डेली न्यूज़ (26 Aug, 2023)



भारत का वृद्ध कार्यबल

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का वृद्ध कार्यबल, CMIE (सेंटर फॉर माॅनीटरिंग इंडियन इकॉनमी), स्थायी रोज़गार के अवसर, अनौपचारिक क्षेत्र

मेन्स के लिये:

भारत के वृद्ध कार्यबल को लेकर चिंता

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

विश्व स्तर पर सबसे बड़ी युवा आबादी होने के बावजूद CMIE (सेंटर फॉर माॅनीटरिंग इंडियन इकॉनमी) के आर्थिक आउटलुक डेटा के उपयोग से कार्यबल के विश्लेषण के अनुसार भारत के कार्यबल में ज़्यादा उम्र वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, यह एक चिंताजनक रुझान है।

  • वृद्ध कार्यबल का मूल रूप से मतलब यह है कि यदि भारत में सभी नियोजित लोगों को देखा जाए, तो युवा लोगों की हिस्सेदारी में कमी आई है, जबकि 60 वर्ष के करीब की उम्र वाले लोगों की हिस्सेदारी में वृद्धि देखी गई है।

विश्लेषण के प्रमुख बिंदु:

  • आयु समूह और कार्यबल संरचना:
    • वृद्ध कार्यबल की प्रवृत्ति को बेहतर ढंग से समझने के लिये यह विश्लेषण कार्यबल को तीन अलग-अलग आयु समूहों में वर्गीकृत करता है:
      • 15-29 वर्ष की आयु: कुल कार्यबल में इस आयु वर्ग की हिस्सेदारी वर्ष 2016-17 के 25% से घटकर वित्तीय वर्ष 2022-23 में 17% हो गई है।
      • 30-44 वर्ष की आयु: इसी अवधि में इस आयु वर्ग के व्यक्तियों की हिस्सेदारी भी 38% से घटकर 33% हो गई है।
      • 45 वर्ष और उससे अधिक आयु: इस आयु वर्ग की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, जो 37% से बढ़कर 49% हो गई है।

  • युवाओं के बीच गिरती रोज़गार दर:
    • जबकि युवा आबादी 2.64 करोड़ (वर्ष 2016-17 में 35.49 करोड़ से वर्ष 2022-23 में 38.13 करोड़) बढ़ी है, इस समूह में नियोजित व्यक्तियों की संख्या में 3.24 करोड़ की भारी गिरावट आई है।
    • परिणामस्वरुप इस आयु वर्ग के लिये रोज़गार दर सात वर्षों में 29% से गिरकर 19% हो गई है।

  • विभिन्न आयु समूहों पर भिन्न प्रभाव:
    • जबकि रोज़गार दर में गिरावट युवाओं के मामले में सबसे अधिक देखी गई है, यह प्रवृत्ति कुछ हद तक अन्य आयु समूहों तक भी विस्तृत है।
    • विशेष रूप से सबसे अधिक आयु वर्ग (45 वर्ष तथा उससे अधिक) में रोज़गार दर में अपेक्षाकृत कम गिरावट देखी गई है तथा वास्तव में नियोजित व्यक्तियों की पूर्ण संख्या में वृद्धि देखी गई है।

कार्यबल की आयु बढ़ाने में योगदान देने वाले कारक:

  • पर्याप्त नौकरी के अवसरों का अभाव:
    • युवाओं के रोज़गार में गिरावट का एक प्रमुख कारण पर्याप्त नौकरी के अवसरों की कमी है।
    • युवा आबादी की तीव्र वृद्धि उपलब्ध नौकरियों में आनुपातिक वृद्धि के अनुरूप नहीं है, जिससे सीमित पदों के लिये तीव्र प्रतिस्पर्द्धा देखी जा रही है।
  • अनुपयुक्त कौशल: 
    • युवाओं के पास मौजूद कौशल और रोज़गार बाज़ार के लिये आवश्यक कौशल के बीच अनुपयुक्तता के परिणामस्वरूप बेरोज़गारी की उच्च दर हो सकती है।
    • शिक्षा प्रणाली युवा व्यक्तियों को उभरते रोज़गार परिदृश्य के लिये पर्याप्त रूप से तैयार नहीं कर पा रही है, जिससे अल्परोज़गार या बेरोज़गारी की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
  • अनौपचारिक क्षेत्र का प्रभुत्व:
    • भारत के कार्यबल का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में लगा हुआ है, जिसमें अक्सर स्थिर रोज़गार के अवसरों और सामाजिक सुरक्षा लाभों का अभाव होता है।
    • नौकरी बाज़ार में प्रवेश करने वाले युवाओं को स्थिर और औपचारिक रोज़गार सुरक्षित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, जिससे अस्थिरता तथा कौशल का कम उपयोग हो सकता है।
  • शैक्षिक उपलब्धि और आकांक्षाएँ:
    • जबकि युवाओं के बीच शैक्षिक उपलब्धि बढ़ रही है, शिक्षा के माध्यम से प्राप्त कौशल और नौकरी बाज़ार द्वारा मांगे जाने वाले कौशल के बीच एक अंतर हो सकता है।
    • उच्च-स्तरीय नौकरियों की आकांक्षा ऐसी स्थिति पैदा कर सकती है जहाँ युवा उपयुक्त पदों के लिये इंतज़ार करने को तैयार हैं, इससे युवाओं के रोज़गार में गिरावट आएगी।

