डेली न्यूज़ (21 Feb, 2020)



सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु निर्धारण संबंधी कार्यदल

प्रीलिम्स के लिये

नेटिव मैरिज़ एक्ट, सम्मति आयु अधिनियम, शारदा अधिनियम

मेन्स के लिये

विवाह योग्य आयु निर्धारण संबंधी आवश्यकता और प्रभाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु के प्रश्न पर दायर एक याचिका का उत्तर देते हुए केंद्र सरकार ने बताया कि इस विषय पर गहन विश्लेषण हेतु विशेष कार्यदल का गठन किया गया है।

प्रमुख बिंदु

  • विशेष कार्यदल महिलाओं के लिये विवाह योग्य न्यूनतम आयु की समीक्षा करने के साथ ही मातृत्व स्वास्थ्य पर इसके निहितार्थों का अध्ययन करेगा तथा छह माह के भीतर अपनी सिफारिशें सरकार को प्रस्तुत करेगा।
  • बज़ट भाषण के दौरान वित्तमंत्री ने सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु के विषय पर चर्चा करते हुए कहा कि वर्ष 1978 में पूर्ववर्ती शारदा अधिनियम द्वारा निर्धारित विवाह योग्य आयु को 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया था।
  • आधुनिक समय में सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्तर पर भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, उच्च शिक्षा तथा कॅरियर निर्माण के क्षेत्र में महिलाओं के लिये नए अवसर सृजित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में मातृ मृत्यु दर को कम करना तथा पोषण स्तर में सुधार किया जाना आवश्यक है।
  • याचिका में दावा किया गया है कि पुरुषों और महिलाओं के विवाह की न्यूनतम आयु में अंतर रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक मान्यताओं पर आधारित था और इसका कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है।
  • याचिका में महिलाओं के विवाह हेतु निर्धारित 18 वर्ष की आयु का विरोध किया गया है, और उसे पुरुषों के विवाह हेतु निर्धारित आयु के समान करने की माँग की गई है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • नेटिव मैरिज एक्ट (Native Marriage Act)
    • विवाह सुधार की दिशा में प्रथम प्रयास बाल विवाह के तीव्र विरोध के रूप में प्रारंभ हुआ। समाज सुधारकों के दबाव में बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिये वर्ष 1872 में नेटिव मैरिज एक्ट पारित किया गया।
    • इस एक्ट में 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं का विवाह वर्जित कर दिया गया।
  • सम्मति आयु अधिनियम (Age Consent Act)
    • नेटिव मैरिज़ एक्ट विवाह सुधार की दिशा में बहुत प्रभावी नहीं हो सका, अतः एक पारसी समाज सुधारक वी. एम. मालाबारी के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप वर्ष 1891 में सम्मति आयु अधिनियम पारित किया गया।
    • इस अधिनियम में 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई।
  • शारदा अधिनियम (Sharda Act)
    • समाज सुधारक हर विलास शारदा के अथक प्रयासों से वर्ष 1930 में शारदा अधिनियम पारित किया गया।
    • इस अधिनियम द्वारा 18 वर्ष से कम आयु के बालक तथा 14 वर्ष से कम आयु की बालिका के विवाह को अवैध घोषित कर दिया गया।
  • बाल विवाह निरोधक (संशोधन) अधिनियम
    • इस अधिनियम में बालक की विवाह योग्य आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष एवं बालिका की आयु 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई।
    • अधिनियम में बाल विवाह करने वालों के विरुद्ध दंड का भी प्रावधान है।
  • बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम
    • वर्ष 2006 में अधिक प्रगतिशील बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम द्वारा इस प्रथा को रोकने की दिशा में काम किया है। इसके अंतर्गत उन लोगों के विरुद्ध कठोर उपाय किये गए हैं जो बाल विवाह की अनुमति देते हैं और इसे बढ़ावा देते हैं।
    • यह कानून नवंबर 2007 में प्रभावी हुआ।
    • इस अधिनियम के अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष और 18 वर्ष से कम आयु की महिला के विवाह को बालविवाह के रुप में परिभाषित किया गया है।

वैधानिक प्रावधान

  • वर्तमान में पुरुष और महिला के लिये विवाह योग्य न्यूनतम आयु क्रमशः 21 वर्ष व 18 वर्ष निर्धारित है।
  • विदित है कि विवाह की न्यूनतम आयु ऐज ऑफ मेजोरिटी (Age Of Majority) से अलग है , जो लिंग-तटस्थ है।
  • इंडियन मेज़ोरिटी एक्ट (Indian Majority Act),1875 के अनुसार, एक व्यक्ति 18 वर्ष की आयु में वयस्कता प्राप्त करता है।
  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (iii) में महिला के लिये न्यूनतम आयु 18 वर्ष और पुरुष के लिये न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई है।
  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 सहमति से विवाह की न्यूनतम आयु महिलाओं और पुरुषों के लिये क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित करता है।

सामाजिक मान्यताएँ

  • समाज में ऐसी मान्यता बनी हुई है कि बालिका का विवाह जल्दी कर देने से उसे पथ-भ्रष्ट होने से बचाया जा सकता है।
  • महिलाएँ पूर्ण रूप से परिवार की देखभाल करने तथा बच्चों को जन्म देने के लिये ही बनी हैं इसलिये उनका शीघ्र ही विवाह कर देना चाहिये।
  • वर्ष 2018 में परिवार कानून में सुधार के संदर्भ में विधि आयोग ने तर्क दिया कि विवाह योग्य अलग-अलग कानूनी मानक होने से "उन रूढ़िवादी मान्यताओं को बल मिलता है जो पत्नियों को पति से कमतर आँकती हैं"।
  • महिला अधिकार कार्यकर्त्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि कानून इस रूढ़ि को बनाए रखता है कि महिलाएँ समान आयु के पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं और इसलिये उन्हें जल्द विवाह करने की अनुमति दी जा सकती है।

सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु की आवश्यकता

  • प्रायः देखा गया है कि कम आयु में विवाह हो जाने से महिलाओं को जीवन भर स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सामान्यतः कम आयु में प्रजनन के दौरान माता या बच्चे की मृत्यु हो जाती है, जिससे मातृत्व मृत्यु दर तथा शिशु मृत्यु दर अधिक बनी रहती है।
  • याचिकाकर्त्ता के अनुसार, महिला और पुरुष की विवाह योग्य अलग-अलग आयु संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत प्रदत्त समानता के अधिकार तथा अनुच्छेद 21 द्वारा प्राप्त गरिमामयी जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन करता है। अतः समान परिस्थितियों में अधिकारों के समान रूप से क्रियान्वयन हेतु सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु निर्धारित करने की आवश्यकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती दो निर्णय इस दिशा में मार्गदर्शन कर सकते हैं। वर्ष 2014 में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के वाद में ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रत्येक मनुष्य समान है, इसलिये समान परिस्थितियों में सभी के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा।
  • वर्ष 2018 में जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि धारा 497 समानता के अधिकार तथा महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराने के अधिकार का उल्लंघन करती है।
  • विधि आयोग द्वारा सिफारिश की गई थी कि महिला और पुरुष दोनों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित की जाए, क्योंकि पति-पत्नी की आयु में अंतर का कानून में कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

स्रोत: द हिंदू


उत्तर-पूर्व क्षेत्र का विशेष दर्जा

प्रीलिम्स के लिये:

अनुच्छेद-371

मेन्स के लिये:

भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिये विशेष दर्जे के संबंध में संवैधानिक प्रावधान

चर्चा में क्यों?

