इन्फोग्राफिक्स
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
भारत और खाड़ी सहयोग परिषद
प्रिलिम्स के लिये:व्यापार समझौतों के प्रकार, भारत और खाड़ी देश मेन्स के लिये:भारत-खाड़ी संबंधों का महत्त्व, मुक्त व्यापार समझौते (FTA) के तहत भारत के लिये अवसर |
चर्चा में क्यों?
भारत और खाड़ी सहयोग परिषद (Gulf Cooperation Council- GCC) मुक्त व्यापार समझौते (Free Trade Agreement- FTA) को आगे बढ़ाने और वार्ता को फिर से शुरू करने पर सहमत हुए हैं।
- GCC खाड़ी क्षेत्र के छह देशों- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, कुवैत, ओमान और बहरीन का एक संघ है। इस परिषद के सदस्य भारत के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार हैं।
खाड़ी क्षेत्र का भारत के लिये महत्त्व:
- भारत और ईरान के मध्य सदियों से अच्छे संबंध रहे हैं, जबकि प्राकृतिक गैस समृद्ध राष्ट्र कतर इस क्षेत्र में भारत के सबसे करीबी सहयोगियों में से एक है।
- अधिकांश खाड़ी देशों के साथ भारत के अच्छे संबंध रहे हैं।
- इन संबंधों के दो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण तेल और गैस तथा व्यापार है।
- भारत के कुल प्राकृतिक गैस आयात में कतर का हिस्सा 41% है।
- दो अन्य कारण हैं- खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों की बड़ी संख्या और उनके द्वारा अपने घर भेजे जाने वाले प्रेषित धन।
- भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2020-21 में संयुक्त अरब अमीरात से भारत में प्रेषित धन 15.40 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो भारत के कुल आवक प्रेषण का 18% है।
भारत-GCC व्यापार संबंधों की स्थिति:
- GCC सदस्य देशों के लिये भारत का निर्यात वर्ष 2020-21 के 27.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर के मुकाबले वर्ष 2021-22 में 58.26% बढ़कर लगभग 44 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
- वस्तुओं का द्विपक्षीय व्यापार वर्ष 2020-21 के 87.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 154.73 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है।
- वर्ष 2021-22 में दोनों क्षेत्रों के बीच सेवा व्यापार लगभग 14 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था, जिसमें कुल निर्यात 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर और आयात 8.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था।
- GCC देश भारत के तेल आयात में लगभग 35% और गैस आयात में 70% योगदान करते हैं।
- वर्ष 2021-22 में GCC से भारत का कुल कच्चे तेल का आयात लगभग 48 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था, जबकि वर्ष 2021-22 में LNG और LPG का आयात लगभग 21 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था।
अन्य देशों के साथ भारतीय व्यापार समझौतों की स्थिति:
- भारत-ऑस्ट्रेलिया व्यापार समझौता:
- हाल ही में ऑस्ट्रेलियाई संसद ने भारत-ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते (भारत-ऑस्ट्रेलिया ECTA) को मंज़ूरी दी है।
- यह पहला मुक्त व्यापार समझौता (FTA) है जिसे भारत ने एक दशक से अधिक समय के बाद एक प्रमुख और विकसित देश के साथ हस्ताक्षरित किया है।
- इस समझौते में दो मित्र देशों के बीच द्विपक्षीय आर्थिक और वाणिज्यिक संबंधों के संपूर्ण क्षेत्र में सहयोग शामिल है।
