भूगोल
पूर्वोत्तर मानसून
- 26 Nov 2020
- 6 min read
प्रिलिम्स के लियेउत्तर-पूर्वी मानसूनी वर्षा, मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन, अंत: उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र, ला नीना, अलनीनो मेन्स के लियेप्रायद्वीपीय क्षेत्रों में उत्तर-पूर्वी मानसूनी वर्षा में गिरावट के कारण और प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के दक्षिणी प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में उत्तर-पूर्वी मानसूनी वर्षा में गिरावट देखी गई।
मुख्य बिंदु:
- भारत में वर्षा का पैटर्न: भारत एक वर्ष में दो मौसमी वर्षा प्राप्त करता है।
- देश की वार्षिक वर्षा का लगभग 75 प्रतिशत दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितंबर) से प्राप्त होता है।
- दूसरी ओर, पूर्वोत्तर मानसून (अक्तूबर-दिसंबर) तुलनात्मक रूप से छोटे पैमाने का मानसून होता है जो दक्षिणी प्रायद्वीप तक ही सीमित है।
- उत्तर-पूर्व मानसून से जुड़े क्षेत्र:
- इसे शीतकालीन मानसून भी कहा जाता है, पूर्वोत्तर मानसून से जुड़ी बारिश तमिलनाडु, पुडुचेरी, कराइकल, यनम, तटीय आंध्र प्रदेश, केरल, उत्तर आंतरिक कर्नाटक, माहे और लक्षद्वीप के लिये महत्वपूर्ण है।
- कुछ दक्षिण एशियाई देश जैसे मालदीव, श्रीलंका और म्यांमार में भी अक्तूबर से दिसंबर के दौरान रिकॉर्ड वर्षा दर्ज करते हैं।
- तमिलनाडु इस दौरान अपनी वार्षिक वर्षा का लगभग 48 प्रतिशत (447.4 mm) प्राप्त करता है, यह वर्षा राज्य में कृषि गतिविधियों और जलाशय प्रबंधन के लिये महत्वपूर्ण कारक है।
- देश से दक्षिण-पश्चिम मानसून के पूरी तरह से लौट जाने के बाद मध्यअक्तूबर तक हवा का पैटर्न तेज़ी से दक्षिण-पश्चिम से उत्तरी-पूर्वी दिशा में बदल जाता है।
- दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम के बाद की अवधि (अक्तूबर-दिसंबर) उत्तरी हिंद महासागरीय क्षेत्र (अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी) में चक्रवाती गतिविधि के लिये चरम समय है।
- कम दबाव प्रणाली या चक्रवात के गठन से जुड़ी हवाएँ इस मानसून को प्रभावित करती हैं।
- इसलिये चक्रवातों की समय पर जानकारी आकस्मिक योजना बनाने हेतु सरकार तथा आपदा प्रबंधन टीम के लिये महत्वपूर्ण हो जाता है।
इस पूर्वोत्तर मानसून में कमी के कारण:
प्रशांत महासागर में ला नीना की स्थितियाँ:
- ला नीना (La Niña) की स्थिति दक्षिण पश्चिम मानसून से जुड़ी वर्षा को बढ़ाती है लेकिन पूर्वोत्तर मानसून से जुड़ी वर्षा पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
- ला नीना मध्य और पूर्वी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह के तापमान के बड़े पैमाने पर शीतलन को संदर्भित करता है जो उष्णकटिबंधीय वायुमंडलीय परिसंचरण, जैसे-हवाओं, दबाव और वर्षा में परिवर्तन के साथ जुड़ा हुआ है।
- इसका आमतौर पर मौसम और जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ता है जैसे कि एल नीनो जो तथाकथित अल नीनो दक्षिणी दोलन (El Niño Southern Oscillation) का गर्म चरण है।
- प्रशांत महासागर में पेरू के निकट समुद्री तट के गर्म होने की घटना को अल-नीनो कहा जाता है।
- अल-नीनो एवं ला-नीना पृथ्वी की सर्वाधिक शक्तिशाली घटनाएँ हैं जो पूरे ग्रह के आधे से अधिक भाग के मौसम को परिवर्तित करती हैं।
- अल–नीनो एक वैश्विक प्रभाव वाली घटना है और इसका प्रभाव क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। स्थानीय तौर पर प्रशांत क्षेत्र में मत्स्य उत्पादन से लेकर दुनिया भर के अधिकांश मध्य अक्षांशीय हिस्सों में बाढ़, सूखा, वनाग्नि, तूफान या वर्षा आदि के रूप में इसका असर सामने आता है।
अंत: उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (Inter Tropical Convective Zone):
- ITCZ पृथ्वी पर भूमध्य रेखा के पास वृत्ताकार क्षेत्र है। यह पृथ्वी पर वह क्षेत्र है, जहाँ उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्धों की व्यापारिक हवाएँ, यानी पूर्वोत्तर व्यापारिक हवाएँ तथा दक्षिण-पूर्व व्यापारिक हवाएँ एक जगह मिलती हैं।
- भूमध्य रेखा पर सूर्य का तीव्र तापमान और गर्म जल ITCZ में हवा को गर्म करते हुए इसकी आर्द्रता को बढ़ा देते हैं जिससे यह उत्प्लावक बन जाता है।
- व्यापारिक हवाओं के अभिसरण (Convergence) के कारण यह ऊपर की तरफ उठने लगता है। ऊपर की तरफ उठने वाली यह हवा फैलती है और ठंडी हो जाती है, जिससे भयावह आँधी तथा भारी वर्षा शुरू हो जाती है।
अन्य महत्वपूर्ण वायुमंडलीय परिसंचरण:
- मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (Madden-Julian Oscillation): मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन को भूमध्य रेखा के पास पूर्व की ओर सक्रिय बादलों और वर्षा के प्रमुख घटक या निर्धारक (जैसे मानव शरीर में नाड़ी (Pulse) एक प्रमुख निर्धारक होती है) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो आमतौर पर हर 30 से 60 दिनों में स्वयं की पुनरावृत्ति करती है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस