रेड-इयर्ड स्लाइडर कछुआ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में हेपेटोलॉजिस्टों (Herpetologists) ने कहा है कि आक्रामक रेड-इयर्ड स्लाइडर कछुआ (Red-Eared Slider Turtle) भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में जल निकायों की जैव विविधता के लिये एक बड़ा खतरा बन सकता है।
- भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र देश में कछुओं और कछुओं की 72% से अधिक प्रजातियों का घर है।
प्रमुख बिंदु
रेड-इयर्ड स्लाइडर कछुआ के विषय में:
- वैज्ञानिक नाम: ट्रेकेमीस स्क्रिप्टा एलिगेंस (Trachemys Sscripta Elegans)
- पर्यावास: अमेरिका और उत्तरी मेक्सिको
- विवरण: इस कछुए का नाम उसके कानों के समीप पाई जाने वाली लाल धारियों तथा किसी भी सतह से पानी में जल्दी से सरक जाने की इसकी क्षमता की वजह से रखा गया है।
- लोकप्रिय पालतू जानवर: यह कछुआ अपने छोटे आकार, आसान रखरखाव और अपेक्षाकृत कम लागत के कारण अत्यंत लोकप्रिय पालतू जानवर है।
चिंता का कारण:
- आक्रामक प्रजातियाँ: चूँकि यह एक आक्रामक प्रजाति है, इसलिये यह तेज़ी से वृद्धि करती है और मूल प्रजातियों के खाने को खा जाती है, जिससे उन क्षेत्रों तथा प्रजातियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जहाँ ये वृद्धि व विकास करते हैं।
- कैच-22 स्थिति: जो लोग कछुए को पालतू जानवर के रूप में रखते हैं, वे कछुए के संरक्षण के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं, लेकिन इन कछुओं के बड़े हो जाने पर इन्हें घर पर बने एक्वेरियम, टैंक या पूल से निकालकर प्राकृतिक जल निकायों में छोड़कर स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डाल देते हैं।
- मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव: ये प्रजातियाँ अपने ऊतकों में विषाक्त पदार्थों को जमा कर सकती हैं। अतः इन्हें भोजन के रूप में खाने पर मानव स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है।
भारत की आक्रामक प्रजातियाँ
- आक्रामक प्रजातियाँ नए वातावरण में पारिस्थितिक या आर्थिक नुकसान का कारण बनती हैं।
- भारत में अनेक आक्रामक प्रजातियाँ जैसे- चारु मुसेल (Charru Mussel), लैंटाना झाड़ियाँ (Lantana bushes), इंडियन बुलफ्रॉग (Indian Bullfrog) आदि पाई जाती हैं।
आक्रामक प्रजातियों पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम
जैव सुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल, 2000:
- इस प्रोटोकॉल का उद्देश्य आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप संशोधित जीवों द्वारा उत्पन्न संभावित जोखिमों से जैव विविधता की रक्षा करना है।
जैविक विविधता पर सम्मलेन:
- यह रियो डी जनेरियो में वर्ष 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit) में अपनाए गए प्रमुख समझौतों में से एक था।
- जैव विविधता पर रियो डी जनेरियो कन्वेंशन (Rio de Janeiro Convention on Biodiversity), 1992 ने भी पौधों की विदेशी प्रजातियों के जैविक आक्रमण को निवास स्थान के विनाश के बाद पर्यावरण के लिये दूसरा सबसे बड़ा खतरा माना था।
- इस सम्मेलन का अनुच्छेद 8 (h) उन विदेशी प्रजातियों का नियंत्रण या उन्मूलन करता है जो प्रजातियों के पारिस्थितिकी तंत्र, निवास स्थान आदि के लिये खतरनाक हैं।
प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर कन्वेंशन (CMS) या बॉन कन्वेंशन, 1979:
- यह एक अंतर-सरकारी संधि है जिसका उद्देश्य स्थलीय, समुद्री और एवियन प्रवासी प्रजातियों को संरक्षित करना है।
- इसका उद्देश्य पहले से मौजूद आक्रामक विदेशी प्रजातियों को नियंत्रित करना या खत्म करना भी है।
CITES (वन्यजीव और वनस्पति की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन):
- यह वर्ष 1975 में अपनाया गया एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य वन्यजीवों और पौधों के प्रतिरूप को किसी भी प्रकार के खतरे से बचाना है तथा इनके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को रोकना है।
- यह आक्रामक प्रजातियों से संबंधित उन समस्याओं पर भी विचार करता है जो जानवरों या पौधों के अस्तित्व के लिये खतरा उत्पन्न करती हैं।
रामसर कन्वेंशन, 1971:
- यह कन्वेंशन अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के वेटलैंड्स के संरक्षण और स्थायी उपयोग के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है।
- यह अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर आर्द्र-भूमि पर आक्रामक प्रजातियों के पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक प्रभाव को भी संबोधित करता है तथा उनसे निपटने के लिये नियंत्रण और समाधान के तरीकों को भी खोजता है।
स्रोत: द हिंदू
कमज़ोर जनजातीय समूहों में कोविड संक्रमण का प्रसार
चर्चा में क्यों?
