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महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट्स की जिस्ट


कृषि

किसानों की आय को दोगुना करना : नीति आयोग की रिपोर्ट

  • 15 Jan 2019
  • 49 min read

संदर्भ


भारत में कृषि क्षेत्रक के विकास के लिये पूर्ववर्ती कार्यनीति ने मुख्यतया कृषि उत्पादन को बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा को सुधारने पर ज़ोर दिया। इस कार्यनीति में निम्नलिखित मुद्दों को शामिल किया गया था-

(a) बेहतर प्रौद्योगिकी और किस्मों के माध्यम से उत्पादकता को बढ़ाना तथा गुणवत्तापूर्ण बीज, उर्वरक, सिंचाई और कृषि रसायनों के उपयोग को बढ़ावा देना।
(b) कुछ फसलों के लिये लाभकारी कीमतों तथा कृषि संबंधी निवेश सामग्री पर सब्सिडियों के रूप में प्रोत्साहन ढाँचा तैयार करना।
(c) कृषि में और कृषि के लिये सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा देना।
(d) इससे संबद्ध संस्थाओं को सुविधा प्रदान करना।

  • इस कार्यनीति के कारण ही देश 1960 के दशक के मध्य में आए गंभीर खाद्य संकट से निपटने में समर्थ रहा। विगत पचास वर्षों (1965 से 2015) के दौरान हरित क्रांति को अपनाए जाने के बाद, भारत का खाद्य उत्पादन 3.7 गुना बढ़ा जबकि जनसंख्या में 2.55 गुना की वृद्धि हुई।
  • इस कार्य नीति ने न तो किसानों की आय को बढ़ाने की ज़रूरत को स्पष्ट मान्यता दी और न ही किसानों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिये किसी प्रत्यक्ष उपाय का उल्लेख किया।
  • किसानों की स्थिति की ओर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत को समझते हुए केंद्र सरकार ने 2015 में कृषि मंत्रालय के नाम को बदलकर कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया।
  • यह स्पष्ट है कि किसान द्वारा कृषि से अर्जित आय, कृषि संबंधी संकट का समाधान करने और किसानों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2022-23 तक किसानों की आय को दोगुना करने के लिये निर्धारित किया गया लक्ष्य, किसानों के कल्याण को बढ़ावा देने, कृषि संबंधी संकट को कम करने तथा किसानों और गैर-कृषि व्यवसायों में कार्यरत कामगारों की आय में समानता लाने में अहम भूमिका निभाएगा।

किसानों की आय में विगत वृद्धि


यह विडंबना है कि CSO द्वारा किसानों की आय के अनुमान प्रकाशित नहीं किये जाते हैं, हालाँकि कृषि के लिये समय श्रृंखला और क्षेत्रकीय आय के अद्यतन अनुमान, राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी में उपलब्ध हैं। तथापि, NSSO ने अपने राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षणों नामत: ‘किसानों की स्थिति का आकलन 2003’ और ‘कृषि परिवारों की स्थिति का आकलन 2013’ के आधार पर किसानों की आय के स्रोतों और अनुमानों का सृजन करना है।

  • इन दो सर्वेक्षणों के तहत किसानों अथवा किसान परिवारों की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ अपनाई गथी थी और इसलिये इन दो सर्वेक्षणों में सूचित किये गए आय के अनुमानों की तुलना नहीं की जा सकती है।
  • NSSO के दो राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षण नामत: किसानों की स्थिति के आकलन संबंधी सर्वेक्षण 2003 (59वाँ दौर) और कृषि परिवारों की स्थिति के आकलन संबंधी सर्वेक्षण (SAS) 2013 (70वाँ दौर) कृषि सहित विभिन्न स्रोतों से किसानों की आय के अनुमान उपलब्ध कराते हैं।

SAS के अनुसार

  • वर्ष 2012-13 के लिये कृषि और गैर-कृषि स्रोतों से कृषि परिवार की औसत वार्षिक आय 77,112 रुपए थी।
  • कृषि परिवार की कुल आय का साठ प्रतिशत भाग कृषि कार्यकलापों (खेती और पशुओं की फार्मिंग) से अर्जित किया गया था और 40 प्रतिशत भाग गैर-कृषि स्रोतों (मज़दूरी, वेतन, गैर-कृषि व्यवसाय आदि) से अर्जित किया गया था।
  • कुल मिलाकर एक कृषि परिवार के लिये कृषि से 36,938 रुपए की वार्षिक आय सृजित हुई है और पशुधन से 9,176 रुपए की आय सृजित हुई।
  • इस अनुमान के अनुसार कृषि परिवार की कुल कृषि आय में पशुधन संबंधी कार्यकलाप का हिस्सा 19.89 प्रतिशत के करीब था। यह उसी वर्ष के लिये कृषि क्षेत्रक में निवल मूल्यवर्धन में पशुधन के हिस्से के संबंध में CSO के अनुमानों जो 28.6 प्रतिशत था, से बहुत कम है।
  • इससे यह पता चलता है कि संभवत: SAS 2013 में उपयोग की गई किसान की विशिष्ट परिभाषा की वजह से SAS में सूचित की गई कृषि आय तथा कृषि आय के CSO मान में काफी अंतर है।

किसानों की आय में वृद्धि के स्रोत


किसानों की वास्तविक आय को 2015-16 के आधार वर्ष की तुलना में 2022-23 तक दोगुना करने के लिये किसानों की आय में 10.41 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर अपेक्षित है। इसका अर्थ यह है कि कृषि आय की वर्तमान और पूर्व में हासिल की गई वृद्धि दर को तेज़ी से बढ़ाना होगा। अत: कृषि क्षेत्रक के अंदर और बाहर किसानों की आय को बढ़ाने के सभी संभावित स्रोतों का सदुपयोग करने के लिये सशक्त उपायों की ज़रूरत होगी। कृषक क्षेत्रक के अंतर्गत प्रचालनरत, वृद्धि के प्रमुख स्रोत निम्नानुसार हैं:

(a) कृषि क्षेत्रक के अंतर्गत आय को बढ़ाने के स्रोत


कृषि उत्पादकता में वृद्धि

  • कृषि उत्पादन को बढ़ाने के दो स्रोत हैं- अर्थात् क्षेत्र और उत्पादकता। गैर-कृषि उपयोगों के लिये भूमि की बढ़ती मांग तथा देश के सकल भौगोलिक क्षेत्र में कृषि-योग्य भूमि के पहले से ही उच्च हिस्से की वजह से कृषि क्षेत्र में आगे वृद्धि करना व्यवहार्य नहीं है।
  • देश में अधिकांश फसलों की उत्पादकता कम है और इसे बढ़ाने की काफी गुंजाइश है। गेहूँ को छोड़कर देश में अन्य फसलों की उत्पादकता वैश्विक औसत से कम है और कृषि के क्षेत्र में अग्रणी देशों की तुलना में यह काफी कम है। देश के अंदर भी विभिन्न राज्यों की पैदावार में काफी अंतर है। विभिन्न राज्यों की पैदावार में एक बड़ा अंतर, सिंचाई सुविधा की उपलब्धता में अंतर की वजह से है परंतु एकसमान सिंचाई सुविधा वाले राज्यों में भी उत्पादकता में काफी अंतर दिखाई देता है।
  • सिंचाई के समान स्तर पर उत्पादकता में भिन्नता और विश्व औसत की तुलना में भारत में कम पैदावार, बेहतर प्रौद्योगिकी के अपर्याप्त स्तर अथवा इसके कम उपयोग की वजह से है। देश में कृषि उत्पादकता और उत्पादन को बढ़ाने के लिये सिंचाई की उपलब्धता को बढ़ाना और प्रौद्योगिकीय उन्नति, सबसे शक्तिशाली साधन हैं।

सकल कारक उत्पादकता में सुधार

  • सकल कारक उत्पादकता (TFP) में सुधार, उत्पादन बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है जो लागतों की बचत और इस प्रकार आय को बढ़ाने में प्रत्यक्ष योगदान देता है।
  • TFP, उत्पादन का वह भाग है जिसके बारे में उत्पादन में उपयोग की गई निवेश सामग्री की मात्रा से कोई स्पष्टीकरण नहीं मिलता है।
  • TFP, उत्पादन में किये गए कुल इनपुट्स में वृद्धि की तुलना में सकल उत्पादन वृद्धि संबंधी प्रावधानों के लिये उत्तरदायी है।
  • TFP की वृद्धि दर प्रौद्योगिकीय परिवर्तन, कौशल, अवसंरचना आदि जिनकी उत्पादन इनपुट्स के सैट में गणना नहीं की जाती है के प्रभाव को दर्शाती है। इसमें उत्पादन में उपयोग किये जाने वाले इनपुट्स की कुशलता में वृद्धि भी शामिल होती है।

उच्च मूल्य वाली फसलों में विविधीकरण

  • उच्च मूल्य वाली फसलों (HVC) की ओर विविधीकरण, किसानों की आय में बढ़ोतरी करने की अत्यधिक गुंजाइश प्रदान करता है। मुख्य फसलों (अनाज, दालें, तिलहन) के तहत कुल अथवा सकल फसल क्षेत्र (GCA) का 77 प्रतिशत भाग है परंतु ये फसलें, फसल क्षेत्रक के कुल उत्पादन में केवल 41 प्रतिशत योगदान देती हैं।
  • HVC और मुख्य फसलों के तहत क्षेत्र में बड़े अंतर की वजह से HVC के तहत क्षेत्र में 1 प्रतिशत की वृद्धि के फलस्वरूप मुख्य फसलों के तहत क्षेत्र में 0.25 प्रतिशत की कमी आती है। अत: HVC के तहत क्षेत्र में 1 प्रतिशत की वृद्धि के फलस्वरूप फसल क्षेत्रक के उत्पादन में 0.319 प्रतिशत की वृद्धि होती है (मुख्य फसलों के तहत क्षेत्र को HVC के तहत अंतरित करने की वजह से उत्पादन में कमी को घटाने के बाद)।
  • इन गणनाओं के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि यदि विविधीकरण की विगत प्रवृत्ति, भविष्य में भी जारी रहती है तो इसमें फसल क्षेत्रक के उत्पादन को प्रतिवर्ष लगभग 1 प्रतिशत बढ़ाने की क्षमता है। इसके फलस्वरूप 2022-23 तक किसानों की आय में 5 प्रतिशत वृद्धि हो सकती है।
  • मुख्यतया फसलों की खेती पर गुजारा करने की बजाय वानिकी जैसे अन्य संबद्ध उद्यमों की दिशा में विविधीकरण के द्वारा भी किसानों की आय को बढ़ाने की गुंजाइश है।

फसल गहनता में वृद्धि


भारत में फसल उगाने के दो मुख्य मौसम हैं नामत: खरीफ और रबी जिसकी वजह से एक ही भूखंड पर एक वर्ष में दो फसलों की खेती करना संभव हो जाता है। सिंचाई और नई प्रौद्योगिकियों की उपलब्धता के फलस्वरूप खरीफ के मुख्य मौसम और रबी के मुख्य मौसम के बाद अल्पावधि फसलों को उगाना संभव हो गया है।