वृद्ध भारतीय कार्यबल की चिंताएँ और निहितार्थ:

  • उत्पादकता: 
    • स्वास्थ्य समस्याओं और घटती शारीरिक क्षमताओं के कारण पुराने कर्मचारियों की उत्पादकता में कमी का अनुभव हो सकता है। इसका असर समग्र आर्थिक उत्पादन पर पड़ सकता है।
    • स्वास्थ्य सेवाओं की मांग में वृद्धि हो सकती है, जो स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर दबाव डाल सकती है और सार्वजनिक एवं निजी दोनों खर्चों को प्रभावित कर सकती है।
  • नवाचार: 
    • युवा कर्मचारी अक्सर नए दृष्टिकोण और तकनीकी समझ लेकर आते हैं, जो उद्योगों में नवाचार को बढ़ावा दे सकता है।
      • वृद्ध कार्यबल में इस गतिशीलता का अभाव है।
  • आर्थिक विकास: 
    • घटता कार्यबल आर्थिक विकास क्षमता को प्रभावित कर सकता है, क्योंकि छोटी कामकाज़ी उम्र की आबादी उत्पादन और खपत में कम योगदान देती है।
    • जो क्षेत्र शारीरिक श्रम पर बहुत अधिक निर्भर हैं, जैसे कि निर्माण और विनिर्माण, यदि पुराने श्रमिकों के स्थान पर युवा श्रमिक उपलब्ध नहीं होंगे, तो उन्हें श्रमिकों की कमी का सामना करना पड़ सकता है।
  • कौशल की कमी:
    • उम्रदराज़ कार्यबल कौशल की कमी पैदा कर सकता है, खासकर उन उद्योगों में जिनमें विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है।
    • इससे तकनीकी प्रगति और नवप्रवर्तन में बाधा आ सकती है।
  • उपभोग के तरीके:
    • वृद्ध व्यक्तियों के उपभोग के तरीके अधिकतर अलग होते हैं, वे बचत और आवश्यक वस्तुओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, जो उपभोक्ता मांग और लक्ज़री वस्तुओं की ओर अग्रसर उद्योगों को प्रभावित कर सकता है।

आगे की राह 

  • ऐसी नीतियाँ जो जल्दी सेवानिवृत्ति को हतोत्साहित करती हैं और वृद्ध व्यक्तियों को कार्यबल में बने रहने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, उनके उत्पादक वर्षों को बढ़ाने में सहायता कर सकती हैं।
  • इसमें लचीली सेवानिवृत्ति की आयु, काम के कम घंटे और वित्तीय प्रोत्साहन शामिल हो सकते हैं।
  • कंपनियाँ आयु-समावेशी कार्यस्थल नीतियों को अपना सकती हैं जो पुराने श्रमिकों की ज़रूरतों को पूरा करती हैं और श्रम-दक्षता संबंधी सुविधाएँ, स्वास्थ्य सहायता तथा कौशल बढ़ाने के अवसर प्रदान करती हैं।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. सुभेद्य वर्गों के लिये क्रियान्वित की जाने वाली कल्याण योजनाओं का निष्पादन उनके बारे में जागरूकता के न होने और नीति प्रक्रम की सभी अवस्थाओं पर उनके सक्रिय तौर पर सम्मिलित न होने के कारण इतना प्रभावी नहीं होता है - चर्चा कीजिये। (2019)


भारत और उत्तरी समुद्री मार्ग

प्रिलिम्स के लिये:

आर्कटिक क्षेत्र, उत्तरी समुद्री मार्ग, भारत की ऊर्जा सुरक्षा, संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्य, हिमालय, स्वेज़ नहर, चेन्नई-व्लादिवोस्तोक पूर्वी समुद्री गलियारा

मेन्स के लिये:

भारत और उत्तरी समुद्री मार्ग

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

आर्कटिक क्षेत्र की राजधानी तथा उत्तरी समुद्री मार्ग (Northern Sea Route- NSR) का प्रारंभिक बिंदु कहे जाने वाले मूरमान्स्क (Murmansk) में कार्गो यातायात में भारतीय भागीदारी की बढ़ती प्रवृत्ति देखी जा रही है।

  • वर्ष 2023 के पहले सात महीनों में भारत को मूरमान्स्क बंदरगाह द्वारा संभाले गए आठ मिलियन टन कार्गो का 35% हिस्सा मिला, जो मॉस्को (Moscow), रूस से लगभग 2,000 किमी. उत्तर पश्चिम में है।

भारत के लिये आर्कटिक का महत्त्व:

  • अप्रयुक्त हाइड्रोकार्बन भंडार:
    • यह क्षेत्र पृथ्वी पर शेष हाइड्रोकार्बन के लिये सबसे बड़ा अज्ञात संभावित क्षेत्र है। अनुमान है कि इस क्षेत्र में तेल और गैस के मौजूदा वैश्विक भंडार का 40% से अधिक हो सकता है।
    • इस क्षेत्र में कोयला, जिप्सम तथा हीरे के समृद्ध भंडार हैं और जस्ता, सीसा, प्लसर सोना तथा क्वार्ट्ज के भी पर्याप्त भंडार हैं।
      • अतः आर्कटिक संभावित रूप से भारत की ऊर्जा सुरक्षा ज़रूरतों और रणनीतिक तथा दुर्लभ पृथ्वी खनिजों की कमी को संबोधित कर सकता है।
      • हालाँकि सरकार की वर्ष 2022 की आर्कटिक नीति में उल्लेख किया गया है कि क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिये देश का दृष्टिकोण संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों द्वारा निर्देशित है।
  • भारत की ऐतिहासिक भागीदारी:
    • आर्कटिक के साथ भारत का जुड़ाव वर्ष 1920 में स्वालबार्ड संधि पर हस्ताक्षर करने के समय से है।
    • भारत ने इस क्षेत्र में वायुमंडलीय, जैविक, समुद्री, जल विज्ञान और हिमनद विज्ञान संबंधी अध्ययनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययन और अनुसंधान किये हैं।
    • हिमाद्रि अनुसंधान स्टेशन, मल्टी-सेंसर मूर्ड वेधशाला और उत्तरी वायुमंडलीय प्रयोगशाला जैसी पहल आर्कटिक अनुसंधान के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं।
      • वर्ष 2013 में आर्कटिक परिषद का पर्यवेक्षक-राज्य बनने से भारत की आर्कटिक उपस्थिति मज़बूत हुई।
  • भौगोलिक महत्त्व:
    • आर्कटिक दुनिया की समुद्री धाराओं को प्रसारित करने, ठंडे और गर्म पानी को दुनिया भर में ले जाने में सहायता करता है।
    • इसके अलावा आर्कटिक समुद्री बर्फ ग्रह के शीर्ष पर एक विशाल सफेद परावर्तक के रूप में कार्य करता है, जो सूर्य की कुछ किरणों को वापस अंतरिक्ष में भेजता है, जिससे पृथ्वी को एक समान तापमान पर रखने में सहायता मिलती है।
  • पर्यावरणीय महत्त्व:
    • आर्कटिक और हिमालय हालाँकि भौगोलिक रूप से दूर हैं, आपस में जुड़े हुए हैं और समान चिंताएँ साझा करते हैं।
      • आर्कटिक का पिघलना वैज्ञानिक समुदाय को हिमालय में हिमनदों के पिघलने को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर रहा है, जिसे अक्सर 'तीसरा ध्रुव' कहा जाता है तथा उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के बाद इसमें सबसे बड़ा मीठे पानी का भंडार है।
      • इसलिये आर्कटिक का अध्ययन भारतीय वैज्ञानिकों के लिये महत्त्वपूर्ण है। इसी क्रम में भारत ने वर्ष 2007 में आर्कटिक महासागर में अपना पहला वैज्ञानिक अभियान शुरू किया तथा स्वालबार्ड द्वीप समूह (Svalbard archipelago,Norway) में हिमाद्री अनुसंधान आधार खोला और तब से सक्रिय रूप से वहाँ अनुसंधान में प्रयासरत है।

उत्तरी समुद्री मार्ग (NSR):

  • परिचय:
    • यूरोप और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों के बीच माल परिवहन के लिये NSR सबसे छोटा शिपिंग मार्ग है, जो आर्कटिक महासागर के चार समुद्रों (बैरेंट्स, कारा, लापतेव और पूर्वी साइबेरियाई सागर) तक फैला हुआ है।
    • 5,600 किमी. के क्षेत्र में फैला हुआ यह मार्ग बैरेंट्स और कारा समुद्र (कारा जलसंधि) के बीच की सीमा से शुरू होता है तथा बेरिंग जलसंधि (प्रोविडेनिया खाड़ी) में जा कर रुकता है।
    • यह स्वेज़ अथवा पनामा नहरों के माध्यम से पारंपरिक मार्गों की तुलना में 50% तक की संभावित दूरी को कम करता है।
      • वर्ष 2021 में स्वेज़ नहर के अवरुद्ध होने की घटना ने वैकल्पिक व्यापार मार्ग के रूप में NSR के विकास के विचार को गति प्रदान की है।
  • NSR के विकास में रूस की भूमिका:
    • आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ की अधिकता के कारण NSR के साथ सुरक्षित नेविगेशन के लिये बर्फ को हटाने के कार्य में सहायता की आवश्यकता होती है। रूस का दावा है कि उसके पास विश्व भर के एकमात्र परमाणु-संचालित आइसब्रेकर बेड़े हैं, इसके सहारे वह इनका वर्ष भर संचालन सुनिश्चित करता है। NSR इंफ्रास्ट्रक्चर ऑपरेटर रोसाटॉम इस बेड़े की देख-रेख का कार्य करता है।
    • NSR के कार्गो यातायात को बढ़ाने की रूस की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के साथ इसका परमाणु आइसब्रेकर बेड़ा इस परियोजना के केंद्र में बना हुआ है।
  • भारत की NSR भागीदारी के लिये प्रेरक कारक:
    • वर्ष 2018-2022 के दौरान लगभग 73% की वृद्धि दर के साथ NSR के साथ कार्गो यातायात में वृद्धि भारत द्वारा रूसी कच्चे तेल और कोयले के बढ़ते आयात के अनुरूप है।
    • पारगमन मार्ग के रूप में NSR की क्षमता भारत की व्यापार-केंद्रित अर्थव्यवस्था के लिये भी उपयुक्त है।
    • चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री गलियारा (Chennai-Vladivostok Maritime Corridor- CVMC) परियोजना एक लघु और कुशल व्यापार मार्ग प्रदान करती है।
    • इसके अतिरिक्त भारत NSR पर चीन और रूस के संभावित सामूहिक प्रभाव को संतुलित करना चाहता है।
  • भविष्य में होने वाले विकास और सहयोग:
    • वर्ष 2035 तक रूस के NSR पर कार्गो यातायात में उल्लेखनीय वृद्धि होने की उम्मीद है। NSR के माध्यम से भारत और रूस को जोड़ने के लिये डिज़ाइन की गई CVMC परियोजना, परिवहन समय को कम करने तथा व्यापार दक्षता को बढ़ाने में काफी मदद करेगी।
    • दोनों देशों के बीच आगामी कार्यशाला से CVMC परियोजना को आगे बढ़ाने के लिये एक मंच उपलब्ध होने की उम्मीद है। 

आगे की राह

  • आर्कटिक क्षेत्र में भारत की भागीदारी और NSR में इसकी बढ़ती भागीदारी आर्थिक सुरक्षा, पर्यावरणीय स्थिरता तथा व्यापार दक्षता में इसके रणनीतिक हितों को रेखांकित करती है।
  • जैसे-जैसे आर्कटिक में परिवर्तन जारी हैं, इस क्षेत्र में भारत की भूमिका बढ़ने की संभावना है, जिससे वैश्विक मंच पर इसके आर्थिक और भू-राजनीतिक हितों को आकार मिलेगा।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. कभी-कभी खबरों में दिखने वाला शब्द 'इंडार्क' (IndARC) का नाम है: (वर्ष 2015)

(a) भारतीय रक्षा में शामिल किया गया एक स्वदेशी रूप से विकसित रडार प्रणाली
(b) हिंद महासागर रिम के देशों को सेवाएँ प्रदान करने के लिये भारत का उपग्रह
(c)
अंटार्कटिक क्षेत्र में भारत द्वारा स्थापित एक वैज्ञानिक प्रतिष्ठान
(d)
आर्कटिक क्षेत्र का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करने के लिये पानी के नीचे भारत की वेधशाला

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. आर्कटिक क्षेत्र के संसाधनों में भारत क्यों रुचि ले रहा है? (2018)

प्रश्न. आर्कटिक सागर में तेल की खोज और इसके संभावित पर्यावरणीय परिणामों के आर्थिक महत्त्व क्या हैं? (2015)


नैनो लिक्विड यूरिया की वैज्ञानिक प्रामाणिकता

प्रिलिम्स के लिये:

नैनो लिक्विड यूरिया की वैज्ञानिक प्रामाणिकता, भारतीय किसान और उर्वरक सहकारी लिमिटेड  (IFFCO), जलवायु परिवर्तन, महासागर अम्लीकरण, ओज़ोन क्षरण

मेन्स के लिये:

नैनो लिक्विड यूरिया की वैज्ञानिक प्रामाणिकता, नैनो लिक्विड यूरिया के उपयोग से संबंधित मुद्दे

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में "प्लांट एंड सॉयल" पत्रिका में प्रकाशित एक संपादकीय में भारतीय किसान और उर्वरक सहकारी लिमिटेड(Indian Farmers and Fertiliser Cooperative- IFFCO) द्वारा उत्पादित नैनो लिक्विड यूरिया की वैज्ञानिक वैधता को लेकर चिंता जताई गई है।

  • इसमें उत्पाद की प्रभावकारिता और लाभों के बारे में किये गए दावों पर सवाल उठाए गए हैं, यह बाज़ार में नैनो उर्वरकों को उतारने से पहले उनके कठोर वैज्ञानिक जाँच व परीक्षण की आवश्यकता पर ज़ोर देता है।

नैनो लिक्विड यूरिया:

  • परिचय:
    • यह नैनो कण के रूप में यूरिया का एक प्रकार है। यह यूरिया के परंपरागत विकल्प के रूप में पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करने वाला एक पोषक तत्त्व (तरल) है। 
      • यूरिया सफेद रंग का एक रासायनिक नाइट्रोजन उर्वरक है, जो कृत्रिम रूप से नाइट्रोजन प्रदान करता है तथा पौधों के लिये एक आवश्यक प्रमुख पोषक तत्त्व है। 
    • नैनो यूरिया को पारंपरिक यूरिया के स्थान पर विकसित किया गया है और यह पारंपरिक यूरिया की आवश्यकता को न्यूनतम 50 प्रतिशत तक कम कर सकता है। 
      • इसकी 500 मिली.की एक बोतल में 40,000 मिलीग्राम/लीटर नाइट्रोजन होता है, जो सामान्य यूरिया के एक बैग/बोरी के बराबर नाइट्रोजन पोषक तत्त्व प्रदान करेगा। 
  • निर्माण
    • इसे स्वदेशी रूप से नैनो बायोटेक्नोलॉजी रिसर्च सेंटर (कलोल, गुजरात) में आत्मनिर्भर भारत अभियान और आत्मनिर्भर कृषि के अनुरूप विकसित किया गया है। 
      • भारत अपनी यूरिया की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये आयात पर निर्भर है। 
  • महत्त्व:
    • तरल नैनो यूरिया (Liquid Nano Urea) को पौधों के पोषण के लिये प्रभावी और कुशल पाया गया है जो बेहतर पोषण गुणवत्ता के साथ उत्पादन बढ़ाता है।
      • यह मिट्टी में यूरिया के अतिरिक्त उपयोग को कम करके संतुलित पोषण प्रक्रिया को बढ़ाने में सक्षम है तथा फसलों को सशक्त एवं स्वस्थ बना सकता है और उन्हें लॉजिंग प्रभाव (lodging effect) से बचाता है।
    • इसका भूमिगत जल की गुणवत्ता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा  जलवायु परिवर्तन एवं  धारणीय विकास पर प्रभाव के साथ ग्लोबल वार्मिंग में बहुत महत्त्वपूर्ण कमी आती है।

पृष्ठभूमि:

  • IFFCO ने दावा किया था कि नैनो तरल यूरिया की थोड़ी मात्रा पारंपरिक यूरिया की पर्याप्त मात्रा की जगह ले सकती है। 
  • केंद्र सरकार और IFFCO ने नैनो यूरिया उत्पादन और निर्यात का विस्तार करने के लिये महत्त्वाकांक्षी योजनाएँ बनाई हैं। 
  • शोधकर्ता इन योजनाओं के संभावित परिणामों के बारे में चिंता व्यक्त करते हैं, क्योंकि अतिरंजित दावों से गंभीर उपज हानि हो सकती है, जिससे खाद्य सुरक्षा और किसानों की आजीविका प्रभावित हो सकती है।

शोध में उठाई गई चिंताएँ:

  • दावों और परिणामों के बीच विसंगति:
    • नैनो तरल यूरिया को पारंपरिक दानेदार यूरिया के एक आशाजनक विकल्प के रूप में पेश किया गया था।
    • नैनो तरल यूरिया क्षेत्र में उल्लेखनीय परिणाम देने में विफल रहा है। उर्वरक का उपयोग करने वाले किसानों को फसल की उपज में सुधार के बिना इनपुट लागत में वृद्धि का अनुभव हुआ है।
    • यह उत्पाद के दावों और वास्तविक दुनिया के परिणामों के बीच विसंगति को दर्शाता है।
  • पर्यावरणीय चिंताएँ:
    • IFFCO ने नैनो यूरिया को पर्यावरण के अनुकूल के रूप में विज्ञापित किया था, जबकि अखबार को इस दावे का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिला।
    • इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि फसल वृद्धि के लिये एक महत्त्वपूर्ण यौगिक नाइट्रोजन, जलवायु परिवर्तन, महासागरीय अम्लीकरण और ओज़न क्षरण जैसे कई पर्यावरणीय मुद्दों से जुड़ा हुआ है।

सिफारिशें:

  • अध्ययन पर्यावरण पर इसके प्रतिकूल प्रभाव के कारण अतिरिक्त नाइट्रोजन को संबोधित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देता है।
  • यह मत नवीन कृषि प्रौद्योगिकियों को शुरू करने से पहले पारदर्शी और कठोर वैज्ञानिक मूल्यांकन के महत्त्व पर प्रकाश डालता है।
  • खाद्य सुरक्षा, किसानों की आजीविका और पर्यावरण पर निहितार्थ के साथ यह विवाद कृषि क्षेत्र में ज़िम्मेदार नवाचार एवं साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव लिमिटेड:

  • परिचय:
    • यह भारत की सबसे बड़ी सहकारी समितियों में से एक है जिसका पूर्ण स्वामित्व भारतीय सहकारी समितियों के पास है।
    • वर्ष 1967 में केवल 57 सहकारी समितियों के साथ स्थापित, यह वर्तमान में 36,000 से अधिक भारतीय सहकारी समितियों का एक समामेलन है, जिसमें उर्वरकों के निर्माण और बिक्री के अपने मुख्य व्यवसाय के अलावा सामान्य बीमा से लेकर ग्रामीण दूरसंचार तक के विविध व्यावसायिक हित हैं।
  • उद्देश्य:
    • भारतीय किसानों को पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ तरीके से विश्वसनीय, उच्च गुणवत्ता वाले कृषि आदानों और सेवाओं की समय पर आपूर्ति के माध्यम से समृद्ध होने तथा उनके कल्याण में सुधार के लिये अन्य गतिविधियाँ करने में सक्षम बनाना।

निष्कर्ष:

  • नैनो तरल यूरिया विवाद कृषि क्षेत्र में पारदर्शिता और ज़िम्मेदार नवाचार की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
  • तकनीकी प्रगति और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन बनाना किसानों, खाद्य सुरक्षा और ग्रह की भलाई के लिये महत्त्वपूर्ण है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारत में रासायनिक उर्वरकों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. वर्तमान में रासायनिक उर्वरकों का खुदरा मूल्य बाज़ार-संचालित है और यह सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है।
  2.  अमोनिया जो यूरिया बनाने में काम आता है, वह प्राकृतिक गैस से उत्पन्न होता है।
  3.  सल्फर, जो फॉस्फोरिक अम्ल उर्वरक के लिये कच्चा माल है, वह तेल शोधन कारखानों का उपोत्पाद है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 2
(d) 1, 2 और 3

उत्तर : (b) 

व्याख्या

  • भारत सरकार उर्वरकों पर सब्सिडी इसलिये देती है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसानों को उर्वरक आसानी से उपलब्ध हो ताकि देश कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बना रहे। इसे वृहत् स्तर पर उर्वरकों की कीमत और उत्पादन की मात्रा को नियंत्रित करके हासिल किया गया है। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • अमोनिया (NH3) को प्राकृतिक गैस से संश्लेषित किया जाता है। इस प्रक्रिया में प्राकृतिक गैस के अणु कार्बन और हाइड्रोजन के रूप में अपचयित हो जाते हैं। हाइड्रोजन को तब शुद्ध किया जाता है जब अमोनिया के उत्पादन के लिये नाइट्रोजन के साथ प्रतिक्रिया की जाती है। सिंथेटिक अमोनिया का उपयोग उर्वरक के रूप में किया जाता है, जिसे संश्लेषण के बाद या तो प्रत्यक्ष अमोनिया के रूप में या अप्रत्यक्ष रूप से यूरिया के रूप में अमोनियम नाइट्रेट और मोनोअमोनियम या डायमोनियम फॉस्फेट के रूप प्रयोग किया जाता है। अतः कथन 2 सही है।
  • सल्फर तेल शोधन और गैस प्रसंस्करण का एक प्रमुख उप-उत्पाद है। अधिकांश कच्चे तेल में कुछ सल्फर की मात्रा होती है, जिनमें से अधिकांश को परिष्कृत उत्पादों से सख्त सल्फर सामग्री की पूर्ति के लिये शोधन प्रक्रिया के दौरान हटा दिया जाता है। ऐसा आमतौर पर हाइड्रोट्रीटिंग के माध्यम से किया जाता है, इसके परिणामस्वरूप H2S गैस का उत्पादन होता है, जो मौलिक सल्फर में परिवर्तित हो जाती है। सल्फर का खनन भूमिगत, प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले निक्षेपों से भी किया जा सकता है, लेकिन यह तेल और गैस की तुलना में अधिक महँगा है, हालाँकि इसे काफी हद तक बंद कर दिया गया है। मोनोअमोनियम फॉस्फेट (MAP) और डायअमोनियम फॉस्फेट (DAP) दोनों के उत्पादन में सल्फ्यूरिक अम्ल का उपयोग किया जाता है। अतः कथन 3 सही है।