20 फरवरी, 2020 को अरुणाचल प्रदेश और मिज़ोरम के स्थापना दिवस के अवसर पर केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर की अनूठी संस्कृति की रक्षा करने की प्रतिबद्धता जताई है।

मुख्य बिंदु:

  • केंद्र सरकार ने यह प्रतिबद्धता जताते हुए कहा है कि कुछ राज्यों के लिये विशेष प्रावधान करने वाले अनुच्छेद-371 से कोई छेड़छाड़ नहीं किया जाएगा।
  • केंद्र सरकार ने यह स्पष्टता इसलिये दी है क्योंकि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से पूर्वोत्तर क्षेत्र में अनुच्छेद 371 हटाने की अफवाह फैलाई जा रही थी।
  • केंद्र सरकार के अनुसार, बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौते, ब्रू-रियांग समझौते और बोडो समझौते के माध्यम से पूर्वोत्तर की कई समस्याओं का हल हुआ है।

राज्यों की विशेष स्थिति से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • भारतीय संविधान के भाग-21 में कुछ राज्यों को विशेष दर्जा दिया गया है।
  • इस भाग में दो अनुच्छेद-370 और 371 सम्मिलित थे, जिसमें अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर के लिये विशेष प्रावधान किया गया था परंतु वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करते हुए उसे केंद्रशासित प्रदेश घोषित कर दिया।
  • संविधान के भाग-21 में अनुच्छेद-371 के विभिन्न खंडों में अलग-अलग राज्यों से संबंधित उपबंध दिये गए हैं, वर्तमान में ऐसी व्यवस्था 11 राज्यों के लिये लागू है।

अनुच्छेद-371 में पूर्वोत्तर राज्यों के लिये विशेष प्रावधान:

1. नगालैंड:

  • नगालैंड को वर्ष 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम में असम राज्य में ही (छठी अनुसूची के जनजातीय क्षेत्र के रूप में) रखा गया था।
  • संसद ने ‘नगालैंड राज्य अधिनियम, 1962’ पारित करके नगालैंड राज्य का गठन किया गया।
  • नगालैंड की सांस्कृतिक स्वायतत्ता और वहाँ मज़बूत कानून व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिये ‘13वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1962 के माध्यम से अनुच्छेद 371 (क) को शामिल किया गया।

2. असम:

  • संविधान के ‘22वें संशोधन अधिनियम, 1969’ द्वारा अनुच्छेद 371(ख) को स्थापित किया गया जो असम राज्य के लिये विशेष उपबंध करता है।
  • इसके तहत राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह अपने आदेश द्वारा असम की विधानसभा के भीतर एक समिति का गठन कर सकेगा।
  • इस समिति में असम के जनजातीय क्षेत्रों से निर्वाचित होने वाले विधानसभा सदस्यों के साथ-साथ होंगे उसी विधानसभा के शेष क्षेत्रों से संबंधित सदस्य शामिल होंगे, जिनकी संख्या राष्ट्रपति द्वारा अपने आदेश में निर्दिष्ट की गई हो।

3. मणिपुर:

  • मणिपुर एक रियासत थी, जिसको वर्ष 1971 में पूर्वोत्तर राज्यों के पुनर्गठन के दौरान राज्य का दर्जा दिया गया।
  • संविधान के ‘27वें संशोधन’ के माध्यम से अनुच्छेद 371(ग) जोड़ा गया तथा मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों के संबंध में विशेष उपबंध किये गए।

4. सिक्किम:

  • मूल संविधान में सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं था।
  • वर्ष 1974 में संविधान के ‘35वें संशोधन अधिनियम’ द्वारा भारत ने उसे ‘संबद्ध राज्य’ का दर्जा दिया।
  • ‘36वें संविधान संशोधन’ द्वारा वर्ष 1975 में उसे शेष राज्यों के समान दर्जा दिया गया एवं इसी के माध्यम से अनुच्छेद 371(च) भी शामिल किया गया।

5. मिज़ोरम:

  • मिज़ोरम असम का हिस्सा था, जो छठी अनुसूची के तहत प्रशासित होता था एवं मिज़ो स्वायत्त ज़िलों (जिनमें- चकमा, मारा तथा लई जनजातीय ज़िले शामिल थे) के रूप में जाना जाता था।
  • उत्तर-पूर्व क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 के आधार पर वर्ष 1972 में मिज़ोरम को असम से अलग कर केंद्रशासित क्षेत्र का दर्जा प्रदान किया गया था।
  • 53वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1986’ के माध्यम से अनुच्छेद 371(छ) जोड़कर असम को राज्य का दर्जा दिया गया।

6. अरुणाचल प्रदेश:

  • अरुणाचल प्रदेश को पहले पूर्वोत्तर सीमांत एजेंसी (North-East Frontier Agency-NEFA) के नाम से जाना जाता था।
  • राज्य के पुनर्गठन के दौरान वर्ष 1972 में इस क्षेत्र को ‘संघ राज्यक्षेत्र’ का दर्जा दिया गया एवं इसका नाम अरुणाचल प्रदेश रखा गया।
  • वर्ष 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया एवं ‘55वें संविधान संशोधन अधिनियम’ के माध्यम से 371(ज) जोड़कर इस राज्य के लिये विशेष प्रावधान किया गया।

अनुच्छेद 371 से संबंधित अन्य राज्य:

  • अनुच्छेद 371 में उपर्युक्त पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा निम्नलिखित राज्यों के संदर्भ में भी विशेष प्रावधान किये गए हैं-
    • महाराष्ट्र एवं गुजरात- अनुच्छेद 371
    • आंध्र प्रदेश- अनुच्छेद 371(घ) एवं 371 (ङ)
    • गोवा- अनुच्छेद 371(झ)
    • कर्नाटक- अनुच्छेद 371 (ञ)

पूर्वोत्तर क्षेत्र की स्थिति तथा उसका शेष भारत पर प्रभाव:

  • पूर्वोत्तर क्षेत्र विभिन्न कारणों से भारत के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा पिछड़ा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कई स्तरों पर ( अवसंरचना, विकास, शांति) सुधार देखा जा रहा है।
  • इस क्षेत्र की कठिन भौगोलिक परिस्थितियाँ जहाँ कई चुनौतियाँ उत्पन्न करती हैं वहीं नवीन संभावनाओं (प्राकृतिक संसाधन) को भी प्रकट करती हैं।
  • यदि विभिन्न चुनौतियों को एक रोडमैप के ज़रिये दूर करने का प्रयास किया जाता है, तो न सिर्फ इससे पूर्वोत्तर के लोगों के जीवन में सुधार आएगा बल्कि भारत के आर्थिक विकास में भी यह क्षेत्र सहयोग दे सकेगा।
  • भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति की सफलता भी इस क्षेत्र के विकास पर टिकी है। एक्ट ईस्ट नीति के साथ-साथ भारत बिम्सटेक तथा आसियान में भी अपनी भूमिका बढ़ाना चाहता है, जिसमें इस क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
  • भारत, इस क्षेत्र के माध्यम से ही पूर्वी एशिया में अपनी भौतिक पहुँच बढ़ा सकता है जिससे इस क्षेत्र के विकास के साथ-साथ भारत के दीर्घकालीन भू-राजनीतिक एवं आर्थिक हितों की भी पूर्ति संभव हो सकेगी।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस


विश्व सामाजिक न्याय दिवस

प्रीलिम्स के लिये:

विश्व सामाजिक न्याय दिवस

मेन्स के लिये:

सामाजिक न्याय संबंधी मुद्दे

चर्चा में क्यों:

20 फरवरी, 2020 को विश्व सामाजिक न्याय दिवस (World Social Justice Day) मनाया गया।

वर्ष 2020 सामाजिक न्याय दिवस की थीम:

"सामाजिक न्याय प्राप्ति की दिशा में असमानता अन्तराल को समाप्त करना" (Closing the Inequalities Gap to Achieve Social Justice)

सामाजिक न्याय की अवधारणा:

  • सामाजिक न्याय का तात्पर्य देशों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और विकास के लिये आवश्यक सिद्धांत से है, जो न केवल अंत:देशीय समानता अपितु अंतर्देशीय समानता की परिस्थितियों से भी संबंधित है।
  • सामाजिक न्याय की संकल्पना को आगे बढ़ाने हेतु समाज में लिंग, उम्र, नस्ल, जातीयता, धर्म, संस्कृति या विकलांगता जैसे मानकों की असमानता को समाप्त करना होगा।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन’ (International Labour Organization- ILO) की ‘निष्पक्ष वैश्वीकरण के लिये सामाजिक न्याय पर घोषणा’ जैसे उपायों के माध्यम से सामाजिक न्याय के लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में कार्य कर रहा है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा सर्वसम्मति से 10 जून, 2008 को निष्पक्ष न्याय के लिये सामाजिक न्याय पर घोषणा को अपनाया गया, यह वर्ष 1919 के ILO के संविधान निर्माण के बाद से इसके द्वारा अपनाए गए सिद्धांतों और नीतियों में तीसरा प्रमुख प्रयास है।
  • यह घोषणा वर्ष 1944 के ‘फिलाडेल्फिया घोषणा’ और वर्ष 1998 के ‘कार्य में मौलिक सिद्धांतों और अधिकारों की घोषणा’ को आधार बनाता है।
  • वर्ष 2008 की घोषणा वैश्वीकरण के युग में ILO के जनादेश की सामाजिक न्याय की समकालिक अवधारणा को अभिव्यक्त करती है।

2008 की घोषणा का महत्त्व:

  • यह वैश्वीकरण के सामाजिक आयाम पर ILO की रिपोर्ट के मद्देनज़र शुरू हुई त्रिपक्षीय परामर्श का परिणाम है।
  • यह घोषणा वर्ष 1999 के बाद से ILO द्वारा विकसित ‘आदर्श कार्य अवधारणा’ (Decent Work Agenda) को संस्थागत रूप प्रदान करती है।
  • यह घोषणा वैश्विक वित्तीय संकट, असुरक्षा, गरीबी, बहिष्कार, सामाजिक असमानता और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण एवं पूर्ण भागीदारी जैसे लक्ष्यों कि प्राप्ति की दिशा में कार्य करती है।

सामाजिक न्याय का महत्त्व:

  • भारतीय संविधान कि प्रस्तावना में संविधान के अधिकारों का स्रोत, सत्ता की प्रकृति तथा संविधान लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का वर्णन किया गया है, जहाँ सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय को संविधान के लक्ष्यों के रूप में निर्धारित किया गया है।
  • सामाजिक न्याय की सुरक्षा मौलिक अधिकारों एवं नीति निदेशक तत्वों के विभिन्न उपबंधो के माध्यम से भी की गई है।
  • भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय कि अवधारणा को न केवल विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति अपितु किसी वर्ग विशेष के लिये यथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आदि के लिये विशेष व्यवस्था के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है।

भारत में संवैधानिक और अन्य संस्थागत प्रयास:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने मेनका गांधी मामले में अनुच्छेद 21 की पुनः व्याख्या करते हुए इसमें मानवीय प्रतिष्ठा के साथ गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार, निजता का अधिकार, बंधुआ मजदूरी करने के विरुद्ध अधिकार, सामाजिक सुरक्षा व परिवार के संरक्षण का अधिकार आदि को शामिल किया।
  • अनुच्छेद 14 में ‘विधि के समक्ष समता’ और ‘विधियों का समान संरक्षण’ दोनों को स्थान दिया है तथा सकारात्मक विभेदन अर्थात तर्क संगत वर्गीकरण को स्वीकृत किया है।
  • मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्याख्या की कि संसद निदेशक तत्वों को लागू करने के लिये मूल अधिकारों को संशोधित कर सकती है, यदि ये संशोधन मूल ढ़ाँचे को क्षति नहीं पहुँचाते हो।

चुनौतियाँ:

  • भारतीय समाज की पितृवंशीय, पितृसत्तात्मक, पितृस्थानिकता, जाति व्यवस्था जैसी विशिष्ट समस्याओं ने सामाजिक न्याय प्राप्ति के समक्ष नवीन चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं।
  • ‘ऑक्सफैम रिपोर्ट’ के अनुसार, भारत और विश्व में आर्थिक असमानता निरंतर बढ़ रही है
  • ‘लैंगिक अंतराल रिपोर्ट’ के अनुसार, लैंगिक न्याय में भारत की स्थिति बहुत दयनीय है।
  • ‘गिग़ अर्थव्यवस्था’ ने श्रम क्षेत्र के समक्ष नवीन चुनौतियाँ पेश की है।

आगे की राह:

  • हमें अधिकारों के प्रति जागरूक रहने के साथ ही कर्तव्यों का पालन करने की आवश्यकता है ताकि मूल अधिकारों में उल्लेखित राजनैतिक न्याय के साथ ही नीति निदेशक तत्वों में उल्लेखित सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की प्राप्ति की जा सके।

स्रोत: द हिंदू


श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन

प्रीलिम्स के लिये

मिशन के विषय में संपूर्ण जानकारी तथा तथ्यात्मक पक्ष

मेन्स के लिये

स्थानीय विकास के संदर्भ में इसका प्रयोग, विकास एवं संवृद्धि से जुड़े मुद्दे, स्थानीय शासन

चर्चा में क्यों?

21 फरवरी, 2020 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन (Shyama Prasad Mukherji Rurban Mission-SPMRM) के शुभारंभ की चौथी वर्षगाँठ मनाई जा रही है। इस मिशन की शुरुआत 21 फरवरी, 2016 को हुई थी।

प्रमुख बिंदु

  • केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा शुरू किये गए श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन के तहत स्‍थान संबंधी नियोजन के ज़रिये क्‍लस्‍टर आधारित एकीकृत विकास पर फोकस किया जाता है।
  • इस मिशन के तहत देश भर के ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण क्‍लस्‍टरों की पहचान की जाती है, जहाँ शहरी घनत्‍व में वृद्धि, गैर-कृषि रोज़गारों के उच्‍च स्‍तर, आ‍र्थिक गतिविधियाँ बढ़ने और अन्‍य सामाजिक-आर्थिक पैमाने जैसे शहरीकरण के बढ़ते संकेत प्राप्त हो रहे हैं।
  • मिशन के तहत 300 ग्रामीण क्‍लस्‍टरों को समयबद्ध एवं समग्र ढंग से विकसित करने की परिकल्‍पना की गई है।

उद्देश्य

मिशन का उद्देश्‍य स्‍थानीय स्‍तर पर आर्थिक विकास को नई गति प्रदान करने के साथ-साथ बुनियादी सेवाओं में बढ़ोतरी और सुव्‍यवस्थित ग्रामीण क्‍लस्‍टरों का सृजन करके इन ग्रामीण क्‍लस्‍टरों में व्‍यापक बदलाव लाना है। इससे संबंधित क्षेत्र का समग्र विकास होगा और एकीकृत एवं समावेशी ग्रामीण विकास को बढ़ावा मिलेगा।

पृष्ठभूमि

  • श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस मिशन में धनराशि या वित्‍त से जुड़े दो घटक हैं:
    1. विभिन्‍न केंद्रीय क्षेत्र योजनाओं, केंद्र प्रायोजित योजनाओं, राज्‍य क्षेत्र/प्रायोजित योजनाओं/कार्यक्रमों, CSR कोष के ज़रिये रूपांतरित धनराशि और,
    2. कम पड़ रही अत्‍यंत आवश्‍यक धनराशि की व्यवस्था (CGF)।
  • इसमें गैर-जनजातीय क्‍लस्‍टरों के लिये प्रति क्‍लस्‍टर 30 करोड़ रुपए और जनजातीय एवं पहाड़ी राज्‍यों वाले क्‍लस्‍टरों के लिये प्रति क्‍लस्‍टर 15 करोड़ रुपए तक के CGF का प्रावधान किया गया है।
  • इन समूहों में नियोजित इन्फ्रास्ट्रक्चर में सभी घरों को 24x7 पानी की आपूर्ति, घरेलू और क्लस्टर स्तर पर ठोस एवं तरल अपशिष्ट प्रबंधन की सुविधा, क्लस्टर के गाँवों में और गाँव के भीतर सड़कों की व्यवस्था, हरित प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए पर्याप्त स्ट्रीट लाइट और सार्वजनिक परिवहन की सुविधा शामिल है। क्लस्टर में आर्थिक सुविधाओं में कृषि सेवाओं एवं प्रसंस्करण के क्षेत्र में विभिन्न विषयगत क्षेत्र, पर्यटन और लघु एवं मध्यम उद्यम को बढ़ावा देने के लिये कौशल विकास को भी शामिल किया गया है।

स्रोत: PIB


यूरोपीय संघ की डेटा रणनीति

प्रीलिम्स के लिये:

GDPR, व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक

मेन्स के लिये:

कृत्रिम बुद्धिमत्ता से संबंधित मुद्दे, डेटा रणनीति से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में यूरोपीय आयोग ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) के मानव-केंद्रित विकास को सुनिश्चित करने के लिये यूरोपीय संघ की डेटा रणनीति और कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर एक श्वेत-पत्र जारी किया है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • नया दस्तावेज़ यूरोपीय संघ (European Union- EU) की विभिन्न परियोजनाओं, विधायी रूपरेखा और पहलों के लिये एक समयसीमा प्रस्तुत करता है।
  • यह रणनीति सिलिकन वैली (Silicon Valley) के अधिकारियों और ब्रसेल्स के नियामकों के बीच बैठकों की शृंखला का अनुसरण करती है।
  • मार्क ज़ुकरबर्ग के यूरोप के अधिकारियों से मिलने के बाद फेसबुक ने भी कंटेंट रेगुलेशन के लिये अपना प्रस्ताव जारी किया था जिसे यूरोपीय नियामकों ने खारिज कर दिया।

EU की डेटा रणनीति के मुख्य बिंदु

  • EU डेटा रणनीति के माध्यम से यूरोपीय संघ के भीतर डेटा के मुक्त प्रवाह को सुनिश्चित करना चाहता है साथ ही यह वर्ष 2030 तक डेटा एकल बाज़ार (Data Single Market) निर्मित कर यूरोप के स्थानीय प्रौद्योगिकी बाज़ार को मज़बूत करना चाहता है।
  • डेटा एजाइल अर्थव्यवस्था (Data Agile Economy) के विकास के लिये आयोग वर्ष के उत्तरार्द्ध तक "सामान्य यूरोपीय डेटा स्पेस के शासन के लिये सक्षम विधायी फ्रेमवर्क" को लागू करना चाहता है।
  • वर्ष 2021 की शुरुआत तक यूरोपीय आयोग एप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (Application Programming Interfaces- APIs) के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के उच्च मूल्य वाले डेटा को मुफ्त में उपलब्ध कराएगा। ध्यातव्य है कि API दो अलग-अलग एप्लीकेशन्स के बीच आपसी संपर्क स्थापित करने का एक विकल्प है।
  • वर्ष 2021 से 2027 के बीच डेटा इंफ्रास्ट्रक्चर को सुदृढ़ करने के लिये एक उच्च प्रभाव वाली परियोजना में निवेश किया जाएगा। इसके अतिरिक्त क्लाउड सेवा बाज़ार सहित कई अन्य पहलें भी इस रणनीति के तहत प्रस्तावित हैं।

इस संदर्भ में भारतीय प्रयास

  • केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वर्ष 2012 में नेशनल डेटा शेयरिंग एंड एक्सेसिबिलिटी पॉलिसी (National Data Sharing and Accessibility Policy- NDSAP) को मंज़ूरी दी थी। इस पहल के तहत सरकार ने अमेरिकी सरकार के साथ सार्वजनिक उपयोग के लिये सरकारी डेटा की साइट data.gov.in को जारी किया था।
  • वर्ष 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण में गैर-व्यक्तिगत डेटा के उपयोग से संबंधित बातों का उल्लेख किया गया था।
  • नीति आयोग द्वारा नेशनल डेटा एंड एनालिटिक्स प्लेटफॉर्म (The National Data & Analytics Platform), स्मार्ट सिटीज़ मिशन (इंडिया अर्बन डेटा एक्सचेंज) और ग्रामीण विकास मंत्रालय (DISHA डैशबोर्ड) के माध्यम से डेटा एकीकरण से संबंधित अन्य प्रयास किये जा रहे हैं।
  • वर्ष 2018 से राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र PwC और अन्य विक्रेताओं के साथ डेटा विश्लेषण के लिये उत्कृष्टता केंद्र बनाने पर काम कर रहा है। ग़ौरतलब है कि इस उत्कृष्टता केंद्र का उद्देश्य डेटा विश्लेषण प्रदान करना है।

EU के इस कदम के महत्त्व

  • प्रौद्योगिकी विनियमन में यूरोप सबसे आगे रहा है। वर्ष 2018 में जारी इसका जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (General Data Protection Regulation- GDPR) एक गेम-चेंजर साबित हुआ। हालिया रणनीति में भी GDPR को डिजिटल ट्रस्ट के लिये ठोस रूपरेखा प्रदाता के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार यह वैश्विक स्तर पर डेटा रणनीति के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है।
  • भारत के वर्तमान व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (Personal Data Protection-PDP) विधेयक पर संयुक्त प्रवर समिति (Joint Select Committee) द्वारा चर्चा की जा रही है। इस विधेयक में विभिन्न संस्थाओं के लिये यह अनिवार्य किया गया है कि वे सरकार को आवश्यकतानुसार गैर-व्यक्तिगत डेटा प्रदान करें। ध्यातव्य है कि यह अक्तूबर 2018 में न्यायमूर्ति बी. एन. श्रीकृष्ण समिति द्वारा प्रस्तावित मसौदे में शामिल नहीं था। इसके अतिरिक्त इस विधेयक के अनेक उपबंध भारत की डेटा इकोनॉमी को सुदृढ़ करने से संबंधित हैं।
  • ध्यातव्य है कि EU की यह डेटा रणनीति, भारत को अपनी डेटा रणनीति बनाने तथा डेटा संरक्षण एवं डेटा के मुक्त प्रवाह को सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है।
  • EU के इस कदम का यूरोपीय देशों एवं प्रौद्योगिकी कंपनियों पर प्रभाव
  • इससे यूरोपीय देशों को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सहायता प्राप्त हो सकेगी तथा प्रौद्योगिकी कंपनियों एवं सरकारों के बीच चल रहे संघर्ष को कम किया जा सकता है।
  • EU का यह कदम विभिन्न देशों को इस दिशा में व्यक्तिगत कानून एवं रणनीतियाँ बनाने के लिये प्रेरित करेगा।

आगे की राह:

  • आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का मानव-केंद्रित विकास सुनिश्चित करने के लिये वैश्विक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है तथा भारत को भी इस दिशा में व्यापक स्तर पर प्रयास करना चाहिये।
  • सार्वजनिक क्षेत्र के डेटा की मुफ्त उपलब्धता बढ़ाने के साथ ही डेटा सुरक्षा से संबंधित प्रयास किये जाने चाहिये।

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


कृषक उत्पादक संगठनों की स्थापना और संवर्द्धन

प्रीलिम्स के लिये:

FPOs, कृषक उत्पादक संगठनों की स्थापना और संवर्द्धन

मेन्स के लिये:

किसानों के लिये अर्थव्यवस्था के व्यापक लाभ, किसानों की आय को दोगुना करना, विकास एवं संवृद्धि

चर्चा में क्यों?