  • भूमि उपयोग संबंधी आँकड़े यह दर्शाते हैं कि निवल बुआई क्षेत्र के केवल 38.9 प्रतिशत भाग पर ही दूसरी फसल की खेती की जाती है। इसका अर्थ यह है कि देश में 60 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि आधी उत्पादनकारी अवधि के दौरान अप्रयुक्त रहती है।
  • एक ही भूखंड पर दूसरी फसल उगाना, देश में भूमि की कमी का समाधान करने और प्रति इकाई भूमि से आय को बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत हर खेत को पानी तथा अन्य घटकों पर ज़ोर दिये जाने के फलस्वरूप सिंचाई का त्वरित विस्तार होने की आशा है जिसका फसल गहनता केा बढ़ाने पर बहुत अनुकूल प्रभाव पड़ेगा।
  • फसल गहनता में हाल ही के वर्षों में देखी गई दर से वृद्धि होने से 7 वर्षों में किसानों की आय में 3.4 प्रतिशत और दस वर्षों में 4.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है।

कृषि क्षेत्र से इतर आय वृद्धि के स्रोत


किसानों के लिये व्यापार की शर्तों को बेहतर बनाना

किसानों या कृषि क्षेत्र की वास्तविक आय का आकलन करने के लिये विभिन्न अस्फीति कारकों का उपयोग किया गया है। इनमें से कुछ है- किसानों द्वार प्रदत्त मूल्यों का सूचकांक, आगम मूल्यों का सूचकांक और गैर-कृषि वस्तुओं के थोक मूल्यों का सूचकांक आदि।

  • इस कार्य हेतु CPIAL (कृषि श्रमिकों के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक) का उपयोग अस्फीति कारक के रूप में किया गया है ताकि अनुमानित कृषि आय को वास्तविक कृषि आय में तबदील किया जा सके।
  • CPIAL ग्रामीण क्षेत्रों में वस्तुओं और सेवाओं की मुद्रास्फीति को दर्शाता है और यह कृषक परिवार के समक्ष मौजूद मुद्रास्फीति को किसी भी अन्य सूचकांक की तुलना में अधिक सटीकता से दर्शाता है।
  • कृषि उत्पाद के एवज में किसानों को मिली आय अगर CPIAL की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ती है तो इससे वास्तविक आय में वृद्धि होती है- चाहे उत्पादन की मात्रा में वृद्धि न हुई हो तो भी।
  • 2011-12 से 2015-16 के दौरान दो मामलों में किसानों की आय काफी कम रही। एक, स्थिर मूल्यों पर कृषि में मूल्य संवर्धित में वृद्धि बहुत कम रही। दूसरे CPIAL में वृद्धि कृषि उत्पाद के कृषकों को प्राप्त मूल्यों में वृद्धि की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक थी। भारत सरकार ने इस स्थिति को अनुकूल बनाने के लिये कई पहलें की हैं।
  • किसानों को बेहतर मूल्य दिलाने के उद्देश्य से शुरू किया गया एक महत्त्वपूर्ण उपाय है: ई-नैम।

जोतदारों को गैर-कृषि और सहायक कार्यों में लगाना


ग्रामीण क्षेत्रों में कुल कार्यबल का 64 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र में लगा हुआ है और कुल ग्रामीण निवल घरेलू उत्पाद में 39 प्रतिशत योगदान करता है (तालिका)। इससे पता चलता है कि कार्यबल कृषि पर एक सीमा से अधिक निर्भर है क्योंकि रोज़गार के अन्य विकल्प नहीं हैं। इससे कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र के बीच प्रति श्रमिक उत्पादकता में व्यापक अंतर का भी पता चलता है।

2011-12 के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों में श्रमिक उत्पादकता

  • कार्यबल को कृषि से इतर कार्यों में लगाकर किसानों की आय में काफी वृद्धि की जा सकती है।
  • कृषि में कार्यबल में कमी के बावजूद रोज़गार विविधीकरण निम्न कारणों से काफी धीमा है:

♦ खासकर विनिर्माण क्षेत्रकों में कौशल और विनिर्दिष्ट शिक्षा स्तर की अपेक्षा;
♦ औद्योगिक इकाइयों का ग्रामीण बस्तियों से दूर होना;
♦ भावी श्रमिकों के लिये उत्पादक रोज़गार सुनिश्चित करने के लिहाज से गैर-कृषि क्षेत्र की क्षमता का सीमित होना।

  • कौशल विकास संबंधी सरकार की नई पहल की कृषक समुदाय के कौशल संवर्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है जो उन्हें गैर-कृषि क्षेत्रों में बेहतर रोज़गार के अवसर मुहैया करा सकता है।
  • अगर जोतदारों की संख्या इसी तरह घटती रही जैसे 2004-05 से 2011-12 के बीच घटी, तो 2015-16 से 2022-23 के बीच यह संख्या 13.4 प्रतिशत घट जाएगी। इसका अर्थ यह हुआ की उपलब्ध कृषि आय 13.4 प्रतिशत कम किसानों में वितरित होगी।

किसानों की आय बढ़ाने की कार्यनीति


उत्पादन और आय में वृद्धि के स्रोतों को चार श्रेणियों में रखा जा सकता है:

  1. अवसंरचना सहित विकास पहलें
  2. प्रौद्योगिकी
  3. नीतियाँ
  4. सांस्थानिक तंत्र।

(1) विकास पहलें

उत्पादन बढ़ाने और लागत को कम करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में शुरू की गई कुछ विकास पहलों में शामिल हैं:

♦ धानमंत्री कृषि सिंचाई योजना
♦ मृदा स्वास्थ्य कार्ड
♦ परंपरागत कृषि विकास योजना।

  • एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहल है- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जिसके तहत फसल और आय में हुए नुकसान की भरपाई की जाती है।
  • नदियों को परस्पर जोड़ाना भी एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहल है जिसमें उत्पादन और किसानों की आय बढ़ाने की काफी संभावनाएँ हैं।
  • इन कार्यक्रमों को समयबद्ध रूप में कार्यान्वित करने की आवश्यकता है ताकि किसानों की आय पर अपेक्षित प्रभाव पड़ सके।

(2) प्रौद्योगिकी और नवप्रवर्तन


उत्पादकता और कृषक आय में संधारणीय वृद्धि के लिये हरित क्रांति के समय से ही भारतीय कृषि में प्रधान रही इनपुट बहुल प्रौद्योगिकियों की जगह नए विकल्प को अपनाने की आवश्यकता है।

  • उत्पादन और किसानों की आय में लगातार वृद्धि के लिये एग्रोनिमिक प्रौद्योगिकियों, जैसे- प्रेसिजन फार्मिंग का दायरा बढ़ने के साक्ष्य लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इसी प्रकार आधुनिक मशीनों, जैसे- भूमि समतल करने की लेजर मशीन, परिशुद्ध बुआई और रोपण मशीन और पद्धतियों जैसे SRI (धान गहनता प्रणाली), प्रत्यक्ष बोया गया धान, शून्य जुताई, ऊपर उठी क्यारियों में रोपण और मेढ़ रोपण से तकनीकी रूप से उच्च कुशल कृषि होती है।
  • किंतु इन प्रौद्योगिकियों का विकास सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है और बाज़ार में बेचने की उनकी क्षमता बेहद कमज़ोर है।
  • इन प्रौद्योगिकियों से मिलने वाले अवसरों और ऋण लेना आसान बन जाने के बारे में किसानों को बताया जाना चाहिये तथा उनके अंगीकरण के लिये नीतिगत माहौल बनाया जाना चाहिये।

(3) नीतियाँ


भारत ने 1991 में नई आर्थिक नीति के तहत व्यापक आर्थिक सुधारों को अपनाया। इन सुधारों में उदारीकरण, विनियमन और निजी क्षेत्र से अत्यधिक नियंत्रण तथा प्रतिबंधों को समाप्त करना शामिल है जिनसे आर्थिक क्रियाकलापों में निजी क्षेत्र की सहभागिता के लिये बड़ी अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा हुईं। इन परिवर्तनों के प्रत्युत्तर में संघ सरकार ने वर्ष 2002 से कृषि क्षेत्र में कई सुधार किये। इनमें शामिल हैं:

  • विनिर्दिष्ट आहार के लिये लाइसेंस लेने, भंडारण सीमा और आवाजाही प्रतिबंध की समाप्ति आदेश, 2002 और 2003। इस आदेश के अनुसार गेहूँ, धान/चावल, मोटे अनाज, चीनी, तिलहन, खाद्य तेलों, दालों, गुड़, गेहूँ उत्पादों और हाइड्रोजेनेटेड वनस्पति तेल अथवा वनस्पति को आवश्यक वस्तु अधिनियम (1955) की सूची से हटा दिया गया जिसके कारण इनके कारोबार, भंडारण और आवाजाही के लिये किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं रह गई।
  • 1992 के MMPO को आशोधित कर 2002 में दुग्ध और दुग्ध उत्पाद आदेश लाया गया तथा दुग्ध प्रसंस्करण में नई क्षमता स्थापित करने संबंधी प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया गया और मिल्कशेड की अवधारणा खत्म कर दी गई।
  • वर्ष 2003 में वादा कारोबार के निषेध की समाप्ति। इसके बाद कृषि विपणन में सुधार के कदम उठाए गए। संघ सरकार ने आदर्श APMC अधिनियम तैयार किया जिसे राज्य कृषि उत्पाद विपणन (विकास और विनियमन) अधिनियम, 2003 कहा गया तथा इसे कार्यान्वयन हेतु सभी राज्यों के साथ साझा किया।

किंतु कृषि संबंधी नीतिगत परिदृश्य में अधिक परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुआ क्योंकि कृषि क्षेत्र में सुधार यत्र-तत्र, छिटपुट और आंशिक ही रहा।

कृषि क्षेत्र में अपेक्षित सुधारों की अनदेखी के कारण कृषि क्षेत्र और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच गंभीर असमानता उत्पन्न हुई है।

  • 1990-91 तक दोनों क्षेत्रों की विकास दरें एक जैसी थीं और दोनों में काफी करीबी ताल्लुकात थे। जैसे-जैसे सुधार होते गए, वृद्धि-पथ में भिन्नता आती गई।
  • पाँच वर्ष में औसत वार्षिक परिवर्तन दर से लगाए गए अनुमान के अनुसार अधिकतर समयावधि के दौरान गैर-कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 6.0 प्रतिशत से कम के स्तर से बढ़कर 8.0 प्रतिशत से अधिक हो गई। किंतु दीर्घकालिक रुझान की दृष्टि से कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 2.8 प्रतिशत रही।

इस तुलना से पता चलता है कि बाज़ार सुधारों के अभाव में, कृषि दर कम रही और यह क्षेत्र गैर-कृषि क्षेत्रक की वृद्धि दर के मुकाबले पिछड़ गया।

  • कृषि क्षेत्र को खोलने, विपणन, भूमि पट्टाकरण संबंधी विभिन्न प्रतिबंधों को हटाने और वन प्रजातियों की सामान्य भूमि पर खेती करने से किसानों का उत्पादन बढ़ेगा और उनकी आर्थिक गतिविधियाँ भी बढ़ेंगी और इन दोनों से किसानों की आय बढ़ेगी।

यह विडंबना ही है कि कई राज्यों में कटाई के बाद कई फसलों की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम है। इससे पता चलता है कि किसानों का न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक कीमत दिलाना सुनिश्चित करने के लिये प्रतिस्पर्द्धी बाज़ारों अथवा अन्य तंत्र की कितनी आवश्यकता है।

(4) सांस्थानिक तंत्र

  • भारतीय कृषि में ज़्यादातर किसान सीमांत और बहुत छोटे हैं जिन्हें कई तरह के गंभीर नुकसान झेलने पड़ते हैं। खेतों का आकार छोटा होने के कारण कई किसान अधिक प्रकार के फल और सब्जियाँ नहीं उगा पाते जिसका मुख्य कारण यह है कि मूल्य का जोखिम रहता है और विपणन काफी अलाभकारी होता है।
  • छोटे आकार के खेतों के कारण आगम और निर्गम बाज़ारों में अलग-अलग तरह के लेन-देन के मामलों मे भी किसानों की सौदेकारिता शक्ति घटती है।
  • इन समस्याओं का समाधान यह है कि किसानों को किसी सांस्थानिक तंत्र के तहत संगठित किया जाना चाहिये, जैसे- कृषि उत्पाद संगठन।

क्या किये जाने की आवश्यकता है?