- भारत-यूरोपीय संघ FTA:
- भारत और यूरोपीय संघ ने आठ साल के अंतराल के बाद वर्ष 2021 की शुरुआत में वस्तु और सेवाओं के संदर्भ में फिर से FTA वार्ता शुरू की।
- दोनों क्षेत्रों का उद्देश्य FTA के समानांतर निवेश और भौगोलिक संकेतों में समझौतों पर काम करना है।
- भारत-यूरोपीय संघ FTA वार्ता का तीसरा दौर इस साल के अंत में दिल्ली में शुरू होगा।
- भारत-ब्रिटेन FTA:
- अगले कुछ महीनों में भारत और यूनाइटेड किंगडम मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर बातचीत शुरू करेंगे।
- एजेंडे में फार्मा कंपनियों द्वारा निरंतर पेटेंट विस्तार के खिलाफ पेटेंट व्यवस्था हासिल करना है, प्रस्तावित FTA के तहत इस क्षेत्र में आसान कार्य वीीाज़ा के साथ-साथ भारतीय फिल्मों तक पहुँच की मांग करना है।
- भारत-संयुक्त अरब अमीरात- CEPA:
- भारत और संयुक्त अरब अमीरात (United Arab Emirates- UAE) के बीच व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता (Comprehensive Economic Partnership Agreement- CEPA) 1 मई, 2022 से लागू हुआ।
- CEPA दोनों देशों के बीच व्यापार को प्रोत्साहित करने और इसमें सुधार के लिये एक संस्थागत तंत्र प्रदान करता है।
- भारत-कनाडा CEPA:
- कनाडा पहले विदेशी निवेश संवर्द्धन संरक्षण समझौते (Foreign Investment Promotion Protection Agreement- FIPA) और CEPA पर बातचीत को आगे बढ़ाने के लिये काम कर रहा था।
- अगस्त 2022 में भारत और कनाडा ने इस बात पुष्टि की कि वे प्रारंभिक प्रगति व्यापार समझौते (Early Progress Trade Agreement- EPTA) को सुरक्षित करने के लिये चौथे दौर की वार्ता आयोजित करेंगे, जो एक व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (CEPA) तक पहुँचने के लिये एक मध्यवर्ती कदम है।
आगे की राह
- खाड़ी क्षेत्र का भारत के लिये ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। भारत-GCC मुक्त व्यापार समझौता (FTA) संबंधों को बढ़ावा दे सकते हैं।
- वर्तमान में GCC क्षेत्र अस्थिर है, इस प्रकार भारत को इस क्षेत्र में अपने बड़े आर्थिक, राजनीतिक और जनसांख्यिकीय हितों की रक्षा करने की आवश्यकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. निम्नलिखित में से कौन 'खाड़ी सहयोग परिषद' का सदस्य नहीं है? (2016) (a) ईरान उत्तर: (a) व्याख्या:
अत: विकल्प (a) सही है। |
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
हिममंडल क्षति
प्रिलिम्स के लिये:'एम्बिशन ऑन मेल्टिंग आइस (AMI) ऑन सी-लेवल राइज़ एंड माउंटेन वाटर रिसोर्सेज', हिममंडल, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस गैस, पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना। मेन्स के लिये:वैश्विक जलवायु पर हिममंडल क्षति का प्रभाव। |
चर्चा में क्यों?
COP27 में 18 देश व्यापक गठबंधन के तहत एक नए उच्च-स्तरीय समूह 'एम्बिशन ऑन मेल्टिंग आइस (AMI) ऑन सी-लेवल राइज़ एंड माउंटेन वाटर रिसोर्सेज़' के गठन के लिये एकजुट हुए।
एम्बिशन ऑन मेल्टिंग आइस (AMI)
- "AMI" समूह का उद्देश्य हिममंडल/क्रायोस्फीयर क्षति के प्रभावों के बारे में राजनेताओं और जनता को जागरूक करना है, इसे न केवल पहाड़ और ध्रुवीय क्षेत्रों के स्तर पर बल्कि पूरे ग्रह के स्तर पर समझने की आवश्यकता है।
