भारत में वन और वृक्ष आवरण
प्रिलिम्स के लिये:वृक्ष आवरण, वन आवरण, हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन (GIM), जलवायु परिवर्तन राष्ट्रीय कार्ययोजना, भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021, राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम। मेन्स के लिये:भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021, भारत में वनों से संबद्ध मुद्दे, वन संरक्षण हेतु सरकार की पहल। |
चर्चा में क्यों?
भारत, हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन (National Mission for a Green India- GIM) के तहत वृक्षों और वन आवरण वृक्षारोपण की संख्या और गुणवत्ता बढ़ाने के लक्ष्यों से पीछे है।
- वृक्षावरण में गिरावट वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और केरल शामिल हैं।
वृक्षावरण एवं वनावरण में अंतर:
- वृक्ष आच्छादन भूमि के उस कुल क्षेत्र को संदर्भित करता है जो वृक्षों द्वारा आच्छादित है, भले ही ये वृक्ष वन पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हों या नहीं।
- दूसरी ओर, वन आवरण, विशेष रूप से भूमि के उस क्षेत्र को संदर्भित करता है जो वन पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में शामिल किया जाता है, वन पारिस्थितिकी तंत्र को 10-30% के न्यूनतम वितान घनत्व (Canopy Density) और 0.5 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है।
- इसलिये सभी वनावरण वृक्षावरण हैं, लेकिन सभी वृक्षावरण वनावरण नहीं हैं।
हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन (GIM):
- GIM जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के तहत आठ मिशनों में से एक है।
- इसका उद्देश्य भारत के वन आवरण की रक्षा, बहाली और उसमें वृद्धि करना एवं जलवायु परिवर्तन का सामना करना है।
- इस मिशन के तहत वन/वृक्षों के आवरण को बढ़ाने और मौजूदा वन की गुणवत्ता में सुधार के लिये वन एवं गैर-वन भूमि पर 10 मिलियन हेक्टेयर (Mha) में वन आच्छादन का लक्ष्य है।
- पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इस केंद्र प्रायोजित योजना के माध्यम से वनीकरण गतिविधियों को बढ़ावा देने हेतु राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों का समर्थन करता है।
- यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये अपनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के हिस्से के रूप में वृक्षों के आवरण में सुधार, कार्बन पृथक्करण और भारत के कार्बन स्टॉक को मज़बूत करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- इसका उद्देश्य भारत के वन आवरण की रक्षा, बहाली और उसमें वृद्धि करना एवं जलवायु परिवर्तन का सामना करना है।
भारत में वनों की स्थिति:
- परिचय:
- इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2021 के अनुसार,वर्ष 2019 के पिछले आकलन के बाद से देश में वन और वृक्षों के आवरण क्षेत्र में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज की गई है।
- भारत का कुल वन और वृक्षावरण क्षेत्र 80.9 मिलियन हेक्टेयर था, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 24.62% था।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि 17 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का 33% से अधिक क्षेत्र वनों से आच्छादित है।
- सबसे बड़ा वन आवरण क्षेत्र मध्य प्रदेश में था, इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र का स्थान था।
- अपने कुल भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में वन आवरण के मामले में शीर्ष पाँच राज्य मिज़ोरम (84.53%), अरुणाचल प्रदेश (79.33%), मेघालय (76%), मणिपुर (74.34%) और नगालैंड (73.90%) थे।
- भारत में वनों से जुड़े मुद्दे:
- संकुचित वन आवरण: भारत की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, पारिस्थितिक स्थिरता बनाए रखने हेतु वन के तहत कुल भौगोलिक क्षेत्र का आदर्श प्रतिशत कम-से-कम 33% होना चाहिये।
- हालाँकि यह वर्तमान में देश की केवल 24.62% भूमि को कवर करता है और तेज़ी से संकुचित हो रहा है।
- संसाधन प्राप्ति हेतु संघर्ष: अक्सर स्थानीय समुदायों के हितों और व्यावसायिक हितों के मध्य संघर्ष होता है, जैसे कि फार्मास्युटिकल उद्योग या लकड़ी उद्योग।
- इससे सामाजिक तनाव और यहाँ तक कि हिंसा भी हो सकती है, क्योंकि विभिन्न समूह वन संसाधनों को प्राप्त करने और उनका उपयोग करने हेतु संघर्ष करते हैं।
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न समस्याएँ, जिसमें कीट प्रकोप, जलवायु के कारण होने वाले प्रवासन, जंगल की आग और तूफान शामिल हैं, जो वन उत्पादकता को कम करते हैं तथा प्रजातियों के वितरण में बदलाव लाते हैं।
- यह अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत में 45-64% वन जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के प्रभावों का सामना करेंगे।
- संकुचित वन आवरण: भारत की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, पारिस्थितिक स्थिरता बनाए रखने हेतु वन के तहत कुल भौगोलिक क्षेत्र का आदर्श प्रतिशत कम-से-कम 33% होना चाहिये।
- वन संरक्षण के लिये सरकारी पहल:
भारत अपने वन आवरण को कैसे बढ़ा सकता है?
- संरक्षण हेतु तकनीक का उपयोग: रिमोट सेंसिंग तकनीक का उपयोग वन आवरण, वन की आग से निगरानी आदि को ट्रैक करने तथा सुरक्षा की आवश्यकता वाले क्षेत्रों की पहचान करने के लिये किया जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त गैर-अन्वेषित (Unexplored) वन क्षेत्रों का उपयोग संभावित संसाधन मानचित्रण के लिये किया जा सकता है और वनों के घनत्त्व एवं वन पारितंत्र को बनाए रखने के लिये इन्हें वैज्ञानिक प्रबंधन और स्थायी संसाधन निष्कर्षण के तहत लाया जा सकता है।
- डेडीकेटेड फाॅरेस्ट कॉरिडोरः जंगली जानवरों के सुरक्षित अंतर-राज्यीय और अंतरा राज्यीय आवागमन एवं उनके आवास को किसी भी बाहरी प्रभाव से बचाने के लिये डेडीकेटेड फाॅरेस्ट कॉरिडोर को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्त्व की भावना को बढ़ावा देने के लिये बनाए रखा जा सकता है।
- कृषि वानिकी को बढ़ावा देना: इसके अंतर्गत पेड़-पौधों और वन-आधारित उत्पादों को कृषि प्रणालियों में एकीकृत करना शामिल है। यह वन क्षेत्र के विकास में मदद कर सकता है तथा किसानों के लिये अतिरिक्त आय तथा संसाधन का स्रोत हो सकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन सा मंत्रालय नोडल एजेंसी है? (वर्ष 2021) (A) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय उत्तर: (D) प्रश्न. भारत के एक विशेष राज्य में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं: (वर्ष 2012)
निम्नलिखित में से किस राज्य में उपरोक्त सभी विशेषताएँ हैं? (A) अरुणाचल प्रदेश उत्तर: (A) मेन्स:प्रश्न. भारत में आधुनिक कानून की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरणीय समस्याओं का संवैधानीकरण है। सुसंगत वाद विधियों की सहायता से इस कथन की विवेचना कीजिये। (2022) |
स्रोत: द हिंदू
जापान द्वारा फुकुशिमा के प्रदूषित जल को समुद्र में छोड़ने की मंज़ूरी
प्रिलिम्स के लिये:प्रशांत महासागर, सुनामी, जल में रेडियोधर्मी प्रदूषण। मेन्स के लिये:परमाणु ऊर्जा और परमाणु आपदा के मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
जापान वर्ष 2023 में संकटग्रस्त फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र के 12.5 लाख टन अपशिष्ट जल को प्रशांत महासागर में प्रवाहित करना शुरू कर सकता है।
- इस परियोजना को वर्ष 2021 में जापानी कैबिनेट से मंज़ूरी मिली थी और इसे पूरा होने में तीन दशक लग सकते हैं।
पृष्ठभूमि:
- मार्च 2011 में 9 तीव्रता के भूकंप के बाद आई सुनामी से ओकुमा में फुकुशिमा दाइची परमाणु ऊर्जा संयंत्र बाढ़ से प्रभावित हो गया जिसके कारण इसके डीज़ल जनरेटर्स को काफी नुकसान हुआ।
- बिजली की अनुपलब्धता के कारण रिएक्टरों को शीतलक की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न हो गई; सुनामी ने बैकअप सिस्टम को भी अक्षम कर दिया।
- इसके तुरंत बाद रिएक्टर की दबाव वाहिकाओं से रेडियोधर्मी पदार्थ का रिसाव शुरू हो गया तथा विस्फोट होने के परिणामस्वरूप हवा, पानी, मिट्टी और स्थानीय आबादी इसके संपर्क में आ गई।
- प्रशांत क्षेत्र में मौजूद रेडियोधर्मी पदार्थ के फैलने के कारण इसने बिजली संयंत्रों को प्रभावित किया, साथ ही आसपास की भूमि निर्जन हो गई है।
- जापान सरकार संयंत्र से जिस पानी को प्रवाहित करना चाहती है, उसका उपयोग रिएक्टरों को ठंडा करने के साथ वर्षा जल और भूजल के लिये भी किया जाता था।
- इसमें क्षतिग्रस्त रिएक्टरों से निकलने वाले रेडियोधर्मी समस्थानिक होते हैं, साथ ही प्रकृति में यह स्वयं रेडियोधर्मी होता है। जापान का कहना है कि वह इस जल को अगले 30 वर्षों तक प्रशांत महासागर में निष्काषित करता रहेगा।
जल निष्काषित करने के संदर्भ में चुनौतियाँ:
- ऐसी कोई ज्ञात सीमा नहीं है जिसके परे विकिरण को सुरक्षित माना जा सकता है, इसलिये जो रेडियोधर्मी पदार्थों के संपर्क में हैं उनको कैंसर और अन्य ज्ञात स्वास्थ्य प्रभावों का खतरा बढ़ जाएगा।
- छोड़ा गया यह प्रदूषित जल मछलियों के लिये ज़हरीला हो सकता है और निर्वहन बिंदु के आसपास रहने वाले किसी के लिये भी यह हानिकारक है।
- टोक्यो इलेक्ट्रिक पावर कंपनी (TEPCO) ने ट्रिटियम को जल से अलग नहीं किया है क्योंकि ऐसा करना बहुत मुश्किल है।
- ट्रिटियम "जीवित प्राणियों के शरीर द्वारा आसानी से अवशोषित" और "रक्त के माध्यम से तेज़ी से शरीर में फैलने वाला" समस्थानिक है।
- जल में अन्य रेडियोन्यूक्लाइड भी मौजूद होते हैं जिन्हें TEPCO की उपचार प्रक्रिया द्वारा पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता है।
- इनमें रूथेनियम और प्लूटोनियम के समस्थानिक (Isotope) शामिल हैं, जो समुद्री जीवों के शरीर एवं समुद्र तल पर अधिक समय तक उपस्थित रह सकते हैं।
जल को उपचारित करने के बजाय फ्लशिंग क्यों?