  • 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने के लिये फसल उत्पादकता को 4.1 प्रतिशत और संवर्द्धित पशुधन मूल्य को 6.0 प्रतिशत की दर से बढ़ाना होगा। TFP (जो मुख्यत: कृषि अनुसंधान और विकास का परिणाम है), विस्तार सेवाओं, नए ज्ञान, दक्षता व्यवहार, जैसे- प्रेसिजन कृषि में सालाना 3.0 प्रतिशत की दर से वृद्धि करनी होगी।
  • भारतीय किसानों को दो फसलों वाली भूमि के प्रतिशत को मौजूदा 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 53 प्रतिशत करना होगा। उच्च मूल्य वाली फसलों वाली भूमि में प्रति वर्ष 4.4 प्रतिशत की वृद्धि करनी होगी।
  • बाज़ार सुधार भी इस प्रकार करने होंगे जिनसे किसानों को वास्तविक अर्थों में आधार स्तर से 17 प्रतिशत अधिक मूल्य मिल सके। इसके लिये किसानों को मिलने वाले मूल्यों में प्रति वर्ष 2.26 प्रतिशत की वृद्धि करनी होगी। कुल मिलाकर, जोतदारों की कुल संख्या में प्रति वर्ष 2.4 प्रतिशत की कमी करनी होगी।
  • मधुमक्खी, पालन, जैसे संबद्ध क्रियाकलापों के अलावा कृषि भूमि पर वानिकी आदि से भी कृषि आय में वृद्धि हो सकती है।

विकास पहलें

  • विकास पहलों में बेहतर प्रौद्योगिकी और वेरायटी के माध्यम से तथा स्तरीय बीजों, सिंचाई, उर्वरक और कृषि रसायनों का उपयोग बढ़ाकर उत्पादकता में वृद्धि करना शामिल है।
  • फसल क्षेत्र के लिये इन परिवर्तियों के लक्षित स्तर को तालिका में दर्शाया गया है जो फसलों और पशुधन से किसानों की आय का लगभग 70 प्रतिशत है।

तालिका: किसानों की आय दुगुनी करने के लिये विकास पहलों के आधार स्तर और लक्ष्य

स्रोत आधार स्तर और वर्ष लक्ष्य 2022-23
स्तरीय बीज : मिलियन टन 3.03 (2014-15) 7.97
उर्वरक : मिलियन टन 25.58 (2014-15) 36.24
सिंचाई : मिलियन हेक्टेयर 92.58 (2012.13) 110.40
कृषि प्रयोजन के लिये बिजली : 000 GWH 147.48 (2012-13) 307.39
एक से अधिक फसल के अंतर्गत: प्रतिशत 40.00 (2012-13) 53.00
फलों और सब्जियों के अंतर्गत क्षेत्रफल : मिलियन हेक्टेयर 16.75 (2013-14) 26.38
उच्च उत्पादक किस्मों वाले क्षेत्रफल : : 69.3 (2014-15) 90.0


हरित क्रांति के 50 वर्ष के बाद भी अनाज की फसल वाले कुल क्षेत्रफल के केवल 69 प्रतिशत में उच्च उत्पादक किस्मों का उपयोग हो रहा है। चावल जैसी महत्त्वपूर्ण फसलों में देश के केवल 62 प्रतिशत क्षेत्रफल में उच्च उत्पादक किस्मों का उपयोग होता है- इसके बावजूद कि कुछ राज्य एचवाईवी के अंतर्गत 100 प्रतिशत कवरेज दर्शा रहे हैं। कम कवरेज वाले राज्यों में प्रमाणित बीज की बेहतर आपूर्ति के साथ पारंपरिक किस्मों वाले क्षेत्रो में उच्च उत्पादक किस्मों का उपयोग किया जा सकता है।

  • किसानों को आधुनिक इनपुट की खरीदारी और कृषि परिसंपत्तियों में निवेश करने में सक्षम बनाने के लिये सांस्थानिक ऋण एक अन्य महत्त्वपूर्ण इनपुट है। सांस्थानिक ऋण में उचित दर से बढ़ोत्तरी हो रही है किंतु कई राज्यों में ऋण सुविधा खराब होने और कुल ऋण में मियादी ऋण की हिस्सेदारी घटने जैसे मुद्दे हैं। इसका समाधान करने की आवश्यकता है।

पशुधन उत्पादकता


देश में पशुधन की उत्पादकता बेहद कम है। पशुधन उत्पादकता बढ़ाने के लिये नस्ल संवर्द्धन, बेहतर चारा और पोषाहार, पशु स्वास्थ्य तथा बेहतर झुंड समूहबद्धता आवश्यक है। विकास पहलों के लिहाज से 2022-23 तक निम्नांकित लक्ष्यों के सुझाव दिये जाते हैं:

  • भारत में दुधारू पशुओं और भैंसों में कृत्रिम गर्भधान बमुश्किल 35 प्रतिशत है। कृत्रिम गर्भाधान कम रहने का एक मुख्य कारण है- सीमेन स्ट्रॉ। कृत्रिम गर्भाधान को उचित स्तर तक पहुँचाने के लिये हमें 160 मिलियन सीमेंट स्ट्रॉ की आवश्यकता है जबकि उपलब्धता केवल 81 मिलियन की है।
  • फिलहाल गर्भाधान योग्य 4 मिलियन भैंसों, क्रॉसब्रीड वाले 1.3 मिलियन पशुओं और गर्भाधान योग्य 6 मिलियन स्वदेशी पशुओं का प्रजनन हुआ ही नहीं है। इनमें से कम-से-कम 2 मिलियन भैंसों, 0.8 मिलियन क्रॉसब्रीड और 3 मिलियन स्वदेशी पशुओं के मामले में प्रजनन के द्वारा इनकी संख्या 2020 तक और बढ़ जानी चाहिये।
  • 2020 तक भैंसों के युवा होने की उम्र को 3-4 महीने कम करना होगा। फिलहाल मुर्रा भैंसे लगभग 33 माह की उम्र में युवावस्था को प्रप्त करती हैं।

