डेली न्यूज़ (19 Aug, 2021)



न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB)

प्रिलिम्स के लिये

न्यू डेवलपमेंट बैंक, ब्रिक्स समूह

मेन्स के लिये

न्यू डेवलपमेंट बैंक के विस्तार की आवश्यकता और इसकी कार्यपद्धति से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘ब्रिक्स’ (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) समूह की बैठक के दौरान भारत ने प्रस्तावित किया कि उद्योग को बढ़ावा देने के साथ-साथ सामाजिक बुनियादी अवसंरचना को मज़बूत करने के लिये ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ के दायरे का विस्तार किया जाए।

  • सामाजिक बुनियादी अवसंरचना में स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसी सामाजिक सेवाओं का समर्थन करने वाली सुविधाओं का निर्माण और रखरखाव शामिल है।
  • भारत वर्ष 2021 के लिये ब्रिक्स समूह की अध्यक्षता कर रहा है।

प्रमुख बिंदु

‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ के विषय में

  • यह वर्ष 2014 में ब्राज़ील के ‘फोर्टालेज़ा’ में आयोजित छठे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स देशों द्वारा संयुक्त रूप से स्थापित एक बहुपक्षीय विकास बैंक है।
  • इसका गठन ब्रिक्स और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं में नवाचार एवं अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के माध्यम से तीव्र विकास के लिये बुनियादी अवसंरचना एवं सतत् विकास प्रयासों का समर्थन करने हेतु किया गया था।
  • इसका मुख्यालय शंघाई (चीन) में स्थित है।
  • वर्ष 2018 में ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ ने संयुक्त राष्ट्र के साथ सक्रिय और उपयोगी सहयोग के लिये एक मज़बूत आधार स्थापित करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त किया था।
  • उद्देश्य
    • सदस्य देशों के विकास को बढ़ावा देना।
    • आर्थिक विकास का समर्थन करना।
    • प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ावा देना और रोज़गार सृजन की सुविधा प्रदान करना।
    • विकासशील देशों के बीच ज्ञान साझाकरण मंच का निर्माण करना।
  • अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिये यह बैंक ऋण, गारंटी, इक्विटी भागीदारी और अन्य वित्तीय साधनों के माध्यम से सार्वजनिक या निजी परियोजनाओं का समर्थन करता है।

भारत में NDB  द्वारा वित्तपोषित प्रमुख परियोजनाएंँ:

उपलब्धियांँ:

  • नवाचार:
    • कुछ क्षेत्रों में NDB के नवाचार कामयाब रहे हैं, जैसे उधार लेने वाले देशों को मज़बूत डॉलर से बचाने के लिये स्थानीय मुद्राओं में उधार देना, जो इसकी संस्थापक विशेषताओं में से एक था।
    • NDB का एक और नवाचार यह है कि बैंक अपने सदस्यों की नीतियों का सम्मान करते हुए उधारकर्त्ताओं द्वारा डिज़ाइन किये गए पर्यावरण और सामाजिक मानकों के अनुपालन हेतु मानकों को स्वीकार करता है।
  • अन्य विकास बैंकों के साथ साझेदारी:
    • NDB द्वारा लैटिन अमेरिकी क्षेत्रीय विकास बैंक सीएएफ, चीन के नेतृत्व वाले महत्त्वपूर्ण संस्थान एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक और विश्व बैंक समूह जैसे महत्त्वपूर्ण विकास बैंकों के साथ साझेदारी स्थापित की गई है।
    • AA+ क्रेडिट रेटिंग:
    • NDB की क्रेडिट रेटिंग AA+ है, जो अधिकतम अर्थात् AAA से एक कम है अधिकतम क्रेडिट रेटिंग (AAA) अन्य विकास बैंकों जैसे- AIIB के पास है। यह इसके कई सदस्यों, विशेष रूप से ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका के घरेलू स्तर पर कठिन आर्थिक स्थितियों का सामना करने के बावजूद है।
  • विभिन्न बॉण्डों का प्रसार:
    • वर्ष 2016 में बैंक ने 'ग्रीनबॉण्ड' सहित कई बॉण्ड सफलतापूर्वक जारी किये तथा वर्तमान में सदस्य देशों में 42 परियोजनाओं को मंज़ूरी दी है जो कुल 12 बिलियन अमेरिकी  डाॅलर से अधिक की हैं और AIIB's के लगभग 8 बिलियन अमेरिकी  डाॅलर के पोर्टफोलियो से अधिक है।

    मुद्दे :

    • ऋणों का कम संवितरण :
      • हालाँकि बैंक ने 12 बिलियन अमेरिकी डाॅलर से अधिक के ऋण को मंज़ूरी दी है, लेकिन इसने अब तक 1 बिलियन अमेरिकी डाॅलर से कम का वितरण किया है, जो कि न्यूनतम आँकड़े को प्रदर्शित करता है।
    • राजनीतिक अस्थिरता :
      • चीन और भारत के बीच संबंधों में दरार आ गई, रूस के खिलाफ प्रतिबंधों ने रूसी कंपनियों को उधार देना मुश्किल बना दिया जिसके परिणामस्वरूप दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील दोनों में राजनीतिक अस्थिरता एवं आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया।
      • एक अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था में विकासशील देशों के हितों को आगे बढ़ाना जटिल कार्य साबित हुआ, जिसमें सदस्य देशों ने उत्कृष्ट प्रदर्शन नहीं किया।
    • स्थिरता का मुद्दा :
      • हालाँकि एनडीबी ने हाल ही में ब्राज़ील में जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन तथा भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के लिये ऋणों को मंज़ूरी दी है, लेकिन इसने कई परियोजनाओं को स्थायी के रूप में  चिह्नित किया है, जो इसके द्वारा उपयोग किये जाने वाले मानदंडों की व्याख्या किये बिना पर्यावरण की दृष्टि से संदिग्ध हैं।
        • इसकी स्थायी परियोजनाओं में से एक ब्राज़ील में ट्रांस-अमेज़ोनियन राजमार्ग है, जो एक अत्यधिक विवादास्पद सड़क है जिसे कई पर्यावरणविद दुनिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय वर्षावन में वनों की कटाई को तीव्र गति प्रदान करने हेतु दोषी ठहराते हैं।

    आगे की राह

    • निकट भविष्य में इसके सदस्य देशों और अन्य कमज़ोर देशों के लिये स्वास्थ्य देखभाल क्षमताओं व राष्ट्रीय स्वास्थ्य तैयारियों पर ज़ोर दिया जाना चाहिये, जिसमें कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिये विशेष सहायता, आय और नौकरियों के मामले में सामाजिक तथा आर्थिक सुधार सहायता शामिल है।
    • एक मध्यम अवधि के दृष्टिकोण से वायु प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिये मेगा-शहरों तथा घनी आबादी वाले समूहों में शहरी लचीलेपन को मज़बूत करने हेतु निवेश पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
    • अपने वर्तमान अवधारणा को ध्यान में रखते हुए ब्रिक्स (BRICS) और अन्य देशों के समग्र ऊर्जा मिश्रण में इनके प्रसार को बेहतर बनाने में मदद करने के लिये अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों (सौर, पवन व बायोमास) हेतु प्राथमिकता होनी चाहिये। इन सभी प्रयासों में बैंक लंबे समय वित्तीय स्थिरता हेतु सार्वजनिक-निजी भागीदारी के लिये तंत्र विकसित करने का प्रयास कर सकता है।

    स्रोत: इंडियन एक्स्प्रेस


    भारत में समुद्र तटीय कटाव

    प्रिलिम्स के लिये

    उत्तर-पूर्वी मानसूनी वर्षा, नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च, दक्षिण-पश्चिम मानसून, चक्रवात

    मेन्स के लिये 

    भारत में समुद्र तटीय कटाव/ अपरदन के कारण, तटीय प्रबंधन के लिये भारतीय पहलें, पश्चिमी तट की तुलना में पूर्वी तट में अधिक कटाव क्यों

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च (NCCR) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें कहा गया है कि भारत के समुद्र तट का एक-तिहाई हिस्सा 28 वर्षों में समुद्री क्षरण/कटाव से प्रभावित हुआ है।

    • वर्ष 1990 से  वर्ष 2018 के बीच भारत के समुद्र तट के 32% हिस्से में समुद्र का कटाव हुआ तथा 27% का विस्तार हुआ।

    प्रमुख बिंदु 

    रिपोर्ट के परिणाम :

    • भारत की तटरेखा :
      • देश की तटरेखा 6,631.53 किमी. लंबी है जो पश्चिम में अरब सागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा दक्षिण में हिंद महासागर से घिरी हुई है।
        • 2,135.65 किमी. तक कटाव के अलग-अलग रूप विद्यमान थे  तथा इस अवधि के दौरान 1,760.06 किमी. का विस्तार हुआ।
        • लगभग 2,700 किमी. समुद्र तट रेखा स्थायी रूप से मौजूद है।
      • भारत की लंबी तटरेखा कांडला, मुंबई, न्हावा शेवा, मैंगलोर, कोचीन, चेन्नई, तूतीकोरिन, विशाखापत्तनम और पारादीप जैसे कई प्रमुख बंदरगाहों से युक्त है।
    • तटीय कटाव : 
      • इस अवधि के दौरान पश्चिम बंगाल के समुद्र तट के 60% हिस्से का कटाव हुआ, इसके बाद पुद्दुचेरी (56%), केरल और तमिलनाडु में क्रमशः 41% और 41% का क्षरण हुआ।
      • पश्चिमी तट की तुलना में पूर्वी तट में अधिक कटाव :
        • पूर्वी तट पर बहुत अधिक वर्षा होती है, जो वर्ष के अधिकांश समय समुद्र को अस्थिर रखती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून से सितंबर) के अतिरिक्त अक्तूबर से दिसंबर के पूर्वोत्तर मानसून का प्रभाव पूर्वी तट पर भी होता है और तटीय आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में वर्षा का कारण बनता है।
        •  पश्चिमी तट (काफी हद तक स्थिर रहा) की तुलना में पिछले तीन दशकों में बंगाल की खाड़ी से लगातार चक्रवाती गतिविधियों के कारण पूर्वी तट में अधिक कटाव हुआ है।
    • भूमि अभिवृद्धि
      • पूर्वी तट पर ओडिशा एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ तटीय मृदा क्षरण में 50% से अधिक की वृद्धि हुई है।
      • उसके बाद आंध्र प्रदेश का तट है, जिसमें 48% का विस्तार हुआ; कर्नाटक (26%) आदि।

    समुद्रतटीय क्षरण/अपरदन:

    • अर्थ: तटीय अपरदन वह प्रक्रिया है जिसमें मज़बूत लहरों की क्रियाओं द्वारा तटीय क्षेत्र में आई बाढ़ अपने साथ चट्टानों, मिट्टी और/या रेत को नीचे (समुद्र में) की और ले जाती है जिसके कारण  स्थानीय समुद्र का जल स्तर बढ़ता है। 
    • अपरदन और अभिवृद्धि: क्षरण और अभिवृद्धि एक-दूसरे के पूरक हैं। रेत और तलछट एक तरफ से बहकर कहीं और तट पर जाकर जमा हो जाते हैं। 
      • मृदा अपरदन के कारण भूमि और मानव आवासों का ह्रास होता है क्योंकि समुद्र का पानी समुद्र तट के साथ मृदा क्षेत्र को भी अपने साथ बहा कर ले जाता है।
      • दूसरी ओर, मृदा अभिवृद्धि से भूमि क्षेत्र में वृद्धि होती है।
      • हालांँकि यदि डेल्टा, मुहाना और खाड़ी में अभिवृद्धि होती है, तो मिट्टी इन क्षेत्रों में समुद्री जल के प्रवाह को रोक देगी जो जलीय वनस्पतियों और जीवों की कई प्रजातियों के प्रजनन स्थल हैं।
    • प्रभाव: मनोरंजक गतिविधियाँ (सूर्य स्नान, पिकनिक, तैराकी, सर्फिंग, मछली पकड़ना, नौका विहार, गोताखोरी आदि) प्रभावित हो सकती हैं यदि मौजूदा समुद्र तटों की चौड़ाई कम हो जाए या वे पूरी तरह से गायब हो जाएँ। साथ ही तटीय समुदायों की आजीविका पर भी असर पड़ सकता है।
    • उपाय: मैंग्रोव, कोरल रीफ और लैगून समुद्री तूफानों और कटाव के खिलाफ सबसे अच्छे बचाव साधन माने जाते हैं, क्योंकि वे समुद्री तूफानों की अधिकांश ऊर्जा को विक्षेपित और अवशोषित कर लेते हैं,  इसलिये तट सुरक्षा के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण के लिये इन प्राकृतिक आवासों को बनाए रखना महत्त्वपूर्ण है। 

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    तटीय कटाव की स्थिति पैदा करने वाले कारक:

    • प्राकृतिक घटनाएँ:
      • तरंग ऊर्जा को तटीय क्षरण का प्राथमिक कारण माना जाता है।
      • जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप महाद्वीपीय हिमनदों और बर्फ की चादरों के पिघलने के कारण चक्रवात, समुद्री जल का थर्मल विस्तार, तूफान, सुनामी जैसे प्राकृतिक खतरे क्षरण को तेज़ करते हैं।
    • तटीय बहाव:
      • तटवर्ती रेत के बहाव को भी तटीय कटाव के प्रमुख कारणों में से एक माना जा सकता है।
        • तटीय बहाव का अर्थ है प्रचलित हवाओं के कारण उत्पन्न लहरों द्वारा समुद्र या झील के किनारे से लगी तलछट की प्राकृतिक गति।
    • मानवजनित गतिविधियाँ:
      • रेत खनन और प्रवाल खनन ने तटीय क्षरण में योगदान दिया है जिससे तलछट में  कमी देखी गई है।
      • नदी के मुहाने से तलछट के प्रवाह को कम करने वाली नदियों और बंदरगाहों के जलग्रहण क्षेत्र में बनाए गए मछली पकड़ने के बंदरगाहों तथा बाँधों ने तटीय क्षरण को बढ़ावा दिया है।
    • भारी वर्षा: 
      • भारी वर्षा मिट्टी की संतृप्ति को बढ़ा सकती है, जिसके कारण मिट्टी की पकड़ में कमी आती है और भूस्खलन  की संभावना में वृद्धि होती है।

