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डेली न्यूज़

  • 20 Apr, 2021
  • 40 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में पाकिस्तान में दक्षिणी पंजाब के चोलिस्तान के एक संरक्षित क्षेत्र में शिकारियों के एक समूह ने दो ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustards- GIBs) की गोली मारकर हत्या कर दी।Indian-Bustard

प्रमुख बिंदु:

  • ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB), राजस्थान का राज्य पक्षी है और भारत का सबसे गंभीर रूप से लुप्तप्राय पक्षी माना जाता है।
  • यह घास के मैदान की  प्रमुख प्रजाति मानी जाती है, जो चरागाह पारिस्थितिकी का प्रतिनिधित्व करती है।
  • इसकी अधिकतम आबादी राजस्थान और गुजरात तक ही सीमित है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में यह प्रजाति कम संख्या में पाई जाती है।
  • विद्युत लाइनों से टकराव/इलेक्ट्रोक्यूशन, शिकार (अभी भी पाकिस्तान में प्रचलित), आवास का नुकसान और व्यापक कृषि विस्तार आदि के परिणामस्वरूप यह पक्षी खतरे में है।

सुरक्षा की स्थिति:

भारत की चिंताएँ:

  • चोलिस्तान रेगिस्तान, जहाँ  GIBs मारे गए, की आवासीय विशेषताएँ राजस्थान के ‘डेज़र्ट नेशनल पार्क’ (Desert National Park) के समान हैं, यहाँ GIB’s की बची हुई जनसंख्या पाई जाती है।
    • DNP जैसलमेर और बाड़मेर के शहरों के पास स्थित है,
    • यह  थार मरुस्थल का एक हिस्सा है।
    • इसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के निवास स्थान की सुरक्षा के लिये वर्ष 1981 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था।
  • राजस्थान पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रांतों के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमा साझा करता है, ये पक्षी वहाँ बंदूकधारी शिकारियों के लिये एक आसान शिकार बन जाते हैं।
  • इस दुर्लभ पक्षी के शिकार से न केवल भारत में GIB की आबादी कम होगी, बल्कि मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित होगा।

सरकार की पहलें:

  • इसे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के वन्यजीव आवासों के एकीकृत विकास कार्यक्रम के अंतर्गत ‘प्रजातियों की रिकवरी कार्यक्रम’ के तहत रखा गया है।
  • MoEFCC ने 'इंडियन हैबिटेट इंप्रूवमेंट एंड कंज़र्वेशन ब्रीडिंग ऑफ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड-एन इंटीग्रेटेड अप्रोच' नामक एक कार्यक्रम भी शुरू किया है।
    • इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रेट इंडियन बस्टर्ड्स की आबादी को बढ़ाना और इसके लिये जंगल में इनके बच्चों (Chicks) को मुक्त करना है।
  • राजस्थान सरकार ने इस प्रजाति के प्रजनन बाड़ों के निर्माण और उनके आवासों पर मानव दबाव को कम करने के लिये एवं बुनियादी ढाँचे के विकास के उद्देश्य से ‘प्रोजेक्ट ग्रेट इंडियन बस्टर्ड ’लॉन्च किया है।

स्रोत- द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

विदेशज़ पशु

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र को निर्देश दिया कि वह उन विदेशी पशुओं को संरक्षण के लिये नियमों का निर्माण करे जो वर्तमान में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के दायरे में नहीं आते हैं।

  • अदालत का यह आदेश जीव अधिकार समूह, पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (PETA) इंडिया द्वारा उत्तर प्रदेश के एशियाड सर्कस से बचाए गए एक नर दरियाई घोड़े (hippopotamus) की स्थिति के बारे में दायर याचिका के जवाब में आया।
  • इससे पूर्व जून 2020 में ‘ पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ (MoEFCC) ने विदेशज़ जानवरों के आयात को विनियमित करने के संबंध में एक एडवाइज़री जारी की है।

प्रमुख बिंदु:

विदेशज़ जीव 

  • विदेशज़ शब्द की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं है, लेकिन आमतौर पर यह एक ऐसा पालतू जानवर है जिसे रखना अपेक्षाकृत दुर्लभ या असामान्य है, या आमतौर पर एक ऐसा पालतू जानवर (बिल्ली और कुत्ता) जिसे एक जंगली प्रजाति के रूप में  रखा जा सकता है
  • ये प्रजातियाँ सामान्यत: उनकी प्राकृतिक भौगोलिक सीमा के बाहर के क्षेत्रों में पाई जाती हैं जिसका स्थानांतरण मानव द्वारा किसी अन्य क्षेत्र में किया जाता है ।

पशुओं  के अवैध व्यापार से संबंधित प्रावधान:

  • सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 111 के अंतर्गत वन्य जीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन (CITES) और भारत की विदेश व्यापार नीति (आयात-निर्यात नीति) के साथ मिलकर अवैध पशुओं को संरक्षित किया जा रहा है।
    • CITES (वन्यजीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन) सरकारों के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जंगली जानवरों और पौधों की प्रजातियों का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार उनके अस्तित्व के लिये खतरा नहीं है। यह समझौता 1 जुलाई, 1975 से लागू है लेकिन भारत इस समझौते के लागू होने के लगभग एक साल बाद 18 अक्तूबर, 1976 को इसमें शामिल हुआ और इस समझौते में शामिल होने वाला 25वाँ सदस्य बना।
  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की धारा 48 और 49 जंगली जानवरों के  मांस, खाल या अन्य अंगों के व्यापार या वाणिज्य पर रोक लगाती हैं।

दरियाई घोड़ा (Hippopotamus)

Hippopotamus

परिचय:

  • हिप्पोपोटामस, जिसे हिप्पो या  "वाटर हॉर्स" यानी "जल का घोड़ा" भी कहा जाता है, एक उभयचर अफ्रीकी स्तनधारी प्राणी है।
  • इसे दूसरा सबसे बड़ा स्थलीय पशु (हाथी के बाद) माना जाता है ।
  • हिप्पो की शारीरिक बनावट जलीय जीवन के लिये अनुकूल है। इसके कान, आँख और नासिका जल के ऊपर दिखाई देते जबकि शरीर के बाकी हिस्से जल में डूबे रहते है । 
  • हिप्पोपोटामस 18वीं शताब्दी में उत्तरी अफ्रीका में और 19वीं  शताब्दी में दक्षिण अफ्रीका के नटाल और ट्रांसवाल प्रांत से विलुप्त हो चुके थे। पूर्वी अफ्रीका में अभी भी वे सामान्य रूप से पाए जाते हैं, लेकिन उनकी आबादी में लगातार कमी जारी है

वैज्ञानिक नाम: 

  • हिप्पोपोटामस एम्फीबियस(Hippopotamus amphibius)

खतरा:

  • मानव-वन्यजीव संघर्ष और आवासीय अतिक्रमण।
  • उनके अक्सर संरक्षण की आड़ में  मांस, वसा और दांतों के लिये मारा जाता है। 

संरक्षण की स्थिति:

स्रोत- डाउन टू अर्थ


भारतीय विरासत और संस्कृति

लिंगराज मंदिर

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में लिंगराज मंदिर (Lingaraj Temple) के चार सेवादारों की कोरोना रिपोर्ट पॉज़िटिव आने के बाद ओडिशा सरकार द्वारा मंदिर में श्रद्धालुओं के सार्वजनिक प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।

  • अगस्त 2020 में सरकार द्वारा लिंगराज मंदिर को 350 वर्ष पूर्व वाली संरचनात्मक स्थिति प्रदान करने की घोषणा की गई थी।

प्रमुख बिंदु:

Temple

  • 11वीं शताब्दी में निर्मित लिंगराज मंदिर, भगवान शिव को समर्पित मंदिर है इसे  भुवनेश्वर (ओडिशा) शहर का सबसे बड़ा मंदिर माना जाता है।
  • ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण सोमवंशी राजा ययाति प्रथम (Yayati I) ने करवाया था।
  • यह लाल पत्थर से निर्मित है जो कलिंग शैली की वास्तुकला (Kalinga style of Architecture) का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • मंदिर को चार वर्गों में विभाजित किया गया है -  
    • विमान (गर्भगृह युक्त संरचना)
    •  यज्ञ शाला (प्रार्थना के लिये हॉल)
    • भोग मंडप (प्रसाद हेतु हॉल) 
    • नाट्य शाला (नृत्य के लिये हॉल)।
  • विशाल परिसर में फैले इस मंदिर में  150 सहायक मंदिर हैं। 
  • लिंगराज को 'स्वयंभू' (Swayambhu) मंदिर के रूप में जाना जाता है अर्थात् जहाँ शिवलिंग की स्थापना किसी के द्वारा नहीं की गई बल्कि यह स्वत: स्थापित होता है।
  • मंदिर का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि यह ओडिशा में शैव और वैष्णववाद संप्रदायों के समन्वय का प्रतीक है।
    • इसका एक कारण शायद यह हो सकता है कि भगवान जगन्नाथ (भगवान विष्णु का एक अवतार) और लिंगराज मंदिर दोनों का विकास एक ही समय पर हुआ है।
    • मंदिर में मौजूद देवता को हरि-हारा ( Hari-Hara) के नाम से जाना जाता है जिसमे हरि का अर्थ भगवान विष्णु और हारा का अर्थ है भगवान शिव।
  • मंदिर में गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है 
  • मंदिर का अन्य आकर्षण बिंदुसागर झील (Bindusagar Lake) है, जो मंदिर के उत्तर दिशा में स्थित है।
  • बिंदुसागर झील के पश्चिमी तट पर एकाराम वन नाम का बगीचा स्थिति है। बाद में हिंदू पौराणिक ग्रंथों में भुवनेश्वर की राजधानी ओडिशा को एकामरा वन (Ekamra Van) या आम के पेड़ के वन ( Forest of a Single Mango Tree) के  रूप में संदर्भित किया गया था।
  • ओडिशा में अन्य महत्त्वपूर्ण  स्मारक:

कलिंग वास्तुकला:

कलिंग वास्तुकला के बारे में:  

  • भारतीय मंदिरों को मोटे तौर पर नागर (Nagara), बेसर (Vesara), द्रविड़ (Dravida) और वास्तुकला की गदग (Gadag) शैलियों में विभाजित किया गया है।
  • हालांँकि ओडिशा की मंदिर वास्तुकला अपने अद्वितीय प्रतिनिधित्व के कारण पूरी तरह से एक अलग श्रेणी से मेल खाती है जिसे मंदिर वास्तुकला की कलिंग शैली (Kalinga style) कहा जाता है।
  • मोटे तौर पर यह शैली नागर शैली के अंतर्गत आती है।

वास्तुकला:

  • कलिंग वास्तुकला में, मूल रूप से एक मंदिर दो भागों में बना होता है, पहला शिखर (Tower) और दूसरा,  गर्भगृह (Hall)। शिखर को देउल (Deula ) तथा गर्भगृह को जगमोहन (Jagmohan) कहा जाता है।
  • देउल  और जगमोहन की दीवारें पर भव्य रूप में  वास्तुशिल्प रूपांकनों और आकृतियों को बनाया जाता है।
  • सर्वाधिक एवं बार-बार बनाई जाने वाला आकृति घोड़े की नाल के आकार (Horseshoe Shape) की है, जो कि आदिकाल से प्रचलित है  तथा जिसे  चैत्य-गृह की बड़ी खिड़कियों से बनाना शुरू किया जाता है।
  • देउल शैली का प्रयोग कर कलिंग वास्तुकला में तीन विभिन्न प्रकार के मंदिरों का निर्माण किया गया है: 
    • रेखा देउल (Rekha Deula)।
    • पिढा देउल (Pidha Deula)।
    • खाखरा देउल (Khakhara Deula)।
  • प्रथम दो (रेखा देउल, पिढा देउल) का संबंध विष्णु, सूर्य और शिव के मंदिरों से है,   जबकि तीसरा (खाखरा देउल) मुख्य रूप से चामुंडा और दुर्गा मंदिरों के संबंधित है।
  • रेखा देउल, पिढा देउल का प्रयोग गर्भगृह में किया जाता है जबकि खाखरा देउल का प्रयोग नाट्यशाला और भोग मंडप में देखा जाता है।

Kalinga-architecture

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

बैकाल-GVD टेलीस्कोप

चर्चा में क्यों?

रूसी वैज्ञानिकों ने साइबेरिया में स्थित दुनिया की सबसे गहरी झील, बैकाल में ‘बैकाल-GVD (गीगाटन वॉल्यूम डिटेक्टर) नामक दुनिया का सबसे बड़ा ‘अंडरवाटर न्यूट्रिनो टेलीस्कोप’ लॉन्च किया है।

  • इस टेलीस्कोप का निर्माण वर्ष 2016 में इसलिये शुरू किया गया था ताकि न्यूट्रिनो नामक रहस्यमयी मूलभूत कणों का विस्तार से अध्ययन किया जा सके और उनके संभावित स्रोतों का निर्धारण किया जा सके।

Lake-Baikal

प्रमुख बिंदु:

बैकाल-GVD टेलीस्कोप:

  • यह दक्षिणी ध्रुव में स्थित IceCube और भूमध्य सागर में स्थित ANTARES के साथ दुनिया के तीन सबसे बड़े न्यूट्रिनो डिटेक्टरों में से एक है।
  • GVD को उच्च-ऊर्जा न्यूट्रिनो का पता लगाने के लिये डिज़ाइन किया गया है जो कि पृथ्वी के कोर से या सूर्य में परमाणु प्रतिक्रियाओं के दौरान उत्पन्न हो सकते हैं।
  • यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति को समझने में वैज्ञानिकों की मदद करेगा क्योंकि बिग-बैंग के दौरान कुछ न्यूट्रिनों का गठन हुआ था, वहीं सुपरनोवा विस्फोटों के परिणामस्वरूप या सूर्य में परमाणु प्रतिक्रियाओं के कारण भी कुछ न्यूट्रिनो का निर्माण हो रहा है।