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने किसानों के लिये अर्थव्यवस्था के व्यापक लाभ को सुनिश्चित करने हेतु वर्ष 2019-2022 से वर्ष 2023-24 की अवधि के दौरान 10,000 नए FPOs के गठन को स्वीकृति दी है।

लाभ

  • छोटे और सीमांत किसानों के पास मूल्य संवर्द्धन सहित उत्पादन तकनीक, सेवाओं और विपणन को अपनाने के लिये आर्थिक क्षमता नहीं होती है। FPOs के गठन से, किसान सामूहिक रूप से अधिक सुदृढ़ होने के साथ-साथ अधिक आय अर्जित करने हेतु अर्थव्यवस्था के व्यापक स्तरों के लाभ के माध्यम से ऋण और बेहतर विपणन एवं गुणवत्तायुक्त उत्पाद और प्रौद्योगिकी तक पहुँच बनाने में सक्षम होंगे।

कार्यान्वयन एजेंसियाँ

प्रारंभिक तौर पर, FPOs के गठन और प्रोत्साहन के लिये तीन कार्यान्वयन एजेंसियाँ होंगी:

  • स्मॉल फारमर्स एग्री-बिज़नेस कन्सोर्टियम (Small Farmers Agri-business Consortium-SFAC),
  • नेशनल कोओपरेटिव डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (National Cooperative Development Corporation-NCDC),
  • नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (National Bank for Agriculture and Rural Development-NABARD)

प्रमुख बिंदु

  • पाँच वर्ष की अवधि (2019-2022 से 2023-24) के लिये 4496.00 करोड़ रुपए के कुल बजटीय प्रावधान के साथ 10,000 नए FPOs के गठन और संवर्द्धन के लिये “कृषक उत्पादक संगठनों की स्थापना और संवर्द्धन” नामक केंद्रीय क्षेत्र की एक नवीन योजना।
    • इसमें प्रत्येक FPOs को पाँच वर्षों के लिये आवश्यक सहयोग देने के लिये वर्ष 2024-25 से 2027-28 की अवधि के लिये 2369 करोड़ रुपए की प्रतिबद्ध देनदारी भी शामिल है।
  • DAC&FW एजेंसियों को कार्यान्वित करने के लिये समूह/राज्यों का आबंटन करेगा, जो इसी क्रम में राज्‍यों में समूह आधारित व्‍यापारिक संगठन का गठन करेगा।
  • FPOs को कार्यान्‍वयन एजेंसियों के द्वारा राज्‍य/समूह स्‍तर पर जुड़े समूह आधारित व्‍यापार संगठनों (Cluster Based Business Organizations-CBBOs) के माध्‍यम से गठित और प्रोत्‍साहित किया जाएगा।
    • CBBOs में फसल कृषि कर्म, कृषि विपणन/मूल्‍य संवर्द्धन एवं संसाधन, सामाजिक संग्रहण, विधि और लेखा एवं सूचना प्रौद्योगिकी/MIS जैसे क्षेत्रों से विशेषज्ञों की पाँच श्रेणियाँ होगी।
  • एकीकृत पोर्टल और सूचना प्रबंधन एवं निगरानी के माध्‍यम से समग्र परियोजना दिशा-निर्देश, डाटा-संग्रहण और रखरखाव जैसी सुविधा प्रदान करने के लिये SFAC के स्‍तर पर एक राष्‍ट्रीय परियोजना प्रबंधन एजेंसी (National Project Management Agency-NPMA) होगी।
  • प्रारंभ में मैदानी क्षेत्र में FPOs में सदस्‍यों की न्‍यूनतम संख्‍या 300 और पूर्वोत्‍तर एवं पहाड़ी क्षेत्रों में 100 होगी। हालाँकि DAC&FW केंद्रीय कृषि मंत्री की स्‍वीकृति के साथ आवश्‍यकता और अनुभव के आधार पर न्‍यूनतम सदस्‍यों की संख्‍या में संशोधन कर सकता है।
  • देश में आकांक्षी ज़िलों के प्रत्‍येक ब्‍लॉक में कम-से-कम एक FPOs के साथ आकांक्षी ज़िलों में FPOs के गठन को प्राथमिकता दी जाएगी।
  • FPOs द्वारा विशेष और बेहतर प्रसंस्‍करण, विपणन, ब्रांडिंग और निर्यात को प्रोत्‍साहन देने के लिये ‘एक ज़िला एक उत्‍पाद’ समूह के अंतर्गत FPOs को प्रोत्‍सा‍हन दिया जाएगा।
  • FPOs के इक्विटी आधार को मज़बूत करने के लिये इसमें इक्विटी अनुदान का भी प्रावधान होगा।
  • DAC&FW और नाबार्ड द्वारा समान योगदान के साथ नाबार्ड में 1,000 करोड़ रुपए तक का ऋण गारंटी कोष और DAC&FW तथा NCDC द्वारा समान योगदान के साथ NCDC में 500 करोड़ रुपए का ऋण गारंटी कोष होगा, ताकि FPOs को ऋण प्रदान करने के मामले में वित्‍तीय संस्‍थानों के जोखिम को न्‍यूनतम करते हुए FPOs को संस्‍थागत ऋण के निरंतर प्रवाह हेतु उपयुक्‍त ऋण गारंटी प्रदान की जा सके।
  • राज्‍यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सहायता प्रदान करने के लिये वैध श्रेणी के रूप में FPOs के लिये समान सुविधा केंद्र/कस्‍टम हायरिंग सेंटर सहित विपणन एवं संबद्ध बुनियादी ढाँचे द्वारा GrAMs में कृ‍षि विपणन और संबद्ध बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये नाबार्ड में गठन के लिये स्‍वीकृत कृषि-बाज़ार अवसंरचना कोष (Agri-Market Infrastructure Fund-AMIF) के अंतर्गत राज्‍य/संघ शासित प्रदेश निर्धारित ब्‍याज की रियायती दरों पर ऋण की प्राप्ति को स्‍वीकृति देंगे।
  • FPOs को पर्याप्‍त प्रशिक्षण और सहायता प्रदान की जाएगी। CBBOs शुरूआती प्रशिक्षण प्रदान करेंगे।

पृष्‍ठभूमि

किसानों की आय को दोगुना करने की नीति आयोग की रिपोर्ट में वर्ष 2022 तक 7,000 FPOs के गठन की सिफारिश और ‘किसानों की आय को दोगुना’ करने पर बल दिया गया है। केंद्रीय बजट 2019-20 में सरकार ने 10,000 नए FPOs के सृजन की घोषणा की थी ताकि आगामी पाँच वर्षों में किसानों के लिये अर्थव्‍यवस्‍था के व्‍यापक लाभ को सुनिश्चित किया जा सके। इसके लिये एक समर्पित सहायता और समग्र योजना के रूप में केंद्रीय क्षेत्र की योजना को FPOs के लक्षित विकास और इसकी दीर्घकालिकता के लिये प्रस्‍तावित किया गया है।

स्रोत: पी.आई.बी.


ईस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर

प्रीलिम्स के लिये:

ईस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर

मेन्स के लिये:

भारत में परिवहन संबंधी मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विश्व बैंक ने ईस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (Eastern Dedicated Freight Corridor- EDFC) के अंतिम खंड के निर्माण के लिये वित्त प्रदान करने का प्रस्ताव दिया है।

प्रमुख बिंदु:

  • विश्व बैंक ने बिहार के सोननगर और पश्चिम बंगाल के दनकुनी के बीच लगभग 528 किलोमीटर लंबे गलियारे के हिस्से के वित्तपोषण में दिलचस्पी दिखाई है। इस प्रकार प्रोजेक्ट के सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Public-Private Partnership- PPP) प्रक्रिया से पूरा किया किया जा सकता है।
  • अपेक्षित विकल्पों में सुधार हेतु इस प्रोजेक्ट को भारतीय रेलवे के पास प्रस्तुत किया गया है। विकल्पहीनता की स्थिति में इसका वित्तपोषण व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण (Viability Gap Funding-VGF) के माध्यम से किया जाएगा। रेलवे ने EDFC के इस प्रस्ताव को पहले ही अनुमति प्रदान कर दी है कि निजी कंपनियाँ इन गलियारों में निवेश कर सकती हैं।

व्यवहार्यता अंतराल अनुदान (VGF):-

  • यह एक ऐसा अनुदान होता है जो सरकार द्वारा ऐसे आधारभूत ढाँचा परियोजना को प्रदान किया जाता है जो आर्थिक रूप से उचित हो लेकिन उनकी वित्तीय व्यवहार्यता कम हो (Economically Justified but not Financially Viable) ऐसा अनुदान दीर्घकालीन परिपक्वता अवधि वाली परियोजना को प्रदान किया जाता है।
  • इस हिस्से के PPP मॉडल के आधार पर निर्माण संबंधी परियोजना दस्तावेज़ अभी वित्त मंत्रालय की PPP मूल्यांकन समिति (PPP Appraisal Committee- PPPAC) के पास है। PPP मूल्यांकन समिति मुख्यत: केंद्रीय स्तर पर PPP परियोजना मूल्यांकन के लिये ज़िम्मेदार हैं। वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग का सचिव इसकी अध्यक्षता करता है।
  • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि बिहार और पश्चिम बंगाल के बीच इस प्रस्तावित प्रोजेक्ट के अलावा संपूर्ण EDFC को विश्व बैंक से प्राप्त ऋण के सहयोग से बनाया जा रहा है। अतः इस परियोजना में निजी निवेशकों और विश्व बैंक दोनों से वित्तपोषण का विकल्प सरकार के पास है।

VGF

डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर

(Dedicated Freight Corridor- DFC)

  • यह माल (माल और वस्तु) के परिवहन के लिये विश्व स्तरीय तकनीक के अनुसार बनाया गया एक रेल मार्ग होता है।
  • DFC तेज़ी से पारगमन, कम लागत, उच्च ऊर्जा दक्षता और पर्यावरण के अनुकूल संचालन सुनिश्चित करता है।
  • सरकार द्वारा दो DFC (ईस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर और वेस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर) बनाए जा रहे हैं।

ईस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर:

  • यह लुधियाना (पंजाब) से दनकुनी (पश्चिमी बंगाल) तक है, जहाँ लुधियाना से सोननगर तक की लंबाई 1318 किलोमीटर तथा सोननगर से दनकुनी तक की लंबाई 538 किलोमीटर है।

वेस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर:

  • यह जवाहरलाल नेहरू पोर्ट टर्मिनल (महाराष्ट्र) से दादरी (उत्तर प्रदेश) तक है जिसकी लंबाई 1504 किलोमीटर है।

DFC के लाभ:

  • यह औद्योगिक क्षेत्रों, निवेश क्षेत्रों और लॉजिस्टिक पार्कों के लिये मार्ग प्रशस्त करेगा।
  • इससे रोज़गार के बेहतर अवसरों का सृजन होगा।
  • कॉरिडोर के साथ लगे ग्रीनफील्ड शहरों में रियल एस्टेट को फायदा होगा साथ ही बुनियादी ढाँचे का विकास होने की संभावना है। इससे उद्योगों और संबंधित द्वितीयक गतिविधियों के साथ-साथ इनसे संबंधित प्राथमिक उद्योगों का भी विकास होगा।

स्रोत: द हिंदू


थाईलैंड में सूखा

प्रीलिम्स के लिये:

NASA, Soil Moisture Active Passive Mission

मेन्स के लिये:

सूखे से संबंधित मुद्दे, जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

15 फरवरी, 2020 को यूनाइटेड स्टेट्स नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (National Aeronautics and Space Administration- NASA) के अर्थ ऑब्ज़र्वेटरी द्वारा जारी एक मानचित्र में दक्षिण-पूर्व एशिया के बड़े हिस्से में सतह की मिट्टी की नमी सामान्य से कम देखी गई तथा थाईलैंड इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • नासा का सॉइल मॉइस्चर एक्टिव पैसिव (Soil Moisture Active Passive- SMAP) मिशन मिट्टी में पानी की मात्रा को मापता है और ज़मीन के नीचे पाँच सेंटीमीटर के क्षेत्र में पानी का पता लगा सकता है। ध्यातव्य है कि इसी की सहायता से दक्षिण-पूर्व एशिया में मिट्टी में नमी की मात्रा का आकलन किया गया है।

Thailand

सूखे का कारण

  • मानसून का सामान्य से कम होना, सामान्य से कम वर्षा और अल-नीनो की स्थिति तथा असामान्य रूप से उच्च तापमान आदि कारक थाईलैंड को पिछले 40 से अधिक वर्षों में सबसे खराब सूखे की ओर धकेल रहे हैं।
    • मेकांग नदी आयोग के अनुसार, लाओस, कंबोडिया और वियतनाम सहित निचले मेकांग बेसिन के सभी देश मानसून में देरी और कमी से प्रभावित हैं।
  • एक अल-नीनो घटना के कारण इस क्षेत्र के उच्च तापमान और उच्च वाष्पीकरण की समस्या में वृद्धि हुई है।

सूखे का प्रभाव

  • सूखे के कारण दक्षिण-पूर्व एशियाई देश के प्रमुख जलाशय सूखने की कगार पर हैं।
  • नदियों का जल स्तर इतना कम हो गया है कि उनमें समुद्र का खारा पानी प्रवेश कर गया है जिसके कारण पेयजल आपूर्ति प्रभावित हुई है। ध्यातव्य है कि निचले इलाके खारे पानी से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं।
  • सूखे से थाईलैंड की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ा है। ध्यातव्य है कि थाईलैंड में कृषि क्षेत्र 11 मिलियन से अधिक लोगों को रोज़गार प्राप्त होता है।
  • दुनिया के प्रमुख चीनी निर्यातकों में से एक इस देश में पिछले वर्षों की तुलना में 30 प्रतिशत कम चीनी उत्पादन का अनुमान है।
  • अन्य लोअर मेकांग बेसिन के देश भी खराब स्थिति में हैं। दक्षिण-पश्चिम वियतनाम के मेकांग डेल्टा में पिछले मानसून की अपेक्षा इस वर्ष के मानसून से लगभग 8 प्रतिशत कम वर्षा हुई है।