संवर्द्धित प्रौद्योगिकियों का सृजन और प्रसार

  • किसानों की आय को दोगुना करने के लिये बेहतर किस्मों, नस्लों, व्यवहारों, संवर्द्धित ज्ञान तथा नवप्रवर्तनों के माध्यम से इस क्षेत्र के लिये कुल कारक उत्पादकता में 3 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि करनी होगी जिसके लिये उत्पादकता में वृद्धि करना, इनपुट के प्रभावी उपभोग के माध्यम से उत्पादन की लागत को कम करना, अधिक मूल्य प्राप्त करने के लिये बेहतर उत्पाद स्तर आवश्यक है।
  • किस्मों, बीजों और कृषि रसायनों के अलावा अन्य प्रौद्योगिकियों- खासकर प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन संबंधी प्रौद्योगिकियों का अंगीकरण बहुत कम है। कृषि अनुसंधान में मुख्य बल उत्पादकता बढ़ाने, कृषि प्रचालनों के संरक्षण और दक्षता पर ही है।
  • विभिन्न प्रकार की सामाजिक-आर्थिक और जैव-भौतिक व्यवस्थाओं के लिये कृषि प्रणाली के प्रकारों का विकास करना चाहिये जिसमें कृषि आय पर बल दिया गया हो और सभी प्रौद्योगिकियाँ एक ही पैकेज में हों। इसके लिये प्रत्येक उप-प्रणाली और फसल क्रम, मिश्रित फसल, पशुधन, बागवानी, वानिकी जैसी अन्य उप-प्रणालियों के लिये उत्पादन, संरक्षण और फसल कटाई के बाद मूल्य संवर्द्धन संबंधी प्रौद्योगिकी और सर्वोत्तम व्यवहारों को साथ लाने की आवश्यकता है।

नीतियाँ और सुधार


भारतीय कृषि की संभाव्यता का उपयोग करने और किसानों की आय बढ़ाने की राह में सबसे बड़ी बाधा है- संगठित निजी क्षेत्र की कृषि में कम भागीदारी होना।

  • कृषि बाज़ार को उदार बनाने और प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाने के लिये कई सुधारों की पहचान की गई है। इसमें राज्यों में APMC अधिनियम में सुधार के लिये सांस्थानिक उपाय करना तथा विपणन में प्रौद्योगिकी का उपयोग बढ़ाना शामिल है।
  • अल्पकालिक सुधारों के लिये चिह्नित अन्य दो क्षेत्र हैं- भूमि पट्टे का उदारीकरण और पेड़ों की कटाई/आवाजाही तथा लकड़ी आधारित उद्योग पर लगे प्रतिबंधों में ढील।
  • कृषि और किसानों की आय को बढ़ाने के लिये विभिन्न प्रकार के अल्पकालिक सुधारों तथा परिवर्तनों की एक सूची तालिका में दी गई है।

A. कृषि विपणन: ई-नैम नामक एक नई पहल शुरू की गई है ताकि राज्य कृषि वस्तुओं के लिये ई-व्यापार मंचों को अपना सकें। इसमें इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म का उपयोग कर देश भर की APMC मंडियों का एकीकरण करना शामिल है।

तालिका : कृषि क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के सुधारों की सूची

1. सांस्थानिक सुधार : 1.1 से 1.7 तक के लिये प्रावधान करना
1.1 निजी मंडी
1.2 प्रत्यक्ष विपणन
1.3 अनुबंध कृषि
1.4 ई-ट्रेडिंग
1.5 एकल बिंदु लेवी
1.6 किसानों द्वारा उपभोक्ताओं को सीधी बिक्री
1.7 एकल व्यापारिक लाइसेंस
2. फलों और सब्जियों का विशेष प्रतिपादन : APMC से अनधिसूचित करना
3. ई-NAM में भागीदारी

B. भूमि पट्टा: नीति आयोग द्वारा प्रस्तावित मॉडल भूमि पट्टा कानून के आधार पर भूमि पट्टा कानून को अधिनियमित करना।

C. निजी भूमि पर वानिकी: वृक्षों की कटाई और ढुलाई पर लगे प्रतिबंधों को हटाना। पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार इमारती लकड़ी और काष्ठ आधारित उद्योग को अनुमति देना।

  • नीति आयोग एवं कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार कृषि सुधारों को लागू और कार्यान्वित करने और विपणन की पद्धति, भूमि पट्टा कानून और कृषि भूमि पर वानिकी में परिवर्तन लाने के लिये राज्यों को सहमत करने के लिये कार्य कर रहे हैं।

उत्पादकों के लिये मूल्य प्रोत्साहन


पिछले पाँच दशकों का अनुभव दर्शाता है कि कृषि विकास पर मूल्यों का गंभीर प्रभाव पड़ता है और वे किसानों की आय के महत्त्वपूर्ण निर्धारक हैं।

  • किसानों द्वारा प्राप्त किये जाने वाले मूल्यों पर सुधार का अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ने की स्थिति में फसल कटाई के मौसम में मूल्य MSP से नीचे नहीं गिरे, को सुनिश्चित करने के लिये सरकार को मूल्य हस्तक्षेप का विस्तार करना चाहिये।
  • इसका कार्यान्वयान प्रापण के माध्यम से या भरपाई मूल्य भुगतान प्रणाली के माध्यम से प्रत्यक्ष मूल्य हस्तक्षेप के माध्यम से होना चाहिये। भरपाई कीमत भुगतान के तहत उत्पादकों को उनके द्वारा बाज़ार में बेची गई उपज की मात्रा के लिये प्रतिनिधि बाज़ार में कृषि फसल मूल्यों और न्यूनतम समर्थन मूल्यों के बीच अंतर का भुगतान किया जाता है।