मूलभूत कण:

  • ब्रह्मांड कुछ मूलभूत कणों से बना है जो अविभाज्य हैं। इन कणों को क्वार्क और लेप्टान में वर्गीकृत किया जा सकता है।
    • वैज्ञानिकों के अनुसार, यह बात केवल "सामान्य पदार्थ" या उस पदार्थ पर लागू होती है, जिससे ब्रह्मांड का 5% हिस्सा बना है।
  • इस तरह के 12 से अधिक क्वार्क और लेप्टान की खोज हुई है, लेकिन इनमें से तीन (प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन) जीवन के निर्माण खंड के रूप में उल्लिखित हैं।
  • प्रोटॉन (धनात्मक आवेश को वहन करते हैं) और न्यूट्रॉन (उदासीन) क्वार्क के प्रकार हैं, जबकि इलेक्ट्रॉन (एक ऋणात्मक आवेश को वहन करते हैं) लेप्टान का प्रकार है। 
  • अलग-अलग संयोजनों में ये कण विभिन्न प्रकार के परमाणुओं का निर्माण कर सकते हैं, जो बदले में ऐसे अणु बनाते हैं, जो एक इंसान से लेकर मोबाइल फोन, एक ग्रह और सभी वस्तुओं का निर्माण करते हैं।
  • मनुष्यों और उनके आस-पास की सभी चीज़ों का अध्ययन वैज्ञानिकों को ब्रह्मांड को बेहतर तरीके से समझने के लिये एक तरीका उपलब्ध कराता है।

न्यूट्रिनो:

  • न्यूट्रिनो (न्यूट्रॉन के समान नहीं) भी एक प्रकार का मूलभूत कण है।
  • न्यूट्रिनो लेप्टान नामक कणों के परिवार से संबंधित हैं, और तीन प्रकार के न्यूट्रिनो, अर्थात् इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो, म्यूऑन-न्यूट्रिनो और टाउ-न्यूट्रिनो हैं।
  • वे फोटॉन के बाद दूसरे सबसे अतिशय कण हैं, जो प्रकाश के कण हैं।
  • हालाँकि इन्हें पहचानना आसान नहीं है, इसका कारण यह है कि वे आवेशित नहीं होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे किसी पदार्थ के साथ अभिक्रिया नहीं करते हैं।
  • न्यूट्रिनो के प्राकृतिक स्रोतों में पृथ्वी के भीतर मूल तत्त्वों का रेडियोधर्मी क्षय, सूर्य की रेडियोधर्मिता, वायुमंडल में ब्रह्मांडीय अंतर्क्रिया और अन्य शामिल हैं।
  • न्यूट्रिनों का पता लगाने का एक तरीका पानी या बर्फ है, जहाँ न्यूट्रिनो अभिक्रिया करते समय प्रकाश की चमक या बुलबुले की एक रेखा छोड़ देते हैं। इन संकेतों को पकड़ने के लिये वैज्ञानिकों को बड़े डिटेक्टरों का निर्माण करना होगा।

बिग-बैंग मॉडल:

  • यह ब्रह्मांड के विकास का एक व्यापक सिद्धांत है।
  • इसके अनुसार ब्रह्मांड का निर्माण तथाकथित बड़े विस्फोट के माध्यम से जो कि 13.8 बिलियन वर्ष पहले हुआ था, के कारण उत्पन्न अत्यधिक उच्च तापमान और घनत्व से हुआ था।

सुपरनोवा:

  • सुपरनोवा एक शक्तिशाली और चमकदार तारकीय विस्फोट है। 
  • यह खगोलीय घटना किसी बड़े तारे के अंतिम विकास चरणों के दौरान या जब एक ‘व्हाइट ड्वार्फ’ परमाणु संलयन अभिक्रिया में भाग लेता है, के दौरान घटित होती है।

क्वार्क:

  • क्वार्क पदार्थ का एक मूलभूत घटक है और इसे एक प्राथमिक कण के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • क्वार्क्स हैड्रॉन नामक मिश्रित कणों का उत्पादन करने के लिये अभिक्रिया करते हैं, जिनमें से सबसे स्थिर न्यूट्रॉन और प्रोटॉन हैं जो परमाणु नाभिक के घटक भी हैं।

लेप्टान

  • लेप्टान, उप-परमाणु कणों के एक वर्ग का कोई भी सदस्य हो सकता है जो केवल विद्युत चुंबकीय बल, दुर्बल बल और गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध प्रतिक्रिया करता है।
  • वे मज़बूत बल से प्रभावित नहीं होते हैं।
  • लेप्टान को प्राथमिक कण कहा जाता है; यह या तो इलेक्ट्रिक चार्ज की एक इकाई वहन कर सकता है या उदासीन हो सकता है।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

हॉट स्प्रिंग्स और गोगरा पोस्ट छोड़ने से चीन का इनकार

fचर्चा में क्यों?

हाल ही में पूर्वी लद्दाख में गतिरोध को हल करने के लिये भारत और चीन के वरिष्ठ सैन्य कमांडरों के बीच 11वें दौर की चर्चा के दौरान चीन ने चार मूल संघर्ष बिंदुओं में से दो से हटने से इनकार कर दिया।

  • चीन हॉट स्प्रिंग्स (Hot Springs) में पेट्रोलिंग पॉइंट 15 (PP15) और गोगरा पोस्ट (Gogra Post) के पास पेट्रोलिंग पॉइंट PP17A दोनों बिंदुओं पर सैन्य वाहनों के साथ-साथ बड़ी संख्या में सैनिक मौजूद हैं।
  • अन्य दो संघर्ष बिंदु गलवान घाटी (Galwan Valley) और देपसांग मैदान (Depsang Plains) में हैं।

PP14

प्रमुख बिंदु

पेट्रोलिंग पॉइंट 15 और 17A:

  • भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (Line of Actual Control) के साथ भारतीय सेना को कुछ निश्चित स्थान दिये गए हैं, जहाँ उसके सैनिकों की पहुँच अपने नियंत्रण वाले क्षेत्र में है।
  • इन बिंदुओं को पेट्रोलिंग पॉइंट्स या PPs के रूप में जाना जाता है, जो चीनी अध्ययन समूह (China Study Group) द्वारा तय किये जाते हैं।
    • CSG की स्थापना वर्ष 1976 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काल में हुई थी। यह चीन की निर्णय लेने वाली शीर्ष संस्था है।
  • ये पेट्रोलिंग पॉइंट्स देपसांग मैदान जैसे कुछ क्षेत्रों को छोड़कर LAC पर हैं और सैनिक इन पॉइंट्स का उपयोग क्षेत्र पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिये करते हैं।
    • यह एक महत्त्वपूर्ण काम है क्योंकि भारत और चीन के बीच सीमा अभी तक आधिकारिक रूप से सीमांकन नहीं हुआ है।
    • LAC भारतीय-नियंत्रित क्षेत्र को चीनी-नियंत्रित क्षेत्र से अलग करता है।
  •  LAC से लगे लद्दाख क्षेत्र के 65 पेट्रोलिंग पॉइंट्स में से दो PP15 और PP17A हैं।
    • ये दोनों पॉइंट एक ऐसे क्षेत्र में हैं जहाँ भारत और चीन बड़े पैमाने पर LAC के संरेखण पर सहमत हैं।
  • PP15 हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्र में और PP17A गोगरा पोस्ट के पास है।

हॉट स्प्रिंग्स और गोगरा पोस्ट की अवस्थिति:

  • हॉट स्प्रिंग्स चांग चेनमो (Chang Chenmo) नदी के उत्तर में है और गोगरा पोस्ट इस नदी के गलवान घाटी से दक्षिण-पूर्व दिशा से दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़ने पर बने हेयरपिन मोड़ (Hairpin Bend) के पूर्व में है।
  • यह क्षेत्र काराकोरम श्रेणी (Karakoram Range) के उत्तर में है जो पैंगोंग त्सो (Pangong Tso) झील के उत्तर में और गलवान घाटी के दक्षिण में स्थित है।

महत्त्व:

  • भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा का दावा पूर्व की ओर अधिक है, क्योंकि इसमें पूरा अक्साई चिन (Aksai Chin) का क्षेत्र भी शामिल है।
    • यह क्षेत्र कोंग्का दर्रे (Kongka Pass) के पास है जो चीन के अनुसार भारत और चीन के बीच की सीमा को चिह्नित करता है।
  • हॉट स्प्रिंग्स और गोगरा पोस्ट, चीन के दो सबसे अशांत प्रांतों (शिनजियांग और तिब्बत) की सीमा के करीब हैं।

पैंगोंग त्सो झील

  • पैंगोंग झील केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में स्थित है।
  • यह लगभग 4,350 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, जो विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित खारे पानी की झील है।
  • लगभग 160 किमी. क्षेत्र में फैली पैंगोंग झील का एक-तिहाई हिस्सा भारत में है और दो-तिहाई हिस्सा चीन में है।

