महाराष्ट्र में निजी स्कूलों को RTE कोटा प्रवेश से छूट
प्रिलिम्स के लिये:अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान (MEI), बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम 2009, अनुच्छेद 21A के तहत सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधिकार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 मेन्स के लिये: |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
महाराष्ट्र स्कूल शिक्षा विभाग ने हाल ही में एक गजट अधिसूचना जारी कर निजी गैर सहायता प्राप्त स्कूलों को कुछ शर्तों के तहत वंचित समूहों और कमज़ोर वर्गों के लिये अनिवार्य 25% प्रवेश कोटा से छूट दे दी है।
- बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (धारा 12.1(C) के अनुसार, गैर-सहायता प्राप्त स्कूल यह सुनिश्चित करने के लिये बाध्य हैं कि कक्षा 1 में प्रवेश लेने वाले 25% छात्र "आस-पड़ोस के कमज़ोर वर्ग तथा वंचित समूह" से संबंधित होने चाहिये।
नोट:
- इस कदम के साथ कर्नाटक के वर्ष 2018 के नियम और केरल के वर्ष 2011 के नियमों का पालन करते हुए, महाराष्ट्र निजी स्कूलों को RTE प्रवेश से छूट देने में कर्नाटक तथा केरल के साथ शामिल हो गया है, जो शुल्क में छूट केवल तभी देता है जब कोई सरकारी या सहायता प्राप्त स्कूल पैदल दूरी के भीतर न हो, जो कक्षा 1 के छात्रों के लिये 1 किमी. निर्धारित है।
नया नियम वास्तव में क्या है?
- नया नियम स्थानीय अधिकारियों को महाराष्ट्र के बच्चों के नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार नियम, 2013 के तहत वंचित समूहों तथा कमज़ोर वर्गों के 25% प्रवेश के लिये निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों की पहचान करने से रोकता है, यदि सरकारी या सहायता प्राप्त स्कूल (जो सरकार से धन प्राप्त करते हैं) उस स्कूल के एक किलोमीटर के दायरे में हैं।
- ऐसे निजी स्कूलों को अब 25% प्रवेश की आवश्यकता का पालन करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि इन क्षेत्रों के छात्रों को सरकारी या सहायता प्राप्त स्कूलों में प्रवेश के लिये प्राथमिकता दी जाएगी।
- अधिसूचना में कहा गया है कि यदि क्षेत्र में कोई सहायता प्राप्त स्कूल नहीं है, तो RTE प्रवेश के लिये निजी स्कूलों का चयन किया जाएगा और फीस की प्रतिपूर्ति की जाएगी, इसके अनुसार बाध्य स्कूलों की एक नई सूची तैयार की जाएगी।
राज्यों ने ऐसी छूटें क्यों पेश की हैं?
- चूँकि माता-पिता को सरकारी स्कूलों के निकट निजी स्कूलों में बच्चों का नामांकन करने की अनुमति देने की राज्य की पूर्व नीति से सरकारी स्कूलों में नामांकन में भारी कमी हुई थी, यह देखते हुए कर्नाटक के राज्य कानून मंत्री ने वर्ष 2018 में कहा था कि RTE का मुख्य उद्देश्य सभी छात्रों को शिक्षा प्रदान करना है।
- कर्नाटक सरकार की राजपत्र अधिसूचना- 2018 वर्तमान में न्यायिक जाँच के अधीन है।
- निजी स्कूलों और शिक्षक संगठनों ने नोट किया है कि राज्य सरकारें प्रायः इस कोटा के तहत दाखिला लेने वाले छात्रों के शुल्क की प्रतिपूर्ति करने में विफल रहती हैं, जैसा कि RTE अधिनियम की धारा 12 (2) द्वारा अनिवार्य है जिसके लिये राज्य सरकारों को स्कूलों के प्रति बच्चे के खर्च या शुल्क राशि, जो भी कम हो, की प्रतिपूर्ति करनी होगी।
इस छूट के संभावित निहितार्थ क्या हैं?
- विपक्ष में तर्क:
- विशेषज्ञों ने केंद्रीय कानून में संशोधन करने के राज्य के अधिकार पर सवाल उठाए हैं और कहा है कि अधिसूचना RTE के विपरीत है तथा इससे बचा जाना चाहिये।
- महाराष्ट्र सरकार के संशोधन की इस आधार पर आलोचना की गई है कि यह अनुचित है और शिक्षा असमानता से निपटने में धारा 12(1)(C) के महत्त्व पर ज़ोर देता है।
- पक्ष में तर्क:
- महाराष्ट्र सरकार ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि किये गए संशोधन, वर्ष 2011 और 2013 में तैयार किये गए नियमों में थे, मूल कानून में नहीं तथा राज्यों को RTE अधिनियम की धारा 38 द्वारा इसके कार्यान्वयन के लिये नियम बनाने का अधिकार दिया गया है।
- यह देखते हुए कि धारा 6 वंचित क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों की सिफारिश करती है और धारा 12.1(C) ऐसे स्कूलों के निर्माण तक एक अस्थायी उपाय है, यह कदम RTE अधिनियम का उल्लंघन नहीं करता है।
- निजी गैर सहायता प्राप्त स्कूलों ने नए नियमों का स्वागत करते हुए तर्क दिया है कि इस कदम से सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या में वृद्धि होगी।
क्या अल्पसंख्यक स्कूलों को RTE कोटा प्रवेश का पालन करने से छूट दी गई है?
- संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी विशिष्ट संस्कृति, भाषा और लिपि को संरक्षित करने के लिये शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना व प्रबंधन करने के अधिकार की गारंटी देता है।
- अतः वर्ष 2012 में RTE अधिनियम 2009 में एक संशोधन के माध्यम से धार्मिक शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों को RTE अधिनियम के तहत 25% आरक्षण के अनुपालन से छूट प्रदान की गई।
- वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य मामले में निर्णय सुनाया कि RTE अधिनियम अल्पसंख्यक विद्यालयों पर लागू नहीं होता है।
RTE अधिनियम से संबंधित महत्त्वपूर्ण उपबंध क्या हैं?
- निःशुल्क एवं अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार:
- छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को उसकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक किसी आस-पास के विद्यालय में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है तथा साथ ही 6 वर्ष से अधिक आयु के बालक, जिसने विद्यालय में प्रवेश नहीं लिया है, को उसकी आयु के अनुसार समुचित कक्षा में प्रवेश दिये जाने का प्रावधान किया गया है।
- सहायता प्राप्त विद्यालय भी अपनी आवर्ती सहायता के अनुपात में कम-से-कम 25% की सीमा तक निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराएगा।
- प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक निःशुल्क होती है और किसी भी बच्चे को प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने से पहले रोका नहीं जा सकता, निष्कासित नहीं किया जा सकता तथा किसी बालक से प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक कोई बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करने की अपेक्षा नहीं की जाएगी।
- छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को उसकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक किसी आस-पास के विद्यालय में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है तथा साथ ही 6 वर्ष से अधिक आयु के बालक, जिसने विद्यालय में प्रवेश नहीं लिया है, को उसकी आयु के अनुसार समुचित कक्षा में प्रवेश दिये जाने का प्रावधान किया गया है।
- पाठ्यक्रम और मान्यता:
- केंद्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नामित एक अकादमिक प्राधिकरण द्वारा प्रारंभिक शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रक्रिया विकसित जाएगा।
- सभी स्कूलों को स्थापना अथवा मान्यता से पूर्व छात्र-शिक्षक अनुपात मानदंडों का अनुपालन करना और निर्धारित मानकों को पूरा करना आवश्यक होता है।
- उपयुक्त सरकार द्वारा आयोजित शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) द्वारा शिक्षक योग्यता सुनिश्चित की जाएगी।
- विद्यालयों और शिक्षकों के उत्तरदायित्व:
- शिक्षकों को जनगणना, आपदा राहत और निर्वाचन कर्त्तव्यों के अतिरिक्त, निजी ट्यूशन देने अथवा गैर-शिक्षण कार्य करने से निर्बंध किया गया है।
- स्कूलों को सरकारी सहायता के उपयोग की निगरानी करने और स्कूल विकास योजना बनाने के लिये विद्यालय प्रबंधन समितियों (SMC) की स्थापना की जाएगी जिसमें स्थानीय प्राधिकारी प्रतिनिधि, माता-पिता, अभिभावक तथा शिक्षक की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी।
- शिकायत निवारण:
- सिविल न्यायालय के समान शक्तियों के साथ राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग सुरक्षा उपायों की समीक्षा करता है और शिकायतों की जाँच करता है। राज्य सरकार समान कार्यों के लिये एक राज्य आयोग भी स्थापित कर सकती है।
निष्कर्ष:
हालाँकि महाराष्ट्र सरकार के इस कदम से निजी स्कूलों पर वित्तीय भार कुछ कम हो सकता है और साथ ही संभावित रूप से सरकारी स्कूलों में नामांकन दर में भी वृद्धि हो सकती है, लेकिन यह हाशिए की पृष्ठभूमि के बच्चों के लिये समानता एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच के बारे में चिंता प्रदर्शित करता है। निजी स्कूलों को समर्थन देने तथा सभी के लिये समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने के बीच संतुलन एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. स्कूली शिक्षा के महत्त्व के बारे में जागरूकता उत्पन्न किये बिना, बच्चों की शिक्षा में प्रेरणा-आधारित पद्धति के संवर्द्धन में निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 अपर्याप्त है। विश्लेषण कीजिये। (2022) प्रश्न. "शिक्षा एक निषेधाज्ञा नहीं है, यह सामाजिक परिवर्तन एवं व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिये एक प्रभावी और व्यापक उपकरण है।” उपरोक्त कथन के आलोक में नई शिक्षा नीति, 2020 (NEP, 2020) का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2021) |
IGNCA का भाषा एटलस
प्रिलिम्स के लिये:इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, 8वीं अनुसूची , भारतीय भाषाएँ मेन्स के लिये:भारतीय भाषाएँ, भारत की विविधता का संरक्षण एवं संवर्द्धन |
चर्चा में क्यों?