सूखे से निपटने से संबंधित उपाय

  • सूखे से निपटने के लिये सर्वप्रथम उपलब्ध जल का दोहन एवं संरक्षण बड़ी ही सावधानी से किया जाना चाहिये।
  • वर्षा जल संग्रहण जैसी तकनीक का प्रयोग भी सूखे की समस्या से कुछ हद तक राहत दे सकता है।
  • इसके अतिरिक्त सूखे के प्रभावों को कम करने हेतु ऐसी फसलों के उत्पादन को वरीयता दी जानी चाहिये जिनमें पानी की कम आवश्यकता पड़ती हो, साथ ही तकनीक के प्रयोग से जल के पुनर्चक्रण पर बल दिया जाना चाहिये।
  • इसके अतिरिक्त पड़ोसी देशों के सहयोग से इस समस्या से निपटने हेतु रणनीति बनाई जानी चाहिये। साथ ही देश में जल संरक्षण के संबंध में लोगों को जागरूक करना चाहिये।
  • इसके अतिरिक्त क्लाउड सीडिंग भी एक महत्त्वपूर्ण उपाय है जिसमें वर्षा को प्रेरित करने के लिये कृत्रिम रूप से मौसम में परिवर्तन किया जाता है। साथ ही तकनीक के उपयोग से खारे समुद्री जल को सामान्य जल में परिवर्तित कर कृषि एवं अन्य क्षेत्रों में उपयोग करना चाहिये।

सूखा:

सूखा एक असामान्य व लंबा शुष्क मौसम होता है जो किसी क्षेत्र विशेष में स्पष्ट जलीय असंतुलन पैदा करता है। सूखे के लिये मानसून की अनिश्चितता के अतिरिक्त कृषि का अवैज्ञानिक प्रबंधन भी उत्तरदायी कारक हो सकता है। ‘सूखे’ की तीन स्थितियाँ होती हैं-

(i) मौसमी सूखाः किसी बड़े क्षेत्र में अपेक्षा से 75% कम वर्षा होने पर उत्पन्न स्थिति।
(ii) जलीय सूखाः जब ‘मौसमी सूखे’ की अवधि अधिक लंबी हो जाती है तो नदियों, तालाबों, झीलों जैसे- जल क्षेत्रों के सूखने से यह स्थिति उत्पन्न होती है।
(iii) कृषिगत सूखाः इस स्थिति में फसल के लिये अपेक्षित वर्षा से काफी कम वर्षा होने पर मिट्टी की नमी फसल विकास के लिये अपर्याप्त होती है।

आगे की राह

  • गौरतलब है कि पानी की कमी वर्तमान समय की सबसे बड़ी वैश्विक समस्या है तथा यह भी माना जाता है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिये ही लड़ा जाएगा इसलिये वैश्विक स्तर पर जल संरक्षण से संबंधित समावेशी प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
  • ध्यातव्य है कि वैश्विक तापन में वृद्धि इन सभी समस्याओं का प्रमुख कारण है, इसलिये वैश्विक तापन को कम करने के लिये प्रतिबद्ध पेरिस जलवायु समझौते में निहित शर्तों एवं सुझावों को देशों द्वारा अपनी नीतियों एवं रणनीतियों में अपनाने की आवश्यकता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


प्रवासी प्रजातियों का अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण

प्रीलिम्स के लिये

COP-13, CMS, IUCN

मेन्स के लिये

प्रवासी पक्षियों के संरक्षण से संबंधित प्रमुख प्रावधान

चर्चा में क्यों?

गुजरात के गांधीनगर में आयोजित किये जा रहे ‘प्रवासी प्रजातियों पर संयुक्त राष्ट्र के काॅप-13 सम्मेलन (United Nations 13th Conference of the Parties to the Convention on Migratory Species) में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, एशियाई हाथी और बंगाल फ्लोरिकन को प्रवासी प्रजातियों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय के परिशिष्ट-I में शामिल करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया है।

एशियाई हाथी

  • भारत सरकार ने भारतीय हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित किया है। भारतीय हाथी को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची I में सूचीबद्ध करके कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है।
  • CMS अभिसमय के परिशिष्ट I में भारतीय हाथी के शामिल होने से भारत की सीमाओं पर इसके प्राकृतिक प्रवास को सुरक्षित किया जा सकेगा। इससे हमारी भावी पीढ़ियों के लिये इस लुप्तप्राय प्रजाति के संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा।
  • मुख्य भूमि से संबंधित एशियाई या भारतीय हाथी भोजन तथा आवास की खोज में एक राज्य से दूसरे राज्य तथा एक देश की सीमा से दूसरे देश की सीमा में विचरण करते हुए चले जाते हैं। अधिकांश एशियाई हाथी आवास स्थान की हानि एवं विखंडन, मानव-हाथी संघर्ष, अवैध शिकार तथा अवैध व्यापार जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
  • भारत मुख्यभूमि से संबंधित एशियाई हाथियों का प्राकृतिक घर है, इसलिये वह हाथियों के संरक्षण के लिये पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

  • ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustard) अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature-IUCN) की रेड लिस्ट में गंभीर रूप से लुप्तप्राय, संरक्षण पर निर्भर और पारगमन संकेतों को प्रदर्शित करने वाली प्रजाति है, इसका प्रवासन भारत-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र में इसके अवैध शिकार और विद्युत तारों से टकराने जैसे खतरों को उजागर करता है।
  • इसे CMS के परिशिष्ट I में शामिल करने का निर्णय अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण निकायों तथा मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और समझौते द्वारा सुव्यवस्थित संरक्षण प्रयासों में सहयोगी होगा।
  • ग्रेट इंडियन बस्टर्ड गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति है। इसकी लगभग 100–150 की संख्या में एक छोटी आबादी है जो भारत में राजस्थान के थार रेगिस्तान तक सीमित है। इस प्रजाति की 50 वर्षों (छह पीढ़ियों) के भीतर 90% आबादी कम हो गई है और भविष्य में इस पर खतरे बढ़ने की आशंका है।

बंगाल फ्लोरिकन

  • बंगाल फ्लोरिकन IUCN की रेड लिस्ट में गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है। पारगमन प्रवासन के कारण आवास क्षेत्र में बदलाव तथा प्रवास के दौरान भारत-नेपाल सीमा पर विद्युत तारों की चपेट में आने से इनकी संख्या में निरंतर कमी आ रही है।
  • आवास कम होने और अत्यधिक शिकार के कारण इनकी आबादी कम हो रही है। यह प्रजाति असम के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप में संरक्षित क्षेत्रों से बाहर प्रजनन नहीं करती हैं।
  • इसे CMS के परिशिष्ट I में शामिल करना संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास होगा।
  • बंगाल फ्लोरिकन असम के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप के संरक्षित क्षेत्रों से बाहर नहीं पाए जाते हैं।

भारत के कौन से प्रस्ताव स्वीकार किये गए?