- समूह के संस्थापकों में चिली (सह-अध्यक्ष), आइसलैंड (सह-अध्यक्ष), पेरू, चेक गणराज्य, नेपाल, फिनलैंड, सेनेगल, किर्गिज़ गणराज्य, समोआ, जॉर्जिया, स्विटज़रलैंड, न्यूज़ीलैंड, मोनाको, वानुअतु, स्वीडन, तंज़ानिया, लाइबेरिया, नॉर्वे और मेंक्सिको शामिल हैं।
समूह की घोषणा:
- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
- जलवायु परिवर्तन के कारण पहले ही वैश्विक हिममंडल (पृथ्वी पर हिम या बर्फ वाले क्षेत्र) में नाटकीय बदलाव देखा गया है।
- इन परिवर्तनों से जीवन और आजीविका को खतरा उत्पन्न हुआ है। आर्कटिक एवं पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीय लोग सबसे पहले प्रभावित हुए हैं।
- बदलती जलवायु में महासागर और हिममंडल पर विशेष रिपोर्ट सहित IPCC आकलन चक्र की छठी रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि हिममंडल में इस तरह के बदलाव ग्लोबल वार्मिंग और वातावरण में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के अतिरिक्त वृद्धि से असंतुलन की स्थिति उतन्न होगी।
- इसका ध्रुवीय और पर्वतीय क्षेत्रों पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा।
- ध्रुवीय मत्स्य पालन में तापीय उष्मन के अलावा इनमें ध्रुवीय महासागरों का तेज़ी से अम्लीकरण भी शामिल है, इसलिये वैज्ञानिकों का कहना है कि 450 ppm पर यह एक चरम सीमा तक पहुँच जाएगा, इस स्तर पर पहुँचने में केवल 12 वर्ष और लगेंगे।
- सुझाव:
- सशक्त जलवायु कार्रवाई के माध्यम से हिममंडल की रक्षा करना अकेले पर्वतीय और ध्रुवीय देशों का मामला नहीं है: यह तत्काल वैश्विक चिंता का विषय है क्योंकि मानव समुदायों पर सबसे बड़ा प्रभाव इन क्षेत्रों के बाहर पड़ेगा।
- वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में तेज़ी से कमी, ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की संभावना को जीवंत रखना हिममंडल क्षति एवं संभावित आपदाओं की परिणामी शृंखला को सीमित करने का हमारा सबसे अच्छा विकल्प है।
- हमारे सभी समाजों के लाभ के लिये वर्ष 2030 से पहले उत्सर्जन में कमी को अत्यावश्यक विषय बनाने की जरुरत है।
हिममंडल (Cryosphere):
- परिचय:
- हिममंडल पृथ्वी की जलवायु प्रणाली का हिस्सा है जिसमें ठोस वर्षा, बर्फ, सागरों में जमी बर्फ, हिमखंड, ग्लेशियर और हिम-झीलें, हिम-नदियाँ, ग्लेशियर्स, हिमचादर, हिमशैल और पर्माफ्रॉस्ट आदि शामिल हैं।
- "क्रायोस्फीयर" शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द 'क्रायोस' से हुई है, जिसका अर्थ ठंढ या बर्फ की ठंड है।
- हिममंडल न केवल आर्कटिक, अंटार्कटिक और पर्वतीय क्षेत्रों में बल्कि लगभग सौ देशों में अधिकांश अक्षांशों पर मौसमी या बारहमासी रूप से विश्व स्तर पर विस्तृत है।
- अंटार्कटिक में सबसे बड़ी महाद्वीपीय हिमचादर पाई जाती हैं।
- पृथ्वी का लगभग 70% ताज़ा पानी बर्फ या हिम के रूप में मौजूद है।
- वैश्विक जलवायु पर हिममंडल के प्रभाव:
- एल्बिडो (Albedo):
- बर्फ और हिम में उच्च एल्बिडो होता है। वे अधिकांश प्रकाश को अवशोषित किये बिना परावर्तित कर देते हैं और पृथ्वी को ठंडा करने में मदद करते हैं। इस प्रकार बर्फ एवं हिम की उपस्थिति या अनुपस्थिति पृथ्वी की सतह के ताप और शीतलन को प्रभावित करती है।
- यह पूरे ग्रह के ऊर्जा संतुलन को प्रभावित करता है।
- फीडबैक लूप (Feedback Loop):
- बर्फ के पिघलने से परावर्तक सतह कम हो जाती है तथा समुद्र और भूमि का रंग गहरा हो जाता है, जो अधिक सौर विकिरण को अवशोषित करते हैं तथा फिर वातावरण में गर्मी छोड़ते हैं।
