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भीड़ द्वारा की जा रही हत्याएँ: मूल अधिकारों का चीरहरण

  • 04 Jul 2017
  • 8 min read

बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक भारतीयों को एक धागे में पिरोने के कई कारण हैं। उपनिवेशवाद के विरुद्ध लम्बे संघर्ष की साझी यादें, चुनावों को उत्सव की तरह मनाने का भाव, क्रिकेट के लिये प्यार और बॉलीवुड के लिये पागलपन, ये कुछ ऐसे लक्षण हैं, जो कमोबेश सभी भारतीयों में पाए जाते हैं। फिर भी वह संविधान और संविधान प्रदत्त मूल अधिकार ही हैं, जो विविधताओं से भरे भारत में एकता का सूत्रपात करते हैं।

  • भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार अच्छे जीवन की आवश्यक और आधारभूत परिस्थितियों के लिये दिये गए हैं। ये मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में निहित हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा सर्वोच्च कानून के द्वारा की जाती है, जबकि सामान्य अधिकारों की रक्षा सामान्य कानून के द्वारा की जाती है।
  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता,लेकिन पिछले कुछ दिनों में भीड़ द्वारा हत्याओं के मामलों में उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिली है। अहम् सवाल यह है कि किसी व्यक्ति के जीवन के अधिकार को छीन लेना क्या उसके मूल अधिकारों का उल्लंघन नहीं है?

भारतीय संविधान में जीवन का अधिकार

  • संविधान में जीवन के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी में  रखा गया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है”।
  • अनुच्छेद 21, जो विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार होने वाली कार्यवाही को छोड़कर, जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता में राज्य के अतिक्रमण से बचाता है, के अर्थ को 1978 तक कार्यकारी कार्यवाही तक सीमित समझा गया था।
  • हालाँकि, 1978 में, मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के संरक्षण को विधाई कार्यवाही तक बढ़ाते हुए निर्णय दिया कि किसी प्रक्रिया को निर्धारित करने वाला कानून उचित, निष्पक्ष और तर्कसंगत होना चाहिये और अनुच्छेद 21 में निर्धारित प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से पढ़ा।
  • इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन का अर्थ मात्र एक जीव के अस्तित्व से कहीं अधिक है। मानवीय गरिमा के साथ जीना तथा वे सब पहलू जो जीवन को अर्थपूर्ण, पूर्ण तथा जीने योग्य बनाते हैं, इसमें शामिल है।
  • विदित हो कि इसके बाद की न्यायिक व्याख्याओं ने अनुच्छेद 21 के अंदर अनेक अधिकारों को शामिल करते हुए, इसकी सीमा का विस्तार किया है, जिनमें शामिल हैं आजीविका, स्वच्छ पर्यावरण, बेहतर स्वास्थ्य, अदालतों में त्वरित सुनवाई तथा कैद में मानवीय व्यवहार से संबंधित अधिकार। उल्लेखनीय है कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के अधिकार को 2002 के 86वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21ए के तहत मौलिक अधिकार बना दिया गया है।

कैसे हो रहा है अनुच्छेद 21 का चीरहरण ?

  • अनुच्छेद 21 की उपरोक्त व्याख्या के अनुसार भीड़ द्वारा किये जा रहे हमलों एवं हत्याओं को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के मौलिक अधिकार पर 'वीभत्स' हमले के रूप में देखा जा सकता है।
  • सबसे चिंता वाली बात यह है कि लोगों को उकसाया जाता है कि वे अन्य लोगों के मूल-अधिकारों की चिंता न करें, क्योंकि उन्हें पता है कि इस प्रकार की घटनाओं को मूल अधिकारों का उल्लंघन मानने के बजाय कोई सीट को लेकर विवाद का नाम देगा तो कोई आपसी कलह का कारण बताएगा और दोषी आराम से बच निकलेंगे।
  • उदाहरण के तौर पर हाल ही में झारखंड में भीड़ ने कथित तौर पर गौमांस ले जा रहे एक वाहन के चालक को पीट-पीटकर मार डाला। होना यह चाहिये था कि दोषियों पर जीवन के मौलिक अधिकार के उल्लंघन का चार्ज लगाया जाए और उन्हें कड़ी सज़ा दी जाए, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज इस मुद्दे पर संविधान की गरिमा बनाए रखने के बजाय बस राजनीति हो रही है।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • हम अपनी सभ्यता पर चाहे जितना गर्व कर लें, अपनी उपलब्धियों पर चाहे जितना इठला लें, यह एक कठोर सत्य है कि हम और हमारा समाज बेहद हिंसक और बर्बर हैं। कहीं गाय के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं बेईमानी और शको-सुबहा से ग्रस्त भीड़ हत्या पर उतारू होने लगी है।
  • यह सिलसिला कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जारी है। इससे भी खतरनाक वह रवैया है, जो इन हत्याओं को किंतु-परंतु-लेकिन लगाकर सही ठहराता है। इस तरह की घटनाओं पर तभी अंकुश लगाया जा सकता है, जब हम इन्हें मूल-अधिकारों के उल्लंघन के तौर पर देखेंगे और कानून दोषियों को सज़ा देगा। आज अनुच्छेद 21 का दायरा काफी व्यापक हो गया है। अतः ज़रूरी है न्यापालिका भी सक्रियता दिखाए।
  • दरअसल, इस हत्यारी मानसिकता को जो शह मिल रही है, उसके पीछे एक दकियानूसी और घृणा पर आधारित राजनीतिक सोच है। यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का संकेत है। नृशंस हत्याओं के बावजूद हत्यारों और उनके समर्थकों में पछतावा का कोई भाव नहीं है।
  • यह सब जो हो रहा है, उसे महज आपराधिक कृत्य मानकर सामान्य कानूनों के तहत कार्यवाई करना शायद ही कोई बदलाव ला पाए। अतः हमें इन्हें मूल-अधिकारों का उल्लंघन मानते हुए देश के सर्वोच्च कानूनों के तहत कार्यवाई करनी होगी।

निष्कर्ष
यह भी सच है कि हिंसक लोगों की संख्या आज भी कम है, पर उनके अपराध में शामिल होना, उसे जायज़ ठहराना या फिर चुप्पी लगा लेना भी तो उनके मनोबल को बढ़ाता है। यदि इस प्रवृत्ति को तुरंत नहीं रोका गया, तो यह देश तबाह हो जाएगा। नफरत की नाव पर बैठकर न तो हम देश की एकता और अखंडता को बचा सकेंगे और न ही विकास और समृद्धि के सपनों को साकार कर पाएंगे। धर्म, जाति, व्यवसाय और वैचारिक भिन्नता के आधार पर हो रहा यह हत्याकांड वास्तव में देश पर आत्मघाती हमला है। राजनीति के शीर्ष से लेकर आम नागरिक के स्तर तक आज गहन आत्ममंथन की आवश्यकता है। भारत को आदमखोर भीड़तंत्र में बदलने से रोकने के लिये हम सभी को तुरंत पहल करनी होगी।

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