गलवान घाटी

  • गलवान घाटी सामान्यतः उस भूमि को संदर्भित करती है, जो गलवान नदी (Galwan River) के पास मौजूद पहाड़ियों के बीच स्थित है।
  • गलवान नदी का स्रोत चीन की ओर अक्साई चिन में मौजूद है और आगे चलकर यह भारत की श्योक नदी (Shyok River) में मिलती है।
  • ध्यातव्य है कि यह घाटी पश्चिम में लद्दाख और पूर्व में अक्साई चिन के बीच स्थित है, जिसके कारण यह रणनीतिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण है।

चांग चेनमो नदी

  • यह श्योक नदी की सहायक नदी है, जो सिंधु नदी (Indus River) प्रणाली का हिस्सा है।
  • यह विवादित अक्साई चिन क्षेत्र के दक्षिणी किनारे पर और पैंगोंग झील बेसिन के उत्तर में स्थित है।
  • चांग चेनमो का स्रोत लनक दर्रे (Lanak Pass) के पास है।

कोंग्का दर्रा

  • कोंग्का दर्रा या कोंग्का ला एक पहाड़ी दर्रा है, जिससे चांग चेनमो घाटी में प्रवेश किया जाता है। यह लद्दाख में विवादित भारत-चीन सीमा क्षेत्र में है।

काराकोरम श्रेणी

  • इसे कृष्णगिरि के नाम से भी जाना जाता है जो ट्रांस-हिमालय पर्वतमाला की सबसे उत्तरी श्रेणी में स्थित है। यह अफगानिस्तान और चीन के साथ भारत की सीमा बनाती है।
  • यह पामीर से पूर्व की ओर लगभग 800 किमी. तक फैली हुई है। यह ऊँची चोटियों [5,500 मीटर और उससे अधिक ऊँचाई] के साथ एक सीमा है।
  • कुछ चोटियाँ समुद्र तल से 8,000 मीटर से अधिक ऊँची हैं। इस श्रेणी में पृथ्वी की कई शीर्ष चोटियाँ स्थित हैं जैसे- K2, जिसकी ऊँचाई 8,611 मीटर है तथा जो विश्व की दूसरी सबसे ऊँची चोटी है।
  • लद्दाख पठार काराकोरम श्रेणी के उत्तर-पूर्व में स्थित है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

आदित्य-एल 1 के लिये समर्थन केंद्र

चर्चा में क्यों?

आदित्य-एल 1 मिशन के लिये समर्थन केंद्र की सुविधा आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ऑब्ज़र्वेशनल साइंसेज़ (ARIES) द्वारा दी जाएगी, इसकी शुरुआत अगले वर्ष (2022) की जानी है।

  • ARIES विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान है, जो नैनीताल (उत्तराखंड) में स्थित है।

प्रमुख बिंदु:

आदित्य- एल 1 मिशन के बारे में :

  • यह सूर्य का अध्ययन करने वाला भारत का पहला वैज्ञानिक अभियान है। यह एस्ट्रोसैट के बाद आदित्य एल-1 इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) का दूसरा अंतरिक्ष-आधारित खगोल विज्ञान मिशन है जिसे 2015 में शुरु किया गया था।
  • ISRO ने आदित्य L-1 को 400 किलो-वर्ग के उपग्रह के रूप में वर्गीकृत किया है जिसे ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान- XL (PSLV- XL) विन्यास से लॉन्च किया गया था।
    • ध्यातव्य है कि आदित्य एल-1 को सूर्य एवं पृथ्वी के बीच स्थित एक हेलो आर्बिट के चारों तरफ एल-1 ‘लैग्रेंज बिंदु के निकट स्थापित किया गया है जो पृथ्वी से 1.5 मिलियन किमी. दूर है।
  • इस मिशन के अंतर्गत अंतरिक्ष-आधारित वेधशाला में सूर्य के कोरोना, सौर उत्सर्जन, सौर हवाओं और फ्लेयर्स तथा कोरोनल मास इजेक्शन (CME) का अध्ययन करने के लिये बोर्ड पर 7 पेलोड (उपकरण) होंगे और यह सूर्य की चौबीसों घंटे इमेजिंग का संचालन करेगा।

आदित्य-एल 1 समर्थन केंद्र (ASC):

  • इस केंद्र का मुख्य उद्देश्य भारत के प्रत्येक शोधकर्त्ता द्वारा आदित्य-एल 1 से ज्ञात वैज्ञानिक आँकड़ों की जाँच करना है। यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के आदित्य-एल 1 की दृश्यता का विस्तार करेगा।
  • यह सौर सतह के केंद्र पर विभिन्न विशेषताओं जैसे- कोरोनल छिद्र, सौर उत्सर्जन, सौर पवनों और फ्लेयर्स तथा कोरोनल मास इजेक्शन और सौर कलंक  के स्थान और अवधि की एक संगोष्ठी की मेज़बानी करेगा।
    •  इन सुविधाओं के स्थान और अवधि की निरंतर निगरानी कोरोनल मास इजेक्शन और इस तरह की अंतरिक्ष मौसम की निगरानी पृथ्वी को निर्देशित करने में मदद करेगी। 

मिशन की चुनौतियाँ

  • पृथ्वी से सूर्य की दूरी चंद्रमा से लगभग 3.84 लाख किमी.की तुलना में औसतन लगभग 15 करोड़ किमी. है । यह विशाल दूरी एक वैज्ञानिक चुनौती है।
  • आदित्य एल 1 में कुछ संचालित घटक होंगे जो टकराव के जोखिमों को बढ़ाते हैं।
    • इसके अतिरिक्त इसरो के पहले के मिशनों में पेलोड अंतरिक्ष में स्थिर रहते थे 
  • साथ ही सौर वातावरण में अत्यधिक तापमान एवं विकिरण भी महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं। 
    • हालाँकि आदित्य एल 1 सूर्य से बहुत दूर स्थित होगा अत: उपग्रह के पेलोड (Payload) /उपकरणों के लिये अत्यधिक तापमान चिंता का विषय नहीं है। 

सूर्य के अध्ययन का महत्त्व:

  • पृथ्वी सहित हर ग्रह और सौरमंडल से परे एक्सोप्लैनेट्स विकसित होते हैं और यह विकास इसके मूल तारे द्वारा नियंत्रित होता है। 
  • सौर मौसम और वातावरण जो सूरज के अंदर और आसपास होने वाली प्रक्रियाओं से निर्धारित होता है, पूरे सोलर सिस्टम को प्रभावित करता है।
    • सोलर सिस्टम पर पड़ने वाले प्रभाव उपग्रह की कक्षाओं को बदल सकते हैं या उनके जीवन को बाधित कर सकते हैं या पृथ्वी पर इलेक्ट्रॉनिक संचार को बाधित कर सकते हैं या अन्य गड़बड़ी पैदा कर सकते हैं। इसलिये अंतरिक्ष के मौसम को समझने के लिये सौर घटनाओं का ज्ञान होना महत्त्वपूर्ण है।
  • पृथ्वी पर आने वाले तूफानों के बारे में जानने एवं उन्हें ट्रैक करने तथा उनके प्रभाव की भविष्यवाणी करने के लिये निरंतर सौर अवलोकन की आवश्यकता होती है, इसलिये सूर्य का अध्ययन किया जाना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

सूर्य के अन्य मिशन:

  • जापान के सौर-सी EUVST: इस मिशन द्वारा सौर वातावरण के सौर पवन का अन्वेषण किया जाएगा, जो पृथ्वी के मौसम की जानकारी को प्रदर्शित करता है। EUVST का व्यापक रुप एक्स्ट्रीम अल्ट्रावायलेट हाई थ्रूपुट स्पेक्ट्रोस्कोपिक टेलिस्कोप इप्सिलोन है। 
  • नासा का EZEI मिशन: इलेक्ट्रोजेट जीमैन इमेजिंग एक्सप्लोरर (EZIE) मिशन पृथ्वी के वातावरण और उसमें विद्युत धाराओं का अध्ययन करेगा, जो अरोरा को चुंबकीयमंडल (Magnetosphere) से जोड़ते हैं।
  • नासा के पार्कर सोलर प्रोब मिशन का उद्देश्य अंतरिक्ष में चुंबकीय बल, प्लाज़्मा, कोरोना और सौर पवन (Solar Wind’s) आदि का अध्ययन करना है।
    • यह मिशन नासा के लिविंग विद ए स्टार (Living With a Star) कार्यक्रम का हिस्सा है जो सूर्य-पृथ्वी प्रणाली (Sun-Earth System) को प्रभावित करने वाले कारकों को समझने के लिये आवश्यक व्यापक अनुसंधान प्रदान करता है।
  • इससे पूर्व जर्मनी की अंतरिक्ष एजेंसी और नासा ने मिलकर वर्ष 1976 में सूर्य के सबसे करीब हेलिअस-2 नामक प्रोब भेजा था। यह प्रोब सूर्य से 43 मिलियन किमी. की दूरी पर था।

सौर कोरोना

  • सौर कोरोना का आशय प्लाज़्मा के एक चमकदार आवरण से होता है, जो सूर्य और अन्य खगोलीय पिंडों के चारों ओर मौजूद होता है।
  • यह अंतरिक्ष में लाखों किलोमीटर तक फैला हुआ है और इसे प्रायः पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान देखा जा सकता है।
  • सूर्य का कोरोना उसकी दृश्यमान सतह की तुलना में अधिक गर्म होता है।
    • सूर्य के कोरोना का तीव्र तापमान उसमें अत्यधिक आयनित आयनों (Ionized Ions) की उपस्थिति के कारण होता है जो इसे वर्णक्रमीय विशेषता प्रदान करता है।