अतः विकल्प (b) सही है।


रेल-समुद्र-रेल परिवहन

प्रिलिम्स के लिये:

रेल-समुद्र-रेल परिवहन, कोयला, शक्ति नीति

मेन्स के लिये:

भारत में कोयला निकासी में वृद्धि करने में चुनौतियाँ, कोयले से संबंधित पहलें

स्रोत: पी.आई.बी.

चर्चा में क्यों? 

कोयला मंत्रालय ने रेल-समुद्र-रेल परिवहन को बढ़ावा देने के लिये एक पहल की है जिसका उद्देश्य घरेलू कोयले की सुचारु आवाजाही के लिये रेल-समुद्र-रेल (RSR) परिवहन को जोड़ना है।

रेल-समुद्र-रेल परिवहन:

  • परिवहन:
    • यह एक अभिनव मल्टीमॉडल परिवहन रणनीति है।
      • यह खदानों से बंदरगाहों और अंतिम उपयोगकर्ताओं तक निर्बाध कोयला परिवहन के लिये रेल और समुद्री मार्गों को एकीकृत करता है।
    • इसका उद्देश्य लॉजिस्टिक दक्षता में वृद्धि करने के साथ ही परिवहन लागत को कम करना है।
  • कोयले के परिवहन से संबंधित चुनौतियों का हल:
    • RSR को उत्पादन केंद्रों से उपभोग क्षेत्रों तक कुशल कोयला परिवहन से संबंधित चुनौतियों का समाधान करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
      • कुल घरेलू कच्चा कोयला भेजने का लगभग 75 प्रतिशत मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों के साथ-साथ ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे प्रमुख कोयला उत्पादक राज्यों का था।
      • कोयला मंत्रालय ने ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये कोयला उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता को पहचानते हुए वित्त वर्ष 2030 तक लगभग 7.7% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) का लक्ष्य रखते हुए कोयला उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि का अनुमान लगाया है।
  • तटीय नौवहन का लाभ उठाना:
    • तटीय शिपिंग कोयला सहित माल परिवहन के एक किफायती और पर्यावरण अनुकूल साधन के रूप में उभरा है।
      • RSR पहल के हिस्से के रूप में भारत के दक्षिणी और पश्चिमी तटों पर बंदरगाहों की क्षमता का पूरी तरह से उपयोग करने का प्रयास किया जा रहा है।
      • यह अनुकूलन गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा, तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में स्थित बिजलीघरों तक कोयले की कुशल आवाजाही को सक्षम बनाता है।
  • लागत अनुकूलन और प्रतिस्पर्द्धी मूल्य निर्धारण:
    • RSR का चयन करने से महत्त्वपूर्ण लागत बचत हो सकती है।
      • दक्षिणी भारत में अंतिम उपयोगकर्ताओं के लिये प्रति टन लगभग 760-1300 रुपए की संभावित बचत।
      • यह लागत बचत घरेलू स्तर पर उत्पादित कोयले को आयातित कोयले की कुल लागत के मुकाबले अधिक प्रतिस्पर्द्धी बना सकती है।
  • भीड़भाड़ कम करना और लॉजिस्टिक्स बढ़ाना:
    • वर्तमान में रेलवे लगभग 55% कोयला निकासी का प्रबंधन करता है। कोयला मंत्रालय का लक्ष्य वित्त वर्ष 2030 तक कोयला निकासी में रेलवे की हिस्सेदारी को 75% तक बढ़ाना है।
      • इस पहल का एक प्राथमिक लक्ष्य पारंपरिक रेल मार्गों पर भीड़भाड़ को कम करना है, जिनमें अक्सर उच्च यातायात के कारण बाधाओं का सामना करना पड़ता है। रेल-समुद्र-रेल (RSR) सहित वैकल्पिक मार्गों पर ध्यान केंद्रित करने से इस भीड़ को कम करने तथा रसद/लॉजिस्टिक्स को सुव्यवस्थित करने की अपेक्षा है।
  • विकास और भविष्य की संभावनाएँ:
    • कोयले के रेल-समुद्र-रेल परिवहन में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, इसमें पिछले चार वर्षों में लगभग 125% की वृद्धि हुई है।
    • यह विकास पथ परिवहन के वैकल्पिक साधन के रूप में RSR की प्रभावशीलता और व्यवहार्यता को इंगित करता है। अगले सात वर्षों के भीतर भारत का कोयला उत्पादन लगभग दोगुना होने की उम्मीद के साथ देश भर के उपभोग केंद्रों को कोयले की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने में RSR की सफलता और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
  • रेल-समुद्र-रेल कोयला निकासी में चुनौतियाँ:
    • कुशल रेल-समुद्र-रेल कोयला परिवहन और बढ़ी हुई क्षमता को संभालने के लिये मज़बूत रेल और बंदरगाह बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता है।
    • प्रतिकूल मौसम की स्थिति, तकनीकी खराबी और परिवहन शृंखला में व्यवधान जैसी संभावित चुनौतियों से निपटने के लिये जोखिम न्यूनीकरण रणनीति विकसित करने की आवश्यकता है।
    • सुचारु कार्यान्वयन के लिये रेल-समुद्र-रेल रणनीति कार्यान्वयन में शामिल विभिन्न मंत्रालयों के बीच निर्बाध सहयोग सुनिश्चित करना।