संस्कृति मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, संपूर्ण भारत में एक भाषाई सर्वेक्षण की योजना बना रहा है। इसका उद्देश्य देश की भाषाई विविधता को प्रदर्शित करने के लिये एक व्यापक 'भाषा एटलस' को निर्मित करना है।
भारत भाषाई रूप से कितना विविधतापूर्ण है?
- ऐतिहासिक जनगणना रिकॉर्ड:
- भारत का पहला और सबसे विस्तृत भाषाई सर्वेक्षण (LSI) सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा किया गया था जो वर्ष 1928 में प्रकाशित हुआ था।
- वर्ष 1961 की भारत की जनगणना में भारत में बोली जाने वाली 1,554 भाषाएँ दर्ज की गईं।
- वर्ष 1961 की जनगणना भाषाई आँकड़ों के संबंध में सर्वाधिक विस्तृत थी। इस जनगणना में प्रत्येक बोली जाने वाली भाषा को रिकॉर्ड में शामिल किया गया था।
- वर्ष 1971 के बाद से, 10,000 से भी कम व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को भारतीय जनगणना से हटा दिया गया, जिससे 1.2 मिलियन लोगों की मूल भाषाएँ दर्ज नहीं की गई हैं।
- यह बहिष्कार जनजातीय समुदायों पर असंगत रूप से प्रभाव डालता है, जिनकी भाषाएँ प्राय:आधिकारिक रिकॉर्ड से अनुपस्थित होती हैं।
- भारत अब आधिकारिक तौर पर भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 22 भाषाओं को मान्यता देता है।
- वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों स्पष्ट हैं कि 97% आबादी इन आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक भाषा बोलती है।
- इसके अतिरिक्त वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 99 गैर-अनुसूचित भाषाएँ हैं और लगभग 37.8 मिलियन लोग इनमें से किसी एक भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में पहचानते हैं।
- 121 भाषाएँ ऐसी हैं जो भारत में 10,000 या उससे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं।
- भारत में बहुभाषावाद:
- भारत विश्व के सबसे अधिक भाषाई विविधता वाले देशों में से एक है, यह विविधता भारतीयों को बहुभाषी होने का एक अनूठा अवसर प्रदान करती है, जिसका अर्थ है संचार में एक से अधिक भाषाओं का उपयोग करने में सक्षम होना है।
- भारत, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 25% से अधिक जनसंख्या दो भाषाएँ बोलती है, जबकि लगभग 7% तीन भाषाएँ बोलते हैं।
- अध्ययनों से पता चलता है कि युवा भारतीय अपनी बुज़ुर्ग पीढ़ी की तुलना में अधिक बहुभाषी हैं और साथ ही 15 से 49 वर्ष की आयु की लगभग आधी शहरी आबादी दो भाषाएँ बोलती है।
- भारत विश्व के सबसे अधिक भाषाई विविधता वाले देशों में से एक है, यह विविधता भारतीयों को बहुभाषी होने का एक अनूठा अवसर प्रदान करती है, जिसका अर्थ है संचार में एक से अधिक भाषाओं का उपयोग करने में सक्षम होना है।
प्रस्तावित भाषाई सर्वेक्षण की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- सर्वेक्षण भारत में भाषाओं तथा बोलियों की संख्या की गणना करने पर केंद्रित होगा, जिनमें वे भाषाएँ और बोलियाँ भी शामिल हैं जो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं।
- इसका उद्देश्य राज्य और क्षेत्रीय दोनों स्तरों पर डेटा एकत्र करना है, जिसमें बोली जाने वाली सभी भाषाओं की ऑडियो रिकॉर्डिंग को डिजिटल रूप से संग्रहीत करने की योजना सम्मिलित है।
- इसमें बोली जाने वाली सभी भाषाओं की ऑडियो रिकॉर्डिंग को डिजिटल रूप से संग्रहीत करने का भी प्रस्ताव है।
- सर्वेक्षण में हितधारकों में विभिन्न भाषा समुदायों के साथ-साथ संस्कृति, शिक्षा, जनजातीय कार्य मंत्रालय और अन्य शामिल हैं।
भाषाई सर्वेक्षण का महत्त्व क्या है?
- सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण:
- भाषाई सर्वेक्षण भाषाओं, बोलियों और लिपियों की पहचान करने एवं उनका दस्तावेज़ीकरण करने में मदद करते हैं, जिससे सांस्कृतिक धरोहर तथा भाषाई विविधता का संरक्षण होता है।
- नीति निर्धारण:
- भाषाई सर्वेक्षणों का डेटा नीति निर्माताओं को विभिन्न समुदायों की भाषाई आवश्यकताओं के बारे में सूचित करता है, जिससे शिक्षा, शासन और सांस्कृतिक मामलों में भाषा-संबंधी नीतियों के निर्माण में सुविधा होती है।
- शिक्षा योजना:
- विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं के बारे में ज्ञान शैक्षिक कार्यक्रमों को डिज़ाइन करने में मदद करता है जो विविध भाषाई पृष्ठभूमि को पूरा करते हैं, समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देते हैं।
- सामुदायिक सशक्तीकरण:
- भाषाई सर्वेक्षण भाषाई अल्पसंख्यकों और हाशिये पर रहने वाले समुदायों को उनकी भाषाओं को पहचानने एवं मान्य करके, उनके सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक कल्याण में योगदान देकर सशक्त बनाते हैं।
- शोध और दस्तावेज़ीकरण:
- भाषाई सर्वेक्षण शोधकर्त्ताओं, भाषाविदों और मानवविज्ञानियों के लिये भाषा विकास, बोली-विज्ञान एवं भाषा संपर्क घटना का अध्ययन करने वाले मूल्यवान संसाधनों के रूप में कार्य करते हैं।
- बहुभाषावाद को बढ़ावा:
- भाषाई विविधता की समृद्धि के बारे में जागरूकता बढ़ाकर, भाषाई सर्वेक्षण बहुभाषावाद को बढ़ावा देते हैं और किसी की भाषा व सांस्कृतिक पहचान पर गर्व की भावना को बढ़ावा देते हैं।
भाषा से संबंधित संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?
- आठवीं अनुसूची:
- भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में भारत की आधिकारिक भाषाओं की सूची है। इसमें आधिकारिक भाषाओं के रूप में मान्यता प्राप्त 22 भाषाएँ शामिल हैं।
- असमिया, बंगाली, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगु, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी।
- आठवीं अनुसूची में वर्तमान में छह शास्त्रीय भाषाएँ भी शामिल हैं:
- तमिल (वर्ष 2004 में घोषित), संस्कृत (वर्ष 2005), कन्नड़ (वर्ष 2008), तेलुगु (वर्ष 2008), मलयालम (वर्ष 2013) और उड़िया (वर्ष 2014)।
- भारतीय संविधान का भाग XVII अनुच्छेद 343 से 351 तक भारत की आधिकारिक भाषाओं से संबंधित है।
- भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में भारत की आधिकारिक भाषाओं की सूची है। इसमें आधिकारिक भाषाओं के रूप में मान्यता प्राप्त 22 भाषाएँ शामिल हैं।
- संघ की भाषा:
- अनुच्छेद 120: संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा से संबंधित है।
- अनुच्छेद 210: अनुच्छेद 120 के समान लेकिन राज्य विधानमंडल पर लागू होता है।
- अनुच्छेद 343: देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की आधिकारिक भाषा घोषित करता है।
- अनुच्छेद 344: राजभाषा पर एक आयोग और संसद की समिति की स्थापना करता है।
- क्षेत्रीय भाषाएँ:
- अनुच्छेद 345: राज्य विधायिका को राज्य के लिये कोई भी आधिकारिक भाषा अपनाने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 346: राज्यों के बीच तथा राज्यों और संघ के बीच संचार के लिये आधिकारिक भाषा निर्दिष्ट करता है।
- अनुच्छेद 347: यह अनुच्छेद निमित्त मांग किये जाने पर राष्ट्रपति को राज्य के जन समुदाय के किसी भाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा को मान्यता प्रदान करने की अनुमति देता है।
- विशेष निदेश:
- अनुच्छेद 29: यह अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है। इसके अनुसार नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि अथवा संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है।
- यह अनुच्छेद यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी नागरिक को केवल धर्म, नस्ल, जाति अथवा भाषाई कारकों के आधार पर राज्य द्वारा वित्त पोषित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 350: यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी शिकायत/व्यथा के निवारण के लिये प्रत्येक व्यक्ति को संघ अथवा राज्य में प्रयुक्त किसी भी भाषा में अभ्यावेदन देने का अधिकार है।
- अनुच्छेद 350A: यह अनुच्छेद राज्यों को भाषाई अल्पसंख्यक समूहों से संबंधित बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान करने का निर्देश देता है।
- अनुच्छेद 350B: यह अनुच्छेद भाषाई अल्पसंख्यकों के लिये राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक विशेष अधिकारी का प्रावधान करता है जिसे संविधान के तहत भाषाई अल्पसंख्यकों के लिये प्रदान किये गए सुरक्षा उपायों से संबंधित मामलों की जाँच करने का कार्य सौंपा जाता है।
- अनुच्छेद 29: यह अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है। इसके अनुसार नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि अथवा संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है।
भारत की भाषाई विविधता के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- भाषाई प्रभुत्व:
- राजनीतिक और सामाजिक रूप से कुछ भाषाओं का अन्य भाषाओं पर प्रभुत्व, भाषाई विविधता के लिये खतरा उत्पन्न करता है। अधिक राजनीतिक और आर्थिक शक्ति से संबंधित भाषाएँ अल्पसंख्यक भाषाओं को प्रभावित कर सकती हैं जिससे उनके अस्तित्व के संबंध में खतरा बढ़ सकता है।
- भारत में भाषाई विविधता के सम्मुख प्रमुख चुनौतियों में से एक हिंदी को एक प्रमुख भाषा के रूप में समझना है जिसके कारण इसे गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में अधिरोपित करने का प्रयास किया जाता है।
- पहचान की राजनीति और तनाव:
- भाषाई विविधता कुछ विशेष संदर्भों में पहचान की राजनीति और तनाव को बढ़ावा दे सकती है जिससे भाषाई नीतियों तथा अधिकारों के संबंध में भाषाई वर्गों के बीच संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।
- कुछ भाषाओं को अधिरोपित करने अथवा विशेषाधिकार प्रदान करने का प्रयास भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच प्रतिरोध और अशांति को बढ़ावा दे सकता है जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं।
- संरक्षण प्रयासों का अभाव:
- सरकारों और संस्थानों के संरक्षण प्रयासों तथा समर्थन की कमी के कारण कई स्वदेशी एवं जनजातीय भाषाएँ विलुप्त होने की कगार पर हैं।
- पर्याप्त प्रलेखीकरण और इनको बढ़ावा देने के प्रयसों के बिना इन भाषाओं का पतन हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप भाषा से संबंधित समुदाय अथवा समूह की सांस्कृतिक विरासत तथा पहचान का ह्रास हो सकता है।
- अपर्याप्त भाषा शिक्षा नीतियाँ:
- शिक्षा नीतियों में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने और संरक्षित करने पर अपर्याप्त ज़ोर से युवा पीढ़ी के बीच संबद्ध भाषा के संबंध में दक्षता तथा इसका उपयोग प्रभावित हो सकता है।
- शैक्षणिक संस्थानों में सीमित संख्या में भाषाओं पर ध्यान देने से देश में मौजूद भाषाई विविधता की उपेक्षा हो सकती है।
- शहरीकरण और वैश्वीकरण:
- तेज़ी से शहरीकरण, वैश्वीकरण और प्रमुख संस्कृतियों का प्रभाव स्वदेशी भाषाओं तथा संस्कृतियों के क्षरण में योगदान कर सकता है।
- जैसे-जैसे युवा पीढ़ी प्रमुख भाषाओं और संस्कृतियों की ओर बढ़ रही है, क्षेत्रीय भाषाओं से जुड़े पारंपरिक ज्ञान, रीति-रिवाजों तथा सांस्कृतिक प्रथाओं के खोने का खतरा है।
- अल्पसंख्यक भाषाओं में संसाधनों तक सीमित पहुँच:
- अल्पसंख्यक भाषाओं में अक्सर अपनी-अपनी भाषाओं में साहित्य, मीडिया और प्रौद्योगिकी जैसे संसाधनों का अभाव होता है।
- संसाधनों तक यह सीमित पहुँच अल्पसंख्यक भाषाओं के विकास और संरक्षण में बाधा डालती है, जो उन्हें विलुप्त होने के प्रति संवेदनशील बना रहा है।
आगे की राह
- ऐसी नीतियाँ लागू करें जो हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा दें। यह सुनिश्चित करने के लिये बहुभाषी शिक्षा को प्रोत्साहित करें कि छात्र अपनी मूल भाषा तथा व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा में कुशल हों।
- बहुभाषावाद और क्षेत्रीय भाषाओं के संरक्षण के लिये समर्थन सुनिश्चित करने हेतु शैक्षिक नीतियों की समीक्षा तथा संशोधन करें।
- क्षेत्रीय भाषाओं के लिये मानक स्थापित करें और मौखिक इतिहास संरक्षण, भाषाई अनुसंधान तथा डिजिटल अभिलेखागार के माध्यम से लुप्तप्राय भाषाओं के दस्तावेज़ीकरण एवं संरक्षण के प्रयासों का समर्थन करें।
- समुदाय-संचालित भाषा पुनरोद्धार परियोजनाओं के माध्यम से भाषाई समुदायों को उनकी भाषाओं का स्वामित्व लेने के लिये सशक्त बनाना।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) प्रश्न. भारत के संदर्भ में 'हल्बी, हो और कुई' शब्द पद किससे संबंधित हैं? (2021) (a) पश्चिमोत्तर भारत का नृत्यरूप उत्तर: (d) प्रश्न. हाल ही में निम्नलिखित में से किसे एक भाषा को शास्त्रीय भाषा (क्लासिकल लैंग्वेज) का दर्जा (स्टेटस) दिया गया है? (2015) (a) उड़िया उत्तर: (a) |
आशा कार्यकर्त्ता और संबंधित चुनौतियाँ
प्रिलिम्स के लिये:मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, ORS, एनीमिया, कुपोषण, गैर-संचारी रोग मेन्स के लिये:आशा कार्यकर्त्ताओं की प्रमुख भूमिकाएँ और ज़िम्मेदारियाँ तथा उनके सम्मुख चुनौतियाँ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बेंगलुरु में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (आशा) के कर्मियों ने कामकाजी परिस्थितियों और वेतन से संबंधित चिंताओं को लेकर विरोध प्रदर्शन किया जो भारत की ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से संबंधित चुनौतियों पर प्रकाश डालता है।
आशा कार्यकर्त्ता कौन हैं और उनकी ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं?