सोलर विंड और फ्लेयर्स

  • सोलर विंड का आशय सूर्य से निकली आवेशित कणों की एक सतत धारा से है जो सभी दिशाओं में प्रवाहित होती है।
  • सूर्य की सतह पर होने वाली गतिविधियों के आधार पर सोलर विंड की क्षमता परिवर्तित होती रहती है।
  • पृथ्वी प्रायः अपने मज़बूत चुंबकीय क्षेत्र के कारण सोलर विंड से सुरक्षित रहती है।
    • हालाँकि कुछ विशिष्ट प्रकार की गतिविधियों जैसे- सोलर फ्लेयर के कारण सूर्य से निकलने वाले उच्च ऊर्जा कण अंतरिक्ष यात्रियों के लिये खतरनाक हो सकते हैं और साथ ही इनसे पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले उपग्रहों को भी नुकसान पहुँच सकता है।

कोरोनल मास इजेक्शन

  • सूरज के कोरोना से प्लाज़्मा और उससे संबंधित चुंबकीय क्षेत्र के अंतरिक्ष में निष्कासित किये जाने की परिघटना को कोरोनल मास इजेक्शन (Coronal Mass Ejection) के रूप में जाना जाता है।
  • यह प्रायः सोलर फ्लेयर्स (Solar Flares) के बाद होती है और ‘सोलर प्रोमिनेंस’ के दौरान देखी जाती है।
    • ‘सोलर प्रोमिनेंस’ सूर्य की सतह से निकली आयनित और उद्दीप्त गैस के बादल होते हैं।
  • इसमें निष्कासित प्लाज़्मा सौर वायु का भाग बन जाती है और इसे कोरोनोग्राफी में देखा जा सकता है।
  • हाल ही में ARIES की एक टीम ने सूर्य के निचले कोरोना में होने वाले तीव्र सौर विस्फोटों का अध्ययन करने के लिये ‘CMEs आइडेंटिफिकेशन इन इनर सोलर कोरोना’ नामक एक एल्गोरिदम विकसित किया है।

‘लैग्रेंजियन पॉइंट-1’

  • ‘लैग्रेंज पॉइंट्स’ का आशय अंतरिक्ष में स्थित उन बिंदुओं से होता है, जहाँ दो अंतरिक्ष निकायों (जैसे सूर्य और पृथ्वी) के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण आकर्षण और प्रतिकर्षण का क्षेत्र उत्पन्न होता है।
    • इसका नामकरण इतालवी-फ्रांँसीसी गणितज्ञ जोसेफ-लुइस लैग्रेंज के नाम पर किया गया है।
  • लैग्रेंज पॉइंट्स’ पर, एक खगोल निकाय (जैसे पृथ्वी) के गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव दूसरे निकाय (जैसे- सूर्य) के गुरुत्वाकर्षण के खिंचाव को समाप्त कर देता है। ऐसे में ‘लैग्रेंज पॉइंट्स’ पर रखी गई कोई भी चीज़ पृथ्वी और सूर्य की ओर समान रूप से खिंचेगी और सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के साथ घूमेगी।
  • इन बिंदुओं का उपयोग प्रायः अंतरिक्षयान द्वारा अपनी स्थिति बरकरार रखने के लिये आवश्यक ईंधन की खपत को कम करने हेतु किया जा सकता है।
  • L1 का अर्थ ‘लैग्रेंजियन/‘लैग्रेंज पॉइंट- 1’ से है, जो पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के ऑर्बिट में स्थित पाँच बिंदुओं में से एक है।
  • L1 बिंदु पृथ्वी से लगभग 1.5 मिलियन किलोमीटर दूर अथवा पृथ्वी से सूर्य के मार्ग के लगभग 1/100वें हिस्से में स्थित है।
  • ‘लैग्रेंजियन पॉइंट-1’ पर स्थित कोई उपग्रह अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण ग्रहण अथवा ऐसी ही किसी अन्य बाधा के बावजूद सूर्य को लगातार देखने में सक्षम होता है।
  • नासा की सोलर एंड हेलिओस्फेरिक ओब्ज़र्वेटरी सैटेलाइट (SOHO) L1 बिंदु पर ही स्थित है। यह सैटेलाइट नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) और यूरोपीय स्पेस एजेंसी (ESA) की एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परियोजना है।

स्रोत: द हिंदू


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