    तटीय प्रबंधन के लिये भारतीय पहलें:

    • राष्ट्रीय सतत् तटीय प्रबंधन केंद्र:
      • इसका उद्देश्य पारंपरिक तटीय और द्वीप समुदायों के लिये लाभ सुनिश्चित करने हेतु भारत में तटीय और समुद्री क्षेत्रों के एकीकृत एवं सतत् प्रबंधन को बढ़ावा देना है।
    • एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजना:
      • यह स्थिरता प्राप्त करने हेतु भौगोलिक और राजनीतिक सीमाओं सहित तटीय क्षेत्र के सभी पहलुओं के संबंध में एक एकीकृत दृष्टिकोण का उपयोग कर तटीय प्रबंधन संबंधी एक प्रक्रिया है।
    • तटीय विनियमन क्षेत्र:
      • भारत के तटीय क्षेत्रों में गतिविधियों को विनियमित करने के लिये पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत तटीय विनियमन क्षेत्र (CRZ) संबंधी अधिसूचना वर्ष 1991 में जारी की गई थी।

    स्रोत: डाउन टू अर्थ


    प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में पारदर्शिता का अभाव

    प्रिलिम्स के लिये:  

    गैर सरकारी संगठन, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केंद्रीय  प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

    मेन्स के लिये:

    SPCBs से संबंधित मुद्दे

    चर्चा में क्यों? 

    हाल ही में सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (Centre for Science and Environment- CSE) की एक नई रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में लोगों के साथ जानकारी साझा करने में अधिकांश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Board-SPCB) और प्रदूषण नियंत्रण समितियों (Pollution Control Committees- PCCs) में पारदर्शिता का अभाव बना हुआ है।  

    • CSE नई दिल्ली में स्थित एक जनहित अनुसंधान और सलाहकार गैर-सरकारी संगठन (NGO) है।

    प्रमुख बिंदु 

    रिपोर्ट के मुख्य बिंदु:

    • रिपोर्ट का शीर्षक पारदर्शिता सूचकांक: सार्वजनिक प्रकटीकरण पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की रेटिंग (Transparency Index: Rating of pollution control boards on public disclosure) है।  
    • रिपोर्ट में देश भर से 29 राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और छह प्रदूषण नियंत्रण समितियों के डेटा प्रस्तुतिकरण प्रदर्शन का आकलन किया है। इनमें से केवल 17 बोर्डों और समितियों ने ही 50% या उससे अधिक अंक प्राप्त किये ।
    • वायु अधिनियम 1981 और जल अधिनियम 1974 के तहत प्रदूषण नियंत्रण एजेंसियांँ वायु और जल प्रदूषण से संबंधित जानकारी एकत्र करने, प्रसारित करने तथा इसकी रोकथाम, नियंत्रण या उपशमन से भी संबंधित हैं।
      • कानून बोर्डों को सार्वजनिक डोमेन में डेटा साझा करने के लिये भी कहता है।
      • हालांँकि व्यवहार में ऐसा बहुत कम ही किया जाता है।
    • ओडिशा और तेलंगाना के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पारदर्शिता सूचकांक में शीर्ष प्रदर्शन करने वाले रहे और उन्होंने पारदर्शिता में 67% स्कोर प्राप्त किये। 
    • प्रदूषण से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारी, डेटा और की गई कार्रवाइयों का विवरण सार्वजनिक डोमेन में डालना महत्त्वपूर्ण है। यह नीति निर्माताओं को प्रदूषण प्रबंधन के अगले स्तर पर चर्चा करने में मदद कर सकता है।
      •  यह इन बोर्डों और समितियों की दक्षता के बारे में लोगों को आश्वस्त भी कर सकता है।

    SPCBs से संबंधित अन्य मुद्दे:

    • अधिक ज़िम्मेदारियांँ, सीमित संस्थागत क्षमता: पिछले दो दशकों में SPCBs के काम के दायरे और पैमाने में विस्तार देखा गया है, लेकिन बजट एवं कार्यबल में किसी प्रकार की कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।
      • पारिश्रमिक बहुत कम होने के कारण बोर्ड के लिये प्रतिभावान व्यक्तियों को बनाए रखना मुश्किल हो जाता है।
    • तकनीकी विशेषज्ञों की कमी: इसके अलावा तकनीकी विशेषज्ञों और अन्य कर्मचारियों की भारी कमी ने केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियामकों को केवल सलाहकार निकाय बना दिया है, जिससे वे वायु गुणवत्ता मानकों को लागू करने में असमर्थ हैं।
    • शीर्ष प्रशासकों के पास कोई डोमेन विशेषज्ञता नहीं है: SPCBs में नेतृत्व आमतौर पर सिविल सेवकों द्वारा ही किया जाता है, जिनके पास प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दों को समझने के लिये विज्ञान या पर्यावरण अध्ययन में कोई विशेषज्ञता नहीं होती है।
      • उदाहरण के लिये CPCB के संचालन में सरकारी प्रतिनिधियों का वर्चस्व होता है और इसका गठन केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है, जो इनकी ‘निगरानी के रूप में कार्य करने के स्वरूप में एक विवादास्पद स्थित उत्पन्न करता है’।
    • प्रेरणा और जवाबदेही में कमी: राज्य बोर्ड के अधिकारियों का अक्सर अपनी भूमिका और ज़िम्मेदारी के बारे में कम उत्सुकता होती है।
      • साथ ही मानकों को तैयार करने की प्रक्रिया समावेशी नहीं थी और राज्य के अधिकारियों को बस इन्हें लागू करने के लिये कहा गया था।
    • खराब बहु-क्षेत्रीय समन्वय: विभिन्न राज्य और केंद्रीय विभागों के बीच समन्वय की कमी के कारण अन्य विभाग एसपीसीबी के निर्देशों को लागू नहीं करते हैं।
    • निगरानी में कम विशेषज्ञता: रियल टाइम निगरानी की क्षमता के प्रत्येक वर्ष बढ़ने, डेटा संग्रह में अंतराल और खराब अंशांकन के कारण गलत रीडिंग बनी रहती है।

    भारत में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

    केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड:

    • यह बोर्ड एक वैधानिक संगठन है जिसका गठन जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के अंतर्गत सितंबर 1974 में किया गया था।
    • इसे वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के अंतर्गत शक्तियाँ और कार्य भी सौंपे गए।
    • यह बोर्ड पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों के अंतर्गत पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को तकनीकी सेवाएँ भी उपलब्ध कराता है।
    • इस बोर्ड के प्रमुख कार्य हैं:
      • जल प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और उपशमन द्वारा राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में नालों तथा कुओं की सफाई को बढ़ावा देना।
      • वायु की गुणवत्ता में सुधार करना और देश में वायु प्रदूषण को रोकना, नियंत्रित करना या कम करना।

    राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड:

    • ये बोर्ड CPCB के पूरक और सांविधिक होते हैं जो संबंधित राज्य के अधिकार क्षेत्र के भीतर पर्यावरण कानूनों और नियमों को लागू करने के लिये अधिकृत होते हैं।

    प्रदूषण नियंत्रण समितियाँ:

    • ये समितियाँ SPCB के समान कार्य करती हैं। दोनों में अंतर यह है कि PCC केंद्रशासित प्रदेशों से संबंधित हैं।