- पृष्ठभूमि: वर्ष 2002 में छत्तीसगढ़ ने महिलाओं को मितानिन अथवा सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं के रूप में नियुक्त कर सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल के लिये एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण की शुरुआत की।
- मितानिनों ने वंचित समुदायों के लिये सहायक के रूप में भूमिका निभाते हुए दूरस्थ स्वास्थ्य प्रणालियों तथा स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य किया।
- मितानिनों की सफलता से प्रेरित होकर केंद्र सरकार ने वर्ष 2005-06 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत आशा कार्यक्रम का शुभारंभ किया तथा वर्ष 2013 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत के साथ शहरी क्षेत्रों में इसका विस्तार किया गया।
- परिचय: आशा कार्यकर्त्ताओं का चयन गाँव के निवासियों में से ही किया जाता है और वे गाँव के निवासियों के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं। इन्हें समुदाय और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच एक कड़ी के रूप कार्य करने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है।
- वे मुख्य रूप से ग्रामीण महिलाएँ हैं, जिनकी उम्र 25 से 45 वर्ष के बीच है, विशेष रूप से कर 10वीं कक्षा तक शिक्षित होती हैं।
- आमतौर पर प्रति 1000 लोगों पर 1 आशा होती है। हालाँकि आदिवासी, पहाड़ी तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों में इस अनुपात को कार्यभार के आधार पर प्रति बस्ती एक आशा पर समायोजित किया जा सकता है।
- प्रमुख उत्तरदायित्व:
- वे स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं, विशेषकर महिलाओं तथा बच्चों के लिये संपर्क के प्राथमिक सहायक के रूप में कार्य करती हैं।
- उन्हें टीकाकरण, प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य सेवाओं के साथ घरेलू शौचालयों के निर्माण को बढ़ावा देने के लिये प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन प्राप्त होता है।
- वे जन्म-पूर्व, सुरक्षित प्रसव, स्तनपान, टीकाकरण, गर्भनिरोधक के साथ-साथ सामान्य संक्रमणों की रोकथाम पर परामर्श देती हैं।
- वे आंगनवाड़ी,उप-केंद्रों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं तक सामुदायिक पहुँच की सुविधा भी प्रदान करती हैं।
- वे ORS, IFA टैबलेट, गर्भनिरोधक आदि जैसे आवश्यक प्रावधानों के लिये डिपो धारक के रूप में कार्य करते हैं।
आशा कार्यकर्त्ताओं के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?