- TEPCO, जो फुकुशिमा फैसिलिटी का संचालन करता है, ने शुरू में अपशिष्ट जल को उपचारित करने की योजना बनाई थी, लेकिन जल की टंकियों के लिये पर्याप्त जगह न होने के कारण इसने जल को प्रवाहित करने का फैसला किया।
- इसके अलावा ट्रिटियम के हाफ लाइफ (12-13 वर्ष) के कारण जापान जल को अधिक समय तक संग्रहीत नहीं कर सकता है।
- हाफ लाइफ वह समय है जो किसी रेडियोधर्मी पदार्थ को रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से उसकी मात्रा को आधा करने में लगता है।
आगे की राह
- "नाभिकीय प्रदूषण" के अपने अनुभव के आधार पर प्रशांत द्वीप समूह फोरम के एक प्रतिनिधि, ओशिनिया राष्ट्रों के एक समूह जिसमें ऑस्ट्रेलिया शामिल है, ने इसे "बिल्कुल समझ से बाहर" के रूप में वर्णित किया है।
- फ्लश करने से पहले प्रत्येक टैंक की सटीक संरचना को समझने और TEPCO की जल उपचार प्रक्रिया के बारे में अधिक जानकारी हेतु अधिक अध्ययन किया जाना चाहिये।
- इसके अलावा ट्रिटियम के 12-13 वर्ष के हाफ लाइफ के कारण इसके निर्वहन से पहले जल को लंबे समय तक संग्रहीत किया जा सकता है। इसके अलावा जल को अधिक समय तक संग्रहीत करने से जल में मौजूद अन्य रेडियोधर्मी समस्थानिकों की मात्रा कम हो जाएगी, जिससे इसकी रेडियोधर्मिता कम हो जाएगी।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. नाभिकीय रिएक्टर में भारी जल का कार्य होता है:(2011) (a) न्यूट्रॉन की गति को धीमा करना। उत्तर: (a)
अतः विकल्प (a) सही उत्तर है। प्रश्न. ऊर्जा की बढ़ती ज़रूरतों के परिप्रेक्ष्य में क्या भारत को अपने नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम का विस्तार करना जारी रखना चाहिये? नाभिकीय ऊर्जा से जुड़े तथ्यों और भय की विवेचना कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2018) |
स्रोत: द हिंदू
भारत का पहला सौर मिशन
प्रिलिम्स के लिये:आदित्य-L1 मिशन, (लग्रेंजियन/लग्रेंज पॉइंट 1), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), सूर्य के लिये मिशन। मेन्स के लिये:आदित्य-L1 मिशन का महत्त्व, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, इसरो का सूर्य के लिये अंतरिक्ष मिशन। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिज़िक्स ने विज़िबल लाइन एमिशन कोरोनग्राफ, आदित्य-L1 पर मुख्य पेलोड को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन को सौंप दिया।
- ISRO सूर्य और सौर कोरोना (Solar Corona) का निरीक्षण करने के लिये जून या जुलाई 2023 तक सूर्य का निरीक्षण करने वाला पहला भारतीय अंतरिक्ष मिशन आदित्य-L1 शुरू करने की योजना बना रहा है।
आदित्य-L1 मिशन:
- प्रक्षेपण यान:
- आदित्य L1 को 7 पेलोड (उपकरणों) के साथ ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (Polar Satellite Launch Vehicle- PSLV) का उपयोग करके लॉन्च किया जाएगा।
- 7 पेलोड के अंतर्गत निम्नलिखित शामिल हैं:
- VELC
- सौर पराबैंगनी इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT)
- सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS)
- आदित्य सोलर विंड पार्टिकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX)
- हाई एनर्जी L1 ऑर्बिटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS)
- आदित्य के लिये प्लाज़्मा विश्लेषक पैकेज (PAPA)
- उन्नत त्रि-अक्षीय उच्च रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर
- उद्देश्य:
- आदित्य L1 सूर्य के कोरोना, सूर्य के प्रकाश मंडल, क्रोमोस्फीयर, सौर उत्सर्जन, सौर तूफानों और सौर प्रज्वाल (Solar Flare) तथा कोरोनल मास इजेक्शन (CME) का अध्ययन करेगा और पूरे समय सूर्य की इमेजिंग करेगा।
- यह मिशन ISRO द्वारा L1 कक्षा में लॉन्च किया जाएगा जो पृथ्वी से लगभग 1.5 मिलियन किमी. दूर है। आदित्य-L1 इस कक्षा से लगातार सूर्य का अवलोकन कर सकता है।
- आदित्य L1 सूर्य के कोरोना, सूर्य के प्रकाश मंडल, क्रोमोस्फीयर, सौर उत्सर्जन, सौर तूफानों और सौर प्रज्वाल (Solar Flare) तथा कोरोनल मास इजेक्शन (CME) का अध्ययन करेगा और पूरे समय सूर्य की इमेजिंग करेगा।