भारत में कोयला क्षेत्र से संबंधित पहल:

कोयला

  • यह एक प्रकार का जीवाश्म ईंधन है जो तलछटी चट्टानों के रूप में पाया जाता है और इसे अक्सर 'ब्लैक गोल्ड' के नाम से जाना जाता है।
  • यह ऊर्जा का एक पारंपरिक स्रोत है और व्यापक रूप से उपलब्ध है। इसका उपयोग घरेलू ईंधन के रूप में लोहा और इस्पात, भाप इंजन जैसे उद्योगों में और बिजली उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। कोयले से प्राप्त विद्युत को तापीय विद्युत कहते हैं।
  • विश्व के प्रमुख कोयला उत्पादकों में चीन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, भारत शामिल हैं।
  • भारतीय कोयले में राख की मात्रा अधिक होती 35 से 45% तक होती है, विश्व के अन्य हिस्सों के कोयले में राख की मात्रा लगभग 15% होती है, और इसमें सल्फर की मात्रा भी कम होती है, लगभग 0.5%।
  • भारत में विभिन्न प्रकार का कोयला:
    • एन्थ्रेसाइट (80-95% कार्बन, जम्मू-कश्मीर), बिटुमिनस (60-80% कार्बन, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश), लिग्नाइट (40-55% कार्बन, राजस्थान, असम, तमिलनाडु), पीट (Peat) (40% से कम कार्बन, प्रारंभिक लकड़ी से कोयला बनने का चरण)।
  • प्रमुख कोयला उत्पादक राज्य:
    • झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और तेलंगाना।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. भारत सरकार द्वारा कोयला क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी के कार्यकाल में किया गया था।
  2. वर्तमान में कोयला ब्लॉक का आवंटन लॉटरी के आधार पर किया जाता है।
  3. भारत हाल के समय तक घरेलू आपूर्ति की कमी को पूरा करने के लिये कोयले का आयात करता था, किंतु अब भारत कोयला उत्पादन में आत्मनिर्भर है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)

व्याख्या:

  • वर्ष 1972 में इंदिरा गांधी सरकार के तहत कोयला क्षेत्र का दो चरणों में राष्ट्रीयकरण किया गया था। अतः कथन 1 सही है।
  • कोयला ब्लॉक का आवंटन लॉटरी के आधार पर न होकर नीलामी के माध्यम से किया जाता है। अतः कथन 2 सही नहीं है।
  • कोयला क्षेत्र भारत में एकाधिकार क्षेत्र है। भारत के पास दुनिया का 5वाँ सबसे बड़ा कोयला भंडार है, लेकिन एकाधिकार फर्मों द्वारा कोयला उत्पादन की अक्षमता के कारण यह घरेलू आपूर्ति की कमी को पूरा करने के लिये कोयले का आयात करता है। अत: कथन 3 सही नहीं है।

अतः विकल्प a सही उत्तर है।


प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा/से भारतीय कोयले का/के अभिलक्षण है/हैं? (2013)

  1. उच्च भस्म अंश 
  2. निम्न सल्फर अंश 
  3. निम्न भस्म संगलन तापमान

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a)