    आगे की राह

    • समान मानक: वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने और वेबसाइटों पर जानकारी साझा करने के लिये एक समान प्रारूप होना चाहिये।
      • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) को एसपीसीबी/पीसीसी के लिये एक वेबसाइट प्रारूप और वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने हेतु दिशा-निर्देश जारी करना चाहिये।
    • विशिष्ट भर्ती: प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में विभिन्न सदस्यों की भर्ती के लिये स्पष्ट योग्यता निर्धारित करने की आवश्यकता है।
      • पर्यावरण संरक्षण से संबंधित मामलों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव होना एक मानदंड हो सकता है।
    • संस्थागत क्षमता को मज़बूत करना: उन नियामक निकाय को जो इनके कार्यान्वयन को सक्षम करते हैं, आवश्यक तकनीकी और वित्तीय संसाधनों के साथ मज़बूत करना चाहिये।

    स्रोत: डाउन टू अर्थ


    अधिकरण सुधार विधेयक, 2021

    प्रिलिम्स के लिये

    सर्वोच्च न्यायालय; अधिकरण सुधार विधेयक, 2021; शक्तियों के पृथक्करण; 42वें संशोधन अधिनियम, 1976

    मेन्स के लिये

    अधिकरण का संक्षिप्त परिचय,  अधिकरण सुधार के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाए गए मुद्दे

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने सरकार को चुनौती दी है कि वह अधिकरण सुधार विधेयक, 2021 को पेश करने के कारणों को प्रदर्शित करने वाले तथ्यों को उजागर करें।

    प्रमुख बिंदु 

      सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाए गए मुद्दे:

      • असंवैधानिक विधायी अधिभावी: विधेयक पर चर्चा का अभाव था तथा सरकार ने मद्रास बार एसोसिएशन मामले (2021) में न्यायालय द्वारा रद्द किये गए उन्हीं प्रावधानों को फिर से लागू किया है।
        • यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय के "असंवैधानिक विधायी अधिभावी" के समकक्ष है।
      • सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का बार-बार उल्लंघन: अधिकरण की उचित कार्यप्रणाली को सुनिश्चित करने के लिये कोर्ट द्वारा समय-समय पर जारी किये गए निर्देशों का केंद्र द्वारा बार-बार उल्लंघन किया जा रहा है।
        • सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकरण के सदस्यों तथा अध्यक्षों की सेवा की शर्तों और कार्यकाल के संबंध में अध्यादेश के प्रावधानों को रद्द कर दिया था।. 
      • कार्यकाल की सुरक्षा: अधिकरण सुधार विधेयक, 2021 पचास वर्ष से कम उम्र के व्यक्तियों की अधिकरण में नियुक्तियों पर रोक लगाता है। यह कार्यकाल की अवधि/सुरक्षा को कमज़ोर करता है।
      • शक्तियों के पृथक्करण को कमज़ोर करना : विधेयक केंद्र सरकार को चयन समिति द्वारा की गई सिफारिशों पर निर्णय लेने की अनुमति देता है, अधिमानतः ऐसा सिफारिश की तारीख से तीन महीने के भीतर होगा।
        • विधेयक की धारा 3(7) शक्तियों के पृथक्करण और न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए केंद्र सरकार को खोज-सह-चयन समिति द्वारा दो नामों के एक पैनल की सिफारिश को अनिवार्य बनाती है।
      • अधिकरण में रिक्त पद : भारत में अब 16 अधिकरण हैं जिनमें नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, आर्म्ड फोर्सेज़ अपीलेट ट्रिब्यूनल, डेब्ट रिकवरी ट्रिब्यूनल और अन्य शामिल हैं, जिसमें अधिक रिक्तियाँ विद्यमान हैं।
        • बड़ी संख्या में सदस्यों और अध्यक्ष पदों की रिक्तियाँ तथा उन्हें भरने में अत्यधिक देरी के कारण अधिकरण कमज़ोर हो गए हैं।
      • निर्णयन प्रक्रिया के लिये अहितकर : इन मामलों को त्वरित ही उच्च न्यायालयों या वाणिज्यिक सिविल अदालतों में स्थानांतरित कर दिया जाएगा।
        • नियमित अदालतों में विशेषज्ञता की कमी निर्णयन प्रक्रिया के लिये हानिकारक हो सकती है।
        • उदाहरण के लिये फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (FCAT) ने विशेष रूप से सेंसर बोर्ड के फैसलों के खिलाफ  एक अपील करने वाले मामलों की सुनवाई की, जबकि ऐसे मामले के लिये विशेष न्यायालय होते है जिसमें कला और सिनेमा में विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है।
        • इसके अतिरिक्त कुछ अधिकरण और अपीलीय निकायों के विघटन एवं उनके कार्यों को उच्च न्यायालयों में स्थानांतरित करने की आलोचना इस आधार पर की जा सकती है कि भारतीय अदालतें पहले से ही अपने मौजूदा मामलों के भार (caseload) के बोझ से दबे हैं।

      अधिकरण सुधार विधेयक, 2021:

      • मौजूदा निकायों का विघटन: यह विधेयक कुछ अपीलीय निकायों को भंग करने और उनके कार्यों को अन्य मौजूदा न्यायिक निकायों को स्थानांतरित करने का प्रावधान करता है। उदाहरण के लिये ‘फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण’ द्वारा सुने जाने वाले विवादों को उच्च न्यायालय को हस्तांतरित कर दिया जाएगा।
      • मौजूदा निकायों का विलय: वित्त अधिनियम, 2017 ने डोमेन के आधार पर अधिकरणों का विलय किया है। उदाहरण के लिये ‘प्रतिस्पर्द्धा अपीलीय न्यायाधिकरण’ को ‘राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण’ के साथ मिला दिया गया है।
      • खोज-सह-चयन समितियाँ: ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा एक खोज-सह-चयन समिति की सिफारिश पर की जाएगी। इस समिति में शामिल होंगे:
        • अध्यक्ष के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश (निर्णायक मत के साथ)।
        • केंद्र सरकार द्वारा नामित दो सचिव।
        • वर्तमान या निवर्तमान अध्यक्ष या उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश, और
        • मंत्रालय का सचिव जिसके अधीन न्यायाधिकरण का गठन किया गया है (मतदान अधिकार के बिना)।
      • राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण: इसमें अलग खोज-सह-चयन समितियाँ शामिल होंगी, जिसकी अध्यक्षता संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ अध्यक्ष (निर्णायक मत के साथ) द्वारा की जाएगी।
      • पात्रता और कार्यकाल: विधेयक में चार वर्ष के कार्यकाल का प्रावधान है (अध्यक्ष के लिये 70 वर्ष की ऊपरी आयु सीमा और सदस्यों के लिये 67 वर्ष)।
        • इसके अलावा इसके तहत अध्यक्ष या सदस्य की नियुक्ति के लिये 50 वर्ष को न्यूनतम आयु आवश्यकता के रूप में निर्दिष्ट किया गया है।
      • ट्रिब्यूनल या अधिकरण के सदस्यों को हटाना: विधेयक के मुताबिक, केंद्र सरकार, खोज-सह-चयन समिति की सिफारिश पर किसी भी अध्यक्ष या सदस्य को पद से हटा सकती है।