‘लैग्रेंजियन पॉइंट-1’
- L1 का अर्थ ‘लैग्रेंजियन/‘लैग्रेंज पॉइंट-1’ से है, जो पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के ऑर्बिट में स्थित पाँच बिंदुओं में से एक है।
- ‘लैग्रेंज पॉइंट्स’ का आशय अंतरिक्ष में स्थित उन बिंदुओं से होता है, जहाँ दो अंतरिक्ष निकायों (जैसे- सूर्य और पृथ्वी) के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण आकर्षण एवं प्रतिकर्षण का क्षेत्र उत्पन्न होता है।
- इन बिंदुओं का उपयोग प्रायः अंतरिक्षयान द्वारा अपनी स्थिति बरकरार रखने के लिये आवश्यक ईंधन की खपत को कम करने हेतु किया जा सकता है।
- ‘लैग्रेंजियन पॉइंट-1’ पर स्थित कोई उपग्रह अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण ग्रहण अथवा ऐसी ही किसी अन्य बाधा के बावजूद सूर्य को लगातार देखने में सक्षम होता है।
- नासा की सोलर एंड हेलिओस्फेरिक ऑब्ज़र्वेटरी सैटेलाइट (SOHO) L1 बिंदु पर ही स्थित है। यह सैटेलाइट नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) और यूरोपीय स्पेस एजेंसी (ESA) की एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परियोजना है।
VELC पेलोड की विशेषताएँ और महत्त्व:
- विशेषताएँ:
- VELC सूर्य के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने के लिये डिज़ाइन किये गए सात उपकरणों में मुख्य पेलोड होगा और यह भारत में निर्मित सबसे सटीक उपकरणों में से एक है।
- इसकी संकल्पना और डिज़ाइन में 15 वर्ष लग गए जो सौर खगोल भौतिकी से संबंधित रहस्यों को सुलझाने में मदद करेगा।
- महत्त्व:
- यह कोरोना के तापमान, वेग और घनत्व के अध्ययन के साथ-साथ उन प्रक्रियाओं के अध्ययन में सहायता करेगा जो कोरोना तापन और सौर पवन त्वरण का परिणाम है। यह अंतरिक्ष मौसम चालकों के अध्ययन के साथ-साथ कोरोना के चुंबकीय क्षेत्र के मापन एवं कोरोनल मास इजेक्शन के विकास और उत्पत्ति के अध्ययन में भी मदद करेगा।
सूर्य के संदर्भ में अन्य मिशन:
- नासा पार्कर सोलर प्रोब: इसका उद्देश्य यह पता लगाना है कि सूर्य के कोरोना के माध्यम से ऊर्जा और गर्मी कैसे संचालित होती है, साथ ही सौर हवा के त्वरण के स्रोत का अध्ययन करना है।
- यह नासा के 'लिविंग विद ए स्टार' कार्यक्रम का हिस्सा है जो सूर्य-पृथ्वी प्रणाली के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करता है।
- हेलियोस 2 सोलर प्रोब: पहले का हेलियोस 2 सोलर प्रोब, नासा और पूर्ववर्ती पश्चिम जर्मनी की अंतरिक्ष एजेंसी के बीच एक संयुक्त उद्यम था, जो वर्ष 1976 में सूर्य की सतह के 43 मिलियन किमी. के दायरे में गया था।
- सोलर ऑर्बिटर: डेटा एकत्र करने के लिये ESAऔर NASA के बीच एक संयुक्त मिशन जो हेलियोफिज़िक्स के एक केंद्रीय प्रश्न का उत्तर देने में मदद करेगा, जैसे- सूर्य पूरे सौरमंडल में लगातार बदलते अंतरिक्ष वातावरण को कैसे निर्मित और नियंत्रित करता है।
- सूर्य की निगरानी करने वाले अन्य सक्रिय अंतरिक्षयान: उन्नत संरचना एक्सप्लोरर (ACE), इंटरफेस रीजन इमेजिंग स्पेक्ट्रोग्राफ (IRIS), विंड(WIND), हिनोड(Hinode), सौर गतिशीलता वेधशाला और सौर स्थलीय संबंध वेधशाला (STEREO)।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये। इस प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग ने भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार सहायता की है? (2016) |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
मानव मस्तिष्क जैसी गणना
प्रिलिम्स के लिये:मानव मस्तिष्क जैसी गणना, ब्रेन-लाइक कंप्यूटिंग, सेमीकंडक्टिंग, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क। मेन्स के लिये:मानव मस्तिष्क जैसी गणना, इसका तंत्र और महत्त्व। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में जवाहर लाल नेहरू उन्नत वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र (JNCASR) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने ब्रेन-लाइक कंप्यूटिंग (मस्तिष्क की तरह गणना) या न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग (Brain-Like Computing or Neuromorphic Computing) के लिये कृत्रिम सिनैप्स (Artificial Synapse) विकसित किया है।
- वैज्ञानिकों ने ब्रेन-लाइक कंप्यूटिंग क्षमता विकसित करने के लिये सर्वोच्च स्थिरता और पूरक धातु-ऑक्साइड-सेमीकंडक्टर (CMOS) अनुकूलता के साथ एक अर्द्धचालक सामग्री स्कैंडियम नाइट्राइड (ScN) का उपयोग किया है।
अध्ययन का महत्त्व:
- परिचय:
- न्यूरोमॉर्फिक हार्डवेयर के विकास का उद्देश्य एक जैविक सिनैप्स की ऐसी नकल करना है जो उत्तेजनाओं द्वारा उत्पन्न सिग्नल की निगरानी और उन्हें याद रख सके।
- उन्होंने स्कैंडियम नाइट्राइड (ScN ) का उपयोग एक सिनैप्स की नकल करने वाले उपकरण को विकसित करने के लिये किया जो संकेत आवागमन (सिग्नल ट्रांसमिशन) को नियंत्रित करने के साथ ही उसे याद भी रखता है।
- महत्त्व:
- यह आविष्कार अपेक्षाकृत कम ऊर्जा लागत पर स्थिर, CMOS-संगत ऑप्टोइलेक्ट्रॉनिक सिनैप्टिक कार्यात्मकताओं के लिये एक नई सामग्री प्रदान कर सकता है, इसलिये इसके औद्योगिक उत्पाद में प्रयुक्त होने की संभावित क्षमता है।
- पारंपरिक कंप्यूटरों में स्मृति भंडारण और प्रसंस्करण इकाई (Memory Storage and Processing Units) भौतिक रूप से अलग होते हैं। परिणामस्वरूप संचालन के दौरान इन इकाइयों के बीच डेटा स्थानांतरित करने में अत्यधिक ऊर्जा और समय लगता है।
- इसके विपरीत मानव मस्तिष्क एक सर्वोच्च जैविक कंप्यूटर है जो एक सिनैप्स (दो न्यूरॉन्स के बीच संबंध) की उपस्थिति के कारण छोटा और अधिक कुशल होने के साथ ही प्रोसेसर एवं मेमोरी स्टोरेज़ यूनिट दोनों की भूमिका निभाता है।
- कृत्रिम बुद्धिमत्ता के वर्तमान युग में मस्तिष्क जैसा कंप्यूटिंग दृष्टिकोण बढ़ती गणनात्मक (कम्प्यूटेशनल) आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायता कर सकता है।
मानव मस्तिष्क जैसी गणना:
- परिचय:
- मानव मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के कामकाज़ से प्रेरित होकर मस्तिष्क जैसी गणना वर्ष 1980 के दशक में शुरू की गई एक अवधारणा थी।
- न्यूरोमॉर्फिक कम्प्यूटिंग कंप्यूटर की डिज़ाइनिंग को संदर्भित करती है जो मानव मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र में पाए जाने वाले सिस्टम पर आधारित होते हैं।
- न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग डिवाइस सॉफ्टवेयर के प्लेसमेंट के लिये बड़ी जगह का उपयोग किये बिना मानव मस्तिष्क के रूप में कुशलता से काम कर सकते हैं।
- तकनीकी प्रगति में से एक जिसने न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग में वैज्ञानिकों की रुचि को फिर से जगाया है, वह है आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क मॉडल (ANN) का विकास।
- कार्य तंत्र:
- न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग के कार्य तंत्र में मानव मस्तिष्क के समान लाखों कृत्रिम न्यूरॉन्स से बने कृत्रिम तंत्रिका नेटवर्क (ANN) का उपयोग शामिल है।
- स्पाइकिंग न्यूरल नेटवर्क्स (SNN) की वास्तुकला के आधार पर ये न्यूरॉन्स परतों में एक दूसरे को सिग्नल पास करते हैं, इनपुट को इलेक्ट्रिक स्पाइक्स या सिग्नल के माध्यम से आउटपुट में परिवर्तित करते हैं।
- यह इस मशीन को मानव मस्तिष्क के न्यूरो-जैविक नेटवर्क की नकल करने और दृश्य पहचान तथा डेटा व्याख्या जैसे कार्यों को कुशलता पूर्वक एवं प्रभावी ढंग से करने में मदद करता है।
- महत्त्व:
- न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग ने कंप्यूटर इंजीनियरिंग में बेहतर तकनीक और तेज़ी से विकास के द्वार खोले हैं।
- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग काफी समय से एक क्रांतिकारी अवधारणा रही है।
- AI, (मशीन लर्निंग) की तकनीकों में से एक की मदद से न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग ने सूचना प्रसंस्करण की प्रक्रिया को उन्नत किया है और कंप्यूटरों को बेहतर और बड़ी तकनीक के साथ काम करने में सक्षम बनाया है।
स्रोत: पी.आई.बी.