- इससे अधिक गर्मी होती है और अधिक बर्फ पिघलती है। इसे फीडबैक लूप के रूप में जाना जाता है।
- बर्फ के पिघलने से परावर्तक सतह कम हो जाती है तथा समुद्र और भूमि का रंग गहरा हो जाता है, जो अधिक सौर विकिरण को अवशोषित करते हैं तथा फिर वातावरण में गर्मी छोड़ते हैं।
- पर्माफ्रॉस्ट:
- पर्माफ्रॉस्ट संभावित रूप से मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड का एक प्रमुख स्रोत है।
- पर्माफ्रॉस्ट ने ध्रुवीय क्षेत्र की मिट्टी में अनेकों टन कार्बन जमा कर दिया है।
- यदि 'फीडबैक लूप' बढ़ता है तो कार्बन मीथेन के रूप में निकलता है- एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनता है।
- पर्माफ्रॉस्ट में लगभग 1,400 से 1,600 बिलियन टन कार्बन होता है।
- कार्बन बजट के संदर्भ में 1.5 डिग्री सेल्सियस की जलवायु वार्मिंग के परिदृश्य में, पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से 150 से 200 गीगाटन CO2 ईक्यू (eq) उत्सर्जन का अनुमान है, जबकि वर्ष 2100 तक 2+ डिग्री सेल्सियस पर आँकड़ा लगभग 220 से 300 गीगाटन होगा जो कनाडा अथवा पूरे यूरोपीय संघ के देशों के कुल उत्सर्जन के बराबर होगा।
- हिममंडल का पिघलना:
- हिममंडल के पिघलने से महासागरों में पानी की मात्रा प्रभावित होती है। जल चक्र में कोई भी परिवर्तन वैश्विक ऊर्जा/गर्मी बजट (हीट बजट) को प्रभावित करता है और इस प्रकार वैश्विक जलवायु को प्रभावित करता है।
- GHG के उत्सर्जन और पिघलते आर्कटिक से एल्बिडो में परिवर्तन से वर्ष 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग में आर्कटिक के योगदान के दोगुने से अधिक होने का अनुमान है।
- हिममंडल के पिघलने से महासागरों में पानी की मात्रा प्रभावित होती है। जल चक्र में कोई भी परिवर्तन वैश्विक ऊर्जा/गर्मी बजट (हीट बजट) को प्रभावित करता है और इस प्रकार वैश्विक जलवायु को प्रभावित करता है।
- एल्बिडो (Albedo):
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. हिममंडल वैश्विक जलवायु को कैसे प्रभावित करता है? (2017) प्रश्न. आर्कटिक की बर्फ और अंटार्कटिक के ग्लेशियरों का पिघलना किस तरह अलग-अलग ढंग से पृथ्वी पर मौसम के स्वरुप और मनुष्य की गतिविधियों पर प्रभाव डालते हैं? स्पष्ट कीजिये। (2021) |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत में बेरोज़गारी
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, बेरोज़गारी के प्रकार, सरकार की पहलें मेन्स के लिये:राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, बेरोज़गारी; इसके प्रकार, कारण और संबंधित पहलें |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (National Statistical Office- NSO) ने आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey- PLFS) जारी किया है।
- 15 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों की शहरी क्षेत्रों में बेरोज़गारी दर जुलाई-सितंबर 2021 में 9.8% से घटकर जुलाई-सितंबर 2022 में 7.2% हो गई।
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (जुलाई-सितंबर 2022) के प्रमुख बिंदु:
- बेरोज़गारी अनुपात:
- बेरोज़गारी अनुपात को श्रम बल में व्यक्तियों के बीच बेरोज़गार व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया गया है।
- बेरोज़गारी दर: पुरुषों में 6.6%, महिलाओं में 9.4% (जुलाई-सितंबर 2021 में 9.3% और 11.6%) थी।