भरोसेमंद कृषि निवेश को प्रोत्साहन

आधुनिक प्रणालियों और पद्धतियों के उपयोग की दृष्टि से हमारी कृषि में पूंजी और ज्ञान की कमी रही है। आधुनिक फर्मों के साथ संविदा कृषि के किसानों को इनपुट और उन्नत प्रौद्योगिकी, कौशल अंतरण, गारंटीकृत और लाभकारी मूल्यों और भरोसेमंद बाज़ार तक पहुँच का प्रावधान करने में मदद मिलती है।

  • कृषि उत्पादन में आधुनिक ज्ञान और पूंजी के समावेशन में जोखिम को साझा करने, उपज के लिये आकर्षण बाज़ार उपलब्ध कराने तथा उच्च मूल्य उत्पादों में विविधीकरण के प्रोत्साहन के लिये निजी क्षेत्रक की भागीदारी की भूमिका को स्वीकार करते हुए वित्त मंत्री ने बजट 2017-18 के भाषण में उल्लेख किया कि संविदा कृषि पर एक आदर्श कानून तैयार किया जाएगा और अंगीकरण के लिये राज्यों में परिचालित किया जाएगा।
  • बजट भाषण में APMC में से शीघ्र खराब होने वाली कृषि जिन्सों को अनधिसूचित करने के लिये बाज़ार सुधारों पर भी ज़ोर दिया गया था।

मूल्य संवर्द्धन को प्रोत्साहन


अनौपचारिक या परंपरागत आपूर्ति शृंखलाएँ भारत में कृषि की विशेषताएँ हैं जो स्थानीय मध्यस्थ व्यक्तियों और उसके बाद लघु स्थानीय भंडारों को उत्पाद उपलब्ध कराती हैं। औपचारिक मूल्य संवर्द्धन उसी उत्पाद को सामान्यत: बेहतर अथवा अधिक समान गुणवत्ता में, अधिक वाणिज्यिक फर्मों- थोक विक्रेताओं, सुपर बाज़ारों या निर्यातकों को उपलब्ध करवा सकते हैं। लघु उत्पादकों को घरेलू और निर्यातोन्मुखी दोनों प्रकार के अधिक आधुनिक मूल्य संवर्धन में समेकित करने के लिये मार्ग खोजने की आवश्यकता है।

  • किसानों द्वारा उपज का अधिकांश भाग कच्चे माल के रूप में बेचा जाता है जो फसल कटाई के बाद खेतों से मंडी लाया जाता है। इससे बाज़ार में आधिक्य की स्थिति पैदा हो जाती है और कीमतें कम रह जाती हैं। किसान कमी के महीनों में बेचने के लिये उपज नहीं रखते हैं। अब भंडारगृह प्राप्ति और WDRA पंजीकृत भंडारगृहों में उपज को रखने के लिये प्रावधान है। इस सुविधा का लाभ कुछ किसान ही उठाते हैं।
  • शीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं के मामले में मूल्यों का एकदम नीचे आना आम बात है। कृषि भूमि पर स्थित भंडारण सुविधा की कमी, उत्पादों को अधिक समय तक सुरक्षित रखने के वैज्ञानिक तरीकों की कमी और देश में खराब प्रसंस्करण आधार, मूल्यों में एकदम कमी के कुछ कारकों में से है।
  • यदि बाज़ार सुधारों को गंभीरता से कार्यान्वित किया जाता है, तो यह एक बड़े पैमाने पर मूल्य संवर्द्धनों सहित कृषि में निजी क्षेत्रक के प्रवेश के लिये मार्ग प्रशस्त करेगा।

उत्पादकों के संगठनों को प्रोत्साहन

  • कृषि कार्य बहुत ही छोटे आकार की उत्पादन इकाइयों द्वारा किया जाता है जो छोटे आकार की कृषि जोतों पर कृषि करते हैं और उनके पास कुछ पशुधन होता है। ऐसी प्रचालनात्मक इकाइयाँ उनके छोटे आकार, खराब सौदेबाजी क्षमता और बाज़ार तक अपर्याप्त पहुँच के कारण अपने स्तर पर आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं होती हैं। ऐसे उत्पादकों को सामूहिक कार्य, संसाधनों के संग्रहण, समूह विपणन और फसल की कटाई उपरांत मूल्य वृद्धि कारण के लिये संस्थागत तंत्र की आवश्यकता है।
  • केंद्र के स्तर पर एसएफएसी और नाबार्ड देश में किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) को प्रोत्साहित कर रहे हैं। तथापि देश के आकार को ध्यान में रखते हुए एफपीओ के सृजन, पोषण और स्थापना में राज्य स्तरीय एजेंसियों को शामिल करने की आवश्यकता है।
  • अन्य व्यवसाय कंपनियों की तरह कृषि व्यवसाय संबंधी कार्यकलाप शुरू करने के लिये किसान उत्पादक कंपनियाँ (FPC) के गठन को सुसाध्य बनाने के लिये कानूनों में प्रावधान सृजित किये गए हैं।