विनिर्मित रेत
प्रिलिम्स के लिये:कोल इंडिया लिमिटेड (CIL), विनिर्मित रेत, ओपनकास्ट कोयला खनन, लघु खनिज, खान और खनिज (विकास और विनियम) अधिनियम 1957, सतत् रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश 2016, लूनी नदी, कोसी नदी। मेन्स के लिये:विनिर्मित रेत (M-Sand) के लाभ, भारत में रेत खनन से संबंधित मुद्दे, भारत में खनन गतिविधियों का विनियमन। |
चर्चा में क्यों?
रेत की कमी की समस्या के अपने अभिनव समाधान के लिये कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) सुर्खियों में है। विनिर्मित रेत (M-Sand) के उत्पादन के लिये यह कंपनी पत्थरों के महीन कण, कोयला खदानों के अधिभार/ ओवरबर्डन (OB) से प्राप्त रेत और ओपनकास्ट कोयला खनन के दौरान हटाई गई मृदा का उपयोग कर रही है।
- यह न केवल अपशिष्ट पदार्थों का पुनरुपयोग करता है बल्कि प्राकृतिक रेत खनन की आवश्यकता को भी कम करता है और कंपनी के लिये अतिरिक्त राजस्व का स्रोत निर्मित करता है।
विनिर्मित रेत (M-सैंड) के लाभ:
- लागत-प्रभावशीलता: प्राकृतिक रेत के उपयोग की तुलना में विनिर्मित रेत का उपयोग करना अधिक सस्ता हो सकता है, क्योंकि इसे कम लागत पर बड़ी मात्रा में उत्पादित किया जा सकता है।
- स्थिरता: निर्मित रेत आकार में एक समान दानेदार हो सकती है, जो उन निर्माण परियोजनाओं हेतु लाभदायक हो है जिनके लिये एक विशिष्ट प्रकार के रेत की आवश्यकता होती है।
- पर्यावरणीय लाभ: विनिर्मित रेत का उपयोग प्राकृतिक रेत के खनन की आवश्यकता को कम कर सकता है। प्राकृतिक रेत के खनन के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं।
- इसके अलावा कोयले की खदानों से ओवरबर्डन का उपयोग करने से उन सामग्रियों का पुन: उपयोग करने में मदद मिल सकती है जिन्हें अन्यथा अपशिष्ट माना जाता है।
- कम पानी की खपत: निर्मित रेत का उपयोग निर्माण परियोजनाओं के लिये आवश्यक पानी की मात्रा को कम करने में मदद कर सकता है, क्योंकि इसे उपयोग करने से पहले धोने की आवश्यकता नहीं होती है।
- अन्य लाभ: वाणिज्यिक उपयोग के अलावा उत्पादित रेत का उपयोग भूमिगत खानों में किया जाएगा जो सुरक्षा और संरक्षण को बढ़ाता है।
- इसके अलावा नदियों से कम रेत निष्कर्षण चैनल बेड और किनारों के कटाव को कम करेगा तथा जल आवास की रक्षा करेगा
- इसके अलावा नदियों से कम रेत निष्कर्षण चैनल बेड और किनारों के कटाव को कम करेगा तथा जल आवास की रक्षा करेगा
भारत में रेत खनन की स्थिति:
- परिचय:
- खान और खनिज (विकास और विनियम) अधिनियम, 1957 (MMDR अधिनियम) के तहत रेत को "गौण खनिज" के रूप में वर्गीकृत किया गया है और गौण खनिजों पर प्रशासनिक नियंत्रण राज्य सरकारों के पास है।
- नदियाँ और तटीय क्षेत्र रेत के मुख्य स्रोत हैं, और देश में निर्माण तथा बुनियादी ढाँचे के विकास के कारण हाल के वर्षों में इसकी मांग में काफी वृद्धि हुई है।
- पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने वैज्ञानिक रेत खनन तथा पर्यावरण के अनुकूल प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिये "सतत् रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश 2016" जारी किये हैं।
- भारत में रेत खनन से संबंधित मुद्दे:
- पर्यावरण क्षरण: रेत खनन से आवास और पारिस्थितिक तंत्र का विनाश हो सकता है, साथ ही नदी के किनारों और तटीय क्षेत्रों का क्षरण भी हो सकता है।
- जल की कमी: रेत खनन के कारण जल स्तर में कमी आ सकती है और पीने तथा सिंचाई के लिये जल की उपलब्धता की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
- उदाहरण के लिये राजस्थान में रेत खनन से लूनी नदी के जल स्तर में गिरावट आई है, जिस कारण आस-पास के गाँवों की पेयजल आपूर्ति काफी प्रभावित हुई है।
- बाढ़: अत्यधिक रेत खनन से नदी के तल उथले हो सकते हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ सकता है।