- श्रमिक-जनसंख्या अनुपात (Worker-Population Ratio- WPR):
- WPR को जनसंख्या में रोज़गार वाले व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया गया है।
- 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के व्यक्तियों के लिये शहरी क्षेत्रों में WPR 5% (जुलाई-सितंबर 2021 में 42.3%) था।
- पुरुषों में WPR 68.6% और महिलाओं में 19.7% (2021 में 66.6% और 17.6%) था।
- श्रम बल भागीदारी दर (Labour Force Participation Rate- LFPR):
- इसे श्रम बल में उन व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया गया है जो शहरी क्षेत्रों में 15 वर्ष अथवा उससे अधिक आयु के हैं, और वे काम कर रहे हैं या काम की तलाश में हैं।
- यह बढ़कर 9% (जुलाई-सितंबर 2021 में 46.9%) हो गया।
- पुरुषों में LFPR 73.4% तथा महिलाओं में 21.7% (73.5% और 19.9%, जुलाई-सितंबर 2021 में) था।
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण:
- अधिक नियत समय अंतराल पर श्रम बल डेटा की उपलब्धता के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) ने अप्रैल 2017 में आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) की शुरुआत की।
- PLFS के मुख्य उद्देश्य हैं:
- 'वर्तमान साप्ताहिक स्थिति' (CWS) में केवल शहरी क्षेत्रों के लिये तीन माह के अल्पकालिक अंतराल पर प्रमुख रोज़गार और बेरोज़गारी संकेतकों (अर्थात् श्रमिक-जनसंख्या अनुपात, श्रम बल भागीदारी दर, बेरोज़गारी दर) का अनुमान लगाना।
- प्रतिवर्ष ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में सामान्य स्थिति तथा CWS दोनों में रोज़गार एवं बेरोज़गारी संकेतकों का अनुमान लगाना।
- बेरोज़गारी:
- किसी व्यक्ति द्वारा सक्रियता से रोज़गार की तलाश किये जाने के बावजूद जब उसे काम नहीं मिल पाता तो यह अवस्था बेरोज़गारी कहलाती है।
- बेरोज़गारी का प्रयोग प्रायः अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के मापक के रूप में किया जाता है।
- बेरोज़गारी को सामान्यत: बेरोज़गारी दर के रूप में मापा जाता है, जिसे श्रमबल में शामिल व्यक्तियों की संख्या में से बेरोज़गार व्यक्तियों की संख्या को भाग देकर प्राप्त किया जाता है।
- राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) किसी व्यक्ति की निम्नलिखित स्थितियों पर रोज़गार और बेरोज़गारी को परिभाषित करता है:
- कार्यरत (आर्थिक गतिविधि में संलग्न) यानी 'रोज़गार'।
- काम की तलाश में या काम के लिये उपलब्ध यानी 'बेरोज़गार'।
- न तो काम की तलाश में है और न ही उपलब्ध।
- पहले दो श्रम बल का गठन करते हैं और बेरोज़गारी दर उस श्रम बल का प्रतिशत है जो बिना काम के है।
- बेरोज़गारी दर = (बेरोज़गार श्रमिक/कुल श्रम शक्ति) × 100
- किसी व्यक्ति द्वारा सक्रियता से रोज़गार की तलाश किये जाने के बावजूद जब उसे काम नहीं मिल पाता तो यह अवस्था बेरोज़गारी कहलाती है।
- बेरोज़गारी के प्रकार:
- प्रच्छन्न बेरोज़गारी:
- यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें वास्तव में आवश्यकता से अधिक लोगों को रोज़गार दिया जाता है।
- यह मुख्य रूप से भारत के कृषि और असंगठित क्षेत्रों में पाई जाती है।
- मौसमी बेरोज़गारी:
- यह एक प्रकार की बेरोज़गारी है, जो वर्ष के कुछ निश्चित मौसमों के दौरान देखी जाती है।
