं उन्हें सीखने में नुकसान के साथ आय अर्जन में भी कमी का सामना करना पड़ा। 
  • भारतीय परिदृश्य: 
    • GDP पर प्रभाव: 
      • इसकी GDP में  प्रतिशत के संदर्भ में वर्ष 2023 में 0.34%, 2026 में 1.36% और 2030 में 3.19% कम होने की संभावना है। 
      • वर्ष 2030 तक 943 बिलियन डॉलर की वैश्विक GDP गिरावट में भारत का  हिस्सा 10% होने का अनुमान है। 
    • श्रम पर प्रभाव: 
      • वर्तमान में भारत के कार्यबल में 408.4 मिलियन अकुशल और 72.65 मिलियन कुशल श्रम-बल शामिल हैं। 
      • कुशल और अकुशल श्रम रोज़गार में क्रमशः 1% और 2% की गिरावट के साथ अकुशल कार्यबल की ओर एक महत्त्वपूर्ण प्रवासन की संभावना है। 

सकल घरेलू उत्पाद के बारे में: 

  • GDP किसी देश में आर्थिक गतिविधि का एक पैमाना है। यह किसी देश के वस्तु और सेवाओं के वार्षिक उत्पादन का कुल मूल्य है। यह उपभोक्ताओं की ओर से आर्थिक उत्पादन का विवरण प्रदान करता है। 
  • GDP = निजी उपभोग + सकल निवेश + सरकारी निवेश + सरकारी खर्च + (निर्यात-आयात) 

एशियाई विकास बैंक: 

  • एशियाई विकास बैंक (ADB) एक क्षेत्रीय विकास बैंक है। इसकी स्थापना 19 दिसंबर, 1966 को हुई थी। 
  • ADB में कुल 68 सदस्य शामिल हैं, भारत ADB का एक संस्थापक सदस्य है। 
  • इसका उद्देश्य एशिया और प्रशांत क्षेत्र में सामाजिक व आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। 
  • 31 दिसंबर, 2019 तक ADB के पाँच सबसे बड़े शेयरधारकों में जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका (प्रत्येक कुल शेयरों के 15.6% के साथ), पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (6.4%), भारत (6.3%) और ऑस्ट्रेलिया (5.8%) शामिल हैं। 
  • ADB का मुख्यालय मनीला, फिलीपींस में है। 

आगे की राह 

  • भारत सरकार मौद्रिक सहजता, राजकोषीय प्रोत्साहन और सहायक वित्तीय विनियमन जैसे प्रयासों के माध्यम से अर्थव्यवस्था को स्थिर करने की दिशा में सक्रिय रूप से काम कर रही है। हाल ही में इसने ई-श्रम पोर्टल भी लॉन्च किया गया है। हालाँकि महामारी के दौरान सीखने के नुकसान के प्रभाव का सामना करने के लिये डिजिटल विभाजन को कम करने पर ज़ोर देने के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में उच्च निवेश की आवश्यकता है। 
  • महामारी से प्रभावित छात्रों का आकलन कर उनके सीखने की प्रक्रिया का समर्थन किया जा सकता है। 
  • बजट में सरकार को शिक्षा पर खर्च को प्राथमिकता देनी चाहिये। पर्याप्त धन और संसाधनों के वितरण में ग्रामीण, आर्थिक रूप से कमज़ोर और सामाजिक रूप से वंचित समूहों के उन छात्रों को प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिये जो महामारी से सबसे अधिक प्रभावित रहे। 
  • इसके अतिरिक्त विद्यालयों से उत्तीर्ण होने से पूर्व युवाओं के लिये युवा कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किये जाने चाहिये। 
  • शैक्षिक सुधारों के प्रत्यक्ष प्रयासों के साथ-साथ दूरस्थ शिक्षा को भी बढ़ावा देना चाहिये। 

स्रोत: द हिंदू