- उदाहरण के लिये बिहार राज्य में रेत खनन के कारण कोसी नदी में बाढ़ आने की समस्या बनी रहती है, जिससे फसलों और संपत्ति की क्षति होती है।
- भ्रष्टाचार: रेत खनन अत्यधिक लाभदायक गतिविधि है और खनन पट्टों के आवंटन तथा विनियमों के प्रवर्तन में भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी के कई उदाहरण सामने आते ही रहते हैं।
आगे की राह
- सतत् खनन पद्धतियाँ: पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने वाले वैज्ञानिक तरीकों और उपकरणों का उपयोग करके पर्यावरण की दृष्टि से सतत् तरीके से रेत खनन किया जा सकता है।
- इसमें ड्रेजिंग (नदी, नहर आदि के तल पर जमा कीचड़ को विशेष मशीन से साफ करने की प्रक्रिया) और खनन तकनीकों का उपयोग शामिल किया जा सकता है जो नदी तल को प्रभावित नहीं करते हैं या फिर नदी की रेत के विकल्प के रूप में निर्मित रेत का उपयोग भी एक अच्छा कदम हो सकता है।
- नियमन और प्रवर्तन: सरकार कानून के माध्यम से रेत खनन को विनियमित कर सकती है और अवैध खनन के लिये सख्त दंड लागू अथवा प्रावधान कर सकती है।
- इसमें एक नियामक निकाय का गठन भी शामिल किया जा सकता है जो खनन गतिविधियों पर नज़र रखे और कानूनों तथा विनियमों का अनुपालन सुनिश्चित करे।
- सामुदायिक भागीदारी: रेत खनन से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल किया जा सकता है, जो उनकी चिंताओं को दूर करने में मदद कर सकता है और यह सुनिश्चित कर सकता है कि उनकी आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
- अभिनव समाधान: रेत खनन से संबंधित मुद्दों के समाधान हेतु सरकार अभिनव समाधान तलाश सकती है।
- उदाहरण के लिये अवैध खनन का पता लगाने और रोकने हेतु खनन गतिविधियों की निगरानी के लिये ड्रोन एवं सैटेलाइट इमेजरी का उपयोग किया जा सकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. निम्नलिखित खनिजों पर विचार कीजिये: (2020)
भारत में उपर्युक्त में से किसे आधिकारिक रूप से प्रमुख खनिजों के रूप में नामित किया गया है? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मेन्स:Q. तटीय रेत खनन, चाहे कानूनी हो या अवैध, हमारे पर्यावरण के लिये सबसे बड़े खतरों में से एक है। विशिष्ट उदाहरण देते हुए भारतीय तटों पर रेत खनन के प्रभाव का विश्लेषण कीजिये। (2019) |
स्रोत: पी.आई.बी.
सिंधु जल संधि
प्रिलिम्स के लिये:किशनगंगा और रातले जलविद्युत परियोजनाएँ, IWT का अनुच्छेद IX, सिंधु और उसकी सहायक नदियाँ। मेन्स के लिये:सिंधु जल संधि और संबंधित कार्यान्वयन मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
भारत ने जम्मू-कश्मीर में किशनगंगा तथा रातले (चिनाब नदी पर) जलविद्युत परियोजनाओं पर विवादों को हल करने में पाकिस्तान की "हठधर्मिता" का हवाला देते हुए सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty -IWT) की समीक्षा और इसमें संशोधन की मांग करते हुए पाकिस्तान को एक नोटिस जारी किया है।
- यह नोटिस "IWT के अनुच्छेद IX द्वारा परिकल्पित विवाद निपटान के श्रेणीबद्ध तंत्र के उल्लंघन" के बाद भेजा गया था।
सिंधु जल संधि:
- परिचय:
- भारत और पाकिस्तान ने नौ वर्षों की बातचीत के बाद सितंबर 1960 में IWT पर हस्ताक्षर किये, जिसमें विश्व बैंक भी इस संधि का हस्ताक्षरकर्त्ता था।
- यह संधि सिंधु नदी और उसकी पाँच सहायक नदियों सतलज, ब्यास, रावी, झेलम और चिनाब के पानी के उपयोग पर दोनों पक्षों के बीच सहयोग तथा सूचना के आदान-प्रदान के लिये एक तंत्र निर्धारित करती है।
- प्रमुख प्रावधान:
- साझा जल:
- संधि ने निर्धारित किया कि सिंधु नदी प्रणाली की छह नदियों के जल को भारत और पाकिस्तान के बीच कैसे साझा किया जाएगा।
- इसके तहत तीन पश्चिमी नदियों- सिंधु, चिनाब और झेलम को अप्रतिबंधित जल उपयोग के लिये पाकिस्तान को आवंटित किया, भारत द्वारा कुछ गैर-उपभोग्य, कृषि एवं घरेलू उपयोगों को छोड़कर अन्य तीन पूर्वी नदियों- रावी, ब्यास एवं सतलज को अप्रतिबंधित जल उपयोग के लिये भारत को आवंटित किया गया था।