      अधिकरण:

      • 'ट्रिब्यूनल' (Tribunal) शब्द की व्युत्पत्ति 'ट्रिब्यून' (Tribunes) शब्द से हुई है जो रोमन राजशाही और गणराज्य के अंतर्गत कुलीन मजिस्ट्रेटों की मनमानी कार्रवाई से नागरिकों की सुरक्षा करने के लिये एक आधिकारिक पद था।
      • यह एक अर्द्ध-न्यायिक संस्था (Quasi-Judicial Institution) है जिसे प्रशासनिक या कर-संबंधी विवादों को हल करने के लिये स्थापित किया जाता है।
        • यह विवादों के अधिनिर्णयन, संघर्षरत पक्षों के बीच अधिकारों के निर्धारण, प्रशासनिक निर्णयन, किसी विद्यमान प्रशासनिक निर्णय की समीक्षा जैसे विभिन्न कार्यों का निष्पादन करती है।
      • इसका उद्देश्य न्यायपालिका के कार्यभार को कम करना या तकनीकी मामलों के लिये विषय विशेषज्ञता सुनिश्चित करना हो सकता है।
      • संवैधानिक प्रावधान:
        • अधिकरण संबंधी प्रावधान मूल संविधान में नहीं थे। इन्हें भारतीय संविधान में स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों पर 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा शामिल किया गया।
          • अनुच्छेद 323-A: यह अनुच्छेद प्रशासनिक अधिकरण (Administrative Tribunal) से संबंधित है।
          • अनुच्छेद 323-B: यह अन्य मामलों के लिये अधिकरणों से संबंधित है।
          • अनुच्छेद 262: राज्य/क्षेत्रीय सरकारों के बीच अंतर-राज्य नदियों के जल संबंधी विवादों के संबंध में अधिनिर्णयन के लिये भारतीय संविधान में केंद्र सरकार की एक भूमिका तय की गई है।

      स्रोत: द हिंदू


      संयुक्त राष्ट्र विश्व भू-स्थानिक सूचना कॉन्ग्रेस

      प्रिलिम्स के लिये

       संयुक्त राष्ट्र विश्व भू-स्थानिक सूचना कॉन्ग्रेस, आर्थिक और सामाजिक परिषद, सारथी

      मेन्स के लिये 

      भू-स्थानिक सूचनाओं के प्रबंधन और साझाकरण का महत्त्व तथा भारत द्वारा इस दिशा में किये जा रहे प्रयास  

      चर्चा में क्यों?

      हाल ही में यह घोषणा की गई कि दूसरा संयुक्त राष्ट्र विश्व भू-स्थानिक सूचना कॉन्ग्रेस (United Nations World Geospatial Information Congress- UNWGIC) का आयोजन वर्ष 2022 में हैदराबाद में किया जाएगा। यह आयोजन भारत के विकसित भू-स्थानिक पारिस्थितिकी तंत्र की एक झलक प्रस्तुत करेगा।

      प्रमुख बिंदु 

      UNWGIC के विषय में:

      • यह वैश्विक भू-स्थानिक सूचना प्रबंधन पर विशेषज्ञों की संयुक्त राष्ट्र समिति (UN-GGIM) द्वारा आयोजित किया जाता है। 
      • उद्देश्य: भू-स्थानिक सूचना प्रबंधन और क्षमताओं में सदस्य राज्यों तथा प्रासंगिक हितधारकों के बीच अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाना।
      • समय-सीमा: इसे प्रत्येक चार वर्ष में आयोजित किया जाता है। इसका पहला आयोजन चीन द्वारा अक्तूबर 2018 में किया गया था।
      • द्वितीय UNWGIC का विषय: 'वैश्विक गाँव को भू-सक्षम बनाना’।

      UN-GGIM के विषय में :

      • इसका उद्देश्य वैश्विक भू-स्थानिक सूचना के विकास के लिये एजेंडा निर्धारित करने और प्रमुख वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने हेतु इसके उपयोग को बढ़ावा देने में अग्रणी भूमिका निभाना है।
        • यह सतत् विकास (Sustainable Development) के लिये वर्ष 2030 एजेंडा को लागू करने और सबको साथ लेकर चलने के वादे को निभाने की दिशा में काम करता है।
      • संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी प्रभाग (United Nations Statistics Division) ने वर्ष 2009 में न्यूयॉर्क में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के भू-स्थानिक सूचना विशेषज्ञों के साथ एक अनौपचारिक परामर्शदात्री बैठक बुलाई।
      • वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र सचिवालय से GGIM पर संयुक्त राष्ट्र फोरम के संभावित निर्माण पर विचार सहित भू-स्थानिक सूचना प्रबंधन के वैश्विक समन्वय पर आर्थिक और सामाजिक परिषद (ECOSOC) के अनुमोदन के लिये चर्चा शुरू करने तथा एक रिपोर्ट तैयार करने का अनुरोध किया गया था। 
      • वर्ष 2011 में ECOSOC फोरम वैश्विक भू-स्थानिक सूचना प्रबंधन पर सियोल घोषणा की स्वीकृति के साथ संपन्न हुआ।

      भू-स्थानिक प्रौद्योगिकियांँ:

      • भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी शब्द का उपयोग पृथ्वी और मानव समाजों के भौगोलिक मानचित्रण एवं विश्लेषण में योगदान देने वाले आधुनिक उपकरणों की श्रेणी का वर्णन करने हेतु किया जाता है। 
      • प्रागैतिहासिक काल में पहले नक्शे तैयार किये जाने के बाद से ये प्रौद्योगिकियांँ किसी- न-किसी रूप में विकसित हो रही हैं।
      • द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) और शीत युद्ध (1945-1989) के दौरान फोटोग्राफिक व्याख्या करने और मानचित्रण हेतु विज्ञान एवं कला में तेज़ी आई तथा  उपग्रहों एवं कंप्यूटरों के आगमन के साथ इन प्रौद्योगिकियों ने नए आयाम ग्रहण किये।
      • मोटे तौर पर इसमें निम्नलिखित प्रौद्योगिकियांँ शामिल हैं:
        • रिमोट सेंसिंग: यह अंतरिक्ष या एयरबोर्न कैमरा और सेंसर प्लेटफॉर्म से एकत्र की गई इमेज और डेटा है।
        • भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS): जीआईएस पृथ्वी की सतह पर स्थित संबंधित डेटा को कैप्चर करने, स्टोर करने, जांँचने और प्रदर्शित करने के लिये  एक कंप्यूटर सिस्टम है।
        • ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम (GNSS): यह किसी भी उपग्रह समूह का वर्णन करने वाला एक सामान्य शब्द है जो वैश्विक या क्षेत्रीय आधार पर पोज़िशनिंग, नेविगेशन और टाइमिंग (PNT) सेवाएंँ प्रदान करता है।
        • 3डी स्कैनिंग: यह किसी वास्तविक वस्तु या पर्यावरण का विश्लेषण करने की प्रक्रिया है, ताकि इसके आकार और संभवतः इसके स्वरूप पर डेटा एकत्र किया जा सके।

      भारत की भू-स्थानिक नीति:

      • हाल ही में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने  भारत में भू-स्थानिक क्षेत्र के लिये नए दिशा-निर्देश जारी किये हैं।
      • सूचना प्रसार नीति इस क्षेत्र को अधिक प्रतिस्पर्द्धी क्षेत्र के रूप में उदार बनाती है। नई नीति के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
        • ओपन एक्सेस:
          • संवेदनशील रक्षा या सुरक्षा संबंधी डेटा को छोड़कर, सभी भारतीय संस्थाओं के लिये मानचित्रों सहित इसके भू-स्थानिक डेटा और सेवाओं तक आसान पहुंँच।
          • यह शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँच के लिये भू-स्थानिक प्रौद्योगिकियों के लाभों की परिकल्पना करता है और भू-स्थानिक जानकारी को सभी के लिये  सुलभ बनाता है। 
          • उदाहरण के लिये स्वामित्व योजना ग्रामीण आबादी को सशक्त बनाने का प्रयास करती है जिसके माध्यम से ग्रामीण भूस्वामियों को डिजिटल जोत का प्रमाण-पत्र दिया जा रहा है।
        • प्रतिबंध हटाना:
          • भारतीय निगम और नवप्रवर्तक अब प्रतिबंधों के अधीन नहीं हैं और न ही उन्हें भारत के क्षेत्र के भीतर डिजिटल भू-स्थानिक डेटा तथा मानचित्रों को एकत्र करने, तैयार करने, प्रसारित करने, संग्रहीत करने, प्रकाशित करने, अद्यतन करने से पहले पूर्व अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
        • अन्य हालिया पहलें: केंद्र सरकार ने भू-स्थानिक डेटा की जानकारी को साझा करने के लिये वेब पोर्टल भी लॉन्च किये हैं।
          • सारथी (Sarthi) : भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने सारथी नामक एक वेब भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) विकसित की है। यह उपयोगकर्त्ताओं को अंतिम रूप से अत्यधिक संसाधन के बिना भू-स्थानिक डेटा का विजुअलाइज़ेशन, परिवर्तन और विश्लेषण के लिये एप्लीकेशन बनाने में मदद करेगी।
          • ऑनलाइन मैप्स पोर्टल : सर्वे ऑफ इंडिया के ऑनलाइन मैप्स पोर्टल में राष्ट्रीय, राज्य, ज़िला और तहसील स्तर के डेटा के साथ 4,000 से अधिक मानचित्न/नक्शे हैं जिन्हें अंतिम उपयोगकर्ताओं के लिये अनुक्रमित किया गया है।
          • मानचित्रण (Manchitran) : नेशनल एटलस एंड थीमैटिक मैपिंग ऑर्गनाइज़ेशन (NATMO) ने इस पोर्टल पर भारत के सांस्कृतिक मानचित्र, जलवायु मानचित्र या आर्थिक मानचित्र जैसे विषयगत मानचित्र जारी किये हैं।
            • NATMO, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन एक अधीनस्थ विभाग के रूप में कार्य कर रहा है, जिसका मुख्यालय कोलकाता में है।
          • भुवन (Bhuvan),  इसरो द्वारा विकसित एवं संचालित एक प्रकार का राष्ट्रीय वेब पोर्टल है, जिसका उपयोग इंटरनेट के माध्यम से भौगोलिक जानकारी (भू-स्थानिक जानकारी) और अन्य संबंधित भौगोलिक सेवाओं (प्रदर्शन, संपादन, विश्लेषण आदि) को खोजने और उनका उपयोग करने के लिये किया जाता है। 
          • एसोसिएशन ऑफ जियोस्पेशियल इंडस्ट्रीज़ ने "भारत में जल क्षेत्र के लिये भू-स्थानिक प्रौद्योगिकियों की क्षमता" (Potential of Geospatial Technologies for the Water Sector in India) शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है। 

      स्रोत : पीआईबी


      न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु कॉलेजियम प्रणाली

      प्रिलिम्स के लिये:

      न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

      मेन्स के लिये:

      कॉलेजियम प्रणाली परिचय, आवश्यकता, आलोचना एवं सुधार के प्रयास

      चर्चा में क्यों?

      हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय (SC) के कॉलेजियम ने न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु सरकार को नौ नामों की सिफारिश की है।

      • कॉलेजियम ने पहली बार एक ही प्रस्ताव में तीन महिला न्यायाधीशों की सिफारिश की है।
      • इस प्रकार इसने सर्वोच्च न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के पक्ष में एक मज़बूत संकेत भेजा है।

      प्रमुख बिंदु:

      कॉलेजियम प्रणाली:

      • यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, जो संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है।
      • कॉलेजियम प्रणाली का विकास:
        • प्रथम न्यायाधीश मामला (First Judges Case- 1981): 
          • इसने यह निर्धारित किया गया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के सुझाव की  "प्रधानता" को "ठोस कारणों" से अस्वीकार किया जा सकता है।
          • इस निर्णय ने अगले 12 वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित कर दी है।
        • दूसरा न्यायाधीश मामला (Second Judges Case-1993): 
          • सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की कि "परामर्श" का अर्थ वास्तव में "सहमति" है। 
          • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं होगी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से ली गई एक संस्थागत राय होगी।
        • तीसरा न्यायाधीश मामला (Third Judges Case- 1998): 
          • वर्ष 1998 में राष्ट्रपति द्वारा जारी एक प्रेज़िडेंशियल रेफरेंस (Presidential Reference) के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच सदस्यीय निकाय के रूप में कॉलेजियम का विस्तार किया, जिसमें CJI और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे।
      • सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की अध्यक्षता CJI द्वारा की जाती है और इसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
      • एक उच्च न्यायालय के कॉलेजियम का नेतृत्व उसके मुख्य न्यायाधीश और उस न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
        • उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिये अनुशंसित नाम CJI और सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के अनुमोदन के बाद ही सरकार तक पहुँचते हैं।
      • उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही की जाती है और इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका कॉलेजियम द्वारा नाम तय किये जाने के बाद की प्रक्रिया में ही होती है।
      • यदि किसी वकील को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया जाना है तो सरकार की भूमिका आसूचना ब्यूरो या इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) द्वारा उसकी जाँच कराए जाने तक ही सीमित होती है।
        • आसूचना ब्यूरो (Intelligence Bureau- IB): यह एक प्रतिष्ठित और स्थापित खुफिया एजेंसी है। इसे गृह मंत्रालय द्वारा आधिकारिक रूप से नियंत्रित किया जाता है।
      • सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों पर आपत्तियाँ उठा सकती है और कॉलेजियम की पसंद के बारे में स्पष्टीकरण मांग सकती है,  परंतु यदि कॉलेजियम द्वारा उन्हीं नामों की अनुशंसा  दोबारा की जाती है तो सरकार संवैधानिक पीठ के निर्णयों के तहत उन्हें न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के लिये बाध्य होगी।

      विभिन्न न्यायिक नियुक्तियों के लिये निर्धारित प्रक्रिया:

      • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI):
        • CJI और सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
        • अगले CJI के संदर्भ में निवर्तमान CJI अपने उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिश करते हैं।
        • हालाँकि वर्ष 1970 के दशक के अतिलंघन विवाद के बाद से व्यावहारिक रूप से इसके लिये वरिष्ठता के आधार का पालन किया गया है। 
      • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश :
        • SC के अन्य न्यायाधीशों के लिये नामों के चयन का प्रस्ताव CJI द्वारा शुरू किया जाता है।
        • CJI कॉलेजियम के बाकी सदस्यों के साथ-साथ उस उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश से भी परामर्श करता है, जिससे न्यायाधीश पद के लिये अनुशंसित व्यक्ति संबंधित होता है।   
        • निर्धारित प्रक्रिया के तहत परामर्शदाताओं को लिखित रूप में अपनी राय दर्ज करानी होती है और इसे फाइल का हिस्सा बनाया जाना चाहिये।
        • कॉलेजियम केंद्रीय कानून मंत्री को अपनी सिफारिश भेजता है, जिसके माध्यम से  इसे राष्ट्रपति को सलाह देने हेतु प्रधानमंत्री को भेजा जाता है।
      • उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश के लिये:
        • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति इस आधार पर की जाती है मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने वाले व्यक्ति संबंधित राज्य से न होकर किसी अन्य राज्य से होगा।
        • यद्यपि उनके चयन का निर्णय कॉलेजियम द्वारा लिया जाता है।  
        • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश CJI और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है। 
        • हालाँकि इसके लिये प्रस्ताव को संबंधित उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों से परामर्श के बाद पेश किया जाता है
        • यह सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो इस प्रस्ताव को केंद्रीय कानून मंत्री को भेजने के लिये राज्यपाल को सलाह देता है।

      कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना:

      • पारदर्शिता की कमी।
      • भाई-भतीजावाद जैसी विसंगतियों की संभावना।
      • सार्वजनिक विवादों में उलझना।
      • कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी।

      नियुक्ति प्रणाली में सुधार के प्रयास:

      • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission) द्वारा इसे बदलने के प्रयास को वर्ष 2015 में अदालत द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये खतरा उत्पन्न हो सकता है।

      संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

      • अनुच्छेद 124(2):  भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के प्रावधानों के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा  सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों में उच्च न्यायालयों के कुछ न्यायाधीशों  (राष्ट्रपति इस उद्देश्य के लिये जितने न्यायाधीशों के परामर्श को उपयुक्त समझे) के परामर्श के बाद की जाएगी।   
      • अनुच्छेद 217: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 217 के प्रावधानों के अनुसार,  एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा CJI, संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श और  मुख्य न्यायाधीश के अलावा अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जाएगी।  

      आगे की राह

      • न्याय पालिका की रिक्तियों को भरना एक निरंतर और सहयोगात्मक प्रक्रिया है जिसमें कार्यपालिका तथा न्यायपालिका दोनों का योगदान शामिल होता है और इसके लिये कोई समयसीमा नहीं हो सकती है। हालाँकि वर्तमान में न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने हेतु  पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ न्यायिक चयन प्रक्रिया को संस्थागत बनाने के लिये एक स्थायी, स्वतंत्र निकाय की स्थापना के बारे विचार करना बहुत आवश्यक है।  
      • न्यायिक चयन प्रणाली को स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए इसमें विविधता को प्रतिबिंबित करने  के साथ अपनी पेशेवर क्षमता और अखंडता का प्रदर्शन करना चाहिये।
      • कुछ निश्चित रिक्तियों के लिये एक निर्धारित संख्या में न्यायाधीशों के चयन की बजाय कॉलेजियम द्वारा राष्ट्रपति को प्राथमिकता और अन्य वैध श्रेणियों के तहत न्यायाधीशों के चयन के लिये संभावित नामों की एक सूची प्रदान की जानी चाहिये।

      स्रोत: द हिंदू


      RoDTEP योजना

      प्रिलिम्स के लिये

      RoDTEP योजना, मर्चेंडाइज़ एक्सपोर्ट फ्रॉम इंडिया स्कीम, ‘फ्रेट ऑन बोर्ड’ मूल्य

      मेन्स के लिये

      योजना का महत्त्व और संबंधित चुनौतियाँ

      चर्चा में क्यों?

      हाल ही में ‘वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय’ ने वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिये 8,555 उत्पादों हेतु ‘निर्यात उत्पादों पर शुल्क और करों की छूट’ (RoDTEP) योजना के तहत कर रिफंड दरों की घोषणा की है।

      प्रमुख बिंदु

      ‘निर्यात उत्पादों पर शुल्क और करों की छूट’ (RoDTEP) योजना 

      • RoDTEP योजना निर्यातकों को ऐसे अंतर्निहित केंद्रीय, राज्य और स्थानीय शुल्क या करों को वापस कर देगी, जिन पर अब तक या तो छूट नहीं दी जा रही थी या उन्हें वापस नहीं किया जा रहा था, जिसके कारण भारत के निर्यातकों को नुकसान हो रहा था।
      • यह योजना उन करों या शुल्कों पर लागू नहीं होगी, जिन पर पहले ही छूट दी जा चुकी है या जिन्हें वापस किया जा चुका है। 

      लॉन्च

      • इसे जनवरी 2021 में ‘मर्चेंडाइज़ एक्सपोर्ट फ्रॉम इंडिया स्कीम’ (MEIS) के प्रतिस्थापन के रूप में शुरू किया गया था, जो विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुरूप नहीं थी।
        • MEIS योजना के तहत निर्यात के ‘फ्रेट ऑन बोर्ड’ (FOB) मूल्य पर 2% से 7% का अतिरिक्त लाभ प्रदान किया जा रहा था।
        • विश्व व्यापार संगठन के मानदंडों के अनुसार, एक देश को MEIS जैसी निर्यात सब्सिडी नहीं दी जा सकती है यदि उस देश की प्रति व्यक्ति आय 1000 अमेरिकी डॉलर से अधिक है और भारत की प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2017 में 1000 अमेरिकी डॉलर से अधिक थी। भारत बाद में ‘विश्व व्यापार संगठन’ में यह मामला हार गया और उसे भारतीय निर्यातकों की सहायता के लिये WTO के नियमों के अनुरूप एक नई योजना बनानी पड़ी।
      • परिधान निर्यातकों के लिये ‘राज्य और केंद्रीय लेवी तथा कर’ (RoSCTL) योजना की छूट अलग से अधिसूचित की गई है।

      दरें

      • विभिन्न क्षेत्रों के लिये कर रिफंड दरें 0.5% से 4.3% तक हैं।
      • यह छूट निर्यात के ‘फ्रेट ऑन बोर्ड’ मूल्य के प्रतिशत के रूप में दी जाएगी।

      निर्गमन

      महत्त्व:

      • भारत की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाना:
        • विद्युत् शुल्क पर कर, परिवहन में ईंधन पर मूल्यवर्द्धित कर, कृषि क्षेत्र आदि जैसे करों की प्रतिपूर्ति भारतीय उत्पादों को वैश्विक बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धी बनाएगी।
        • अगले 5-10 वर्षों में भारत द्वारा प्रतिस्पर्द्धात्मकता, व्यापार प्रवाह और निर्यात संख्या को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करने की आशा है।
      • अंतर्राष्ट्रीय मानकों की बराबरी:
        • भारतीय निर्यातक, निर्यात के लिये अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करने में सक्षम होंगे क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों पर निर्भर होने के बजाय देश के भीतर निर्यातकों को सस्ते परीक्षण और प्रमाणन उपलब्ध कराया जाएगा।
        • इससे देश के लिये अर्थव्यवस्था और उद्यमों हेतु कार्यशील पूंजी में वृद्धि होगी।
      • स्वचालित कर निर्धारण:
        • साथ ही इसके तहत निर्यातकों के लिये टैक्स असेसमेंट पूरी तरह से ऑटोमेटिक हो जाएगा। व्यवसायों को एक स्वचालित धन वापसी-मार्ग के माध्यम से जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) के लिये उनके रिफंड तक पहुँच प्राप्त होगी।