हाल ही में कोविड-19 की दूसरी लहर के कारण ओडिशा के आठ विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (Particularly Vulnerable Tribal Groups- PVTGs) के कई सदस्य संक्रमित हो गए।
- संक्रमित सुभेद्य जनजातियों में मलकानगिरि पहाड़ियों की बोंडा जनजाति (Bonda Tribe) और नियमगिरि पहाड़ियों की डोंगरिया कोंध जनजाति (Dongaria Kondh Tribe) शामिल हैं।
प्रमुख बिंदु:
ओडिशा में जनजातीय समूह:
- वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की कुल जनजातीय आबादी का 9% ओडिशा में पाया जाता है।
- राज्य की कुल जनसंख्या में 22.85 % जनजातीय समूह पाए जाते हैं।
- अपनी जनजातीय आबादी की संख्या के मामले में ओडिशा भारत में तीसरे स्थान पर है।
- ओडिशा में रहने वाले 62 जनजातीय समूहों में से 13 को विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- ओडिशा की 13 विशेष रूप से कमज़ोर जनजातियों में बोंडा (Bonda), बिरहोर (Birhor), चुक्तिया भुंजिया (Chuktia Bhunjia), दीदई (Didayi) , डोंगरिया कोंध (Dungaria Kandha), हिल खरिया (Hill Kharia), जुआंग (Juang), कुटिया कोंध (Kutia Kondh), लांजिया सोरा (Lanjia Saora), लोढ़ा (Lodha), मनकीडिया (Mankirdia), पाउड़ी भुइयां (Paudi Bhuyan) और सौरा (Saora) शामिल हैं।
- राज्य में जनजातीय आबादी सात ज़िलों कंधमाल, मयूरभंज, सुंदरगढ़, नबरंगपुर, कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ के अलावा 6 अन्य ज़िलों के कुछ हिस्सों में पाई जाती है।
विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTGs):
- आदिम जनजातीय समूहों (PTGs) का निर्माण: वर्ष 1973 में ढेबर आयोग (Dhebar Commission ) ने आदिम जनजातीय समूहों (Primitive Tribal Groups- PTGs) को एक अलग श्रेणी के रूप में वर्गीकृत किया , जो कि जनजातीय समूहों के मध्य कम विकसित होते हैं।
- वर्ष 2006 में भारत सरकार द्वारा PTGs का नाम परिवर्तित कर PVTGs कर दिया गया।
- वर्ष 1975 में भारत सरकार द्वारा PVTGs नामक एक अलग श्रेणी के रूप में सबसे कमज़ोर आदिवासी समूहों की पहचान की गई जिसमें ऐसे 52 समूहों को शामिल किया गया। वर्ष 1993 में इस श्रेणी में 23 और ऐसे अतिरिक्त समूहों को शामिल किया गया जिसमें 705 जनजातियों में से 75 को विशेष रूप से सुभेद्य जनजातीय समूह (PVTG’s) में शामिल किया गया।
- 75 सूचीबद्ध PVTG’s में से सबसे अधिक संख्या ओडिशा में पाई जाती है।
- PVTGs की विशेषताएंँ: सरकार PVTGs को निम्नलिखित आधार पर वर्गीकृत करती है:
- अलगाव की स्थिति
- स्थिर या घटती जनसंख्या
- साक्षरता का निम्न स्तर
- लिखित भाषा का अभाव
- अर्थव्यवस्था का पूर्व-कृषि आदिम चरण जैसे- शिकार, भोजन एकत्र करना, और स्थानांतरित खेती।
- PVTGs हेतु योजनाएंँ: जनजातीय समूहों में PVTGs अत्यधिक कमज़ोर हैं जिस कारण इनके विकास हेतु आदिवासी विकास निधि का एक बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा वहन किया जाता है। PVTGs को अपने विकास हेतु निर्देशित से अधिक धन की आवश्यकता होती है।
- जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने "पीवीटीजी के विकास" (Development of PVTGs) की योजना लागू की है जिसमें 75 PVTGs को उनके व्यापक सामाजिक-आर्थिक विकास हेतु शामिल किया गया है।
- इस योजना के तहत राज्य सरकारें अपनी आवश्यकता के आधार पर संरक्षण-सह-विकास (Conservation-cum-Development- CCD) योजनाएंँ प्रस्तुत करती हैं।
- योजना के प्रावधानों के अनुसार राज्यों को 100% सहायता अनुदान उपलब्ध कराया जाता है।
- जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने "पीवीटीजी के विकास" (Development of PVTGs) की योजना लागू की है जिसमें 75 PVTGs को उनके व्यापक सामाजिक-आर्थिक विकास हेतु शामिल किया गया है।
स्रोत: द हिंदू
वैश्विक प्रेषण पर रिपोर्ट : विश्व बैंक
चर्चा में क्यों?
हाल ही में जारी विश्व बैंक के माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट ब्रीफ के नवीनतम संस्करण के अनुसार, कोविड-19 प्रसार के बावजूद वर्ष 2020 में प्रेषित धन का प्रवाह लचीला रहा, जो पूर्व-अनुमानित आँकड़ो में कमी को प्रदर्शित करता है।
प्रमुख बिंदु
भारत का प्रेषण प्रवाह:
- विश्व अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली कोविड महामारी के बावजूद वर्ष 2020 में भारत प्रेषित धन का सबसे बड़ा प्राप्तकर्त्ता रहा है जिसने प्रेषित धन के रूप में 83 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक प्राप्त किया, जो पिछले वर्ष (2019) की तुलना में केवल 0.2 प्रतिशत कम है।
- वर्ष 2020 में भारत को प्रेषित धन में केवल 0.2% की गिरावट आई है, जिसमें संयुक्त अरब अमीरात से प्रेषित धन में 17% की कमी के कारण सर्वाधिक गिरावट हुई, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य आयोजक देशों से लचीले प्रवाह को परिलक्षित करता है।
- वर्ष 2019 में भारत को प्रेषित धन का 83.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्राप्त हुआ था।
वैश्विक प्रेषित धन या प्रेषण
- वर्ष 2020 में चीन का वैश्विक प्रेषित धन प्रवाह में दूसरा स्थान है।
- वर्ष 2020 में चीन को प्रेषित धन के रूप में 59.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्राप्त हुए।
- भारत और चीन के बाद क्रमशः मेक्सिको, फिलीपींस, मिस्र, पाकिस्तान, फ्राँस तथा बांग्लादेश का स्थान है।
प्रेषित धन का बहिर्वाह :
- संयुक्त राज्य अमेरिका (68 बिलियन अमेरिकी डॉलर) से प्रेषित धन का बहिर्वाह सर्वाधिक था, इसके बाद यूएई, सऊदी अरब, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी तथा चीन का स्थान है।
प्रेषित धन के स्थिर प्रवाह का कारण:
- राजकोषीय प्रोत्साहन के फलस्वरूप आयोजक देशों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत अधिक बेहतर हुई।
- नकद या कैश से डिजिटल की ओर तथा अनौपचारिक से औपचारिक चैनलों के प्रवाह में बदलाव करना।
- तेल की कीमतों और मुद्रा विनिमय दरों में चक्रीय उतार-चढ़ाव।
प्रेषित धन या रेमिटेंस (Remittance):
- प्रेषित धन वह धन है जो किसी अन्य पार्टी ( सामान्यत: एक देश से दूसरे देश में) को भेजा जाता है।
- प्रेषक आमतौर पर एक अप्रवासी होता है और प्राप्तकर्त्ता एक समुदाय/परिवार से संबंधित होता है। दूसरे शब्दों में रेमिटेंस से आशय प्रवासी कामगारों द्वारा धन अथवा वस्तु के रूप में अपने मूल समुदाय/परिवार को भेजी जाने वाली आय से है।
- रेमिटेंस कम आय वाले और विकासशील देशों में लोगों के लिये आय के सबसे बड़े स्रोतों में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। यह आमतौर पर प्रत्यक्ष निवेश और आधिकारिक विकास सहायता की राशि से अधिक होता है।
- रेमिटेंस परिवारों को भोजन, स्वास्थ्य देखभाल और मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करते हैं।
- विश्व में प्रेषित धन या रेमिटेंस का सबसे बड़ा प्राप्तकर्त्ता भारत है।रेमिटेंस भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि करता है और इसके चालू खाते के घाटे के लिये धन जुटाने में मदद करता है।
विश्व बैंक
परिचय
- अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (IBRD) तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना एक साथ वर्ष 1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन (Bretton Woods Conference) के दौरान हुई थी।
- अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (IBRD) को ही विश्व बैंक कहा जाता है।
- विश्व बैंक समूह गरीबी को कम करने और विकासशील देशों में साझा समृद्धि का निर्माण करने वाले स्थायी समाधानों के लिये कार्यान्वित पाँच संस्थानों की एक अनूठी वैश्विक साझेदारी है।
सदस्य:
- वर्तमान में 189 देश इसके सदस्य हैं।
- भारत भी इसका एक सदस्य है।
प्रमुख रिपोर्ट्स:
इसकी पाँच विकसित संस्थाएँ
- अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (IBRD) : यह लोन, ऋण और अनुदान प्रदान करता है।
- अंतर्राष्ट्रीय विकास संघ (IDA): यह निम्न आय वाले देशों को कम या बिना ब्याज वाले ऋण प्रदान करता है।
- अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम (IFC): यह कंपनियों और सरकारों को निवेश, सलाह तथा परिसंपत्तियों के प्रबंधन संबंधी सहायता प्रदान करता है।
- बहुपक्षीय निवेश गारंटी एजेंसी (MIGA): यह ऋणदाताओं और निवेशकों को युद्ध जैसे राजनीतिक जोखिम के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने का काम करती है।
- निवेश विवादों के निपटारे के लिये अंतर्राष्ट्रीय केंद्र (ICSID): यह निवेशकों और देशों के मध्य उत्पन्न निवेश-विवादों के सुलह और मध्यस्थता के लिये सुविधाएँ प्रदान करता है।
विश्व बैंक की माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट ब्रीफ रिपोर्ट :
- इसे विश्व बैंक की प्रमुख अनुसंधान और डेटा शाखा ‘डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स’ (Development Economics- DEC) की माइग्रेशन एंड रेमिटेंस यूनिट (Migration and Remittances Unit) द्वारा तैयार किया जाता है।
- इसका प्रमुख उद्देश्य छह महीनों में माइग्रेशन और रेमिटेंस के प्रवाह तथा संबंधित नीतियों के क्षेत्र में प्रमुख विकास पर एक अद्यतन प्रदान करना है।
- यह विकासशील देशों को रेमिटेंस प्रेषण प्रवाह के लिये मध्यम अवधि का अनुमान भी प्रदान करता है।
- यह डेटा वर्ष में दो बार तैयार किया जाता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
डेंगू: रोकथाम और पहचान
चर्चा में क्यों?
प्रत्येक वर्ष विभिन्न शहरों में बड़ी संख्या में डेंगू के मामलों सामने आते हैं जिस कारण इस बीमारी के बारे में जानना महत्त्वपूर्ण है।
प्रमुख बिंदु:
डेंगू:
- डेंगू एक मच्छर जनित उष्णकटिबंधीय बीमारी है जो डेंगू वायरस (जीनस फ्लेवीवायरस) के कारण होती है, इसका प्रसार मच्छरों की कई जीनस एडीज (Genus Aedes) प्रजातियों मुख्य रूप से एडीज़ इजिप्टी (Aedes aegypti) द्वारा होता है।
- यह मच्छर चिकनगुनिया (Chikungunya), पीला बुखार (Yellow Fever) और जीका संक्रमण (Zika Infection) का भी वाहक है।
- डेंगू को उत्पन्न करने वाले चार अलग-अलग परंतु आपस में संबंधित सीरोटाइप (सूक्ष्मजीवों की एक प्रजाति के भीतर अलग-अलग समूह जिनमें एक समान विशेषता पाई जाती हैं) DEN-1, DEN-2, DEN-3 और DEN-4 हैं।
लक्षण:
- अचानक तेज बुखार, तेज सिर दर्द, आंखों में दर्द, हड्डी, जोड़ और मांसपेशियों में तेज़ दर्द आदि।
निदान और उपचार:
- डेंगू संक्रमण का निदान रक्त परीक्षण से किया जाता है।
- डेंगू संक्रमण के इलाज हेतु कोई विशिष्ट दवा नहीं है।
डेंगू की स्थिति:
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization- WHO) के अनुसार, हाल के दशकों में वैश्विक स्तर पर डेंगू के मामलों में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है ।
- WHO के अनुसार, प्रतिवर्ष 39 करोड़ लोग डेंगू वायरस से संक्रमित होते हैं, जिनमें से 9.6 करोड़ लोगों में इसके लक्षण दिखाई देते हैं।
- ‘राष्ट्रीय वेक्टर-जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम’ (National Vector-Borne Disease Control Programme- NVBDCP) के अनुसार, वर्ष 2018 में भारत में डेंगू के 1 लाख से अधिक और वर्ष 2019 में 1.5 लाख से अधिक मामले दर्ज किये गए।
- NVBDCP भारत में छह वेक्टर जनित बीमारियों जिसमें मलेरिया, डेंगू, लिम्फैटिक फाइलेरिया, काला-जार, जापानी इंसेफेलाइटिस और चिकनगुनिया शामिल हैं, की रोकथाम और नियंत्रण हेतु एक केंद्रीय नोडल एजेंसी है। यह स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत कार्य करता है।
बैक्टीरिया का उपयोग करके डेंगू को नियंत्रित करना:
- हाल ही में वर्ल्ड मॉस्किटो प्रोग्राम (World Mosquito Program) के शोधकर्त्ताओं ने इंडोनेशिया में डेंगू को सफलतापूर्वक नियंत्रित करने हेतु वोल्बाचिया बैक्टीरिया (Wolbachia Bacteria) से संक्रमित मच्छरों का इस्तेमाल किया है।
- विधि:
- वैज्ञानिकों ने कुछ मच्छरों को वोल्बाचिया बैक्टीरिया से संक्रमित कर उन्हें शहर में छोड़ दिया, जहांँ उन्होंने स्थानीय मच्छरों के साथ तब तक प्रजनन किया, जब तक कि क्षेत्र के लगभग सभी मच्छरों के शरीर में वोल्बाचिया बैक्टीरिया प्रविष्ट नहीं हो गया। इसे जनसंख्या प्रतिस्थापन रणनीति (Population Replacement Strategy) कहा जाता है।
- 27 माह के अंत में शोधकर्त्ताओं ने पाया कि जिन क्षेत्रों में वोल्बाचिया-संक्रमित मच्छरों को छोड़ा गया था, वहां डेंगू की घटनाएंँ उन क्षेत्रों की तुलना में 77% कम थीं जहाँ वोल्बाचिया-संक्रमित मच्छरों को नहीं छोड़ा गया था।
डेंगू का टीका:
- वर्ष 2019 में यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (US Food & Drug Administration) द्वारा डेंगू के टीके CYD-TDV या डेंगवाक्सिया (CYD-TDV or Dengvaxia) को अनुमोदित किया गया था, जो अमेरिका में नियामक मंज़ूरी पाने वाला पहला डेंगू का टीका था।
- डेंगवाक्सिया मूल रूप से एक जीवित, क्षीण डेंगू वायरस से निर्मित टीका है जिसे 9 से 16 वर्ष की आयु के उन लोगों को लगाया जाता है , जिनमें पूर्व में डेंगू संक्रमण की पुष्टि की गई है तथा जो स्थानिक क्षेत्रों में रहते हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
पोस्ट-कोविड शिक्षा हेतु नया दृष्टिकोण
चर्चा में क्यों?
कोविड-19 संक्रमण की दूसरी लहर के कारण पूरे देश में छात्रों की शिक्षा प्रभावित हुई है।
प्रमुख बिंदु:
चिंताएँ:
- ऑनलाइन शिक्षा की उपलब्धता:
- ऑनलाइन शिक्षा की कल्पना शिक्षा के प्रसार के वैकल्पिक साधन के रूप में की गई थी, लेकिन भारतीय छात्रों के लिये वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह भी विफल हो जाती है।
- इस प्रणाली की उपलब्धता और वहनीयता अब एक बाधा के रूप में उभरी है।
- ‘ई-शिक्षा’ उच्च और मध्यम वर्ग के छात्रों हेतु एक विशेषाधिकार के रूप में उभरी है, यह निम्न मध्यम वर्ग के छात्रों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिये एक बाधा सिद्ध हुई है।
- इंटरनेट पर दीर्घकालिक निर्भरता:
- छोटे बच्चों के लिये इंटरनेट पर लंबे समय तक संपर्क के अन्य निहितार्थ भी हैं।
- यह युवा पीढ़ी की सोचने की क्षमता संबंधी प्रक्रिया के विकास में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
- विश्लेषणात्मक क्षमता में कमी:
- अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न ऑनलाइन शिक्षा से सीखने के परिणामों के संबंध में उत्पन्न हुए हैं।
- गूगल सभी प्रश्नों के उत्तर के लिये प्रमुख और एकमात्र मंच है, इसके परिणामस्वरूप छात्रों की स्वयं की सोचने की क्षमता प्रभावित हो रही है।
- भारत में आधुनिक शिक्षा की स्थापना के समय से ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रमुख मानदंड पर बल दिया गया था।
- छात्र अलगाव में वृद्धि:
- महामारी और भौतिक कक्षा शिक्षण की कमी के कारण छात्रों के मन में अलगाव की एक अजीबोगरीब भावना विकसित हो रही है। यह बहुत गंभीर मुद्दा है। दूसरी लहर का आघात छात्रों के मन पर गहरी छाप छोड़ेगा।
- शारीरिक संपर्क और गतिविधियाँ पूरी तरह से अनुपस्थित रही हैं और यह भी नई समस्याओं में योगदान दे सकती है।
संभावित समाधान:
- अवसंरचनात्मक उपयोग:
- बुनियादी ढाँचे का पूरी तरह से उपयोग किया जाना चाहिये और यदि आवश्यक हो तो शिक्षा प्रदान करने हेतु कई अन्य उपायों पर निवेश करना चाहिये।
- कक्षा के माध्यम से शिक्षण हमें सूचना के अलावा और भी बहुत कुछ प्रदान करने का अवसर देता है।
- बुनियादी ढाँचे का पूरी तरह से उपयोग किया जाना चाहिये और यदि आवश्यक हो तो शिक्षा प्रदान करने हेतु कई अन्य उपायों पर निवेश करना चाहिये।
- नई सामग्री;
- संस्थानों के मौजूदा पाठ्यक्रम के ढाँचे के भीतर कक्षा शिक्षण की अनुपस्थिति को दूर करने के लिये प्रत्येक विषय हेतु नई सामग्री निर्माण पर विचार करना चाहिये।
- यह सामग्री एक नए प्रकार की होगी जो आत्म-व्याख्यात्मक होगी, और कक्षा के निम्नतम IQ को देखते हुए इसे आकर्षक होना चाहिये।
- सामग्री का छात्रों के दिमाग पर वही प्रभाव पैदा होना चाहिये, जैसे कि अच्छी किताबें सोचने की क्षमता प्रदान करती है।
- व्यक्तिगत पर्यवेक्षण:
- शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों को काम की निगरानी के लिये साप्ताहिक आधार पर छात्रों से संबंधित क्षेत्रों (स्कूल क्षेत्र में और आसपास) का दौरा करना चाहिये।
- उन्हें पठन सामग्री को समझने में छात्रों के सामने आने वाली समस्याओं पर ध्यान देना चाहिये और यह भी कि क्या संबंधित सामग्री उन तक समय पर पहुँच रही है।
- नई मूल्यांकन प्रणाली:
- मूल्यांकन विश्लेषण की क्षमता पर आधारित होना चाहिये और प्रश्नों को इस तरह से तैयार किया जाना चाहिये कि छात्रों को प्रत्येक विषय पर प्रश्नों के उत्तर देने हेतु दिमाग लगाने की आवश्यकता हो।
- टीकाकरण को प्राथमिकता देना:
- इसके अलावा सरकार को इस सीखने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये जितनी जल्दी हो सके पूरे शिक्षण समुदाय का टीकाकरण करने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये।
ई-लर्निंग से संबंधित सरकारी पहलें:
- E-PG पाठशाला:
- अध्ययन हेतु ई-सामग्री प्रदान करने के लिये मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक पहल।
- स्वयम् (SWAYAM):
- यह ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिये एक एकीकृत मंच प्रदान करता है।
- नीट (NEAT):
- इसका उद्देश्य सीखने वाले की आवश्यकताओं के अनुसार सीखने को अधिक व्यक्तिगत और अनुकूलित बनाने के लिये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग करना है
- प्रज्ञाता दिशा-निर्देश:
- मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) ने प्रज्ञाता (PRAGYATA) शीर्षक से डिजिटल शिक्षा पर दिशा-निर्देश जारी किये।
- PRAGYATA दिशा-निर्देशों के तहत किंडरगार्टन, नर्सरी और प्री-स्कूल के छात्रों के माता-पिता के साथ बातचीत करने के लिये प्रतिदिन केवल 30 मिनट स्क्रीन टाइम की सिफारिश की जाती है।
- प्रौद्योगिकी वर्द्धन शिक्षा पर राष्ट्रीय कार्यक्रम (NPTEL):
- NPTEL भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलूरू के साथ सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) द्वारा शुरू की गई MHRD की एक परियोजना है।
- इसे वर्ष 2003 में शुरू किया गया था और इसका उद्देश्य इंजीनियरिंग, विज्ञान और प्रबंधन में वेब और वीडियो कोर्स कराना था।
आगे की राह:
- कोविड -19 ने दर्शाया है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली किस हद तक असमानताओं से ग्रस्त है।
- इस प्रकार निजी और सार्वजनिक शिक्षा क्षेत्र के बीच तालमेल के लिये नई प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता है। इस संदर्भ में शिक्षा को एक सामान्य वस्तु बनाने की आवश्यकता है और डिजिटल नवाचार इस उपलब्धि को हासिल करने में मदद कर सकता है।
स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस
ज़बरन या अनैच्छिक विलुप्ति
चर्चा में क्यों?
म्याँमार में सैन्य तख्तापलट के बाद से ज़बरन या अनैच्छिक विलुप्ति होने पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह (WGEID) को पीड़ितों के परिवार के सदस्यों से अपहरण होने की सूचना मिली है।
- कई एशियाई देश लोगों को विद्रोह से हटाने के लिये ज़बरन अपहरण का उपयोग एक उपकरण के रूप में कर रहे हैं।
प्रमुख बिंदु
परिचय :
- ज़बरन विलुप्ति या अपहरण का आशय से जब किसी व्यक्ति को किसी राज्य या राजनीतिक संगठन द्वारा या किसी राज्य या राजनीतिक संगठन के प्राधिकरण के समर्थन से किसी तीसरे पक्ष द्वारा गुप्त रूप से अपहरण या कैद किया जाता है, जिसके बाद पीड़ित को कानून के संरक्षण से बाहर रखने के इरादे से उस व्यक्ति से संबंधित सूचना और ठिकाने के बारे में जानकारी से इनकार कर दिया जाता है।
- 1970 के दशक और 1980 के दशक की शुरुआत में अर्जेंटीना में 'डर्टी वॉर' (Dirty War) के दौरान लोगों की ज़बरन विलुप्ति या अपहरण की घटनाओं के बारे में दुनिया को व्यापक रूप से जानकारी मिली।
- डर्टी वॉर, जिसे प्रोसेस ऑफ नेशनल रिऑर्गनाइज़ेशन भी कहा जाता है, यह संदिग्ध वामपंथी राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अर्जेंटीना के सैन्य तानाशाह द्वारा चलाया गया एक कुख्यात अभियान था।
ज़बरन विलुप्ति के घटक:
- व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध उसे स्वतंत्रता से वंचित करना।
- सरकारी अधिकारियों की सहमतिपूर्ण भागीदारी।
- स्वतंत्रता से वंचित या सूचना या ठिकाने की जानकारी के अभाव को स्वीकार करने से इनकार करना।
हालिया घटनाएँ:
- म्याँमार:
- सेना जन आंदोलन को रोकने के लिये प्रतिबद्ध है और पुलिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र की बहाली की मांग करने वालों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न के अकल्पनीय कृत्यों को अंजाम दे रही है।
- चीन:
- आतंकवाद को रोकने के लिये पुन: शिक्षा को बढ़ावा देना जैसे- उइगर अल्पसंख्यक जातीय समूह के सदस्यों को ज़बरन भेजा जाता है जिसे चीनी अधिकारी 'व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण केंद्र' कहते हैं, उनके ठिकाने की कोई जानकारी नहीं होती है।
- श्रीलंका:
- श्रीलंका ने तीन दशकों से अधिक समय से विभिन्न प्रकार के ज़बरन गायब होने की समस्याओं के कारण घरेलू संघर्ष का सामना किया है।
- पाकिस्तान एवं बांग्लादेश:
- आतंकवाद-विरोधी उपायों के नाम पर लोगों को ज़बरन गायब किया जा रहा है।
वैश्विक उपाय:
- जबरन या अनैच्छिक विलुप्ति होने पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह (WGEID):
- परिचय:
- 1980 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग (जिसे अब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के नाम से जाना जाता है ) ने "एक वर्ष की अवधि के लिये इसके पाँच सदस्यों के साथ एक कार्य समूह की स्थापना करने का निर्णय लिया, जो व्यक्तियों के जबरन या अनैच्छिक गायब होने संबंधी उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं के संबंध में विशेषज्ञों के रूप में सेवा तथा प्रश्नों की जाँच करेगा।
- कार्यप्रणाली:
- परिवारों की सहायता:
- यह परिवारों को उनके परिवार के सदस्यों के भविष्य या पुनर्वास का निर्धारण करने में सहायता करता है जो कथित तौर पर गायब हो गए हैं।
- उपकृत राज्य:
- इसे घोषणा से प्राप्त अपने दायित्वों को पूरा करने में राज्यों की प्रगति की निगरानी करने और इसके कार्यान्वयन में सरकारों को सहायता प्रदान करने के लिये सौंपा गया है।
- एनजीओ की उपस्थिति :
- यह घोषणा के विभिन्न पहलुओं पर सरकारों और गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) का ध्यान आकर्षित करता है तथा इसके प्रावधानों की प्राप्ति में आने वाली बाधाओं को दूर करने के उपायों की सिफारिश करता है।
- परिवारों की सहायता:
- परिचय:
- 2006 में विलुप्ति से सभी व्यक्तियों के संरक्षण का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन:
- ज़बरन विलुप्ति से मुक्त होने के अधिकार की रक्षा के लिये वर्ष 2006 में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने सभी व्यक्तियों के विलुप्त होने से सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन को अपनाया।
- यह 2010 में प्रभावी हुआ और ज़बरन विलुप्ति की घटनाओं पर एक समिति (CED) की स्थापना की गई।
- CED और WGEID साथ-साथ रहते हुए विलुप्तियों को रोकने और हटाने के संयुक्त प्रयासों को मज़बूत करने के उद्देश्य से अपनी गतिविधियों में सहयोग और समन्वय करना चाहते हैं।
- इसमें अन्य संधियों की तुलना में भाग लेने वाले राज्यों की संख्या अभी भी बहुत कम है।
- संधि के 63 सदस्य देशों में से एशिया-पैसिफिक क्षेत्र के केवल आठ राज्यों ने संधि की पुष्टि की है या स्वीकार किया है।
- केवल चार पूर्वी एशियाई राज्यों ने (कंबोडिया, जापान, मंगोलिया और श्रीलंका) इसकी पुष्टि की है।
- भारत ने हस्ताक्षर किये हैं लेकिन इसकी पुष्टि नहीं की है।
- ज़बरन विलुप्ति से मुक्त होने के अधिकार की रक्षा के लिये वर्ष 2006 में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने सभी व्यक्तियों के विलुप्त होने से सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन को अपनाया।
संबंधित भारतीय कानून:
- भारत में जबरन गायब होने के लिये कोई विशिष्ट कानून नहीं है, लेकिन अत्याचार, अतिरिक्त न्यायिक हत्याओं और ज़बरन गायब करने पर अंतरराष्ट्रीय, संवैधानिक कानूनी सुरक्षा उपलब्ध है जैसे- सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम, 1958, अत्याचार निवारण विधेयक, 2017, सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 आदि
आगे की राह
- अपहरण करना एक गंभीर अपराध है जिसे मानवता के खिलाफ माना जाता है। परिवार के सदस्यों का दर्द और पीड़ा तब तक खत्म नहीं होती जब तक वे अपने प्रियजनों के कुशल होने या आवासित स्थान का पता नहीं लगा लेते।
- एशियाई देशों को अपने दायित्वों और ज़िम्मेदारियों पर अधिक गंभीरता से विचार करना चाहिये और ज़बरन विलुप्तियों की समाप्ति के लिये दंड से मुक्ति करने की प्रवृति को अस्वीकार करना चाहिये।
- घरेलू आपराधिक कानून प्रणाली अपहरण के अपराध से निपटने के लिये पर्याप्त नहीं है। ये निरंतर घटित होने वाले अपराध हैं जिनके खिलाफ लड़ने के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को जल्द-से-जल्द ज़बरन विलुप्तियो को समाप्त करने के लिये अपने प्रयासों को मज़बूत करना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
जेल की भीड़भाड़ संबंधी समस्या
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने कोविड-19 महामारी की अनियंत्रित वृद्धि को देखते हुए पात्र कैदियों की अंतरिम रिहाई का आदेश दिया है।
- न्यायालय के इस आदेश का उद्देश्य जेलों में भीड़ कम करना और कैदियों के जीवन तथा स्वास्थ्य के अधिकार की रक्षा करना है।
प्रमुख बिंदु
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के मुख्य बिंदु:
- न्यायालय ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (Arnesh Kumar vs State of Bihar) 2014 मामले में निर्धारित मानदंडों का पालन करने की आवश्यकता पर बल दिया।
- इस मामले के तहत न्यायालय ने पुलिस को अनावश्यक गिरफ्तारी नहीं करने के लिये कहा था, खासकर उन मामलों में जिनमें सात वर्ष से कम जेल की सजा होती है।
- देश के सभी ज़िलों के अधिकारी आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- Cr.P.C) की धारा 436ए को प्रभावी ढंग से लागू करेंगे।
- Cr.P.C की धारा 436A के तहत अपराध के लिये निर्धारित अधिकतम जेल अवधि का आधा समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत गारंटी पर रिहा किया जा सकता है।
- न्यायालय ने जेलों में भीड़भाड़ से बचने के लिये दोषियों को उनके घरों में नज़रबंद रखने पर विचार करने के लिये विधायिका को सुझाव दिया है।
- वर्ष 2019 में जेलों में कैदियों के रहने की दर बढ़कर 118.5% हो गई थी। इसके अलावा जेलों के रखरखाव के लिये बजट की एक बहुत बड़ी राशि का उपयोग किया जाता है।
- सभी राज्यों को एक निश्चित अवधि के लिये जमानत या पैरोल पर रिहा किये जा सकने वाले कैदियों की श्रेणी का निर्धारण करने हेतु निवारक कदम उठाने के साथ-साथ उच्चाधिकार प्राप्त समितियों का गठन करने का आदेश दिया गया।
भारतीय जेलों की स्थिति:
- भारतीय जेलों को लंबे समय से चली आ रही तीन संरचनात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है:
- अतिरिक्त भीड़
- स्टाफ और फंडिंग में कमी और
- हिंसक संघर्ष
- वर्ष 2019 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा प्रकाशित ‘प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया’ 2016 में भारत में कैदियों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला गया है।
- विचाराधीन जनसंख्या: भारत की विचाराधीन कैदियों की आबादी दुनिया में सबसे अधिक है और वर्ष 2016 में सभी विचाराधीन कैदियों में से आधे से अधिक को छह महीने से भी कम समय के लिये हिरासत में लिया गया था।
- रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2016 के अंत में 4,33,033 लोग जेल में थे, जिनमें से 68% विचाराधीन थे।
- इससे पता चलता है कि जेल की संपूर्ण आबादी में विचाराधीन कैदियों का उच्च अनुपात सुनवाई के दौरान अनावश्यक गिरफ्तारी और अप्रभावी कानूनी सहायता का परिणाम हो सकता है।
- निवारक हिरासत में रखे गए लोग: जम्मू और कश्मीर में प्रशासनिक (या 'निवारक') निरोध कानूनों के तहत पकड़े गए लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है।
- वर्ष 2015 के 90 की तुलना में वर्ष 2016 में 431 बंदियों के साथ 300% की वृद्धि हुई।
- प्रशासनिक या 'निवारक', निरोध का उपयोग अधिकारियों द्वारा बिना किसी आरोप या मुकदमे के व्यक्तियों को हिरासत में लेने और नियमित आपराधिक न्याय प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिये किया जाता है।
- C.R.P.C की धारा 436A के बारे में अनभिज्ञता: आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 436ए के तहत रिहा होने के योग्य और वास्तव में रिहा किये गए कैदियों की संख्या के बीच अंतर स्पष्ट किया गया है।
- वर्ष 2016 में धारा 436ए के तहत रिहाई के योग्य पाए गए 1,557 विचाराधीन कैदियों में से केवल 929 को ही रिहा किया गया था।
- साथ ही एमनेस्टी इंडिया के एक शोध में पाया गया है कि जेल अधिकारी अक्सर इस धारा से अनजान होते हैं और इसे लागू करने के इच्छुक नहीं होते हैं।
- जेल में अप्राकृतिक मौतें: जेलों में "अप्राकृतिक" मौतों की संख्या वर्ष 2015 और 2016 के बीच 115 से बढ़कर 231 हो गई है।
- कैदियों के बीच आत्महत्या की दर में भी 28% की वृद्धि हुई, यह संख्या वर्ष 2015 के 77 आत्महत्याओं से बढ़कर वर्ष 2016 में 102 हो गई।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने वर्ष 2014 में कहा था कि औसतन एक बाहर के व्यक्ति की तुलना में जेल में आत्महत्या करने की संभावना डेढ़ गुना अधिक होती है। यह भारतीय जेलों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं की भयावहता का एक संभावित संकेतक है।
- मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी: वर्ष 2016 में प्रत्येक 21,650 कैदियों पर केवल एक मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर मौजूद था, वहीं केवल छह राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में मनोवैज्ञानिक/मनोचिकित्सक मौजूद थे।
- साथ ही NCRB ने कहा था कि वर्ष 2016 में मानसिक बीमारी से ग्रसित लगभग 6,013 व्यक्ति जेल में थे।
- जेल अधिनियम, 1894 और कैदी अधिनियम, 1900 के अनुसार, प्रत्येक जेल में एक कल्याण अधिकारी और एक कानून अधिकारी होना चाहिये लेकिन इन अधिकारियों की भर्ती अभी भी लंबित है। यह पिछली शताब्दी के दौरान जेलों को मिली राज्य की कम राजनीतिक और बजटीय प्राथमिकता की व्याख्या करता है।
- विचाराधीन जनसंख्या: भारत की विचाराधीन कैदियों की आबादी दुनिया में सबसे अधिक है और वर्ष 2016 में सभी विचाराधीन कैदियों में से आधे से अधिक को छह महीने से भी कम समय के लिये हिरासत में लिया गया था।
जेल सुधार संबंधी सिफारिश
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अमिताभ रॉय समिति ने जेलों में सुधार के लिये निम्नलिखित सिफारिशें की हैं।
- भीड़-भाड़ संबंधी
- तीव्र ट्रायल: समिति की सिफारिशों में भीड़भाड़ की अवांछित घटनाओं को कम करने के लिये तीव्र ट्रायल को सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना गया है।
- वकील व कैदी अनुपात: प्रत्येक 30 कैदियों के लिये कम-से-कम एक वकील होना अनिवार्य है, जबकि वर्तमान में ऐसा नहीं है।