- इसका मतलब है कि जल का 80% हिस्सा पाकिस्तान में चला गया, जबकि शेष 20% जल भारत के उपयोग के लिये छोड़ दिया गया।
- स्थायी सिंधु आयोग:
- इसके लिये दोनों देशों को दोनों पक्षों के स्थायी आयुक्तों द्वारा एक स्थायी सिंधु आयोग की स्थापना की भी आवश्यकता थी।
- सिंधु जल संधि के अनुसार, आयोग वर्ष में कम-से-कम एक बार नियमित तौर पर भारत और पाकिस्तान में बैठक करेगा।
- नदियों पर अधिकार:
- झेलम, चिनाब और सिंधु के पानी पर पाकिस्तान का अधिकार है, IWT के अनुलग्नक C में भारत को कुछ कृषि उपयोग की अनुमति है, जबकि अनुलग्नक D इसे 'रन ऑफ द रिवर' जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण करने की अनुमति देता है, जिसका अर्थ है कि पानी के भंडारण की आवश्यकता नहीं है।
- विवाद समाधान तंत्र:
- IWT सिंधु जल संधि के अनुच्छेद IX के तहत तीन चरणों वाला विवाद समाधान तंत्र भी प्रदान करता है, जिसके तहत दोनों पक्षों के "प्रश्नों" का समाधान स्थायी आयोग में किया जा सकता है या इन्हें अंतर-सरकारी स्तर पर भी उठाया जा सकता है।
- जल-बँटवारे को लेकर देशों के बीच अनसुलझे प्रश्नों या "मतभेदों", जैसे- तकनीकी मतभेद के मामले में कोई भी पक्ष निर्णय लेने के लिये तटस्थ विशेषज्ञ (NE) की नियुक्ति हेतु विश्व बैंक से संपर्क कर सकता है।
- अंततः यदि कोई भी पक्ष NE के निर्णय से संतुष्ट नहीं है या संधि की व्याख्या और सीमा "विवाद" के मामले में मामलों को मध्यस्थता न्यायालय में भेजा जा सकता है।
- साझा जल:
किशनगंगा जलविद्युत परियोजना
- किशनगंगा परियोजना भारत के जम्मू-कश्मीर में बांदीपोर से 5 किमी. उत्तर में स्थित है।
- यह एक रन-ऑफ-द-रिवर परियोजना है जिसमें 37 मीटर लंबा कंक्रीट-फेस रॉक-फिल बाँध शामिल है।
- इसे किशनगंगा नदी के पानी को एक सुरंग के माध्यम से झेलम नदी बेसिन में एक विद्युत् संयंत्र में डाइवर्ट करने की आवश्यकता है।
- इसकी स्थापित क्षमता 330 मेगावाट होगी।
- इस जलविद्युत परियोजना का निर्माण 2007 में शुरू हुआ था।
- पाकिस्तान ने परियोजना पर यह कहते हुए आपत्ति जताई कि यह किशनगंगा नदी (जिसे पाकिस्तान में नीलम नदी कहा जाता है) के प्रवाह को प्रभावित करेगा।
- वर्ष 2013 में हेग में स्थित स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (Court of Arbitration- CoA)) ने फैसला सुनाया कि भारत कुछ शर्तों के साथ पूरे जल का उपयोग और इसे डाइवर्ट कर सकता है।
आगे की राह
- संधि के प्रावधानों का पालन करने में भारत की भूमिका उल्लेखनीय रही है, लेकिन देश पर इस बात पर पुनर्विचार करने का दबाव है कि वह किस हद तक प्रावधानों के प्रति प्रतिबद्ध रह सकता है, क्योंकि पाकिस्तान के साथ उसके समग्र राजनीतिक संबंध कठोर हो गए हैं।
- IWT को अक्सर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की संभावनाओं के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है जो दोनों पड़ोसी देशों के बीच अशांत संबंधों के बावजूद मौजूद हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. सिंधु नदी प्रणाली के संदर्भ में निम्नलिखित चार नदियों में से तीन उनमें से एक में मिलती हैं, जो अंततः सीधे सिंधु में मिलती हैं। निम्नलिखित में से कौन-सी ऐसी नदी है जो सीधे सिंधु से मिलती है? (a) चिनाब उत्तर: (d) व्याख्या:
अतः विकल्प (d) सही है। प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2019) हिमनद नदी
उपर्युक्त युग्मों में से कौन-से युग्म सही सुमेलित हैं? (a) 1, 2 और 4 उत्तर: (a) प्रश्न. सिंधु जल संधि का लेखा-जोखा प्रस्तुत कीजिये और बदलते द्विपक्षीय संबंधों के संदर्भ में इसके पारिस्थितिक, आर्थिक और राजनीतिक निहितार्थों की जाँच कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2016) |