      मुद्दे:

      • कम दर:
        • इस योजना ने कई निर्यातकों को निराश किया क्योंकि कम बजट आवंटन के साथ दरें MEIS दरों से काफी कम हैं।
        • इन दरों में बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग उत्पादों में स्टील जैसे कच्चे माल में अंतर्निहित करों को ध्यान में नहीं रखा गया है।
      • बड़े क्षेत्रों का वंचन:
        • ऐसा प्रतीत होता है कि ये लाभ प्रमुख निर्यात जैसे- स्टील, फार्मा आदि और अग्रिम प्राधिकरण, निर्यात उन्मुख इकाई (EOU), विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ), आदि के तहत किये गए निर्यात के लिये उपलब्ध नहीं है।
        • इसका भारतीय निर्यात की प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और निर्यातकों के बीच नकारात्मक भावना पैदा होगी।

      फ्रेट ऑन बोर्ड:

      • इसे फ्री ऑन बोर्ड (FOB) भी कहा जाता है, जिसका इस्तेमाल यह इंगित करने के लिये किया जाता है कि शिपिंग के दौरान किसी भी वस्तु के क्षतिग्रस्त या नष्ट होने पर कौन उत्तरदायी है।
        • "FOB ऑरिजिन" का अर्थ है कि खरीदार जोखिम में है और विक्रेता द्वारा उत्पाद को शिप किये जाने के बाद माल पर खरीददार का स्वामित्व होता है।
        • "FOB डेस्टिनेशन" का अर्थ है कि जब तक माल खरीदार तक नहीं पहुँचता तब तक किसी भी प्रकार के नुकसान का जोखिम विक्रेता पर बना रहता है।
      • FOB की शर्तें खरीदार की माल सूची  लागत (Inventory Cost) को प्रभावित करती हैं; शिप किये गए माल में देयता को जोड़े जाने से माल सूची लागत बढ़ जाती है तथा नोवल या शुद्ध आय कम हो जाती है।

      स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


      सामुदायिक पुलिस व्यवस्था

      प्रिलिम्स के लिये:

      सामुदायिक पुलिसिंग

      मेन्स के लिये:

      'उम्मीद' कार्यक्रम के लाभ एवं चुनौतियाँ 

      चर्चा में क्यों?   

      हाल ही में दिल्ली पुलिस आयुक्त ने एक सामुदायिक पुलिसिंग कार्यक्रम 'उम्मीद' (Ummeed) का उद्घाटन किया।

      प्रमुख बिंदु

      उम्मीद (Ummeed) के बारे में:

      • सामुदायिक पुलिसिंग का मूल सिद्धांत यह है कि 'एक पुलिसकर्मी वर्दी वाला नागरिक होता है और एक नागरिक बिना वर्दी वाला पुलिसकर्मी होता है'।
        • सामुदायिक पुलिसिंग का सार पुलिसकर्मियों और नागरिकों के बीच की दूरी को इस हद तक कम करना है कि पुलिसकर्मी उस समुदाय का एक एकीकृत हिस्सा बन जाए जिसकी वे सेवा करते हैं।
      • इसे कानून को लागू करने वाले दर्शन के रूप में परिभाषित किया गया है जो पुलिस को उस क्षेत्र में रहने और कार्य करने वाले नागरिकों के साथ एक मज़बूत संबंध स्थापित  करने के लिये दोनों को  एक ही क्षेत्र में लगातार कार्य करने की अनुमति देता है।
      • यह पुलिस और जनता के बीच विश्वास की कमी को कम करने में मदद करता है क्योंकि इसके लिये पुलिस को अपराध की रोकथाम और अपराध का पता लगाने, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने तथा स्थानीय संघर्षों को हल करने हेतु समुदाय के साथ मिलकर कार्य करने की आवश्यकता होती है, जिसका उद्देश्य जीवन और सुरक्षा की भावना की बेहतर गुणवत्ता प्रदान करना है।

      लाभ:

      • किसी सरकारी वित्त सहायता की आवश्यता नहीं। 
      • अपराध और अव्यवस्था के  विरुद्ध प्रतिरक्षा में वृद्धि।
      • पारंपरिक पुलिसिंग में मददगार।
      • लोगों के बीच विश्वास कायम करना।  
      • सामाजिक संपर्क को प्रोत्साहित करने में मददगार।
      • पुलिस और जनता दोनों के मध्य प्रोत्साहन एवं आलोचना को  साझा करना। 
      • अपने कार्य क्षेत्र के प्रति पुलिस अधिकारियों में सुरक्षा का भाव होना।
      • विश्वसनीय और आवश्यक सूचनाओं की उपलब्धता। 
      • लोगों के मध्य ज़िम्मेदारी की भावना पैदा करना।
      • पुलिस एवं जनता दोनों की एक-दूसरे के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करना। 
      • समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना। 

      चुनौतियाँ:

      • पुलिस बल की खराब सार्वजनिक छवि।
      • पुलिस बल की खराब लोक सेवा पद्धति।
      • इससे भीड़ न्याय (Mob Justice) को बढ़ावा मिल सकता है।
      • निवासियों में यह विश्वास कि अपराध कुछ लोगों के लिये आजीविका का स्रोत है।

      अन्य उदाहरण:

      • जनमैत्री सुरक्षा परियोजना: केरल
      • संयुक्त गश्त समितियाँ: राजस्थान
      • मीरा पैबी (Meira Paibi): मणिपुर
      • सामुदायिक पुलिस परियोजना: पश्चिम बंगाल
      • मैत्री (Maithri): आंध्र प्रदेश
      • मोहल्ला समितियाँ: महाराष्ट्र
      • पुलिस मित्र: तमिलनाडु

      आगे की राह 

      • सामुदायिक पुलिसिंग के अंतर्गत किसी भी स्वयंसेवक को पुलिस की मदद करने की अनुमति दी जानी चाहिये, लेकिन पुलिस की भूमिका निभाने की नहीं। स्वयंसेवकों की तैनाती से पहले उनकी आपराधिक पृष्ठभूमि की जाँच की जानी चाहिये।
      • सामुदायिक पुलिसिंग एक दर्शन है, कार्यक्रम नहीं। यदि सामुदायिक पुलिसिंग के दर्शन को इसमें शामिल सभी लोग नहीं समझते हैं तो कार्यक्रम सफल नहीं होंगे।
      • सामुदायिक पुलिसिंग और समुदाय आधारित कार्यक्रमों के सामने सबसे बड़ी बाधा परिवर्तन का विचार है। अधिकारियों को पुलिसिंग की अवधारणा को बदलना होगा तथा नागरिकों को इस बदलाव को स्वीकार करने के लिये तैयार रहना होगा।

      स्रोत: द हिंदू