- विशेष न्यायालय: पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे अपराधों से निपटने के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिये।
- इसके अलावा जिन अभियुक्तों पर छोटे-मोटे अपराधों का आरोप लगाया गया है और जिन्हें ज़मानत दी गई है, लेकिन जो ज़मानत की व्यवस्था करने में असमर्थ हैं, उन्हें व्यक्तिगत पहचान (PR) बाॅॅण्ड पर रिहा किया जाना चाहिये।
- स्थगन से बचाव: उन मामलों में स्थगन नहीं दिया जाना चाहिये, जहाँ गवाह मौजूद हैं और साथ ही प्ली बारगेनिंग की अवधारणा, जिसमें आरोपी कम सज़ा के बदले अपराध स्वीकार करता है, को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- कैदियों के लिये
- अनुकूल ट्रांजीशन: प्रत्येक नए कैदी को जेल में अपने पहले सप्ताह के दौरान सहज महसूस करने के लिये परिवार के सदस्यों के साथ दिन में एक मुफ्त फोन कॉल की अनुमति दी जानी चाहिये।
- कानूनी सहायता: कैदियों को प्रभावी कानूनी सहायता प्रदान करने और उनको व्यावसायिक कौशल तथा शिक्षा प्रदान करने संबंधी आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिये।
- सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का प्रयोग: परीक्षण के लिये वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग का उपयोग।
- वैकल्पिक सज़ा: अपराधियों को जेल भेजने के बजाय न्यायालयों को अपनी ‘विवेकाधीन शक्तियों’ का उपयोग करने और यदि संभव हो तो ‘जुर्माना और चेतावनी’ जैसे दंड देने के लिये प्रेरित किया जा जा सकता है।
- इसके अलावा न्यायालयों को पूर्व-परीक्षण चरण में या योग्य मामलों में परीक्षण चरण के बाद भी प्रोबेशन पर अपराधियों को रिहा करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
- रिक्तियों को भरना
- सर्वोच्च न्यायालय को निर्देश पारित करते हुए अधिकारियों को तीन माह के भीतर स्थायी रिक्तियाँ भरने संबंधी भर्ती प्रक्रिया शुरू करने के लिये कहना चाहिये और प्रक्रिया एक वर्ष में पूरी की जानी चाहिये।
- भोजन संबंधी
- आवश्यक वस्तुओं को खरीदने, आधुनिक विधि से खाना पकाने की सुविधा और कैंटीन आदि की व्यवस्था की जानी चाहिये।
- वर्ष 2017 में भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि सात वर्ष तक की कैद वाले अपराधों के लिये अपनी अधिकतम सज़ा का एक-तिहाई समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को ज़मानत पर रिहा किया जाए।
संवैधानिक प्रावधान
- राज्य सूची का विषय: 'कारागार/इसमें रखा गया व्यक्ति' भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 4 के तहत राज्य सूची का विषय है।
- जेलों का प्रशासन और प्रबंधन संबंधित राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी होती है।
- हालाँकि गृह मंत्रालय जेलों और कैदियों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नियमित मार्गदर्शन तथा सलाह देता है।
- अनुच्छेद 39A: संविधान का अनुच्छेद 39A राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा है, जिसके अनुसार किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय पाने से वंचित नहीं किया जाना चाहिये और राज्य मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
- मुफ्त कानूनी सहायता या मुफ्त कानूनी सेवा का अधिकार संविधान द्वारा गारंटीकृत एक आवश्यक मौलिक अधिकार है।
- यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उचित, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण स्वतंत्रता का आधार बनाता है, जिसमें कहा गया है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा"।
प्रमुख शब्दावलियाँ
- विचाराधीन कैदी: इसके अंतर्गत उन कैदियों को रखा जाता है जिन्हें अभी तक उन पर लगाए गए अपराधों के लिये दोषी नहीं पाया गया है।
- निवारक निरोध: इसके अंतर्गत किसी व्यक्ति को संभावित अपराध करने से रोकने या सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से हिरासत में लिया जाता है।
- संविधान का अनुच्छेद 22 (3) (बी) राज्य की सुरक्षा और सार्वज़निक व्यवस्था बनाए रखने के लिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर निवारक निरोध तथा प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।
- इसके अलावा अनुच्छेद 22 (4) में कहा गया है कि निवारक निरोध के तहत हिरासत में लिये जाने का प्रावधान करने वाले किसी भी कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को तीन महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखने का अधिकार नहीं दिया जाएगा,
- एक सलाहकार बोर्ड द्वारा विस्तारित निरोध हेतु पर्याप्त कारणों के साथ रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है।
- ऐसे व्यक्ति को संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के प्रावधानों के अनुसार हिरासत में लिया जा सकता है।
- व्यक्तिगत पहचान बॉण्ड: इसे स्वयं के पहचान (Own Recognizance) बॉण्ड के रूप में जाना जाता है और कभी-कभी इसे "नो कॉस्ट बेल" (No Cost Bail) भी कहा जाता है। इस प्रकार के बॉण्ड के साथ एक व्यक्ति को हिरासत से रिहा कर दिया जाता है तथा उसे जमानत लेने की आवश्यकता नहीं होती है।
- हालाँकि वह निर्दिष्ट अदालत की तारीख को दिखाने के लिये ज़िम्मेदार हैं और उसे इस वादे को लिखित रूप में बताते हुए एक रिलीज़ फॉर्म पर हस्ताक्षर करना होगा।
- फिर व्यक्ति को अदालत में पेश होने और अदालत द्वारा निर्धारित रिहाई की किसी भी शर्त का पालन करने के उनके वादे के आधार पर हिरासत से रिहा कर दिया जाता है।