- भारत में खेतिहर मज़दूरों के पास वर्ष भर काफी कम काम होता है।
- संरचनात्मक बेरोज़गारी:
- यह बाज़ार में उपलब्ध नौकरियों और श्रमिकों के कौशल के बीच असंतुलन होने से उत्पन्न बेरोज़गारी की एक श्रेणी है।
- भारत में बहुत से लोगों को आवश्यक कौशल की कमी के कारण नौकरी नहीं मिलती है और शिक्षा के खराब स्तर के कारण उन्हें प्रशिक्षित करना मुश्किल हो जाता है।
- चक्रीय बेरोज़गारी:
- यह व्यापार चक्र का परिणाम है, जहाँ मंदी के दौरान बेरोज़गारी बढ़ती है और आर्थिक विकास के साथ घटती है।
- भारत में चक्रीय बेरोज़गारी के आँकड़े नगण्य हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जो अधिकतर पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पाई जाती है।
- तकनीकी बेरोज़गारी:
- यह प्रौद्योगिकी में बदलाव के कारण नौकरियों का नुकसान है।
- वर्ष 2016 में विश्व बैंक के आँकड़ों ने भविष्यवाणी की थी कि भारत में ऑटोमेशन से खतरे में पड़ी नौकरियों का अनुपात साल-दर-साल 69% है।
- घर्षण बेरोज़गारी:
- घर्षण बेरोज़गारी का आशय ऐसी स्थिति से है, जब कोई व्यक्ति नई नौकरी की तलाश कर रहा होता है या नौकरियों के बीच स्विच कर रहा होता है, तो यह नौकरियों के बीच समय अंतराल को संदर्भित करती है।
- दूसरे शब्दों में, एक कर्मचारी को एक नई नौकरी खोजने या एक नई नौकरी में स्थानांतरित करने के लिये समय की आवश्यकता होती है, यह अपरिहार्य समय की देरी घर्षण बेरोज़गारी का कारण बनती है।
- इसे अक्सर स्वैच्छिक बेरोज़गारी के रूप में माना जाता है क्योंकि यह नौकरी की कमी के कारण नहीं होता है, बल्कि वास्तव में बेहतर अवसरों की तलाश में श्रमिक स्वयं अपनी नौकरी छोड़ देते हैं।
- सुभेद्य रोज़गार:
- इसका मतलब है कि लोग बिना उचित नौकरी अनुबंध के अनौपचारिक रूप से काम कर रहे हैं और इस प्रकार इनके लिये कोई कानूनी सुरक्षा नहीं है।
- इन व्यक्तियों को 'बेरोज़गार' माना जाता है क्योंकि उनके कार्य का रिकॉर्ड कभी भी बनाया नहीं जाता हैं।
- यह भारत में बेरोज़गारी के मुख्य प्रकारों में से एक है।
- प्रच्छन्न बेरोज़गारी:
भारत में बेरोज़गारी का कारण:
- सामाजिक कारक:
- भारत में जाति व्यवस्था प्रचलित है कुछ क्षेत्रों में विशिष्ट जातियों के लिये कार्य निषिद्ध है।
- बड़े व्यवसाय वाले बड़े संयुक्त परिवारों में बहुत से ऐसे व्यक्ति होंगे जो कोई काम नहीं करते हैं तथा परिवार की संयुक्त आय पर निर्भर रहते हैं।
- जनसंख्या का तीव्र विकास:
- भारत में जनसंख्या में निरंतर वृद्धि एक बड़ी समस्या बन गई है।
- यह बेरोज़गारी के प्रमुख कारणों में से एक है।
- भारत में जनसंख्या में निरंतर वृद्धि एक बड़ी समस्या बन गई है।
- कृषि का प्रभुत्व:
- भारत में अभी भी लगभग आधा कार्यबल कृषि पर निर्भर है।
- हालाँकि भारत में कृषि अविकसित है।
- साथ ही यह मौसमी रोज़गार भी प्रदान करती है।
- भारत में अभी भी लगभग आधा कार्यबल कृषि पर निर्भर है।
- कुटीर और लघु उद्योगों का पतन:
- औद्योगिक विकास का कुटीर और लघु उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
- कुटीर उद्योगों का उत्पादन गिरने से कई कारीगर बेरोज़गार हो गए।
- श्रम की गतिहीनता:
- भारत में श्रम की गतिशीलता कम है। परिवार से लगाव के कारण लोग नौकरी के लिये दूर-दराज़ के इलाकों में नहीं जाते हैं।
- कम गतिशीलता के लिये भाषा, धर्म और जलवायु जैसे कारक भी ज़िम्मेदार हैं।
- शिक्षा प्रणाली में दोष:
- पूंजीवादी दुनिया में नौकरियाँ अत्यधिक विशिष्ट हो गई हैं लेकिन भारत की शिक्षा प्रणाली इन नौकरियों के लिये आवश्यक सही प्रशिक्षण और विशेषज्ञता प्रदान नहीं करती है।
- इस प्रकार बहुत से लोग जो कार्य करने के इच्छुक हैं, वे कौशल की कमी के कारण बेरोज़गार हो जाते हैं।
- सरकार द्वारा हाल की पहल:
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्नप्रश्न: प्रच्छन्न बेरोज़गारी का आमतौर पर अर्थ होता है- (a) बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार रहते हैं उत्तर:(d) व्याख्या:
अतः विकल्प (c) सही है। |
स्रोत: द हिंदू
शासन व्यवस्था
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना
प्रिलिम्स के लिये:प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY), ज़ीरो प्रीमियम, सब्सिडी, फसल बीमा। मेन्स के लिये:प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने कहा कि वह हाल के जलवायु संकट और तेज़ी से तकनीकी विकास के जवाब में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) में किसान-समर्थक परिवर्तन करने के लिये तैयार है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY):
- परिचय:
- PMFBY को वर्ष 2016 में लॉन्च किया गया तथा इसे कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रशासित किया जा रहा है।
- इसने राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (NAIS) और संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (MNAIS) को परिवर्तित कर दिया।
- पात्रता:
- अधिसूचित क्षेत्रों में अधिसूचित फसल उगाने वाले पट्टेदार/जोतदार किसानों सहित सभी किसान कवरेज के लिये पात्र हैं।
- उद्देश्य:
- प्राकृतिक आपदाओं, कीटों और रोगों या किसी भी तरह से फसल के खराब होने की स्थिति में एक व्यापक बीमा कवर प्रदान करना ताकि किसानों की आय को स्थिर करने में मदद मिल सके।
- खेती में निरंतरता सुनिश्चित करने के लिये किसानों की आय को स्थिर करना।
- किसानों को नवीन और आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना।
- कृषि क्षेत्र के लिये ऋण का प्रवाह सुनिश्चित करना।
- बीमा किस्त:
- इस योजना के तहत किसानों द्वारा दी जाने वाली निर्धारित बीमा किस्त/प्रीमियम- खरीफ की सभी फसलों के लिये 2% और सभी रबी फसलों के लिये 1.5% है।
- वार्षिक वाणिज्यिक तथा बागवानी फसलों के मामले में बीमा किस्त 5% है।
- उत्तर-पूर्वी क्षेत्र को छोड़कर जहाँ यह 90:10 है, इन सीमाओं से अधिक प्रीमियम केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा 50:50 के आधार पर साझा किया जाता है।
- सरकारी सब्सिडी की कोई ऊपरी सीमा नहीं है। यहाँ तक कि अगर शेष प्रीमियम 90% है, तो यह सरकार द्वारा वहन किया जाएगा।
- इससे पहले प्रीमियम दर को सीमित करने का प्रावधान था, जिसके परिणामस्वरूप किसानों को कम दावों के आधार पर भुगतान किया जाता था।
- यह ऊपरी सीमा अब हटा दी गई है और किसानों को बिना किसी कटौती के पूरी बीमा राशि का दावा प्राप्त होगा।
- दायरा:
- पीएमएफबीवाई वर्तमान में किसान नामांकन के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी तथा औसतन 5.5 करोड़ आवेदन एवं प्राप्त प्रीमियम के मामले में यह तीसरी सबसे बड़ी फसल बीमा योजना है।