उत्पादन को प्रसंस्करण से जोड़ना

  • खाद्य प्रसंस्करण उद्योग अन्य उद्योगों की तुलना में अधिक श्रम गहनता वाला उद्योग है। ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य प्रसंस्करण केा बढ़ावा देना रोज़गार सृजन और कार्यबल का कृषि से उद्योग की ओर स्थानांतरण करने में सहायता प्रदान करेगा।
  • किसानों की आय को दोगुना करने के लिये विभिन्न पहलों की आवश्यकता है जिनमें केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और राज्यों की सक्रिय और समन्वित भागीदारी अपेक्षित है। कृषि सहकारिता और किसान कल्याण मंत्रालय को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिये, इस लक्ष्य के लिये महत्त्वपूर्ण अन्य क्षेत्र जल संसाधन, खाद्य प्रसंस्करण, उर्वरक, उधार, अवसंरचना और ग्रामीण विकास से संबंधित हैं। किसानों की आय दोगुना करने संबंधी सफलता मुख्यताय राज्यों और संघ राज्य-क्षेत्रों की कार्रवाई और उनकी सहभागिता पर निर्भर करेगी।

आगे की राह

  • किसानों की आय का निम्न स्तर और इसमें प्रतिवर्ष उतार-चढ़ाव कृषि संबंधी संकट का एक प्रमुख कारण है। किसानों की आय का तरंतर निम्न स्तर देश में कृषि के भविष्य पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव का कारण भी बन सकता है।
  • कृषि के भविष्य को सुरक्षित करने और भारत की जनसंख्या के आधे भाग की आजीविका सुधार के लिये किसानों के कल्याण में सुधार और कृषि आय में वृद्धि की ओर पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • इस लक्ष्य की प्राप्ति से कृषि और गैर-कृषि आय के मध्य स्थायी असमानता कम होगी, कृषि संबंधी संकट घटेंगे, समावेशी विकास को प्रोत्साहन मिलेगा और कृषि क्षेत्रक में गतिशीलता का समावेश होगा।

निष्कर्ष

  • 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना निश्चय ही चुनौतिपूर्ण है लेकिन इसकी आवश्यकता है और यह प्राप्य है। किसानों की आय को दोगुना करने के लिये कृषि क्षेत्र में (1) विकास पहलों (2) प्रौद्योगिकी और (3) नीतिगत सुधारों पर केंद्रित तीन सूत्री कार्यनीतियों की आवश्यकता है।
  • लक्ष्य को हासिल करने के लिये उत्पादन को बढ़ाने वाले संसाधनों की वृद्धि दरों में 33 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करने की आवश्यकता है। देश में गुणवत्ता युक्त बीज, उर्वरक के उपयोग और कृषि क्षेत्र में बिजली की आपूर्ति में क्रमश: 12.8, 4.4 और 7.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ोतरी करने की आवश्यकता है।
  • सिंचित क्षेत्र में 1.78 मिलियन हेक्टेयर का विस्तार और दोहरी फसल वाले क्षेत्र में 1.85 मिलियन हेक्टेयर की बढ़ोतरी प्रति वर्ष की जानी चाहिये। इसके अतिरिक्त, फलों और सब्जियों के उत्पादन वाले क्षेत्र में 5 प्रतिवर्ष वृद्धि की जाने की आवश्यकता है।
  • पशुधन के संबंध में पशुओं की गुणवत्ता में सुधार, बेहतर चारा, कृत्रिम गर्भाधान में बढ़ोतरी, बच्चे देने के अंतराल में कमी, पहली बार बच्चा देने की आयु में कमी करना वृद्धि के संभावित स्रोत हैं।
  • ICAR और प्रदेशों के कृषि विश्वविद्यालयों को कृषि आय पर ध्यान देते हुए एक पैकेज में उनकी सभी प्रौद्योगिकियों को शामिल कर विभिन्न प्रकार की समाजार्थिक और जैव भौतिक परिस्थितियों के लिये कृषि प्रणाली के प्रतिरूप विकसित करने चाहिये। इसमें अन्य उप-प्रणालियों जैसे फसल क्रम, फल मिश्रण, पशुधन, बागवानी, वानिकी के साथ सभी उप-प्रणालियों के लिये उत्पादन, संरक्षण और फसल कटाई उपरांत मूल्यवर्धन को कवर करते हुए प्रौद्योगिकी और उत्तम पद्धतियाँ शामिल होंगी।
  • किसानों की आय में लगभग एक तिहाई वृद्धि बेहतर कीमत प्राप्ति, फसल कटाई उपरांत कुशल प्रबंधन, प्रतिस्पर्द्धात्मक मूल्य संवर्धन और संबद्ध कार्यकलापों को अपनाने के माध्यम से सरलता से प्राप्य है। इसके लिये बाज़ार में व्यापक सुधार, भूमि पट्टा और निजी भूमि पर वृक्षारोपण की आवश्यकता है।
  • आधुनिक पूंजी और आधुनिक ज्ञान के अभाव में कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। उत्पादन और बाज़ार में उत्तरदायित्वपूर्ण निजी निवेश को आकर्षित करने के लिये कृषि केा उदार बनाने की आवश्यकता है।
  • प्रतिस्पर्द्धात्मक बाज़ार या सरकारी हस्तक्षेप के माध्यम से कृषि उत्पादन के लिये MSP सुनिश्चित करने मात्र से ही बहुत से राज्यों में किसानों की आय में काफी वृद्धि होगी।
  • कृषि के लिये अधिकांश विकासात्मक पहलें और नीतियाँ राजयों द्वारा कार्यान्वित की जाती हैं। राज्य सिंचाई जैसे बहुत से विकासात्मक कार्यकलापों पर केंद्र द्वारा परिव्यय की तुलना में बहुत अधिक निवेश करते हैं। बाज़ार और भूमि पट्टा से संबंधित विभिन्न सुधारों की प्रगति भी राज्यों का विषय है। इसलिये किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य को अपनाने और उसे हासिल करने के लिये राज्यों और संघ राज्य-क्षेत्रों को संघटित करना अनिवार्य है।
  • यदि केंद्र और सभी राज्यों और संघ राज्य-क्षेत्रों द्वारा संगठित और अच्छी तरह से समन्वित प्रयास किये जाते हैं तो देश वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य हासिल कर सकता है।
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