- अत्यधिक कार्यभार: आशा कार्यकर्त्ताओं पर प्राय: कई ज़िम्मेदारियों का भार होता है, यह कभी-कभी पीड़ादायक होता है, विशेष रूप से उनके कर्त्तव्यों के विशाल दायरे को देखते हुए।
- साथ ही, उन्हें स्वयं भी एनीमिया, कुपोषण तथा गैर-संचारी रोगों का खतरा बना रहता है।
- अपर्याप्त मुआवज़ा: मुख्य रूप से अल्प मानदेय पर निर्भर रहने वाली आशा को विलंबित भुगतान एवं अपने धन के होने वाले व्यय के कारण आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- उनके पास छुट्टी, भविष्य निधि, उपदान, पेंशन, चिकित्सा सहायता, जीवन बीमा और मातृत्व लाभ, सामाजिक सुरक्षा लाभ जैसे बुनियादी समर्थन का अभाव होता है।
- पर्याप्त मान्यता का अभाव: आशा कार्यकर्त्ताओं के योगदान को हमेशा मान्यता या महत्त्व नहीं दिया जाता है, जिससे कम सराहना और निराशा की भावना उत्पन्न होती है।
- सहायक बुनियादी ढाँचे की कमी: आशा कार्यकर्त्ताओं को परिवहन, संचार सुविधाओं और चिकित्सा आपूर्ति तक सीमित पहुँच सहित अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इससे उनके कर्त्तव्यों को प्रभावी ढंग से पूरा करने की क्षमता में बाधा आती है।
- लिंग और जाति भेदभाव: आशा, जो मुख्य रूप से हाशिये पर रहने वाले समुदायों की महिलाएँ हैं, को स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के भीतर लिंग और जाति के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
आगे की राह
- रोज़गार की स्थिति को औपचारिक बनाना: स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के भीतर आशा कार्यकर्त्ताओं को स्वैच्छिक पदों से औपचारिक रोज़गार की स्थिति में बदलने की आवश्यकता है।
- इससे उन्हें नौकरी की सुरक्षा, नियमित वेतन, स्वास्थ्य बीमा एवं सवैतनिक अवकाश जैसे लाभों तक पहुँच मिलेगी।
- बुनियादी ढाँचे और लॉजिस्टिक्स को मज़बूत करना: ASHA कार्यकर्त्ताओं को आवश्यक उपकरण, आपूर्ति और परिवहन तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये बुनियादी ढाँचे, लॉजिस्टिक्स तथा आपूर्ति शृंखला प्रबंधन में सुधार में निवेश करना भी महत्त्वपूर्ण है।
- मान्यता और सम्मान: आशा कार्यकर्त्ताओं के योगदान और उपलब्धियों को स्वीकार करने के लिये औपचारिक मान्यता तथा सम्मान कार्यक्रम, जैसे: प्रशस्ति-पत्र, सार्वजनिक मान्यता समारोह या प्रदर्शन-आधारित बोनस शुरू करने की आवश्यकता है।
- उन्हें मौजूदा स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के भीतर करियर में उन्नति के अवसर प्रदान करने की भी आवश्यकता है, जिससे सहायक नर्स मिडवाइव्स (Auxiliary Nurse Midwives- ANM) जैसे पदों पर पहुँच सके।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नQ. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के संदर्भ में, प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता 'आशा (ASHA)' के कार्य निम्नलिखित में से कौन-से हैं? (2012)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करके सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2 और 3 उत्तर: (a) |
सरोगेसी नियमों में संशोधन
प्रिलिम्स के लिये:सरोगेसी, सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम 2021, मेयर-रोकिटांस्की-कुस्टर-हॉसर (MRKH) सिंड्रोम, वाणिज्यिक सरोगेसी पर प्रतिबंध मेन्स के लिये:भारत में सरोगेसी से संबंधित कानून एवं हाल ही में संशोधित प्रावधान |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत सरकार ने सरोगेसी (विनियमन) नियम, 2022 में संशोधन किया है और साथ विवाहित जोड़ों को किसी दाता के अंडे अथवा शुक्राणु का उपयोग करने की अनुमति दी है, यदि कोई साथी किसी चिकित्सीय स्थिति से पीड़ित है।
- इसने मार्च 2023 में नियमों में किये गए पिछले संशोधन को बदल दिया, जिसमें दाता युग्मकों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
संशोधित सरोगेसी नियम के मुख्य प्रावधान क्या हैं?
- पृष्ठभूमि: मार्च 2023 के संशोधित नियमों ने केवल इच्छुक जोड़े के स्वयं के युग्मकों के उपयोग की अनुमति दी, विशिष्ट चिकित्सीय स्थितियों वाले जोड़ों को सरोगेसी के माध्यम से जैविक बच्चे को जन्म देने से रोक दिया था।
- इन प्रतिबंधों ने संकट को जन्म दिया और साथ ही प्रभावित जोड़ों के लिये माता-पिता बनने के अधिकार को चुनौती भी दी।
- इसे मेयर-रोकितांस्की-कुस्टर-हाउजर सिंड्रोम से पीड़ित एक महिला द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जो एक जन्मजात विकार है और साथ ही बांझपन का कारण भी बनता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियमों की प्रभावकारिता के बारे में संदेह व्यक्त किया और कहा कि ऐसे नियम सरोगेसी के मूल उद्देश्यों को कमज़ोर करते हैं।
- हाल के संशोधित प्रावधान: यह प्रदाता युग्मक के साथ सरोगेसी की अनुमति देता है यदि इच्छुक दंपति में से किसी एक को ज़िला चिकित्सा बोर्ड द्वारा किसी चिकित्सीय स्थिति के कारण प्रदाता युग्मक की आवश्यकता के लिये प्रामाणित किया गया हो।
- इसका तात्पर्य यह है कि यदि दंपति में चिकित्सीय समस्याएँ हैं तो वे अभी भी सरोगेसी का विकल्प नहीं चुन सकते हैं।
- सरोगेसी का विकल्प चुनने वाली तलाकशुदा या विधवा महिलाओं के लिये प्रदाता शुक्राणु के साथ महिला के स्वयं के अंडाणुओं का प्रयोग अनिवार्य है।
सरोगेसी क्या है?