- मौसम से प्रभावित वर्ष 2017, 2018 और 2019 के खराब मौसम के दौरान यह योजना किसानों की आजीविका को सुरक्षित करने में एक निर्णायक कारक साबित हुई, जिसमें कई राज्यों में दावों का भुगतान अनुपात (Claims Paid Ratio) एकत्र सकल प्रीमियम के मुकाबले 100% से अधिक रहा।
हाल ही के परिवर्तन:
- यह योजना कभी ऋणी किसानों के लिये अनिवार्य थी, लेकिन वर्ष 2020 में केंद्र सरकार ने इसमें बदलाव कर इसे सभी किसानों के लिये वैकल्पिक बना दिया।
- केंद्र ने फरवरी 2020 में अपनी प्रीमियम सब्सिडी को असिंचित क्षेत्रों के लिये 30% और सिंचित क्षेत्रों के लिये 25% (मौजूदा असीमित से) तक सीमित करने का फैसला किया। इससे पहले केंद्रीय सब्सिडी की कोई ऊपरी सीमा नहीं थी।
- हाल ही में शुरू की गई मौसम सूचना और नेटवर्क डेटा सिस्टम (WINDS) प्रौद्योगिकी पर आधारित उपज अनुमान प्रणाली (YES-Tech) वास्तविक समय अवलोकनों और फसलों की तस्वीरों का संग्रह (CROPIC) अधिक दक्षता और पारदर्शिता लाने के लिये इस योजना के तहत उठाए गए कुछ प्रमुख कदम हैं।
योजना से संबंधित मुद्दे:
- राज्यों की वित्तीय बाधाएँ: राज्य सरकारों की वित्तीय बाधाएँ और सामान्य मौसम के दौरान कम दावा अनुपात इन राज्यों द्वारा योजना के गैर-कार्यान्वयन के प्रमुख कारण हैं।
- राज्य ऐसी स्थिति से निपटने में असमर्थ हैं जहाँ बीमा कंपनियाँ किसानों को उनके द्वारा और केंद्र से एकत्र किये गए प्रीमियम से कम मुआवज़ा देती हैं।
- राज्य सरकारें समय पर धन जारी करने में विफल रहीं जिससे बीमा मुआवज़ा जारी करने में देरी हुई।
- यह योजना के मूल उद्देश्य, जो कि कृषक समुदाय को समय पर वित्तीय सहायता प्रदान करना है, को विफल करता है।
- दावा निपटान मुद्दे: कई किसान मुआवज़े के स्तर और निपटान में देरी दोनों से असंतुष्ट हैं।
- बीमा कंपनियों की भूमिका और शक्ति महत्त्वपूर्ण है। कई मामलों में इसने स्थानीय आपदा के कारण हुए नुकसान की जाँच नहीं की और इसलिये दावों का भुगतान नहीं किया गया।
- कार्यान्वयन के मुद्दे: बीमा कंपनियों ने उन समूहों के लिये बोली लगाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है जो फसल के नुकसान से ग्रस्त हैं।
- इसके अलावा यह बीमा व्यवसाय की प्रकृति में है कि जब फसल की विफलता कम होती है और इसके विपरीत होती है तो संस्थाएँ पैसा कमाती हैं।
आगे की राह:
- कृषि-प्रौद्योगिकी और ग्रामीण बीमा संघ वित्तीय समावेशन और इस योजना की विश्वसनीयता में वृद्धि के लिये काफी प्रभावी फॉर्मूला हो सकता है।
- विश्व आर्थिक मंच द्वारा वैश्विक जोखिम रिपोर्ट 2022 अगले 10 वर्षों की अवधि में चरम मौसम जोखिम को दूसरे सबसे बड़े जोखिम के रूप में वर्गीकृत करती है। इसलिये किसानों को उनकी वित्तीय स्थिति की रक्षा करने तथा उन्हें खेती जारी रखने एवं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये प्रोत्साहित करने हेतु एक सुरक्षा जाल प्रदान करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।
- इस योजना से जुड़े सभी लंबित मुद्दों को हल करने के लिये राज्यों और केंद्र सरकारों के बीच व्यापक पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है ताकि किसानों को इस योजना का लाभ मिल सके।
- इसके अलावा इस योजना के तहत सब्सिडी का भुगतान करने के बजाय राज्य सरकार को उस पैसे को एक नए बीमा मॉडल में निवेश करना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न: 'प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016))
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) |