  • भारत ने इस कन्वेंशन के परिशिष्ट- I में तीन प्रजातियों को शामिल करने का प्रस्ताव दिया।
  • परिशिष्ट- I में ऐसी प्रजातियों को सूचीबद्ध किया जाता हैं जिनके विलुप्त होने का खतरा है।
  • परिशिष्ट- II में ऐसी प्रजातियों को सूचीबद्ध किया जाता हैं जिन्हें आवश्यक अनुकूल संरक्षण स्थिति के लिये वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है।
  • यदि किसी प्रजाति को परिशिष्ट- I में सूचीबद्ध किया जाता है, तो इससे प्रजाति विशेष के सीमा-पार संरक्षण प्रयास सहज हो जाते हैं।

भारत द्वारा प्रस्तुत इस प्रस्ताव को सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्वीकार तो कर लिया गया है लेकिन पाकिस्तान, जो कि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के रेंज वाला एक अन्य देश है, ने प्रस्ताव पर होने वाली चर्चा में भाग नहीं लिया। हालाँकि इस संबंध में अभी अंतिम निर्णय आना बाकी है।

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ

  • IUCN एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है। जो प्रकृति के संरक्षण तथा प्राकृतिक संसाधनों के धारणीय उपयोग को सुनिश्चित करने की दिशा में कार्य करती है।
  • इसकी स्थापना वर्ष 1948 में की गई थी।
  • इसका मुख्यालय ग्लैंड (स्विटज़रलैंड) में स्थित है।
  • IUCN द्वारा जारी की जाने वाली लाल सूची दुनिया की सबसे व्यापक सूची है, जिसमें पौधों और जानवरों की प्रजातियों की वैश्विक संरक्षण की स्थिति को दर्शाया जाता है।
  • IUCN द्वारा प्रजातियों के विलुप्त होने के जोखिम का मूल्यांकन करने के लिये कुछ विशेष मापदंडों का उपयोग किया जाता है। ये मानदंड दुनिया की अधिकांश प्रजातियों के लिये प्रासंगिक हैं।

प्रवासी वन्यजीव प्रजातियों के संरक्षण के लिये सम्मेलन

  • CMS संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तहत एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है। इसे बाॅन कंवेंशन के नाम से भी जाना जाता है। CMS का उद्देश्य स्थलीय, समुद्री तथा उड़ने वाले अप्रवासी जीव जंतुओं का संरक्षण करना है।
  • यह कन्वेंशन अप्रवासी वन्यजीवों तथा उनके प्राकृतिक आवास पर विचार-विमर्श के लिये एक वैश्विक मंच प्रदान करता है।
  • इस संधि पर वर्ष 1979 में जर्मनी के बाॅन में हस्ताक्षर किये गए थे। यह संधि वर्ष 1983 में लागू हुई थी।

इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य क्या है?

  • उक्त तीन प्रजातियों के अलावा, सात अन्य प्रजातियों को भी CMS परिशिष्टों में सूचीबद्ध करने लिये प्रस्ताव प्रस्तुत किये गए हैं, इनमें शामिल हैं- जगुआर, यूरियाल, लिटिल बस्टर्ड, एंटीपोडियन अल्बाट्रॉस, ओशनिक व्हाइट-टिप शार्क, स्मूथ हैमरहेड शार्क और टोपे शार्क।
  • COP13 के तहत समुद्री ध्वनि प्रदूषण, प्लास्टिक प्रदूषण, प्रकाश प्रदूषण, कीटों की संख्या में अत्यधिक व्वृद्धि से उत्पन्न मुद्दे आदि पर भी चर्चा की जा रही है।

स्रोत: पी.आई.बी.


Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 21 फरवरी, 2020

तिलहन मिशन

देश को तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिये केंद्र सरकार जल्द ही तिलहन मिशन की शुरुआत करेगी। मृदा स्वास्थ्य कार्ड दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह को संबोधित करते हुए केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री ने इस विषय पर जानकारी साझा की। उन्होंने कहा कि सरकार देश में तिलहन उत्पादन को बढ़ाने पर गंभीरता से काम कर रही है। ज्ञात हो कि आज देश किसानों की मेहनत के कारण खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है और यह उत्पादन देश की समग्र आवश्यकताओं से अधिक है। वर्ष 2015 में मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के शुभारंभ के बाद से मिट्टी की उर्वरता में काफी सुधार हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप अधिक फसल उत्पादन में मदद मिली है। कृषि देश की अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्तंभ है और यह देश की जीडीपी में कुल 14 प्रतिशत का योगदान देती है।

फूड प्लेनेट प्राइज़

हाल ही में स्वीडन ने ‘फूड प्लेनेट प्राइज़’ नाम से 1 मिलियन डालर के पुरस्कार की घोषणा की है। स्वीडन द्वारा घोषित इस पुरस्कार का मुख्य उद्देश्य विश्व में जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य आपूर्ति पर उत्पन्न खतरों का समाधान करने के लिये कार्य करने वाले लोगों को पुरस्कृत करना है। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष स्वीडन के कर्ट बर्गफोर्स फाउंडेशन (Curt Bergfors Foundation) द्वारा प्रदान किया जाएगा। पुरस्कार की घोषणा मुख्य रूप से दो श्रेणियों में की जाएगी (1) सतत् भोजन के लिये एक मौजूदा स्केलेबल समाधान (2) वैश्विक खाद्य क्षेत्र को बदलने के लिये अभिनव पहल। ज्ञात हो कि वर्तमान में विश्व की कुल जनसंख्या लगभग 7.8 अरब है, जो कि वर्ष 2050 तक अनुमानतः 10 अरब हो जाएगी। इतनी बढ़ी आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना नीति निर्माताओं के लिये बड़ी चुनौती होगी, जिसे अभी से गंभीरता से लिया जाना आवश्यक है।

भारत और श्रीलंका के मध्य समझौता ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर

भारत और श्रीलंका ने भारतीय क्षेत्र के संपदा कामगारों के लिये श्रीलंका के कृषि स्‍कूलों में बुनियादी सुविधाओं के उन्‍नयन हेतु एक समझौता ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर किये हैं। भारत के कार्यवाहक उच्‍चायुक्‍त विनोद के. जैकब और श्रीलंका के शिक्षा मंत्री ने 20 फरवरी 2020 को कोलंबो में इस समझौता ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर किये। इस परियोजना के तहत भारत की 30 करोड़ रुपए की अनुदान सहायता से श्रीलंका के 9 कृषि स्‍कूलों के बुनियादी ढाँचे का उन्‍नयन किया जाएगा। ज्ञात हो कि भारत सरकार श्रीलंका में शिक्षा क्षेत्र के सहयोग के लिये कई परियोजनाएं चला रही है।

संजय कोठारी

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के मौजूदा सचिव संजय कोठारी को देश अगला केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (Central Vigilance Commissioner) नियुक्त किया गया है। संजय कोठारी का चयन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली समिति ने किया। संजय काेठारी हरियाणा कैडर के वर्ष 1978 बैच के सेवानिवृत्त IAS अधिकारी हैं। संजय कोठारी कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) में सचिव रह चुके हैं। उन्हें नवंबर 2016 में लोक उद्यम चयन बोर्ड का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया था। केंद्रीय सतर्कता आयोग केंद्र सरकार का सर्वोच्च सरकारी निकाय है जिसकी स्थापना फरवरी 1964 में के. संथानम समिति की सिफारिशों के आधार पर सरकारी भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिये की गई थी।

श्री रामायण एक्सप्रेस

हाल ही में IRCTC ने घोषणा की है कि भगवान राम से जुड़े स्थलों की तीर्थ यात्रा पर जाने के इच्छुक लोगों के लिये भारतीय रेलवे 28 मार्च, 2020 से ‘श्री रामायण एक्सप्रेस’ नाम से विशेष पर्यटक ट्रेन चलाएगा। आधिकारिक सूचना के अनुसार, 'श्री रामायण एक्सप्रेस' में कुल 10 कोच होंगे जिसमें पाँच स्लीपर क्लास के गैर-वातानूकूलित कोच और पाँच AC के 3-टीयर कोच होंगे। यह ट्रेन भगवान राम से जुड़े सभी तीर्थ स्थलों को कवर करेगी। IRCTC के अनुसार, बुकिंग पूरी तरह से ‘पहले आओ पहले पाओ’ के आधार पर की जाएगी। यह ट्रेन 28 मार्च, 2020 को सफदरजंग रेलवे स्टेशन (नई दिल्ली) से यात्रा शुरू करेगी।