- परिचय: सरोगेसी एक ऐसी व्यवस्था है जहाँ एक महिला, जिसे सरोगेट मदर/जननी के रूप में जाना जाता है, किसी अन्य व्यक्ति या दंपति के लिये बच्चे को पोषण और प्रसव हेतु सहमत होती है, जिसे इच्छित माता-पिता के रूप में जाना जाता है।
- प्रकार:
- पारंपरिक सरोगेसी: पारंपरिक सरोगेसी में सरोगेट के अंडाणु को निषेचित करने के लिये इच्छित जनक के शुक्राणु का प्रयोग करना शामिल है।
- सरोगेट गर्भाकाल को पूरा करती है और परिणामी शिशु जैविक/वास्तविक रूप से सरोगेट माँ तथा इच्छित पिता से संबंधित होता है।
- जेस्टेशनल सरोगेसी: जेस्टेशनल सरोगेसी में, बच्चा जैविक रूप से सरोगेट से संबंधित नहीं होता है।
- इच्छित पिता के शुक्राणु (या दाता शुक्राणु) और जैविक माँ के अंडे (या दाता अंडे) का उपयोग करके बनाया गया भ्रूण, उसके कार्यकाल के लिये सरोगेट के गर्भाशय में प्रत्यारोपित किया जाता है।
- पारंपरिक सरोगेसी: पारंपरिक सरोगेसी में सरोगेट के अंडाणु को निषेचित करने के लिये इच्छित जनक के शुक्राणु का प्रयोग करना शामिल है।
- सरोगेसी व्यवस्था:
- परोपकारी सरोगेसी: इसमें गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज़ के अतिरिक्त सरोगेट माँ के लिये किसी मौद्रिक मुआवज़े को शामिल नहीं किया गया है।
- परोपकारी सरोगेसी में सरोगेट के लिये प्राथमिक उद्देश्य आमतौर पर किसी अन्य व्यक्ति या जोड़े को बच्चे को जन्म देने और उनके सपने को पूरा करने में मदद करना है।
- वाणिज्यिक सरोगेसी: इसमें बुनियादी चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज़ से अधिक मौद्रिक लाभ या इनाम (नकद या वस्तु के रूप में) के लिये की गई सरोगेसी या उससे संबंधित प्रक्रियाएँ शामिल हैं।
- यह मुआवज़ा स्थान, कानूनी नियमों और सरोगेसी समझौते की विशिष्ट शर्तों जैसे कारकों के आधार पर भिन्न हो सकता है।
- परोपकारी सरोगेसी: इसमें गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज़ के अतिरिक्त सरोगेट माँ के लिये किसी मौद्रिक मुआवज़े को शामिल नहीं किया गया है।
भारत में सरोगेसी से संबंधित अन्य प्रावधान क्या हैं?
- अनुमति: सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम 2021 के तहत, सरोगेसी केवल परोपकारी उद्देश्यों, बाँझपन या बीमारी वाले युगल हेतु स्वीकार्य है।
- बिक्री या शोषण के प्रयोजन सहित वाणिज्यिक सरोगेसी सख्ती से प्रतिबंधित है।
- सरोगेसी के संबंध में दंपत्तियों के लिये पात्रता आवश्यकताएँ: युग्म को न्यूनतम 5 वर्ष की अवधि के लिये विवाहित होना आवश्यक है।
- पत्नी की आयु 25-50 वर्ष के बीच और पति की आयु 26-55 वर्ष के बीच होनी चाहिये।
- दिव्यांग अथवा गंभीर विकार से ग्रस्त बच्चों के मामलों के अतिरिक्त, दंपति का जैविक, दत्तक अथवा सरोगेसी के माध्यम से जन्मा कोई भी जीवित बच्चा नहीं होना चाहिये।
- सरोगेट माता हेतु मानदंड: सरोगेट माता का दंपत्ति का निकट संबंधी होना आवश्यक है।
- वह एक विवाहित महिला होनी चाहिये और उसका स्वयं का बच्चा होना चाहिये।
- उसे 25 से 35 वर्ष के बीच होना चाहिये तथा उसने पहले सरोगेसी न की हो।
- जन्म पर माता-पिता की स्थिति: सरोगेसी की प्रक्रिया से जन्म लेने वाले शिशु को इच्छुक दंपत्ति का जैविक बच्चा माना जाता है।
- भ्रूण के गर्भपात के लिये गर्भ के चिकित्सीय समापन अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन करते हुए सरोगेट माता और संबंधित अधिकारियों दोनों की सहमति की आवश्यकता होती है।